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भेड़ाघाट

Thursday, July 9, 2015

कागजों पर तालाब खोदकर 8 अरब 55 करोड़ का लगाया चूना

बलराम तालाब योजना में फर्जीवाड़ा सामने आने के बाद पंचायतों में शुरू हुई पड़ताल
7 साल में 8055000000 के तालाब गायब
8055 लापता तालाबों को ढूंढने में जुटे अधिकारी
vinod upadhyay
भोपाल। यह सूनकर आपको आश्चर्य होगा की प्रदेश में पिछले 7 साल से कागजों पर तालाब खोदकर सरकार को करीब 8 अरब 55 करोड़ का चूना लगा दिय गया है और इसकी भनक किसी को नहीं लगी। अब जब मामला उजागर हुआ है तो प्रारंभिक पड़ताल में करीब 8055 से अधिक तालाब लापता बताए जा रहे हैं। अबअफसर गांवों में घूम-घूमकर तालाबों की पड़ताल कर रहे हैं। जानकारों का कहना है कि जैसे-जैसे जांच आगे बढ़ेगी फर्जीवाड़े का आंकड़ा भी बढ़ता जाएगा। उल्लेखनीय है कि प्रदेश को मुख्यमंत्री बनने के साथ ही शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश में खेती को लाभ का धंधा बनाने की घोषणा की थी। इसके लिए सरकार ने कई योजनाएं परियोजनाएं संचालित कर रखी हैं। इसी में से एक बलराम तालाब योजना में बड़ा फर्जीवाड़ा सामने आया है। इस योजना के तहत किसानों ने सरकार से अनुदान तो ले लिया है, लेकिन तालाब का निर्माण नहीं करवाया है। यही नहीं अधिकारियों ने कागजी भौतिक सत्यापन कर इनका भुगतान भी कर दिया है। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश सरकार ने वर्ष 2007-08 में बारिश का पानी सहेजने, सिंचाई करने और जमीनी जल स्तर बढ़ाने के लिए बलराम तालाब योजना प्रारम्भ किया था। इसमें किसान के अपने खेत पर तालाब बनाने के लिए करीब 40 से 50 प्रतिशत तक सब्सिडी दी जाती है। प्रदेश के अधिकांश जिलों में किसान इस योजना का लाभ उठाने के लिए आगे आए पर कुछ जगह स्थानीय मैदानी अमले, पंचायत की मिलीभगत से यह योजना पैसा कमाने का जरिया बन गई। आलम यह है कि जमीन पर तालाब बने ही नहीं लेकिन तालाबों के नाम पर सरकारी खजाने से करोड़ों रूपए निकाल लिए गए। कहीं एक ही तालाब को तीन-चार लोगों ने अपना-अपना बताकर तो कहीं सरकारी जमीं पर गड्ढा खोदकर पैसा हजम कर लिया गया। मोटी रकम के लालच में यह गोरखधंधा खूब फला-फूला। कमाल यह है कि सरकार अब जागी है जब कितनी ही चिडिय़ाएं खेत चुग गई।
कागजों पर बना लिए बलराम तालाब
खेतों में पानी सहेजने के लिए बलराम तालाब योजना के तहत बनाए गए अधिकतर तालाब केवल कागजों पर बन कर तैयार हो गए हैं। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विभाग ने जो लक्ष्य दिया था उसके अनुरूप विकासखंडों में तालाब नहीं बन सके है। वहीं किसी विकास खंड में लक्ष्य से दो गुने तालाब बन कर तैयार हो गए और बिना भौतिक सत्यापन के किसानों को अनुदान राशि भी जारी कर दी गई है। ऐसे में विभाग की कार्यप्रणाली पर सावालिया निशान खड़े हो गए हैं कि विभाग ने तालाबों का बिना सत्यापन किए अरबों रूपए की अनुदान राशि कैसे जारी कर दी। उल्लेखनीय है कि शासन द्वारा उन्हीं बलराम तालाबों के निर्माण पर अनुदान की सुविधा दी जाती है जिनका निर्माण निर्धारित मापदंड के अनुसार कराया जाता है। इसके लिए कृषि विभाग द्वारा अनुदान राशि तभी जारी की जाती है जब बनाए गए तालाब का भौतिक सत्यापन कर लिया जाता है। शासन द्वारा बलराम तालाब तीन स्तर पर भूमि की उपलब्धता के आधार पर स्वीकृत किए जाते हैं। जिन किसानों के पास कम भूमि होती है ऐसे किसानों को 55 मीटर लंबा और 30 मीटर चौड़ा तथा 3 मीटर गहरा तालाब बनाने की स्वीकृति दी जाती है। इन तालाबों का निचला तल 46 मीटर लंबा 21 मीटर चौड़ा होता है। इसी प्रकार जिन किसानों के पास अधिक भूमि है उन्हें 63 से 68 मीटर लंबा, 30 मीटर चौड़ा और तीन मीटर गहराई वाले तालाब बनाने की स्वीकृति दी जाती है। लेकिन अधिक भूमि वाले किसान भी जिस तालाब की अनुमति मिलती है उसे न बनाते हुए कम भूमि में तालाबों का निर्माण कर लेते हैं। जो उन्हें मिली स्वीकृति के विपरीत होता है। लेकिन विभागीय अधिकारी तालाब के भौतिक सत्यापन के समय इसकी अनदेखी कर अनुदान की राशि उपलब्ध करा देते हैं।
सबसे अधिक देवास में घपला
जहां प्रदेशभर में सरकारी अधिकारी इन दिनों खेत-खेत जाकर लापता करीब 8055 तालाबों की पड़ताल कर रहे हैं वहीं अकेले देवास जिले में 2000 से ज्यादा तालाबों को जमीन पर ढूंढा जा रहा है। शुरूआती जांच में ही जिन 107 तालाबों की खोजबीन की गई, उनमें से सिर्फ 7 तालाब ही मौके पर मौजूद मिले, जबकि 100 तालाब जमीन पर बने ही नहीं। हद यह कि वे सिर्फ कागजों पर ही बन गए और सरकार के खजाने से इन तालाबों के नाम पर सब्सिडी के करोड़ों रूपए डकार लिए गए। ढोल की पोल उजागर हुई तो आनन-फानन में 13 कर्मचारियों को निलम्बित कर दिया गया है। दरअसल देवास जिले के गांव-गांव में किसानों के खेत पर सरकार की बलराम योजना के तहत कागजों के मुताबिक बीते 3 सालों में करीब 2000 से ज्यादा तालाब बनाए जा चुके हैं लेकिन जब सरकारी कागजों के सहारे अधिकारी खेत-खेत पंहुचे तो वहां खेत लहलहा रहे थे। जिन तालाबों को लाखों रुपये की लागत से बनाया गया अब ये ढूंढे नही मिल रहे यानी तालाब के तालाब ही गायब हो गये। अब मामले की जांच करने पंहुची टीम गांव-गांव पंहुच कर तालाबों का पता ठिकाना ढूंढ रही है। हैरानी की बात ये है कि सरकारी कागजातों में जिस जमीन पर तालाब हिलोरें ले रहे है वहां कीचड़ तक नहीं है। हालांकि इतना बड़ा खुलासा होने के बाद भी जांच का काम अभी बहुत धीमा चल रहा है। इससे तथ्य भी प्रभावित हो सकते हैं और दोषियों को बचने का मौका भी मिल सकता है। कलेक्टर की बार-बार की चेतावनी के बाद भी दो माह से ज्यादा समय बीतने पर भी जांच रिपोर्ट तैयार नहीं हो सकी है। देवास के उप संचालक कृषि जीके वास्केल कहते हैं कि जिला कलेक्टर के आदेश से 2000 तालाबों की जांच की जा रही है। टोंकखुर्द क्षेत्र में तालाब नहीं मिलने पर कर्मचारियों पर कार्रवाई की जा चुकी है। जांच रिपोर्ट जल्दी ही जिला कलेक्टर को सौंप दी जाएगी। देवास जिले चुरलाय गांव के किसान किसान राजेंद्रसिंह कहते हैं कि सरकारी अफसर ध्यान देते तो बहुत पहले ही यह सब सामने आ जाता। वह तो कुछ लोगों ने शिकायत न की होती तो दूसरी योजनाओं की तरह यहां भी अंधेरगर्दी चलती रहती। देवास जिले के करीब 5 हजार की आबादी वाले जिरवाय गांव में बड़ा घोटाला सामने आया है। यहां जब सज्जनसिंह और इन्दरसिंह के खेत पर सरकारी टीम पहुंची तो जमीन पर तालाब की जगह लहसुन की फसल खड़ी थी। पर यह अकेला गांव नहीं है, ऐसे कई गांव हैं। शुरुआती दौर में ये आंकडा बेहद चौंका देने वाला है। फिलहाल पूरे मामले में 13 अफसरों-कर्मचारियों को कलेक्टर ने दोषी पाते हुए निलंबित कर दिया है।
धार, नालछा व तिरला में जांच शुरू
इसी तरह धार जिले के धार, नालछा व तिरला में किसानों को दी जाने वाली योजनाओं में अनुदान, कृषि यंत्रों के वितरण व बलराम तालाब निर्माण योजना में अनियमितिता करने के मामले की जांच शुरू हो चुकी है। कृषि विभाग भोपाल द्वारा जांच के लिए बनाई गई 6 टीमों ने जिले के विकासखंडों में पहुंचकर जहां पर सूची में दर्ज किसान को ढूंढकर उससे योजना के तहत मिलने वाले अनुदान की जानकारी ली वहीं बलराम तालाब योजना के भौतिक सत्यापन की भी प्रक्रिया भी कर रही है। हालांकि प्रारंभिक रूप से टीम अपनी रिपोर्ट तैयार करने में लगी है। जिसे शासन को सौंपा जाएगा। लेकिन प्रारंभिक जांच में ही अनियमितताओं की जानकारी सामने आ रही है। सूत्रों के अनुसार जो किसान सूची में दर्ज है, वह संबंधित गांव व पते पर नहीं मिल रहे है। गौरतलब है कि कृषि विभाग के प्रमुख सचिव डॉ. राजेश राजौरा ने प्रदेश के चार जिलों में हितग्राहियों को दी गई योजनाओं व अनुदान के प्रकरणों की जांच करवाई थी। प्रारंभिक जांच में इसमें 80 करोड़ की अनियमितता की बात सामने आई थी। इसके चलते धार कृषि उप संचालक आरपी कनेरिया को निलंबित कर दिया गया था। इसके बाद चारों जिले में भौतिक सत्यापन व आगे की जांच के लिए टीमें बनाई गई थी। धार जिले की जांच के लिए शासन ने आलीराजपुर, बड़वानी व आसपास के कृषि अधिकारियों वाली 6 टीमे बनाई है। बलराम तालाब योजना के तहत बनाए गए 100 तालाबों के भौतिक सत्यापन के लिए धार, नालछा व तिरला में दल खेत-खेत घूमा। लेकिन कई जगह तालाब की जगह सपाट जमीन दिखी। वहीं सूची में दर्ज कई किसानों के मैदानी स्तर पर पते नहीं है। ऐसे में भौतिक सत्यापन में टीम को भटकना पड़ रहा है। धार जिले के कृषि विभाग के अधिकारी डीएस मौर्य का कहना है कि जांच दल ने अपनी भौतिक सत्यापन व जांच की प्रक्रिया पूरी कर ली है। बलराम तालाब निर्माण योजना के साथ ही ड्रिप स्प्रिकंलर वितरण, कृषि यंत्रीकरण खरीदी व वितरण, डीजल पंप व पाइप लाइन वितरण आदि की भी जांच की जा रही है।
अधूरे तलाबों का भी कर दिया भुगतान
सीहोर जिले में कृषि विभाग ने पांच विकास खंड सीहोर, इछावार, आष्टा, बुधनी और नसरुल्लागंज के लिए 50-50 तालाब बनाने लक्ष्य स्वीकृत किया था। लेकिन नसरुल्लागंज विकास खंड में लक्ष्य से दो गुने तालाब बना दिए गए। विभाग से मिले आंकड़ों के अनुसार यहां 100 में से 98 तालाब बन कर तैयार हो गए हैं। वहीं सीहोर, आष्टा, बुधनी और इछावार में अभी लक्ष्य अनुरूप भी तालाब नहीं बन सके हैं। लेकिन अधिकारियों ने बिना भौतिक सत्यापन किए हुए ही अधूरे तलाबों का भी भुगतान कर दिया। अब अधिकारी इसकी जांच में जुट गए हैं। दरअसल, शासन की योजनानुसार बलराम तालाब का निर्माण करने वाले अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जाति के किसानों को 50 प्रतिशत का अनुदान दिया जाता है। वहीं सामान्य तथा पिछड़ा वर्ग के किसानों को 40 प्रतिशत अनुदान दिया जाता है। एक बलराम तालाब की लागत 2 लाख रुपए है उस मान से अजा और अजजा के हितग्राही किसान को 1 लाख और सामान्य तथा अन्य पिछड़ा वर्ग के किसान को 80 हजार रुपए का अनुदान दिया जाता है। शेष राशि किसान को स्वयं खर्च करनी पड़ती है। पिछले वित्तीय वर्ष में 252 तालाबों में से 225 तालाबों का कार्य पूर्ण बताकर बिना भौतिक सत्यापन कराए ही अनुदान की राशि 176.920 लाख रुपए का भुगतान कर दिया गया जबकि कई तालाब अभी भी अधूरे पड़े हुए हैं। यही नहीं बिना भौतिक सत्यापन के बनाए गए बलराम तालाबों में भारी लीपापोती की गई है। सत्यापन नहीं होने के कारण जिन किसानों ने तालाब बनाए है उन्हें तो अनुदान मिला ही है। लेकिन जिन किसानों ने तालाब नहीं बनाए है उनकों को भी विभाग अधिकारियों और कर्मचारियों ने सांठगांठ कर अनुदान राशि जारी कर दी है। इससे यह बात तो साफ हो गई है कि मौके पर पहुंच कर तालाबों का भौतिक सत्यापन इसी कारण से नहीं किया गया। सीहोर जिले के उपसंचालक कृषि रामेश्वर पटेल कहते हैं कि जिले में 252 बलराम तालाबों को स्वीकृति दी गई थी, जिसमें से 225 तालाबों का निर्माण कार्य पूरा हो जाने के बाद विभाग द्वारा अनुदान राशि दे दी गई है। यदि भौतिक सत्यापन में गड़बड़ी हुई है तो जांच कराई जाएगी।
फोटोकॉपी लगाकर पैसे निकाले गए
कृषि विभाग द्वारा राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, लघुत्तम सिंचाई योजना, नाफेड निर्माण, नलकूप योजना, वर्मी कम्पोस्ट, बलराम तालाब, बीज ग्राम, राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन, डीजल पंप, फसल प्रदर्शन, कृषि यंत्र, गन्ना विकास योजना, सघन कपास विकास कार्यक्रम आदि के लिए किसानों को मिलने वाली सब्सिडी में किस तरह घपला हो रहा है इसका नजारा धार और रतलाम की जांच में सामने आया है। यहां बिल की फोटोकॉपी लगाकर पैसे निकाल लिए गए। सब्सिडी किसान के खातों में जमा नहीं कराई गई। पंचायती राज संस्थाओं के अधिकारों को ताक पर रखकर हितग्राहियों का मनमर्जी से चयन किया गया। हितग्राहियों को जो सामग्री वितरण किया गया वो संदेहास्पद पाया गया। केन्द्रीय योजनाओं में किसानों से यंत्रों का चयन नहीं कराकर निजी कंपनियों को सीधे क्रय आदेश दिए गए। लक्ष्य के विरुद्ध अधिक पूर्ति कराकर शासन को आर्थिक नुकसान पहुंचाया गया। डॉ.राजौरा ने बताया कि महालेखाकार मप्र ने कैशबुक की जांच में 200 प्रकरण गबन और शासकीय धन की क्षति के पाए हैं। महालेखाकर की रिपोर्ट पर जांच के लिए संचालक कृषि की अध्यक्षता में कमेटी बनाई गई है। कमेटी एक-एक प्रकरण का परीक्षण कर जिम्मेदारी तय करेगी। साथ ही जो अधिकारी दस्तावेज मुहैया नहीं करा रहे हैं उनके खिलाफ कार्रवाई करेगी। गौरतलब है कि कृषि विभाग धार में करोड़ों रुपए का सबसिडी घोटाला हुआ है। इसकी जांच के लिए 6 टीमें बनाई गई है। इसके तहत वर्ष 2012 से 2015 तक जिले में बनाए गए बलराम तालाबों का भौतिक सत्यापन करवाया जाएगा। साथ ही अन्य दो योजनाओं के मामले में भी जांच शुरू करवाई जा रही है।
हर जिले में करोड़ों की हेराफरी
कृषि विभाग द्वारा मिलने वाले अनुदान का अनैतिक लाभ उठाने के लिए अधिकारियों, पंचायत प्रतिनिधियों और किसानों की मिलीभगत से जमकर हेराफेरी की गई है। केंद्र में एनडीए सरकार को सत्तासीन हुए तो महज एक वर्ष ही हुआ है। लेकिन इससे पहले वर्षों तक केंद्र से मिलने वाली करोड़ों रुपए की सहायता के भरोसे तीन-तीन बार कृषि कर्मण अवार्ड लेने वाले मध्यप्रदेश के कृषि विभाग में किस तरह घोटाला और घपला किया जा रहा था, इसकी परतें अब खुल रही हैं। विभाग एक तरफ कृषि को लाभ का धंधा बनाने में जुटा रहा दूसरी तरफ सरकारी सब्सिडी के गोरखधंधे खेल चलता रहा। रतलाम, धार तथा सतना जिलों में कृषि विभाग के अधिकारियों द्वारा भारत सरकार एवं राज्य पोषित योजनाओं में गंभीर अनियमितताएं की गईं। अकेले सतना जिले में करोड़ों रुपए की हेराफेरी हुई। स्प्रिंकलर सेट के वितरण, छोटे एवं बड़े कृषि यंत्रों के वितरण, बीज वितरण कार्यक्रम, सूरज धारा एवं अन्नपूर्णा योजना में बीज अदला-बदली-स्वालंबन-उत्पादन, बीज ग्राम योजना, बलराम तालाब योजना जैसी केंद्र और राज्य सरकार की तमाम योजनाओं में जमकर भ्रष्टाचार हुआ। कई योजनाओं में वित्तीय सीमा से बाहर जाकर लाखों रुपए खर्च कर दिए गए। वर्ष 2013-2014 में आईसोपाम योजना के अन्तर्गत 60 पाइप लाइन डाली जानी थी लेकिन 72 पाइप लाइन डाली गई। इस प्रकार जहां 9 लाख रुपए तक खर्च करने की सीमा थी वहां 27 लाख 23 हजार रुपए खर्च कर दिए गए। यह खर्चा तो कागजों पर लिखा हुआ है। वे 72 पाइप कहां हैं, किस जमीन में बिछे हुए हैं। बिछाए गए भी हैं या नहीं। इसमें भी संदेह है। क्योंकि जब हिसाब गलत है तो बाकी जगह भी गड़बड़ी हो सकती है। किसानों को स्प्रिंकलर सेट देने के लिए फर्जी आवेदन मंगाए गए। आवेदन में किसान द्वारा किस कंपनी का स्प्रिंकलर सेट मांगा गया है इसका कोई उल्लेख नहीं है। जाहिर है कागजों में स्प्रिंकलर सेट बांटे गए। केवल स्प्रिंकलर सेट ही नहीं बल्कि एनएफ.एसएम धान के अंतर्गत वर्ष 2012-2013 में 88 लोगों को 16.20 लाख रुपए के यंत्र बांटने की योजना थी जिसमें 252 लोगों को 36 लाख रुपए के यंत्र बांटे गए। बिना किसी अतिरिक्त स्वीकृति के। जनपद पंचायत की कृषि स्थायी समिति से अनुमोदन प्राप्त किए बगैर किसानों के खाते में पैसा डाल दिया गया। बलराम तालाब योजना में भी कई कृषकों के खाते में पैसे तो डाल दिए गए लेकिन उनकी प्रशासकीय स्वीकृतियां जारी ही नहीं हुई। जब पैसा स्वीकृत नहीं हुआ तो खाते में कैसे पहुंचा। कई ऐसे किसानों को 1-1 लाख रुपए का अनुदान दे दिया गया जो सामान्य वर्ग के संपन्न किसान थे तथा जिन्हें नियमानुसार बलराम तालाब योजना के तहत अनुदान या अन्य लाभ लेने की पात्रता ही नहीं थी। बताया जाता है कि 40 हजार रुपए से लेकर 1 लाख रुपए तक की राशि बिना किसी शासकीय स्वीकृति के किसानों के खाते में डाल दी गई। जो गंभीर अनियमितता की ओर इशारा करती है। कृषि मंत्री गौरीशंकर बिसेन का कहना है कि कुछ गड़बड़ी की शिकायत मिली थी इसलिए जांच कराई जा रही है। जांच चलती रहती है। 30-35 जिलों में जांच कराई जाएगी। जांच का किसी के कार्यकाल से कोई लेना-देना नहीं है। मैं अपने कार्यकाल की भी जांच कर रहा हूं। कुछ अधिकारियों ने फंड जारी करते समय अनुमोदन नहीं लिया इसलिए गड़बड़ी हुई। अधिकारी घपला करते रहे, सरकार आंख मूंदकर देखती रही
अभी तो केवल तीन जिलों का काला-पीला सामने आया है। बाकी जिलों का हाल कहना मुश्किल है। सतना जिले में भी कई ग्रामीण क्षेत्रों में यह भ्रष्टाचार किया गया और सरकार आंख मूंदकर देखती रही। वैसे भी बलराम तालाब योजना में अनुदान राशि का भुगतान प्रथम निर्माण प्रथम अनुदान पद्धति से किया जाता है। लेकिन इसमें वह पद्धति अपनाई ही नहीं गई। यहां तक कि अधिकारियों ने बलराम तालाबों का भौतिक सत्यापन करना भी उचित नहीं समझा। वर्ष 2012 के मार्च माह से लेकर दिसंबर 2014 तक उप संचालक किसान कल्याण तथा कृषि विभाग सतना के पद पर एस के शर्मा, संजीव कुमार शाक्य (प्रभारी उपसंचालक) एपी सुमन पदस्थ रहे। इस दौरान रोकड़ पुस्तिका भी नियमित रूप से नहीं भरी गई। विभाग वित्तीय वर्ष 2014-15 के अंतिम दिवस 31 मार्च 2015 को कार्यालय अवशेष राशि 4 करोड़ 47 लाख 69 हजार 40 रुपए का वर्गीकरण बताने में भी असफल रहा। कई मामलों में अनुदान की राशि पहले ही निकाल ली गई जबकि इसे अग्रिम न निकालने का निर्देश शासन का है। एक जिले में 250 से अधिक गांव आते हैं। ऐसी स्थिति में सभी गांवों में दिए गए अनुदान और विभिन्न योजनाओं के तहत करवाए गए हर एक काम की जांच करना संभव नहीं है। अधिकारियों द्वारा जो जांच पड़ताल की जा रही है। वह बड़ी वित्तीय अनियमितताओं की है। छोटे-बड़े सभी मामलों को मिलाया जाए तो यह एक बड़ी धांधली हो सकती है। विभाग का अनुमान है कि केवल तीन जिले में 75 करोड़ रुपए की हेराफेरी हुई है। राजेश राजौरा ने इस संबंध में सभी 51 जिलों के कलेक्टरों को 22 मार्च को पत्र लिखते हुए 30 अप्रैल तक समस्त जांच करने का कहा था। लेकिन अभी तक कुल तीन जिलों धार, सतना, रतलाम से जांच प्राप्त की गई है। अब कलेक्टरों को और अधिक समय दिया जा रहा है। तीन उप संचालक निलंबित कर दिए गए हैं। जिनके विरुद्ध आपराधिक प्रकरण भी दर्ज किए जा सकते हैं।
इसी प्रकार धार जिले में भी उप संचालक कृषि द्वारा गंभीर वित्तीय अनियमितता करने का मामला सामने आया है। लाखों रुपए की राशि तो मार्च 2015 तक समयोजित नहीं की गई थी। रोकड़ पुस्तिका में बाउचर तक अंकित नहीं थे और किसानों के खाते में राशि तक जमा नहीं कराई गई थी। उप संचालक ने न तो कार्यालयों को नियंत्रित किया और न ही नियमानुसार हितग्राही कृषकों का चयन किया। बीज, उर्वरक, कीटनाशक, औषधि आदि बेचने वाले विक्रेताओं के संस्थानों का निरीक्षण तक नहीं किया न ही उनके द्वारा प्रयुक्त अमानक सामग्री आदि के संबंध में कोई उपयुक्त कार्यवाही की गई। हितग्राही कृषकों को कृषि सामग्री का वितरण संदेहास्पद पाया गया। अन्नपूर्णा-सूरजधारा योजना में हितग्राही कृषकों से उनका अंशदान नहीं लिया गया, बल्कि वरिष्ठ कृषि विकास अधिकारी स्तर से लगने वाली राशि की गणना कर अपने स्तर से राशि जमा कर, दर्शाया गया। 46 लाख 28 हजार 178 रुपए की राशि का समयोजन ही नहीं किया गया। विभिन्न योजनाओं के तहत कृषकों को जो सामग्री वितरित की गई उसकी पावती तक नहीं दी गई। लगभग 22 लाख रुपए की राशि एमपी एग्रो धार को बिना किसी सक्षम अधिकारी की स्वीकृति के अग्रिम दे दी गई। मूल प्रति के बगैर छायाप्रति पर ही बिल की राशि ले ली गई। लगभग सभी विकासखण्डों में कुछ न कुछ गड़बड़ी पाई गई है। स्प्रिंकलर, ड्रिप, पाइप लाइन, डीजल पंप, विद्युत पंप, सीड ड्रिल आदि की खरीद के लिए जो कोटेशन प्रक्रिया अपनाई गई वह भी त्रुटिपूर्ण थी। ज्ञात रहे कि इन यंत्रों की आपूर्ति कृषि विभाग द्वारा विभिन्न कंपनियों से लेते हुए की जाती है। इसके लिए किसान अपना अंश जमा कराते हैं और बाकी सरकारी अनुदान से मिलती है। लेकिन कतिपय कंपनियों को लाभ पहुंचाने के लिए किसानों को उनके मन पसंद यंत्र न देकर उप संचालक ने स्वयं कोटेशन दिए और बाद में उसी के अनुरूप यंत्र प्रदान करवा दिए। इन यंत्रों तथा अन्य योजनाओं के लिए हितग्राही के चयन में कई तरह की गड़बडिय़ा मिली हैं। धार जिले में 573 बीज विक्रेता हैं जिनके निरीक्षण का दायित्व उप संचालक का है। लेकिन इस निरीक्षण में भी कंजूसी बरती गई। कई मामलों में नमूने अमानक पाए जाने के बाद भी कार्रवाई लंबित रखी गई। रोकड़ पुस्तिका, कंटेंजेट रजिस्टर, अग्रिम पंजी आदि के रखरखाव में भी गंभीर अनियमितता पाई गई है। कहीं बाउचर नहीं है तो कहीं पेमेेंट में पारदर्शिता नहीं है। राष्ट्रीय खाद सुरक्षा मिशन की दलहन योजना में भी भारी गड़बड़ी की गई है। बीज ग्राम योजना, बीजों पर अनुदान की योजना, संकर मक्का विस्तार कार्यक्रम, नलकूल योजना सहित तमाम योजना में छोटी से बड़ी गड़बड़ी मिली है। 1 करोड़ 15 लाख 75 हजार रुपए की राशि के बिलों का भुगतान तो किया गया लेकिन इनके भुगतान से संबंधित कॉन्टीजैन्ट रजिस्टर में कोई प्रविष्टी नहीं है तथा बिलों में रजिस्टर का पेज नंबर, पेड एवं केंसिल आदि का भी विवरण नहीं है। यह घपलेबाजी लंबे समय से चल रही है।
अनुदान की प्रक्रिया का नहीं हुआ पालन
रतलाम जिले में भी इसी तरह से उप संचालक द्वारा जमकर भ्रष्टाचार किया गया। फसल प्रदर्शन मेंं बीज, उर्वरक, कीट-नाशक औषधियों के प्रदाय एवं वितरण में वित्तीय अनियमितताएं पाई गई है। जिले में उप संचालक ने वर्ष 2011 से 2015 तक शासन के निर्देशों का न केवल उल्लंघन किया बल्कि त्रिस्तरीय पंचायत राज व्यवस्था का उल्लंघन करते हुए विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत लक्ष्य से अधिक खर्च किए गए। स्प्रिंकलर, पाइप लाइन, पंंप सेट आदि में किसानों को अनुदान देते समय उचित प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया। उप संचालक ने अपने अधीनस्थ कृषि विकास अधिकारियों को कोई लक्ष्य नहीं दिए और मौखिक निर्देशानुसार बिलों का सत्यापन करवाया। वर्ष 2011-12 में 5 लाख 71 हजार रुपए बिना प्रदाय आदेश के खर्च कर दिए। इसी वर्ष प्रदाय सामग्री को झूठा दर्शाकर हड़पने का प्रयास किया और किसानों के नाम पर लूट खसौट की गई। इतना ही नहीं बीज नियंत्रण आदेश 1983 के अंतर्गत उप संचालक कृषि ने बीज गुण नियंत्रण में नियमानुसार वैधानिक कार्रवाई न करते हुए व्यापारियों को संरक्षण प्रदान किया और अपने दायित्व की अवहेलना की। बीज ग्राम योजना में भी किसी भी स्तर पर भौतिक सत्यापन नहीं किया। विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत वितरित माइक्रो न्यूट्रियेंट में भी भारी अनियमितता पाई गई। अस्थाई अग्रिम राशि जो कि 17 लाख 3 हजार के करीब थी के समायोजन में मध्यप्रदेश कोषालय संहिता के सहायक नियम 53 (4) का पालन नहीं किया गया। ऐसा एक नहीं अनेक बार हुआ। शासकीय वाहन से जो यात्रा की गई उसमें भी अनियमितताएं पाई गईं। महालेखाकार द्वारा किए गए ऑडिट में भी 20 वर्ष पुराना सोयाबीन बीज खरीद के मामले में 6 लाख 19 हजार 9 सौ 20 रुपए की अनियमित भुगतान की बात सामने आई है इसके अतिरिक्त राष्ट्रीय कृषि विकास योजना में 13 लाख 50 हजार 500 रुपए व आईसोपाम तिलहन योजना में 44 लाख 99 हजार 140 रुपए की अनियमितताएं पाई गईं। कुछ मामलों में कृषकों की बजाए सीधे संस्थाओं को पैसा दे दिया गया। किसानों के हितों को ताक में रखकर अमानक उर्वरक और दवाएं वितरित की गईं। ये तो कुछ बानगी है। अनियमितताओं और घोटाले की सूची तो बहुत लंबी है। अकेले तीन जिलों में सैकड़ों छोटे-बड़े मामले पकड़ में आए हैं।
...तो फाइलों में दब जाता घोटाला
सब्सिडी के नाम पर प्रदेश में पिछले सात साल से हो रहा घोटाला फाइलों में दब जाता, अगर विभाग के प्रमुख सचिव राजेश राजौरा सजग नहीं रहते। उनकी जागरूकता और सजगता से ये घोटाला पकड़ा गया। अन्यथा सारी अनियमितताएं फाइलों में दफन होकर कहां गोल हो जाती पता ही नहीं चलता। राजौरा के कहने पर ही विभाग ने प्रदेश भर के सारे जिलों में कृषि से संबंधित किए गए खर्चों को फिर से खंगालना शुरू किया है। इस कारण उनकी पूर्व संचालक डॉ. डीएन शर्मा से सीधी टक्कर भी हुई थी। बताया जाता है कि राजौरा को कई दिनों से अनियमितताओं की शिकायत मिल रही थी उन्होंने जांच में देरी नहीं की और परिणाम सामने आया। अब यह जांच करना बाकी है कि सभी 51 जिलों में से कितने जिलों में ये घोटाला हुआ है। इसके लिए उन्होंने सभी जिलों के कलेक्टरों से कृषि क्षेत्र में दी जाने वाली सब्सिडी की रिपोर्ट मांगी है।
जिलों ने दबाई सब्सिडी घोटाले की जांच रिपोर्ट
भोपाल कृषि योजनाओं में दी जाने वाली सब्सिडी में घोटाले की जांच रिपोर्ट जिलों में कलेक्टरों ने दबा ली है। 30 अप्रैल तक सभी कलेक्टरों को जिले में एक विकास खंड की हितग्राहीवार जांच कर रिपोर्ट कृषि विभाग को देनी थी, लेकिन विभाग के प्रमुख सचिव डॉ.राजेश कुमार राजौरा को रिपोर्ट नहीं मिली, वहीं विभागीय स्तर पर जांच के बाद धार के तत्कालीन उप संचालक आरपी कनेरिया और रतलाम के सीके जैन को निलंबित कर दिया है। यह खुलासा ड्रिप स्प्रिंकलर योजना की जांच में सामने आया था। इसके बाद प्रमुख सचिव कृषि ने सभी कलेक्टरों से वर्ष 2014-15 में जांच करके प्रतिवेदन 30 अप्रैल तक मांगे थे। जिला पंचायतों के सीईओ ने भी नहीं बताया कि हितग्रहियों के चयन में पंचायतीराज संस्थाओं के अधिकारों का हनन हुआ या नहीं। डॉ.राजौरा ने बताया कि धार, रतलाम में विभागीय स्तर पर कराई जांच में गड़बड़ी के प्रमाण मिले हैं। इसके आधार पर रतलाम के तत्कालीन उप संचालक सीके जैन और धार के आरपी कनेरिया को निलंबित कर संचालनालय में अटैच कर दिया है। इसी तरह सतना में उप संचालक रहे एसके शर्मा के खिलाफ आरोप पत्र जारी कर जवाब तलब किया जाएगा। शर्मा अभी राज्य कृषि विस्तार एवं प्रशिक्षण संस्थान में पदस्थ हैं। रीवा के तत्कालीन उप संचालक अमिताभ तिवारी को भी जांच में दोषी पाया गया है। तिवारी करीब चार माह से निलंबित चल रहे हैं। --------------------

चिटफंड का चमत्कारी चक्रव्यूह

12वीं पास ने चिटफंड कंपनी बनाकर ठगे 100 करोड़
फैक्ट फाइल
- हिंदुस्तान में 10 लाख कंपनियां और हजारों करोड़ की ठगी
- प्रदेशभर में 250, आरबीआई/सेबी से पंजीबद्ध एक भी नहीं
- 20 लाख से ज्यादा लोगों को बनाया शिकार
- नीति के आड़ में कंपनियों को बचाने की राजनीति
- छोटे शहर-कस्बे-गांव गिरफ्त में
- भोपाल, इंदौर, जबलपुर और ग्वालियर जैसे शहरों में चटकदार ऑफिसों को बनाया लूट का गढ़
vinod upadhyay
भोपाल। पांच साल में पैसा दोगुना करके देने या जमा पैसे की एवज में सोने का सब्जबाग दिखाकर लोगों को टोपी पहनाने वाली चिटफंड कंपनियों ने अकेले मप्र में ही लाखों लोगों को अपना शिकार बनाया है। इसका परिणाम यह हुआ है कि लोग कंपनियों पर विश्वास कर अपनी कमाई उन्हें सौंपते रहे जिससे कंपनियां आबाद होती रहीं और लोग बर्बाद। देश में लोगों को बड़े-बड़े सपने दिखाकर ठगने का गोरखधंधा इस कदर फलफूल रहा है कि एक 12वीं पास रातों-रात अरबपति बन गया। लोगों को ठगने के इस गोरखधंधे का खुलासा होने के बाद भोपाल की एमपी नगर पुलिस ने इंदौर से साईं प्रकाश ऑर्गेनिक फूड्स लिमिटेड और साईं प्रकाश प्रॉपर्टी डेवलपमेंट लिमिटेड कंपनी के संचालक को गिरफ्तार किया है। इन दोनों कंपनियों का नेटवर्क पांच राज्यों में है। पुलिस का दावा है कि केवल मध्यप्रदेश में ही 3000 से ज्यादा लोगों से डिपॉजिट के जरिए करीब 100 करोड़ रु. की ठगी की गई। ये वही कंपनी हैं, जिनके खिलाफ सिक्युरिटीज एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (सेबी) की जांच में करीब 800 करोड़ का घपला सामने आया था। कंपनी संचालक मूलत: शहडोल निवासी पुष्पेंद्र प्रताप सिंह बघेल है। 12वीं पास पुष्पेंद्र ने आईटीआई के बाद एक कंपनी में नौकरी से शुरुआत की। लेकिन पिछले 10 सालों में अपनी कंपनियों का नेटवर्क खड़ा कर लिया। सीहोर के 30 वर्षीय रमेश वर्मा समेत 37 अन्य लोगों ने पुष्पेंद्र के खिलाफ धोखाधड़ी की शिकायत की थी। एएसपी रियाज इकबाल के मुताबिक इसे आधार बनाकर एमपी नगर पुलिस ने 18 अप्रैल को मामला दर्ज किया। पुलिस ने कंपनी के रणविजय सिंह, मृगेंद्र सिंह बघेल, धीरेंद्र सिंह, पुष्पांजलि और शैलेंद्र सिंह को भी आरोपी बनाया।
ग्वालियर में कारिंदे चला रहे थे कारोबार
साई प्रकाश फूड्स ने ग्वालियर में भी अपनी ब्रांच शुरू की थी। लेकिन यहां पर पुष्पेंद्र सिंह सीधे तौर पर सामने नहीं आया। उसके कारिंदे कंपनी की ब्रांच संचालित करते थे। विश्वविद्यालय थानाक्षेत्र में इसकी कंपनी के खिलाफ धोखाधड़ी का मामला दर्ज किया गया है। टीआई मदन मोहन मालवीय का कहना है कि यहां दर्ज मामले में पुष्पेंद्र सिंह आरोपी नहीं है बल्कि कंपनी के अन्य चार पदाधिकारी आरोपी हैं। फिलहाल इनकी गिरफ्तारी नहीं हो सकी है इसके लिए प्रयास किए जा रहे हैं।
सेबी ने ब्लैकलिस्ट किया तो सोसायटी बनाई
पुष्पेंद्र ने दोनों कंपनियां वर्ष 2009 में ग्वालियर से शुरू की थीं। इनकी शाखाएं मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़, उप्र और झारखंड तक फैली हैं। अब तक केवल मप्र में तीन हजार से ज्यादा लोगों से करीब सौ करोड़ रुपए के डिपॉजिट का खुलासा हुआ है। अन्य राज्यों में निवेशकों की संख्या इससे कहीं ज्यादा है। वर्ष 2013 में दोनों कंपनियों की जांच सेबी ने भी की थी। अप्रैल 2014 में सेबी ने दोनों कंपनियों को ब्लैकलिस्ट कर दिया। साथ ही निर्देश दिए कि इस कंपनी के संचालक अब न तो किसी से रकम जमा करा सकते और न ही कोई दूसरी कंपनी खोल सकते हैं। सेबी ने आठ सौ करोड़ रुपए का घपला करार दिया था। कंपनियों के ब्लैकलिस्ट होने के बाद वर्ष 2013 में पुष्पेंद्र ने चंबल-मालवा चिटफंड सोसायटी रजिस्टर्ड करा ली। इसमें 21 मेंबर हैं। रजिस्ट्रेशन के लिए आरोपी ने ग्वालियर का पता दिया और इसका हेड ऑफिस नोएडा में बनाया। इस कंपनी की शाखाएं भी मप्र, उप्र और राजस्थान में खोली गईं। पुलिस को अब तक सौ लोगों की जमा रकम का रिकॉर्ड मिल चुका है।
जिस कंपनी में नौकरी शुरू की, वह भी ब्लैकलिस्ट
एएसपी के मुताबिक पुष्पेंद्र ने 12वीं पास करने के बाद आईटीआई किया। वर्ष 2005 में वह पीएसीएल इंफ्रास्ट्रक्चर कंपनी में छोटा मुलाजिम था। सेबी ने इस कंपनी को भी ब्लैकलिस्ट कर दिया। इसके बाद उसने वर्ष 2009 में अपनी कंपनी शुरू कर ली। रीवा, नोएडा और भोपाल में उसके नाम से करोड़ों की प्रॉपर्टी होने का पता पुलिस को चला है। उसके खिलाफ वर्ष 2013 में कानपुर के फैजलगंज थाने में धोखाधड़ी का प्रकरण दर्ज हुआ, लेकिन कुछ दिनों बाद ही जमानत मिल गई थी। इंदौर से गिरफ्तार चिटफंड कंपनी के संचालक पुष्पेंद्र सिंह बघेल ने अरबों की संपत्ति बना ली थी। वह लोगों को मुनाफे का लालच देकर इस मुकाम पर पहुंचा है। पूछताछ में उसने नोएडा, रायपुर, भिलाई, राजस्थान, झारखंड और मप्र में संपत्ति की बात पुलिस के सामने कबूल की है। कंपनी संचालित करने से हुए फायदे से पुष्पेंद्र ने ज्यादातर पैसा जमीन खरीदने में लगाया है, ताकि बाद में उन पर प्लॉटिंग कर सके। साईं प्रकाश ऑर्गेनिक फूड्स लिमिटेड और साईं प्रकाश प्रॉपर्टी डेवलपमेंट लिमिटेड कंपनी के संचालक मंडल में शामिल रणविजय सिंह, मृगेंद्र सिंह बघेल, धीरेंद्र सिंह, पुष्पांजलि और शैलेंद्र सिंह की पुलिस तलाश कर रही है। पुलिस को इन कंपनियों से जुड़े दस्तावेज जब्त करने हैं, साथ ही पुष्पेंद्र की संपत्ति से जुड़े कागजात भी हासिल करने हैं।
इन शहरों में है अरबों की संपत्ति >नोएडा में चार मंजिला मकान। >नोएडा में कमर्शियल भवन। >मारूति शॉप भिलाई रोड में साईं प्रकाश प्रॉपर्टी डेवलपमेंट का ऑफिस। >तामिया (राजस्थान) में भवन। >झारखंड के गुमला में एक एकड़ जमीन। >चौमू (राजस्थान) में जमीन। >झुंझुनूं (राजस्थान) में जमीन। >रीवा एयरपोर्ट के पास 41 एकड़ जमीन।
देश भर में 26 सौ करोड़ का गोरखधंधा
साईं प्रसाद चिटफंड कंपनी ने पूरे भारत में करीब 26 सौ करोड़ का गोरखधंधा फैला रखा था। इसका मास्टरमाइंड पुणे का बाला साहब भापकर है ,जो कंपनी का प्रमुख कर्ताधर्ता है। इस कंपनी के कर्ताधर्ता लोगों को दोगुना रकम का लालच देकर फरार हो जाते थे। देशभर के छह राज्यों में इनका गोरखधंधा फैला था। शहडोल का रहने वाला पुष्पेन्द्र ने चिटफंड कंपनी की शुरुआत शहडोल, रीवा समेत उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों से शुरू की थी। उसकी कंपनियों के गोरखधंधे की जांच नहीं हो सके, इसके लिए उसने कुछ साल पहले एक नेशनल न्यूज चैनल शुरू किया था। जो फिलहाल बंद बताया जा रहा है। प्लास किसान एग्रोटेक लिमिटेड, पर्ल एग्रोटेक कॉरपोरेशन लिमिटेड (पीएसीएल, प्लस), सांई प्रकाश ग्रुप ऑफ कंपनी, सांई प्रसाद फूड्स लिमिटेड, सांई दीप, श्रद्धा इंडिया सेल्फ हेल्प ग्रुप सरल, जेकेवी मल्टी स्टेट कंपनी, डॉल्फिन कंपनी, वास्तव एलआर, रेनबो ऑफ ग्रुप कोलकाता वायर इंडस्ट्रीज लिमिटेड आदि चिटफंड कंपनिया करोड़ों रुपए लेकर प्रदेश से भाग चुकी हैं।
बघेल को बचाने हरियाणा से आ रहे फोन कॉल
साईं प्रकाश ऑर्गेनिक फूड्स लिमिटेड और साईं प्रकाश प्रॉपर्टी डेवलपमेंट लिमिटेड कंपनी के संचालक पुष्पेंद्र सिंह बघेल ने एक कंपनी के छोटे मुलाजिम के रूप में जिंदगी की शुरूआत की थी। देखते ही देखते वह करोड़ों रुपए का मालिक बन बैठा। देश के बड़े राजनेताओं से संपर्क की बदौलत वह इस मुकाम पर जा पहुंचा। अब वही राजनेता उसे छुड़ाने के लिए पुलिस पर दबाव बना रहे हैं। पुलिस ने उन लोगों की भी पड़ताल शुरू कर दी है, जिनके जरिए बघेल ने इतनी संपत्ति बना ली है। अफसरों के पास ज्यादातर फोन हरियाणा से जुड़े राजनेताओं के आ रहे हैं। पुलिस मुख्यालय से लेकर जांच से जुड़े अफसरों को भी फोन किए जा चुके हैं, ताकि बघेल पर की जा रही कार्रवाई में नरमी बरती जाए। मल्टी सुपर स्पेशिएलिटी हॉस्पिटल में मुफ्त इलाज देने का दावा कर लोगों को ठगने वाले डॉक्टर हितेश शर्मा को भी पुलिस ने अदालत में पेश कर रिमांड पर ले लिया। पुष्पेंद्र बघेल ने कहा कि कंपनी में उसने केवल 88 करोड़ रुपए का डिपॉजिट करवाया है। उसकी संपत्ति 200 करोड़ की है। करीब आठ महीने पहले उसने अपना न्यूज चैनल भी बंद कर दिया। उसका कहना है चैनल बेचकर सबकी रकम चुका दूंगा। बघेल ने कहा कि कुछ लोग मेरे पीछे पड़े हैं, मुझे उलझाना चाहते हैं।
चिटफंड कंपनी का सोलर पॉवर प्रोजेक्ट रद्द
चिटफंड कंपनी साईंप्रकाश के प्रबंध संचालक की गिरफ्तारी के साथ ही कंपनी पर शिकंजा कसना शुरू हो गया है। रीवा में कंपनी के महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया गया है। यह सोलर पॉवर प्लांट रीवा-सीधी जिले के सीमाई क्षेत्र बदवार पहाड़ में लगाया जा रहा था। कंपनी द्वारा इस प्रोजेक्ट का प्रचार-प्रसार भी तेजी से किया गया था और बदवार पहाड़ में प्रोजेक्ट की शुरुआत भी हो गईथी। कंपनी ने बदवार पहाड़ में सोलर पॉवर प्लांट लगाने का बोर्ड भी लगा लिया था और सड़कें बनाने का काम भी शुरू कर दिया गया था। इसी बीच शासन ने साईंप्रकाश के पॉवर प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया है। ऊर्जा के क्षेत्र में बड़ा निवेश करने के कंपनी के मंसूबों पर पानी फिर गया है। बदवार के साथ ही शहडोल में भी 230 एकड़ में पॉवर प्रोजेक्ट लगाने की तैयारी में कंपनी थी। इसमें करीब दो हजार करोड़ रुपए से अधिक का निवेश कंपनी करने जा रही थी। संचालक की गिरफ्तारी के बाद उसके अन्य कई प्रोजेक्टों में पेच फंसता जा रहा है।
संचालक की गिरफ्तारी के बाद कसा शिकंजा
चिटफंड कंपनी साईंप्रकाश प्रायवेट लिमिटेड के प्रबंध संचालक पुष्पेन्द्र सिंह बघेल की गत दिवस हुईगिरफ्तारी के बाद कंपनी के सभी प्राजेक्टों पर शिकंजा कसने की तैयारी की गईहै। रीवा में रियल स्टेट के नाम पर कारोबार करने वाली इस कंपनी ने बदवार में 100 मेगावाट का सोलर पावर प्राजेक्ट लगाने की तैयारी की थी। कंपनी द्वारा बदवार पहाड़ में लगाए गए बोर्ड को हटा दिया गया है।
नौकरी के नाम पर रुपए भी जमा कराए
बदवार में 100 मेगावाटके सोलर पॉवर प्लांट लगाए जाने के नाम पर साईंप्रकाश कंपनी ने दर्जनों की संख्या में युवाओं से बायोडाटा जमा कराया है। जिसमें रीवा के अलावा सीधी और शहडोल के लोग सबसे अधिक हैं। कंपनी के दफ्तर में कुछ दिन पहले ही ऐसे लोगों ने हंगामा मचाया था और आरोप लगाया था कि कंपनी के कर्मचारियों ने नौकरी देने के नाम पर कुछ रुपए भी जमा करा लिया है। हालांकि यह मामला बाद में शांत हो गया।
प्रोजेक्ट की भूमि का होगा सीमांकन
विश्वबैंक के सहयोग से बदवार में जहां पर 750 मेगावॉट का प्रोजेक्ट प्रस्तावित है। उस पर बीते सप्ताह मुख्य सचिव ने आदेश जारी किया है कि सीमांकन कराया जाए। जिला अक्षय ऊर्जा अधिकारी आरएस गौतम ने बताया कि 1250 हेक्टेयर में यह प्रोजेक्ट लगना है इस कारण उसका नक्शा तैयार करने के साथ ही सीमांकन कराया जाएगा। उन्होंने बताया कि साईंप्रकाश कंपनी ने जहां पर अपना बोर्डलगाया गया था और कुछ काम भी कराया है उस जगह की भी रिपोर्ट भेजी जाएगी। उपसचिव नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा मृदुल खरे कहते हैं कि साईंप्रकाश कंपनी ने 100 मेगावॉट का सोलर पॉवर प्लांट रीवा के बदवार में लगाने की अनुमति चाही थी। उसके आवेदन को रद्द कर दिया गया है।
चिटफंड कंपनियों का महफूज गढ़ बना मप्र
चिटफंड कंपनियों के खिलाफ आरबीआई से लेकर सेबी तक शिकंजा कस चुकी है। छत्तीसगढ़, बंगाल से लेकर झारखंड, उत्तराखंड तक कानून और नीतियां बनाई जा रही है। वहीं मप्र चिटफंड कंपनियों का महफूज गढ़ बन चुका है। यहां दो-पांच-दस नहीं बल्कि सैकड़ों की तादाद में कंपनियां नितनए कारनामे दिखा रही है। जबकि मप्र में एक भी चिटफंड कंपनी रजिस्टर्ड नहीं है। चटकदार ऑफिस और कैबिन दिखाकर जमा रकम दो से तीन गुना करके देने के दावे के साथ छोटे शहरों-कस्बों के लोगों का अपना शिकार बनाने वाली इन तमाम कंपनियों का कोई वैधानिक वजूद है ही नहीं। उनके रंग-बिरंगे ब्रोशर, पेम्पलेट और वैधानिकता के नाम पर दिखाए जाने वाले तमाम दस्तावेज सिर्फ और सिर्फ छलावा है और कुछ नहीं। यह बात अलग है कि इन चिटफंड कंपनियों के खिलाफ कार्रवाई को प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों ने अपनी कमाई का जरिया बना रखा है। इसीलिए सैकड़ों शिकायतों से पहले इन कंपनियों पर कार्रवाई होती नहीं। होती भी है तो इन्हें कुछ ही दिनों में नए रंग-रूप में फिर आगे कर दिया जाता है लूट खसौट के लिए।
सेबी और आरबीआई के अनुसार मप्र में एक भी चिटफंड कंपनी पंजीबद्ध नहीं है। बावजूद इसके सैकड़ों कंपनियां बेधड़क-बेखौफ लोगों को सब्जबाग दिखकार चांदी काट रही है। वह भी उस स्थिति में जब हाईकोर्ट मप्र में चिटफंड प्रतिबंधित कर चुकी है और मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान स्वयं चिटफंड की मुखालफत करते नजर आते हैं। सूत्रों की मानें तो भोपाल, इंदौर, ग्वालियर में दफ्तर खोलकर कंपनियां देवास, शाजापुर, सिहोर, धार, राजगढ़, गुना, बड़वानी, खरगोन, रायसेन, बैतूल जैसे छोटे शहरों और उनके कस्बों को निशाना बना रही है। कम वक्त में ज्यादा कमाई के लालच ने सैकड़ों को दो जून की रोटी तक का मोहताज कर दिया है। चिटफंड कंपनियों का आर्थिक-राजनीतिक नेटवर्क इतना तगड़ा है कि उनके खिलाफ ठोस कार्रवाई नहीं हो पाती। अब जब बड़े-बड़े मामले सामने आने लगे हैं तब जाकर सरकार भी सख्त नजर आती है। वरना इससे पहले तो पुलिस भी एफआईआर नहीं लिखती थी।
ये हैं चिटफंड कंपनियां....
सांई सर्वोत्तम एजुसाफ्ट कापोर्रेट सर्विसेस प्रालि, सांई सर्वोत्तम संपत्ति डेवलपर्स एंड इंफ्रा. प्रालि, एसएसएस कॉपोर्रेट ग्रुप, सनराइज, साईं प्रसाद, साईंराम, आदर्श क्रेडिट को ऑपरेटिव सोसाइटी लिमिटेड, गरिमा रियल स्टेट, दिव्यानी, एचबीएन, मिलियंस माइंस इंफ्राट्रक्चर, एडीवीडी, जी-लाइफ इंडिया, रोजवेली, बीएनजी ग्लोबल, जीएन गोल्ड, एवएम रियल एस्टेट एंड अलाइड लिमिटेड, सनसाइन इन्फ्राबुल कॉर्प, पीएसीएल लिमिटेड, वी रिलेशन इंडिया लिमिटेड, जेएसवी डेवलपर्स प्रा.लि., केएमजी इंडिया लिमिटेड, जीएनडी इंडिया, जीएन डेयरी लिमिटेड, एचबीएन क्रेडिट। यह कंपनियां कार्रवाई या कुछ दिनों की फरारी के बाद नए नाम से दोबारा अपना काम शुरू कर देती हैं।
देश भर में 10 लाख फर्जी चिटफंड कंपनियां
देश में करीब 10 लाख चिटफंड कंपनियां संचालित हो रही है। इनमें केवल 12 हजार 120 कंपनियां ही रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) द्वारा अधिकृत है। मप्र और छत्तीसगढ़ में तो किसी भी कंपनी को आरबीआई से मान्यता प्राप्त नहीं है। इसमें नॉन बैकिंग को लेकर कई केटेगरी है। इनमें एडवांस व डिपाजिट योजना को लेकर अलग-अलग नियम निर्धारित हैं। यदि किसी संस्था के नाम के साथ डेवलपर जैसा शब्द जुड़ा है और उसके द्वारा उपभोक्ता से किश्त में राशि ली जा रही है तो उसे प्राप्त किए गए रकम के एवज में जमीन दी देना होगा। उपभोक्ता को नगद भुगतान नहीं कर सकेगा। यदि वह ऐसा करता है तो आरबीआई के शर्तों का उल्लंघन माना जाएगा। आरबीआई उसकी मान्यता समाप्त कर सकती है। अवैध तरीके से पैसा जुटाने वाली पोंजी स्कीमों ने 2013 में निवेशकों को खूब रुलाया। कॉरपोरेट गवर्नेस की कमियों और नियामकीय चूकों का फायदा उठाकर कंपनियों ने फजीर्वाड़े के जरिये आम निवेशकों को निशाना बनाया। लोगों को करीब 40 हजार करोड़ रुपये का चूना लगा। जमीनी निवेश, सोना निवेश, आलू बांड, बकरी पालन, घी में निवेश जैसी फर्जी योजनाओं के जरिये घोटालेबाजों ने खूब चांदी काटी।
क्या है चिटफंड कंपनी और कैसे करती है काम
चिटफंड एक्ट 1982 के मुताबिक चिटफंड स्किम का मतलब होता है कि कोई शख्स या लोगों का ग्रुप एक साथ समझौता करे। समझौते में एक निश्चित रकम या कोई चीज एक तय वक्त पर किश्तों में जमा की जाए और तय वक्त पर उसकी नीलामी की जाए। जो फायदा हो बाकी लोगों में बांट दिया जाए। इसमें बोली लगाने वाले शख्स को पैसे लौटाने भी होते हैं। नियम के मुताबिक ये स्कीम किसी संस्था या फिर व्यक्ति के जरिए आपसी संबंधियों या फिर दोस्तों के बीच चलाया जा सकता है।लेकिन आम तौर पर ऐसा होता नहीं है। ये चिटफंड स्कीम कब पॉन्जी स्कीम में बदल जाती है कोई नहीं जानता है। आम तौर पर चिटफंड कंपनियां इस काम को मल्टीलेवल मार्केटिंग में तब्दील कर देती हैं। मल्टीलेवल मार्केटिंग यानि अगर आप अपने पैसे जमा करते हैं साथ ही अपने साथ और लोगों को भी पैसे जमा करने के लिए लाते हैं तो मोटे मुनाफे का लालच। ऐसा ही बाजार से पैसा बटोरकर भागने वाली चिटफंड कंपनियां भी करती हैं। वो लोगों से उनकी जमा पूंजी जमा करवाती हैं। साथ ही और लोगों को भी लाने के लिए कहती हैं। बाजार में फैले उनके एजेंट साल, महीने या फिर दिनों में जमा पैसे पर दोगुने या तिगुने मुनाफे का लालच देते हैं।
मनी सर्कुलेशन कंपनी चलाना ही अपराध
प्राइज चिट्स एंड मनी स्कीम बैनिंग एक्ट 1978 के तहत ऐसी मनी सर्कुलेशन कंपनियां चलाना ही अपराध है, जो निवेशकों को मनी सकुर्लेशन योजना का लालच देती हैं। ऐसे में कंपनी निवेशको को पैसे लौटा भी देती है तो दोषी मानी जाएगी। एक्ट में ऐसे संचालकों के खिलाफ भी कार्रवाई हो सकती है, जिन्होंने नई कंपनी बनाई है। भले उसमें एक भी सदस्य नहीं है, यदि एक्ट के दायरे में आ रही है तो उसकी गिरफ्तारी संभव है। चिटफंड या मनी सर्कुलेशन स्कीम वाली कंपनियों में पैसा जमा कराना भी कानूनन गलत है। प्राइज चिट्स एंड मनी सर्कुलेशन स्कीम बैनिंग एक्ट 1978 के सेक्शन तीन में ये प्रावधान किया गया है। इसके अंतर्गत मनी सर्कुलेशन व चिटफंड कंपनियों का सदस्य बनना भी अपराध है। इसलिए लोगों को चाहिए कि वे ऐसी कंपनियों से दूर रहें। यहां तक कि जिसने कंपनी का फॉर्म भर दिया उसे भी पुलिस मुजरिम मान सकती है। पैसा लगाने वालों के लिए भी उतनी ही सजा का प्रावधान है जितना कंपनी चलाने वालों के लिए।
63 प्रतिशत पुलिसवालों को नहीं मालूम चिटफंड एक्ट
निवेशकों को ठगी का शिकार बना रही चिटफंड और मल्टी लेवल मार्केटिंग कंपनियों के खिलाफ प्राइज चिट्स एंड मनी सकुर्लेशन स्कीम बैनिंग एक्ट 1978 के तहत कार्रवाई की जाए तो ऐसी कंपनियां बच नहीं सकती। दिक्कत यह है कि 63 प्रतिशत पुलिसवालों को इस एक्ट की जनकारी ही नहीं है। इसका खुलासा राजस्थान में हुए एक सर्वे में हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार ज्यादातर कार्रवाई धोखाधड़ी की धाराओं में की जाता है।
चिटफंड का चक्रव्यूह
- इंदौर की आई माता मार्केटिंग प्राइवेट लि. ने आधा दर्जन एजेंटों को साथ लेकर 3500 रुपए जमाकर 45-90 दिन में एक लाख रुपए का लोन दिलाने का वादा करके 100 से ज्यादा लोगों को टोपी पहनाई। - साढ़े तीन हजार रुपये लगाकर लाखों रुपये हर माह कमाई का सपना दिखाने वाली ट्यूलिप चिटफंड कंपनी गायब हो गई। ट्यूलिप कंपनी के देशभर में 30 लाख से ज्यादा ग्राहक हैं। 3200 रुपये लेकर एक लाख रुपये माह कमाने का सपना कंपनी द्वारा अपने निवेशकों को दिखाया गया था। अकेले इंदौर में ही एक लाख से ज्यादा निवेशकों के पैसा लगाए जाने की बात सामने आ रही है। - कोलकाता की रोजवैली कंपनी के साथ जीलाइफ और बीएनजी गोल्र्ड के खिलाफ प्रशासन ने कार्रवाई की। ऐसी कि जीलाइफ का कारोबार बढ़कर दो गुना हो गया। अब निवेशक भटक रहे हैं। - 30 मई 2013 को जीएनटी मार्केट के एक ऑटोमोबाइल व्यापारी कीरकी शिकायत पर चिटफंड कंपनी सारधा ग्रुप का कर्ताधर्ता सुदीप्तो पर इंदौर में भी 58 लाख की ठगी का केस दर्ज हुआ। 30 हजार करोड़ की ठगी की है। मामले में मिथुन चक्रवति तक से पूछताछ हो चुकी है। - सारणी पाथाखेड़ा से मोटी रकम लूटकर फरार हुई चिटफंड कंपनी संचालकों का सुराग नहीं लग पा रहा है। क्षेत्र की जनता ने बंगाली बंधुओं पर भरोसा कर डबल के लालच में करीब 120 करोड रुपए गवा दिए हैं। - सीबीआई का दावा पीएसीएल और पीजीएफ पोंजी स्कीम चलाकर करीब 5 करोड़ निवेशकों को 45,000 करोड़ रुपए का चूना लगाया। - उत्तर बंगाल में 500 करोड़ का चिटफंड घोटाला, 27 कंपनियां हुईं फरार, निवेशकों के आए दिन प्रदर्शन।

सफेदपोशों के संरक्षण में 10,000 करोड़ का डीमेट फर्जीवाड़ा

मंत्री, सांसद, विधायक, जज और अफसरों के बच्चों के लिए नियमों को किया दरकिनार
उपरीत की गिरफ्तारी से उजागर हुआ पीएमटी से बड़ा फर्जीवाड़ा
vinod upadhyay
भोपाल। प्रदेश में विकास के नाम पर सत्ता में आई भाजपा के अब तक के कार्यकाल में जहां भरपूर विकास हुआ है, वहीं ऐतिहासिक भ्रष्टाचार भी हुआ है। खासकर पिछले 11 साल में मप्र में शिक्षा के नाम पर जो फर्जीवाड़ा हुआ है उसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी। मप्र जिस तरह एजुके शन हब बनते जा रहा है, उसी तरह यहां युवाओं के साथ ठगी का धंधा भी बढ़ता जा रहा है। इसी का परिणाम है कि अभी देश के सबसे बड़े महाघोटाले व्यापमं की जांच चल ही रही है, वहीं अब निजी डेंटल और मेडिकल कॉलेजों में बीते 9-10 सालों में हुए डेंटल ऐंड मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट (डीमेट) घोटाले की परतें भी खुलने लगी हैं। डीमेट के कोषाध्यक्ष योगेश उपरीत ने गिरफ्तारी के बाद यह खलासा करके सनसनी फैला दी है कि किस तरह प्रदेश के निजी डेंटल और मेडिकल कॉलेजों ने मंत्री, सांसद, विधायक, जज और अफसरों के बच्चों के लिए नियमों को ताक पर रखकर डीमेट फर्जीवाड़ा किया है। जानकारों के अनुसार, लगभग 10,000 करोड़ का यह डीमेट फर्जीवाड़ा कॉलेज संचालकों और सफेदपोशों की आपसी साठगांठ से हुआ है।10 हजार करोड़ रुपए से अधिक के इस डीमेट घोटाले में भाजपा के साथ-साथ कांग्रेसी भी फंस रहे हैं। निजी कॉलेजों ने 20 लाख रुपए से लेकर 1 करोड़ और उससे भी अधिक राशि लेकर हजारों एडमिशन दे डाले। इस मामले में गिरफ्तार किए गए डीमेट के कोषाध्यक्ष रहे योगेश उपरित ने कई चौंकाने वाली जानकारियां भी दी हैं।
सरकारी संरक्षण में निजी मेडिकल सीटों की नीलामी
व्यापमं की ही तरह डेंटल ऐंड मेडिकल एंट्रेंस टेस्ट (डीमेट) घोटाला सरकारी संरक्षण में किया गया। व्यापमं घोटाले में जहां सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में सरकारी कोटे की सीटें बेची जाती थीं, वहीं डीमेट घोटाले में निजी मेडिकल और डेंटल कॉलेजों की बाकी बची सीटें नीलाम की जाती थीं। इस तरह व्यापमं के साथ मिलकर डीमेट घोटाला मध्य प्रदेश की सारी मेडिकल सीटों को एक ऐसे काले कारोबार में बदल देता था, जहां होनहार बच्चों की किस्मत के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाते थे और सफदपोशों के बच्चे मोटी रकम देकर डॉक्टर बन जाते थे। इस घोटाले का आकार 10,000 करोड़ रु. तक पहुंच चुका है। जिन लोगों पर गलत तरीके से डीमेट के जरिए दाखिला लेने का शक है, उनमें मध्य प्रदेश भाजपा और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के बाल-बच्चे भी शामिल हैं।
कैसे खुला घोटाला
घोटाले की परतें उघाडऩे से पहले यह जान लें कि डीमेट असल में है क्या? जिस तरह मेडिकल में दाखिले के लिए व्यापमं प्री मेडिकल टेस्ट (पीएमटी) का आयोजन कराता है, उसी तरह निजी मेडिकल डेंटल और कॉलेजों की मैनेजमेंट कोटे की सीटों के लिए एसोसिएशन फॉर प्राइवेट मेडिकल ऐंड डेंटल कॉलेजेज (एपीएमडीसी) डीमेट आयोजित करती है। मध्य प्रदेश में निजी मेडिकल कॉलेजों में सीटों पर दाखिले की प्रक्रिया पर नजर डालें तो इन कॉलेजों में 15 फीसदी सीट एनआरआइ कोटे की, 43 फीसदी डीमेट और 42 फीसदी सीटें राज्य कोटे यानी पीएमटी से भरी जाती हैं। गड़बड़ी का पहला मामला डीमेट-2006 में सामने आया, तब अदालत ने यह परीक्षा रद्द कर दी थी। बाद में लंबी कानूनी प्रक्रिया के बाद परीक्षा बहाल हो गई और लोग इस विवाद को भूल गए। लेकिन चार महीने पहले जब व्यापमं घोटाले की जांच के सिलसिले में ग्वालियर एसआइटी ने अतुल शर्मा नाम के दलाल को गिरफ्तार किया तो उसने फर्जी तरीके से कराए गए कई दाखिलों का जिक्र किया। इनमें से 2010 एमएस कोर्स में एक दाखिला ऋचा जौहरी का था। ऋचा जबलपुर के मशहूर न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. एम.एस. जौहरी की बेटी हैं। मामले के खुलासे के बाद बाप-बेटी को गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में ऋचा फरार हो गई। शर्मा ने बताया कि व्यापमं घोटाले के मुख्य आरोपी नितिन मोहिंद्रा को इस दाखिले के बारे में ज्यादा जानकारी है। जब पहले से जेल में बंद मोहिंद्रा से पूछताछ हुई तो उसने कहा कि यह नाम तो योगेश कुमार उपरीत ने उसके पास भेजा था। यह शख्स 2003-04 में व्यापमं निदेशक था। दस साल तक इस पद पर रहते हुए उसने व्यापमं के अपने घोटाले के अनुभव को डीमेट में उड़ेल दिया। 3 जून को जब ग्वालियर एसआइटी ने उपरीत को गिरफ्तार किया तो फर्जी दाखिले कराते-कराते बूढ़े हो चुके 72 वर्षीय उपरीत ने कहा, मुझसे क्या पूछ रहे हैं। डीमेट के सारे दाखिले ही पहले से तय होते थे। दम है तो रसूखदारों के गिरेबां पर हाथ डालो। उपरीत ने ही उन नेताओं के नाम उगलने शुरू किए जो बाद में कांग्रेस और भाजपा नेताओं ने अपनी-अपनी राजनैतिक सहूलियत के हिसाब से जाहिर किए। एसआईटी की जांच में उजागर हुआ है कि मेडिकल कॉलेज में एडमिशन के लिए डीमेट में बैठाते हैं जिसमें परीक्षार्थियों को कहा जाता था कि उन्हें जिन सवालों के जवाब आते हंै वे उनके ही गोले काले करें वर्ना खाली छोड़ दें। खाली पड़े गोलों को उपरीत के इशारे पर काले कर परीक्षार्थियों को पास कराया जाता था।
परीक्षा के नियम-कायदे उपरीत ने ही बनाए हैं
डीमेट के इस खेल में योगेश उपरीत की हैसियत का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि शासन के आदेश से डीमेट का गठन होने के साथ उसकी परीक्षा के नियम-कायदे उपरीत ने ही दक्षिण भारत के निजी मेडिकल कॉलेजों में होने वाली एडमिशन प्रक्रिया की कॉपी कर बनाए हैं। 50 फीसदी सीटें डीमेट से राज्य शासन के नियमानुसार 50 प्रतिशत सीटें पीएमटी के जरिए व 50 फीसदी डीमेट से भरी जाती हैं। यही गणित प्री-पीजी का है। इससे पहले निजी मेडिकल कॉलेजों में मेरिट के हिसाब से एडमिशन दिया जाता था। कॉलेज संचालकों की मनमानी रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने राज्य शासन को एडमिशन से पहले टेस्ट लेने की व्यवस्था करने के निर्देश दिए ताकि मेडिकल क्षेत्र में योग्य छात्र ही आ सकें। शासन ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का पालन करते हुए डीमेट परीक्षा की व्यवस्था की। लेकिन अपने रसूख के जरिए योगेश उपरीत ने डीमेट पर अनाधिकृत रूप से कब्जा कर लिया।
ये थी फर्जीवाड़े की बुनियाद
मेडिकल कॉलेज खोलने की बुनियाद स्व.हरीश वर्मा ने रखी। यह बात 1988-89 की है, उस दौरान योगेश उपरीत रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय में छात्र कल्याण कोष में अधिष्ठाता के पद पर थे। हरीश वर्मा की टीम में वे प्रमुख किरदार अदा कर रहे थे। हरदा जिले से जबलपुर पहुंचे योगेश उपरीत ने रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के अधिकारियों से ऐसे रिश्ते बना रखे थे कि नब्बे के दशक में योगेश उपरीत रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय का सबसे ताकतवर शख्स बन चुके थे। बीए, बीकॉम,बीएससी तो दूर एमबीबीएस और इंजीनियरिंग के छात्रों को भी पास या फेल कराने का काम उनके एक इशारे पर हो जाता था। योगेश उपरीत सिस्टम में रहकर सिस्टम को चलाने का गुर सीख गए थे। तीस साल पहले जब निजी मेडिकल कॉलेज जैसी व्यवस्था नहीं थी। तब बिना मेडिकल कौंसिल ऑफ इंडिया की परमीशन के जबलपुर के केसरवानी कॉलेज के दो कमरों में उपरीत ने एक मेडिकल कॉलेज खुलवाकर अपनी हिस्सेदारी ली और उसे मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की बजाए रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से संबद्ध करवा दिया। इसके साथ ही फर्जी दाखिले का नया खेल उन्होंने शुरू कर दिया। इस फर्जी मेडिकल कॉलेज में दक्षिण भारत और गुजरात से छात्रों को डॉक्टर बनाने का लालच देकर दाखिले दिलवाए जाते थे। फीस भी कम नहीं थी, उस दौर में एमबीबीएस में प्रवेश की फीस एक से डेढ़ लाख रुपए तक ली गई। इस मेडिकल कॉलेज में लगभग 100 से 150 एडमिशन भी हो गए। फिर उन्हें फर्जी डिग्रियां थमाकर करोड़ों बटोरे जाने लगे। आखिरकार कॉलेज के खिलाफ हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर हुई और हाईकोर्ट के आदेश से योगेश उपरीत की ये दुकान बनाम कॉलेज बंद हो गया। कॉलेज में हिस्सेदारी कागजों पर ना होने से उपरीत कानूनी कार्रवाई से बच गया। इस बीच उपरीत के कदम उच्च शिक्षा क्षेत्र के बड़े पदों की ओर बढ़ते चले गए। बतौर लेक्चरर सेवा खत्म होने के बाद उपरीत का नाता रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से टूटा ही था कि उसे चित्रकूट के महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय का कुल सचिव बना दिया गया। योगेश अपने सियासी रसूख के बूते भोपाल पहुंच गए। चित्रकूट यूनिवर्सिटी के बाद उपरीत की सीधी एंट्री व्यापमं में परीक्षा नियंत्रक के रूप में हुई। फिर उन्होंने व्यापमं में अपने पुराने अनुभवों के बाद डीमेट में जाकर भ्रष्टाचार का नया अध्याय ही लिख दिया।
करोड़ों में बिगती थी सीटें
व्यापमं के पूर्व डायरेक्टर और डीमेट के कोऑर्डिनेटर व कोषाध्यक्ष योगेश उपरीत ने प्रदेश के निजी मेडिकल कॉलेजों की अरबों की काली कमाई का राज एसआईटी के सामने खोल दिया है। निजी मेडिकल कॉलेजों में एडमिशन के लिए डीमेट परीक्षा तो केवल औपचरिकता के लिए होती थी। जिन छात्रों का चयन होना होता था, उनकी लिस्ट कॉलेज प्रबंधन पहले ही डीमेट को थमा देता था और उन्हीं छात्रों की उत्तर पुस्तिका के गोले काले किए जाते थे। डीमेट में 100 फीसदी छात्रों का सिलेक्शन गोले काले कर किया जाता था। एमबीबीएस की सीट 30 लाख व प्री-पीजी की एक सीट ब्रांच के हिसाब से 90 लाख से डेढ़ करोड़ रुपए में बिकती थी। योगेश उपरीत द्वारा किए गए इस खुलासे की जानकारी एसआईटी, हेडक्वार्टर भेजकर कार्रवाई के लिए दिशा- निर्देश मांगे गए हैं। इस खुलासे के बाद प्रदेश के निजी मेडिकल कॉलेज भी जांच के दायरे में आ जाएंगे। उपरीत के बयान के मुताबिक, हर साल करीब 1,500 सीटें निजी मेडिकल कॉलेजों में डीमेट के जरिए भरी गईं। व्यापमं मामले के पहले व्हिसल ब्लोअर आनंद राय बताते है, इस मामले में 10,000 करोड़ रूपए का लेन-देन आसानी से हुआ होगा। यह फर्जीवाड़ा 2006 से चल रहा है। निजी कॉलेजों में तो अधिकांश सीटें पैसा लेकर भरी गई हैं। मैं इसकी शिकायत पिछले तीन साल से कर रहा हूं। यहां तक कि हाइकोर्ट और एडमिशन और फीस रेगुलेटरी कमेटी ने भी निजी कॉलेजों के खिलाफ बोला लेकिन न तो राज्य सरकार और न ही एसटीएफ ने इस मसले पर कोई कारवाई की। मामले की जांच से जुड़े एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया, यह घपला भी व्यापमं घोटाले की तरह ही है। इसमें भी उन लोगों की उत्तर पुस्तिका डीमेट अधिकारियों के जरिए भरी गई जिन्होंने इसमें पैसा दिया। यह सब निजी कॉलेजों के साथ मिलकर किया गया। इन परीक्षाओं में भी दलालों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण थी।
अभय चौपड़ा के मुताबिक निजी मेडिकल कॉलेजों को पहले राउंड की काउंसलिंग की रिपोर्ट 18 सितंबर 2013 और दूसरे राउंड की काउंसलिंग की रिपोर्ट 24 सितंबर 2013 को डीएमई को करना थी, लेकिन उसने निजी मैनेजमेट कोटे के छात्रों को प्रवेश देने के लिए तथ्य छुपाए और कट ऑफ डेट 30 सितंबर 2013 को खाली सीटें गैर कानूनी तरीके से फीस के नुकसान नहीं होने देने के आधार पर भर दी गई। निजी कॉलेजों द्वारा शासन के कोटे की 197 सीटें भरने के लिए 29 और 30 सितंबर 2013 को पहले राउंड की काउंसलिंग की गई और फिर धोखे से ये सारी सीटें भरी बता दी गईं। हाईकोर्ट ने भी इस पूरी प्रक्रिया को प्रथम दृष्ट्या गलत माना है। उनका यह भी आरोप है कि डीमेट के नाम पर 10 हजार करोड़ रुपए से अधिक का घोटाला किया गया और एक-एक सीट 20 लाख से लेकर 1 करोड़ और उससे अधिक कीमत में बेची गई। उल्लेखनीय है कि डीमेट के कोषाध्यक्ष योगेश उपरित ने कई चौंकाने वाली जानकारी एसटीएफ को दी है, जिसमें यह भी बताया गया कि व्यापमं की तरह ही डीमेट में भी नामी-गिरामी लोगों ने अपने बच्चों के एडमिशन करवाए।
10 करोड़ मंत्री बनते ही मिलते रहे
व्यापमं और डीमेट घोटाले के मामले में गिरफ्तार कोषाध्यक्ष योगेश उपरीत ने ग्वालियर एसआईटी की पूछताछ में एक चौंकाने वाली जानकारी यह भी दी है कि मध्यप्रदेश की सरकार में चिकित्सा, शिक्षा विभाग मिलते ही संबंधित मंत्री को हम 10 करोड़ रुपए पहुंचा देते थे। ये रुपए डीमेट से जुड़े फैसलों को बगैर किसी आपत्ति के मंजूर करने के एवज में दिए जाते थे। यह भी उल्लेखनीय है कि डीमेट वर्ष 2006 से शुरू हुई और तब से लेकर अब तक भाजपा की प्रदेश सरकार में 5 मंत्री बदल गए हैं। इनमें पूर्व मंत्री कमल पटेल, अजय विश्नोई, महेन्द्र हार्डिया और अनूप मिश्रा के अलावा वर्तमान के चिकित्सा-शिक्षा मंत्री नरोत्तम मिश्रा शामिल हैं, क्या अब इनसे भी एसआईटी 10-10 करोड़ रुपए के लगाए गए आरोप के संबंध में पूछताछ करेगी?
ऐसे किया जाता था घोटाला
ऐसी बात नहीं है कि निजी कॉलेजों का लालच सिर्फ डीमेट कोटे तक ही सीमित रहा हो, ये कॉलेज स्टेट कोटे को भी हजम करने में जुटे रहे। कई कॉलेजों ने इसका तरीका यह निकाला कि पीएमटी परीक्षा में पैसे देकर कुछ सीनियर छात्रों को बैठा दिया जाता था। पीएमटी पास करने के बाद ये छात्र इन निजी कॉलेजों की स्टेट कोटे की सीट पर दाखिला ले लेते और कुछ दिन बाद कॉलेज से नाम कटा लेते। इस तरह उनकी सीट महंगे दाम पर बेचने के लिए कॉलेज फिर स्वतंत्र हो जाते। प्रदेश के छह निजी मेडिकल कॉलेजों की 50 सीटों पर इस तरह के मामले सामने आए। एक अनुमान के मुताबिक, निजी कॉलेजों ने एमबीबीएस के लिए 20 से 40 लाख रूपए और एमएस-एमडी के लिए एक करोड़ रूपए तक वसूले। वर्ष 2010 से 2013 तक निजी मेडिकल कॉलेजों में 1,450 सीटों में से 721 सीटों पर स्टेट कोटे के एडमिशन कैंसिल किए और इन सीटों को मनमाने दामों पर बेचा। डीमेट और स्टेट कोटे के बाद बचे प्रवासी भारतीय यानी एनआरआई कोटे की सीटों में प्रवेश प्रवासी भारतीयों के बेटे-बेटियों या उनके करीबी रिश्तेदारों को दिए जाने थे। लेकिन इसमें देश के छात्रों को मोटी रकम लेकर बिना पीएमटी और डीमेट दिए एडमिशन दिया गया। निजी कॉलेज व्यापमं और डीमेट परीक्षा से आने वालों से जहां 15 लाख से 30 लाख रूपए लेते थे वही एनआरआइ सीट पर उन्होंने 1-1 करोड़ रूपए लेकर प्रवेश दिया। इसमें पीएमटी और डीमेट देने की जरूरत ही नहीं थी।
ज्ञातव्य है कि वर्ष 2009 में जब भोपाल के एमपी नगर थाने में व्यापमं ने बुंदेलखंड सागर मेडिकल कॉलेज से प्राप्त प्रतिवेदन के आधार पर 9 छात्रों के खिलाफ एफआईआर क्रमांक 728/9 दर्ज कराई गई तो किसी को भनक तक नहीं थी कि यह देश के सबसे बड़े शिक्षा घोटाले का पर्दाफाश कर देगा। उस वक्त दयाल सिंह, जाहर सिंह, दिलीप सिंह, कुमारी इंद्रा वारिया, भारत सिंह, कमलेश झावर, रौनक जायसवाल, अश्विन जॉयसेस, पंकज धुर्वे और प्रदीप खरे नामक नौ छात्रों के खिलाफ व्यापमं की मेडिकल परीक्षा में मुन्नाभाई की तर्ज पर स्कोरर के माध्यम से पास होने का आरोप लगाते हुए यह एफआईआर दर्ज की गई थी। दरअसल इन नौ छात्रों को उस प्रवेश समिति के सदस्यों ने पकड़ा था जिसने चेहरों का मिलान करने के बाद यह पाया कि जिन छात्रों ने परीक्षा दी थी उनके और प्रवेश लेने वाले छात्रों के चेहरे अलग-अलग थे। इन नौ छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया और वे जमानत पर छूट भी गए। लेकिन इतने बड़े कांड को उस वक्त मध्यप्रदेश सीआईडी, इंटेलीजेंस से लेकर तमाम एजेंसियों ने नजर अंदाज क्यों किया। उस एफआईआर को कागज समझकर वहीं के वहीं दफन कर दिया। नतीजा यह रहा कि वर्ष 2011 में जब यह मामला ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा तब जाकर इसमें बड़े-बड़े नाम उजागर हुए और गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ। इस बीच 2009 से 2011 तक मुन्नाभाइयों की खेप पर खेप निकाली जाती रही। लेकिन तब भी सरकार की नींद नहीं खुली। वर्ष 2009-10, 2010-11, 2011-12, 2012-13, 2013-14 में निजी कॉलेजों ने व्यापमं घोटाले के परत दर परत खुलने के बावजूद डीमेट के नाम पर जमकर मनमानी की। स्टेट कोटे की सीटों को भी निजी कॉलेजों ने नहीं छोड़ा इस मामले में जब चिकित्सा शिक्षा विभाग ने फीस रेग्यूलेटरी कमेटी को लिखा तो उन्होंने आज तक इन वर्षों में जो सीटें निजी कॉलेजों ने बेची थी उनका हिसाब नहीं दिया। मात्र 2013 की सीटों के बारे में फीस रेग्यूलेटरी कमेटी ने अपना निर्णय दिया। एफआरसी ने इस अनियमितता को सच पाते हुए चिरायू मेडिकल कॉलेज पर 225 लाख, अरविंदों मेडिकल कॉलेज पर 40 लाख, इंडेक्स मेडिकल कॉलेज पर 550 लाख, पीपुल्स मेडिकल कॉलेज पर 215 लाख, एलएन मेडिकल कॉलेज पर 245 लाख और आरडीगार्डी पर 35 लाख की पैनल्टी लगाई है। निजी कॉलेज वाले पैनल्टी न देने के बहाने पर अपीलीय प्राधिकरण के पास चले गए। गड़बड़ी पाई गई तभी तो पैनल्टी लगाई गई थी। यदि एफआरसी इन चारों-पांचों वर्षों का निर्णय एक ही साथ दे देती तो इन कॉलेजों के ऊपर करोड़ों की पैनल्टी निकलती और सरकारी सीट को खाने वाले कॉलेजों के संचालकों को जेल की हवा खानी पड़ती। परंतु मामला कानूनी पेंचीदगियों में उलझकर रह गया है। सरकारी कोटे की सीटें बेंच दी गई और सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी हुई है।
फर्जीवाड़े पर भाजपा-कांग्रेस में रार
उपरित ने खुलासा किया है कि डीमेट घोटाले में भाजपा और कांग्रेस के नेताओं ने अपने रसूख और कालेधन के दम पर अपने बेटे-बेटियों और रिश्तेदारों को निजी डेंटल और मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश दिया है। यही कारण है कि अभी तक व्यापमं घोटाले को लेकर हल्ला मचाती रही कांग्रेस भी मामले का तूल नहीं दे रही है। व्यापमं से लेकर डीमेट घोटाले को उजागर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले नागदा के अभय चौपड़ा का कहना है कि अब डीमेट का जो फर्जीवाड़ा सामने आ रहा है उस संबंध में कांग्रेस व्यापमं की तरह आक्रामक क्यों नहीं है? हालांकि इस मामले में विपक्ष के नेता सत्यदेव कटारे ने मोर्चा खोलते हुए आरोप लगाया है कि प्रदेश के पंचायत और ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने बेटी आकांक्षा और अवंतिका का, अजय विश्नोई ने बेटे अभिजीत का, कमल पटेल ने भतीजी प्रियंका और इंदौर की विधायक मालिनी गौड़ ने कर्मवीर गौड़ का दाखिला कराया। कटारे ने कुछ और नामों का खुलासा करते हुए बताया कि स्वास्थ्य मंत्री नरोत्तम मिश्र, शिक्षा मंत्री उमाशंकर गुप्ता, पूर्व मंत्री प्रकाश सोनकर, हरनाम सिंह राठौड़, नेहरू युवा केंद्र के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष विष्णु दत्त शर्मा और फीस कमेटी के अखिलेश पांडे ने भी अपने रसूख का इस्तेमाल कर अपने करीबियों को लाभ पहुंचाया। इस पर पलटवार करते हुए प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री और सरकार के प्रवक्ता नरोत्तम मिश्र कांग्रेस के उन नेताओं के नाम बताते हैं जिन्होंने अपने बच्चों या रिश्तेदारों के दाखिले डीमेट के जरिए कराए। मिश्र ने बताया, कटारेजी निष्क्रिय न साबित हों इसलिए इस तरह के बेबुनियाद आरोप लगाते हैं। आरिफ अकील, पीसी शर्मा, गजेंद्र सिंह राजूखेड़ी, अरुण यादव, हजारी लाल रघुवंशी और तुलसी सिलावट ऐसे कांग्रेस नेता हैं, जिनके बच्चों ने भी निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लिया है। इसी तरह मंत्री गोपाल भार्गव ने दलील दी, मंत्री और नेताओं के बच्चे कहीं न कहीं तो पढ़ेंगे ही। दबाव बनाने के लिए मनगढ़ंत आरोप लगाना गलत है। जबकि कमल पटेल ने दो टूक कहा, गोल्ड मेडलिस्ट बच्चों के दाखिले पर भी सवाल उठेंगे तो क्या कहा जाए? यानी दोनों पार्टियों के नेताओं ने डीमेट के जरिए डॉक्टरी पेशे में जिगर के टुकड़ों का भविष्य संवारने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
बिना डीमेट या पीएमटी दिए भी प्रवेश
मध्यप्रदेश के प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में दो ही तरीके से प्रवेश हो सकता है। या तो बच्चा पीएमटी से पास हुआ हो जो राज्य कोटे में भर्ती होता है या डीमेट से पास हुआ हो। एनआरआई कोटे के बाद बची सीटों में से आधी डीमेट और आधी पीएमटी से भरी जाती हैं। लेकिन ऐसे भी कई उदाहरण हैं जिनमेें उन बच्चों को प्रवेश दे दिया गया जिन्होंने न तो डीमेट किया और न ही पीएमटी की परीक्षा दी। उदाहरणस्वरूप इन्डेक्स कॉलेज में गुजरात से परीक्षा पास छात्र को एडमीशन दे दिया गया। जिनके पीएमटी में 50 प्रतिशत नंबर भी नहीं थे। अगर कायदे से देखा जाए तो इतने कम अंकों में प्रवेश की पात्रता भी नहीं थी। ऐसे न जाने कितने उदाहरण हंै। जैसे भोपाल के लोकायुक्त में डीएसपी के पद पर पदस्थ अधिकारी के बेटे अजय रघुवंशी, इंदौर की विधायक और वर्तमान में मेयर मालनी गौड़ के सुपुत्र कर्मवीर गौड़ और कांग्रेस के पूर्व मंत्री के खास लक्ष्मण ढोली के सुपुत्र तन्मय ढोली को परीक्षाओं में 50 प्रतिशत भी नहीं मिले, लेकिन वे अरविंदों मेडिकल कॉलेज से डॉक्टर बन गए। जो कि एमसीआई के नियमों का सरासर उल्लंघन है। मध्यप्रदेश के चिकित्सा शिक्षा विभाग, एमसीआई और निजी कॉलेज संचालकों की मिलीभगत का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि हाईकोर्ट जबलपुर बेंच ने इन तीन छात्रों के प्रवेश को तो नामजद गलत ठहराया था। चिकित्सा शिक्षा विभाग को कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे। लेकिन वे डॉक्टरी की डिग्री लेकर आज लोगों का इलाज कर रहे हैं। ये तो एक बानगी मात्र है। ऐसे किस्सों से डीमेट का इतिहास भरा पड़ा हुआ है। वर्तमान एसआईटी के चेयरमैन चंद्रेश भूषण ने भी इस मामले में जांच पड़ताल की थी उन्होंने कई अनियमितताओं की तरफ इशारा किया था, लेकिन उनकी जांच भी दबा दी गई। इसके बाद जब सुप्रीम कोर्ट में 23 सितंबर 2011 को न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और दीपक वर्मा की बेंच ने डीमेट तथा पीएमटी में 50-50 प्रतिशत सीटें भरने का निर्णय दिया था। उस समय यह साफ कहा था कि डीमेट की परीक्षा में पारदर्शिता होनी चाहिए पर यह परीक्षा पारदर्शिता के लिए बनी ही नहीं थी। उधर, कांग्रेस इस फर्जीवाड़े को सुप्रीम कोर्ट तक ले जाने की बात कह रही है। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव ने एक सूची जारी कर आरोप लगाया है कि रसूखदारों ने अपने नाते-रिश्तेदारों को गलत तरीके से डॉक्टर बनवाया है। कांग्रेस द्वारा जारी सूची में मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की पत्नी साधनासिंह की जबलपुर निवासी सगी छोटी बहन-रेखासिंह की बेटी प्रियंका सिंह ने वर्ष 2012 में एमबीबीएस में चयन-चिरायु मेडीकल कॉलेज। जस्टिस एससी सिन्हों के नाती अजय रघुवंशी का अरबिंदो मेडीकल कॉलेज। जस्टिस अभय गोहिल की पुत्री रागिनी गोहिल का एमबीबीएस में प्रवेश। जस्टिस जेके माहेश्वरी की बेटी का एमबीबीएस-अरबिंदो मेडीकल कॉलेज में प्रवेश। जस्टिस पीसी गुप्ता की बेटी का अरबिंदो मेडीकल कॉलेज में प्रवेश। जस्टिस केसी गर्ग की बेटी-प्रियंका गर्ग का अरबिंदो मेडीकल कॉलेज में प्रवेश। जस्टिस श्रवण रघुवंशी की बेटी-पायल रघुवंशी-अरबिंदो मेडीकल कॉलेज। आईएएस रेणु पंत की बेटी-अवनि पंत-इंडेक्स मेडीकल कॉलेज। आईएएस सुहेल अख्तर के पुत्र रिजवान अख्तर-अरबिंदो मेडीकल कॉलेज। आईपीएस महेन्द्रसिंह सिकरवार की बेटी मयूणा-अरबिंदो मेडीकल कॉलेज। आईपीएस मनोजसिंह की बेटी-अनन्यासिंह-अरबिंदो मेडीकल कॉलेज। आईपीएस धर्मेंद्र चौधरी की बेटी-मधु-अरबिंदो मेडीकल कॉलेज। आईपीएस राजेश हिंगणकर की बेटी-अरबिंदो मेडीकल कॉलेज। अभा विद्यार्थी परिषद के पूर्व महासचिव और वर्तमान में नेहरू युवा केंद्र के उपाध्यक्ष बीडी शर्मा की भतीजी-बबीता शर्मा-अरबिंदो मेडीकल कॉलेज में नियमों को ताक पर रखकर कराया गया है। न्यायिक हिरासत में जेल जाने से पहले डीमेट के कोआर्डिनेटर एवं कोषाध्यक्ष योगेश उपरीत ने एसटीएफ व एसआईटी को बताया था कि डीमेट का रिकार्ड तीन महीने तक ही सुरक्षित रखा जाता है और उसके बाद नष्ट कर दिया जाता है। इस परीक्षा में 100 प्रतिशत छात्रों की उत्तर पुस्तिका पर गोले काले किए जाते हैं। क्योंकि निजी मेडिकल कॉलेजों के संचालक परीक्षा से पहले डीमेट को उन छात्रों की सूची थमा देते हैं जिनके सिलेक्शन होने होते हैं। इसी सूची के आधार पर डीमेट की रेवड़ी बांटी जाती है। भोपाल के एक नामी डॉक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया है कि जिन छात्रों को लाखों रुपए लेकर डीमेट के द्वारा भर्ती करवाया गया वे सब पूरी की पूरी उत्तर पुस्तिका खाली छोड़कर आए थे। यह फर्जीवाड़ा 2006 में डीमेट के गठन के बाद से ही चल रहा है। जब रिकार्ड नहीं है तो सबूत कहां से मिलेंगे। पिछले 9 साल में डीमेट के द्वारा कितने छात्रों का हक मारा गया है और कितने अयोग्य लोगों को डिग्रियां थमा दी गई हैं इसकी जानकारी उपरीत जैसे मोहरों को ही हो सकती है। जिन्हें आगे रखकर बिसात बिछाने वाले सफेदपोश अभी भी दुबके हुए हैं। उपरीत बहुत कुछ जानते हैं लेकिन वे निजी मेडिकल कॉलेज की इस करतूत का खुलासा करेंगे इसमें सदेह ही है। फिलहाल एसआईटी ने जबलपुर के न्यूरोलॉजिस्ट एम एस जौहरी की बेटी डॉ. ऋचा जौहरी को गिरफ्तार करने के लिए जाल बिछाया है। डॉ. एमएस जौहरी पहले से ही गिरफ्तार हैं। उपरीत ने स्वीकार किया था कि जौहरी ने अपनी बेटी के प्रीपीजी में एडमीशन के लिए 25 लाख रुपए की रिश्वत दी थी। जौहरी के बंगले में पुरानी फाइलों में इस रिश्वतखोरी का हिसाब किताब मिल गया। अभी गिरफ्तारियों का सिलसिला जारी है यदि उपरीत ने पूरा सच बता दिया तो न जाने कितने चेहरे बेनकाब हो जाएंगे। देखा जाए तो मध्यप्रदेश के सभी मेडिकल कॉलेज इस जांच के दायरे में आ सकते हैं। डीमेट के सारे पदाधिकारी इस घोटाले में शामिल बताए जा रहे हैं। पिछले 9 वर्षों के दौरान गलत तरीके से प्रवेश देने वाले 5 हजार 500 छात्र जांच के दायरे में आ सकते हैं। लेकिन जो रिकार्ड नष्ट हुआ है उसे कैसे रिकवर किया जाएगा। यह एक अहम सवाल है।
क्या कर रही थी फीस रेगुलेशन कमेटी
सुप्रीम कोर्ट में मृदुल धर वर्सेज भारत सरकार (रिट पिटिशन क्र. 306 - वर्ष 2004) के प्रकरण में 12 जनवरी 2005 को न्यायमूर्ति वाय.के. सभरवाल, डी.एम. धर्माधिकारी, तरुण चटर्जी की बैंच ने स्पष्ट निर्णय दिया था कि एमबीबीएस तथा बीडीएस में राज्य, केंद्र में किसी भी संस्था, द्वारा संचालित मेडिकल कॉलेज में 30 प्रतिशत सीटें अखिल भारतीय परीक्षा से भरी जाएंगी। जबकि पीजी कोर्सेस में 50 प्रतिशत सीटें इस तरह भरने का निर्देश था। इस निर्णय की धज्जियां तो उड़ाई ही गईं। इस निर्णय के तहत बनी एडमीशन और फीस रेगुलेशन कमेटी को भी अंधेरे मेें रखा गया। प्रश्न यह है कि उक्त कमेटी ने इन अनियमितताओं पर स्वत: कोई संज्ञान नहीं लिया। एमसीआई की तरह एडमीशन और फीस रेगुलेशन कमेटी, निजी विश्वविद्यालय आयोग के कुछ कर्ता-धर्ताओं ने भी इस घोटाले को हो जाने दिया-क्यों? पीपुल्स मेडिकल कॉलेज को जब यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया, तो उसने विश्वविद्यालय के स्टेच्यू ऑर्डिनेंस के प्रकाशन में ही महीनों लगा दिए और ऐन काउसिंलिंग से पहले इस कॉलेज को विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया। जाहिर है नितिन महिंद्रा और उपरीत जैसे घोटालेबाजों को कॉलेजों की इस अनियमितता के दौर में पनपने का मौका मिला। डीमेट में 100 प्रतिशत सीटें नीलाम हुईं और सरकार को आहट तक नहीं लगी। आहट कैसे लगती प्रदेश के ही कुछ मंत्री अपने कतिपय हितों के चलते इन अनियमितताओं के साथ खड़े हुए थे। पीपुल्स कॉलेज ने तो प्री-मेडिकल टेस्ट देकर चयनित हुए छात्रों को एडमीशन देने की बजाए एमसीआई द्वारा स्वीकृत 150 सीटें खुद ही भर ली थीं। लेकिन तब भी सरकार की नींद नहीं खुली। इसलिए उन 6 निजी मेडिकल कॉलेजों को डीमेट में मनमानी करने का मौका मिल गया। पीएमटी फर्जीवाड़े की तर्ज पर बीडीएस व एमबीबीएस की परीक्षाएं निजी चिकित्सकीय व शैक्षणिक संस्थान अपने स्तर पर कराती है और परीक्षा से लेकर परिणामों तक खुद तय कराती है। इसमें भी बड़े पैमाने पर गड़बडिय़ां होती हैं लेकिन आज तक ये सामने नहीं आई हंै।

करोड़ों की सब्सिडी लेकर भागीं बाहरी कंपनियां

अब उद्योगपतियों से जमीन छिनेगी मप्र सरकार
27 हजार हेक्टेयर जमीन सरकार के निशाने पर
2016 में होने वाली ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट से पहले अधिगृहित होंगे भू-खंड
vinod upadhyay
भोपाल। पिछले एक दशक में मप्र सरकार ने उद्योगों ने नाम पर बिना जांचे-परखे हजारों हेक्टेयर जमीन उद्योगपतियों को कौडिय़ों के भाव बांट दी। लेकिन इन जमीनों पर उद्योग लगाने की बजाय उन पर दूसरे कारोबार चल रहे हैं या फिर खाली पड़े हैं। प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्रों में ऐसी करीब 27 हजार हेक्टेयर जमीन पर प्रदेश सरकार की नजर है। बताया जाता है कि इन जमीनों को लेने वाली करीब आधा सैकड़ा से ज्यादा कंपनियां अरबों रूपए की सब्सिडी डकार भाग गई हैं। आलम यह है कि प्रदेश में अब यह स्थिति है कि नई इंडस्ट्री डालने के लिए अनुकूल जगह नहीं मिल पा रही हैं और इन कंपनियों ने हजारों एकड़ से ज्यादा जमीन पर अभी भी कब्जा कर रखा है। केंद्रीय एमएसएमई मंत्रालय के अनुसार, मप्र में औद्योगिक पार्क, इंडस्ट्रियल एरिया और स्पेशल इकॉनोमिक जोन में करीब 7,000 से अधिक औद्योगिक भूखंड खाली पड़े हैं। देर से ही सही अब मप्र सरकार का उद्योग विभाग जल्द ही एक सर्वे शुरू कर रहा है। इसमें ऐसे उद्योगपति चिन्हित किए जाएंगे, जिन्होंने तीन साल पहले जमीन ली है, और अब तक उद्योग स्थापित नहीं किया है। ऐसे उद्योगपतियों की लिस्ट बनाने के निर्देश आयुक्त वीएल कांताराव ने दिए है। उसके बाद उक्त जमीन को अधिगृहित करने की कार्रवाई की जाएगी। दरअसल, प्रदेश सरकार ने 2016 में होने वाली ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट (जीआईएस) की तैयारियां अभी से शुरू कर दी है। अभी हालही में हुर्ई जीएम-जेडी की बैठक में उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री यशोधरा राजे सिंधिया ने अफसरों से कहा है कि नई जमीन तलाशने के काम में तेजी लाएं। साथ ही उद्योग नहीं लगाने वाले उद्योगपतियों के प्लॉट कैंसिल करें। अगले साल इंदौर में होने वाली जीआईएस के लिए अभी से लैंडबैंक बनाने पर काम किया जा रहा है। प्रदेश सरकार की मंशा है कि 2016 में होने वाली ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट (जीआईएस)से पहले खाली औद्योगिक भू-खंड वापस लिया जाए , ताकि समिट के दौरान ही उद्योग लगाने के इच्छुक उद्योगपतियों को भू-खंड उपलब्ध कराया जा सके। इसके लिए प्रदेश सरकार के साथ उद्योगपतियों के साथ किए गए कुल 327 एमओयू में से करीब 33 निरस्त हुए हैं। इससे प्रदेश से करीब 13 हजार 966 करोड़ रुपए का निवेश छिन गया है। निरस्त होने वाले एमओयू में सबसे ज्यादा निवेश छोटे जिलों में होना था। इनमें से कुछ चंबल संभाग के हैं तो ज्यादातर महाकौशल, विन्ध्य के हैं, जबकि निरस्त होने वाले एमओयू में इंदौर क्षेत्र के उद्योग काफी कम हैं। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में सरकार ने औद्योगिककरण के नाम पर वर्ष 2007 से 2011 के बीच 40 उद्योगपतियों को 71 हजार एकड़ से ज्यादा सरकारी जमीन बांटकर उपकृत किया था। यह जमीन औद्योगीकरण के साथ-साथ गैर वन पड़त भूमि के विकास के बहाने भी दी गई है। अद्योसंरचना विकास और औद्योगिकीकरण के नाम पर हुए इस जमीन आवंटन से सरकार के खजाने में चंद रुपयों से ज्यादा कुछ जमा नहीं हो पाया है। लंबी अवधि की लीज पर सिफ एक रूपए के न्यूनतम लीजरेंट पर जमीनों का आवंटन भी हुआ। लेकिन सरकार से जमीन लेने के बाद भी अधिकांश उद्योगपति उद्योग नहीं लगा पाए। उसके बाद भी जमीनों की बंदरबांट चलती रही। आज स्थिति यह है कि प्रदेश में उद्योग लगाने के लिए सरकार के पास जमीन नहीं बची है। इसलिए उद्योग विभाग अब खाली पड़े औद्योगिक भूखंडों की पड़ताल करने जा रहा है। ताकि उन्हें अधिगृहित कर उद्योग लगाने के लिए दूसरे उद्योगपतियों को दिया जा सके।
ग्वालियर-चंबल में 500 एकड़ से ज्यादा जमीन पर कंपनियों का कब्जा
प्रदेश सरकार ग्वालियर-चंबल अंचल को एक बड़े औद्योगिक क्षेत्र के रूप मं विकसित करने की योजना पर कार्य कर रही है। लेकिन आलम यह है कि ग्वालियर-चंबल अंचल के औद्योगिक क्षेत्रों से तीन दर्जन से ज्यादा कंपनियां करोड़ों की सब्सिडी डकार भाग गई हैं। नई इंडस्ट्री डालने के लिए अनुकूल जगह नहीं मिल पा रही हैं और इन कंपनियों ने 500 एकड़ से ज्यादा जमीन पर अभी भी कब्जा कर रखा है। 20 वर्ष से अधिक वक्त हो गया है, कंपनी प्रबंधन ने कभी इंडस्ट्री चालू करने की कोशिश नहीं की और ना ही प्रशासन ने किसी तरह की कार्रवाई की जहमत उठाई। औद्योगिकरण के नाम पर 90 के दशक में संसाधनों की जमकर बंदरबांट हुई। ग्वालियर शहर के औद्योगिक क्षेत्रों के अलावा मालनपुर और बानमौर में ढेरों इंडस्ट्री शुरू हुई, लेकिन तब तक ही चलीं जब तक सब्सिडी और शासन से सुविधाएं मिलती रहीं। सूत्रों के अनुसार, नोएडा और दिल्ली बेस्ड कंपनियों ने यूनिट्स को जानबूझकर तकनीकी रूप से अपग्रेड ही नहीं किया। धीरे-धीरे ये कंपनियां बीमारू घोषित कर दी गईं। हजारों मजदूर सड़क पर आ गए। वर्ष 1980 से 1989 तक करीब तीस से चालीस कंपनियां औद्योगिक क्षेत्रों से भाग गईं। स्थिति यह बन गई कि एक तरफ राज्य शासन की सब्सिडी डकार कर बाहरी कंपनियां बाहर भागती रहीं। दूसरी तरफ शासन ने स्थानीय विशेषज्ञता वाली इंडस्ट्री को निगेटिव सूची में डाल रखा था। जिसमें किसी तरह का अनुदान या दूसरे फायदे स्थानीय निवेशकों को नहीं मिल पाए। इसका जीता जागता उदाहरण सरसों का तेल उद्योग है। ग्वालियर चंबल अंचल में करीब 20 हजार से अधिक स्प्रेलर इसलिए बंद हो गए कि स्थानीय उद्यमियों को उचित वित्तीय मदद नहीं मिल सकी।अब आलम यह है कि औद्योगिक क्षेत्रों से पलायन कर चुकी इन कंपनियों ने जमीनों पर अभी भी कब्जा जमा रखा है। जमीन एक-दो नहीं, हजारों बीघा है। कहीं कोर्ट केस चल रहा है तो किसी ने तकनीकी पेच फंसा रखा है। इंडस्ट्रियल इन्फ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट कॉर्पोरेशन के नोटिसों के जवाब तक नहीं दे रहे। कई कंपनियों ने अपने कैंपस किराए पर दे रखे हैं।
ऐसे लूटी गई सब्सिडी
दरअसल, अस्सी और नब्बे के दशक में राज्य शासन की तरफ से तीन प्रकार की सब्सिडी दी जाती थी। पहली सेल्सटैक्स की सब्सिडी, दूसरी इंट्रेस्ट सब्सिडी और तीसरी कैपिटल सब्सिडी। मध्यप्रदेश की सेल्सटैक्स छूट देश में सर्वाधिक रही। प्रदेश में सेल्सटैक्स की सब्सिडी 15 साल के लिए दी जाती थी। इसमें उत्पाद के हिसाब 2 से 12 फीसदी तक छूट थी। डब्ल्यूटीओ समझौते के बाद ये बंद हो गई। उसके बाद दिल्ली बेस्ड कंपनियों का आना भी रुक गया। इंट्रेस्ट सब्सिडी करीब दस साल के लिए दी जाती थी जो करीब पांच फीसदी थी। कैपिटल सब्सिडी सात साल के लिए दी जाती थी। ये अधिकतम 15 लाख हुआ करती थी। एक्सपर्टस के मुताबिक सब्सिडी में प्रति लाख करीब तीस हजार तक का फायदा उठाता था। इसका फायदा कंपनियों ने खुब उठाया। उसके बाद भी स्थिति यह है कि अंचल में एमपी आयरन 250 से 300 एकड़, हॉट लाइन 100 एकड़, सीटी कॉटन 35 एकड़, रीटा रूफिंग 10 एकड़ और रोहड़ी स्प्रिंक्स एवं फाइबर 10 एकड़ जमीन दबा कर बैठी हैं। इनके अलाव ये कंपनियां भी सब्सिडी डकार कर गायब हो गईं। इनमें रेशम पॉलीमर, ऊफारी केमिकल्स, उमनी मेटल्स, विभा स्टील, ग्वालियर स्टील, गोला सूज, एसीबी सीमेंट आदि शामिल हैं। उद्योग आयुक्त वी कांताराव कहते हैं कि निश्चित तौर पर कुछ फैक्ट्रियां सालों से बंद हैं। उनके पास बेशकीमती करोड़ों की जमीनें हैं। जल्द सर्वेक्षण करके ऐसी कंपनियों को अधिसूचित कर जमीनें हासिल करेंगे।
प्रदेश सरकार मप्र में औद्योगिक निवेश को आकर्षित करने की रणनीति फिलहाल निवेशकों को रास नहीं आ रही है। सरकार की देश-विदेश की यात्राओं और रोड शो के मद्देनजर हाईटेक बुलावा और ब्रांडिंग पर निवेशक मप्र में होने वाले इंवेस्टर्स समिट में मेहमान बनकर आने में तो जरूर रुचि दिखा रहे हैं, लेकिन वह सरकार और सूबे की जनता के भरोसे पर खरा नहीं उतर पा रहे हैं। यही कारण है कि इंवेस्टर्स समिट में दिल खोलकर एमओयू साइन करने और निवेशक घोषणा करने वाले यह उद्योगपति जमीन पर अपने उद्योगों को नहीं उतार पा रहे हैं। इसके चलते न तो प्रदेश में उद्योगों का जाल बिछ पा रहा है और न ही सूबे के बेरोजगार शिक्षित और अशिक्षित युवाओं को रोजगार मिल पा रहा है। हालांकि, यह बात और है कि इसके उलट प्रदेश सरकार मेहमान बनकर आने वाले निवेशकों और देश-विदेशी उपद्योगपतियों पर जमकर मेहरबान है और उनकी अगवानी और स्वागत में खर्च करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रही है। यही कारण है कि अब तक करीब 10 से अधिक इंवेस्टर्स समिट में अरबों रुपए से अधिक की राशि खर्च हो चुकी है, लेकिन प्रदेश में इसके एवज में आया निवेश कुछ खास नहीं कर पाया है। आंकड़ों पर गौर करें तो प्रदेश सरकार देशी-विदेशी उद्योगपतियों को रिझाने और मप्र में औद्योगिक निवेश को बढ़ाने के लिए अब तक इंवेस्टर्स समिट में करीब 120 करोड़ रुपए से अधिक की राशि खर्च कर चुकी है, लेकिन इसके नजीते में अब तक मात्र एक दर्जन से अधिक उद्योग ही धरातल पर उतर सके हैं। पिछली इंवेस्टर्स समिट के दौरान उद्योगपतियों के बीच किए गए कुल 327 एमओयू (मेमोरैंडम ऑफ अंडरस्टैडिंग) में से 33 निरस्त हो चुके हैं। यही नहीं शेष उद्योग या तो सर्वे तक सीमित हैं या काम चालू होने की स्थिति तक सिमटे हुए हैं। हालांकि, अभी तक कुल मिलाकर काम शुरू कर चुके करीब 20 उद्योगों में मात्र 6582 लोगों को ही रोजगार मिल सका है। प्रदेश में वर्ष 2008 से लेकर अब तक कुल 9 इंवेस्टर्स समिट हुई हैं। इनमें कुल 327 एमओयू हुए हैं, जिनमें करीब 20 करोड़ 5 लाख 20 हजार रुपए से अधिक की राशि खर्च हुई है। वहीं हाल ही में इंदौर में हुई ग्लोबल इंवेस्टर्स समिट में करीब 100 करोड़ रुपए (अनुमानित-ज्यादा भी हो सकती है) से अधिक राशि खर्च हुई है। पिछली इंवेस्टर्स समिट में नजर डालें तो अब तक करीब 50 से अधिक एमओयू निरस्त हो चुके हैंं। इन एमओयू में करीब एक लाख करोड़ रुपए से अधिक राशि के निवेश शामिल हैं, जो आंकड़ों में तो शामिल हो गए, लेकिन वह जमीन पर नहीं उतरेंगे। सूत्रों की मानें तो अभी तक 170 उद्योगों में ही सर्वे कार्य का शुरू हुआ है, जबकि 109 उद्योगों में जमीनी स्तर पर काम चालू हो गया है। वर्तमान में इनमें से कुल 13 उद्योगों पर ही उत्पादन शुरू हुआ है, जिनके जरिए सरकारी आंकड़े में मात्र 6 हजार 582 लोगों को ही रोजगार मुहैया हो सका है, जबकि सरकार इसके लिए अरबों की राशि सरकारी खजाने में से खर्च कर चुकी है।
रतलाम में नए उद्योगों के लिए रास्ता खुला
उधर, रतलाम में जमीन के अभाव में थमे औद्योगिक विकास को गति मिल सकती है। उद्योग विभाग ने नए उद्योगों के लिए भूमि उपलब्ध कराने का रास्ता निकाला है। वर्षो से बंद पड़ी 15 फैक्ट्रियों की लीज निरस्त कर दी गई है। इससे करीब 60 एकड़ भूमि नए उद्योगों के लिए उपलब्ध हो जाएगी और शहर में रोजगार के नए अवसर भी मिल जाएंगे। शहर में उद्योग स्थापित करने के लिए 150 से अधिक प्रस्ताव भूमि का इंतजार कर रहे हैं। अब उनमें से कई को हरी झण्डी मिल सकती है। जिला उद्योग एवं व्यापार केंद्र ने 35 से 40 साल पहले अनेक उद्योग स्थापित करने के लिए भूमि लीज पर दी थी। इनमें से आठ ने तो अब तक उत्पादन ही शुरू नहीं किया था। बीते सालों में रतलाम के औद्योगिक विकास के लिए उद्योग सम्मेलन भी करवाए गए। जब भी कोई कंपनी यहां आने का विचार करती जमीन के अभाव में उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ता था। स्थानीय उद्योगपतियों को भी अब तक मायूसी हाथ लगी। भूमि नहीं मिलने पर उद्योग संघ व जनप्रतिनिधियों ने लगातार प्रयास किए। इसके बाद सरकार ने उत्पादन नहीं करने वाले उद्योगों एवं कोर्ट में विचाराधीन मामलों की रिपोर्ट तलब की। रिपोर्ट का अध्ययन करने के बाद उद्योगों की खाली पड़ी जमीन का आकलन कर लीज निरस्त करने का निर्णय लिया गया। इसके चलते रतलाम जिला उद्योग एवं व्यापार केंद्र ने औद्योगिक क्षेत्र में 15 फैक्टरियों की लीज निरस्त करने के निर्देश दिए हैं। अब उन भूमियों का कब्जा लेने के प्रयास किए जा रहे हैं। जानकारों के अनुसार औद्योगिक क्षेत्र में उद्योग के लिए भूमि आवंटन करने के दो साल के अंदर उत्पादन शुरू करना होता है। उत्पादन शुरू नहीं करने या स्थापित उद्योग द्वारा बिना विभाग की जानकारी दिए दो साल तक उत्पादन नहीं करने पर जिला उद्योग एवं व्यापार केंद्र उसकी लीज निरस्त कर सकता है। महू रोड पर माछलिया तालाब के पास विभाग ने आठ उद्योगों के लिए करीब 16 एकड़ भूमि आवंटित की है, लेकिन 12 वर्ष बीत जाने के बाद भी उत्पादन शुरू नहीं हो सका। इसके चलते विभाग ने इनकी लीज भी निरस्त कर दी है। वहीं औद्योगिक क्षेत्र में स्थित सेफेक्स इंडिया के पास पांच एकड़ जमीन है तो वर्ष 1978 से बंद है। परफेक्ट पाटरीज के पास 20 एकड़ जमीन है यह 1998 से बंद है। इसमें एक के पास अभी 90 दिन का समय है, वहीं दूसरी का मामला हाईकोर्ट में विचाराधीन है। अब यह जमीन नए उद्योगों की स्थापना के लिए उपलब्ध होगी। डेढ़ सौ से ज्यादा औद्योगिक इकाइयों के मामले में निराकरण होगा। नए उद्योग आने से रोजगार के भी नए अवसर बनेंगे।
इंडस्ट्रीज नहीं डालने के मामले का होगा सर्वे
उद्योग विभाग जल्द ही एक सर्वे शुरू कर रहा है। इसमें भोपाल संभाग सहित प्रदेश के सभी जिलों में ऐसे उद्योगपति चिन्हित किए जाएंगे, जिन्होंने तीन साल पहले जमीन ली है, और अब तक उद्योग स्थापित नहीं किया है। ऐसे उद्योगपतियों की लिस्ट बनाने के निर्देश आयुक्त वीएल कांताराव ने दिए है। गौरतलब है कि भोपाल में गोविंदपुरा, मंडीदीप सहित इंदौर संभाग के पीथमपुर आदि औद्योगिक क्षेत्र में कई उद्योगपतियों ने भारी तादात में जीएम से जमीन आवंटित कराई, लेकिन इन जमीनों का 40 फीसदी का भी उपयोग नहीं किया गया है। इस वजह से नए उद्योगों को जमीन देने में दिक्कत आ रही है। इसको देखते हुए उद्योग आयुक्त ने जमीनों के सर्वे करने को कहा है। वहीं नए औद्योगिक क्षेत्र में बिजली, पानी की समस्या को दूर करने के निर्देश भी उद्योग आयुक्त कांताराव ने जारी किए है।
उद्योग नहीं चला तो जमीन वापस कर कमाएं पैसा
वहीं सरकार ने जमीन अधिगृहित करने के मामले में फे्रंडली पेशकश भी की है। सरकार ने उद्योगपतियों को अनुपयोगी भूमि हस्तांतरण का अधिकार दे दिया है। इस तरह उद्योगपतियों को सरकार ने कमाई करने का रास्ता भी दे दिया है। भवन भूखंड अधिनियम में इस तरह का प्रावधान किया गया है। जिसे उद्योगपतियों की मांग पर ही किया गया है। दरअसल कई बार उद्योगपतियों को आवंटित जमीन का कुछ हिस्सा अनुपयोगी ही रहता है। भूखंड के चालीस फीसदी भाग पर निर्माण करना होता है। जबकि कई बार उद्योगपति 20 फीसदी भाग पर ही शेड या अन्य निर्माण करते है। बाकी बची हुई जमीन अनुपयोगी रह जाती है। इस स्थिति में यह जमीन दूसरे उद्योगपतियों को आवंटित भी नहीं हो पाती है। अब नए नियमों के मुताबिक अनुपयोगी भूमि का हस्तांतरण का अधिकार उद्योगपति को दिया गया है। उद्योग आयुक्त बीएल कांतराव ने बताया कि उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए भवन भूखंड अधिनियम में जरूरी प्रावधान किए है। इससे उद्योगपतियों को राहत मिलेगी। वहीं प्रदेश में उद्योगों का जाल भी बिछेगा। नए नियमों से औद्योगिक क्षेत्रों में नए उद्योगपतियों को जमीन मिलना आसान हो जाएगा। वहीं जमीन ट्रांसफर कर उद्योगपति को भी अतिरिक्त कमाई हो जाएगी। वहीं अब भूखंड का विभाजन पांच हजार स्क्वायर फीट तक कर दिया गया है। पहले यह दस हजार था। उद्योगपति अपनी जमीन पर कोई उद्योग सफलतापूर्वक नहीं चला पाए तो उद्योगपति जमीन को सबलीज पर भी दे सकते है। सबलीज पर देने के लिए विभाग ने कुछ शर्ते भी लगाई है। इस तरह नए उद्योगपतियों को सबलीज पर भी जमीन मिलने का रास्ता साफ हो गया है।
उद्योगपतियों को दी गई जमीन में से सिर्फ 20 फीसदी का हो रहा उपयोग
अभी तक प्रदेश सरकार ने उद्योगपतियों को जितनी जमीन उद्योग लगाने के लिए दी है उसका 20 फीसदी जमीन का ही उपयोग हो रहा है। बची जमीन को उन्होंने हड़प लिया है। इसलिए प्रदेश सरकार उक्त जमीन को छिनने की तैयार कर चुकी है। इसके तहत मध्य प्रदेश में बीमार उद्योगों के पास जो 27 हजार हेक्टेयर जमीन है उसे भी अधिगृहित करने की तैयारी की जा रही है। उल्लेखनीय है कि मप्र में अब तक हुए इंवेस्टर्स समिट में लाखों करोड़ रूपए के निवेश के प्रस्ताव आए और एमओयू हुए, लेकिन प्रदेश में उस अनुपात में औद्योगिक निवेश नहीं हुआ। आलम यह है कि मध्य प्रदेश सरकार औद्योगिक विकास के लिए लगातार निवेश को महत्व दे रही है, निवेशकों को लुभाने का हरसंभव प्रयास कर रही है, मगर निवेश बढऩे की बजाय गिरता जा है। एसोसिएटेड चैम्बर ऑफ कामर्स एण्ड इंडस्ट्रीज ऑफ इंडिया (एसोचैम) द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि राज्य में बीते वर्ष निवेश में पिछले वर्ष की तुलना में 83 प्रतिशत की गिरावट आई है। एसोचैम के इकोनॉमिक रिसर्च ब्यूरो द्वारा कराए गए इस अध्ययन में बीते वर्ष निवेश में गिरावट का भी खुलासा हुआ है। इस रिपोर्ट के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2013-14 में नए निवेश में 83 प्रतिशत की भारी गिरावट दर्ज की गई है। वित्तीय वर्ष 2012-13 में जहां 37 हजार करोड़ रुपए का नया निवेश किया गया था, वहीं गुजरे वित्त वर्ष में यह गिरकर मात्र 6350 करोड़ रुपए ही रह गया। उधर, बीते साल अक्टूबर में इंदौर में हुए इंवेस्टर्स समिट में विभिन्न औद्योगिक घरानों ने मध्य प्रदेश में निवेश के बड़े वादे किए। रिलायंस समूह से लेकर अदाणी समूह ने यहां मध्य प्रदेश सरकार के वैश्विक निवेशक सम्मेलन में करीब 7 लाख करोड़ रुपए के निवेश की प्रतिबद्धता जताई। जबकि प्रदेश सरकार ने कहा था कि 1 लाख करोड़ का निवेश संभावित है, लेकिन अभी तक कोई सामने नहीं आया है। इससे मप्र औद्योगिककरण में निरंतर पिछड़ता जा रहा है। इसलिए इस मामले में केंद्रीय सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योग मंत्रालय(एमएसएमईं ) द्वारा यह प्रयास किया जा रहा है कि राज्य सरकार खाली पड़े इंडस्ट्रियल प्लॉट के आंवटन की प्रक्रिया को सरल करें। इस दिशा में क्या कदम उठाए गए, कितने प्लॉट आवंटित हुए इसकी हर महीने समीक्षा की जाएगी। एमसएमई सेक्टर में मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए गठित अंतर मंत्रालीय समूह (आईएमजी) ने अच्छे बिजनेस प्लान रखने वाले कारोबारियों के लिए देश भर में खाली पड़े 30 हजार प्लॉट का आवंटन करने का प्रस्ताव दिया था। जिसके आधार पर राज्यों के साथ मिलकर जरूरी प्रावधान किए जा रहे हैं। मप्र में भूमि अधिग्रहण की समस्याओं को देखते हुए खाली पड़े प्लॉट को आवंटित करने की योजना बनाई गई है। इन प्लॉट पर कारोबार शुरू करना कहीं ज्यादा आसान है। यहां पहले से ही इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद है, ऐसे में कारोबारियों को कई सारे प्रक्रियागत मामलों से निजात मिल जाएगी। इस संबंध में राज्य सरकार से बातचीत शुरू हो गई है। जिसमें यह कहा गया है कि वह खाली पड़े प्लॉट के आवंटन प्रक्रिया को आसान करें। जिससे कि उनका आवंटन जल्द से जल्द किया जा सके। एमएसएमई मंत्रालय की कोशिश है कि आवंटन प्रक्रिया को जल्द से जल्द पूरा कर लिया जाए। मंत्रालय ने सभी राज्य सरकार से कहा है कि वह अपने यहां औद्योगिक पार्कों, इंडस्ट्रियल एस्टेट और स्पेशल इकॉनोमिक जोन में खाली पड़ी जमीन की तलाश करे और ये खाली जमीन छोटे उद्योगों को उपलब्ध कराएं। सरकार की योजना इन जमीनों पर नॉन कोर सेक्टर के उद्योगों को स्थापित करने की है। खाली पड़ी इन जमीनों का सबसे अधिक फायदा टैक्स्टाइल, आईटी, ऑटो पार्ट और फूड प्रोसेसिंग जैसे नॉन कोर सेक्टर के उद्योगों को मिल सकता है। ये उद्योग बेहद कम स्थान पर स्थापित होते हैं। ऐसे में सरकार छोटे इंडस्ट्रियल प्लॉट पर अधिक संख्या में उद्योग स्थापित कर सकेगी।
खाली पड़े हैं 7 हजार औद्योगिक भूखंड
केंद्रीय एमएसएमई मंत्रालय के अनुसार, मप्र में औद्योगिक पार्क, इंडस्ट्रियल एरिया और स्पेशल इकॉनोमिक जोन में करीब 7,000 से अधिक औद्योगिक भूखंड खाली पड़े हैं। औद्योगिक जमीनों सबसे बड़ी समस्या स्पेशल इकॉनोमिक जोन में है। देश भर में खाली पड़े प्लॉट में से 50 फीसदी प्लॉट विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज) में खाली पड़े हैं। यदि राज्य सरकारें उचित योजना बनाकर इन खाली भूखंडों को जरूरतमंद उद्योगों को उपलब्ध कराते हैं तो देश भर में लाखों नए उद्योग सफलता पूर्वक शुरू हो सकते हैं। इसको देखते हुए सबसे पहले मप्र से इसकी शुरूआत होने जा रही है। उधर,प्रदेश सरकार बीमार उद्योगों के पास पड़ी 27 हजार हेक्टेयर जमीन भी अधिगृहित करने की तैयारी कर रही है। इसके लिए नोटिस भेजना शुरू कर दिया गया है। छोटे उद्योगों को जमीन उपलब्ध कराने के लिए मध्य प्रदेश सरकार औद्योगिक क्षेत्रों का सर्वे भी करवा रही हैं। इसके तहत उन उद्योगों की जांच की जा रही है जिन्होंने औद्योगिक क्षेत्रों में जमीन तो ले रखी है। लेकिन लंबे समय से वहां पर औद्योगिक गतिविधि शुरू नहीं की है। ऐसे उद्योगों की जमीनें वापस ली जा सकती हैं। इसके साथ ही जरूरत से ज्यादा जमीन अपने नाम पर आवंटन करवाने वाले उद्योगों की जमीनें वापस लेने की तैयारी भी की जा रही हैं।
नए इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर किया जा रहा विकसित
विंध्य व महाकौशल के लिए जबलपुर-कटनी-सतना-सिंगरौली इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर बहुप्रतिक्षित योजना है। इस योजना के मूर्त रूप लेने से सतना, रीवा, सीधी व सिंगरौली में विकास के अवसर पर उपलब्ध होंगे, वहीं जबलपुर व कटनी का भी औद्योगिक विकास होगा। इसके लिए मप्र शासन ने 6 जिलों में करीब 6।5 हजार वर्ग हेक्टेयर जमीन चिह्नित की है। लगभग 370 किमी दायरे में चिह्नित जमीनों पर औद्योगिक क्षेत्र विकसित किया जाएगा। इन पर बड़े उद्योग तो लगेंगे ही साथ ही लघु और सूक्ष्म उद्योग भी लगाए जाएंगे। इतने बड़े पैमाने पर उद्योग स्थापित होने से रोजगार व संसाधन दोनों का विकास होगा। कॉरीडोर को अमलीजामा पहनाने की जिम्मेदारी एकेवीएन को दी गई है। विभाग ने कलेक्टरों के माध्यम से जमीन की तलाश शुरू कर चुकी है। विंध्य व महाकौशल के 6 जिलों में 6541.842 वर्ग हेक्टेयर लैंड बैंक सुरक्षित की गई है। प्रस्तावित इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर के लिए सतना, रीवा, सीधी, सिंगरौली, जबलपुर व कटनी में किया जमीन तलाशी गई है। सबसे ज्यादा जमीन कटनी में 4350.581 वर्ग हेक्टेयर है, जबकि सबसे कम सीधी में 91.156 वर्ग हेक्टेयर है। सतना में 892.495, रीवा में 244.186, सिंगरौली में 232.620 और जबलपुर में 724.794 वर्ग हेक्टेयर जमीन चिह्नित की गई है। इंडस्ट्रीयल कॉरिडोर के लिए जमीन चिह्नित करने में इस बात का ध्यान रखा गया है कि जमीन नेशनल हाइवे से ज्यादा दूर न हो। सतना के उचेहरा में 86.219, इचौल में 29.974, बगहा में 40.134, नयागांव-बिरसिंहपुर में 100.170, रहिकवार में 64. 096, सुरदहा कला में 96.035, खिरिया कोठार में 14.824, सोनौरा में 86.752, उमरी-रामपुर बाघेलान में 67.57 व बाबूपुर अतरहरा-उचेहरा में 180.364 वर्ग हेक्टेयर जमीन चिह्नित है। रीवा में मऊगंज के घुरहेटा कला में 175. 059 व गुढ़ के हरदी में 69.137 वर्ग हेक्टेयर चिह्नित जमीन है। सिंगरौली में 52.560, पिडस्ताली में 63.122, फुलवारी में 60.630, बाघाडीह में 29.980 व गनियारी में 32.328 वर्ग हेक्टेयर, सीधी के चोरबा में 9.940, रामपुर सिहावल में 72.136 व बरहाई चुरहट में 9.080 वर्ग हेक्टेयर जमीन चिह्नित है। इस योजना के तहत हर जिले की विशेषता के आधार पर औद्योगिक इकाई लगाई जाएगी। सतना में सीमेंट उद्योग के अलावा खाद्य प्रसंस्करण के लिये सप्लाई चेन लॉजिस्टिक सेंटर, प्रोसेसिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर रीजनल हब्स का विकास, फूड प्रोसेसिंग यूनिट आदि विकसित की जाएगी। इंडस्ट्रियल कॉरीडोर एनएच- 7 व 75 पर प्रस्तावित है। इसमें सिटी सेंटर, मल्टी प्रोडक्ट इंडस्ट्रीयल पार्क, लॉजिस्टिक पार्क , एग्रो एंड हार्टीकल्चर पार्क, कोल बेस्ड पार्क, वुड पार्क, हर्बल पार्क, फीस प्रोसेसिंग पार्क , होटल डेवलपमेंट प्रोजेक्ट, इंजीनियरिंग पार्क , टूरिस्ट विलेज, रूरल टेक्नोलॉजी पार्क , इंटीग्रेटेड टाउनशिप को शामिल किया गया है। इसको लेकर एकेवीएन काम भी कर रहा है। इसके बनने से यह क्षेत्र सभी महानगरों के संपर्क में रहेगा।
मप्र में सेज की जमीनों को उद्योगों का इंतजार
केंद्र सरकार के भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर देशभर में मचे बवाल के बीच मप्र में राज्य सरकार ने भी उद्यमियों को खेती की चाहे जितनी जमीन लेने की छूट दे रखी है, जबकि तस्वीर का दूसरा पहलू ये भी है कि इंडस्ट्री के लिए पहले ही आवंटित की जा चुकी जमीन का पूरा उपयोग नहीं किया जा सका है। ये खुलासा केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्रालय की ताजा रिपोर्ट से हुआ है, जो बताती है कि मप्र सरकार ने स्पेशल इकॉनोमिक जोन (सेज) के लिए वर्ष 2007 से 1551.13 हजार हेक्टेयर जमीन आवंटित की है, जिसमें से उपयोग सिर्फ 13.53 प्रतिशत (209.93 हेक्टेयर) का ही हुआ है। सेज को लेकर निवेशक रूचि नहीं दिखा रहे हैं। सरकार ने इंदौर के पीथमपुर में 1113 हेक्टेयर जमीन एसईजेड के लिए नोटिफाईड थी, उपयोग सिर्फ 209.93 हेक्टेयर का हुआ। इसी तरह भोपाल के अचारपुरा में 145 हेक्टेयर जमीन आवंटित, लेकिन पूरी खाली पड़ी है। जबलपुर के हरगढ़ और डंगुरिया में 101-101 हेक्टेयर जमीन आवंटित, लेकिन पूरी खाली पड़ी। इसी तरह प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में 89 हेक्टेयर जमीन आवंटित की गई है लेकिन उनका कोई उपयोग नहीं किया गया है। रिपोर्ट बताती है कि केन्द्र सरकार ने देशभर में 365 एसईजेड नोटिफाईड कर 45782.64 हेक्टेयर जमीन आरक्षित की गई, लेकिन इसमें से केवल 43 फीसदी का ही उपयोग हुआ है। 57 प्रतिशत जमीन खाली पड़ी है। इधर मप्र में हाल ही में सरकार ने उद्योगपतियों को सीलिंग एक्ट से छूट देने के लिए अध्यादेश का प्रस्ताव कैबिनेट में मंजूर किया है। इसके तहत उद्योगों के लिए चाहे जितनी जमीन ली जा सकती है। प्रस्ताव पर राज्यपाल की मुहर लगते ही कानून लागू हो जाएगा। ट्रायफेक के एमडी डीपी आहूजा की माने तो प्रदेश में नोटिफाईड 1500 हेक्टेयर में से हमने इंदौर में अब तक एसईजेड में 350 हेक्टेयर जमीन का उपयोग कर लिया है, 150 हेक्टेयर के लिए भी हमारे प्रस्ताव तैयार हैं। तकनीकी कारणों से अधिकांश भूमि का उपयोग नहीं हो पाया है। इसमें 300 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहण न होने के कारण अटकी हुई है। इसलिए हमने एसईजेड की शेष भूमि को डि-नोटिफाईड करने का प्रस्ताव भेज चुके हैं।
सार्वजनिक जमीन लुटा रही शिवराज सरकार
समाजवादी जन परिषद (सजप) के अनुराग मोदी का आरोप है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की सरकार ने अपने हालिया दस्तावेज 'लैंड बैंक-2014Ó में उद्योगों को देने के लिए जो 1.5 लाख एकड़ जमीन आरक्षित की है, वो गैरकानूनी है। यह मप्र, राजस्व पुस्तक परिपत्र, पंचायती राज कानून और उच्चत्तम न्यायायलय के निर्देशों की खुली अवहेलना है और गांव के संसाधन कौडिय़ोंं के मोल लुटाने की साजिश है। दरअसल, सरकार ने 'लैंड बैंक-2014Ó में प्रदेश में लगभग 300 क्षेत्र चिन्हित किए है, जिसमें फिलहाल, लगभग, 65 हजार हेक्टर (1.5 लाख एकड़) जमीन उद्योगों को देने के लिए की आरक्षित की गई है। इसमें अधिकांश जमीन आज भी राजस्व रिकार्ड में चरनोई आदि नाम से दर्ज है। यह जमीन, जिला और तहसील मुख्यालयों से जुड़े गांवों की हाई-वे और प्रमुख मार्गों से लगी होने के करण बेशकीमती है। श्रमिक आदिवासी संगठन के मंगलसिंग और किसान आदिवासी संगठन के फागराम का कहना है कि एक-तरफ भूमिहीन दलित और आदिवासी जमीन को तरस रहे है, सरकार के पास विस्थापितों को देने के लिए जमीन नहीं है। वहीं दूसरी तरफ उद्योगों के नाम पर बंदरबांट मची हुई है।
नए भूमि नियम रास नहीं आ रहे उद्योगपतियों और औद्योगिक संगठनों को
मध्यप्रदेश में उद्योगों को जमीन देने के लिए राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नए भूमि नियमों पर उद्योगपतियों और औद्योगिक संगठनों ने कड़ा ऐतराज जताया है। उनका कहना होगा कि भूमि हर क्षेत्र के विकास का आधार है। चाहे वह उद्योग हो या नगरीय जनजीवन या किसानी। भूमि इनके विकास का आधार है। दूसरी तरफ यह भी है कि जमीन पर शुल्क लेकर सरकार अपने खर्चों और लोककल्याणकारी योजनाओं के लिए धन उगाह रही है। नए नियमों में विसंगतियां को रेखांकित करते हुए संगठनों का कहना है कि मप्र में जो उद्योग हैं उनके लिए नए निमय तकलीफदायक हैं। असल समस्या है कि नए भूमि नियमों के तहत नगरीय क्षेत्रों में विकसित और विकसित किए जाने वाले औद्योगिक क्षेत्रों में भूमि का मूल्य आवासीय भूखण्ड के लिए कलेक्टर द्वारा निर्धारित गाइड लाइन के बराबर होगा। इस प्रावधान से औद्योगिक क्षेत्रों की जमीन एवं भूखण्डों की कीमत कई गुना बढ़ गई है। उद्योग विभाग ने हाल ही में इन नए नियमों को अधिसूचित कर इन्हें जारी कर दिया है। औद्योगिक संगठनों की आपत्ति है कि यानी कलेक्टर गाइड लाइन भूमि के स्वामित्व के लिए है, जबकि औद्योगिक क्षेत्रों में दिए जाने वाली भूमि लीज पर दी जाती है। अब उद्योगों को प्रतिवर्ष लीजरेंट देना होगा। नए आदेश के तहत औद्योगिक क्षेत्रों में भूमि आवंटन के लिए विकास शुल्क, भू-भाटक, वार्षिक संधारण शुल्क तय होगा। प्रब्याजि शुल्क भूमि के मूल्य में दी जाने वाली छूट को प्रभावी कर तय किया जाएगा। इन सब शुल्कों को उद्योगपतियों ने उद्योग विरोधी बताया है। इसे अव्यवहारिक भी कहा जा रहा है और नए आदेश को उद्योगों को हतोत्साहित करने वाली नीतियों में गिना जा रहा हैं। ग्रामीण क्षेत्रों के औद्योगिक क्षेत्रों में भूमि का मूल्य संबंधित क्षेत्र की असिंचित कृषि भूमि के आधार पर शुल्क निर्धारण भी विवाद में है। आज देश को ताकतवर होने के लिए औद्योगिक विकास के रास्ते पर चलाना होगा और सरकार विकास के लिए जिस तरह देशी-विदेशी निवेश का रास्ता खोल रही है, उसमें अगर कुछ बाधा है, तो वह जमीन ही है। इस पर सरकार का कब्जा नहीं हुआ, तो फिर भारत में उद्योग लगाने आएगा कौन? यह विचार यह साबित करता है कि उद्योग सरकार की प्राथमिकता में शामिल हैं। नियमों में विविधता और विरोधाभास सरकार को भी परेशान कर रहे हैं तो जनता खासकर ग्रामीणों के लिए आशंका का माहौल बना हैं। उद्योगों को जिस प्रकार की सहायता उपलब्ध है, वैसी सहायता कृषि को भी दी जा सकती है लेकिन सवाल है कि किसानों के लिए फिर टैक्स भी देना होगा? कुल मिला कर मामला सरल नहीं कहा जा सकता। अर्थव्यवस्था में किसान और जमीन एक महत्वपूर्ण पक्ष है। कोई भी सरकार होगी वह इसको नजरअंदाज नहीं कर सकती। मध्यप्रदेश सरकार की जमीन पर नए शुक्ल लगाने की मजबूरी भी हो सकती है। इसे जनकल्याण के विकास और उनके लिए फंड एकत्रित करने की कोशिश के रूप में ही समझा जा सकता है। ----------------

शाह की पाठशाला में तय होगा शिव के मंत्रियों का भविष्य

हाईकमान के पास पहुंचा मंत्रियों का रिपोर्ट कार्ड vinod upadhyay
भोपाल। महासंपर्क यात्रा की समीक्षा के बहाने भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह मप्र सरकार के मंत्रियों पर नकेल कसने की तैयारी कर रहे हैं। उन्होंने पहले ही शिवराज सिंह चौहान की कैबिनेट के सभी 23 मंत्रियों की रिपोर्ट कार्ड मंगा ली है। इसी रिपोर्ट कार्ड के आधार पर ही पार्टी अध्यक्ष अमित शाह प्रदेश संगठन के माध्यम से राज्य सरकार के कामकाज की समीक्षा करेंगे हैं। संभवत: शाह के दौरे के बाद ही प्रदेश में मंत्रिमंडल विस्तार और निगम मंडलों में नियुक्ति की संभावना बन सकती है। शाह द्वारा सरकार के कामकाज की समीक्षा करने की खबर आने के बाद से सत्ता और संगठन में हड़कंप मचा हुआ है। उधर, राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद नगरीय प्रशासन और विकास मंत्री कैलाश विजयवर्गीय द्वारा अपने मंत्री पद से इस्तीफा देना इस बात का संकेत हैं की शिवराज मंत्रिमंडल का जल्द ही विस्तार होने वाला है। हालांकि अभी विजयवर्गीय का इस्तीफा मंजूर नहीं किया गया है। दरअसल, 2006 से अभी तक संघ, संगठन और सत्ता ने मंत्रियों की परफार्मेंस से संबंधित जो भी सर्वे कराए हैं उसमें सरकार के लगभग सभी मंत्री किसी न किसी रिपोर्ट में फेल हुए हैं। फिर भी पार्टी मप्र में सत्ता की हैट्रिक लगा चुकी है। इसे भाजपा को केंद्रीय नेतृत्व कांग्रेस की विफलता का प्रतिफल मान रहा है। इसलिए राष्ट्रीय अध्यक्ष की निशानदेही पर इस बार मप्र सरकार के मंत्री, उनके काम करने की शैली, परिजनों के कामकाज और उनके व्यावसायिक हितों का का पूरा लेखा-जोखा तैयार कराया गया है। इसमें इंटेलीजेंस और संगठन के पूर्णकालिक पदाधिकारियों की मदद ली गई है। सदस्यता अभियान के दौरान ही हाईकमान द्वारा मप्र सरकार के कामकाज के विस्तृत रिपोर्ट तैयार करा ली गई थी। रिपोर्ट में ऐसे मंत्रियों पर खासा फोकस किया गया है, जो अलग-अलग मामलों में विवादों में रहे हैं। शाह की यह पूरी कवायद तीन साल बाद प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव एवं लोकसभा चुनाव के मद्देनजर अभी से की जा रही है। पार्टी हाईकमान विवादित मंत्री और नेताओं पर शिकंजा कसने जा रहा है।
छवि पर सबसे अधिक फोकस
भाजपा शसित राज्य मप्र, छत्तीसगढ़ और गुजरात में पार्टी की छवि पर खासा ध्यान दिया जा रहा है। इन तीनों राज्यों में भाजपा की सरकार लंबे समय से है। संगठन सूत्र बताते हैं कि मप्र से जुड़ी कई शिकायतें पार्टी हाईकमान तक पहुंची हैं। जिसमें भ्रष्टाचार एवं उनके आचरण से जुड़ी शिकायतें शामिल हैं। इनमें से कुछ शिकायतों का पार्टी हाईकमान की ओर से परीक्षण भी कराया जा चुका है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह के 13 जुलाई को मप्र के संगठन और सत्ता के कामकाज की समीक्षा के बाद ही प्रदेश में मंत्रिमंडल विस्तार की संभावना बनेगी। मौजूदा मंत्रियों में से कुछ के पर हाईकमान की मर्जी से ही कतरे जाएंगे।
संगठन को मजबूत करने शाह के पांच सूत्र
विपक्ष की एकजुट और आक्रामकता का जवाब देने के लिए शाह ने पाुच सूत्र तैयार किया है। 13 जुलाई की बैठक में शाह इन पांच सूत्रों को पदाधिकारियों को अपनाने का आव्हान करेंगे। ये हैं नरेंद्र मोदी का चेहरा, सहयोगी संगठनों के नेटवर्क, आर्थिक संसाधन, अत्याधुनिक प्रचार तंत्र और विकास के सपने। पार्टी के रणनीतिकारों का कहना है कि प्रदेश और देश में भाजपा को अजेय बनाए रखने के लिए पार्टी पदाधिकारी इन पांच सूत्रों के आधार पर काम करेंगे। इसके तहत फिलहाल देश में अगर पार्टी कोई भी चुनाव लड़ती है तो वह नरेंद्र मोदी के नाम पर ही वोट मांगेगी। दूसरा, भाजपा की सबसे मजबूत तैयारी मतदान केंद्रों पर दिखेगी। गांव-गांव में फैले भाजपा के सहयोगी संगठनों के नेटवर्क को और मजबूत बनाना है। तीसरा केंद्र और राज्य की योजनाओं के प्रचार और प्रसार के खर्चों पर कंजूसी नहीं की जाएगी। चौथा लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी के लिए घर-घर मोदी और चाय पर चर्चा के ने जिस तरह क्रांतिकारी असर दिखाया था ऐसे कार्यक्रम लगातार चलते रहने चाहिए। और पांचवां हैं विकास के सपने। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा के पास मुख्य मुद्दा विकास ही है। भाजपा के खाते में 13 महीने में देश की हर मोर्चे पर हुई तरक्की की गाथा है। भाजपा के पास देश के विकास का विजन है। जिसके आधार पर पार्टी पदाधिकारी सालभर काम करेंगे।
18 मंत्रियों परफार्मेंस रिपोर्ट तलब की शाह ने
बताया जाता है कि शाह के पास जो रिपोर्ट पहुंची है उसके अध्ययन के बाद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष शिवराज सरकार के 18 मंत्रियों से नाराज हैं। नाराजगी की वजह है इन मंत्रियों द्वारा संगठन के दिशा निर्देशों के अनुसार काम नहीं करना। राजधानी में 10 मई को आयोजित महिला मोर्चा की राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक और सुशासन संकल्प सम्मेलन में शामिल होने आए अमित शाह ने शाम को सीएम हाउस में प्रदेश सरकार के मंत्रियों की जमकर क्लास ली। शाह ने मंत्रियों से सख्त लहजे में कहा कि आप लोगों की परफार्मेंस रिपोर्ट से संगठन संतुष्ट नहीं है। आप लोग न तो अपने क्षेत्र का दौरा करते हैं और न ही प्रभार वाले जिलों का। उन्होंने कहा कि कई मंत्रियों का फीडबैक और परफार्मेंस ठीक नहीं है, उनके नाम मैं मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को बता चुका हूं। शाह ने मंत्रियों को प्रभार के जिलों में लगातार जाने, संगठन के साथ बेहतर तालमेल और सक्रियता दिखाने की नसीहत भी दी थी। उन्होंने कहा था कि केंद्रीय संगठन के पास जो रिपोर्ट है, उसके अनुसार अभी तक प्रदेश में भाजपा मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और संगठन के पदाधिकारियों के दम पर अच्छा परफार्मेंस करती आ रही है। इसलिए उचित होगा कि आप लोग निरंतर सक्रिय रहें और जनता के बीच अधिक से अधिक समय गुजारें। उन्होंने मंत्रियों से कहा था कि आप लोगों की पल-पल की रिपोर्ट मेरे पास है। लेकिन शाह की उस हिदायत के बाद भी मंत्री सुधरे नहीं है। इसलिए शाह एक बार फिर से मंत्रियों से रूबरू होंगे। शायद इस बैठक में मंत्रियों को सामुहिक रूप से उनकी परफॉर्मेंस रिपोर्ट भी दिखाई जाएगी। उल्लेखनीय है कि मप्र के मंत्रियों की परफार्मेंस रिपोर्ट से प्रदेश संगठन भी संतुष्ट नहीं दिखा है। दरअसल, प्रदेश में तीसरी बार सरकार बनने के 10 माह बाद जब एक सर्वे संघ द्वारा किया गया था तो उस समय 13 मंत्रियों की परफार्मेंस खराब बताई गई थी। उसके बाद जब प्रदेश संगठन ने सर्वे किया था तो 15 मंत्री कसौटी पर खरे नहीं उतरे और अब तीसरी बार के सर्वे में 18 मंत्रियों की परफार्मेंस खराब बताई जा रही है।
काम नहीं करने वाले मंत्रियों कीे होगी छुट्टी!
मप्र विधानसभा के मानसून सत्र के बाद कैबिनेट विस्तार हो सकता है। सूत्रों के अनुसार, कैबिनेट में नए चेहरों को शामिल किया जा सकता है। साथ ही जो मंत्री सही काम नहीं कर रहे हैं, उनकी कैबिनेट से बाहर का रास्ता दिखाया जा सकता है। बताया जाता है की अभी कुछ माह पहले संघ ने मंत्रियों की जो परफॉर्मेंस रिपोर्ट तैयार की थी उसी के आधार पर मंत्रिमंडल को नया स्वरूप दिया जाएगा। पार्टी के सूत्रों का कहना है कि 13 जुलाई को होने जा रही बैठक के दौरान राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह उन मंत्रियों को सख्त संदेश देना चाहते हैं जो ठीक से काम नहीं कर रहे हैं। वहीं, जो मंत्री अच्छा काम कर रहे हैं, उनकी तरक्की हो सकती है। इसके लिए शाह शिवराज सिंह चौहान को फ्री हैंड दे सकते हैं। संघ का आरोप है कि मप्र में भले ही भाजपा सभी चुनाव जीतती आ रही है, लेकिन मंत्री ऐसे हैं जो अपने विभाग की कार्यप्रणाली को पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं। यही नहीं प्रदेश के 23 में से 13 मंत्री तो ऐसे हैं जो संघ और 15 संगठन के पैमाने पर खरे नहीं उतर सकें हैं। इनमें से कुछ मंत्री अधिकारियों के भरोसे विभाग चला रहे हैं तो कुछ को विभागीय अधिकारी तव्वजों नहीं दे रहे हैं। वहीं कई मंत्री और उनका विभाग ऐसा है कि वे सरकार और संगठन की गाइड लाइन के अनुसार काम ही नहीं कर पा रहे हैं। उल्लेखनीय है की संघ और भाजपा संगठन ने केंद्र और भाजपा शासित राज्यों को स्पष्ट निर्देश दिया है कि वे अपनी-अपनी सरकार और मंत्रियों की परफॉर्मेंस की लगातार मॉनिटरिंग करें। साथ संघ और संगठन ने अपने स्तर पर भी मंत्रियों और उनके विभाग की मॉनिटरिंग करवाई है। जिसमें विजन डाक्यूमेंट 2018 के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए किस स्तर पर प्रयास किया गया, आम जनता में मंत्री की छवि, कार्यकर्ताओं से उनका संपर्क, विभागीय योजनाओं की जानकारी और विभाग में मंत्री की पकड़, मंत्रियों के ओएसडी, निज सहायकों की छवि और मंत्री की उन पर निर्भरता, अब तक की कैबिनेट की बैठकों में मंत्रियों द्वारा अपने विभाग के कितने प्रजेंटेशन दिए गए, मंत्रियों के निर्णय और फाइलों का निराकरण सहित मंत्रालय में बैठकर काम-काज करना, मंत्री के काम-काज से पार्टी की छवि पर कैसा असर, मंत्री बनने के बाद कितने दौरे किए, कितने लोगों से मिले, मैदानी योजनाओं की हकीकत जानने और उसमें सुधार के लिए कितने प्रयास किए आदि को आधार बनाया गया है। इसके साथ ही इंटेलीजेंस से भी रिपोर्ट तैयार करवाई गई है। इन रिपोर्टो के अनुसार प्रदेश के 15 मंत्री अपने अब तक के कार्यकाल में असफल साबित हुए हैं।
बेस्ट परफॅार्मर ही बने रहेंगे मंत्री
संघ ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि केंद्र हो या फिर राज्य बेस्ट परफॉर्मेेस करने वाले मंत्रियों को ही सरकार में रखा जाए। इसको देखते हुए अमित शाह मप्र सरकार के मंत्रियों की परफॉर्मेंस रिपोर्ट जांचेंगे। इससे पहले अधिकारियों द्वारा मंत्रियों का रिपोर्ट कार्ड खगाला जाने लगा है। ऐसे मंत्रियों को छांट कर अलग किया जा रहा है जिनकी परफॉर्मेंस परफैक्ट रही है। ऐसे मंत्री जो विधानसभा के अंदर भी और बाहर भी सरकार की हमेशा अलग-अलग ढंग न केवल सबल प्रदान करते हैं, बल्कि अपने विभाग में मजबूत पकड़ रखते हुए सकारात्मक परिणाम भी देते हैं। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में सत्ता की हैट्रिक और केंद्र में पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनने के बाद संघ और भाजपा संगठन हाथ आए मौके को गंवाना नहीं चाहता है और वह चाहता है कि कम से कम प्रदेश में और 10 साल तथा केंद्र में 15 साल भाजपा की सरकार बनी रहे। इसके लिए वह किसी भी मंत्री की कोताही बर्दास्त करने के मूड में नहीं है। जहां तक प्रदेश की बात है तो अभी मंत्रिमंडल में 11 और मंत्री बनाने की गुंजाइश है। साथ ही भाजपा के पास 165 विधायकों की लंबी फौज है। ऐसे में किसी के दबाव में आने का सवाल ही नहीं उठता। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान एक-एक विधायक और उसकी क्षमता को जानते हैं और उन्हें पता है कि कौन बेहतर प्रर्दशन कर सरकार की छवि बना सकता है। जल्द ही होने वाले मंत्रिमंडल के फेरबदल में मंत्रियों के विभाग का फैसला उनकी रेटिंग के अनुसार किया जाएगा। इस आधार पर कुछ मंत्रियों को बड़े विभागों की जिम्मेदारी दी जाएगी तो कुछ के विभाग बदले जा सकते हैं, वहीं खराब परफॉरमेंस वालों को मंत्रिमंडल से बाहर कर उनकी जगह नए चेहरों को मौका दिया जाएगा।
यह हो सकते हैं मंत्रिमंडल में नए चेहरे
भाजपा के कुछ पदाधिकारियों का कहना है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की तीसरी पारी में कैबिनेट में होने वाले फेरबदल में तीन नए चेहरे शामिल हो सकते हैं। फिलहाल कैबिनेट में 11 पद खाली पड़े हैं, लेकिन सरकार की मंशा सभी पदों को भरने की नहीं है। इसके साथ ही भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह द्वारा की गई समीक्षा के आधार पर मंत्रियों के विभागों में बड़ी संख्या में फेरबदल हो सकता है। जिन मंत्रियों को शाह ने परफॉरमेंस के नजरिए से कमजोर बताया है उनके विभागों में बदलाव किया जा सकता है। पार्टी के उच्च पदस्थ सूत्रों के मुताबिक मुख्यमंत्री को हाईकमान ने फेरबदल के लिए फ्रीहैंड दिया है। इसके लिए जो गाइड लाइन बनाई गई थी उसके मुताबिक संक्षिप्त विस्तार में तीन नए मंत्रियों को शपथ दिलाए जाने पर सहमति बनी है। उनके चयन में भी ये तय किया गया है कि एक ब्राहमण, एक ठाकुर और एक अनुसूचित जनजाति वर्ग से चुना जाएगा। दिग्गजों के बीच चर्चा में जो नाम आए हैं उनमें जशवंत सिंह हाड़ा, लोकेंद्र तोमर, यशपाल सिशोदिया और हर्ष सिंह के नाम में से एक को लेने पर अंतिम फैसला होगा। अनुसूचित जनजाति से रंजना बघेल या निर्मला भूरिया, ओमप्रकाश धुर्वे के नाम पर भी विचार किया गया। ब्राहमण वर्ग से अर्चना चिटनीस, केदार शुक्ल, शंकरलाल तिवारी और संजय पाठक के नामों पर चर्चा की गई। इसके अलावा अनुसूचित जाकित वर्ग से राज्य मंत्री लालसिंह आर्य को स्वतंत्र प्रभार देकर प्रमोट किया जा सकता है।
वहीं भाजपा के पदाधिकारियों का एक वर्ग का कहना है कि मंत्रिमंडल विस्तार में बुजुर्ग मंत्रियों को सबसे पहले बाहर किया जा सकता है। संभावना यह लगाई जा रही है कि नए विस्तार में युवा चेहरों को मौका दिया जाएगा। खासकर गृह मंत्री बाबूलाल गौर तथा लोक निर्माण मंत्री सरताज सिंह सहित पुअर परफार्मेंस लाने वाले मंत्रियों की कैबिनेट से छूट्टी हो सकती है। पदाधिकारियों का कहना है कि विस्तार में मुरैना से विधायक एवं पूर्व मंत्री रुस्तम सिंह, महाराजपुर से विधायक मानवेंद्र सिंह, कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुए विधायक संजय पाठक, सीधी से केदारनाथ शुक्ला, आदिवासी विधायक पूर्व मंत्री मीना सिंह, ओमप्रकाश धुर्वे, चौधरी चंद्रभान सिंह, अर्चना चिटनीस सहित निर्मला भूरिया के नाम हैं। इंदौर से कैलाश विजयवर्गीय के चहेते दूसरी बार विधायक चुने गए रमेश मेंदोला को राज्यमंत्री बनाया जा सकता है। वैसे इंदौर से सुदर्शन गुप्ता सहित महेंद्र हार्डिया की वापसी की भी संभावना बन रही है।
'लालबत्तीÓ को लेकर फिर सियासी 'उबालÓ
मंत्रिमंडल विस्तार के साथ ही मध्यप्रदेश की सियासत में एक बार फिर लालबत्ती को लेकर राजनीतिक उबाल चरम पर पहुंच गया है। पिछले दिनों प्रदेश भाजपा कार्यालय में मप्र भाजपा कार्यसमिति की बैठक के बाद एक बार यह फिर चर्चा शुरू हो गई है कि मप्र में मंत्रिमंडल विस्तार के साथ निगम-मंडलों में लंबे समय से पेंडिंग राजनीतिक नियुक्तियों का दौर शुरू होने वाला है। हालांकि, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी इस चर्चा की पुष्टि कर चुके हैं। ऐसे में प्रदेश में लालबत्ती को लेकर सियासी जोर-आजमाइश शुरू हो गई है। प्रदेश में लंबे समय से निगम-मंडलों में राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर इंतजार किया जा रहा है। इसमें सबसे ज्यादा उन नेताओं को समय गंवाना पड़ रहा है, जो प्रदेश संगठन में रहकर लालबत्ती के लिए दौड़-धूप कर रहे हैं। अब चूंकि प्रदेश भाजपा की नई कार्यकारिणी का विस्तार भी हो चुका है। एक के बाद एक चुनाव भी निपट गए, ऐसे में इन नेताओं का इंतजार अब खल रहा है। बताया जाता है कि पार्टी के कई पदाधिकारियों के नाम लालबत्ती को लेकर चर्चा में भी हैं। प्रदेश में विधानसभा चुनाव के बाद से निगम-मंडल मंत्रियों के हवाले हैं। विधानसभा चुनाव के पहले सभी राजनीतिक नियुक्तियों को निरस्त किए जाने के बाद से प्रदेश में अधिकांश निगम-मंडल बिना अध्यक्ष विहीन हैं। किसी में प्रशासक तैनात हैं, तो कुछ विभागीय मंत्रियों के हवाले हैं। सूत्रों की मानें तो प्रदेश भाजपा ने निगम-मंडलों में राजनीतिक नियुक्तियों को लेकर नई नीति बनाई है। इसके चलते कोई भी पदाधिकारी एक साथ दो पदों पर नहीं नियुक्त किया जाएगा। साथ ही ऐसे पदाधिकारियों को रिपीट भी नहीं किया जाएगा। वहीं केवल उन्हीं पदाधिकारियों को लालबत्ती देने की बात कही जा रही है, जो आगे चुनाव का टिकट नहीं मागेंगे। ऐसे में पार्टी कई नेताओं की नाराजी दूर करने की तैयारी में हैं।
और इधर, शिवराज का 'मास्टर स्टोकÓ
अंतत: कैलाश विजयवर्गीय नई दिल्ली पहुंच ही गए और अब वे प्रदेश की बजाय राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय होंगे। इस बदलाव को जहां विजयवर्गीय समर्थक एक बड़ी उपलब्धि मान रहे हैं, वहीं इसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का 'मास्टर स्टोकÓ के तौर पर देखा जा रहा है। 4 जुलाई को प्रदेश भाजपा कार्यालय में आयोजित अभिनंदन समारोह में उन्होंने मंत्री पद से अपना त्यागपत्र मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को सौंप दिया। इस अवसर पर दोनों नेताओं ने एक दूसरे की तारीफ में जमकर कसिदे भी गढ़े। जबकि प्रदेश की राजनीति में दोनों अलग-अलग धुर्व माने जाते हैं। पर्दे के पीछे का राजनीतिक सच यह भी है कि प्रदेश की राजनीति से कैलाश विजयवर्गीय को बाहर रखने के इच्छुक मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान भी थे। ताई और भाई का झगड़ा भी पुराना चलता रहा है, लिहाजा लोकसभा अध्यक्ष के रूप में ताकतवर हो चुकी सुमित्रा महाजन यानि ताई ने भी इस मामले में पर्दे के पीछे सक्रिय भूमिका निभाई। दिल्ली दरबार ने भी इस निर्णय से पहले मुख्यमंत्री से सलाह मशवरा करते हुए उन्हें पूरी तवज्जो भी दी। दिल्ली स्थित राजनीतिक सूत्रों का यह भी कहना है कि इंदौर और भोपाल से कैलाश विजयवर्गीय का बोरिया-बिस्तर बंधवाने में शिवराज की भूमिका भी महत्वपूर्ण रही है। पिछले कई दिनों से मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान और उनके काबिना मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के बीच जमकर टसल चल रही है। हालांकि पूर्व में भी इस तरह के गोरिल्ला युद्ध दोनों के बीच हो चुके हैं और फिर समझौते भी होते रहे, मगर पिछले दिनों जो दरार पड़ी वह बाद में सुधरने की बजाय बढ़ती ही गई और यही कारण है कि अभी तमाम तबादलों से लेकर अन्य निर्णयों में कैलाश विजयवर्गीय को कम ही तवज्जो मिली। यहां तक कि इंदौर में ही नगर निगम से लेकर प्राधिकरण में जो तबादले किए गए उनमें भी उनकी भूमिका शून्य कर दी गई, जबकि वे विभागीय मंत्री हैं। यहां तक कि सिंहस्थ के महाआयोजन से भी मुख्यमंत्री ने विजयवर्गीय को दूर ही रखा है। इधर हरियाणा चुनाव के बाद से ही यह कयास लगाए जाते रहे कि विजयवर्गीय को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अब मध्यप्रदेश की बजाय दिल्ली की राजनीति में सक्रिय करना चाहते हैं और उन्हें महासचिव का पद दिया जाएगा। हालांकि इस निर्णय में भी विलंब होता रहा और अंतत: इसकी अधिकृत घोषणा हो ही गई। विजयवर्गीय के समर्थकों ने तो तुरंत ही आतिशबाजी करते हुए मिठाईयां भी बांट दीं और इसे विजयवर्गीय के लिए बड़ी उपलब्धि भी बताया जा रहा है, लेकिन अंदर खानों की खबर यह है कि प्रदेश की राजनीति में चूंकि बार-बार मुख्यमंत्री की कुर्सी को डांवाडोल करने के प्रयास किए जाते रहे, क्योंकि विजयवर्गीय को मुख्यमंत्री पद का प्रबल दावेदार माना जाता रहा है और अब समर्थकों का भी कहना है कि राष्ट्रीय महासचिव बनने के बाद अब भविष्य में विजयवर्गीय के मुख्यमंत्री बनने की संभावना बढ़ जाएगी, क्योंकि नई दिल्ली में रहते हुए वे उच्च स्तरीय संबंध बना लेंगे और शिवराजसिंह चौहान भी पहले महासचिव ही हुआ करते थे। इधर पार्टी आलाकमान से लेकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस फैसले से पहले मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान से पर्याप्त सलाह-मशविरा किया। यह एक संयोग है कि जिस दिन शाम को विजयवर्गीय की महासचिव बनाए जाने की घोषणा होती है और उसके पहले मुख्यमंत्री नई दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री मोदी से भी चर्चा करते हैं। यानि दिल्ली दरबार ने मुख्यमंत्री को भरोसे में लेकर ही विजयवर्गीय को महासचिव बनाने का निर्णय लिया। अब शिवराज भी निश्चिंतता से काम कर सकेंगे, क्योंकि उनके पीछे ताई का भी वरदहस्त है। अब देखना यह होगा कि आने वाले दिनों में विजयवर्गीय अपने महासचिव पद का कितना लाभ भविष्य के लिए ले पाते हैं?
निगम-प्राधिकरण में भी असर घटेगा
अभी तक कैलाश विजयवर्गीय का खेमा इंदौर के साथ-साथ प्रदेश की राजनीति में भी शक्तिशाली माना जाता रहा है, क्योंकि पिछले 12 सालों से विजयवर्गीय विभिन्न विभागों के काबिना मंत्री रहे हैं। इंदौर की बात की जाए तो वहां भी उनका एकछत्र राज रहा है और नगर निगम से लेकर प्राधिकरण में तो तूती बोलती ही रही, लेकिन अब नगर निगम के साथ-साथ प्राधिकरण में भी उनका और उनके समर्थकों का असर घट जाए, क्योंकि अभी तो मंत्री होने के नाते अफसर और कर्मचारी अधिक तवज्जो देते रहे हैं। अफसरों के साथ विजयवर्गीय और उनके समर्थकों की पटरी कम ही बैठती आई है। यहां तक कि कलेक्टर से लेकर निगम आयुक्त और प्राधिकरण सीईओ के मामले में तो यह अक्सर होता रहा है और पुलिस विभाग के भी आला अफसरों से उनके कम पंगे नहीं हुए। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान ने भी इंदौर में अफसरों की नियुक्ति को लेकर विजयवर्गीय की पसंद को हाशिए पर ही रखा और जिनसे उनका पंगा रहा उन्हीं अफसरों को ज्यादातर इंदौर में पदस्थ किया जाता रहा। कैलाश विजयवर्गीय में सामथ्र्य तो जबरदस्त है। हालांकि विवादों से भी उनका पुराना नाता रहा है। यही कारण है कि वे मुख्यमंत्री पद की दौड़ में भी आगे रहते हुए भी पीछे हो गए। अलबत्ता इंदौर के महापौर के अलावा वे पिछले 12 सालों से काबिना मंत्री रहे हैं और तमाम विभागों का मंत्री पद उन्होंने संभाला। यह बात अलग है कि सत्ता में रहते हुए वे अपने सामथ्र्य के मुताबिक परिणाम नहीं दे पाए। यहां तक कि पिछले डेढ़ सालों से वे नगरीय प्रशासन और विकास मंत्री रहे, लेकिन इंदौर शहर का ही बिगड़ा ढर्रा नहीं सुधार पाए और नगर निगम के साथ-साथ प्राधिकरण भी चौपट होता रहा। अब देखना यह है कि सत्ता की बजाय वे संगठन में कितने सफल साबित होते हैं? वैसे उनमें नेतृत्व करने का गुण अधिक है और कार्यकर्ताओं की सबसे लम्बी-चौड़ी फौज भी उन्हीं के पास है। लिहाजा संभव है कि सत्ता की बजाय वे संगठन में अधिक सफल साबित हों।
दिल्ली में होंगे विरोधी लामबंद
विजयवर्गीय के महासचिव की जिम्मेदारी मिलने से राज्य की राजनीति पर असर पडऩे की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। इतना तो साफ है कि दिल्ली में शिवराज विरोधियों को लामबंद होने का मौका जरूर मिल गया है। राज्य की राजनीति में पिछले कुछ अरसे से विजयवर्गीय का कद लगातार कम होता जा रहा था, लिहाजा वे पार्टी की राष्ट्रीय राजनीति में जगह बनाने की हर संभव कोशिश कर रहे थे, इतना ही नहीं गाहे-बगाहे वे अपने को राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह के नजदीक दिखने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने दे रहे थे। शाह से बढ़ी नजदीकी का ही नतीजा था कि उन्हें हरियाणा चुनाव में पार्टी ने जिम्मेदारी सौंपी तो उसमें वे अपनी क्षमता दिखाने में कामयाब भी रहे। प्रदेश से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक पर मुख्यमंत्री शिवराज और विजयवर्गीय की निष्ठाएं किसी से छुपी नहीं है। शिवराज की गिनती जहां भाजपा के वरिष्ठ नेता के करीबियों में रही है, तो विजयवर्गीय का हमेशा से शिवराज से 'छत्तीसÓ का आंकड़ा रहा है। राज्य की बदलती राजनीतिक परिस्थितियों के बीच विजयवर्गीय का राष्ट्रीय महासचिव बनना शिवराज के लिए पार्टी के भीतर किसी नई चुनौती से कम नहीं माना जा रहा है। राज्य की राजनीति के जानकारों का मानना है कि दिल्ली में शिवराज विरोधी राज्य से नाता रखने वाले नेताओं केंद्रीय जल संसाधन मंत्री उमा भारती, राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा का गुट अब विजयवर्गीय के वहां पहुंचने से और मजबूत हो जाएगा। उमा और झा को राज्य की राजनीति से बाहर करने में शिवराज की अहम भूमिका रही है, अब सभी मिलकर शिवराज की मुसीबत बढ़ा सकते हैं। विजयवर्गीय के राष्ट्रीय राजनीति में जाने से हर कोई खुश है, अलग-अलग गुटों से नाता रखने वाले नेता इसे अपनी-अपनी जीत मान रहे हैं, मगर इस बदलाव का किस पर कितना असर होता है, यह तो आगे आने वाले समय और राजनीतिक चालों पर निर्भर करेगा।