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भेड़ाघाट

Thursday, June 30, 2011

उजाले के नाम पर मध्य प्रदेश को लूट रहा एस कुमार्स समूह



विनोद उपाध्याय
मध्यप्रदेश सरकार ने जिन परियोजनाओं के बलबुते वर्ष 2013 से प्रदेश में 24 घंटे विद्युत का प्रदाय की घोषणा की है उसमें से एक है 400 मेगावॉट की महेश्वर जल विद्युत (हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट) परियोजना। यह परियोजना शुरू से ही विवादों में रही है और अभी भी इसका विवादों से पीछा नहीं छूटा है। इसके पीछे मुख्य वजह है इस परियोजना की निर्मात्री कंपनी एस कुमार्स की नीयत। उल्लेखनीय है कि खरगौन जिले में बन रही महेश्वर जल विद्युत परियोजना निजीकरण के तहत कपड़ा बनाने वाली कम्पनी एस. कुमार्स को दी गई है।
राहत और पुनर्वास में हो रही देरी के साथ-साथ वित्तीय अनियमितताओं से घिरी यह परियोजना समय पर पूरी हो जाएगी ऐसा लगता नहीं है। 1986 में केन्द्र एवं राज्य से मंजूर होने वाली महेश्वर परियोजना को शुरू में लाभकारी माना गया था और उसकी लागत महज 1673 करोड़ रुपए ही थी जो अब बढ़कर 2233 करोड़ हो गई है। सरकार ने बाद में 1992 में इस परियोजना को एस कुमार्स नामक व्यावसायिक घराने को सौंप दिया। उसी समय से यह कंपनी परियोजना से खिलवाड़ कर रही है। बावजूद इसके एस कुमार्स समूह पर राज्य सरकार फिदा है। मध्यप्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम के करोड़ों के कर्ज में डिफाल्टर होने के बावजूद सरकार ने महेश्वर हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट के लिए पॉवर फाइनेंस कार्पोरेशन के पक्ष में कंपनी की ओर से सशर्त काउंटर गारंटी दी और बाद में इसे शिथिल करवा कर सरकार की गारंटी भी ले ली। उसने इंटर कारपोरेट डिपाजिट (आईसीडी) स्कीम का कर्ज भी नहीं चुकाया। यह मामला मप्र विधानसभा में भी उठ चुका है।
राज्य शासन ने एस कुमार गु्रप को इंटर कारपोरेट डिपाजिट के तहत दिए गए 84 करोड़ रूपए बकाया होने के बावजूद महेश्वर पॉवर प्रोजेक्ट के लिए 210 करोड़ रूपए की गारंटी क्यों दी? महेश्वर पॉवर कार्पोरेशन ने चार सौ करोड़ रूपए के ओएफसीडी बाण्ड्स जारी करने के लिए कंपनी के पक्ष में पीएफसी की डिफाल्ट गारंटी के लिए काउंटर गारंटी देने का अनुरोध सरकार से किया गया था। तीस जून 2005 को सरकार ने कंपनी के प्रस्ताव का सशर्त अनुमोदन कर दिया। इसमें शर्त यह थी कि गारंटी डीड का निष्पादन बकाया राशि के पूर्ण भुगतान का प्रमाण-पत्र प्राप्त होने के पश्चात ही किया जाए।
13 सितम्बर 2005 को इस शर्त को शिथिल करते हुए सरकार ने केवल समझौता आधार पर ही मान्य करने का अनुमोदन कर दिया। इस समझौता योजना के तहत एमपीएसआईडीसी ने 23 सितम्बर 2005 को सूचना दी कि समझौता होने से विवाद का निपटारा हो गया है। बस इसी आधार पर महेश्वर हाईड्रल पॉवर कारपोरेशन ने काउंटर गारंटी का निष्पादन कर दिया।
अनुमोदन के बाद एस कुमार्स की एक मुश्त समझौता नीति के अंतर्गत समझौते की शर्र्तो में संशोधन किया गया था, जिनका न पालन और न ही पूर्ण राशि का भुगतान किया गया। एकमुश्त समझौते के उल्लघंन के बाद अब एस कुमार्स ने दुबारा एकमुश्त समझौते के लिए आवेदन किया गया है। उल्लेखनीय है कि आईसीडी के 85 करोड़ के कर्ज के एकमुश्त समझौता योजना के तहत भुगतान के लिए 77 करोड़ 37 लाख रूपए एस कुमार्स को चुकाना थे। इसमें से कंपनी ने 22 करोड़ 9 लाख रुपए चुकाए है। शेष राशि के चेक बाउंस हो गए। इसके लिए न्यायालय में प्रकरण चल रहा है।
इस संबंध में प्रदेश सरकार द्वारा विधानसभा में जानकारी दी गई है कि एस कुमार्स के साथ एमपीएसआईडीसी के विवाद का निपटारा हो गया है जबकि अभी विवाद बरकरार है। विभागीय अधिकारी बताते हैं कि एमपीएसआईडीसी के साथ एस कुमार्स ने समझौता किया था, जिसके अनुरूप भुगतान नहीं हुआ। साठ करोड़ से अधिक की राशि की वसूली बाकी है। चेक बाउंस का मामला भी कोर्ट में है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक अग्रवाल बताते हैं कि 2005 में हमने महेश्वर विद्युत परियोजना को फौरन रद्द करने की मांग की थी। हमने रिजर्व बैंक से कहा था कि वह महेश्वर परियोजना के हालात की जांच सीबीआई से कराए। आंदोलन ने राज्य सरकार द्वारा महेश्वर परियोजना को गारंटी देने और औद्योगिक विकास निगम की बकाया राशि की वसूली में छूट देने को गलत बताया है। आंदोलन का कहना है कि जिस संस्था पर धन बकाया होने की वजह से उसकी संपत्ति कुर्क हुई हो, उसको वसूली में छूट देना गैर कानूनी है।
अग्रवाल ने बताया कि राज्य सरकार ने परियोजना कर्ताओं को यह छूट दे दी है कि वे मय ब्याज 2009 तक पैसा वापस करें। परियोजना कर्ताओं द्वारा सार्वजनिक धन की बर्बादी के सबूतों के बाद भी सरकार का यह कदम राज्य को बर्बादी की ओर ढकेलने वाला है। सीएजी सहित कई संस्थाएं इस परियोजना से जुड़ी कम्पनी को कटघरे में खड़ा कर चुकी हैं।
आंदोलन का कहना है कि देश के बड़े उद्योगों द्वारा बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के 80 हजार करोड़ से भी अधिक की सार्वजनिक पूंजी डुबा दी गई है। भारतीय रिजर्व बैंक के आदेश के मुताबिक 25 लाख रुपये से अधिक के बकायेदार को कोई भी बैंक या वित्तीय संस्था और धन नहीं दे सकती है। बकाया राशि के एक करोड़ रुपये से अधिक होने पर रिजर्व बैंक इसकी सूचना सीबीआई को देती है और सीबीआई मामला दर्ज कर कार्रवाई करती है।
परियोजना कर्ता के साथ हुए राज्य शासन के समझौते के मुताबिक बिजली बने या न बने, बिके या न बिके लेकिन परियोजना कर्ता को हर साल 400-500 करोड़ रुपये 45 साल तक दिए जाते रहेंगे यानी इस समझौते के मुताबिक आम जनता के लगभग 15 हजार करोड़ रुपये का सौदा किया गया है। साथ ही परियोजना से प्रभावित होने वाले हजारों परिवारों को नीति अनुसार पुनर्वास की
आंदोलन ने भारतीय रिजर्व बैंक और केन्द्रीय वित्त मंत्रालय से भी मांग की है कि वे परियोजना से संबंधित गंभीर वित्तीय अनियमितताओं के बारे में सीबीआई से जांच कराये। सार्वजनिक धन के साथ अनियमितताएं उजागर होने के बावजूद किसी संस्था द्वारा परियोजनाकर्ता के लाभ के लिये धन देना भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत दंडनीय होगा। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने वर्ष 2002 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महेश्वर जल विद्युत परियोजना के लिए परियोजनाकार कंपनी एस. कुमार्स को 330 करोड़ रुपए की गारंटी दिए जाने के मामले में भारी भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए इस गारंटी को तत्काल वापस लेने की मांग की थी।
आंदोलन के कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल के मुताबिक पहले से ही अनेक वित्तीय अनियमितताओं से घिरी इस परियोजना को यह गारंटी देना प्रदेश की जनता के हित को एक निजी कंपनी के हाथों गिरवी रखने के बराबर है। कंगाल सरकार जो अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दे पा रही है। इतना बड़ा फैसला किसके हित के लिए ले रही है क्योंकि यह सभी जानते हैं कि महेश्वर परियोजना जनता के हितों के खिलाफ है।
आंदोलन का आरोप है कि एस. कुमार्स कंपनी और महेश्वर परियोजना दोनों ही गंभीर आरोपों के घेरे में हैं। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने अपनी 1998 एवं 2000 की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि परियोजनाकर्ता पर मध्यप्रदेश विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण का करोड़ों रुपया बकाया है। यह पैसा आज तक वापस नहीं किया गया है। यही नहीं मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास निगम ने एस. कुमार्स की एक सहयोगी कंपनी को नियम विरुद्ध दिए गए करोड़ों रुपए के ऋण के लिए संपत्ति कुर्की की कार्रवाई की है।
निगम ने एस. कुमार्स की इन्दज इनरटेक लि. को 1997-98 में 8 करोड़ 2 लाख और 1999-2000 में 44 करोड़ 75 लाख रुपए दिए थे। लघु अवधि के होने के बावजूद भी इन ऋणों की अदायगी नहीं की गई। इसके अलावा यह भी स्पष्ट हो चुका है कि महेश्वर परियोजना के लिए मिले धन में से करीब 106 करोड़ 40 लाख रुपए इस कंपनी ने उन कंपनियों को दे दिए हैं , जिनका इस परियोजना से कोई लेना-देना नहीं था।
आंदोलन के मुताबिक भारतीय रिजर्व बैंक ने भी स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी कर चेतावनी दी है कि पैसा वापस न करने वाली कंपनियों एवं संस्थाओं को कोई भी नया ऋण नहीं दिया जाए। तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने भी यही राय जाहिर की थी। फिर भी मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महेश्वर परियोजना के लिए 330 करोड़ की गारंटी देना कई सवाल खड़े करता है। आंदोलन ने सवाल उठाया है कि एक ओर सरकार का एक विभाग अपने रुपए वसूलने के लिए कुर्की का आदेश लिए घूम रहा है , वहीं दूसरी ओर सरकार स्वयं अरबों की गारंटी दे रही है। इस मामले की उच्च स्तरीय जांच की जानी चाहिए और यह तथ्य सार्वजनिक किया जाना चाहिए कि किन कारणों के चलते राज्य सरकार ने यह गारंटी दी है।
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Tuesday, June 21, 2011

गुटबाजी या टकराव के शिकार बने पंवार




विनोद उपाध्याय

चंबल रेंज में अपनी पदस्थापना के दौरान डकैत उन्मूलन की दिशा में किए गए उल्लेखनीय कार्यों के लिए टाइगर की उपाधि से विभूषित अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक वीरेंद्र कुमार पंवार का निलंबन विवादों में फंसता जा रहा है। पंवार आईपीएस अधिकारियों की गुटबाजी या पीएचक्यू और गृह मंत्रालय के टकराव का शिकार बने हैं यह शोध का विषय बन गया है। उल्लेखनीय है कि भारतीय पुलिस सेवा के वर्ष 1977 बैच के अधिकारी वीके पंवार को 31 जनवरी 2004 में डकैतों के साथ हुई एक संदिग्ध मुठभेड़ के दौरान श्योपुर के सहायक उप निरीक्षक दिवारीलाल रावत की मौत का दोषी मानते हुए राज्य सरकार ने 17 फरवरी 2011 को निलंबित कर दिया है। कायदे-कानूनों को दरकिनार कर पंवार को निलंबित किए जाने का मामला अब सरकार के गले की फांस बन गया है।
वैसे देखा जाए तो अपनी दबंग कार्यशैली के कारण पंवार अपनों (आईपीएस अधिकारियों) की गुटबाजी के शिकार होते रहे हैं। पिछले कुछ सालो से तो प्रदेश पुलिस में आईपीएस अफसरों की गुटबाजी अब सतह पर है। इसके चलते इनमें एक-दूसरे की तरक्की की राह में बाधा पैदा करने की होड़ भी पैदा हो गई है। शायद इसी होड़ का नतीजा है कि पंवार को हर समय निशाना बनाया जाता रहा है। वीके पंवार जब जेल महानिदेशक थे तो यह खबर प्रकाशित करवाई गई की भोपाल की सेंट्रल जेल में अपनी कथित भांजी वसंधुरा बलात्कार व हत्या कांड के मुख्य आरोपी अशोक वीर विक्रम सिंह उर्फ भैया राजा के साथ जेल महानिदेशक एवं उनके मातहतों ने जम कर ठुमके लगाए। भैया राजा की छवि आतयायी व डॉन की रही है। उन्हें इस तरह जेल में वीआईपी ट्रीटमेंट मिलने से जेल की हकीकत उजागर हुई। बताया जाता है कि उक्त कार्यक्रम में जेल अधीक्षक के अलावा जेल महानिदेशक के हमशक्ल व जेल के उप अधीक्षक पीके सिंह भी शामिल थे। श्री सिंह के छायाचित्र को जेल महानिदेशक के रूप में प्रचारित किया गया। बताया जाता है कि पंवार इस कार्यक्रम में शामिल ही नहीं हुए,बल्कि उस वक्त वह मंत्रालय में आयोजित एक बैठक में थे। लेकिन उनके हमशक्ल जेल उपअधीक्षक पीके सिंह की आड़ में उनका नाम इस कृत्य से जोड़े जाने की साजिश आईपीएस अफसरों की गुटबाजी को उजागर करती है। इससे पहले पुलिस विभाग की अग्निशमन शाखा में हौज पाइपों की खरीदी में हुई कथित अनियमितताओं को लेकर भी उनका नाम उछाला गया था। बताया जाता है कि यह खरीदी निर्धारित प्रक्रिया के तहत की गई थी। इसमें विभाग के वरिष्ठ अधिकारी की लिखित स्वीकृति भी शामिल थी।
आधारहीन आरोपों के कारण पंवार का पूरा कैरियर ही दांव पर लग गया है। उनके बैचमेट महानिदेशक हैं, लेकिन उनकी एक साल से पदोन्नति रुकी है। बेहतर कार्यशैली के बावजूद बार-बार तबादलो की गाज झेल रहे पंवार को अब सात साल पुराने मुठभेड़ के एक मामले में आनन-फानन में निलंबित कर दिया गया। शिवपुरी जिले के चर्चित सहायक उप निरीक्षक दिवारीलाल रावत की कथित मुठभेड़ में हुई मौत के मामले में एडीजी पंवार को पांच साल बाद क्यों निशाना बनाया गया इसे लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं।
श्योपुर जिले के गोरस कलमी रोड इलाके में 31 जनवरी 2004 को दस हजार रुपए के ईनामी डकैत महावीरा जाट गिरोह से हुई कथित मुठभेड़ में संदेहजनक स्थिति में एएसआई दिवारीलाल रावत की मौत हो गई थी। तत्कालीन आईजी वी.के. पंवार ने डकैत महावीरा जाट को दबोचने के लिए ग्राम रक्षा समिति के थानेदार हरीश शर्मा के नेतृत्व में दस्यु विरोधी दल का गठन किया गया था। दल में एएसआई दिवारीलाल रावत, आरक्षक राजकुमार, राजाराम, हरिराम तथा चालक बहादुर सिंह चौहान को शामिल किया गया था। कथित मुठभेड़ के बाद दल के सदस्य दिवारीलाल को घायलावस्था में श्योपुर के करुणा मेमोरियल अस्पताल लेकर आए थे, उस समय उसकी मौत हो चुकी थी। इस घटना की सूचना पर आईजी ने तत्कालीन रेंज डीआईजी जीआर मीणा को घटनास्थल पर भेजकर जांच के निर्देश दिए थे। घटना के तीन दिन बाद आईजी का मुख्यालय तबादला कर दिया गया था। इस घटना की राज्य सरकार ने न्यायिक जांच के आदेश जारी कर बीएम गुप्ता सेवानिवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश की अध्यक्षता में एक सदस्यीय जांच आयोग गठित किया था। आयोग द्वारा 31 जनवरी 2006 को राज्य शासन को अपनी रिपोर्ट सौंप दी गई।
पांच साल तक आयोग की रिपोर्ट राज्य शासन के पास लंबित रही। आयोग की रिपोर्ट का परीक्षण करने के लिए इस साल विधि-विधायी मंत्री नरोत्तम मिश्रा की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय मंत्रियों की उप समिति गठित की गई थी। समिति की अनुशंसा के आधार पर श्री पंवार को 17 फरवरी को निलंबित किया गया था। निलंबन के 45 दिन बाद राज्य शासन द्वारा आरोप पत्र जारी नहीं करने के कारण 6 अप्रैल को श्री पंवार ने एडीजी सामुदायिक पुलिसिंग के पद पर कार्यभार ग्रहण कर लिया हैै। निलंबन आदेश मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव की स्वीकृति के बगैरजारी किया गया था, जो नियमानुसार गलत है। सीएम ने 1 मार्च को इस आदेश पर कार्योत्तर स्वीकृति दी है, इसके बाद आदेश पर कैबिनेट में मंजूरी दी गई। हालांकि यह मामला अखबारों की सुर्खियों में आने के बाद शासन ने वी.के. पंवार समेत अन्य अधिकारी तथा कर्मचारियों (सेवानिवृत्त एसडीओपी टीएस नागराज को छोड़कर) को आरोप-पत्र जारी कर दिया है, लेकिन निलंबन की गाज सिर्फ पंवार पर गिरी है। दिवारीलाल रावत की मौत के मामले में न्यायिक जांच आयोग ने दस्यु विरोधी दल के खिलाफ कार्रवाई न करने के कारण को तत्कालीन आईजी वी.के. पंवार की लापरवाही बताया था, जबकि उपसमिति ने अपनी अनुशंसा में इसे साजिश निरुपित किया, जिसे आधार बनाकर निलंबन आदेश जारी किया गया। उधर पंवार के निलंबन के बाद 45 दिन की समयावधि में सरकार आरोप पत्र नहीं दे सकी। जबकि कैट ने इस निलंबन आदेश को गलत बताया है। अखिल भारतीय सेवा अधिनियम के अनुसार इस समयावधि में आरोप-पत्र नहीं किए जाने से निलंबन आदेश स्वत: ही निरस्त माना जाता है। इसी नियम के तहत पंवार ने मुख्यालय में कार्यभार ग्रहण कर लिया।
उल्लेखनीय है कि सरकार द्वारा संसदीय कार्यमंत्री नरोत्तम मिश्रा की अध्यक्षता में गठित उप समिति की अनुशंसा पर श्री पंवार के निलंबन के आदेश किए गए थे। श्री पंवार ने इस आदेश के खिलाफ कैट में याचिका दायर की थी। कैट ने सुनवाई के दौरान माना कि निलंबन आदेश मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव की स्वीकृति के बगैर जारी किया गया है, जो विधि सम्मत नहीं है। मुख्यमंत्री ने 1 मार्च को इस आदेश पर कार्योत्तर स्वीकृति दी है, इसके बाद इस आदेश पर केबिनेट में मंजूरी दी गई। सूत्रों के मुताबिक दिवारीलाल रावत की मौत के मामले में न्यायिक जांच आयोग ने अपनी अनुशंसा में इसे साजिश निरुपित किया था। जिसे आधार बनाकर निलंबन आदेश जारी किया गया। सूत्रों के मुताबिक आरोप पत्र के लिए पर्याप्त साक्ष्य न होने तथा इस मामले में केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा निलंबन की अनुशंसा नहीं किए जाने के कारण 45 दिन की समयावधि में आरोप पत्र जारी नहीं किया गया। सूत्रों के मुताबिक सरकार अभी भी आरोप पत्र जारी कर सकती है। लेकिन यह फिर सरकार के लिए किरकिरी साबित हो सकता है। केंद्रीय गृह मंत्रालय और कैट निलंबन के कारणों से सहमत नहीं है, इस स्थिति में आरोप पत्र जारी करना सरकार के लिए मुसीबत बन सकता है। सूत्रों का कहना हैै कि किसी भी प्रकरण में न्यायिक जांच आरोप की रिपोर्ट के स्वरूप को बदला नहीं जा सकता है। इसी कारण चार साल से आयोग के प्रतिवेदन पर शासन स्तर पर कोई कार्रवाई नहीं की गई थी, लेकिन राज्य शासन द्वारा आनन-फानन में सिर्फ वी.के. पंवार के खिलाफ निर्णय से आईपीएस अफसर भी अचंभित हैं।
उप समिति की अनुशंसा पर सरकार ने एडीजी वी.के. पंवार को निशाना बनाते हुए उन्हें निलंबित तो कर दिया, लेकिन आयोग की रिपोर्ट में लापरवाही, उदासीनता, कदाचरण जैसे मामलों में अन्य के खिलाफ निलंबन की कार्रवाई नहीं की गई। कुछ अधिकारियों की कार्यशैली पर तो आयोग की रिपोर्ट में भी गंभीर टिप्पणी की है, बावजूद तमाम अधिकारी-कर्मचारियों के खिलाफ उपसमिति द्वारा कार्रवाई की अनुशंसा नहीं की गई। हालांकि मामले के तूल पकडऩे के बाद शासन ने इस मामले में शामिल अधिकारी-कर्मचारियों को भी आरोप-पत्र जारी कर दिया है। कहीं आईएएस अफसरों को खुश करने के लिए पंवार को निलंबित नहीं किया गया है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में कई आईएएस पर गाज गिर चुकी है।
एक वरिष्ट पुलिस अधिकारी कहते हैं कि लगता है कि प्रदेश पुलिस कर्तव्यनिष्ठा का ककहरा भूल चुकी है। आदेश और अनुशंसाओं का समुचित पालन तो दूर आपराधिक नजर आने वाली अनदेखी भी आम हो चली है। हालात इतने बिगड़ चुके हैं कि गृह मंत्रालय पुलिस मुख्यालय को उसका दायरा बताने की तैयारी कर रहा है। प्रदेश सरकार अब पुलिस मुख्यालय को उसकी हद और दायरा बताने जा रही है। वे कहते हैं कि सहायक उप निरीक्षक दिवारीलाल रावत की संदेहास्पद मौत के मामले में राज्य सरकार ने वीके पवार को निलंबित किया था। रावत की मौत एक दस्यु मुठभेड़ में होना बताई गई थी। उस दौरान पवार ग्वालियर-चंबल जोन में आईजी थे। दस्यु विरोधी पुलिस बल सीधे उनके नियंत्रण में काम करता था। जांच रिपोर्ट के आधार पर राज्य सरकार ने उन्हें निलंबित कर दिया था, लेकिन छह अप्रैल को उन्होंने बिना किसी सरकारी आदेश के पुलिस मुख्यालय में एकतरफा कार्यभार ग्रहण कर लिया। इस मामले में अब तक खामोश रही राज्य सरकार अब कार्रवाई करने जा रही है। गृह मंत्रालय का तर्क है कि पवार को गृह विभाग में ज्वाइनिंग देनी थी, पीएचक्यू ने उन्हें ज्वाइन करवाकर गलती की है। यह कहना गलत है कि 45 दिन में आरोप-पत्र नहीं दिया गया, तो निलंबन स्वत: समाप्त हो जाता है। नियमानुसार 90 दिन में भीतर निलंबित अधिकारी को आरोप-पत्र दिया जा सकता है, जबकि सरकार ने इस अवधि के पहले ही उन्हें आरोप-पत्र दे दिया था। इस बारे में अब कानून की किताबें खंगाली जा रही हैं।
यह पहला मामला नहीं है, जब पीएचक्यू और गृह मंत्रालय के बीच अधिकारों को लेकर विवाद गहराया हो। इसके पूर्व भी पीएचक्यू ने कुछ आईपीएस अफसरों की पदस्थापना अपने स्तर पर कर दी, जबकि गृह विभाग ने उन्हें कहीं और पदस्थ किया था। तब गृह विभाग के तत्कालीन एसीएस विनोद चौधरी ने पीएचक्यू को उसके दायरे बताते हुए स्पष्ट आदेश दिया था कि पीएचक्यू अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर कार्य न करे। गृह विभाग अब फिर से पीएचक्यू को कुछ ऐसा ही पाठ पढ़ाने की तैयारी में है।
पुलिस मुख्यालय ने श्री पवार द्वारा एक तरफा आमद दिए जाने की रिपोर्ट राज्य सरकार को भेज दी है। लेकिन नए नियम के कारण राज्य सरकार मुश्किल में पड़ गई है। जानकारी के अनुसार वर्ष 2009 में केंद्र सरकार द्वारा अखिल भारतीय सेवा नियमों में व्यापक परिवर्तन किया गया है। इसके तहत अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों के निलंबन के बाद राज्य सरकार को पैंतालीस दिनों के भीतर आरोप पत्र देना जरूरी है। पैंतालीस दिन के बाद राज्य सरकार आरोप पत्र तो जारी कर सकती है, लेकिन निलंबन अवधि को केंद्र सरकार की अनुमति के बिना नहीं बढ़ा सकती। केंद्र सरकार ने वीके पवार के मामले में राज्य सरकार को अभी तक कोई अनुमति नहीं दी है। ऐसे में यदि राज्य सरकार पवार को निलंबित रखती है, तो उन्हें न्यायालय में इसका लाभ मिल सकता है। वैसे भी वीके पवार के निलंबन के मामले में राज्य सरकार ने काफी जल्द बाजी दिखाई थी। मुख्यमंत्री से अनुमोदन की प्रत्याशा में उन्हें निलंबित कर दिया गया था। निलंबन के एक सप्ताह बाद मुख्यमंत्री से फाइल में अनुमोदन लिया गया, इसी कारण केंद्र सरकार को प्रस्ताव भेजने में देरी हुई। संभवत:इसी कारण केंद्र ने राज्य सरकार के प्रस्ताव को तबज्जो नहीं दी।

क्या कहती है रिपोर्ट
>> चंबल रेंज के तत्कालीन आईजी वीके पंवार ने डकैत महावीरा जाट के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए दस्यु विरोधी दल का गठन कर उसमें रावत को सोची-समझी नीति के तहत शामिल किया। रावत की मृत्यु डकैतों से मुठभेड़ में नहीं हुई थी।
>> श्री पंवार द्वारा मुहिम में असावधानी के लिए 15 दिन पहले श्री रावत को निलंबित करना और फिर बिना किसी जांच-पड़ताल के बहाल कर डाकू विरोधी दल में शामिल करना अविवेक पूर्ण था।
>> तत्कालीन डीआई जी गाजीराम मीणा द्वारा पुलिस महानिदेशक को वर्ष 2004 में 6 एवं 7 फरवरी को दो रिपोर्ट भेजने और इसमें तथ्य अलग-अलग होने का औचित्य क्या है?
तत्कालीन एसपी सीएस मालवीय ने इस मामले की जानकारी आईजी से मिलने के बावजूद तुरंत थाना प्रभारी को इससे अवगत नहीं कराया। वे डीआईजी को भी कथित मुठभेड़ की जानकारी तत्काल न देने के लिए जिम्मेदार हैं। मालवीय घटनास्थल पर मुठभेड़ के निशान न मिलने के बावजूद दल गठित कर उससे फायरिंग कराने सहित कर्तव्य पालन में कोताही बरतने के दोषी हैं।
उस समय के एसडीओपी टीएस नागराज ने डीआईजी द्वारा जांच सौंपने पर भी स्वतंत्र एवं निष्पक्ष जांच रिपोर्ट नहीं दी। तत्कालीन थाना प्रभारी डीएस परिहार ने झूठी रिपोर्ट करने पर पुलिसकर्मियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की। एसपी के आदेश पर कथित मुठभेड़ दिखाई और फायरिंग कराई। वे कर्तव्य पालन में उदासीनता बरतने और शून्य पर कायमी कर एक हफ्ते तक रिपोर्ट राजस्थान के किशनगंज थाने न भेजने के दोषी हैं।
ग्राम रक्षा समिति के अधिकारी का क्षेत्राधिकार संबंधित जिले तक सीमित होता है, लेकिन सबइंस्पेक्टर हरीश शर्मा को दस्यु विरोधी दल में शामिल कर अन्य जिलों में भेजना विशेष उद्देश्य की पूर्ति का परिचायक है। दल के सदस्यों द्वारा मुठभेड़ का घटनास्थल बदलने, सत्यता छिपाने और साक्ष्य परिवर्तित करने के प्रयासों के बावजूद उन पर किसी तरह की वैधानिक एवं अनुशासनात्मक कार्रवाई न करना श्री पंवार की लापरवाही को इंगित करता है।
हरीश शर्मा गलत घटनास्थल बताने और सत्य घटना छिपाने के लिए जिम्मेदार हैं। दल के अन्य सदस्यों ने भी श्री शर्मा की बात का समर्थन कर आपसी साजिश कर गंभीर कदाचरण किया है, कर्तव्यों के पालन में उदासीनता बरती है। शर्मा ने राजस्थान की सीमा में प्रवेश कर डकैत महावीरा जाट को पकडऩे के लिए मुठभेड़ की सूचना राजस्थान पुलिस को नहीं दी।
प्रशंसा भी
आयोग ने गाजीराम मीणा को इस बात के लिए सराहा है कि वे घटनास्थल पर तत्परता से पहुंचे। उन्होंने ही डॉक्टरों के पैनल से शव परीक्षण कराकर यह तथ्य उजागर कराया कि श्री रावत की संदिग्ध मौत 9एमएम पिस्टल की गोली लगने से हुई है।

वाजपेयी के बाद लीडर नंबर 1...?






विनोद उपाध्याय

भाजपा भगवान भरोसे है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी भी कुछ नहीं कर पा रहे है। हां, मेहनत वे खूब कर रहे है। लेकिन भाजपा की फसल मरी हुई है, बतौर प्रमाण पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे है। करीब इकतीस साल की युवा भाजपा जिसका उदय भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ की ओर ऐतिहासिक मोड़ माना गया, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी ने करीब छह साल तक सत्ता के शिखर पर बैठाया। अब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सक्रिय राजनीति से रिटायर हो चुके हैं तो दूसरी तरफ लालकृष्ण आडवाणी रिटायर होने के मुकाम पर आ पहुंचे हैं। ऐसे में भाजपा आज पूरी तरह नेता विहिन नजर आ रही है।
2012 में होने वाल उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव की आहट के साथ ही पार्टी को 2014 के लोकसभा चुनाव का भूत सताने लगा है,क्योंकि राजनीतिक विश£ेषकों का मानना है की केन्द्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही होकर जाएगा। ऐसे में पार्टी को एक ऐसे नेता की तलाश है जो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह सभी वर्गो को ग्राह्य हो। वैसे तो पार्टी में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नेताओं में लालकृष्ण आडवानी,सुषमा स्वराज,अरूण जेटली और नरेन्द्र मोदी शामिल हैं,लेकिन इन सब की छवि साम्प्रदायिक और विवादास्पद है। यानी इन नेताओं के सहारे इस गठबंधन की राजनीति के दौर में सत्ता का ख्वाब तो देखा जा सकता है लेकिन पाना मुश्किल होगा।
भाजपा केन्द्र की सत्ता में आयी तो देश का अगला प्रधानमंत्री कौन बनेगा। अलट बिहारी बाजपेयी के बाद भाजपा में यदि सबसे बड़ा कोई नाम है तो वह है लालकृष्ण आडवानी। हालांकि आडवानी के नाम पर पार्टी के अधिकांश सदस्य खुले दिल से सहमति नहीं दे पा रहे हैं। अस्सी पार आडवाणी यूं तो पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान ही यह कह चुके हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में वह उम्मीदवार नहीं होंगे। लालकृष्ण आडवानी भले ही उप प्रधानमंत्री के पद पर रह चुके हों परन्तु पार्टी का कोई भी नेता उन्हें एक अच्छा प्रधानमंत्री नहीं मानता है। पार्टी में आडवानी की छवि एक कट्टरवादी नेता की है जो किसी भी परिस्थति में झुकने को तैयार नहीं होता। राजनेताओं का कहना है कि लोकतंत्र के लिए यह बेहतर संकेत नहीं है और वह भी ऐसी दशा में जब सरकार जोड़तोड़ कर बनायी जाए। भाजपा नेता यह मानते हैं कि देश की सत्ता में आने के लिए उसे कई अन्य दलों का साथ लेना होगा जिसके लिए बहुत सयंम रखना पड़ता है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए पार्टी चाहती है कि प्रधानमंत्री पद पर के लिए ऐसा नाम चयन किया जाए जो सभी घटक दलों में सामंजस बनाकर देश चलाए।
प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में सुषमा स्वराज व अरूण जेटली का नाम तेजी से उभर कर सामने आ रहा है। लम्बे समय से पार्टी में काम कर रही तेज तर्रार नेता सुषमा स्वराज को प्रबल दावेदार कहा जा रहा है लेकिन लेकिन संघ परिवार महिलाओं को नेतृत्व में आगे रखने के लिए नहीं जाना जाता। जबकि दूसरे नम्बर पर अरूण जेटली हैं जिनके समर्थन में राजनाथ सिंह पहले ही तैयार हो चुके हैं। राजनाथ सिंह का प्रयास होगा कि उनके समर्थक जेटली के पक्ष में हामी भरे। उधर मुरली मनोहर जोशी भी अपने समर्थन में वोट जुटाने का प्रयास कर रहे हैं। पार्टी में फायरब्रा़ंड नेत्री उमा भारती भी लौट आईं हैं लेकिन आलाकमान उन पर भरोसा करने की गलती नहीं करेगा।
ऐसे में पार्टी क्षेत्रीय राजनीति से एक ऐसे दमदार नेता की तलाश कर रही है जो अपने राज्य के साथ-साथ अन्य प्रदेशों और सभी समुदाय के लोगों के बीच अपनी पैठ बना सके। वर्तमान समय में गुजरात के मख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ,उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक,मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ,झारखण्ड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा ,कर्नाटक के मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा ,हिमांचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल और बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भाजपा या के क्षेत्रीय क्षत्रप हैं।
गुजरात के मख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को ताक भाजपा अगले प्रधानमंत्री के रूप में देख रही है। भाजपा में पीएम पद के भले ही कई दावेदार हों , लेकिन पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी ने साफ कर दिया है कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के सबसे सही दावेदार हैं। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मोदी विकास की राजनीति के रोल मॉडल हैं। गुजरात में उनका काम बोलता है। गडकरी की माने तो उनमें देश का नेतृत्व करने की तमाम खूबियां हैं और वह पीएम पद के सबसे सही दावेदार हैं।
आज की तारीख में भाजपा में अगर कोई जन नेता है तो अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जा सकता है। वाजपेयी के अलावा मोदी की ही सभाओं में लाखों की भीड़ होती है और वे वाजपेयी की तरह सहज वक्ता नहीं हैं लेकिन भीड़ को बांध कर रखना उन्हें अच्छी तरह आता है। मुहावरे वे गढ़ लेते हैं, जहां जरूरत होती है, वहां वही भाषा बोलते हैं और अच्छे-अच्छे खलनायकों को हिट करने वाली और दर्शकों को मुग्ध करने वाली जो बात होती है, वह मोदी में भी है कि वे अपने किसी कर्म,अकर्म या कुकर्म पर शर्मिंदा नजर नहीं आते। नरेंद्र मोदी गोधरा के खलनायक हैं मगर संघ परिवार, भाजपा और कुल मिला कर हिंदुओं के बीच भले आदमी माने जाते हैं। नरेंद्र मोदी ने काफी कुछ स्वर्गीय प्रमोद महाजन की तरह राजनीति में अपनी जगह खुद बनाई है। घर-द्वार छोड़ा, पत्नी की शक्ल बहुत दिनों बाद शायद अखबारों और टीवी पर ही देखी होगी और संघ के स्वयंसेवक बन गए। जल्दी ही प्रचारक बनें और जब उनकी लोकप्रियता बढ़ती दिखी तो उन्हें संघ परिवार के निर्देश पर ही राजनीति में ले आया गया। पहले गुजरात की राजनीति और फिर दिल्ली में महासचिव बन कर उन्होंने आधार और रणनीति दोनों अर्जित किए। लेकिन मोदी गोधरा कांड की काली छाया से अभी तक उबर नहीं पाए हैं।
मोदी के बाद अगर हम उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक,मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह ,झारखण्ड के मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा ,कर्नाटक के मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा ,हिमांचल प्रदेश के मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल और बिहार के उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी पर नजर डाले तो हम पाते हैं कि भाजपा के इन क्षेत्रीय क्षत्रपों में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ही एक मात्र ऐसे नेता हैं जिनकी छवि अपने राज्य में जितनी दमदार है उतनी ही केन्द्र में भी।
सच तो यह है कि भारत में कुछ राजनेता ऐसे हैं, जो केंद्रीय राजनीति की मुख्यधारा में नहीं हैं लेकिन केंद्रीय राजनीति उन्हीं के आसपास घूमती रहती है। ऐसे नेताओं में मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का भी नाम है और भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व शिवराज को तराश कर उन्हें अगला अटल बिहारी बनाने में जुट गया है। केन्द्रीय नेतृत्व यह बात भली भांति मालुम है कि क्षेत्रीय नेताओं में शिवराज ही ऐसे नेता हैं जिन्होंने केन्द्र और राज्य में विभिन्न पदों पर लंबे समय तक काम किया है। शिवराज सिंह चौहान सन् 1977 से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक हैं। सन् 1977-78 में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के संगठन मंत्री बने। सन् 1975 से 1980 तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के मध्य प्रदेश के संयुक्त मंत्री रहे। सन् 1980 से 1982 तक अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रदेश महासचिव, 1982-83 में परिषद की राष्ट्रीय कार्यकारणी के सदस्य, 1984-85 में भारतीय जनता युवा मोर्चा, मध्य प्रदेश के संयुक्त सचिव, 1985 से 1988 तक महासचिव तथा 1988 से 1991 तक युवा मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष रहे। शिवराज 1990 में पहली बार बुधनी विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने। इसके बाद 1991 में विदिशा संसदीय क्षेत्र से पहली बार सांसद बने। चौहान 1991-92 मे अखिल भारतीय केशरिया वाहिनी के संयोजक तथा 1992 में अखिल भारतीय जनता युवा मोर्चा के महासचिव बने। सन् 1992 से 1994 तक भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश महासचिव नियुक्त। सन् 1992 से 1996 तक मानव संसाधन विकास मंत्रालय की परामर्शदात्री समिति, 1993 से 1996 तक श्रम और कल्याण समिति तथा 1994 से 1996 तक हिन्दी सलाहकार समिति के सदस्य रहे। चौहान 11 वीं लोक सभा में वर्ष 1996 में विदिशा संसदीय क्षेत्र से पुन: सांसद चुने गये। सांसद के रूप में 1996-97 में नगरीय एवं ग्रामीण विकास समिति, मानव संसाधन विकास विभाग की परामर्शदात्री समिति तथा नगरीय एवं ग्रामीण विकास समिति के सदस्य रहे। चौहान वर्ष 1998 में विदिशा संसदीय क्षेत्र से ही तीसरी बार 12 वीं लोक सभा के लिए सांसद चुने गये। वह 1998-99 में प्राक्कलन समिति के सदस्य रहे। शिवराज वर्ष 1999 में विदिशा से चौथी बार 13 वीं लोक सभा के लिये सांसद निर्वाचित हुए। वे 1999-2000 में कृषि समिति के सदस्य तथा वर्ष 1999-2001 में सार्वजनिक उपक्रम समिति के सदस्य रहे।
सन् 2000 से 2003 तक भारतीय जनता युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। इस दौरान वे सदन समिति (लोक सभा) के अध्यक्ष तथा भाजपा के राष्ट्रीय सचिव रहे। शिवराज 2000 से 2004 तक संचार मंत्रालय की परामर्शदात्री समिति के सदस्य रहे। शिवराज सिंह चौहान पॉचवी बार विदिशा से 14वीं लोक सभा के सदस्य निर्वाचित हुये। वह वर्ष 2004 में कृषि समिति, लाभ के पदों के विषय में गठित संयुक्त समिति के सदस्य, भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव, भाजपा संसदीय बोर्ड के सचिव, केन्द्रीय चुनाव समिति के सचिव तथा नैतिकता विषय पर गठित समिति के सदस्य और लोकसभा की आवास समिति के अध्यक्ष रहे।
शिवराज वर्ष 2005 में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किये गये। चौहान को 29 नवंबर 2005 को मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई गई। प्रदेश की तेरहवीं विधानसभा के निर्वाचन में चौहान ने भारतीय जनता पार्टी के स्टार प्रचारक की भूमिका का बखूबी निर्वहन कर विजयश्री प्राप्त की। चौहान को 10 दिसंबर 2008 को भारतीय जनता पार्टी के 143 सदस्यीय विधायक दल ने सर्वसमति से नेता चुना और 12 दिसंबर 2008 को पन: मुख्यमंत्री बने। शिवराज की अभी तक की सफल राजनीतिक यात्रा पर गौर करें तो हम पाते हैं कि उनमें एक कुशल राजनेता के सभी गुण हैं। शिवराज की इसी खुबी को भाजपा भुनाने की तैयारी कर रही है।
रामनामी ओढ़ कर राजनीति के मैदान में उतरी भारतीय जनता पार्टी अपनी साम्प्रदायिक छवि से आजिज आ चुकी है इसलिए वह अब अपनी छवि बदलने में लगी हुई है लेकिन उसे दमदार सेकूलर चेहरा नहीं मिल पा रहा है। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी,नितिन गडकरी,मरली मनोहर जोशी,अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी आदि जितने कदावर नेता है इन सबकी साम्प्रदायिक छवि है। जब भाजपा हिन्दू पार्टी थी। जब हिंदुओं को भाजपा ने आंदोलित किया था। तब दलित, फारवर्ड, जाट, किसान आदि सभी जातियों या वर्गो ने अपनी पहचान हिन्दू की मानी थी। तब जब आडवाणी ने राम रथयात्रा की थी। उस रियलिटी को भाजपा लीडरशिप ने आज इस दलील से खारिज किया हुआ है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। आज का समाज, आज का नौजवान और आज का हिन्दू अयोध्या पुराण से आगे बढ़ चुका है। इसलिए जरूरत आज वाजपेयी बनने की है। पार्टियों को पटाने की है और 2014 के लिए एलांयस के जुगाड़ की है। ऐसे में पार्टी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सेकूलर छवि बनाने के लिए प्राणपण से जुट गई है। मुस्लिम वोटो को पटाने की कोशिश हो रही है।
असम,तमिलनाडु,केरल,पंदुचेरी और पश्चिम बंगाल में हुए विधानसभा चुनावों में भारी खर्चा और कड़ी मेहनत के बाद भी नतीजा उलटा निकलने से भाजपा को अहसास को गया है कि अगर आगामी लोकसभा चुनाव तक उसने अपनी छवि नहीं बदली तो लोकसभा चुनाव तो दूर वह भाजपा शासित राज्यों में भी सत्ता से बंचित हो सकती है। वर्तमान समय में गुजरात (मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी),उत्तराखण्ड (मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक),मध्यप्रदेश (मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान), छत्तीसगढ़ (मुख्यमंत्री रमन सिंह),झारखण्ड (मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा),कर्नाटक (मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा),हिमांचल प्रदेश (मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल)और बिहार (उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ) में भाजपा या उसकी समर्थित सरकारे है। पार्टी इन राज्यों में सत्ता बरकरार रखने के साथ-साथ अन्य कई राज्यों सहित केन्द्र में भी सत्ताशीन होने का ख्वाब बुन रही है, इसलिए नितिन गडकरी,अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, सभी इन दिनों इस थीसिम में काम कर रहे है कि वोट जोड़ो, अल्पसंख्यक जोड़ो,दलित जोड़ो, किसान जोड़ो, फारवर्ड जोड़ो, उदार बनों और अपने को स्वीकार्य बनाते हुए जोड़तोड़ से सरकार बनाओं। साध्य आसान नहीं है,इसलिए साधनों को आहिस्ता आहिस्ता प्रयोग में लाया जा रहा है।
बीते साल जून में जब देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लेकर सुराज सम्मेलन का आयोजन किया गया था तो सम्मेलन में हुए विचार-विमर्श के बाद यह बहस शुरू हुआ था कि अब कौन है भाजपा का मुख्यमंत्री नंबर वन? हालांकि पार्टी नेतृत्व ने इस सवाल पर कन्नी काटने में ही भलाई समझी। उस एक साल पहले शरू हुई बहस का जवाब मिला है उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में। जहां पार्टी पदाधिकारियों ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी योजनाओं की भरपूर प्रशंसा कर इस बात का संकेत दे दिया की वे ही भाजपा के मुख्यमंत्री नंबर वन हैं।
वर्तमान समय में गुजरात (मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी),उत्तराखण्ड (मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक),मध्यप्रदेश (मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान), छत्तीसगढ़ (मुख्यमंत्री रमन सिंह),झारखण्ड (मुख्यमंत्री अर्जुन मुण्डा),कर्नाटक (मुख्यमंत्री येद्दियुरप्पा),हिमांचल प्रदेश (मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल)और बिहार (उप मुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ) में भाजपा या उसकी समर्थित सरकार है। लेकिन जिस प्रकार मप्र की योजनाओं को राष्ट्रीय स्तर पर मान,सम्मान मिला और अनुसरण हुआ उतना और किसी राज्य की योजनाओं को नहीं मिला। भाजपा का राष्ट्रीय नेतृत्व मानता है कि मप्र भाजपा ने हमेशा देश को दिशा दी है। मध्यप्रदेश में शिवराजसिंह चौहान के नेतृत्व से प्रदेश की तस्वीर बदली है। मप्र में भय,भूख,भ्रष्टाचार से मुक्ति की सबसे पहले पहल हुई। सत्ता और संगठन का जितना बेहतर तालमेल यहां है वह और किसी राज्य में नजर नहीं आ रहा है।
उल्लेखनीय है कि भाजपा का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद नितिन गडकरी ने बीते साल जून में जब देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लेकर सुराज सम्मेलन का आयोजन किया तो उसमें गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी मुख्य वक्ता बनाए गए। मोदी ने भाजपा के कई शीर्ष केंद्रीय नेताओं की मौजूदगी में भाजपा के मुख्यमंत्रियों को सुराज और सुशासन का पाठ पढ़ाया तो ऐसा लगा जैसे भाजपा को नंबर वन मुख्यमंत्री मिल गया। गडकरी के अध्यक्ष बनने के बाद हुए मुख्यमंत्रियों के इस सम्मेलन से पहले और बाद में देश के कई नामचीन उद्योगपतियों से लेकर बॉलीवुड के बादशाह अमिताभ बच्चन तक ने मोदी के नेतृत्व और शासन का बखान करने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी। अनेक लोगों को मोदी में भविष्य का प्रधानमंत्री बनने की क्षमता नजर आई। लेकिन गुजरात में लगातार भाजपा की जीत के नायक रहे मोदी पर गोधरा कांड का ऐसा दाग लगा है जिससे उनका उबर पाना मुश्किल है। भाजपा आलाकमान जानता है कि गठबंधन राजनीति के इस दौर में मोदी की कट्टरवादी छवि दिल्ली की कुर्सी तक ले जाने में बाधा खड़ी करेगी इसलिए उसने शिवराज की विकासवादी छवि को अपने एजेंडे में शामिल किया है।
इसका पहला नजारा मिला गडकरी के भाजपा अध्यक्ष बनने के साल भर बाद ही पिछले दिनों जब दिल्ली में भाजपा के मुख्यमंत्रियों का दूसरा सम्मेलन हुआ। वहां मु़बई अधिवेशन की अपेक्षा बहुुत कुछ बदला-बदला सा था। मोदी सम्मेलन में न तो मुख्य वक्ता थे और न ही उनका पहले जैसे एकछत्र जलवा ही था। सम्मेलन की खास बात यह भी रही कि इसमें विकास, सुराज और सुशासन जैसे शब्दों के लिए केवल गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी का ही नाम नहीं लिया गया बल्कि मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को तो सबसे अधिक सराहना मिली। ऐसे में यह सवाल उठना भी लाजिमी था कि क्या विकास के नाम पर नरेंद्र मोदी के मुकाबले में भाजपा के दूसरे मुख्यमंत्रियों को खड़ा किया जा रहा है? हालांकि इस सवाल पर भाजपा का कोई भी नेता ऐसा कुछ नहीं बोला जो पार्टी के मुख्यमंत्रियों के बीच कलह का कारण बनता। पार्टी के प्रवक्ताओं से जब यह पूछा गया कि क्या इस बार भी नरेंद्र मोदी सम्मेलन में छाए रहे? तो उत्तर मिला-भाजपा के सभी मुख्यमंत्री अच्छा काम कर रहे हैं। इसलिए भाजपा के मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में जिस प्रकार की प्रशंसा मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की हुई है उससे तो यही लगता है कि राट्रीय स्तर पर भाजपा का चेहरा बनने से पहले मोदी को भाजपा के भीतर ही कड़ी चुनौती मिल मिल रही है। और लखनऊ में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक में तो लगभग इस बात का संकेत भी मिल गया है कि अब भाजपा को वह चेहरा मिल गया है जिसे आगे कर वह आगे की रणनीति बना सकती है। दरअसल, भाजपा का लक्ष्य 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव और उससे पहले होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए अपना लक्ष्य तय करना है। पार्टी को अटल-आडवाणी के बाद एक ऐसे व्यक्ति की तलाश है जो राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी का चेहरा बन सके। जिसके नाम जनता वोट दे और जो अपने काम और नाम से जनता को भाजपा को वोट देने के लिए प्रेरित कर सके।
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का तो कहना है कि भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए मध्य प्रदेश सरकार की योजनाओं का दूसरे राज्यों को भी अनुकरण करना चाहिए। वहीं, पार्टी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी का कहना है कि मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में पार्टी संगठन और राज्य सरकार के बीच बेहतर तालमेल सराहनीय है अन्य भाजपा शासित राज्यों को भी इसका अनुकरण करना चाहिए। गडकरी बड़े विश्वास के साथ कहते हैं कि मध्य प्रदेश की सभी 29 सीटों पर विजयी होकर लाल किला का रास्ता यही से तैयार करना है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं कि मप्र भाजपा में मुख्यमंत्री पद को लेकर मचे घमासान के बीच एक बार पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा ने लिखा था, मत चूको चौहान। छह माह के भीतर ही मुख्यमंत्री की कुर्सी पर आसीन होकर शिवराज सिंह चौहान ने अपने राजनैतिक गुरू की वाणी को सही साबित किया। तब से प्रदेश की राजनीति की पटरी पर आई शिवराज एक्सप्रेस धीरज के साथ बढ़ती ही जा रही है। भारी झंझावात के बीच जब उन्होंने कुर्सी संभाली थी तो कयास लग रहे थे कि शिवराज की राह में प्रशासनिक अनुभवहीनता आड़े आएगी। यह कयास गलत निकले। धीरे ही सही लेकिन उन्होंने प्रदेश में विकास और सुशासन की ऐसी लहर पैदा की केवल भाजपा शासित राज्य ही नहीं बल्कि देश के अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों से आगे निकलकर राजनैतिक बिसात पर भी बाजी मार ली।
जानकारों की माने तो यह सब दो साल बाद की राजनीतिक परिस्थितियों को ध्यान में रख किया जा रहा है। राष्ट्रीय फलक पर गौर करें तो भाजपा के पास ऐसे चेहरों की कमी दिखाई पड़ती है जो भीड़ खींचने का माद्दा रखते हो और जिनकी छवि भी अच्छी हो। ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर की नीति पर चलने वाले शिवराज इस पैमाने पर फिट बैठते हैं। उन्हें चुनौती गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और हाल ही में पार्टी की सदस्य बनी उमा भारती से मिल सकती है। लेकिन दोनों हिंदूवादी चेहरे हैं जिनसे गठबंधन के इस दौर में कई सहयोगियों को दिक्कत हो सकती है,इसलिए शिवराज जैसे मध्यमार्गी नेता पार्टी के लिए फायदेमंद रह सकते हैं। इसे ध्यान में रख कर ही उन्हें अल्पसंख्यकों के निकट ले जाया जा रहा है। इसकी शुरूआत भोपाल में 12 जून को भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा द्वारा शिवराज के सम्मान के साथ हुई। मौके की नजाकत देखते हुए शिवराज ने भी आव देखा न ताव और घोषणा कर दी की- मैं मुसलमानों की सुरक्षा करूंगा और उन्हें कोई दिक्कत नहीं होने दूंगा। जिस तरह से इंसान की दो आखें व दो बाजू होते हैैं उसी तरह हिंदू और मुसलमान मेरे लिए हैैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की इस घोषणा पर टिप्पणी करते हुए मध्य प्रदेश कांग्रेस सदभावना प्रकोष्ट के प्रदेश अध्यक्ष मुश्ताक मलिक कहते हैं कि पूरा प्रदेश जानता है कि शिवराज के कार्यकाल में आरएसएस, विश्व हिन्दु परिषद, बजरंग दल द्वारा विभिन्न अवसरों पर प्रदेश को झुलसाने की कोशिश की गई। मध्यप्रदेश में जब से भाजपा सरकार आई है तब से प्रदेश के करीब 250 स्थानों पर साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं और अल्पसंख्यक समुदाय के बेकसूर लोगों पर भाजपा सहित और उनके सहयोगी संगठन आरएसएस और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने सुनियोजित एवं षडय़ंत्रपूर्वक अत्याचार कर काफी नुकसान पहुंचाया है। ऐसे में शिवराज की साम्प्रदायिक छवि को भाजपा सेकूलर बनाने की कोशिश कर दाग धोने की कोशिश कर रही है। उधर शिवराज की सेकूलर छवि के सम्मान पर बरसते हुए कांग्रेस के विधायक आरिफ अकील ने सम्मान को मुसलमानों के साथ छलावा बताते हुए कहा की शिवराज का सम्मान मुसलमानों का अपमान है।
अकील कहते हैं कि मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार अपने खर्चे पर मुख्यमंत्री का सम्मान करवाकर अल्पसंख्यकों के घावों पर मरहम लगाने की कोशिश कर रही है। जबकि प्रदेश का बच्चा-बच्चा तक जानता है कि प्रदेश की भाजपा सरकार के संरक्षण में 1 जनवरी 2004 से लेकर अब तक करीब 250 बार मुस्लिम समुदाय को परेशान करने के लिए साम्प्रदायिक माहौल बिगाडऩे की कोशिश की गई। वह सरकार से सवाल करते हुए पूछते हैं कि आज मुस्लिम समुदाय की हितैशी बनने की कोशिश कर रही सरकार ने आज तक मुसलमानों के लिए क्या किया। प्रधानमंत्री कार्यालय के पत्र क्रमांक 850/3/सी/3/05- पोल दिनांक 9 मार्च 2005 को अधिसूचना जारी कर भारत के मुस्लिम समुदाय की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक स्थिति पर रिपोर्ट तैयार करने के लिए न्यायमूर्ति राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता में 7 सदस्यीय समिति का गठन किया है। इस समिति की रिपोर्ट को मध्यप्रदेश में लागू नहीं करने के संबंध में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विधानसभा से लेकर जनसभाओं तक में बोला है कि प्रदेश में सच्चर कमेटी की सिफारिशें लागू नहीं की जाएंगी। इससे दो समुदायों दरार पैदा होगी लेकिन इसके पीछे षडय़ंत्र यह है कि कहीं मुसलमानों का उत्थान न हो जाए, वे सामाजिक, आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से परिपक्व न हो जाए। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भाजपा सरकार मुस्लिम समुदाय की कितनी हितैषी है। वह सिर्फ मुसलमानों को वोट बैंक के रूप मे इस्तेमाल करना चाहती है।
दरअसल भाजपा लीडरशिप सिर्फ वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल की याद में खोई हुई है। जिन्हें प्रधानमंत्री बनना है, वे भाजपा के रणनीतिकार है। और ये सत्ता का मूल मंत्र वाजपेयी की कथित स्वीकार्यता का मानते हंै। ऐसा था नहीं। भाजपा जिन 180 सांसदों की ताकत से सत्ता में आई थी, उसकी वजह हिन्दू लहर थी। मंदिर आंदोलन था। 180 सांसदों की जीत के पीछे दलित, जाट, किसान, फारवर्ड, बैकवर्ड का अलग-अलग मैनेजमेंट नहीं था बल्कि हिन्दू नारा था। इस कोर ताकत से 180 सांसद आए तो उसके बाद सरकार बनाने के लिए जरूरी 273 सांसदों की संख्या याकि 94 सांसदों वाले जयललिता और चंद्रबाबू जुड़ गए। पहली वजह भाजपा का 180 सांसदों का हिन्दू वोट बैंक था। उसी से भाजपा धुरी बनी। उस धुरी की तरफ पार्टियां खिंची चली आई। तब किसी ने यह नहीं कहां कि भाजपा जैसी कम्युनल पार्टी के साथ कैसे सत्ता साझेदार हो सकते हैं?
हिन्दू मूल के चाल,चेहरे और चरित्र की 180 सीटों की उस ताकत को भाजपा ने आज गंवाया हुआ है। उसकी भरपाई के लिए वह कभी दलित वोट जोडऩे, कभी किसान वोटों की राजनीति या कभी मुस्लिम को नाराज नहीं करने की उधेड़बुन में रहती है। मतलब भाजपा में 180 सीटों के बजाय बाद के 94 सांसदों के जुगाड़ वाले एलायंस पर फोकस है। अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह आदि सभी मान कर चल रहे ह़ै कि सन् 2014 में 180 सीटे अपने आप आएगी। इसलिए प्रधानमंत्री बनने के लिए ज्यादा जरूरी बाकी 84 सांसदों के एलायंस पर पूरा फोकस बनाना है। अपनी स्वीकार्यता बनाना है। इन सबका फोकस पार्टियों और नेताओं को पटाने, मीडिया में वाजपेयी छाप इमेज बनवाने और मीडिया से जिम्मेवार पार्टी प्रचारित करवाने पर है। यह एप्रोच व्यक्तिवादी सोच से उपजी है। सेल्फ प्रमोशन की कारस्तानी है। सेल्फ प्रमोशन, मैनेजमेंट और सुविधा की राजनीति में भाजपा ऐसी ढ़ल गई है कि नागपुर से आए नितिन गडकरी को भी दिल्ली में यह तर्प जंचा है कि नरेंद्र मोदी, वरुण गांधी, उमा भारती, डॉ.सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसों को उतारना महंगा पड़ेगा। इसलिए इनदिनों सबकी नजर शिवराज सिंह पर है।
भाजपा में हर कोई प्रधानमंत्री बनने के ख्याल में खोया हुआ है तो वजह यह सोच है कि सन् 2014 तक कांग्रेस पूरी तरह बर्बाद होगी। पर ये यह नहीं सोच रहे है कि कांग्रेस के बरबाद होने से भाजपा कहां आबाद हो रही है? भाजपा ले दे कर मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, कर्नाटक हिमाचल, जैसे सात-आठ राज्यों की 140 सीटों वाली पार्टी है। भाजपा का 2014 का लोकसभा चुनाव महज सवा दो सौ सीटों का बनता है। इसमें भी आधी से ज्यादा सीटों पर उसे एंटी इनकंबेसी का सामना करना पड़ेगा। पर यह रियलिटी गडकरी, जेटली, सुषमा को दिखलाई नहीं देती है। इसलिए कि इनका फोकस मैनेजमेंट और इस जोड़-तोड़ पर है कि नीतिश कुमार, जयललिता, चंद्रबाबू या जगनमोहन या ममता या प्रफुल्ल महंत या मायावती से एलायंस बना सकने के लिए क्या किया जाएं? भाजपा की टॉप लीडरशिप का पूरा फोकस सन् 2014 में जैसे- तैसे प्रधानमंत्री पद के जुगाड़ का है। प्रधानमंत्री पद और सत्ता की आकांक्षा होना गलत बात नहीं है। पर आकंक्षा यदि मुंगेरी लाल के सपने जैसी हवाई हो तो उसमें क्या कुछ बन सकता है? भाजपा के तमाम नेता यह सोच कर बल्ले-बल्ले है कि कांग्रेस से हालात नहीं संभल रहे हैं इसलिए उनका अवसर है। पर क्या ऐसा है? यह तो उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव में लग ही जाएगा।

भाजपा राज में दिग्विजयी घुसपौठ

शिवराज को भारी पड़ेगी बिहारी,पंजाबी और उडिय़ा लॉबी की उपेक्षा
विनोद उपाध्याय

मध्य प्रदेश में लगातार तीसरी बार सत्ता में आने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश और राजस्थानी लॉबी के नौकरशाहों पर दाव खेल रहे हैं और उनकी इस चाल को भांपते हुए प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने उनके कुनबे के बिहारी,पंजाबी और उडिय़ा लॉबी के नौकरशाहों को अपने पाले में लाने के लिए घुसपौठ शुरू कर दी है। संभावना व्यक्त की जा रही है कि अगर शिवराज समय रहते नहीं चेते और दिग्विजयी अभियान सफल हो जाता है तो 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश की तस्वीर बदल सकती है।
उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश में सत्ता कांग्रेस की रही हो या भाजपा की यहां हमेशा से ही बिहारी,पंजाबी,उडिय़ा और उत्तर प्रदेश लॉबी के नौकरशाहों का राज रहा है। सत्ता के प्रति इस लॉबी का समर्पण भाव हर कोई जानता है तथा इस लॉबी के लिए यह भी प्रचारित है कि अगर इस लॉबी के नौकरशाह ठान लें तो किसी भी सरकार का बोरिया-बिस्तर बंधवा दें। शायद यह बात शिवराज नहीं जानते हैं या फिर उनके सिपहसलारों ने उन्हें इससे अनभिज्ञ रखा है,लेकिन दिग्विजय सिंह यह बखुबी जानते हैं क्योंकि दस साला शासन की कहानी नौकरशाहों से शुरू होती है और उन्हीं पर खत्म होती है। मध्य प्रदेश में कहावत भी प्रचलित है कि नौकरशाहों की जितनी परख दिग्विजय सिंह को है उतना और किसी को नहीं है। फिर भी राजनीति के इस माहिर खिलाड़ी को कुछ नौकरशाहों के प्रति अति विश्वास ले डूबा था। अपनी इस भूल का खामियाजा भुगत रहे दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर से अपने पसंदीदा नौकरशाहों को साधना शरू कर दिया,वहीं शिवराज सिंह चौहान अपने कुछ विश्वस्त अधिकारियों के बुत्ते ही तीसरी बार सत्ता में आने का ख्वाब संजोए हुए हैं। जबकि मुख्यमंत्री के सिपहसलार अधिकारियों की सलाह का ही असर है कि यहां एक असंतुलित प्रशासनिक ढांचा काम कर रहा है जिसके कारण नौकरशाहों में गुटबाजी और असंतोष फैला हुआ है।
राज्यवार विभिन्न लॉबियों में बंटी प्रदेश की नौकरशाही में असंतोष की पहली वजह है मप्र लॉबी का सरकार में बढ़ता वर्चस्व। मप्र में संभवत पहली बार प्रशासनिक सत्ता दूसरे राज्यों के निवासी नौकरशाहों के हाथों से निकलकर मप्र में पले-बढ़े और पढ़े-लिखे नौकरशाहों के हाथों में आ रही है। अब तक प्रदेश में बिहारी, उडिय़ा, पंजाबी और उत्तर प्रदेश लॉबी का राज था और इन्हीं लॉबियों के अधिकारी सरकार के सबसे अहम पदों पर पदस्थ किए जाते थे, लेकिन लंबे समय बाद इस स्थिति में बदलाव आया है।
सरकार में टॉप टू बॉटम के ज्यादातर अहम पदों पर मप्र,राजस्थान और उत्तर प्रदेश लॉबी के अफसर जमे हुए हैं। प्रशासनिक जमावट के लिहाज से सरकार में सबसे ताकतवर माने जाने वाला मुख्यमंत्री सचिवालय इस पूरी तरह मप्र के रंग में रंगा हुआ है। इस सचिवालय पर लंबे समय से केन्द्र शासित प्रदेश से आए एक अफसर इकबाल सिंह बैंस का कब्जा का था, लेकिन अब इसकी कमान भी भोपाल के रहने वाले प्रमुख सचिव दीपक खाण्डेकर के हाथों में है। यहां पहले से जमे सचिव अनुराग जैन मूलत: ग्वालियर निवासी हैं। एक अन्य सचिव और सबसे विश्वस्त अधिकारी एसके मिश्रा भी मुख्यमंत्री के पड़ोसी जिले होशंगाबाद के हैं। हालांकि कई प्रमुख विभागों की कमान अब भी दूसरी लॉबियों के अफसरों के हाथों में हैं, लेकिन यह सरकार की मजबूरी है, क्योंकि प्रदेश में मप्र के निवासी वरिष्ठ अधिकारियों की भारी कमी है। इस कारण फील्ड में कमिश्नर-कलेक्टर जैसे अहम पदों पर मप्र के अफसरों की बिठाया गया है। 10 संभागों में से 7 में आयुक्त और 50 में से 35 जिलों में कलेक्टर मप्र के निवासी हैं।
सरकार में एक चलन और बढ़ गया है। अब पदों की महत्ता विभागों और उनके कामकाज के आधार पर आंकी जाने लगी है। अहम विभाग और कामकाज वाले पदों पर इन दिनों राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के निवासी अधिकारी जमे हुए हैं। इस जमावट में राजस्थान और उत्तरप्रदेश के निवासी अधिकारियों को पदस्थ करना सरकार की मजबूरी भी दिखाई देती है, क्योंकि मप्र के निवासी वरिष्ठ अफसर प्रदेश में काफी कम हैं। इसलिए अपर मुख्य सचिव स्तर के अधिकारी ओपी रावत को उपाध्यक्ष एनवीडीए, आभा अस्थाना को कृषि उत्पादन आयुक्त, सत्य प्रकाश को वाणिज्य एवं उद्योग जैसे अहम विभाग दिए गए। मप्र के एकमात्र अपर मुख्य सचिव स्तर के अधिकारी आर. परशुराम को पंचायत एवं ग्रामीण विकास की जिम्मेदारी दी गई। मप्र कैडर में प्रमुख सचिव और इससे अधिक वेतनमान के कुल 87 आईएएस अधिकारी हैं। इनमें 33 प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली में केन्द्र सरकार को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। दो प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी अरविंद जोशी और टीनू जोशी सस्पेंड हैं। बाकी बचे 52 अधिकारियों को सरकार ने उनके कामकाज के अलावा क्षेत्रवाद के पैमाने और वरिष्ठ भाजपा नेताओं की सिफारिशों पर पदस्थ किया है। सरकार के 54 विभागों में इन्हें एडजस्ट किया गया।
मप्र के निवासी प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी जयदीप गोविंद पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण विभाग, दीपक खाण्डेकर मुख्यमंत्री सचिवालय और एसपीएस परिहार नगरीय प्रशासन एवं विकास और बालाघाट के निवासी प्रभाकर बंसोड़ नए बनाए गए लोक सेवा गारंटी जैसे अहम विभागों की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। इनमें एसपीएस परिहार मुख्यमंत्री के काफी नजदीकी हैं और पहले उनके सचिव भी रह चुके हैं।
मप्र के बाद प्रशासन में राजस्थान लॉबी का दबदबा है। प्रशासन के सबसे उच्चे ओहदे मुख्य सचिव की कुर्सी पर राजस्थान मूल के अधिकारी अवनि वैश्य बैठे हैं। जिसके कारण उनके गृह राज्य के कई अफसरों को सरकार ने तवज्जो दी है। इनमें जीपी सिंहल वित्त जैसा अहम विभाग संभाले हुए हैं। पुखराज मारू भी कुछ समय तक तकनीकी शिक्षा और प्रशिक्षण जैसे विभाग के प्रमुख सचिव थे लेकिन किसी वजह से उनसे यह विभाग छीनकर श्रम जैसा बेहद कमजोर विभाग दिया गया। सचिव स्तरीय अधिकारियों में राजस्थान लॉबी के सदस्य मनोज झालानी को राज्य शिक्षा केन्द्र आयुक्त की कुर्सी पर बैठाया गया है, जहां करोड़ों रुपए का बजट है। स्वास्थ्य आयुक्त जैसा अहम पद इसी लॉबी के सदस्य जयनारायण कंसोटिया के पास है।
उप्र के निवासी आईएएस में ओपी रावत और सत्य प्रकाश के बाद एमएम उपाध्याय, मनोज गोयल, कंचन जैन, विजया श्रीवास्तव, आलोक श्रीवास्तव, एके श्रीवास्तव, प्रभांशु कमल और विनोद सेमवाल प्रमुख सचिव हैं। इनमें से केवल एमएम उपाध्याय, विजया श्रीवास्वत, आलोक श्रीवास्तव और प्रभांशु कमल को ही मलाईदार विभाग दिए गए हैं।
बिहारी, पंजाबी और उडिय़ा लॉबी के हाल बुरे मप्र में सरकार चलाने के लिए जाने वाली बिहारी, उडिय़ा और पंजाबी लॉबी के इस सरकार में काफी बुरे हाल हैं। इस लॉबी के अधिकांश प्रमुख सचिवों को सामान्य विभागों में ही बिठाया गया है। कुछ के पास तो ऐसे विभाग हैं, जहां दिन में एक फाइल भी उनकी टेबल तक नहीं पहुंचती।
उडिय़ा लॉबी में अपर मुख्य सचिव वन एमके राय, प्रमुख सचिव गृह अशोक दास और स्वास्थ्य सचिव एसआर मोहंती को ही सरकार ने नवाजा है लेकिन इनके विभागों में सचिव और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर मप्र के निवासी अफसरों को बिठाया गया है। गृह विभाग में सचिव चंद्रहास दुबे मूलत: खरगौन के रहने वाले हैं। एसआर मोहंती के प्रमुख सचिव पद पर प्रमोशन को रोककर उनके पर कतरे हैं लेकिन मोहंती अपनी सक्रियता और संबंधों के दम पर लाइम लाइट में बने हुए हैं। इस लॉबी के सदस्यों में कभी काफी सक्रिय रहे राजकुमार स्वाई और पीके दास क्रमश: पीएचई और श्रम आयुक्त जैसे पदों को छोडऩे के लिए लंबे समय से बेकरार हैं लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पा रहे।
पंजाबी लॉबी इस सरकार से पूरी तरह आउट है। लॉबी की सबसे वरिष्ठ सदस्य अपर मुख्य सचिव आईएम चहल को लंबे समय तक सरकार ने ग्रामोद्योग विभाग में पटके रखा और वे वहीं से रिटायर हो गईं। इसी लॉबी के देवराज बिरदी, सेवाराम और सुदेश कुमार पर भी सरकार कभी मेहरबान नहीं रही। बिरदी आदिम जाति अनुसूचित जाति कल्याण में समय काट रहे हैं तो सुदेश कुमार को सार्वजनिक उपक्रम जैसे हल्के विभाग दिए गए हैं। सेवाराम से कुछ समय पहले उच्च शिक्षा विभाग छीना गया और काफी समय बाद उन्हें विज्ञान-प्रौद्योगिकी, उद्यानिकी मछलीपालन जैसे विभाग देकर थोड़ी राहत दी गई।
बिहारी लॉबी में से एक मात्र केके सिंह को लोक निर्माण विभाग देकर सरकार ने तवज्जो दी जबकि एमके सिंह लंबे समय से खादी-ग्रामोद्योग में समय काट रहे हैं।

ये आईएएस हैं

मप्र के मूल निवासी केएम आचार्य, राकेश बंसल, विनय शुक्ला, प्रशांत मेहता, डीआरएस चौधरी, आर. परशुराम, अरविंद जोशी, आईएस दाणी, स्वर्णमाला रावला, अजीता वाजपेयी, स्नेहलता श्रीवास्तव, जयदीप गोविंद, रजनीश वैश्य, राधेश्याम जुलानिया, दीपक खाण्डेकर,प्रभाकर बंसोड़, एसपीएस परिहार, मनोज श्रीवास्तव, शिखा दुबे, संजय बंदोपाध्याय, अनुराग जैन, एसडी अग्रवाल, राजेश राजौरा, मलय श्रीवास्तव एसके वेद, मधु हाण्डा, पीके पाराशर, मनोज गोविल, सतीश चंद्र मिश्रा, विश्वमोहन उपाध्याय, अरुण तिवारी, एसके मिश्रा, सुधा चौधरी, पंकज अग्रवाल, केसी गुप्ता, रघुवीर श्रीवास्तव, ओमेश मूंदड़ा, प्रदीप खरे, सीमा शर्मा, अरुण पाण्डेय, वीके बाथम, वीके कटेला, नीरज मण्डलोई, हीरालाल त्रिवेदी, अंजू सिंह बघेल, एसबी सिंह, राकेश श्रीवास्तव (छग), अरुण भट्ट, संजय शुक्ला, हरिरंजन राव, मनीष रस्तोगी, चंद्रहास दुबे, एसके पॉल, अरुण कोचर, जेएस मालपानी, सूरज डामोर, सचिन सिन्हा, अशोक शिवहरे, रामकिंकर गुप्ता, डीडी अग्रवाल, राजकुमार माथुर, भरत व्यास, सुभाष जैन, डीपी अहिरवार, संजीव झा, अमित राठौर, अजातशत्रु श्रीवास्तव, विजय कुरील, राजकुमारी खन्ना, शिवानंद दुबे, पीजी गिल्लौरे, राजकुमार पाठक, जगदीश शर्मा, रामअवतार खण्डेलवाल, मनीष सिंह, राघवेन्द्र सिंह, मधु खरे, जीपी श्रीवास्तव, केके खरे, एसएन शर्मा, विनोद बघेल, गीता मिश्रा, आकाश त्रिपाठी, केपी राही, राजेन्द्र शर्मा, महेन्द्र ज्ञानी, पुष्पलता सिंह, एसएस बंसल, जीपी कबीरपंथी, आरपी मिश्रा, उर्मिला मिश्रा, अनिल यादव, शशि कर्णावत, केदार शर्मा, संतोष मिश्रा, योगेन्द्र शर्मा, रजनी उईके, शोभित जैन, विवेक पोरवाल, कवीन्द्र कियावत, एमके अग्रवाल, सुनीता त्रिपाठी, मनोहर दुबे, शिवनारायण रूपला,जयश्री कियावत, एसपीएस सलूजा, नीरज दुबे, अशोक सिंह, केसी जैन, एसएस कुमरे, नवनीत कोठारी, चतुर्भुज सिंह, बृजमोहन शर्मा, निशांत बरबड़े, लोकेश जाटव, राहुल जैन, डीएस भदौरिया, श्रीमन शुक्ला, एसके सिंह, भरत यादव, विशेष गढ़पाले।
सचिव स्तरीय पदों पर सबसे ज्यादा कब्जा प्रदेश में मप्र के निवासी वरिष्ठ आईएएस अधिकारियों की कमी हैं, इस कारण सरकार नेमजबूरी में वरिष्ठ पदों पर बाहरी राज्यों के अफसरों को बैठा रखा हो लेकिन सचिव स्तरीय और इसके समकक्ष पदों पर मप्र के निवासी अफसरों का बोलबाला है। सरकार में मप्र लॉबी को किस तरह तवज्जो मिल रही है इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि विभिन्न अहम पदों पर बतौर मुखिया भले ही बाहरी राज्यों के निवासी अधिकारी हों लेकिन उनके अधीनस्थ अहम पदों पर मप्र के निवासी अफसर जमे हैं। गृह, परिवहन, किसान कल्याण एवं कृषि विकास, राजस्व मण्डल, भू-अभिलेख एवं बंदोबस्त, राजस्व, स्वास्थ्य, उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, चिकित्सा शिक्षा जैसे महकमों में निचले अहम पदों मप्र के निवासी अफसर काम कर रहे हैं।

हालांकि इसमें अपवाद स्वरूप होम स्टेट के कई सचिव स्तरीय अफसर अपने ही राज्य में अब भी उपेक्षित हैं और कुछ बाहरी राज्यों के अधिकारी अच्छे पदों पर हैं। इसके पीछे इन अफसरों की व्यक्तिगत क्षमताओं और कार्यकुशलता को कारण माना जा रहा है।

दस्युओं के डर से नहीं मिल रही दुल्हनें

विनोद उपाध्याय
ंएक हजार करोड़ से ज्यादा का बजट, 232 काबिल आईपीएस अफसर सहित 80 हजार पुलिस की फौज पर मु_ी भर डकैत भारी पड़ रहे हैं। यह हाल है मध्यप्रदेश की पुलिस का। चंबल और बुंदेलखंड क्षेत्र के नामी डकैतों को मार गिराने के बाद भले ही मध्यप्रदेश का पुलिस महकमा इस बात पर इतरा रहा हो उसने प्रदेश को दस्यु मुक्त कर दिया है लेकिन हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश से लगे तराई वाले इलाकों में अब भी डकैतों का आतंक है। मध्यप्रदेश के सतना और रीवा जिले के करीब दो दर्जन गांवों में स्थिति यह है कि इन गांवों में कोई भी अपनी बेटी ब्याहने को तैयार नहीं हो रहा है क्योंकि कई ऐसे मामले सामने आए हैं कि जब किसी युवक की शादी हुई और उसे दहेज में मोटी रकम मिली तो उसे डकैत उठा ले गए। बाद में फिरौती देने पर उन्हें डकैतों के चंगूल से मुक्ति मिल सकी। जिसके कारण इन गांवों के आधा सैकड़ा से अधिक युवा शादी के इंतजार में जवानी की दहलीज भी पार गए हैं।
गौर तलब है कि उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश का सीमावर्ती इलाका कई दशकों से डकैतों का आतंक झेल रहा हैं। अपने को दस्यु सम्राट घोषित करने वाले अंर्तप्रान्तीय ददुआ के साथ-साथ मुन्नी लाल उर्फ खड़क सिंह, गौरी यादव, ठोकिया उर्फ शंकर पटेल ये कुछ ऐसे कुख्यात नाम हैं जिनके नाम से पूरे क्षेत्र के लोग थर्राते थे। इनकी राजनीति में भी अच्छी खासी पैठ थी। जिसके चलते यहां के लोग उसी को अपना नेता बनाते थे जिसके नाम का फरमान ये लोग कर देते थे। लेकिन हवाओं ने अपना रुख बदला और शासन ने इनके प्रति कड़ा रुख अपना लिया। जिसके चलते इस क्षेत्र में सक्रिय बड़े गैंगों के सफाए के लिए पुलिस फोर्स को मजबूत बनाते हुए यहां स्पेशल टास्क फोर्स की तैनाती की गई। जिसके तहत वर्ष 2007 से इलाके में सक्रिय डकैतों के खिलाफ अभियान छेड़ दिया गया और एसटीएफ को अपनी बनाई रणनीति के कारण जल्द ही बड़ी सफलता मिली और 22 जुलाई 2007 को अन्तर्रप्रान्तीय डकैत ददुआ का सफाया किया गया। उसके ठिकाने लगते ही जैसे डकैतों के दुर्दिन आ गए और ददुआ के मारे जाने के बाद गैंग की कमान सम्भालने वाले उसके दाहिने हाथ राधे व अन्य सदस्यों पर भी पुलिस का दबाव इतना बढ़ा कि राधे ने आत्मसमर्पण करने में ही अपनी भलाई समझी और मझगवां थाने में अपने कुछ साथियों सहित सरेण्डर कर दिया। ददुआ अभियान के बाद एसटीएफ ने पुलिस बल के साथ ठोकिया अभियान चलाया और उसे भी मार गिराया गया। जबकि मुन्नी लाल उर्फ खड़क सिंह और गौरी यादव को गिरफ्तार कर जेल के सीखचों के पीछे बन्द करने में पुलिस बल ने सफलता पाई। इसी के साथ 60 हजार के ईनामी राजा खान उर्फ ओमप्रकाश व राजू कोल को भी पुलिस ने मार गिराया। बड़े बदमाशों और उनके गैंगों के सफाए के बाद लोगों को लगने लगा था कि अब उन्हें डकैतों के आतंक का सामना नहीं करना पड़ेगा। लेकिन उनकी यह उम्मीद ज्यादा दिनों तक कायम नहीं रह सकी और एसटीएफ व पुलिस की गतिविधियां धीमी होने के बाद एक बार फिर क्षेत्र में छुटभैया बदमाशों ने बड़े गैंगों के बचे सदस्यों को एकत्र कर अपना-अपना गैंग बना लिया। जिसमें बिछियन नर संहार में 11 लोगों को जि़न्दा जला देने के साथ ही दस्यु सुन्दर उर्फ रागिया ने खतरनाक डकैत के रूप में अपनी पहचान बनाई। जिसके बाद से उसके ऊपर डेढ़ लाख का ईनाम घोषित कर दिया गया।
पुलिस के आला अधिकारी भी यह बात मानते हैं कि चित्रकुट, चितैहरा, हिरौंदी, गोरान टोला, मझगंवा, देवलाहा, महतैन, कल्हौरा, बरौधा, नकैल, खोही, पातर कछार, उचहेरा, कोठर, अमरपाटन आदि क्षेत्रों में डकैतों का आतंक है। लेकिन पुलिस के पास एक भी ऐसा काबिल अफसर नहीं है, जो इस क्षेत्र को डकैत समस्या से निजात दिला सके। इस क्षेत्र में डकैत खुलेआम अपहरण करने के बाद फिरौती वसूल रहे हैं। डकैतो का बढ़ता दुस्साहस और उन्हें मिलता सामाजिक सपोर्र्ट पुलिस के लिए अनसुलझी पहेली बनता जा रहा है। पुलिस का रिकार्ड गवाह है कि कुछ अपवादों को छोड़कर जितने भी अपहरण हुए, उनमें फिरौती देकर ही छूटा जा सका है। यानि हर दफा पुलिस पर अनपढ़ डकैत भारी पड़ते हैं।
अगर पूरे संभाग की बात करें, तो केवल अपहरण से हर साल डकैत 20 करोड़ रुपए से ज्यादा की वसूली करते हैैं। पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी मानते हैं कि डकैत समस्या और पुलिस की नाकामी का मुख्य कारण वहां के किसानों क दयनीय हालात और विकास की कमी हैै। इसके अलावा इस क्षेत्र में ऐसा कोई राजनेता नहीं है, जो डकैतों की मदद न लेता हो या डकैतों को संरक्षण न देता हो। पुलिस खुलकर कार्रवाई नहीं कर पाती और परिणाम में व्यापारियों या अन्य पैसे वाले के अपहरण होते जा रहे हैं।
इस क्षेत्र में करीब आधा दर्जन बड़े डकैतों के गिरोह सक्रिय है। जिनमें सुंदर पटेल,बलखडिय़ा, खरदूषण,प्रमोद काछी,ददौली जोशी और बेटालाल कोल शामिल हैं। इन डकैतों ने बकायदा अपने-अपने क्षेत्र भी बांट रखे हैं। आठ सदस्यों वाले सुंदर पटेल इस क्षेत्र का सबसे दबंग डकैत है। उसका गिरोह ऐसा है किसी भी क्षेत्र में जाकर वारदात करता है। सतना जिले के बिछियन नरसंहार कर फरार डकैत सुंदर पटेल गिरोह को राज्य सरकार द्वारा सूचीबद्ध किया गया है। उसके गिरोह में सात नियमित सदस्य हैं और वारदात के समय चार-पांच सदस्यों को साथ ले लेता है। सुंदर मप्र के मझगंवा, नया गांव और सभापुर थाना क्षेत्र सहित उत्तरप्रदेश के मानिकपुर, भेलपुराव, कर्वी और फतेहगढ़ थानों की सीमा में छिपते-छिपाते घुमता रहता हैं। जबकि सात सदस्यों वाले प्रमोद काछी का गिरोह चितैहरा,हिरौंदी,गोरान टोला,मझगंवा,देवलाहा में वारदात करता है। बिछियन कांड से सुर्खियों में आए खरदूषण के गिरोह में छह सदस्य है और वह महतैन और कल्हौरा के क्षेत्र में वारदात करता है। बलखडिय़ा यूपी के तराई क्षेत्र,मानिकपुर,मझगंवा और बिछियां आदि क्षेत्रों में सक्रिय रहता है। उसके गिरोह में ग्यारह सदस्य हैं। बेटालाल कोल के गिरोह में सात सदस्य हैं और यह इस क्षेत्र के छोटे गांवों में अधिक वारदात करता है। इसके अलावा दर्जनों ऐसे डकैत भी सक्रिय होकर काम करते हैं। इस प्रकार के डकैत लोगों का अपहरण करके लाते हैं और बड़े डकैतों को अपना अपह्त कुछ धनराशि के बदले सौंप देते हैं। बड़े डकैत दूसरे राज्यों व जिलों में अपने स्थानीय संपर्को के जरिए अपहरण कराते हैं और बदले में लाखों रुपए वसूलते हैं। मप्र से इस समय सबसे ज्यादा अपहरण की वारदातें हो रही हैं।
इस क्षेत्र के गांवों में इन डकैतों का इतना आतंक है कि लोग अपनी जमीन-जायदाद बेंचकर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। इसकी मुख्य वजह है शादी की समस्या। इस क्षेत्र में सुंदर पटेल के सताए एक गांव के निवासी ने बताया कि अकेले हमारे गांव में ही आधा दर्जन लड़के शादी नहीं होने के क्वारे हैं और उनका उम्र 40 के पार कर गई है। वे बताते हैं कि यह समस्या केवल एक हमारे गांव की ही नहीं है बल्कि इस क्षेत्र के हर गांव में यही स्थिति है।
यहां के लोग बताते हैं कि क्षेत्र में डकैतों के पनपने के कई कारण हैं। उनमें सबसे महत्वपूर्ण है क्षेत्र का पिछड़ापन और रोजगार का अभाव। इसके अलावा सामाजिक कट्टरता भी अपराधी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैै। एक पुलिस अधिकारी के अनुसार अब तक अधिकांश डकैत हुए हैं वह पटेल,गौंड़,गड़रिया, यादव, कुशवाह, ठाकुर, गुर्जर समाज से हैं। यह समाज आपस में एक-दूसरे को दुश्मन की तरह देखते हैं। ऐसे में एक समाज का व्यक्ति ताकतवर होता है, तो वह दूसरे समाज के लोगों पर अत्याचार करने लगता हैै। ऐसे हालात में जिस पर अत्याचार होता हैै, वह आक्रोशित होकर डकैत बन जाता है।
डकैत क्षेत्र में काम कर चुके पुलिस अधिकारी एएसपी विद्यार्थी बताते हैं कोई भी डकैत अपने समाज को तंग नहीं करता, लेकिन दूसरों को प्रताडि़त करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। यही कारण है कि जातिगत कट्टरता के कारण अपराधी खत्म नहीं हो पा रहे हैैं। इनमें शिक्षा और जागृति का अभाव है, इसलिए अपने अधिकारों को नहीं समझते और हर बात का बदला लेने के लिए हिंसा का सहारा लेते हैं।
दूसरा कारण है जातिगत सपोर्र्ट। जिस जाति का डकैत होगा, उसे उसी जाति के लोग खुलकर सपोर्र्ट करते हैं। रुपयों का लेन-देन से लेकर अपहृत से फिरौती वसूलने और झुंड बनाकर पुलिस पर दबाव बनाने जैसे सभी काम करते हैं। यहां तक की चुनाव में भी डकैत के सगे संबंधी ही खड़े होते हैं और बंदूक की दम पर जीतते हैं। तीसरा कारण है बेरोजगारी। बेरोजगारों को डकैतों की जिंदगी बहुत भाती है। उन्हें लगता है कि डकैत बनकर खूब पैसा कमाया जा सकता है और अय्याशी की जा सकती है। डकैतों की शोहरत देखकर युवा अपराध की दुनिया में कदम रखते हैं। उनका सोचना है कि भूखा रहने से अच्छा डकैत बनना है। चौथा कारण है समाज में रॉबिनहुड बनने की होड़। जिस जाति का डकैत होता है, वह अपने आप को उस जाति का मसीहा समझने लगता है। वह चाहता है कि उसकी कहानियां लिखी जाएं। इसलिए वह अपराध पर अपराध करता जाता है। पांचवां कारण भौगोलिक संरचना है। इस क्षेत्र में अच्छी सड़कों का अभाव है। छोटे नदी-नालों पर पुल नहीं है। इस कारण पुलिस को सर्च करने में परेशानी आती है। एक बार जो छोटे-मोटे अपराध में फरार हो जाता है, उसे डकैतों के गिरोह में शामिल होने में परेशानी नहीं आती। डकैतों के गिरोह में शामिल होते ही छोटा अपराधी, हिस्ट्रीशीटर में तब्दील हो जाता है। ऐसे में पुलिस एनकाउंटर को अपना नसीब समझकर ताबड़तोड़ अपराध करने लगता है। बीहड़ होने के कारण पुलिस की निगाह से आसानी से बच जाता है, वहीं गांव के लोगों का सपोर्ट भी मिलता है। क्षेत्र का विकास नहीं होने और बीहड़ के कारण वातावरण प्रतिकूल होने से पुलिस लाचार रही है। छठवां और सबसे महत्वपूर्ण कारण है सिस्टम के प्रति आक्रोश। गरीबी और भुखमरी के कारण कई लोगों ने हाथों में बंदूक थाम ली।
एएसपी विद्यार्थी बताते हैं कि डकैतों को उस समय घेरा जाना चाहिए, जब वह वारदात के बाद रुपयों को एडजस्ट करने में लग जाते हैं। पुलिस इसे कूलिंग टाइम कहती है। कूलिंग टाइम में डकैतों का सफाया हो सकता है। जिस समय डकैत वारदात से कमाए रुपयों को ठिकाने लगाने में लग जाते हैं, उस समय वह वारदातों को अंजाम नहीं देते। यह कूलिंग टाइम कहलाता है। पुलिस सूत्रों के मुताबिक यह समय डकैतों के सफाए के लिए सबसे उपयुक्त होता है। ऐसा कोई डकैत नहीं है, जो अपने रुपयों को जमीन खरीद-फरोख्त और अन्य धंधों में न लगाता हो। डकैत फिरोती, धमकियों और अन्य तरीकों से मिले रुपयों को व्यवसाय में लगाते हैं। इसके लिए यह लोग अपने रिश्तेदारों और मददगारों का इस्तेमाल करते हैैं। ऐसे समय में डकैतों का ध्यान वारदात की तरफ से हट जाता है और इनके आबादी वाले क्षेत्रों में मिलने की संभावना ज्यादा रहती हैै। कई जगह डकैत लापरवाह भी हो जाते हैं और इनकी मुखबिरी भी आसान हो जाती है। पुलिस मुखबिरों का जाल बिछाकर बीहड़ों से बाहर निकले इन डकैतों को पकड़ या मार सकती है। कई पुलिस अधिकारियों ने इसी ट्रिक को अपनाकर सफलता भी प्राप्त की।

उजाले के नाम पर लूट रहा एस कुमार्स समूह

विनोद उपाध्याय
मध्यप्रदेश सरकार और उसके मुख्यमंत्री को दिवास्वप्न देखने की आदत है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि अधिकारी कागजों पर चित्रकारी करके उन्हें दिवास्वप्न दिखा रहे हैं और वे आधारहीन घोषणाएं करके अपनी किरकिरी करा रहे हैं। ताजा मामला महेश्वर जल विद्युत परियोजना से संबंधित है।
मध्यप्रदेश सरकार ने जिन परियोजनाओं के बलबुते वर्ष 2013 से प्रदेश में 24 घंटे विद्युत का प्रदाय की घोषणा की है उसमें से एक है 400 मेगावॉट की महेश्वर जल विद्युत (हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट) परियोजना। यह परियोजना शुरू से ही विवादों में रही है और अभी भी इसका विवादों से पीछा नहीं छूटा है। इसके पीछे मुख्य वजह है इस परियोजना की निर्मात्री कंपनी एस कुमार्स की नीयत। उल्लेखनीय है कि खरगौन जिले में बन रही महेश्वर जल विद्युत परियोजना निजीकरण के तहत कपड़ा बनाने वाली कम्पनी एस. कुमार्स को दी गई है।
राहत और पुनर्वास में हो रही देरी के साथ-साथ वित्तीय अनियमितताओं से घिरी यह परियोजना समय पर पूरी हो जाएगी ऐसा लगता नहीं है। 1986 में केन्द्र एवं राज्य से मंजूर होने वाली महेश्वर परियोजना को शुरू में लाभकारी माना गया था और उसकी लागत महज 1673 करोड़ रुपए ही थी जो अब बढ़कर 2233 करोड़ हो गई है। सरकार ने बाद में 1992 में इस परियोजना को एस कुमार्स नामक व्यावसायिक घराने को सौंप दिया। उसी समय से यह कंपनी परियोजना से खिलवाड़ कर रही है। बावजूद इसके एस कुमार्स समूह पर राज्य सरकार फिदा है। मध्यप्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम के करोड़ों के कर्ज में डिफाल्टर होने के बावजूद सरकार ने महेश्वर हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट के लिए पॉवर फाइनेंस कार्पोरेशन के पक्ष में कंपनी की ओर से सशर्त काउंटर गारंटी दी और बाद में इसे शिथिल करवा कर सरकार की गारंटी भी ले ली। उसने इंटर कारपोरेट डिपाजिट (आईसीडी) स्कीम का कर्ज भी नहीं चुकाया। यह मामला मप्र विधानसभा में भी उठ चुका है।
राज्य शासन ने एस कुमार गु्रप को इंटर कारपोरेट डिपाजिट के तहत दिए गए 84 करोड़ रूपए बकाया होने के बावजूद महेश्वर पॉवर प्रोजेक्ट के लिए 210 करोड़ रूपए की गारंटी क्यों दी? महेश्वर पॉवर कार्पोरेशन ने चार सौ करोड़ रूपए के ओएफसीडी बाण्ड्स जारी करने के लिए कंपनी के पक्ष में पीएफसी की डिफाल्ट गारंटी के लिए काउंटर गारंटी देने का अनुरोध सरकार से किया गया था। तीस जून 2005 को सरकार ने कंपनी के प्रस्ताव का सशर्त अनुमोदन कर दिया। इसमें शर्त यह थी कि गारंटी डीड का निष्पादन बकाया राशि के पूर्ण भुगतान का प्रमाण-पत्र प्राप्त होने के पश्चात ही किया जाए।
13 सितम्बर 2005 को इस शर्त को शिथिल करते हुए सरकार ने केवल समझौता आधार पर ही मान्य करने का अनुमोदन कर दिया। इस समझौता योजना के तहत एमपीएसआईडीसी ने 23 सितम्बर 2005 को सूचना दी कि समझौता होने से विवाद का निपटारा हो गया है। बस इसी आधार पर महेश्वर हाईड्रल पॉवर कारपोरेशन ने काउंटर गारंटी का निष्पादन कर दिया।
अनुमोदन के बाद एस कुमार्स की एक मुश्त समझौता नीति के अंतर्गत समझौते की शर्र्तो में संशोधन किया गया था, जिनका न पालन और न ही पूर्ण राशि का भुगतान किया गया। एकमुश्त समझौते के उल्लघंन के बाद अब एस कुमार्स ने दुबारा एकमुश्त समझौते के लिए आवेदन किया गया है। उल्लेखनीय है कि आईसीडी के 85 करोड़ के कर्ज के एकमुश्त समझौता योजना के तहत भुगतान के लिए 77 करोड़ 37 लाख रूपए एस कुमार्स को चुकाना थे। इसमें से कंपनी ने 22 करोड़ 9 लाख रुपए चुकाए है। शेष राशि के चेक बाउंस हो गए। इसके लिए न्यायालय में प्रकरण चल रहा है।
इस संबंध में प्रदेश सरकार द्वारा विधानसभा में जानकारी दी गई है कि एस कुमार्स के साथ एमपीएसआईडीसी के विवाद का निपटारा हो गया है जबकि अभी विवाद बरकरार है। विभागीय अधिकारी बताते हैं कि एमपीएसआईडीसी के साथ एस कुमार्स ने समझौता किया था, जिसके अनुरूप भुगतान नहीं हुआ। साठ करोड़ से अधिक की राशि की वसूली बाकी है। चेक बाउंस का मामला भी कोर्ट में है।
नर्मदा बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक अग्रवाल बताते हैं कि 2005 में हमने महेश्वर विद्युत परियोजना को फौरन रद्द करने की मांग की थी। हमने रिजर्व बैंक से कहा था कि वह महेश्वर परियोजना के हालात की जांच सीबीआई से कराए। आंदोलन ने राज्य सरकार द्वारा महेश्वर परियोजना को गारंटी देने और औद्योगिक विकास निगम की बकाया राशि की वसूली में छूट देने को गलत बताया है। आंदोलन का कहना है कि जिस संस्था पर धन बकाया होने की वजह से उसकी संपत्ति कुर्क हुई हो, उसको वसूली में छूट देना गैर कानूनी है।
अग्रवाल ने बताया कि राज्य सरकार ने परियोजना कर्ताओं को यह छूट दे दी है कि वे मय ब्याज 2009 तक पैसा वापस करें। परियोजना कर्ताओं द्वारा सार्वजनिक धन की बर्बादी के सबूतों के बाद भी सरकार का यह कदम राज्य को बर्बादी की ओर ढकेलने वाला है। सीएजी सहित कई संस्थाएं इस परियोजना से जुड़ी कम्पनी को कटघरे में खड़ा कर चुकी हैं।
आंदोलन का कहना है कि देश के बड़े उद्योगों द्वारा बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के 80 हजार करोड़ से भी अधिक की सार्वजनिक पूंजी डुबा दी गई है। भारतीय रिजर्व बैंक के आदेश के मुताबिक 25 लाख रुपये से अधिक के बकायेदार को कोई भी बैंक या वित्तीय संस्था और धन नहीं दे सकती है। बकाया राशि के एक करोड़ रुपये से अधिक होने पर रिजर्व बैंक इसकी सूचना सीबीआई को देती है और सीबीआई मामला दर्ज कर कार्रवाई करती है।
परियोजना कर्ता के साथ हुए राज्य शासन के समझौते के मुताबिक बिजली बने या न बने, बिके या न बिके लेकिन परियोजना कर्ता को हर साल 400-500 करोड़ रुपये 45 साल तक दिए जाते रहेंगे यानी इस समझौते के मुताबिक आम जनता के लगभग 15 हजार करोड़ रुपये का सौदा किया गया है। साथ ही परियोजना से प्रभावित होने वाले हजारों परिवारों को नीति अनुसार पुनर्वास की

व्यवस्था बताने में भी परियोजना कर्ता पूरी तरह से असफल रहे हैं।
आंदोलन ने भारतीय रिजर्व बैंक और केन्द्रीय वित्त मंत्रालय से भी मांग की है कि वे परियोजना से संबंधित गंभीर वित्तीय अनियमितताओं के बारे में सीबीआई से जांच कराये। सार्वजनिक धन के साथ अनियमितताएं उजागर होने के बावजूद किसी संस्था द्वारा परियोजनाकर्ता के लाभ के लिये धन देना भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत दंडनीय होगा।
नर्मदा बचाओ आंदोलन ने वर्ष 2002 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महेश्वर जल विद्युत परियोजना के लिए परियोजनाकार कंपनी एस. कुमार्स को 330 करोड़ रुपए की गारंटी दिए जाने के मामले में भारी भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए इस गारंटी को तत्काल वापस लेने की मांग की थी।
आंदोलन के कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल के मुताबिक पहले से ही अनेक वित्तीय अनियमितताओं से घिरी इस परियोजना को यह गारंटी देना प्रदेश की जनता के हित को एक निजी कंपनी के हाथों गिरवी रखने के बराबर है।
कंगाल सरकार जो अपने कर्मचारियों को समय पर वेतन नहीं दे पा रही है। इतना बड़ा फैसला किसके हित के लिए ले रही है क्योंकि यह सभी जानते हैं कि महेश्वर परियोजना जनता के हितों के खिलाफ है।
आंदोलन का आरोप है कि एस. कुमार्स कंपनी और महेश्वर परियोजना दोनों ही गंभीर आरोपों के घेरे में हैं। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने अपनी 1998 एवं 2000 की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि परियोजनाकर्ता पर मध्यप्रदेश विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण का करोड़ों रुपया बकाया है। यह पैसा आज तक वापस नहीं किया गया है। यही नहीं मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास निगम ने एस. कुमार्स की एक सहयोगी कंपनी को नियम विरुद्ध दिए गए करोड़ों रुपए के ऋण के लिए संपत्ति कुर्की की कार्रवाई की है।
निगम ने एस. कुमार्स की इन्दज इनरटेक लि. को 1997-98 में 8 करोड़ 2 लाख और 1999-2000 में 44 करोड़ 75 लाख रुपए दिए थे। लघु अवधि के होने के बावजूद भी इन ऋणों की अदायगी नहीं की गई। अत: निगम ने परियोजना की चल सम्पत्ति की कुर्की कराने के आदेश प्राप्त कर लिए हैं। यह आदेश मंडलेश्वर के तहसीलदार के पास रखे हुए हैं। इसके अलावा यह भी स्पष्ट हो चुका है कि महेश्वर परियोजना के लिए मिले धन में से करीब 106 करोड़ 40 लाख रुपए इस कंपनी ने उन कंपनियों को दे दिए हैं , जिनका इस परियोजना से कोई लेना-देना नहीं था।
आंदोलन के मुताबिक भारतीय रिजर्व बैंक ने भी स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी कर चेतावनी दी है कि पैसा वापस न करने वाली कंपनियों एवं संस्थाओं को कोई भी नया ऋण नहीं दिया जाए। तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने भी यही राय जाहिर की थी। फिर भी मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महेश्वर परियोजना के लिए 330 करोड़ की गारंटी देना कई सवाल खड़े करता है।
आंदोलन ने सवाल उठाया है कि एक ओर सरकार का एक विभाग अपने रुपए वसूलने के लिए कुर्की का आदेश लिए घूम रहा है , वहीं दूसरी ओर सरकार स्वयं अरबों की गारंटी दे रही है। इस मामले की उच्च स्तरीय जांच की जानी चाहिए और यह तथ्य सार्वजनिक किया जाना चाहिए कि किन कारणों के चलते राज्य सरकार ने यह गारंटी दी है।
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Wednesday, June 8, 2011

भाजपा राज में दिग्विजयी घुसपौठ

विनोद उपाध्याय
मध्य प्रदेश में लगातार तीसरी बार सत्ता में आने के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश और राजस्थानी लॉबी के नौकरशाहों पर दाव खेल रहे हैं और उनकी इस चाल को भांपते हुए प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने उनके कुनबे के बिहारी,पंजाबी और उडिय़ा लॉबी के नौकरशाहों को अपने पाले में लाने के लिए घुसपौठ शुरू कर दी है। संभावना व्यक्त की जा रही है कि अगर शिवराज समय रहते नहीं चेते और दिग्विजयी अभियान सफल हो जाता है तो 2013 में होने वाले विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश की तस्वीर बदल सकती है।
उल्लेखनीय है कि मध्य प्रदेश में सत्ता कांग्रेस की रही हो या भाजपा की यहां हमेशा से ही बिहारी,पंजाबी,उडिय़ा और उत्तर प्रदेश लॉबी के नौकरशाहों का राज रहा है। सत्ता के प्रति इस लॉबी का समर्पण भाव हर कोई जानता है तथा इस लॉबी के लिए यह भी प्रचारित है कि अगर इस लॉबी के नौकरशाह ठान लें तो किसी भी सरकार का बोरिया-बिस्तर बंधवा दें। शायद यह बात शिवराज नहीं जानते हैं या फिर उनके सिपहसलारों ने उन्हें इससे अनभिज्ञ रखा है,लेकिन दिग्विजय सिंह यह बखुबी जानते हैं क्योंकि दस साला शासन की कहानी नौकरशाहों से शुरू होती है और उन्हीं पर खत्म होती है। मध्य प्रदेश में कहावत भी प्रचलित है कि नौकरशाहों की जितनी परख दिग्विजय सिंह को है उतना और किसी को नहीं है। फिर भी राजनीति के इस माहिर खिलाड़ी को कुछ नौकरशाहों के प्रति अति विश्वास ले डूबा था। अपनी इस भूल का खामियाजा भुगत रहे दिग्विजय सिंह ने एक बार फिर से अपने पसंदीदा नौकरशाहों को साधना शरू कर दिया,वहीं शिवराज सिंह चौहान अपने कुछ विश्वस्त अधिकारियों के बुत्ते ही तीसरी बार सत्ता में आने का ख्वाब संजोए हुए हैं। जबकि मुख्यमंत्री के सिपहसलार अधिकारियों की सलाह का ही असर है कि यहां एक असंतुलित प्रशासनिक ढांचा काम कर रहा है जिसके कारण नौकरशाहों में गुटबाजी और असंतोष फैला हुआ है।
राज्यवार विभिन्न लॉबियों में बंटी प्रदेश की नौकरशाही में असंतोष की पहली वजह है मप्र लॉबी का सरकार में बढ़ता वर्चस्व। मप्र में संभवत पहली बार प्रशासनिक सत्ता दूसरे राज्यों के निवासी नौकरशाहों के हाथों से निकलकर मप्र में पले-बढ़े और पढ़े-लिखे नौकरशाहों के हाथों में आ रही है। अब तक प्रदेश में बिहारी, उडिय़ा, पंजाबी और उत्तर प्रदेश लॉबी का राज था और इन्हीं लॉबियों के अधिकारी सरकार के सबसे अहम पदों पर पदस्थ किए जाते थे, लेकिन लंबे समय बाद इस स्थिति में बदलाव आया है।
सरकार में टॉप टू बॉटम के ज्यादातर अहम पदों पर मप्र,राजस्थान और उत्तर प्रदेश लॉबी के अफसर जमे हुए हैं। प्रशासनिक जमावट के लिहाज से सरकार में सबसे ताकतवर माने जाने वाला मुख्यमंत्री सचिवालय इस पूरी तरह मप्र के रंग में रंगा हुआ है। इस सचिवालय पर लंबे समय से केन्द्र शासित प्रदेश से आए एक अफसर इकबाल सिंह बैंस का कब्जा का था, लेकिन अब इसकी कमान भी भोपाल के रहने वाले प्रमुख सचिव दीपक खाण्डेकर के हाथों में है। यहां पहले से जमे सचिव अनुराग जैन मूलत: ग्वालियर निवासी हैं। एक अन्य सचिव और सबसे विश्वस्त अधिकारी एसके मिश्रा भी मुख्यमंत्री के पड़ोसी जिले होशंगाबाद के हैं। हालांकि कई प्रमुख विभागों की कमान अब भी दूसरी लॉबियों के अफसरों के हाथों में हैं, लेकिन यह सरकार की मजबूरी है, क्योंकि प्रदेश में मप्र के निवासी वरिष्ठ अधिकारियों की भारी कमी है। इस कारण फील्ड में कमिश्नर-कलेक्टर जैसे अहम पदों पर मप्र के अफसरों की बिठाया गया है। 10 संभागों में से 7 में आयुक्त और 50 में से 35 जिलों में कलेक्टर मप्र के निवासी हैं।
सरकार में एक चलन और बढ़ गया है। अब पदों की महत्ता विभागों और उनके कामकाज के आधार पर आंकी जाने लगी है। अहम विभाग और कामकाज वाले पदों पर इन दिनों राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश के निवासी अधिकारी जमे हुए हैं। इस जमावट में राजस्थान और उत्तरप्रदेश के निवासी अधिकारियों को पदस्थ करना सरकार की मजबूरी भी दिखाई देती है, क्योंकि मप्र के निवासी वरिष्ठ अफसर प्रदेश में काफी कम हैं। इसलिए अपर मुख्य सचिव स्तर के अधिकारी ओपी रावत को उपाध्यक्ष एनवीडीए, आभा अस्थाना को कृषि उत्पादन आयुक्त, सत्य प्रकाश को वाणिज्य एवं उद्योग जैसे अहम विभाग दिए गए। मप्र के एकमात्र अपर मुख्य सचिव स्तर के अधिकारी आर. परशुराम को पंचायत एवं ग्रामीण विकास की जिम्मेदारी दी गई। मप्र कैडर में प्रमुख सचिव और इससे अधिक वेतनमान के कुल 87 आईएएस अधिकारी हैं। इनमें 33 प्रतिनियुक्ति पर दिल्ली में केन्द्र सरकार को अपनी सेवाएं दे रहे हैं। दो प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी अरविंद जोशी और टीनू जोशी सस्पेंड हैं। बाकी बचे 52 अधिकारियों को सरकार ने उनके कामकाज के अलावा क्षेत्रवाद के पैमाने और वरिष्ठ भाजपा नेताओं की सिफारिशों पर पदस्थ किया है। सरकार के 54 विभागों में इन्हें एडजस्ट किया गया।
मप्र के निवासी प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी जयदीप गोविंद पिछड़ा वर्ग एवं अल्पसंख्यक कल्याण विभाग, दीपक खाण्डेकर मुख्यमंत्री सचिवालय और एसपीएस परिहार नगरीय प्रशासन एवं विकास और बालाघाट के निवासी प्रभाकर बंसोड़ नए बनाए गए लोक सेवा गारंटी जैसे अहम विभागों की जिम्मेदारी संभाल रहे हैं। इनमें एसपीएस परिहार मुख्यमंत्री के काफी नजदीकी हैं और पहले उनके सचिव भी रह चुके हैं।
मप्र के बाद प्रशासन में राजस्थान लॉबी का दबदबा है। प्रशासन के सबसे उच्चे ओहदे मुख्य सचिव की कुर्सी पर राजस्थान मूल के अधिकारी अवनि वैश्य बैठे हैं। जिसके कारण उनके गृह राज्य के कई अफसरों को सरकार ने तवज्जो दी है। इनमें जीपी सिंहल वित्त जैसा अहम विभाग संभाले हुए हैं। पुखराज मारू भी कुछ समय तक तकनीकी शिक्षा और प्रशिक्षण जैसे विभाग के प्रमुख सचिव थे लेकिन किसी वजह से उनसे यह विभाग छीनकर श्रम जैसा बेहद कमजोर विभाग दिया गया। सचिव स्तरीय अधिकारियों में राजस्थान लॉबी के सदस्य मनोज झालानी को राज्य शिक्षा केन्द्र आयुक्त की कुर्सी पर बैठाया गया है, जहां करोड़ों रुपए का बजट है। स्वास्थ्य आयुक्त जैसा अहम पद इसी लॉबी के सदस्य जयनारायण कंसोटिया के पास है।
उप्र के निवासी आईएएस में ओपी रावत और सत्य प्रकाश के बाद एमएम उपाध्याय, मनोज गोयल, कंचन जैन, विजया श्रीवास्तव, आलोक श्रीवास्तव, एके श्रीवास्तव, प्रभांशु कमल और विनोद सेमवाल प्रमुख सचिव हैं। इनमें से केवल एमएम उपाध्याय, विजया श्रीवास्वत, आलोक श्रीवास्तव और प्रभांशु कमल को ही मलाईदार विभाग दिए गए हैं।
बिहारी, पंजाबी और उडिय़ा लॉबी के हाल बुरे मप्र में सरकार चलाने के लिए जाने वाली बिहारी, उडिय़ा और पंजाबी लॉबी के इस सरकार में काफी बुरे हाल हैं। इस लॉबी के अधिकांश प्रमुख सचिवों को सामान्य विभागों में ही बिठाया गया है। कुछ के पास तो ऐसे विभाग हैं, जहां दिन में एक फाइल भी उनकी टेबल तक नहीं पहुंचती।
उडिय़ा लॉबी में अपर मुख्य सचिव वन एमके राय, प्रमुख सचिव गृह अशोक दास और स्वास्थ्य सचिव एसआर मोहंती को ही सरकार ने नवाजा है लेकिन इनके विभागों में सचिव और अन्य महत्वपूर्ण पदों पर मप्र के निवासी अफसरों को बिठाया गया है। गृह विभाग में सचिव चंद्रहास दुबे मूलत: खरगौन के रहने वाले हैं। एसआर मोहंती के प्रमुख सचिव पद पर प्रमोशन को रोककर उनके पर कतरे हैं लेकिन मोहंती अपनी सक्रियता और संबंधों के दम पर लाइम लाइट में बने हुए हैं। इस लॉबी के सदस्यों में कभी काफी सक्रिय रहे राजकुमार स्वाई और पीके दास क्रमश: पीएचई और श्रम आयुक्त जैसे पदों को छोडऩे के लिए लंबे समय से बेकरार हैं लेकिन वे इसमें सफल नहीं हो पा रहे।
पंजाबी लॉबी इस सरकार से पूरी तरह आउट है। लॉबी की सबसे वरिष्ठ सदस्य अपर मुख्य सचिव आईएम चहल को लंबे समय तक सरकार ने ग्रामोद्योग विभाग में पटके रखा और वे वहीं से रिटायर हो गईं। इसी लॉबी के देवराज बिरदी, सेवाराम और सुदेश कुमार पर भी सरकार कभी मेहरबान नहीं रही। बिरदी आदिम जाति अनुसूचित जाति कल्याण में समय काट रहे हैं तो सुदेश कुमार को सार्वजनिक उपक्रम जैसे हल्के विभाग दिए गए हैं। सेवाराम से कुछ समय पहले उच्च शिक्षा विभाग छीना गया और काफी समय बाद उन्हें विज्ञान-प्रौद्योगिकी, उद्यानिकी मछलीपालन जैसे विभाग देकर थोड़ी राहत दी गई।
बिहारी लॉबी में से एक मात्र केके सिंह को लोक निर्माण विभाग देकर सरकार ने तवज्जो दी जबकि एमके सिंह लंबे समय से खादी-ग्रामोद्योग में समय काट रहे हैं।

ये आईएएस हैं

मप्र के मूल निवासी केएम आचार्य, राकेश बंसल, विनय शुक्ला, प्रशांत मेहता, डीआरएस चौधरी, आर. परशुराम, अरविंद जोशी, आईएस दाणी, स्वर्णमाला रावला, अजीता वाजपेयी, स्नेहलता श्रीवास्तव, जयदीप गोविंद, रजनीश वैश्य, राधेश्याम जुलानिया, दीपक खाण्डेकर,प्रभाकर बंसोड़, एसपीएस परिहार, मनोज श्रीवास्तव, शिखा दुबे, संजय बंदोपाध्याय, अनुराग जैन, एसडी अग्रवाल, राजेश राजौरा, मलय श्रीवास्तव एसके वेद, मधु हाण्डा, पीके पाराशर, मनोज गोविल, सतीश चंद्र मिश्रा, विश्वमोहन उपाध्याय, अरुण तिवारी, एसके मिश्रा, सुधा चौधरी, पंकज अग्रवाल, केसी गुप्ता, रघुवीर श्रीवास्तव, ओमेश मूंदड़ा, प्रदीप खरे, सीमा शर्मा, अरुण पाण्डेय, वीके बाथम, वीके कटेला, नीरज मण्डलोई, हीरालाल त्रिवेदी, अंजू सिंह बघेल, एसबी सिंह, राकेश श्रीवास्तव (छग), अरुण भट्ट, संजय शुक्ला, हरिरंजन राव, मनीष रस्तोगी, चंद्रहास दुबे, एसके पॉल, अरुण कोचर, जेएस मालपानी, सूरज डामोर, सचिन सिन्हा, अशोक शिवहरे, रामकिंकर गुप्ता, डीडी अग्रवाल, राजकुमार माथुर, भरत व्यास, सुभाष जैन, डीपी अहिरवार, संजीव झा, अमित राठौर, अजातशत्रु श्रीवास्तव, विजय कुरील, राजकुमारी खन्ना, शिवानंद दुबे, पीजी गिल्लौरे, राजकुमार पाठक, जगदीश शर्मा, रामअवतार खण्डेलवाल, मनीष सिंह, राघवेन्द्र सिंह, मधु खरे, जीपी श्रीवास्तव, केके खरे, एसएन शर्मा, विनोद बघेल, गीता मिश्रा, आकाश त्रिपाठी, केपी राही, राजेन्द्र शर्मा, महेन्द्र ज्ञानी, पुष्पलता सिंह, एसएस बंसल, जीपी कबीरपंथी, आरपी मिश्रा, उर्मिला मिश्रा, अनिल यादव, शशि कर्णावत, केदार शर्मा, संतोष मिश्रा, योगेन्द्र शर्मा, रजनी उईके, शोभित जैन, विवेक पोरवाल, कवीन्द्र कियावत, एमके अग्रवाल, सुनीता त्रिपाठी, मनोहर दुबे, शिवनारायण रूपला,जयश्री कियावत, एसपीएस सलूजा, नीरज दुबे, अशोक सिंह, केसी जैन, एसएस कुमरे, नवनीत कोठारी, चतुर्भुज सिंह, बृजमोहन शर्मा, निशांत बरबड़े, लोकेश जाटव, राहुल जैन, डीएस भदौरिया, श्रीमन शुक्ला, एसके सिंह, भरत यादव, विशेष गढ़पाले।

साधु-संत के वेश में खूंखार अपराधी

एक दौर ऐसा था कि धर्म क्षेत्र से जुड़े साधु-संत मायावी प्रलोभनों से दूर रहकर समाज को संस्कारित व धार्मिक बनाने में अपनी महती भूमिका निभाते हुए स्वयं सात्विक-सरल जीवन जीते थे. काम, क्रोध, मद लोभ को त्याग कर दूसरों को प्रेरणा देते हुए खुद का जीवन दूसरों के हितार्थ होम कर देते थे. आज जिन साधु-संतों को हम देख रहे हैं, इनमें योग और साधना कितनी है, यह बताना मुश्किल है. सर्व गुण संपन्न इन कथित साधु संतों का न तो कोई चरित्र होता है न ही इनमें कोई त्याग, आए दिन इनकी काली करतूतें सार्वजनिक हो रही हैं. पहले की तरह ही इस कलयुगी दौर में भी साधु-संतों के प्रति आम जनता में श्रद्धाभाव है, जिसका फायदा उठाकर बड़ी संख्या में छद्म वेशधारियों ने भी अपने आप को साधु-बाबाओं की जमात में शामिल कर लिया हैं. ङग्हंस चुनेगा दाना तिनका, कौआ मोती खाएगाफ को चरितार्थ करते हुए चकाचौंध की दुनिया में जीने वाले ऐसे पाखंडी साधु संतों की निगाह ऐशोआराम के हर संसाधन जुटाने में लगी रहती है. धर्म के नाम पर लाखों करोड़ों की जमीन को मुफ्त में लेकर आलीशान बिल्डिंग बना डालते हैं, वह भी जनता के पैसे से. इन कोठीनुमा भवनों को नाम तो आश्रम का दिया जाता है, लेकिन यहां विलासिता के सभी सामान मौजूद होते हैं.
एक तरफ जहां कई साधु संतों पर आपराधिक आरोप लगे वहीं कुछ गेरुआ वस्त्रधारियों को सांप्रदायिकता भड़काने के आरोप में जेल की हवा भी खानी पड़ी. गोरखपुर के सांसद महंत योगी के ऊपर तो अक्सर ही कट्टर हिंदूवादी होने का आरोप लगता रहा है. हिंदू रक्षा के नाम पर दबंगई दिखाने में उन्हें महारथ हासिल है. इसी के चलते उन्हें दर्जनों बार जेल भी जाना पड़ा. अभी भी उनके खि़लाफ़ कई मुक़दमे चल रहे हैं.
इनके शरण में उद्योगपतियों व्यापारियों के साथ तमाम राजनेता भी आ जाते हैं और वे भी इन्हे दंडवत करते है. आए दिन घटने वाली घटनाओं को देखकर प्रतीत होता है कि यदि समय रहते इन पर अंकुश नहीं लगाया गया तो जनता का उन साधु संतों पर से भी विश्वास उठ जाएगा जो वास्तव में सच्चे हैं.
यूपी में धर्म के नाम पर ठगने वालों की बाढ़ सी आ गई है. महानगरों से लेकर गांव तक इनका प्रभाव है. कई खूंखार अपराधी भी इस चोले ओढ़ लेते हैं. साधुरुपी चोला ओढऩे को आतुर ढोंगियों के लिए कुछ अध्यात्म केंद्र मील का पत्थर साबित हो रहे हैं. इन अध्यात्म केंद्रों में ये ढोंगी कुछ महीनों में ही जनता को मूर्ख बनाने के हथकंडे आसानी से सीख जाते हैं.
यूपी में पाखंडी साधुओं की संख्या में खासा इजाफा हुआ है. भक्त बनकर मंदिर स्थापित करने और लोगों को प्रवचन देने वाले चित्रकूट के बाबा शिवमूरत द्विवेदी उर्फ इच्छाधारी संत स्वामी भीमानंद महाराज के काले कारनामों को चिट्?ठा जब उजागर हुआ तो ऐसे साधु संतों को लेकर यहां बहस छिड़ गई. वैसे तो राज्य में कई साधु-संत अपनी विवादित भाषा शैली और आचरण के कारण चर्चा में रहे हैं, लेकिन कुछ बाबाओं ने तो हद ही कर दी. राजधानी लखनऊ के बाबा भूतनाथ को मरे कई साल हो गए हैं, लेकिन आज भी उनके द्वारा हथियाई गई ज़मीन पर बनी भव्य भूतनाथ मार्केट उनके नाम को जीवित रखे हुए है. लखनऊ के पॉश इलाक़े इंदिरागनर में जहां पर भूतनाथ मार्केट बनी है इस ज़मीन की क़ीमत करोड़ों रुपए है. बाबा भूतनाथ करिश्माई तांत्रिक के रूप में अपनी छाप बनाए हुए थे, जब कि वे तरह-तरह के केमिकल के प्रयोग से लोगों को बेवकूफ बनाने में सिद्वहस्त थे. उनके गुरुभाई रहे बाबा भैरोनाथ को उनकी करतूतों पर काफी नाराजग़ी रहती थी. संत ज्ञानेश्वर को देखें, उनके तो नाम के आगे ही संत लगा था और पीछे ज्ञानेश्वर. लेकिन उनके शौक निराले थे, भूमाफिया के रूप में संत ज्ञानेश्वर का नाम पुलिस रिकॉर्ड में भले ही नहीं था, लेकिन दूसरों की ज़मीन हथियाने की आदत ने ही उन्हें मौत की गोद में सुला दिया. सुल्तानपुर जनपद के उसौली विधानसभा क्षेत्र के विधायक इंद्रभद्र सिंह ने जब उनकी काली करतूतों का विरोध किया तो संत ज्ञानेश्वर ने अपने गुर्गों के माध्यम से विधायक इंद्रभद्र की हत्या करवा दी. बाद में बदला लेने की नीयत से इंद्रभद्र के बेटों सोनू और मोनू सिंह ने दस फरवरी 2006 को इलाहाबाद के हंडिया थाना क्षेत्र में दिन दहाड़े संत ज्ञानेश्वर की हत्या कर दी. हत्या के जुर्म में सोनू और मोनु सिंह को जेल भी जाना पड़ा हालांकि वर्तमान में सोनू बसपा से विधायक व मोनू ब्लॉक प्रमुख है और मामला सुप्रीमकोर्ट जा पहुंचा है. ख़ूबसूरत महिला कमांडो के संरक्षण में चलने वाले संत ज्ञानेश्वर ने बाराबंकी से लेकर इलाहाबाद तक में अपना साम्राज्य फैला रखा था. उनके आश्रम में कई वीआईपी जनों का आना-जाना था. संत ज्ञानेश्वर पर आरोप था कि वह अपने आश्रम में आने वाले अतिथियों के सामने आश्रम में रहने वाली लड़कियों को पेश करते थे. संत के आश्रम पर जब छापा मारा गया तो उनके आश्रम से कई आधुनिक हथियार भी पुलिस ने बरामद किए.
यूपी के चर्चित भाजपा नेता और पूर्व मंत्री ब्रह्मदत्त द्विवेदी हत्याकांड में भी संत साक्षी महाराज पर हत्या का आरोप लगा. दोनों फर्रुखाबाद से ताल्लुक रखते थे. भाजपा के टिकट से दो बार सांसद रह चुके सच्चिदानंद हरि उर्फ साक्षी महाराज कभी दिग्गज नेता कल्याण सिंह के काफी कऱीबी हुआ करते थे. साक्षी महाराज की गिनती भाजपा के दबंग नेताओं में होती थी. बीते 27 मार्च 2009 को साक्षी महाराज के आश्रम से एक 24 वर्षिय युवती लक्ष्मी का शव बरामद हुआ तो हड़कंप मच गया. साक्षी महाराज पर ज़मीन हथियाने और यौन उत्पीडऩ के आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं. बताया जाता है कि आश्रम के रूप में साक्षी महाराज के पास अच्छी खासी संपदा एकत्र है. प्रतापगढ़ के कुंडा के मनगढ़ धाम कृपालु महाराज के आश्रम में भंडारे में हुई भगदड़ में 63 लोगों की मौत के बाद कृपालु महाराज का नाम चर्चा में आया तो लोग हैरान रह गए. आश्रम में 63 मौतें हो गईं तथा कई लोग घायल हो गए, लेकिन कृपालु महाराज घटना स्थल तक पहुंचे ही नहीं. जब कृपालु महाराज जी का अतीत खंगाला गया तो पता चला कि उनके दामन में भी कई दाग लगे हुए थे. कृपालु जी महाराज पर नाबालिग लड़कियों के अपहरण और दुराचार का मुक़दमा भी दर्ज हो चुका है. वह त्रिनिदाद में गिरफ्तार भी हो चुके हैं. 2007 में कृपालु महाराज पर एक महिला के साथ दुराचार करने का आरोप लगा था. कृपालु महाराज जब विश्व भ्रमण पर थे तब त्रिनिदाद में एक महिला ने आरोप लगाया था कि महाराज ने उसके साथ एक व्यापारी के घर पर दुराचार किया था. बताया जाता है कि कृपालु महाराज इसी व्यापारी के घर पर ठहरे भी थे. 1991 में एक वृद्ध व्यक्ति ने नागपुर में शिकायत दर्ज कराई थी कि कृपालु महाराज ने उसके दो नाबालिग लड़कियों का अपहरण कर लिया. पुलिस ने जांच में पाया कि बलात्कार के दो मामले पहले भी हुए थे, उनमें शिक़ायत दर्ज नहीं की गई थी. इसका संज्ञान लेते हुए पुलिस ने कृपालु महाराज के खिलाफ अपहरण और दुराचार के चार मामले दर्ज किए थे. ये कुकृत्य 1985 से 1991 के बीच किए थे. बाद में कृपालु महाराज इस मामले में बरी कर दिए गए. कृपालु महाराज राधा माधव सोसाइटी के प्रमुख बताए जाते हैं. इस सोसाइटी के दुनिया भर में करीब 300 केंद्र है. राम कृपाल त्रिपाठी उर्फ कृपालु जी महाराज के खिलाफ 90 के दशक में आंध्र प्रदेश की दो महिला सत्संगियों ने जबरन कैद किए जाने का आरोप लगाया था, मामले में रिपोर्ट भी दर्ज कराई गई थी पर धनबल व ऊंची पहुंच के चलते बाद में इन आरोपों से भी कृपालु जी मुक्त हो गए. वृंदावन आश्रम के लिए भूमि का मामला भी पुलिस के पास आया था. इस मामले में मथुरा जिला प्रशासन ने कृपालु महाराज और इनकी संस्था पर कार्रवाई की थी. चित्रकूट का शिवा उर्फ शिवमूरत द्विवेदी उर्फ इच्छाधारी संत भीमानंद सरस्वती के नाम के साथ सेक्स रैकेट सरगना जुड़ जाने से धर्मनगरी चित्रकूट के वाशिंदे भी काफी मर्माहत हुए. इच्छाधारी के कारनामों से उसके जन्मस्थली चमरौहा गांव के लोग बेहद शर्मशार हुए. इच्छाधारी संत भीमा नंद सरस्वती चमरौहा में शतचंडी यज्ञ कराने वाला था, जिस हेतु काशी के 101 पंडित भी बुक हो चुके थे. पूर्व सांसद प्रकाश नारायण त्रिपाठी को भी आयोजन में बुलाया गया था, लेकिन उसकी काली करतूत को लेकर उन्हे आशंका थी क्योंकि यह बाबा दस्यु ददुआ का करीबी था, यह बात उनके संज्ञान में आ चुकी थी.
अयोध्या, वाराणसी, विठूर, हरिद्वार, मथुरा-वृंदावन और चित्रकूट जैसे धार्मिक स्थलों के कई आश्रमों और मंहतों के नाम तो अक्सर ही विवादित छवि के कारण चर्चा में रहते हैं. कुछ समय पहले चित्रकूट के एक आश्रम में रहने वाले महंत पर भी डकैतों को संरक्षण देने का आरोप लगा था, पुलिस कार्रवाई भी हुई लेकिन बाद में मामला रफा-दफा हो गया. इसी प्रकार अयोध्या के हनुमानगढ़ी के महंत पर गोलियों व बमों से हमला किया गया. चित्रकूट में आश्रम बनाकर भगवान भक्ति में लीन स्वामी परमानंद का नाम आदर से लिया जाता था, लेकिन पिछले दिनों औरेया में उनके खिलाफ भी व्याभिचार का आरोप लगाकर जूते-चप्पल फेकें गए. यही स्वामी परमानंद साध्वी ॠतुंभरा के गुरु हैं. एक तरफ़ जहां कई साधु संतों पर आपराधिक आरोप लगे वहीं कुछ गेरुआ वस्त्रधारियों को सांप्रदायिकता भड़काने के आरोप में जेल की हवा भी खानी पड़ी. गोरखपुर के सांसद महंत योगी के ऊपर तो अक्सर ही कट्?टर हिंदूवादी होने का आरोप लगता रहा है. हिंदू रक्षा के नाम पर दबंगई दिखाने में उन्हें महारथ हासिल है. इसी के चलते उन्हें दर्जनों बार जेल भी जाना पड़ा. अभी भी उनके खिलाफ कई मुकदमे चल रहे हैं. भाजपा सांसद रहे पूर्व गृह राज्य मंत्री स्वामी चिन्मयानंद, पूर्व रेल राज्य मंत्री सतपाल जी महाराज पर भी समय-समय पर संपत्ति हड़पने, जमीनों पर कब्जा करने जैसे आरोप लगते रहे हैं.
योगगुरु के रूप में देश-विदेश में विख्यात स्वामी रामदेव तो अरबों-करोड़ों का व्यवसाय कर रहे हैं. इसी धन-संपदा के बल पर अब वह राजनीति में भी पदार्पण का मन बना चुके हैं. उनके तेवर को देखते हुए ऐसा लग रहा है कि आगामी लोकसभा चुनाव में वह पार्टी बनाकर अपने प्रत्याशी भी चुनावी मैदान में उतारेंगे. जाहिर है राजनीतिक चोला पहनने पर बाबा का भगवा चोला दागदार जरूर हो जाएगा. इस हफ्ते योगगुरू बाबा रामदेव ने जगन्नाथ पुरी मंदिर में सबके प्रवेश की वकालत कर डाली. फिर क्या था, पुरी में मच गया धमाल. लोगों ने बाबा के खिलाफ जमकर नारेबाजी की, बाबा रामदेव के पुतले फुंके, उनकी गिरफ्तारी की मांग भी कर डाली. लोगों का कहना था कि मंदिर में प्रवेश के मसले पर निर्णय लेने का अधिकार पुरी के शंकराचार्य को है, न कि योग गुरू बाबा रामदेव को. गौरतलब है कि इस मंदिर में गैर-हिंदुओं का प्रवेश वर्जित है. उनके बयान पर उठे विवाद से बस इतना ही स्पष्ट हो पाया है कि बाबा की स्वाभिमान पार्टी में राजनैतिक समझ-बूझ वाले कुशल प्रबंधक और रणनीतिकारों की कमी है. भले ही वे अपने बयानों से मीडिया की सुर्खियां बटोर लेते हैं. उन्हें जेड श्रेणी की सुरक्षा भी सरकार द्वारा मुहैया कराई गई है, जिससे इन पर चल रही अटकलों को और बल मिला है यानि अब नेता ही नही साधु-संत भी सुरक्षा में चाकचौबंद दिखेंगे. दो राय नहीं कि भविष्य में अब इन कथित साधु-संतो का भी नेताओं से गठजोड़ होना लगभग तय सा है. कुल मिलाकर जनता जनार्दन को तो लुटना ही है.

वनवास से लौटी उमा फंसी चक्रव्यूह में

विनोद उपाध्याय
भाजपा की फायर ब्रांड नेत्री उमा भारती के छह साल के वनवास को समाप्त करने की घोषणा के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी ने उन्हें एक ऐसे चक्रव्यूह में डाल दिया है जिसे तोड़ पाना उनके लिए टेढ़ी खीर साबित होगा। उत्तर प्रदेश के चुनावी महाभारत में बसपा,सपा और कांग्रेस के चक्रव्यूह को तोडऩे के लिए भाजपा को उमा भारती के रूप में अभिमन्यू तो मिल गया है लेकिन सवाल यह खड़ा हो रहा है कि क्या उमा को उत्तर प्रदेश भाजपा के पांडव राजनाथ सिंह,कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार का साथ मिल पाएगा या फिर वह भी महाभारत के अभिमन्यू की तरह चक्रव्यूह में फंस जाएंगी।
उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में राजनाथ सिंह,कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी और विनय कटियार भाजपा के पांडव माने जाते है, लेकिन ये बिखरे पड़े हैं। राजनाथ सिंह राष्ट्रीय राजनीति में जम चुके हैं। मुरली मनोहर जोशी,कलराज और लालजी टंडन भी खुद को राष्ट्रीय नेता ही मानते हैं। विनय कटियार अकेले ऐसे नेता हैं जो प्रदेश में सक्रिय है। ऐसे में उमा का साथ कौन देगा, कौन उनकी बात मानेगा, यह विचारणीय है। इसमें कोई शक नहीं कि उमा अपनी भूमिका अच्छी तरह से निभाएंगी, लेकिन युद्ध जीतने के लिए योद्धा भी ज़रूरी हैं, जो फिलहाल उत्तर प्रदेश में पार्टी के पास दिखाई नहीं देते। पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बाद उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास अब कोई ऐसा चेहरा नहीं है, जो उसे सत्ता में वापस ला सके। वैसे उत्तर प्रदेश में भाजपा के पास बड़े नामों एवं चेहरों की कमी नहीं है। मुख्तार अब्बास नकवी, मेनका गांधी एवं वरुण गांधी भी उत्तर प्रदेश से ही हैं, लेकिन इनमें वरुण को छोड़कर कोई आक्रामक नहीं दिखता।
उधर खबर यह भी सामने आ रही है कि उमा भारती की वाया उत्तर प्रदेश भाजपा में वापसी को क्षेत्रीय क्षत्रप पचा नहीं पा रहे हैं। उमा को उत्तर प्रदेश का प्रभार सौंपा गया है। यहां तक किसी को दिक्कत नहीं है, लेकिन उमा के उत्तर प्रदेश से ही चुनाव लडऩे की दशा में यहां के नेताओं को अपना वजूद खतरे में पड़ता दिखाई दे रहा है। यही वजह है कि वे उमा के भाजपा में आने पर खुलकर खुशी का इज़हार नहीं कर रहे हैं और न ही ग़म जता पा रहे हैं। उमा भारती के आने से ग़ैर भाजपाई दलों में खलबली ज़रूर है। विरोधी अभी से आरोप लगाने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश में भाजपा का मिशन 2012 सांप्रदायिकता को उभारने वाला होगा।
भाजपा कार्यकर्ताओं के सामने एक सवाल यह भी है कि क्या उमा भारती अपने बड़े भाई कल्याण सिंह के खिलाफ़ मुखर हो सकेंगी। उमा वाकई ऐसा कर पाएंगी, यह कह पाना बहुत मुश्किल है। वजह पिछले विधानसभा और लोकसभा चुनाव हैं, जब कल्याण भाजपा में नहीं थे और उमा भाजपा की स्टार प्रचारक हुआ करती थीं। उस दौरान भी उमा ने कल्याण के खिलाफ़ बोलने से परहेज किया। अब कल्याण मुलायम सिंह यादव का साथ छोड़ चुके हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उनका अपना असर है, जहां भाजपा को अपनी पैठ बनानी है। ऐसे में उमा को कल्याण सिंह के खिलाफ़ आक्रामक होना पड़ेगा, यह वक्त की मजबूरी भी होगी।
भाजपा में उमा की वापसी के साथ ही यह भी कयास लगने लगे हैं कि उत्तर प्रदेश में होने वाले आगामी विधानसभा चुनाव में हिंदू-मुस्लिम मतों का ध्रुवीकरण कराने के हर हथकंडे का इस्तेमाल होगा। उमा भारती जिस राम मंदिर आंदोलन की देन हैं, वह हाईकोर्ट के ताजा निर्णय के बाद एक बार फिर से चर्चा में है। विवादित ढांचा ढहाए जाने के मामले में उमा भारती भी आरोपी हैं। इसका राजनीतिक लाभ उठाने से भाजपा तनिक भी परहेज नहीं करेगी। दिलचस्प बात यह है कि भड़काऊ भाषण देने की आदत के चलते ही उमा भारती राजनीति के शीर्ष पर पहुंचीं तो इसी वजह से उन्हें राजनीति में बुरे दिन भी देखने पड़ रहे हैं। मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए उन्हें वर्ष 2004 में इस्तीफा देना पड़ा था। वजह कर्नाटक के हुबली शहर में कऱीब 15 साल पहले सांप्रदायिक तनाव फैलाने के आरोप में उमा के खिलाफ म़ुकदमा कायम किया गया था। इस मामले में उन्हें अदालत के सामने पेश होना था। वे उस समय मुख्यमंत्री थीं, और वारंट के कारण उन्हें मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। पार्टी ने वरिष्ठ नेता बाबूलाल गौर को कमान सौंप दी थी। इसके बाद पार्टी और उमा के बीच मतभेद बढ़ते गए और अंतत: पार्टी ने उमा को बाहर का रास्ता दिखा दिया। उसके बाद उमा भारती ने भारतीय जनशक्ति पार्टी बनाई लेकिन उन्हें अपेक्षित सफलता नहीं मिली। अब वे फिर पार्टी में वापस आ गई हैं।
उधर उमा भारती की वाया उत्तर प्रदेश भाजपा में वापसी से मध्य प्रदेश के नेताओं के माथे पर भी बल पड़ गए हैं। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा कहते हैं कि उमा का पार्टी में स्वागत है लेकिन उनका पार्टी में रहने या न रहने का कोई भी असर प्रदेश में नहीं पड़ेगा। यहां यह बात याद दिलाना जरूरी है कि उमा मध्य प्रदेश में ही पार्टी के लिए काम करना चाह रहीं थी लेकिन उनकी मध्य प्रदेश में वापसी में उन्हीं के शिष्य रहे नेता ही रोड़े अटका रहे थे। इसकी प्रमुख वजह उमा भारती का अक्खड़पन, उनकी तानाशाही है। भाजपा में रहते हुए उन्होंने जिस तरह से लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ़ तीखे शब्दों का इस्तेमाल किया, वह किसी से छिपा नहीं है। मध्य प्रदेश के नेताओं की उमा के सामने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं होती थी। जिन बाबूलाल गौर ने उमा की चरण पादुका लेकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल की थी, वह भी आज अपनी इस नेता को नकारने लगे हैं। शिवराज सिंह चौहान को भी वह फूटी आंख नहीं सुहाती हैं। मध्य प्रदेश भाजपा के नेता डरते थे कि अगर उमा भारती भाजपा में आएंगी तो वह फिर से पुराना रवैया अख्तियार करेंगी। उमा की इस ख्याति से उत्तर प्रदेश भाजपा के नेता अपरिचित नहीं हैं। मध्य प्रदेश भाजपा में अगर कई गुट हैं तो उत्तर प्रदेश इस मामले में उसका बड़ा भाई है। गुटबाज़ी ने ही उत्तर प्रदेश में भाजपा को कहीं का नहीं छोड़ा है। ऐसे में उत्तर प्रदेश के नेता और कार्यकर्ता उमा भारती का नेतृत्व कहां तक स्वीकार करेंगे, यह सोचने वाली बात है। इन सबके बीच एक सवाल अहम है कि क्या उत्तर प्रदेश में भाजपा के नेताओं का संगठन नाकारा हो चुका है,जो उमा भारती मध्य प्रदेश में अपना राजनीतिक अस्तित्व नहीं बचा सकीं, उनसे भाजपा उत्तर प्रदेश में किसी करिश्मे की उम्मीद कैसे कर रही है। बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को भी बैठे-बैठाए भाजपा ने एक मुद्दा थमा दिया है। देखना है कि चुनावी महाभारत में विरोधी दलों के चक्रव्यूह को उमा भारती कैसे तोड़़ेंगी।

Saturday, June 4, 2011

क्या पुलिस में एसोसिएशन की जरूरत है ?

विनोद उपाध्याय

खाकी वर्दी का रौब हम सभी ने देखा है और कभी-कभी शायद झेला भी है मगर उसे पहनने से उपजी कुंठा और कांटेदार पीड़ा के बारे में हम कुछ नहीं जानते। खाकी वर्दी पहनने वाला दूर से भले ही कितना रौब दार दिखे लेकिन उसकी हालत इतनी दयनीय होती है कि उसे सबसे अधिक हमदर्दी की जरूरत है। यह किसी एक राज्य की पुलिस की व्यथा नहीं है बल्कि सभी राज्यों में एक जैसी स्थिति है। हां उन राज्यों में पुलिस की स्थिति थोड़ी बेहतर है जहां पुलिस का एसोसिएशन है। अगर हम मध्य प्रदेश की बात करे तो यहां के पुलिस जवान उन अभागों में से हैं जिनका कोई माई-बाप नहीं होता।
इस राज्य की विसंगति यह है कि यहां के लगभग सभी शासकीय और अशासकीय विभागों में एक जुटता के लिये कर्मचारी संगठन काम कर रहे हैं लेकिन पुलिस विभाग ही एक ऐसा विभाग है जिसका कोई संगठन नहीं हैं या यूं भी कह सकते हैं कि प्रदेश में पुलिस बल संगठित नहीं है। संगठन के अभाव में पुलिस के जवानों का शोषण होना आम बात हो गई है। वहीं यहां के आईएएस और आईपीएस ऑफिसर्स एसोसिएशन में इतना दम है कि वह सरकार को जब चाहे चक्करघिन्नी बना देता है।
वैसे तो पुलिस विभाग से जुड़ी कई ऐसी समस्याएं हैं जो अंदर-अंदर इस विभाग की कार्यप्रणाली और इसके प्रदर्शन को गहरेखाने प्रभावित करती हैं पर एक समस्या ऐसी भी है जिसे लेकर पुलिस के कर्मचारी काफी हद तक अंदरूनी चर्चाएं करते रहते हैं। यह समस्या है पुलिस एसोशिएशन की। जैसा कि हम सभी जानते हैं, हमारे देश में हर व्यक्ति को समूह बनाने का मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है जो संविधान के अनुच्छेद 19 (ग) में प्रदत्त है लेकिन इसके साथ कतिपय सीमायें भी निर्धारित कर दी गयी हैं जो देश की एकता तथा अखंडता, लोक व्यवस्था तथा सदाचार जैसे कारणों के आधार पर नियत की जाती हैं। यह तो हुई एक आम आदमी के विषय में नियम पर सैन्य बलों के लिए और शान्ति-व्यवस्था के कार्यों में लगे पुलिस बलों के लिए संविधान के ही अनुच्छेद 33 के अनुसार एसोशिएशन बनाने के विषय में कई सारी सीमायें निर्धारित कर दी गयी हैं तथा यह बताया गया है कि इस सम्बन्ध में उचित कानून बना कर समूह को नियंत्रित करने का अधिकार देश की संसद को है। ऐसा इन दोनों बलों की विशिष्ठ स्थिति और कार्यों की आवश्यकता के अनुसार किया गया।
पुलिस बलों के लिए बाद में भारतीय संसद द्वारा पुलिस फोर्सेस (रेस्ट्रिक्शन ऑफ राइट्स) एक्ट 1966 बनाया गया। इस अधिनियम के अनुसार पुलिस बल वह बल है जो किसी भी प्रकार से लोक व्यवस्था के कार्यों से जुड़ा रहता है। इसकी धारा तीन के अनुसार पुलिस बल का कोई भी सदस्य बगैर केंद्र सरकार (या राज्य सरकार) की अनुमति के किसी ट्रेड यूनियन, लेबर यूनियन आदि का सदस्य नहीं बन सकता है। अब कई राज्यों में राज्य सरकारों ने इस प्रकार की अनुमति दे दी है पर कई ऐसे भी राज्य हैं जहां अभी इस प्रकार के समूहों को मान्यता नहीं मिली है। इसी प्रकार एक बहुत ही पुराना कानून है पुलिस(इनसाईटमेंट टू डिसअफेक्शन) एक्ट 1922। इसकी धारा तीन में जान-बूझ कर पुलिस बल में असंतोष फैलाने, अनुशासनहीनता फैलाने आदि को दंडनीय अपराध निर्धारित किया गया है। लेकिन साथ ही में अधिनियम की धारा चार के अनुसार पुलिस बल के कल्याणार्थ अथवा उनकी भलाई के लिए उठाये गए कदम, जो किसी ऐसे एसोशिएशन द्वारा किये गए हों, जिन्हें केन्द्र अथवा राज्य सरकार द्वारा मान्यता मिल गयी हो, किसी प्रकार से अपराध नहीं माने जाते।
बहुत सारे प्रदेशों में प्रदेश सरकारों ने इस प्रकार के पुलिस एसोसिएशन को बकायदा मान्यता देकर कानूनी जामा पहना दिया है। बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, केरल और अब उतर प्रदेश जैसे कई राज्यों में ये पुलिस एसोसिएशन काम कर रहे हैं। इनके विपरीत मध्य प्रदेश पुलिस में पुलिस एसोसिएशन अब तक नहीं रहा है। उत्तर प्रदेश में पुलिस यूनियन के संस्थापक बृजेन्द्र सिंह यादव कहते हैं कि हमने कल्याण संस्थान नामक यह अराजपत्रित पुलिस एसोसिएशन बनाया है जो पुलिसकर्मियों व उनके बच्चों के कल्याण के काम करेगी और उनकी समस्याओं को उचित मंच पर उठाकर संघर्ष करेगी। जहां तक काम की बात है तो मुझे नहीं लगता कि अगर सरकार पुलिसकर्मियों को सारी सुविधाएं मुहैया कराए तो वे अपने कर्तव्य के प्रति कोताही बरतेगें। वे आगे कहते हैं कि पुलिस एसोसिएशन से पुलिस के अधिकारियों और जवानों को आत्मबल मिलता है। जिससे वे अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हैं। वे मप्र की पुलिस को भी सलाह देते हैं कि वे भी अपना एसोसिएशन बनाए। वे कहते हैं कि जिस तरह इन दिनों देश में अपराधों का ग्राफ बढ़ रहा है और इसका राजनीतिकरण हो रहा है अगर ऐसे में पुलिस को निष्पक्ष जांच करनी है तो एसोसिएशन जरूरी है।
मप्र के एक छोटे से जिले के एक थाने के इंस्पेक्टर रामश्ंकर कुशवाह (बदला हुआ नाम) हाल ही में काफी परेशान थे। मामला एक बच्चे की हत्या का था। वैसे तो हत्या, लूट, डकैती आदि जैसे मामलों से पुलिसवालों को आए दिन ही दो-चार होना पड़ता है। लेकिन सिंह इसलिए मुश्किल में थे कि मामले ने राजनीतिक रंग ले लिया था और जिस अपराधी पर हत्या का आरोप था वह राजस्थान भाग गया था। वे बताते हैं, नेताओं का दबाव एसपी पर पड़ा तो मुझे चेतावनी मिली कि एक सप्ताह में हत्यारे को पकड़ो या सस्पेंड होने के लिए तैयार रहो। कुर्सी बचानी थी लिहाजा राजस्थान में कुछ लोगों से संपर्क कर अपराधी को मप्र की सीमा तक लाने की व्यवस्था करवाई जिसमें करीब 70 हजार रुपए लग गए। इस काम में विभाग की ओर से एक पैसे की भी मदद नहीं मिली, पूरा पैसा मैंने खर्च किया। जो रुपया घर से खर्च किया है उसे किसी न किसी तरह नौकरी से ही पूरा करना होगा। ऐसे में हमसे ईमानदारी की उम्मीद बेमानी ही होगी।
वे बताते हैं कि सब इंस्पेक्टर को गश्त के लिए मात्र 350 रुपये महीना ही मिलता है। जिससे सिर्फ सात लीटर तेल ही आ सकता है। जबकि वह प्रतिदिन गश्त में कम से कम दो-तीन लीटर तेल खर्च करता है इससे आगे सिंह की आवाज का लहजा धीमा और तल्ख हो जाता है। वे कहते हैं, इन्ही वजहों से आम आदमी की नजर में हमारे विभाग के कर्मचारी सबसे भ्रष्ट हैं। लेकिन आप ही बताएं कि हम इधर-उधर हाथ न मारें तो पूरा वेतन सरकारी कामों में ही खर्च हो जाएगा और बच्चे भीख मांगने को मजबूर होंगे। यह पुलिस का वह चेहरा है जिसकी तरफ आम निगाह अमूमन नहीं जाती। दरअसल पुलिस शब्द जिन सुर्खियों में होता है उनके विस्तार में जाने पर भ्रष्टाचार, उत्पीडऩ, ज्यादती, धौंस, शोषण आदि जैसे शब्द ही पढऩे को मिलते हैं। लेकिन पुलिस के पाले में खड़े होकर देखा जाए तो पता चलता है कि कुछ और पहलू भी हैं जिनकी उतनी चर्चा नहीं होती जितनी होनी चाहिए, ऐसे पहलू जो बताते हैं कि वर्दी को सिर्फ आलोचना की ही नहीं, कई अन्य चीजों के साथ हमारी हमदर्दी की भी जरूरत है।
इनमें पहली जरूरत है संसाधनों की। जैसा कि इंदौर में तैनात रहे एक थानेदार नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, 'हमारे यहां से एक बच्चे का अपहरण हो गया। सर्विलांस से पता चला कि अपहरणकर्ता बच्चे को राजस्थान लेकर गए हैं। बदमाशों का पता लगाने के लिए कई टीमों को लगाया गया। सभी टीमें निजी वाहनों से राजस्थान के शहरों की खाक छानती रहीं। सफलता भी मिली। लेकिन पूरे ऑपरेशन में 50 हजार से ऊपर का खर्च हुआ। गाडिय़ों में डीजल डलवाने से लेकर टीम के खाने-पीने तक का जिम्मा थाने के मत्थे रहा। इसमें कुछ दरोगाओं ने भी अपने पास से सहयोग किया। आप ही बताइए, जिस पुलिस विभाग के कंधों पर सरकार ने गांव से लेकर शहर तक शांति, अपराध रोकने और लोगों के जानमाल की सुरक्षा का जिम्मा दे रखा है उसे क्यों इतना भी बजट और अन्य संसाधन नहीं दिए जाते कि वह किसी अपराधी को पकडऩे के लिए बाहर जा सके?
यह अकेला उदाहरण नहीं। भोपाल के एक थाने में पदस्थ एक सब इंस्पेक्टर के मुताबिक संसाधनों से जुड़ी दिक्कतें कई मोर्चों पर हैं। वे कहते हैं, 'यदि कोई दरोगा या सिपाही किसी मुल्जिम को पकड़कर थाने लाता है तो मुल्जिम की खुराक का जिम्मा थाने का होता है। पूछताछ के बाद 24 घंटे में उसे न्यायालय में पेश करना होता है। 24 घंटे यदि मुल्जिम को थाने में रखा गया तो दो बार खाना तो खिलाना ही पड़ेगा। इसमें एक मुल्जिम पर कम से कम 40-50 रुपये खर्च हो जाते हैं। जबकि सरकार की ओर से हवालात में बंद होने वाले मुल्जिम की एक समय की खुराक पांच रुपये ही निर्धारित है। ऐसे में पुलिसकर्मी या तो अपनी जेब से 30-35 रुपये एक मुल्जिम पर खर्च करें या थाने के आसपास के किसी ढाबेवाले पर रौब गालिब कर फ्री में खाना मंगवा कर मुल्जिम को खिलाएं। पुलिस यदि फ्री में खाना मंगवाती है तो कहा जाता है कि वह वसूली कर रही है। लेकिन अपने पास से खाना खिलाएंगे तो कितना वेतन घर जा पाएगा?
विभाग का जो कर्मचारी (सिपाही) सबसे अधिक भागदौड़ करता है उसे ईंधन के लिए एक रुपया भी नहीं मिलता। जैसा कि पांडे कहते हैं, सिपाही को आज भी साइकिल एलाउंस ही मिलता है। यह हास्यास्पद है कि अपराधी एक ओर हवा से बातें करने वाली तेज रफ्तार गाडिय़ों का इस्तेमाल कर रहे हैं और दूसरी ओर अधिकारी व सरकार इस बात की उम्मीद करते हैं कि सिपाही साइकिल से दौड़ कर हाइटेक अपराधियों को पकड़े।
नाम न छापने की शर्त पर पुलिस के एक कांस्टेबल बताते हैं कि अधिकारियों से लेकर दरोगा तक का दबाव होता है कि सिपाही भी गुडवर्क लाकर दे। वे कहते हैं, गुडवर्क के लिए गली-मोहल्लों की खाक छाननी पड़ती है जो साइकिल से संभव नहीं है। थाने में तैनात एक सिपाही भी गश्त के दौरान करीब 45 लीटर तेल महीने में खर्च कर देता है, जबकि उसे मिलता एक धेला भी नहीं। थानों में तैनात कुछ सरकारी मोटरसाइकलों को ही महीने में विभाग की ओर से तेल मिलता है। लेकिन इनसे केवल 8-10 सिपाही ही गश्त कर सकते हैं, शेष को अपने साधन से ही गश्त पर निकलना पड़ता है। ऐसे में नौकरी करनी है तो जेब से तेल भरवाना मजबूरी है। इसके अलावा पुलिस विभाग का सूचना-तंत्र काफी हद तक स्थानीय मुखबिरों पर ही निर्भर होता था। लेकिन चूंकि मुखबिरों को देने के लिए विभाग के पास अपना कोई फंड नहीं होता इसलिए अच्छे मुखबिर मिलना अब मुश्किल होता है। वही व्यक्ति अब पुलिस को सूचना देने में रुचि रखता है जिसका अपना कोई स्वार्थ हो।
पिछले वर्ष पुलिस विभाग से रिटायर हुए इंस्पेक्टर नरसिंह पाल बताते हैं, 'कोई भी भ्रष्टाचार का आरोप बड़ी आसानी से लगा देता है, लेकिन भ्रष्टाचार के पीछे कारण क्या है, इसे जानने की कोशिश न तो अधिकारियों ने कभी की और न ही किसी सरकार ने। चाहे जिसका शासन हो, सबकी मंशा यही होती है कि अधिक से अधिक अपराधियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई हो। ठीकठाक अपराधियों पर एनएसए लगाने के लिए अधिकारियों का दबाव भी होता है। एक एनएसए लगाने में थानेदार का करीब तीन चार हजार रुपये खर्च हो जाता है। इस खर्च में 100-150 पेज की कंप्यूटर टाइपिंग, उसकी फोटो कॉपी, कोर्ट अप्रूवल और डीएम के यहां की संस्तुति तक शामिल होती है। पुलिस विभाग तक की फाइल जब सरकारी कार्यालयों में जाती है तो बिना खर्चा-पानी दिए काम नहीं होता। यह खर्च भी थानेदार को अपनी जेब से देना पड़ता है।Ó
एक डीआईजी कहते हैं, विभाग में हर कदम पर कमियां हैं। योजनाओं को ही लीजिए। सरकार योजना शुरू तो कर देती है लेकिन उसे चलाने के लिए भविष्य में धन की व्यवस्था कहां से होगी इस बारे में नहीं सोचती। उक्त डीआईजी एक उदाहरण देते हुए बताते हैं कि सरकार की ओर से प्रदेश भर के थानों को कंप्यूटराइज्ड कराने के लिए बड़ी तेजी से काम हुआ। जिन थानों में ठीक-ठाक कमरों की व्यवस्था तक नहीं थी उन जगहों पर थाना प्रभारी ने अधिकारियों के दबाव में किसी तरह व्यवस्था कर कंप्यूटर लगवाने के लिए कमरे दुरुस्त कराए। लेकिन कंप्यूटरों के रखरखाव के लिए कोई बजट नहीं मिला। मतलब साफ है, यदि कंप्यूटर में कोई खराबी आती है तो थानेदार या मुंशी अपनी जेब से उसे सही करा कर सरकारी काम करें। उक्त डीआईजी कहते हैं, सूचना क्रांति का दौर है, हर अधिकारी चाहता है कि उसके क्षेत्र में कोई भी घटना हो, सिपाही या दारोगा उसे तत्काल मोबाइल से अवगत कराएं। लेकिन समस्या यह है कि पुलिस कर्मियों को मोबाइल का बिल अदा करने के लिए एक रुपया भी नहीं मिलता। थानों में स्टेशनरी का बजट इतना कम होता है कि यदि कोई लिखित शिकायत थाने में देना चाहता है तो मजबूरी में मुंशी पीडि़त से ही कागज मंगवाता है और उसी से फोटोस्टेट भी करवाता है। कभी-कभी मुंशी यह सुविधाएं अपने पास से शिकायती को दे देते हैं तो सुविधा शुल्क वसूल करते हैं। ऐसे में आम आदमी के दिमाग में पुलिस के प्रति गलत सोच पनपना लाजिमी है।
यह तो हुई उन खर्चों की बात जिनके लिए पैसा ही नहीं मिलता। लेकिन जो पैसा पुलिसकर्मियों को अपनी सेवाओं के लिए मिलता है उसकी भी तुलना दूसरे क्षेत्रों से करने पर साफ नजर आ जाता है कि स्थिति कितनी गंभीर है। काम ज्यादा, वेतन कम और ऊपर से छुट्टियों का टोटा। ऐसे में कर्मचारियों में तनाव व कुंठा आना स्वाभाविक है। लेकिन उनकी शिकायतों की कहीं सुनवाई नहीं।
'जब एडीजी, आईजी और डीआईजी रैंक के अधिकारी अपने राजनीतिक आकाओं की जीहुजूरी करते दिखें तो एसआई और इंस्पेक्टर रैंक के कर्मचारियों को लगता है कि खुद को बचाना है तो सत्ताधारी पार्टी के स्थानीय एमएलए या एमपी के साथ रिश्ते बनाकर रखे जाएं। और यही असुरक्षा उन्हें अपने स्थानीय संरक्षकों के हित में काम करने के लिए मजबूर करती है।Ó एक थाने में तैनात कांस्टेबल माखन सिंह कहते हैं, 'एक पॉश कालोनी में गश्त करते हुए मैंने देखा कि चार लड़के एक कार में बैठे शराब पी रहे थे। मैंने उन्हें मना किया तो उनमें से एक कार से उतरा और उसने मुझे तीन-चार झापड़ रसीद कर दिए। मैंने पुलिस स्टेशन फोन कर और फोर्स भेजने को कहा। लेकिन कार्रवाई करने की बजाय एसओ ने मुझसे कहा कि वे उन लड़कों को जानते हैं और मैं भविष्य में सावधानी बरतूं। मैं उसी दिन मर गया था। आत्महत्या इसलिए नहीं की क्योंकि 12 साल की एक बेटी है। अब तो मेरे सामने बुरे से बुरा भी हो जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं किसी रोबोट जैसा हो गया हूं जो तभी कुछ करता है जब अधिकारी करने को कहे।
सजा देने, डर बिठाने और इस तरह पुलिस को अपने इशारों पर नचाने के लिए ऐसे तबादलों का किस खूबी से इस्तेमाल होता है यह आंकड़ों पर नजर डालने से भी साफ हो जाता है।
एक पुलिसकर्मी की समस्याएं रिटायर होने के बाद भी कम नहीं होती। नौकरी के दौरान जिन जिन जगहों पर दरोगा की तैनाती रही है यदि वहां के न्यायालय में उसके द्वारा दाखिल की गई चार्जशीट या गवाही से संबंधित कोई मामला चल रहा हो तो उसे वहां जाना पड़ता है। इस काम के लिए उसे महज 15 रुपये ही खाने का सरकारी खर्च मिलता है। वह भी तब जब न्यायालय में तय तारीख पर गवाही हो जाए। कई बार गवाही किन्हीं कारणों से नहीं हो पाती। ऐसे में खाने का खर्च रिटायर पुलिसकर्मी को अपने पास से उठाना पड़ता है। यदि दारोगा न्यायालय में गवाही के लिए उपस्थित नहीं हो पाता तो उसके खिलाफ वारंट जारी हो जाता है। ऐसे में नौकरी के दौरान ये खर्चे नहीं खलते, लेकिन रिटायरमेंट के बाद यह खासा मुश्किल होता है।
प्रदेश के एक पूर्व डीजीपी का आरोप है कि पूरा विभाग ही गैर योजनाबद्ध तरीके से चलता आ रहा है। वे खुलकर कहते हैं, हर सरकार चाहती है कि क्राइम का ग्राफ उसके शासन में कम रहे। इसका फायदा पुलिस विभाग बखूबी उठाता है। अब सीएम का फरमान है कि क्राइम 15 परसेंट कम हो। आप बताइए उनके पास ऐसा करने के लिए कोई जादू की छड़ी तो है नहीं। इसलिए वे अपने तरीके निकालते हैं। मसलन पीडि़त की रिपोर्ट ही नहीं दर्ज की जाती। इससे पुलिसकर्मियों को दोहरी राहत मिलती है। एक तो क्राइम का ग्राफ नहीं बढ़ता, दूसरा रिपोर्ट दर्ज होने के बाद होने वाली भागदौड़ से भी राहत मिलती है। क्योंकि भागदौड़ में हजारों रु खर्च होते हैं, जिसके लिए थानों के पास कोई बजट नहीं होता।
प्रदेश के होमगार्डस पुलिस के लिए काम कर रहे मो. रईस खान कहते हैं कि हम सभी जानते हैं एकता में बल होता है। जब एक व्यक्ति अकेला होता है तो अपने आप को असहाय महसूस करता है पर जब उसके साथ लोग जुट जाते हैं तो उसमें एक प्रकार की नैतिक और मानसिक ताकत आ जाती है। बिल्कुल इन्हीं उद्देश्यों को लेकर कार्ल माक्र्स ने दुनियाभर के मजदूर इकट्ठा हो जाओ का नारा दिया था। समय बदल गया है कि आज के समय निम्न वर्गों के साथ वह भेदभाव नहीं है जो माक्र्स के जमाने में रहा होगा। समाज में असमानता में भारी कमी आई है। लेकिन यह कहना भी गलत ही होगा कि पूरी तरह समाज में समरूपता आ चुकी है। पुलिस विभाग भी इससे अछूता नहीं है। कई ऐसे लोग हैं जिनका यह मानना है कि इस विभाग में ऊपर और नीचे तबके के अधिकारियों में आज भी बड़ी खाई है जो स्वतंत्रता के इतने दिनों बाद जस की तस बनी हुई है। ऐसे लोगों का स्वाभाविक तौर पर रुझान अधीनस्थ कर्मचारियों के लिए एसोसिएशन होने की तरफ रहता है। इसके विपरीत दूसरा मत यह भी है कि यदि इस प्रकार के एसोसिएशन बने तो उनका भारी खामियाजा पुलिस विभाग को उठाना पड़ेगा। इसमें अनुशासनहीनता से लेकर विद्रोही तेवर और भारी विद्रोह की संभावना तक सम्मिलित हैं। अब इन दोनों में से कौन सा विचार सही है और कौन सा गलत, इसे कह पाना उतना आसान भी नहीं है। दोनों पक्षों के लोगों के पास अपनी बात कहने के पर्याप्त तर्क हैं। मैं इस संबंध में इतना ही कहूंगा कि पुलिस विभाग के निचले स्तरों पर समस्यायें वास्तविक तौर पर हैं और पुलिस की कार्यप्रणाली में सुधार के लिए नितांत आवश्यक है कि इन सभी समस्याओं पर हम गंभीरता से सोचें। लेकिन इसके साथ ही हमें यह भी नहीं भूलना होगा कि पुलिस विभाग अन्य तमाम विभागों में पूर्णतया अलग है और इसमें किसी भी प्रकार की अनुशासनहीनता बर्दाश्त नहीं की जा सकती।
ऐसे में पुलिस एसोसिएशन हो या अन्य कोई भी प्रयास, उसे इन मापदंडों पर पूरी तरह खरा उतरना होगा तभी उनकी उपस्थिति स्वागत योग्य होगी। हाँ यह अवश्य है कि यदि वे संस्थाएं शुद्ध अन्त:करण से पुलिस बल की समस्याओं के निराकरण की दिशा में काम करेंगी, जिससे पुलिस समर्पण की भावना विकसित हो तो किसी को भी उनकी उपस्थिति से गुरेज नहीं होगा।
उधर एक जिले में पुलिस अधिक्षक के पद पर पदस्थ एक अधिकारी कहते हैं कि आईएएस-आईपीएस लॉबी के कारण अरसे से भावनाएं दबाये मध्य प्रदेश पुलिस के जवानों का भी यूनियन होना चाहिए। उधर कुछ पुलिसकर्मियों का भी कहना है कि मप्र में आईपीएस अफसरों की एसोसिएशन चल रही है तो छोटे कर्मचारियों को इस अधिकार से क्यों महरूम किया जा रहा है? बताते चले कि यूपी के अलावा देश के 17 राज्यो में ंंपुलिस की एसोशियेशन पहले से ही पुलिस जनो के हितों मे ंकाम कर रही है।