अल्पसंख्यकों की जिस बैशाखी को सहारा बनाकर आधुनिक भारत की राजनीति के चाणक्य अर्जुन सिंह ने कांग्रेस के बड़े से बड़े नेताओं को अपनी सोच और समझ का लोहा मनवा दिया था अब उसी बैशाखी का सहारा उन्हीं के शार्गिद दिग्विजय सिंह ले रहे हैं।
पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह को बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में कांग्रेस का कूटनीतिक चाणक्य माना जाता था। ढलती उमर के चलते उन्हें राजनीतिक बियावान से शून्य की ओर धकेल दिया गया है। अर्जुन खामोश हैं, लोगों को बहुत आश्चर्य है। इक्कीसवीं सदी में कांग्रेस के दूसरे नंबर के ताकतवर महासचिव दिग्विजय सिंह में लोग अर्जुन सिंह का अक्स ढूंढते मिल रहे हैं। माना जा रहा है कि अब अर्जुन सिंह की तर्ज पर ही दिग्विजय सिंह चाणक्य बनने की जुगत में हैं। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को साधने की महती जवाबदारी दिग्गी के कांधो पर डाली गई। अर्जुन सिंह की राह पर ही चलते हुए उन्होंने बटाला एनकाउंटर और आजमगढ मामले में जमकर सियासत की। इतना ही नहीं भारी विरोध के बावजूद न केवल दिग्गी राजा वहां गए वरन अब तो वे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को भी आजमगढ ले जाने की तैयारियों में जुट गए हैं। कांग्रेस के वर्तमान गांधी 'राहुल और सोनिया' को साधकर राजा दिग्विजय सिंह ने ''एक साधे सब सधें'' की कहावत को चरितार्थ कर दिया है।
मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर में भाजपा के छोटे से लेकर बड़े नेता तक ने पार्टी की चाल, चेहरा और चरित्र को लेकर 72 घंटे तक मंथन किया लेकिन सबकी आंखों में दिग्विजय सिंह तैरते दिखे। पूरे अधिवेशन में अगर भाजपा नेताओं ने किसी दूसरी पार्टी के नेता पर चर्चा की तो वह हैं दिग्गी राजा। इंदौर में भाजपा की राष्ट्र्रीय समिति की बैठक के दौरान श्री सिंह अपनी पार्टी के अकेले नेता रहे जिन की भाजपा ने आलोचना की। इस पर चुटकी लेते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा है कि भाजपा जब भी मेरी आलोचना करती है तो वे एक किस्म का गौरव महसूस करते हैं। कांग्रेस नेता ने कहा कि वे आजमगढ़ को पर्यटन स्थल बनाने के लिए नहीं गए थे पर अगर ऐसा हो गया तो उन्हें खुशी होगी क्योंकि इसके कारण स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा।
दिग्विजय सिंह आज की तारीख में कांग्रेस के सबसे ताकतवर महासचिव हैं। वे खुद राजनैतिक तौर पर कम प्रतिभाशाली नहीं हैं लेकिन कांग्रेस की कलाकाट राजनीति में उनकी ताकत का राज यह है कि वे राहुल गांधी के साथ मिल कर काम कर रहे हैं और जहां राहुल को जमीनी राजनीति समझानी होती है, समझाते हैं।
दिग्विजय सिंह से आतंकित कांग्रेसियों ने उनके हाल के आजमगढ़ दौरे को ले कर बहुत बवाल मचाया था और कुछ ने तो यह राय भी जाहिर कर दी थी कि दिग्विजय सिंह का यह कदम सांप्रदायिक हैं और इसीलिए उन्हें कम से कम महासचिव पद से हटा दिया जाना चाहिए। दिग्विजय सिंह का कसूर यह बताया जा रहा था कि उन्होंने आजमगढ़ जा कर दिल्ली के बाटला हाउस के अभियुक्तों से गहरी दोस्ती कर ली थी और उनके परिवारों से सहानुभूति जाहिर की थी।
मगर दिग्विजय सिंह की शक्ति का स्रोत सिर्फ राहुल गांधी नहीं है। वे मध्य प्रदेश के लगातार दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और जूझने की राजनीति उन्हें आती है। अमर सिंह जैसे वाचाल नेता को कई मौको पर उन्होने सिर्फ हंस कर कहे गए एक या दो सारगर्भित वाक्यों के जरिए खामोश कर दिया था। दिग्विजय सिंह की खासियत यह है कि वे मंत्री नहीं हैं इसलिए पार्टी के लिए उनके पास पूरा वक्त है।
भविष्य में यह देखना और भी दिलचस्प होगा कि अल्पसंख्यकों के किन-किन मुद्दों पर दिग्विजय सिंह अपनी राय देते हैं और कांग्रेस उससे अपना पल्ला झाड़ती है या नहीं। लेकिन दिग्विजय सिंह को यह याद रखना चाहिए कि अर्जुन सिंह के जमाने में राजनैतिक फिजा कुछ और थी और अब का राजनैतिक परिदृश्य अलहदा है। अब मुसलमानों को सिर्फ बयानबाजी से बरगलाना मुश्किल है उन्हें कुछ ठोस करके दिखाना होगा।
अर्जुन सिंह ने एक वक्त अपने वक्तव्यों और सहयोगियों के साथ मिलकर ऐसा समां बांध दिया था कि लगने लगा था कि सेक्युलरिज्म के वो सबसे बड़े पैरोकार हैं। अपनी बयानवीरता से उत्साहित अर्जुन सिंह यहीं नहीं रुके थे। उन्होंने एक वक्तव्य में संघ और हिंदू महासभा को भारत के विभाजन का जिम्मेदार भी ठहरा दिया था। अर्जुन सिंह ने संघ पर इतिहास को गलत दिशा देने का आरोप भी जड़ा था। अल्पसंख्यकों को लुभाने के चक्कर में सिंह ने कई बचकाने तर्क दिए और यह भूल गए कि विभाजन के असली जिम्मेदार तो जिन्ना थे जिन्होंने द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत का ना केवल प्रतिपादन किया बल्कि उसको मूर्त रूप भी दिलवाया, जिसको कांग्रेस के नेताओं का भी मूक समर्थन प्राप्त था।
अब अर्जुन सिंह अस्वस्थ हैं और पार्टी में उनकी कोई पूछ नहीं रह गई है। कांग्रेस में कोई बड़ा अल्पसंख्यक नेता भी नहीं है जिस पर पार्टी को ये भरोसा हो कि वो अपने समुदाय का वोट पार्टी को दिला सकता है। मौका माकूल देखकर दिग्विजय सिंह ने अपने गुरु अर्जुन सिंह की राह पर चलने का फैसला कर लिया प्रतीत होता है। दिग्विजय सिंह को इसके दो फायदे हो सकते हैं एक तो पार्टी में उनकी पूछ बढ़ जाएगी और दूसरे अगर खुदा ना खास्ते उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कोई फायदा होता है तो पार्टी आलाकमान की नजर में उनका ग्राफ भी ऊपर चढ़ जाएगा। कांग्रेस पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वियों की राजनीति से राहुल के नाम के सहारे जूझ रहे दिग्गी राजा को अल्पसंख्यकों की पैरोकारी का ये फॉर्मूला बेहतर लगा और संजरपुर पहुंचकर उन्होंने इसकी शुरुआत कर दी।
बटला हाउस मुठभेड़ को लेकर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के बयान के बाद इस मामले पर एक बार फिर सियासत गर्म हो गई है। पार्टी के भीतर ही इस मसले पर मतभेद साफ नजर आ रहे हैं। वहीं भाजपा ने दिग्विजय के बयान को वोटबैंक की राजनीति बताकर घेरना शुरू कर दिया है। कांग्रेस में कई नेता मान रहे हैं कि इस मसले पर दिग्विजय ने जो कुछ कहा उसकी इस समय जरूरत नहीं थी।
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक जब यह मामला प्रधानमंत्री खुद निपटा चुके थे। उन्होंने सभी तथ्यों को देखने के बाद न्यायिक जांच की संभावनाओं को नकार दिया था तो एक बार फिर इस मुद्दे को उठाना गड़े मुर्दे उखाडऩे जैसा है। हालांकि कांग्रेस के भीतर ही बटला हाउस मुठभेड़ पर सवाल उठाने वाला धड़ा कांग्रेस महासचिव के बयान के साथ खड़ा होता नजर आ रहा है। इस बात के भी कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस महासचिव का बयान पार्टी की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है, जिसके तहत उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों का रुझान अपनी ओर देखते हुए पार्टी ने सोचा-समझा दांव खेला हो। हालांकि पार्टी की ओर से प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने बेहद नपे-तुले अंदाज में कहा कि दिग्विजय सिंह बड़े नेता हैं, यूपी के प्रभारी भी हैं, वे आजमगढ़ सत्य की खोज करने गए थे। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि उन्हें क्या कहना है। जहां तक उनके बयान का सवाल है, इस बारे में वे खुद ही बता सकते हैं। जबकि भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि जांच के बाद साफ हो गया था कि बटला एनकाउंटर झूठा नहीं है। उन्होंने कहा कि कोर्ट ने भी इस संबंध में उठाई गई शंकाओं को खारिज कर दिया, ऐसे में दिग्विजय सिंह का बयान वोट बैंक की राजनीति के सिवा कुछ नहीं है। उन्होंने इसे भावनाएं भड़काने की कोशिश भी बताया।
उधर सिंघवी के नपे-तुले अंदाज में दिए गए बयान से कांग्रेस की दुविधा उजागर हुई। पार्टी सूत्रों का कहना है कि दिग्विजय यूपी में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के मिशन यूपी के सूत्रधार के तौर पर काम कर रहे हैं। उनको आजमगढ़ जाकर विवाद कुरेदने की जरूरत क्यों पड़ी, इसके मायने तलाशने में खुद पार्टी के कई नेता जुटे हैं।
आजादी के बाद के चुनावों में उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के वोट कमोबेश कांग्रेस पार्टी को ही मिलते रहे हैं। 92 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ और उसका वोट कांग्रेस की झोली से निकलकर मुलायम के पास पहुंच गया। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके पूर्व भाजपा नेता कल्याण सिंह को अपना सहयोगी बना लिया। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया कि मुलायम के लिए कल्याण की यह दोस्ती भारी पड़ी। उत्तर प्रदेश में ढ़ाई साल बाद एक बार फिर से विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और लोकसभा चुनावों में पार्टी की सफलता से उत्साहित कांग्रेसियों की नजर एक बार फिर से मुस्लिम मतदाताओं पर है। पार्टी नेताओं को यह लगने लगा है कि अगर मुसलमानों को एक बार फिर से साध लिया गया तो प्रदेश में मरणासन्न पार्टी को नई संजीवनी मिल सकती है।
अपनी इसी योजना को लेकर पार्टी के उत्तर प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह आजमगढ़ के संजरपुर पहुंचते हैं। संजरपुर वो कस्बा है जहां के कुछ युवकों पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगता रहा है। वहां पहुंचकर दिग्विजय सिंह को अचानक दिल्ली ब्लास्ट के बाद हुए बटला एनकाउंटर की याद आती है। स्थानीय लोगों का जोरदार विरोध और काले झंडे के बावजूद जब दिग्विजय सिंह को बोलने का मौका मिला तो उन्होंने एक शातिर राजनेता की तरह लोगों की दुखती रग पर हाथ रख दिया। इशारों-इशारों में बटला हाउस एनकांउटर के फर्जी होने की बात कर डाली।
दिग्विजय ने कहा कि उन्होंने बटला हाउस एनकाउंटर के फोटोग्राफ्स देखे हैं जिनमें आतंकवादियों के सिर में गोली लगी है। उनके मुताबिक दहशतगर्दों के खिलाफ एनकाउंटर में इस तरह से गोली लगना नामुमकिन है। इशारा और इरादा दोनों साफ थे। दिग्विजय सिंह को अगर बटला हाउस एनकाउंटर की सत्यता पर संदेह था तो डेढ़ साल से चुप क्यों थे। संजरपुर पहुंचकर ही दिग्गी राजा को बटला हाउस की याद क्यों आई।
आपको याद दिलाते चलें कि 2008 के सितंबर में दिल्ली के बटला हाउस इलाके में हुए एक एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस के जांबाज सिपाहियों ने दो आतंकवादियों को ढेर कर दिया था। आतंकवादियों से लड़ते हुए उस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के जांबाज इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा शहीद हो गए थे और एक हेड कांस्टेबल बुरी तरह से जख्मी हो गया था। दो साल पहले जब यह एनकाउंटर हुआ था, उस वक्त भी इस पर सवाल खड़े हुए थे। लेकिन बाद में अदालत और सरकारी जांच में ये साबित हो गया कि मुठभेड़ सही थी।
जब दिग्विजय सिंह संजरपुर में ये बयान दे रहे थे उसके दो दिन पहले यूपी एसटीएफ ने दिल्ली समेत कई शहरों में हुए बम धमाकों के आरोपी आतंकवादी शहजाद को धर दबोचा था। शहजाद ने इस सिलसिले में कई सनसनीखेज खुलासे भी किए और यह भी माना कि दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहनचंद शर्मा उसकी ही गोली का निशाना बने। लेकिन एनकाउंटर के फोटग्राफ्स को ध्यान से देखने वाले कांग्रेस पार्टी के इस वरिष्ठ नेता को शहजाद के बयानों को पढऩे की फुर्सत कहां। इन बातों से बेखबर दिग्विजय ने संजरपुर में बटला हाउस एनकाउंटर को ही संदेहास्पद करार दे दिया। ये इस एनकाउंटर में मारे गए शहीद मोहनचंद शर्मा का अपमान भी है।
जाहिर था दिग्विजय सिंह के इस बयान के बाद सियासी गलियारों में हड़कंप मचा और भारतीय जनता पार्टी ने दिग्विजय सिंह के बहाने कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधा। आनन-फानन में कांग्रेस ने दिग्विजय के बयान से खुद को अलग कर लिया। दरअसल कांग्रेस में अल्पसंख्यकों को लुभाने की यह चाल बहुत पुरानी है। एक जमाने में दिग्विजय सिंह के गुरु और उनके ही प्रदेश के कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह भी इस तरह के राजनीतिक दांव चला करते थे। जब सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे उस वक्त अर्जुन सिंह ने अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए आरएसएस पर गांधी की हत्या का आरोप जड़ दिया था। जब आरएसएस ने कानूनी कार्रवाई की धमकी दी तो अर्जुन के तेवर नरम पड़े थे और बयान में संशोधन करते हुए कहा था कि संघ ने जो वातावरण तैयार किया था वही गांधी हत्या की वजह बना। लेकिन उस वक्त बयान देते वक्त अर्जुन सिंह यह भूल गए थे कि जस्टिस कपूर की रिपोर्ट, कांग्रेस के नेता डी पी मिश्रा की आत्मकथा और सरदार पटेल के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पत्रों में भी आरएसएस को गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया था।
लेकिन अर्जुन सिंह अपने राजनैतिक लाभ के लिए गांधी की हत्या का इस्तेमाल करते रहे। आरएसएस के तत्कालीन प्रवक्ता राम माधव ने अर्जुन सिंह को आईना भी दिखाया था। राम माधव ने बताया था कि अर्जुन सिंह के परिवार के संबंध संघ के साथ कितने गहरे रहे हैं और उनके भाई राणा बहादुर सिंह एक जमाने में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के जिला प्रमुख हुआ करते थे। लेकिन इन सबसे बेखबर अर्जुन सिंह ने अल्पसंख्यकों पर डोरे डालना नहीं छोड़ा।
इसके बाद जब अर्जुन सिंह केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्री बने तो पाठ्य पुस्तकों को भगवा रंग से मुक्त करने की मुहिम के नाम पर भी अपनी राजनीति चमकाते रहे। इस पर भी जमकर विवाद हुआ था। जिसमें बाद में प्रधानमंत्री को दखल देना पड़ा था।
Monday, February 22, 2010
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rochak aur rajniti ke galiyare ki satik chitran bhaiya.
ReplyDeletesach much achchha laga. aap majharia ke hai kya?
mujhe aisa laga.
nice post.....
ReplyDeletegood thinking.
ReplyDeleteइस नए चिट्ठे के साथ आपको हिंदी चिट्ठा जगत में आपको देखकर खुशी हुई .. सफलता के लिए बहुत शुभकामनाएं !!
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