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भेड़ाघाट

Thursday, December 9, 2010

गांधी के नाम पर मेट्रोपॉलिटन कांग्रेस



कॉग्रेस की स्थापना देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के उद्देश्य से हुई थी,लेकिन आजादी मिलते ही इसके नेताओं का सत्ता का ऐसा चस्का लगा की पार्टी अपने मूल से भटक गई और आज इस स्थिति में पहुंच गई है कि देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी केवल एक परिवार की पार्टी बन कर रह गई है। मोहनदास करमचंद गांधी के नाम को आगे कर गठित की गई इस पार्टी ने सियासत के दांवपेच, सत्ता के औजार, उसकी खूबियां और खामियां आजाद हिंदुस्तान को दी हैं जिससे कॉगे्रस मेट्रोपॉलिटन पार्टी बनकर रह गई है। इस मायने में सभी पार्टियां कांग्रेस की ऋणी हैं। अपने चरित्र में पूरी सियासत आज भी अंदर से कांग्रेसी है। इसीलिए उन्हें कांग्रेस का शुक्रगुजार होना चाहिए।
इस साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 125 साल हो रहे हैं। सवा सौ साल की इस पार्टी से आज आपको क्या उम्मीदें हैं। शायद कोई नहीं। ज्यादा से ज्यादा आप ये तमन्ना करेंगे कि सत्तालोलुपों और चाटुकारों का ये संगठन जल्द से जल्द सियासत के रंगमंच से विदा हो जाए। और सवा सौ साल की कांग्रेस को खुद से क्या उम्मीदें हैं। यही कि वो उस खोई हुई विरासत को वापस पा ले, जिसके अब कई दावेदार हैं। उस गांधी नाम का करिश्मा फिर हासिल कर सके, जिसमें अब गांधीवादी भी भरोसा नहीं रखते। उस परिवार को फिर प्रतिष्ठित कर पाए, जिसकी नींव नेहरू ने रखी थी और जिसमें आज खुद कांग्रेसियों को भरोसा नहीं। सवा सौ साल की कांग्रेस आज अखिल भारतीय सत्ता के उपभोग का स्वप्न देख रही है, पर वो नहीं जानती कि 21वीं सदी के हिंदुस्तान में 1947 का करिश्मा लौटना आसान नहीं रह गया है।
कांग्रेस का चरित्र शुरू से ही मेट्रोपॉलिटन रहा। उसका सरोकार शहरी मध्यवर्ग था क्योंकि खुद कांग्रेस के पितामह नेहरू विदेशों में पले-बढ़े। हिंदुस्तान की मिट्टी से उनका कोई नाता न था। आजादी के बाद नेहरू का परिचय जिस हिंदुस्तान से हुआ, उसके लिए उनके पास शासन का कोई मॉडल नहीं था। मोहनदास करमचंद गांधी के सत्ताविकेंद्रित और खुदमुख्तारी के मॉडल पर वह देश को ले जाना नहीं चाहते थे। मगर गुलाम देश में गांधी कांग्रेस के लिए मजबूरी थे क्योंकि उनकी पकड़ हिंदुस्तान के ग्रामीण और शहरी समाज दोनों पर थी। लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस आजादी की तरफ बढ़ी, गांधी उसके लिए असंगत होते गए। क्योंकि वो कांग्रेस में पैदा हो रही सत्ताकेंद्रित सोच का समर्थन नहीं करते थे। फलत: आजादी से ऐन पहले पार्टी ने अपने नायक को बिसरा दिया।
गांधी ने 1947 में कहा था कि कांग्रेस का काम पूरा हो चुका है, उसे भंग कर देना चाहिए। इसकी जगह लोकसेवक संघ बनना चाहिए। मगर नेहरू समेत दूसरे कांग्रेसियों को लगा कि गांधीजी सठिया गए हैं। जिस पार्टी ने उन्हें गुलामी के समंदर में नैया बनकर आजादी के तट पर उतारा, उसी को त्याग दें। उधर, गांधी की हत्या हुई और इधर, कांग्रेस गांधी के नाम पर कुंडली मारकर बैठ गई, ताकि उससे संजीवनी हासिल कर सके। पार्टी अब सत्ता सुख भोगना चाहती थी।
गांधी नाम में बड़ा जादू था और कांग्रेस इसे नहीं बिसराना चाहती थी। इसलिए आजाद भारत में कांग्रेस ने गांधी को मंत्र बना लिया। हिंदुस्तानी कांग्रेस को गांधी की पार्टी की बतौर देखते थे। हालांकि ये बात अलग है कि गांधी कांग्रेस पार्टी की सदस्यता से 1934 में ही इस्तीफा दे चुके थे। इसी गांधी नाम के साथ राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता का हवाला देकर कांग्रेस सफाई के साथ क्षेत्रीय आवाजें दबाने में कामयाब रही। इसलिए दशकों तक क्षेत्रीय सियासी पार्टियों का वजूद सिमटा रहा या न के बराबर रहा। कांग्रेस बहुमत एन्ज्वाय करती रही। सो, क्षेत्रीय दल काफी वक्त बाद नई दिल्ली के सियासी गलियारों में पहुंच सके। कांग्रेस की इसी चाल की वजह से क्षेत्रीय राजनीति जब केंद्र और राज्यों में पहुंची तो अपने वीभत्स रूप में, क्योंकि पहले उसका प्रतिनिधित्व नकार दिया गया था। इसीलिए आज क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता से बदला चुका रही है, वो भी सिर्फ कांग्रेस की वजह से।
कांग्रेस नामक सत्तालोलुपों के गिरोह ने गांधी नाम का जमकर इस्तेमाल किया। बेशक ओरिजिनल गांधी से इस कांग्रेस का कोई ताल्लुक नहीं, लेकिन सिर्फ नाम का जादू देश को 40 साल तक घसीटता रहा। एक परिवार गांधी का नाम लेकर आगे खड़ा था और उसके पीछे थी पूरी पार्टी। इस परिवार की नींव में थे जवाहरलाल नेहरू जो उसी बरतानिया में पढ़े थे, जिसने देश को गुलाम बना रखा था। फिरंगियों से आजादी की सौदेबाजी में वो आगे रहे थे। इसीलिए जनता उन्हें आजादी के नायक के बतौर देखती आई थी।
अगर कांग्रेस का मकसद सिर्फ जनसेवा होता, तो शायद उसे और 63 साल की जिंदगी हासिल न होती। विभिन्नताओं से भरे इस देश की जनता का ध्रुवीकरण कर उसे आजादी के रास्ते पर लाने वाले गांधी की सोच साफ थी। उनकी दृष्टि साफ थी कि अगर कांग्रेस बची, तो सत्ता उसे गंदे तालाब में बदल देगी। इसीलिए उन्होंने इसका रिप्लेसमेंट सोच लिया था।
कांग्रेस का लक्ष्य तो 1907 में ही तय हो गया था, जब वो नरम और गरम दल में टूटी थी। 1947 में वह वयोवृद्ध थी। इसलिए आज जिसे हम कांग्रेस के नाम से जानते हैं, वो सवा सौ साल का ऐसा संगठन है, जिसकी आत्मा निकल चुकी है और जिसे उसके कर्णधार आज तक ढो रहे हैं। यह वही कांग्रेस नहीं, जिसे एओ ह्यूम ने 1885 में इसलिए जन्म दिया था ताकि वह हिंदुस्तानियों के बीच प्रैशर कुकर का काम करे। उनके अंदर पनपने वाले गुस्से को बाहर निकलने का रास्ता दे। गोखले, तिलक और जिन्ना जैसे नेताओं ने इसका इस्तेमाल ब्रिटिशविरोधी भावनाओं के लिए किया था, जिसमें गांधी और बाद में नेहरू जैसे नेताओं ने अपनी आहुतियां डालीं।
आखिर यह वही पार्टी थी जिसने दो देशों की आजादी में अपनी भूमिका निभाई। अगर आप मौलाना अबुल कलाम आजाद की किताब इंडिया विंस फ्रीडम का हवाला लें, तो पता चलेगा कि आजादी के सेनानी इतने थके, अधीर और मायूस हो चुके थे कि अब वो इसका तुरंत प्रतिफल चाहते थे। उन्हें जल्द से जल्द सत्ता पर काबिज होने के सिवा कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। चाहे जिस कीमत पर मिले उन्हें फिरंगियों से मुक्ति पानी थी और फिरंगी हुकूमत भी इस बात को समझती थी। सत्ता की बागडोर ज्यादा वक्त तक थामे रखना उसके लिए भारी हो चुका था। इसलिए जब फिरंगी हुकूमत ने अपनी न्यायप्रियता का सबूत दो देशों को बांटकर दिया, तो अधीर कांग्रेसियों ने उसे भी मंजूर कर लिया, 35 करोड़ की आबादी के प्रतिनिधि के बतौर (ये विवाद का विषय है कि क्या कांग्रेस ही आजादी पाने की अकेली उत्तराधिकारी थी?)।
कांग्रेसी मानते थे कि वही सत्ता के असल वारिस हैं। भरमाई जनता ने उस कांग्रेस को जनादेश दिया, जिसने आजादी की लड़ाई में भागीदारी की थी। उसे नहीं, जिसने देश का बंटवारा मंजूर कर लिया था। कोई विकल्प या रास्ता भी नहीं था। पार्टी के कर्णधार अच्छी तरह जानते थे कि वो इस विरासत को अगले कई सालों तक भुनाने में कामयाब रहेंगे और यही हुआ भी।
नेहरू के बाद आननफानन में उनकी बेटी इंदिरा को नायकत्व सौंप दिया गया, क्योंकि नेहरू के बाद वही परिवार की सर्वेसर्वा थीं। उनके पिता ने अपने रहते उन्हें कुछ हद तक सियासत में दीक्षित किया था, लेकिन इंदिरा का भी सीधे जनता से कोई सरोकार नहीं था। उनके कार्यकाल को देखें तो लगता है कि मानो वो शासन के लिए ही पैदा हुई थीं। वही उन्होंने किया भी, इसीलिए 20वीं सदी की 100 सबसे ताकतवर नेताओं में उन्हें भी गिना जाता है। पिता के नाम और निरंकुशता की वजह से पूरी कांग्रेस उनके आगे पलक-पांवड़े बिछाए रही। मगर यही वो वक्त था, जब कांग्रेस की विरासत पर सवाल खड़े होने लगे थे। विकल्पों की मांग उठ रही थी, प्रयोग हो रहे थे, मगर तजुर्बा और रास्ता अब भी किसी के पास नहीं था। कांग्रेस यूं देश पर परिवार के शासन का हक छोडऩे को तैयार न थी और सत्ता छीनने की ताकत किसी में थी नहीं।
इंदिरा के बाद उनके दोनों बेटे गांधी के नाम और इस परिवार के करिश्मे को ज्यादा वक्त तक जिंदा नहीं रख सके। इसकी दो वजहें थीं। न तो वो अपने पूर्वजों की तरह उतने करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी थे और न वो क्षेत्रीयता का उभार रोकने में कामयाब थे। गांधी को गांधीवाद में बदलकर कोने में खिसका दिया गया। अपनी मां की मौत से मिली सहानुभूति लहर पर सवार होकर राजीव सत्ता में आए, मगर उन्हीं की पार्टी में परिवारविरोधी स्वर उठने लगे थे।
कांग्रेस का तिलिस्म बिखर गया था और नई दिल्ली की कुर्सी पर एक के बाद एक गैरकांग्रेसियों की ताजपोशी होने लगी। देश को पहली बार ये अहसास हुआ कि असल में उनके साथ धोखा हुआ था। एक परिवार और पार्टी को माई-बाप मानकर उसने भारी गलती की थी। सियासत की गंदगी गांधी नाम के कालीन के नीचे से बाहर निकल आई थी।
दुर्भाग्य इस परिवार को जकड़ चुका था। पहले नेहरू की बेटी, फिर नेहरू के दोनों पोते, नफरत और साजिशों के शिकार बन गए। पार्टी मातम में थी क्योंकि सत्ता के केंद्रों का विघटन हो चुका था। कोई सैकेंड लाइन नहीं थी। परिवार ने इसकी गुंजाइशें ही खत्म कर दी थीं (हालात आज भी वही हैं)। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की यह भी एक दिलचस्प हकीकत है कि ज्यों राजशाही में मुखिया के बाद उसके परिवार के सबसे बड़े सदस्य को सत्ता सौंपी जाती है, उसी तरह कांग्रेस में सत्ता का हस्तांतरण होता रहा। आखिर इंदिरा की बहू को राजसत्ता मिली, जिनका इस देश की भाषा और हिंदुस्तानी जनजीवन से कोई ताल्लुक नहीं रहा था। चूंकि पार्टी 1947 से लेकर आज तक राजवंशी ढांचे पर चली थी, इसलिए इस च्राजवंशज् से बाहर किसी व्यक्ति पर भी पार्टी को भरोसा नहीं रहा। पार्टी को यहां तक भ्रम हो चुका है कि इस देश में जो कुछ अच्छा है, इस परिवार की बदौलत ही है। इसलिए परिवार और पार्टी एक दूसरे में इतना घुलमिल गए कि कांग्रेस का मतलब ही है गांधी परिवार (इसमें गांधी कितना फीसद है, ये आप जान ही गए होंगे)।
आज कांग्रेस सवा सौ साल की है। आजादी के बाद 63 साल और। तो कांग्रेस की विरासत क्या है? कैसे पहचानेंगे इसे आप? आजादी के बाद इस पार्टी ने देश को क्या दिया है? असल में, इस पार्टी ने देश को वो दिया है, जिसे शायद ही कोई नकार सके। मसलन.. एक नाम, नेता जैसा जैनरिक और घृणित शब्द, सत्तालोलुपों का एक गिरोह, खुशामदपसंदों से घिरा एक परिवार, दो-तीन अदद पवित्र नाम (जिनमें से एक अब माता इंडिया कही जाती हैं) और इन नामों पर खड़ी इमारतें-सड़क-चौराहे, मु_ी में सत्ता दबोचकर रखने की हामी सोच, कुलीन-शहरी और अमीरी से भरपूर सियासत, जुर्म को पनाह देने वाला सियासी काडर, घोटालों से खोखला प्रशासन और इसे छिपाने के लिए नेहरू टोपी, खादी की जैकेट और सफेद कुर्ता-पाजामा।

दागदार हो रहा समाजवाद

समाजवाद एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द सोशलिज्म का हिंदी रूपांतर है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे। लेकिन आज के दौर में समाजवाद के पहरूओं की कार्यप्रणाली देखकर ऐसा लगता है जैसे व्यक्तिवाद के बिना समाजवाद की कल्पना ही बेमानी है।
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव समाजवाद के नाम पर राजनीति कर रहे हैं लेकिन उन्होंने और उनके समर्थकों के समाजवाद की एक ऐसी परिभाषा गढ़ दी है कि स्वर्ग में बैठे उनके गुरू
राम मनोहर लोहिया भी आहें भर रहे होंगे। समाजवाद के नाम पर मुलायम ने अपनी महत्वकांक्षाएं पूरी करने के लिए वह सब कुछ किया जिसकी कभी लोहिया ने कल्पना भी नहीं की होगी। आज वही सब मुलायम के लिए परेशानी का सबस बन गया है। समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने आप को स्थापित करके रखना मुश्किल-सा नजर आ रहा है। जो चेहरे कभी समाजवादी पार्टी की पहचान हुआ करते थे, पिछले कुछ समय में एक-एक कर सपा से दूर हो गए. इनमें अमर सिंह भी शामिल हैं जो खुद इनमें से कई की विदाई का सबब बने और अंतत: खुद भी विदा हुए. जमे-जमाए नेताओं के जाने से सपा के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती रही हैं.
'कभी न जिसने झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम थाÓ, दो-ढाई वर्ष पहले जब समाजवादी पार्टी के मुख्यालय के गेट के बाहर यह नारा लगा रहे नौजवानों के एक झुंड को कुछ लोगों ने रोकने की कोशिश की और सही नारा - 'कभी न जिसने झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम हैÓ, लगाने को कहा तो नाराज नौजवानों ने जवाब दिया, 'नहीं हम तो यही नारा लगाएंगे. या फिर नेता जी अमर सिंह के आगे अकारण झुकना बंद करें.Ó हालांकि यह घटना बहुत छोटी-सी थी, मगर इससे समाजवादी पार्टी के भीतर अमर सिंह की भूमिका और अमर सिंह के कारण समाजवादी आंदोलन को हो रहे नुकसान का अंदाजा लगाया जा सकता था. हालांकि तब तक कार्यकर्ताओं को तो इस बात का एहसास हो गया था कि अमर सिंह के क्या मायने हैं और उनका नफा-नुकसान क्या हैं, लेकिन जमीनी राजनीति के धुरंधर मुलायम सिंह यादव पर अमर सिंह का जादू कुछ इस तरह चढ़ा हुआ था कि वे सब कुछ जानते हुए भी इस हकीकत से अनजान बन रहे थे कि 'अमर प्रभावÓ का घुन समाजवादी आंदोलन को लगातार खोखला करता जा रहा है.
समाजवादी पार्टी को खोखला करने में 'अमर प्रभावÓ ने दो तरह से काम किया. एक ओर इसने समाजवादी पार्टी को अभिजात्य चेहरा ओढ़ाकर अपना चरित्र बदलने के लिए उकसाया तो दूसरी ओर पार्टी में जमीन से जुड़े नेताओं और जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा शुरू हो गई. मुलायम के केंद्रीय रक्षा मंत्री रहते हुए जब 1997 में लखनऊ में समाजवादी पार्टी कार्यकारिणी की बैठक एक पांच सितारा होटल में आयोजित की गई तो आलोचना करने वालों में मुलायम के राजनीतिक विरोधियों के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के आम नेता और कार्यकर्ता भी थे. मुलायम सिंह के खांटी समाजवाद का यह एक विरोधाभासी चेहरा था. लेकिन इसके बाद तो यही सिलसिला शुरू हो गया. पार्टी समाजवादी सिद्धांतों और जमीनी राजनीति को एक-एक कर ताक पर रखते हुए 'कॉरपोरेट कल्चरÓ के शिकंजे में फंसती चली गई. नेतृत्व में एक ऐसा मध्यक्रम उभरने लगा जिसे न समाजवादी दर्शन की परवाह थी और न समाजवादी आचरण की चिंता.
समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी हैसियत बचाए रखना इतना मुश्किल कभी नहीं रहा. सिकुड़ती राजनीतिक ताकत, लगातार साथ छोड़ते पुराने साथी, कुछ अपनी उम्र पूरी कर चुकने की वजह से तो कुछ पार्टी में अपनी उपेक्षा के कारण. एक ओर विधानसभा में मायावती का प्रचंड बहुमत और दूसरी ओर लोकसभा चुनाव परिणामों में कांग्रेसी उलटफेर के चलते राज्य में तीसरे स्थान पर सिमटने का खतरा, एक ओर पिछड़ी जातियों पर कमजोर पड़ती पकड़ और दूसरी ओर मुसलिम वोट बैंक पर नजर गड़ाए प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल, बसपाई चालों के चलते सहकारी संस्थाओं और ग्रामीण लोकतांत्रिक व्यवस्था पर से नियंत्रण खोते जाने का एहसास और छात्रसंघों की राजनीति पर मायावती का अंकुश, केंद्र में महत्वहीन स्थिति और इन सबसे ऊपर, पार्टी पर मुलायम के घर की पार्टी बन जाने की अपमानजनक तोहमत. ऐसी न जाने कितनी वजहें एक साथ समाजवादी पार्टी के हिस्से आई हैं कि कुछ समय पहले तक तो यह भी समझा जाने लगा था कि समाजवादी पार्टी अब उत्तर प्रदेश में तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी बन गई है. कुछ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने तो इसे गुजरे जमाने की कहकर इतिहास की किताबों में दर्ज रहने के लिए छोड़ देने की बातें तक कह डाली थीं. राजनीति के बारे में यह कहा जाता है कि यहां कुछ भी स्थायी नहीं होता. उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी इन दिनों यह एक बड़ा सवाल है कि क्या सपा अपने दामन के धब्बों को कभी धो पाएगी और क्या उसका ग्रहण काल अब खत्म होने जा रहा है.

उत्तर प्रदेश में नवंबर की शुरुआत के साथ ही जाड़ों के सर्द मौसम की शुरुआत हो जाती है, लेकिन समाजवादी पार्टी के लिए इस बार का नवंबर सर्दियों में गरमी का सा एहसास लाने वाला साबित हो रहा है. इस महीने में हुई तीन बड़ी घटनाओं ने 'एक थी समाजवादी पार्टीÓ में कुछ नई ऊर्जा का संचार किया है. इनमें पहली घटना मोहम्मद आजम खान की घर वापसी की है तो दूसरी उत्तर प्रदेश विधानसभा के दो उपचुनावों के नतीजे. तीसरी घटना बिहार के चुनाव परिणाम के रूप में है. इन तीनों घटनाओं ने सपा में नई जान फूंकने का काम किया है. कम से कम पार्टी से जुड़े लोगों का तो यही मानना है.
मुलायम के पुराने साथी बेनी प्रसाद वर्मा जो कभी समाजवादी पार्टी में मुलायम के बाद सबसे महत्वपूर्ण नेता माने जाते थे, उन्हें तक साइड लाइन करने की कोशिशें इसी दौरान शुरू हो गई थीं. उन दिनों लखनऊ में समाजवादी पार्टी के मुख्यालय में सपा के एक विधायक सीएन सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा पर आए दिन पार्टी हितों और पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने का आरोप लगाते हुए टेलीविजन कैमरों के सामने खड़े दिखाई देते थे. तब भी हर कोई यह जानता और मानता था कि इस सबके पीछे सीधे अमर सिंह का हाथ है. समाजवादी लोगों को तब इस सबसे काफी पीड़ा होती थी लेकिन समाजवादी आंदोलन को कमजोर करने वाली इस रस्साकशी पर मुलायम हमेशा खामोश ही रहे. हालांकि आज न सीएन सिंह समाजवादी पार्टी में हैं, न अमर सिंह और न ही बेनी प्रसाद वर्मा, मगर इन तीनों के रहने और तीनों के न रहने के बीच समाजवादी पार्टी ने काफी कुछ खो दिया है. जो ज्यादा चालाक थे, मौका परस्त थे, उन्होंने तो मौके का फायदा उठाते हुए अपने लिए उत्तर प्रदेश में मुलायम की सरकार के अंतिम दौर में ही सुरक्षित नावें ढूढ़ ली थीं. मगर बहुतों को बिना तैयारी असमय पार्टी से किनारा करना पड़ा. 'अमर प्रभावÓ से प्रताडि़त, पीडि़त और उपेक्षित-अपमानित होकर सपा से विदाई लेने वालों में राजबब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा और मोहम्मद आजम खान सबसे प्रुमख रहे. गौरतलब है कि ये तीनों ही अलग-अलग कारणों से सपा के लिए महत्वपूर्ण थे. राज बब्बर जहां पार्टी के पहले सिने प्रचारक थे, भीड़ जुटाऊ चेहरे थे, वहीं बेनी जमीनी जोड़-तोड़ के माहिर और उत्तर प्रदेश के एक खास इलाके में कुर्मी वोटरों के जातीय नेता. आजम की तो राजनीतिक पैदाइश ही अयोध्या विवाद से हुई थी और इस लिहाज से वे अल्पसंख्यकों की हिमायती पार्टी के सर्वाधिक प्रभावशाली फायर ब्रांड नेता थे. इन तीनों की रुख्सती समाजवादी पार्टी के लिए जोर का झटका रही जिसका असर भी जोर से ही हुआ.
समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ विधायक मानते हैं, राजनीति में विचारधारा के आधार पर साथ छूटना एक अलग बात होती है. ऐसा तो होता ही रहता है, लेकिन समाजवादी पार्टी में तो कई बड़े नेताओं को जबरन बेइज्जत करके बाहर किया गया. इसका सीधा-सीधा असर कार्यकर्ताओं के मनोबल पर पड़ा. सितंबर, 2003 में जब मुलायम ने उत्तर प्रदेश विधान सभा में बहुमत साबित किया था तो समाजवादी पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर थे. लेकिन साढ़े तीन साल की अपनी लंबी पारी में मुलायम पार्टी के हौसले के इस ग्राफ को ऊपर नहीं ले जा सके. वह नीचे ही गिरता गया और इसकी सबसे बड़ी वजह थी अमर सिंह का प्रभाव. इसके साथ ही इन साढ़े तीन वर्षों में जिस तरह का प्रशासन मुलायम सिंह ने चलाया उसने रही-सही कसर पूरी कर दी.
इस दौर में ऐसी भी स्थितियां हो गई थीं कि समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले, मुलायम के भाई रामगोपाल यादव तक राजनीतिक एकांतवास में चले गए थे. पार्टी के वैचारिक तुर्क जनेश्वर मिश्र और मोहन सिंह हाशिए पर थे और लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे गैरराजनीतिक समाजवादी चिंतक दूर से तमाशा देखकर अरण्य रोदन करने पर मजबूर हो चुके थे. समाजवादी पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता यह महसूस करते हैं कि उस दौर का खामियाजा पार्टी आज तक भुगत रही है. जिस सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर मायावती ने उत्तर प्रदेश फतेह कर लिया उसकी जड़ें मजबूत करने में सपा का दबंग राज, कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की बेलगाम गुंडागर्दी और सरकार का जनसमस्याओं से हटता ध्यान जैसे कारक तो जिम्मेदार थे ही 'अमर प्रभावÓ भी काफी हद तक जिम्मेदार था. अमर सिंह के खास सौंदर्यबोध की चकाचौंध ने धरतीपुत्र को ऐसा मंत्र मुग्ध कर दिया कि वे जमीनी हकीकत से रूबरू हो ही नहीं सके. जिस मुलायम के जनता दरबार एक दौर में खचाखच भरे रहते थे उन्हीं मुलायम से मिल पाना आम आदमी या आम कार्यकर्ता तो दूर विधायकों अथवा अन्य नेताओं के लिए भी मुश्किल हो गया. अमर सिंह हमेशा छाया की तरह मुलायम के साथ होते, उनके एक-एक कदम की नाप जोख कर अमर के चश्मे से होती. सैफई को बॉलीवुड बना देने की चाहत, जया प्रदा के लिए जिद, कल्याण सिंह से एक बार अलगाव के बाद दूसरी बार उनके घर जाकर उन्हें दोस्त बनाने का नाटक, अनिल अंबानी की दोस्ती और दादरी पावर प्लांट जैसे जो तमाम काम मुलायम ने किए उनका पछतावा मुलायम को अब हो रहा होगा और कल्याण से दोस्ती के मामले में तो मुलायम गलती को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करके माफी भी मांग चुके हैं. हालांकि अमर सिंह अब सपा के लिए 'गुजरा जमानाÓ हो चुके हैं, लेकिन इस गुजरे जमाने ने समाजवादी पार्टी के प्रभा मंडल की ओजोन परत में इतना बड़ा छिद्र कर डाला है कि मायावती सरकार के तीन साल के जनविरोधी शासन के बावजूद उससे होने वाला विकिरण पूरी तरह रुक नहीं सका है.
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक वाजपेयी कहते हैं, हमें अब उज्वल संभावनाएं दिख रही हैं. मौजूदा बीएसपी सरकार से जनता में जबर्दस्त असंतोष है. लेकिन यह सरकार इतनी बर्बर है कि जनता अपने असंतोष को अभिव्यक्त नहीं कर पा रही है. सपा ही इस असंतोष को स्वर दे सकती है. उत्तर प्रदेश का संघर्ष अब मायावती सरकार के अंधेर और समाजवादी पार्टी के सिद्धांतों के बीच ही होगा.
इन उज्वल सम्भावनाओं की तह में नवंबर की वही तीन घटनाएं हैं जिन्होने समाजवादी पार्टी को नई उम्मीद दी है. आजम खान की वापसी समाजवादी पार्टी की अपने बिखरे कुनबे को फिर से बटोरने की कोशिश तो है ही, इसने अल्पसंख्यकों के बीच अपनी विश्वसनीयता बहाल करने की उम्मीद भी पार्टी के भीतर जगा दी है. हालांकि कुछ विश्लेषक इसे एक सामान्य घटना ही मान रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि आजम खान अयोध्या मुद्दे की उपज हैं. जब तक वह मुद्दा जिंदा था आजम की आवाज में दम था. अब जब हाईकोर्ट के फैसले ने अयोध्या मुद्दे की ही हवा निकाल दी है तो यह उम्मीद कैसे की जाए कि उस मुद्दे को लेकर चर्चा में रहने वाले आजम मुसलमानों के बीच कोई बड़ा गुल खिला पाएंगे? उत्तर प्रदेश में मुसलिम समुदाय की बात की जाए तो मोटे तौर पर यह माना जाता है कि किन्हीं खास लहरों को छोड़कर सामान्य चुनावों में उनका वोट 1967 में चौधरी चरण सिंह के बीकेडी बनाने के बाद से ही कांग्रेस से अलग होने लगा था. 4 नवंबर, 1992 को जब मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी बनाकर अपनी अलग राजनीति शुरू की तो बाबरी मस्जिद पर उनके रुख की वजह से यह मुसलिम वोट एक तरह से उन्हें मिल गया. पिछले विधानसभा चुनाव तक मुसलिम मतदाता के पास समाजवादी पार्टी के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था, लेकिन लोकसभा चुनाव में सपा की कल्याण से जुगलबंदी के चलते कांग्रेस के रूप में उसे एक विकल्प मिल गया. अब अगर मायावती भी मुसलिम आरक्षण जैसा कोई ब्रह्मास्त्र छोड़ती हैं तो उसकी चुनौती भी सपा के सम्मुख खड़ी हो सकती है. फिर भी इतना तो माना जा सकता है कि आजम खान की घर वापसी के बाद समाजवादी पार्टी के पास एक तीखा और प्रभावशाली वक्ता और बढ़ जाएगा जो अल्पसंख्यक मामलों में खुलकर और प्रभावशाली तरीके से उसका पक्ष रख सकेगा. लेकिन कल्याण सिंह से दोस्ती की कड़वी हकीकत अब भी पार्टी के दामन पर चस्पा है. हालांकि सांप्रदायिक समझे जाने वाले पवन पांडे और साक्षी महाराज जैसों को भी मुलायम अपने साथ ला चुके हैं, लेकिन कल्याण से उनकी दोस्ती मुसलिम मानस पचा नहीं पाया है. मुलायम के इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से माफी मांग लेने के बाद भी उनके प्रति पैदा हुआ संदेह खत्म नहीं हुआ है. आजम खान इस संदेह को पूरी तरह खत्म कर पाएंगे इसमें शक है. फिर भी आजम की घर वापसी समाजवादी पार्टी के लिए एक उम्मीद की वापसी तो है ही.
उपचुनावों के नतीजे भी निश्चित तौर पर समाजवादी पार्टी के लिए उत्साहवर्धक हैं. बीएसपी के इन उपचुनावों में वाकओवर दे देने के कारण इन उपचुनावों में मुख्यत: कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को एक-दूसरे की तुलना में अपनी हैसियत आंकने का अवसर मिला था और समाजवादी पार्टी ने इसमें अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी है. वैसे तो एटा जिले की निधौली कलां और लखीमपुर दोनों की ही सीट समाजवादी पार्टी के विधायकों के निधन से खाली हुई थीं और सहानुभूति लहर का लाभ भी उसे मिलना तय था लेकिन कांग्रेस की इन दोनों ही सीटों पर जिस तरह की दुर्गति हुई उसने समाजवादी पार्टी का सीना चौड़ा कर दिया है. खास तौर पर लखीमपुर सीट पर कांग्रेस सांसद के पुत्र सैफ अली की जमानत भी न बच पाने से समाजवादी पार्टी के लिए यह मानना आसान हो गया है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान पैदा हुआ कांग्रेसी खुमार अब उतार पर है.
बिहार चुनाव के नतीजों ने समाजवादी पार्टी की इस धारणा को और भी पुख्ता कर दिया है. जिस तरह से वहां सोनिया और राहुल का जादू बेअसर होने की बात कही जा रही है उसने समाजवादी पार्टी को बेहद उत्साहित कर दिया है. खासकर बिहार में मुसलिम मतदाताओं की कांग्रेस से दूरी ने सपा को जबर्दस्त राहत दी है. जिस तरह बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष महबूब अली स्वयं सुरक्षित समझी जाने वाली सिमरी बख्तियारपुर सीट से हार गए, वह भी समाजवादी पार्टी को मुसलिम मतों के अपने पक्ष में बने रहने की आश्वस्ति दे रहा है. इससे सपा को अब फिर से यह लगने लगा है कि उत्तर प्रदेश में वही सत्ता की प्रमुख दावेदार है. समाजवादी पार्टी के एक पुराने नेता यह स्वीकार करते हैं कि पार्टी के अंदर अमर सिंह के दिनों की संस्कृति अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है. वे जिस तरह मुलायम सिंह से अपनी हर बात मनवा लेते थे उसका खामियाजा अब तक सभी को भुगतना पड़ रहा है. लेकिन अब अच्छे दिन वापस हो रहे हैं और सबसे अच्छी बात यह है कि अब मुलायम फिर से खुद सारे निर्णय करने लगे हैं.इस बदलाव की एक झलक पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव के उस पत्र से भी मिलती है जो उन्होंने 30 अक्टूबर को प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव को लिखा है. इस पत्र में कहा गया है कि पार्टी के किसी भी नेता को अगर कोई होर्डिंग लगानी है तो केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष का ही चित्र उस पर होना चाहिए. मुलायम की सरकार के दिनों में हर चौराहे पर मुलायम की तस्वीरों के साथ छुटभय्ये नेताओं की तस्वीरें लगे होर्डिंग दिखाई देते थे और नेता जी के साथ अपनी इस 'निकटताÓ का फायदा उठाने में ये नेता कोई कसर नहीं छोड़ते थे. ऐसे लोगों के कारण पार्टी को तब बहुत बदनामी मिली थी. अब मुलायम ने इसे एकदम बंद करने को कहा है. मतलब साफ है कि वे पार्टी को अब फिर से कड़े अनुशासन में रखना चाहते हैं. समाजवादी पार्टी के लिए हौसला बढ़ाने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि मुलायम सिंह यादव अब फिर से सक्रिय प्रतीत होने लगे हैं.
हालांकि मुलायम पहले कई बार यह साबित कर चुके हैं कि वे एक जबर्दस्त फाइटर हैं. अगर ऐसा न होता तो वे 1989 में 'हिंदुओं का हत्याराÓ, 'राम विरोधीÓ और 'मौलाना मुलायमÓ की चिप्पियां लगने के बाद भी सत्ता में वापसी कैसे कर पाते? मगर यह भी सच है कि तब और अब की स्थितियां बिलकुल अलग हैं. बकौल आजम खान, सपा के जहाज को नुकसान पहुंचाने वाले चूहों को बाहर कर मुलायम ने अपने जीवन का नया अध्याय शुरू कर दिया है. लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव अभी काफी दूर हैं. फिर अभी बीएसपी, कांग्रेस और बीजेपी सभी को अभी अपने-अपने तरकश से तीर निकालने हैं. मायावती के इस बार के अब तक के और मुलायम के पिछले कार्यकाल की तुलना करें तो जनआकांक्षाओं पर खरा उतरने के मामले में दोनों में 19-20 का ही फर्क है. लेकिन मायावती के पास अभी भी काफी समय बाकी है. यह मायावती के लिए लाभ की स्थिति है. जबकि मुलायम को इसी अवधि में अपने सभी पुराने पाप धोकर जनता के सामने नई उम्मीदों के साथ पेश होना होगा. और यह काम भी बहुत आसान नही है प्रो. एचके सिंह के इस विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि सफलताओं के नये अध्याय लिखना मुलायम के लिए काफी मुश्किलों का काम है. ऐसे में मुलायम के लिए अभी भी लखनऊ बहुत दूर है. उनके लिए राहत की बात यह है कि वे भी अब लखनऊ की दौड़ में शामिल हैं.
राज बब्बर
समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह लगातार यह कहते रहे हैं कि भले ही उन पर पार्टी में फिल्मी सितारों को लाने का आरोप लगाया जाता रहा हो लेकिन इसकी शुरुआत खुद मुलायम सिंह ने 1994 में राज बब्बर को पार्टी में लाकर की थी. अमर सिंह की यह बात तथ्य के रूप में भले ही सही हो लेकिन इसके संदर्भ बिलकुल ढीले हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व छात्र राज बब्बर का एक लंबा फिल्मी करियर रहा है, लेकिन इससे यह बात कहीं से नहीं भुलाई जा सकती कि राज बब्बर अगर आज भारतीय राजनीति में टिके हैं तो सिर्फ अपने राजनीतिक दम-खम की बदौलत, न कि अपने सिनेमाई ग्लैमर की वजह से. वे अपने कॉलेज के दिनों से ही समाजवाद और लोहिया में आस्था रखने वाले छात्र नेता के रूप में पहचाने जाते थे और अस्सी के दशक के अंत में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के समर्थन में जबर्दस्त सभाएं की और संघर्ष किया. सिनेमा से इतर उनकी राजनीतिक पहचान इसी दौर में बन चुकी थी. नब्बे के दशक की शुरुआत होते-होते राज बब्बर वीपी सिंह से दूर होकर समाजवादी पार्टी में आ गए और 1994 में पहली बार राज्यसभा से सांसद बने. यह राज बब्बर पर मुलायम सिंह का भरोसा ही था कि उन्होंने राज बब्बर को 1996 में लखनऊ से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ लोकसभा चुनावों में उतारा. राज बब्बर लखनऊ से तो हार गए लेकिन अगले दोनों लोक सभा चुनावों में उन्होंने अपने शहर आगरा की सीट समाजवादी पार्टी को दिला दी. इसी दौरान पार्टी में अमर सिंह का दबदबा लगातार बढ़ रहा था और बब्बर पार्टी में असहज हो रहे थे. अंतत: वे ऐसे पहले व्यक्ति बने जिन्होंने अमर सिंह के खिलाफ मोर्चा लेने की हिम्मत दिखाई. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अमर सिंह के लिए दलाल जैसे शब्दों का प्रयोग किया. इसके बाद तो पार्टी में एक ही रह सकता था. हुआ वही. अमर रहे और राज बब्बर गए. सपा से बाहर जाने के बाद राज बब्बर लगातार पार्टी के लिए मुश्किलें ही पैदा करते रहे. पहले 2007 के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले उन्होंने किसानों के मुद्दे पर दादरी परियोजना के विरोध में एक बार फिर वीपी सिंह के साथ मिलकर जन मोर्चा के तले एक जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा. दादरी प्रोजेक्ट मुलायम सिंह के तत्कालीन दोस्त अनिल अंबानी का था. राज बब्बर के आंदोलन से मुलायम सिंह के खिलाफ जो माहौल बना उसने बसपा को बहुत फायदा पहुंचाया. इन चुनावों में जन मोर्चा खुद तो कोई सीट नहीं जीत पाया लेकिन उसने कम से कम 50 सीटों पर सपा को नुकसान पहुंचाया. लेकिन बब्बर सपा के लिए इससे बड़ी मुसीबत 2009 के फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में साबित हुए. मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव के छोडऩे से खाली हुई इस सीट पर कांग्रेस की तरफ से लड़ते हुए उन्होंने मुलायम सिंह की बहू डिंपल यादव को हराकर अपनी राजनीतिक हैसियत सिद्ध कर दी. इस हार को डिंपल की नहीं बल्कि मुलायम सिंह और सपा की हार के रूप में देखा गया क्योंकि फिरोजबाद सीट पर यादव, लोध और मुसलमान वोट बड़ी संख्या में हैं जिसे सपा का परंपरागत वोट बैंक माना जाता था. राज बब्बर के दिए इस घाव को सपा शायद ही कभी भुला पाए.
बेनी प्रसाद वर्मा
तकरीबन दो दशक तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे और पांच बार लोकसभा के लिए चुने गए बेनी प्रसाद वर्मा जब तक समाजवादी पार्टी में थे, उनकी गिनती प्रदेश के सबसे कद्दावर नेताओं में होती थी. राज्य और केंद्र दोनों की सरकारों में वे काबीना मंत्री बन चुके थे. जातियों में उलझी उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी दूसरी पार्टी के पास कुर्मी लीडर के तौर पर वर्मा की काट नहीं थी. बाराबंकी से लेकर बहराइच और लखीमपुर तक के कुर्मी वोटों पर उनकी मजबूत पकड़ थी. मुलायम सिंह यादव और बेनी प्रसाद वर्मा की दोस्ती पुरानी थी लेकिन इतनी गहरी दोस्ती होने के बाद भी बेनी वर्मा के साथ वही हुआ जो सपा के दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ हुआ. जैसे-जैसे पार्टी में अमर सिंह का कद बढ़ा, बेनी उपेक्षितों की कतार में चले गए. मुलायम सिंह के साथ उनकी निर्णायक लड़ाई 2007 विधानसभा चुनावों के ठीक पहले शुरू हुई. इन चुनावों में समाजवादी पार्टी ने बहराइच सीट से वकार अहमद शाह को टिकट दिया जो सपा की सरकार में श्रम मंत्री रह चुके थे. बेनी ने शाह को टिकट दिए जाने का खुला विरोध किया. क्योंकि बेनी के मुताबिक शाह उनके एक कट्टर समर्थक राम भूलन वर्मा की हत्या में शामिल थे. बेनी इससे पहले भी इसी मुद्दे को लेकर वकार अहमद शाह को मंत्रिमंडल से हटाए जाने की मांग कर चुके थे. लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने ऐसा नहीं किया तब बेनी बाबू ने इसे कुर्मी स्वाभिमान का मुद्दा बनाते हुए पार्टी छोड़ दी और समाजवादी क्रांति दल के नाम से एक नई पार्टी बना ली. उनके बेटे राकेश वर्मा, जो सपा की सरकार में जेल मंत्री थे, ने भी समाजवादी पार्टी से इस्तीफा दे दिया और अपने पिता जी की पार्टी से उन्हीं की कर्मभूमि मसौली सीट से चुनाव मैदान में उतरे. इससे बेनी बाबू को कोई फायदा तो नहीं हुआ (चुनाव में समाजवादी क्रांति दल को एक सीट भी नहीं मिली), लेकिन उन्होंने सपा को खासा नुकसान पंहुचाया. बेनी बाबू की वजह से ही बाराबंकी सीट पर लंबे समय बाद कांग्रेस का कब्जा हुआ और पीएल पुनिया जीते. हालांकि इन दिनों बेनी वर्मा का भविष्य कांग्रेस में भी उज्जवल नजर नहीं आ रहा है और सूत्रों की मानें तो बेनी प्रसाद भी आजम खान की तरह सपा में वापस आ सकते हैं.
आजम खान
हालांकि आजम खान की सपा में वापसी तय हो चुकी है लेकिन फिर भी यहां उनका जिक्र जरूरी है. पिछले कुछ समय में पार्टी को आजम खान से भी महरूमी का सामना करना पड़ा है और इससे उसे बड़ी मुश्किल भी हुई है. आजम खान की सपा से विदाई का मुख्य कारण अमर सिंह और उनकी ही वजह से कल्याण सिंह रहे. अमर सिंह के मोह की वजह से समाजवादी पार्टी ने अपने जिन नेताओं को खोया उनमें आजम सबसे अहम थे. इसीलिए शायद हाल में आजम की पार्टी में वापसी से पहले मुलायम सिंह ने कहा कि अगर आजम चाहेंगे तो विरोधी दल के नेता का पद उन्हें दिया जाएगा.
अमर सिंह ने अपने मैनेजमेंट और सितारा संस्कृति से समाजवादी पार्टी में जो जगह और दबदबा कायम किया था उससे पुराने समाजवादी नेता एकदम उपेक्षित हो गए थे. आजम भी इन्हीं में थे. अमर सिंह और आजम के बीच की खाई उस वक्त जग जाहिर हो गयी जब आजम के न चाहते हुए भी सपा ने जया प्रदा को रामपुर से लोकसभा का उम्मीदवार घोषित कर दिया. रामपुर सदर से 7 बार के विधायक आजम का कहना था कि जया प्रदा को रामपुर से कोई सरोकार नहीं है ऐसे में उन्हें टिकट क्यों दिया गया. लेकिन अमर सिंह के दबदबे के आगे उनकी नहीं सुनी गयी. जया चुनाव लड़ी और जीत भी गईं. आजम खान की दूसरी नाराजगी मुलायम सिंह के कल्याण सिंह से हाथ मिलाने को लेकर भी थी. इन्हीं दोनों मुद्दों पर नाराज आजम खान को अंतत: पार्टी से बाहर जाना पड़ा. लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सपा को आजम खान की अहमियत का एहसास हो गया. अमर सिंह के सपा से जाते ही इस बात की अटकलें तेज हो गईं कि आजम की सपा में वापसी हो सकती है. लेकिन आजम खान बराबर यह कहते रहे कि पहले मुलायम कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के लिए सार्वजनिक तौर पर मुसलमानों से माफी मांगें तभी वापसी पर कोई विचार किया जा सकता है. चूंकि सपा को आजम खान की अहमियत समझ में आ चुकी थी, इसलिए मुलायम ने खुद मुसलमानों से माफी भी मांग ली. इसके बाद उनका निष्कासन भी वापस ले लिया गया.
अमर सिंह
जिन हालात में अमर सिंह को पार्टी से निकाला गया, ऐसा लगा जैसे वे खुद यही चाहते हों क्योंकि राम गोपाल यादव से उनके शुरुआती विवाद के बाद ही सपा की तरफ से इसे सुलझा लेने का बयान आया लेकिन अमर सिंह की जुबान नहीं रुकी. अमर सिंह गए तो उनके साथ सपा का फिल्मी सितारों वाला ग्लैमर भी चला गया. जया प्रदा को निकाल दिया गया. मनोज तिवारी और संजय दत्त ने खुद ही इस्तीफ़ा दे दिया. जया बच्चन जब सपा में ही बनी रहीं तो अमर सिंह के साथ बच्चन परिवार के रिश्ते भी खट्टे हो गए. समाजवादी पार्टी ने उनके जाते ही उनकी जगह एक और क्षत्रिय नेता मोहन सिंह को महासचिव और प्रवक्ता बनाकर सामने ले आए. मोहन सिंह पुराने समाजवादी हैं. उन्होंने आपातकाल में 20 महीने जेल में भी गुजारे थे, लेकिन इतना सब होने के बाद भी वे सपा में अमर सिंह के चलते हाशिए पर चले गए थे
1995 में पार्टी में आने वाले अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी को एकदम बदल दिया. उन्होंने देश के सबसे चमकदार फिल्मी सितारों और उद्योगपतियों को समाजवादी पार्टी की चौखट पर ला दिया. वे शाहरुख़ खान से अपनी तकरार और कुछ फिल्मी अभिनेत्रियों से अपनी बातचीत को लेकर भी चर्चा में रहे. न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी के कांग्रेस को समर्थन देने के पीछे अमर सिंह का ही दिमाग था. कल्याण सिंह को सपा में लाने की जमीन भी इन्होंने ही तैयार की थी. पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह लोक मंच बनाकर हर मंच से चिल्लाते रहे है कि मुलायम धोखेबाज हैं और अगर उनमें हिम्मत है तो किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाएं.
जनेश्वर मिश्र एवं अन्य
इस साल की शुरुआत में समाजवादी पार्टी को अपने एक और वरिष्ठ नेता जनेश्वर मिश्र को भी खोना पड़ा. हालांकि इसकी वजह सियासी न होकर कुदरती थी. 22 जनवरी को लंबे समय से बीमार चल रहे जनेश्वर मिश्र ने इलाहाबाद के एक अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली. जनेश्वर मिश्र पुराने समाजवादी नेता थे. उन्हें लोहिया के उत्तराधिकारी के तौर पर भी देखा जाता था इसीलिए उनका लोकप्रिय नाम छोटे लोहिया भी था. धुरंधर समाजवादी नेता राज नारायण से उनके करीबी संबंध थे और राज नारायण के निधन के बाद वे समाजवादियों के बीच सबसे सम्मानित नेता की हैसियत रखते थे. चार बार लोकसभा और तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे जनेश्वर मिश्र की राजनीतिक सक्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गंभीर रूप से बीमार होने के बाद भी उन्होंने अपनी मृत्यु से मात्र तीन दिन पहले 19 जनवरी को सपा के महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रदेश व्यापी जनांदोलन का इलाहाबाद में नेतृत्व किया था. अमर सिंह की विकसित की गयी सितारा संस्कृति के दौर में समाजवादी पार्टी के अंदर समाजवाद की जो थोड़ी-बहुत महक बाकी रह गई थी उसका केंद्र जनेश्वर मिश्र ही थे. अगर उनकी जगह कोई और होता तो शायद वह भी अमर सिंह की भेंट चढ़ गया होता लेकिन यह जनेश्वर मिश्र का अपना कद और मुलायम सिंह से उनकी नजदीकी ही थी कि सपा में अंत तक उनकी हैसियत पर कोई असर नहीं पड़ा.
इसके अलावा पिछले कुछ समय में समाजवादी पार्टी से आजम खान के अलावा जो मुसलमान नेता बाहर गए उनमें सलीम शेरवानी, शफीकुर्रहमान बर्क और शाहिद सिद्दीकी भी शामिल हैं. भले ही ये नेता पार्टी छोडऩे के लिए कोई वजह बताएं लेकिन इसके लिए उनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ही ज्यादा जिम्मेदार रहीं.