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भेड़ाघाट

Wednesday, October 6, 2010

युवराज के प्रेम पर उठने लगी उंगली

कांग्रेस में इन दिनों मार्केटिंग का दौर चल रहा है। पार्टी के नीति निर्धारक जहां युवराज राहुल गांधी को एक अजूबा प्रोडक्ट बताकर उनकी मार्केटिंग कर रहे हैं वहीं राहुल युवाओं के प्रवेश के नाम पर कांगे्रस की मार्केटिंग कर रहे हैं। अपनी तीन दिवसीय यात्रा पर मध्य प्रदेश आए राहुल गांधी की पूरी यात्रा में तो यही नजर आया। हालांकि राहुल गांधी यानि कांग्रेस की ताकत, राजनीति की मैराथॉन का हीरो, युवा पीढ़ी का नया नेता। राहुल गांधी की एक और पहचान है वो युवाओं के स्टाइल आइकॉन भी हैं। शायद राहुल की इसी छवि को भुनाने की जुगत में कांग्रेस लगी हुई है।
मार्केटिंग मैनेजमेण्ट के कुछ खास सिद्धान्त होते हैं, जिनके द्वारा जब किसी प्रोडक्ट की लॉंचिंग की जाती है तब उन्हें आजमाया जाता है। ऐसा ही एक प्रोडक्ट भारत की आम जनता के माथे पर चस्पा करने की कोशिश की जा रही है। मार्केटिंग के बड़े-बड़े गुरुओं और दिग्विजय सिंह जैसे घाघ और चतुर नेताओं की देखरेख में इस प्रोडक्ट यानी राहुल गाँधी की मार्केटिंग की गई है, और की जा रही है। जब मार्केट में प्रोडक्ट उतारा जा रहा हो, (तथा उसकी गुणवत्ता पर खुद बनाने वाले को ही शक हो) तब मार्केटिंग और भी आक्रामक तरीके से की जाती है, बड़ी लागत में पैसा, श्रम और मानव संसाधन लगाया जाता है, ताकि घटिया से घटिया प्रोडक्ट भी, कम से कम लॉंचिंग के साथ कुछ समय के लिये मार्केट में जम जाये। सरल भाषा में इसे कहें तो बाज़ार में माहौल बनाना, उस प्रोडक्ट के प्रति इतनी उत्सुकता पैदा कर देना कि ग्राहक के मन में उस प्रोडक्ट के प्रति लालच का भाव पैदा हो जाये। ग्राहक के चारों ओर ऐसा वातावरण तैयार करना कि उसे लगने लगे कि यदि मैंने यह प्रोडक्ट नहीं खरीदा तो मेरा जीवन बेकार है। ग्राहक सदा से मूर्ख बनता रहा है और बनता रहेगा, ऐसा ही कुछ राहुल गाँधी के मामले में भी होने वाला है। राहुल बाबा को देश का भविष्य बताया जा रहा है, राहुल बाबा युवाओं की आशाओं का एकमात्र केन्द्र हैं, राहुल बाबा देश की तकदीर बदल देंगे, राहुल बाबा यूं हैं, राहुल बाबा त्यूं हैं। लेकिन राहुल गांधी की यात्राओं को देखकर तो यही लगता है कि जो कुछ भी देखा और सुना जा रहा है वह केवल मार्केटिंग का ही फंडा है।
मजे की बात ये है कि राहुल सिफऱ् युवाओं और से दलित आदिवासियों मिलते हैं। युवाओं से मिलने के लिए वे विश्वविद्यालय के कैम्पस या फिर बंद स्थान जहां लड़कियाँ उन्हें देख-देखकर, छू-छूकर हाय, उह, आउच, वाओ आदि चीखती हैं, और राहुल बाबा (बकौल सुब्रह्मण्यम स्वामी राहुल खुद किसी विश्वविद्यालय से पढ़ाई अधूरी छोड़कर भागे हैं और जिनकी शिक्षा-दीक्षा का रिकॉर्ड अभी संदेह के घेरे में है) किसी बड़े से सभागार में तमाम पढे-लिखे और उच्च समझ वाले प्रोफ़ेसरों(?) की क्लास लेते हैं। खुद को विवेकानन्द का अवतार समझते हुए वे युवाओं को देशहित की बात बताते हैं, और देशहित से उनका मतलब होता है भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुडऩा। जनसेवा या समाजसेवा (या जो कुछ भी वे कर रहे हैं) का मतलब उनके लिये कॉलेजों में जाकर हमारे टैक्स के पैसों पर पिकनिक मनाना भर है। किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर आज तक राहुल बाबा ने कोई स्पष्ट राय नहीं रखी है, उनके सामान्य ज्ञान की पोल तो सरेआम दो-चार बार खुल चुकी है, शायद इसीलिये वे चलते-चलते हवाई बातें करते हैं। वस्तुओं की कीमतों में आग लगी हो, तेलंगाना सुलग रहा हो, पर्यावरण के मुद्दे पर पचौरी चूना लगाये जा रहे हों, मंदी में लाखों नौकरियाँ जा रही हों, चीन हमारी इंच-इंच ज़मीन हड़पता जा रहा हो, उनके चहेते उमर अब्दुल्ला के शासन में थाने में रजनीश की हत्या कर दी गई हो ऐसे हजारों मुद्दे हैं जिन पर कोई ठोस बयान, कोई कदम उठाना, अपनी मम्मी या मनमोहन अंकल से कहकर किसी नीति में बदलाव करना तो दूर रहा राजकुमार फ़ोटो सेशन के लिये मिट्टी की तगारी उठाये मुस्करा रहे हैं, कैम्पसों में जाकर कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं, विदर्भ में किसान भले मर रहे हों, ये साहब दलित की झोंपड़ी में नौटंकी जारी रखे हुए हैं और मीडिया उन्हें ऐसे फ़ॉलो कर रहा है मानो साक्षात महात्मा गाँधी स्वर्ग (या नर्क) से उतरकर भारत का बेड़ा पार लगाने आन खड़े हुए हैं।
भोपाल में तो युवराज ने हद यह कर दी कि केवल अल्पसंख्यक समुदाय के ही युवक-युवतियों को रवीन्द्र भवन में बुलाकर चर्चा की। बाहर कांग्रेस को मजबुत बनाने का ख्वाब देखने वालों को पुलिस दुत्कार रही थी। यही नहीं राहुल बाबा जब भी बोलते हैं तो यह कहने से नहीं भूलते हैं कि अब कांग्रेस और युवक कांग्रेस में चापलूसी और चमचागिरी की दाल नहीं गलने वाली और इन गुणों पर विश्वास करने वाले लोग कांग्रेस छोड़कर किसी दूसरी पार्टी में शामिल हो जाएं। लेकिन क्या उन्हें इस बात का भान नहीं है कि उनके आगे पीछे घुमने वाले कैसे लोग हैं। प्रदेश के दौरे पर कई बार केन्द्रिय मंत्री और पदाधिकारी आते हैं लेकिन उनके पीछे तो इतनी भीड़ कभी नहीं देखी जाती है। इसे चमचागिरी नहीं तो क्या कहेंगे। सवाल अब भी यही खड़ा है कि राहुल गांधी की इन यात्राओं से देश का क्या भला हो रहा है? एक साधारण से संसद सदस्य और कांग्रेस के महासचिव के दौरों पर भारत और सूबों की सरकार सरकारी खजाने से पानी की तरह पैसा क्यों बहाती है?
अब जरा कांग्रेस के बाबा के दलित प्रेम की बात करें। गांधी के पूर्वजों में देश को नेतृत्व देने के दो मॉडल हैं। एक जवाहर लाल नेहरू का मॉडल है और दूसरा इंदिरा गांधी का। राहुल गांधी ज्यादा पीछे जाने की मशक्कत न करते हुए अपनी दादी की विरासत में खुद को ढालने की कोशिश करते ज्यादा दिख रहे हैं। इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया, और 1971 के आम चुनाव में कांग्रेस के सिंडिकेट (दिग्गज नेताओं के गुट) को परास्त करते हुए एक जनप्रिय छवि की नेता के रूप में उभरीं। इसके पहले बैंक राष्ट्रीयकरण और प्रीवी पर्स खत्म करने के मुद्दे उछाल कर उन्होंने दिल्ली में खुद के आम जन की सिपाही होने का संदेश दिया था।
पिछले कुछ दिनों के अंदर पहले उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ और फिर ओडीशा के लांजीगढ़ में राहुल गांधी के भाषणों का भी यही सार-संक्षेप है। लांजीगढ़ में राहुल गांधी एक कदम और आगे गए। उन्होंने ध्यान दिलाया कि आदिवासी पहाड़ को देवता मानते हैं और उन्हें अपने देवता- अपने जंगल और जमीन की रक्षा की लड़ाई में सफल होने पर बधाई दी। फिर कहा कि आदिवासियों की ऐसी हर लड़ाई में वे दिल्ली में उनके सिपाही हैं और इसकी अभी सिर्फ शुरुआत हुई है।
दलित आदिवासियों के बीच रात बिताकर मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाले कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के अचानक दलित बस्तियों में जाने की बात कितनी औचक होती है, इस बात से आम आदमी अब तक अनजान ही है। राहुल बाबा का सुरक्षा घेरा स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) का होता है, जिसमें परिंदा भी पर नहीं मार सकता है, फिर अचानक किसी अनजान जगह पर कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी का रात बिताना आसानी से गले नहीं उतरता है। वास्तविकता तो यह है कि राहुल गांधी के प्रस्तावित दौरों के स्थानों की खाक खुफिया एजेंसियों द्वारा लंबे समय पहले ही छान ली जाती है, जजमान को भी पता नहीं होता है कि उसके घर भगवान (युवराज) पधारने वाले हैं।
राहुल गांधी की इन औचक यात्राओं के बारे में हकीकत कुछ और बयां करती है। दरअसल, राहुल गांधी के इस तरह के औचक कार्यक्रम स्थानीय लोगों, प्रशासन, कांग्रेस पार्टी और मीडिया के लिए कोतूहल एवं आश्चर्य का विषय होते हैं, लेकिन सुरक्षा एजेंसियां इससे कतई अनजान नहीं होती हैं। सुरक्षा एजेंसियों के सूत्रों का कहना है कि इस तरह के औचक कार्यक्रमों में सुरक्षा एजेंसियों की लंबी कवायद के बाद ही इन्हें हरी झंडी दी जाती है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब भी जहां भी जाते हैं वहां जाने की योजना महीनों पहले ही बना दी जाती है।
राहुल गांधी के करीबी सूत्रों का कहना है कि राहुल गांधी के इस तरह के दौरों की तैयारी एक से दो माह पहले ही आरंभ हो जाती है। सर्वप्रथम राहुल गांधी की कोर टीम यह तय करती है कि राहुल गांधी कहां जाएंगे। उस क्षेत्र की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक स्थिति के बारे में विस्तार से जानकारी जुटाई जाती है। इसके बाद राहुल गांधी के बतौर सांसद सरकारी आवास 12, तुगलक लेन में उनकी निजी टीम इसे अंतिम तौर पर अंजाम देने का काम करती है। यहां बैठे राहुल के सहयोगी कनिष्क सिंह, पंकज शंकर, सचिन राव आदि इन सारी जानकारियों को एक सूत्र में पिरोकर एसपीजी के अधिकारियों से इस बारे में विचार विमर्श करते हैं। इन सारी तैयारियों और सूचनाओं को केंद्रीय जांच एजेंसी 'इंटेलीजेंस ब्यूरो' द्वारा खुद अपने स्तर पर अपने सूत्रों के माध्यम से जांचा जाता है। आई बी की हरी झंडी के उपरांत ही राहुल गांधी के दौरे की तारीख तय की जाती है। राहुल गांधी के कार्यालय, एसपीजी और आईबी के अधिकारियों के बीच की कवायद को इतना गुप्त रखा जाता है कि मीडिया तक उसे पता नहीं कर पाती।

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