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भेड़ाघाट

Wednesday, June 30, 2010

गरीबों के देश में गरीब ढूंढेंगी सरकार

ग्रामीण विकास मंत्रालय नए मानकों के अनुरूप गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) के परिवारों की गणना के लिए अगले महीने से 256 गांवों में एक पायलट परियोजना शुरू करेगा। सरकार ने इन मानकों को जनगणना 2011 के लिए स्वीकार किया है। ग्रामीण विकास मंत्रालय सचिव बीके सिन्हा बताते हैं कि सरकार में उच्च स्तर के लोग इस बात को लेकर काफी बेचैन हैं कि बीपीएल सूची में सुधार का काम पूरी शुद्धता के साथ हो, अकादमियों और स्वयंसेवकों सहित हर कोई इस काम में सहयोग कर रहा है। सही सूची बनने पर सरकार कल्याणकारी योजनाओं का लाभ वास्तविक गरीबों तक पहुंचा पाएगी और सरकार की 60 हजार करोड रुपए की खाद्य सब्सिडी का भी सही उपयोग हो पाएगा।
बीपीएल कार्ड के जरिये घर और राशन जैसे बहुत सारे लाभ दिए जाते हैं, लेकिन गलत लोग भी इन सब्सिडियों का फायदा उठा लेते हैं। इसके पीछे मुख्य वजह 2002 में हुई बीपीएल जनगणना 13 सूत्रीय विधि पर आधारित होना था। पिछले काफी समय से बीपीएल सूची की आलोचना हो रही थी और 2008 में इस सूची को तैयार करने के लिए गरीबों की पहचान की सही विधि के मानक तय करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। एनसी सक्सेना की अध्यक्षता वाली समिति ने सूची के अंतर्गत परिवारों को एक से 10 तक के ग्रेडिंग देने और इस सूची से समूहों को क्रमिक तौर पर बाहर करने और शामिल करने की सिफारिश की है। सूची में आदिम जनजातीय समूहों, ऐसे परिवार जिनमें परिवार को चलाने की जिम्मेदारी अकेली महिला पर हो, बिना घर वाले परिवार, बेसहारा परिवारों, अनुसूचित जाति में शामिल महादलित।
नए मानकों में ऐसे लोग जिनके पास जिले में प्रति परिवार औसत भूमि से दोगुनी भूमि (सिंचित या आंशिक सिंचित) या दोपहिया या तीन पहिया मोटर वाहन या फिर ट्रैक्टर, थ्रेसर और हार्वेस्टर जैसे कृषि उपकरण रखने वाले परिवार। आयकर भरने वाले और 10,000 रुपए से ज्यादा वेतन पाने वाले निजी क्षेत्रों के कर्मचारी और सरकारी क्षेत्र में पेंशन जैसी सुविधाएं पाने वाले कर्मचारियों को बीपीएल सूची से बाहर रखा जाएगा।
विश्व बैंक की एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक आर्थिक संकट ने विकासशील देशों में गरीबी उन्मूलन की रफ्तार को धीमा कर दिया है। लेकिन भारत में गरीब लोगों की संख्या में गिरावट आ रही है। विश्व बैंक समूह और अंतर्राष्टï्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक संकट के कारण सहास्त्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) के कई प्रमुख क्षेत्रों में भी प्रगति प्रभावित हुई है। इन क्षेत्रों में भूख, बाल व मातृ स्वास्थ्य, लिंग समानता, स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता और रोग नियंत्रण के क्षेत्र शामिल हैं।
'ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2010' द एमडीजी आफ्टर द क्राइसिस नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक आर्थिक संकट दीर्घकालिक विकास लक्ष्यों को 2015 के आगे तक प्रभावित करता रहेगा।
इसके परिणामस्वरूप वर्ष 2015 तक 5.3 करोड़ लोग अति गरीबी में बने रहेंगे। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में प्रति दिन 1.25 डॉलर से कम पर गुजर बसर करने वाले लोगों की संख्या में कमी आने की उम्मीद है। वर्ष 1991 में ऐसे लोगों की संख्या 43.50 करोड़ थी। वर्ष 2015 में यह संख्या 29.50 करोड़ होने की संभावना है। भारत गणतंत्र है। भारतीय गण को शक्तिवान, ऊर्जावान बनाकर ही मेरा भारत महान की कल्पना को मूर्तरूप दिया जा सकता है। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के मानदंड से देश के विकास को आगे बढाया जा सकता है लेकिन जब तक देश के विकास की प्रतिछाया देश की एक अरब दस करोड़ जनता के चेहरे पर मुस्कान के रूप में दृष्टिगोचर नहीं होती, विकास बेमानी रहेगा। एकांगी विकास से देश में असमानता, विषमता बढेगी। चंद परिवारों की संपन्नता, विषमता के सागर में टापू बनकर रह जावेगी। महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज की कल्पना दी थी। विनोबा भावे ने ग्राम दान आंदोलन चला कर समरसता पूर्ण समाज बनाने के लिए देशाटन किया। पं.दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद दर्शन का प्रवर्तन कर समाज में अंतिम कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति को आगे बढाने के लिए मार्ग सुझाया। इन दीप स्तंभों के रोमांचकारी प्रकाश के बजाय जिस घोर आर्थिक उदारीकरण के मॉडल की आर्थिक नीतियों पर हम चल रहे हैं, उसका दुष्परिणाम सामने है। हद तो तब हो गई जब भारत सरकार ने कहा कि गरीब लोगों की संख्या का फिर से आंकलन करने पर पता चला है कि पहले लगाए गए अनुमान की तुलना में गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या 10 करोड़ अधिक है। सरकारी आंकडों के अनुसार वर्ष 2004 में गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों की संख्या 27.5 प्रतिशत थी जो अब बढ़कर 37.2 प्रतिशत के करीब हो गई है। संयुक्त राष्ट्र अनुसार जिन लोगों को प्रतिदिन 1.25 डॉलर (लगभग 55 रुपए) से कम पर गुजारा करना पड़ रहा है वो गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। भारत सरकार उन लोगों को गरीबी रेखा से नीचे मानती है जिनको आवश्यक पोषक तत्वों की जरूरत के लिए कम से
'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ के होहल्ला से पहले, सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को याद कीजिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को 2 रुपए किलो की रियायती दर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने की बात कहता है। इसके बाद केन्द्र की यूपीए सरकार के 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ का मसौदा देखिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती दर से महज 25 किलो खाद्यान्न की गारंटी ही देता है। मामला साफ है, मौजूदा खाद्य सुरक्षा का मसौदा तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही कतरने (गरीबों के लिए रियायती दर से 10 किलो खाद्यान्न में कमी) वाला है।
अहम सवाल यह भी है कि मौजूदा मसौदा अपने भीतर कितने लोगों को शामिल करेगा? इसके जवाब में जो भी आकड़े हैं, वो आपस में मिलकर भ्रम फैला रहे हैं।
अगर वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क देखा जाए तो जो परिवार रोजाना 1 यूएस डालर (मौजूदा विनियम दर के हिसाब से 45 रूपए) से कम कमाता है, वो गरीब है। भारत में कितने गरीब हैं, इसका पता लगाने के लिए जहां पीएमओ इकोनोमिकल एडवाईजरी कौंसिल की रिपोर्ट ने गरीबों की संख्या 370 मिलियन के आसपास बतलाई है, वहीं घरेलू आमदनी के आधार पर, सभी राज्य सरकारों के दावों का राष्ट्रीय योग किया जाए तो गरीब रेखा के नीचे 420 मिलियन लोगों की संख्या दिखाई देती है। यानि गरीबों को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों के अपने-अपने और अलग-अलग आकड़े हैं। इसके बावजूद गरीबों की संख्या का सही आंकलन करने की बजाय केन्द्र सरकार का यह मसौदा, केवल केन्द्र सरकार द्वारा बतलाये गए गरीबों को ही शामिल करेगा।
यहां अगर आप वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क रोजाना 1 यूएस डालर से 2 यूएस डालर (45 रूपए से 90 रूपए) बढ़ाकर देंखे तो देश में गरीबों का आकड़ा 80 मिलियन तक पहुंच जाता है। यह आकड़ा यहां की कुल आबादी का तकरीबन 80त्न हिस्सा है। अब थोड़ा देशी संदर्भ में सोचिए, महज 1 यूएस डालर का फर्क है, जिसके कम पड़ जाने भर से आबादी के इतना भारी हिस्सा वोट देने भर का अधिकार तो पाता रहेगा, नहीं पा सकेगा तो भोजन का अधिकार।
केन्द्र सरकार ने 2010-11 में, भूख से मुकाबला करने के लिए 1.18 लाख करोड़ रूपए खर्च करने का वादा किया है। अगर यूपीए सरकार गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती तौर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने पर विचार करती है तो उसे अपने बिल में अतिरिक्त 82,100 करोड़ रूपए का जोड़ लगाना होगा।
जब कभी देश को युद्ध या प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है तो हमारे देश के हुक्मरानों का दिल अचानक पसीज जाता है। उस दौरान के बुरे हालातों से निपटने के लिए बहुत सारा धन और राहत सुविधाओं को मुहैया कराया जाता है। मगर भूख की विपदा तो देश के कई बड़े इलाकों को खाती जा रही है। वैसे भी युद्ध और प्राकृतिक आपदाएं तो थोड़े समय के लिए आती हैं और जाती हैं, मगर भूख तो हमेशा तबाही मचाने वाली परेशानी है। इसलिए यह ज्यादा खतरनाक है। मगर सरकार है कि इतने बड़े खतरे के खिलाफ पर्याप्त मदद मुहैया कराने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है।
भूख का यह अर्थशास्त्र न केवल हमारे सामाजिक ढ़ाचे के सामने एक बड़ी चुनौती है, बल्कि मानवता के लिए भी एक गंभीर खतरा है। जो मानवता को नए सिरे से समझने और उसे फिर से परिभाषित करने की ओर ले जा रहा है। उदाहरण के लिए, आज अगर भूखे माता-पिता भोजन की जुगाड़ में अपने बच्चों को बेच रहे हैं तो यह बड़ी अप्राकृतिक स्थिति है, जिसमें मानव अपनी मानवीयता में ही कटौती करके जीने को मजबूर हुआ है। यह दर्शाती है कि बुनियादी तौर पर भूख किस तरह से मानवीयता से जुड़ी हुई है। इसलिए क्यों न भूख को मिटाने के लिए यहां बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) की बजाय बीएचएल (मानवीय रेखा से नीचे) शब्द को उपयोग में लाया जाए ?

एक तरफ भूखा तो दूसरी तरफ पेटू वर्ग तो हर समाज में होता है। मगर भारत में इन दोनों वर्गों के बीच का अंतर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। एक ही अखबार के एक साईड में कुपोषण से बच्चों की मौत की काली हेडलाईन हैं तो उसी के दूसरी साईड में मोटापन कम करने वाले क्लिनिक और जिमखानों के रंगीन विज्ञापन होते हैं। भारत भी बड़ा अजीब देश है, जहां आबादी के एक बड़े भाग को भूखा रहना पड़ता है, वहीं डायबटीज, कोरोनरी और इसी तरह की अन्य

सऊदी में शादी का सौदा

यह बात सुनने में जरूर अजीब लगे, मगर है सोलह आने सच। हालांकि सऊदी अरब इस्लाम, तेल के कुंओं, अय्याश शेखों और जंगली कानून के लिए जाना जाता है, लेकिन पिछले कुछ बरसों में यहां की जीवन शैली में खासा बदलाव आया है। यहां की महिलाएं भी अब इंसान होने का हक मांगने लगी हैं। वे ऐसी जिन्दगी की अभिलाषा करने लगी हैं, जिसमें उनके साथ गुलामों जैसा बर्ताव न किया जाए। शायद इसलिए ही वे तनख्वाह पर शौहर रखने लगी हैं।
मैमूना का कहना कि यहां की महिलाएं बंदिशों के बीच जिन्दगी गुजारती हैं। उन्हें हर बात के लिए अपने पिता, भाई, शौहर या बेटे पर निर्भर रहना पड़ता है, लेकिन अब बदलाव की हवा चलने लगी है। जो लड़कियां यूरोपीय देशों में पढ़कर आती हैं, वे इस माहौल में नहीं रह पातीं। उनकी देखा-देखा देखी यहां की लड़कियों में भी बदलाव आया है। यहां की महिलाएं विदेशी लड़कों को पसंद करने लगी हैं, क्योंकि वो उन पर ज़ुल्म नहीं करते। उनके जज़्बात को समझते हैं। उनके साथ जंगलियों जैसा बर्ताव नहीं करते। वे हिन्दुस्तान और पाकिस्तान से रोजगार के लिए आने वाले बेरोजगार लड़कों को एक समझौते के तहत अपना शौहर बनाती हैं और इसके लिए बाकायदा उन्हें तनख्वाह देती हैं। उनका मानना है कि ऐसे रिश्तों में महिलाएं अपनी बात रख सकती हैं और उनकी जिन्दगी ग़ुलामों जैसी नहीं होती।
एक समाचार एजेंसी के मुताबिक कुछ अरसे पहले ही ऐसी शादी करने वाली रिगदा का कहना है कि इस विवाह से उसकी कई परेशानियां दूर हो गई हैं। उसने बताया कि अपनी पहली नाकाम और तल्ख अनुभव वाली शादी के बाद उसने तय कर लिया था कि अब वह कभी शादी नहीं करेगी, लेकिन एक दिन उसकी एक सहेली ने उसे सलाह दी कि वह किसी बेरोजगार लड़के से शादी कर ले। उसने बताया कि पहले तो उसे यह बात मजाक सी लगी, लेकिन जब मिसालें सामने आईं तो ऐसा लगा जैसे यह सौदा दोहरे फायदे का है यानी एक तो कानूनी सरपरस्त (संरक्षक) मिल जाएगा और वह हुक्म देने वाले के बजाय हुक्म मानने वाला होगा। उसने बताया कि वह जब भी किसी बात की इजाजत मांगती थी तो उसका शौहर उसे बहुत प्रताडि़त और परेशान किया करता था और इस तरह उसके हर काम में महीनों की देर हो जाती थी, लेकिन अब हालत यह है कि उसका तनख्वाह वाला शौहर उसे हर काम की फौरन इजाजत दे देता है।
इसी तरह का विवाह करने वाले माजिद ने बताया कि शादी से पहले वो टैक्सी ड्राइवर था। एक दिन उसे वह सवारी मिल गई, जो अब उसकी बीवी है। उसने बताया कि बतौर ड्राइवर जहां वह बड़ी मुश्किल से दो हजार रियाल (अरब की मुद्रा) कमा पाता था, वहीं अब उसे बीवी से छह हजार रियाल मिल जाते हैं। माजिद ने बताया कि उसकी बीवी ने तो यहां तक कह दिया है कि अगर वो उच्च शिक्षा हासिल करना चाहता है तो उसका खर्च भी वह उठाने के लिए तैयार है। उसकी बीवी उम्र में उससे 14 साल बड़ी है। माजिद ने कहा कि उसकी बीवी ने उससे यह भी वादा किया है कि कुछ साल बाद वो किसी जवान लड़की से उसकी शादी करा देगी। रीम नाम की एक महिला ने बताया कि उसने भी एक बेरोजगार लड़के से शादी की थी। इसके लिए बाकायदा वो अपने शौहर को तनख्वाह देती है, लेकिन उसने यह काम अपने घर वालों से छुपकर किया। जब लड़के को इस बात का पता चला तो वो उससे ज़्यादा पैसों की मांग करने लगा। इसके बावजूद यह रिश्ता फायदे का ही रहा। हाल ही में सऊदी अरब से हिन्दुस्तान आए मुबीन (हंसते हुए) कहते हैं कि मैं भी सोच रहा हूं कि क्यों न एक निकाह वहां भी कर लूं। आखिर चार निकाह का विशेषाधिकार जो मिला हुआ है। वे बताते हैं कि उनके शादीशुदा पाकिस्तानी दोस्त अबरार ने वहां की महिला से शादी कर ली। उसे अपनी बीवी से हर माह सात हजार रियाल मिल जाते हैं। इसके अलावा उसे रहने को अच्छा मकान भी मिल गया है। कपड़े और खाने का खर्च तो उसकी बीवी ही उठाती है। वे यह भी बताते हैं कि शादी का यह सौदा दोनों के लिए फायदेमंद साबित हो रहा है। जहां बेरोजगार लड़कों को शादी रूपी नौकरी से अच्छी तनख्वाह मिल जाती है, वहीं महिलाओं को भी उनकी पसंद के कम उम्र के लड़के मिल जाते हैं।
जयपुर की शायदा इस मुद्दे पर हैरानी जताते हुए कहती हैं कि क्या सचमुच सऊदी अरब में ऐसा हो रहा है। शायदा के शौहर परवेज को अरब गए पांच साल हो गए। उनके तीन बच्चे भी हैं। मगर पलभर ही वे उदास होते हुए कहती हैं कि कहीं उनके शौहर ने भी तो वहां नया घर नहीं बसा लिया। अगर ऐसा हुआ तो उसका क्या होगा? यह सब कहते हुए उसकी आंखें भीग जाती हैं और गला रुंध जाता है। शायदा का सवाल उन औरतों के दर्द को बयां करता है, जिनके शौहर रोजी-रोटी के लिए परदेस गए हैं और लालच या मजबूरी में वहां अपने घर बसाए बैठे हैं।
काबिले-गौर है कि सऊदी अरब में शरिया (इस्लामी कानून) लागू है। यहां की महिलाओं पर तरह-तरह की बंदिशें हैं। शायद इसलिए अमीर औरतें शादी का सौदा कर रही हैं। इनमें ज़्यादातर वे अमीर महिलाएं शामिल हैं, जिनकी शादीशुदा जिन्दगी अच्छी नहीं है और वो बेहतर जिन्दगी जीने की हिम्मत रखती हैं।
वरना यहां ऐसी औरतों की कमी नहीं है, जिनका अपना कोई वजूद नहीं है। बस वह एक मशीनी जि़न्दगी गुज़ार रही हैं, जिसमें उनकी ख़ुशी या गम कोई मायने नहीं रखता। वैसे ऐसी औरतें हर जगह पाई जाती हैं, जो सारी उम्र सिफऱ् औरत होने की सज़ा झेलती हैं।
सऊदी अरब के न्याय मंत्रालय की 2007 की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक़ सऊदी अरब में हर रोज़ कऱीब 357 निकाह होते हैं, लेकिन 78 जोड़े रोज़ तलाक़ भी ले लेते हैं। तलाक़ के कुल 28 हज़ार 561 मामलों में से 25 हज़ार 697 में तो पति और पत्नी दोनों ही सऊदी अरब के थे, जबकि अन्य मामलों में दंपति में सिफऱ् एक ही इस देश का था। रिपोर्ट में बताया गया है कि इस दौरान मुल्क में एक लाख 30 हज़ार 451 निकाह हुए। मक्का में सबसे ज़्यादा 34 हज़ार 702 निकाह हुए और 8318 तलाक़ हुए, जबकि 28 हज़ार 269 शादियों और 9293 तलाक़ के मामलों के साथ रियाद दूसरे स्थान पर था। एक हज़ार 892 दंपत्तियों ने अदालत में तलाक़ की अर्जी दाख़िल करने के बावजूद समझौता कर लिया और उनकी शादी बच गई। क़ाबिले-गौर यह भी है कि सऊदी अरब में विवाह के लिए लड़कियों की न्यूनतम उम्र भी निर्धारित नहीं है। इसका फ़ायदा उठाते हुए बूढ़े शेख़ गरीब घरों की कम उम्र की बच्चियों से शादी कर लेते हैं। कुछ साल बाद समझदार होने पर ये अमीर हुई लड़कियां अपने लिए शौहर खरीद लेती हैं। तब तक कुछ विधवा हो चुकी होती हैं और कुछ तलाक़ ले लेती हैं।

इसी साल अप्रैल में रियाद के बुराइधा क़स्बे की एक अदालत ने 12 साल की एक लड़की को उसके 80 साल के शौहर से तलाक़ दिलाया था। पिछले इस लड़की की मजऱ्ी के खिलाफ़ उसके परिवार वालों ने उसकी शादी उसके पिता के 80 वर्षीय चचेरे भाई से कर दी गई थी। बदले में उसके परिवारवालों को कऱीब साढ़े 14 हज़ार डॉलर मिले थे। इस ज़ुल्म के खिलाफ़ लड़की ने आवाज़ उठाई और रियाद के बुराइधा क़स्बे की एक अदालत में तलाक़ के लिए अजऱ्ी दाख़िल कर दी। लड़की की कि़स्मत अच्छी थी उसे तलाक़ मिल गया. राहत की बात यह भी है कि अब वहां की सरकार इस मसले पर पहली बार लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र तय करने पर गौर कर रही है. मानवाधिकारों संगठनों ने भी लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र 16 साल निश्चित करने की सिफ़ारिश की है. अब सरकार ने इस बारे में फ़ैसला लेने के लिए तीन समितियों का गठन किया है.

यह खुशनुमा अहसास है कि सऊदी अरब में भी बदलाव की बयार बहने लगी है. कभी न कभी वहां की महिलाओं को वे सभी अधिकार मिल सकेंगे, जो सिफऱ् मर्दों को ही हासिल हुए हैं. बहरहाल एक नई सुबह की उम्मीद तो की ही जा सकती है.

महारानी पर भाजपा का जसवंत पहरा

जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढऩे के बाद पार्टी से निकाले गए वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह की नौ महीने बाद भाजपा में वापसी हो गई। जसवंत की वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका भले ही लालकृष्ण आडवाणी ने निभाई है लेकिन इसकी मुख्य वजह बनी है राजस्थान की महारानी यानी वसुधरा राजे। बताया जाता है कि राजस्थान में भाजपा के कदावर नेता भौरवसिंह शेखावत के अवसान के बाद पार्टी आलाकमान को एक ऐसे दमदार नेता की खोज थी जो महारानी के प्रभाव और स्वभाव पर पहरा बिठा सके। पार्टी को इसके लिए जसवंत सिंह से बेहतर कोई दूसरा नेता दूर तक नजर नहीं आ रहा था।
राजस्थान में सात साल से भाजपा का पर्याय बनकर रहीं वसुंधरा को शीर्ष पर रहकर ही राजनीति करना आता है। उन्हें आदेश देना पसंद है, न की सुनना। हालांकि पार्टी अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने उन्हें अपनी टीम में शामिल कर राजस्थान की राजनीति से अलग करने की शुरूआत तो कर दी है लेकिन महारानी की आदत पार्टी आलाकमान भली भांति जानते हैं,इस लिए जसवंत को वापस बुलाया गया है। वैसे देखा जाए तो गडकरी ने पार्टी अध्यक्ष बनने के साथ ही द्रोही नेताओं की पार्टी में वापसी की वकालत शुरू कर दी थी,जिसमें जसवंत सिंह और उमा भारती का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा था।
जसवंत सिंह की भाजपा में वापसी से पार्टी को जहां एक अनुभवी नेता का साथ मिलेगा वहीं राजस्थान में वसुंधरा के वर्चस्व पर नकेल भी कसी रहेगी। महारानी कब मतवाली हो जाएं यह तो कोई नहीं जानता। क्योंकि जब पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने उनकी मर्जी के खिलाफ प्रदेशाध्यक्ष पद पर अरुण चतुर्वेदी को नियुक्त किया था तो उन्होंने अपने विकराल रूप का दर्शन करा दिया था। वसुंधरा ने यह तय कर लिया था कि चतुर्वेदी से उनकी पटरी नहीं बैठेगी। इससे पहले कि चतुर्वेदी उनके लिए कोई दिक्कत खड़ी करते, उन्हें हलकान करने के मकसद से पार्टी कार्यालय में दरबार लगाकर कार्यकर्ताओं और लोगों की समस्याएं सुनना शुरू कर दिया। वसुंधरा विरोधी खेमे ने इसकी रिपोर्ट तुरंत आलाकमान को भेज दी। वसुंधरा से पहले से ही नाराज चल रहे पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसे गंभीरता से लिया और वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देकर दिल्ली तलब कर लिया। कल को कोई दिक्कत नहीं हो इसके लिए राजनाथ सिंह ने अपने इस फैसले पर लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, जसवंत सिंह, रामलाल, गोपीनाथ मुंडे, श्योदान सिंह एवं बालआप्टे के अलावा संघ के वरिष्ठ प्रचारक मदनदास देवी और सुरेश सोनी की मुहर लगवा दी। वसुंधरा ने विधायकों की दिल्ली परेड करवाकर दबाव बनाने की कोशिश की, पर राजनाथ ने अपने फैसले को संसदीय बोर्ड से भी पास करवा लिया। संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद महारानी को साफ संदेश दे दिया गया कि पद तो हर हाल में छोडऩा होगा।
पार्टी दफ्तर में दरबार लगाकर समानांतर संगठन चलाने की कोशिश करना ही वसुंधरा की विदाई की इकलौती वजह नहीं थी। दरअसल, राजस्थान की राजनीति से उन्हें रुख्सत करने की पटकथा तो काफी पहले ही लिख दी गई थी, बस उसके उपयुक्त रंगमंच तलाशा जा रहा था। 1987 के विधानसभा चुनावों में राजस्थान की राजनीति के भीष्म पितामहं भैरों सिंह शेखावत की पकड़कर राजनीति में आईं। इन चुनावों में धौलपुर से जीतने के बाद उन्होंने 1989 के आम चुनाव में झालावाड़ संसदीय सीट से अपनी किस्मत आजमाई और अच्छे अंतर से जीतने में सफल रहीं। वसुंधरा को झालावाड़ और झालावाड़ की जनता को वसुंधरा खूब रास आईं। उन्होंने लगातार पांच बार संसद में झालावाड़ की नुमाइंदगी की। इस दौरान केंद्र में अटल बिहारी सरकार में उन्हें राज्य मंत्री का ओहदा भी मिला। 2003 में भैरों सिंह शेखावत का उप राष्ट्रपति बनना वसुंधरा के लिए वरदान साबित हुआ। बाबोसा उन्हें अपना राजनीतिक वारिस बनाकर दिल्ली रवाना हो गए। वसुंधरा के खिलाफ पहली बार विरोध का स्वर इसी समय उठा। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने उनकी नियुक्ति का विरोध किया, लेकिन ये विरोध व्यक्तिगत होने की बजाय सांकेतिक अधिक था। दरअसल, विरोध करने वाले नेता आरएसएस के चहेते भाजपाई दिग्गज थे जो शेखावत के जाने के बाद पार्टी की कमान संभालने के सपने देख रहे थे।
जिस समय में वसुंधरा ने राजस्थान में भाजपा की कमान संभाली थी उस समय राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। गहलोत के 1998 में प्रचंड बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गई थी। चुनाव नजदीक आते ही टिकट चाहने वाले नेता जरूर सक्रिय हुए, लेकिन कार्यकर्ता अभी भी पार्टी से कटे हुए थे। कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने और भाजपा के पक्ष में जनसमर्थन जुटाने के लिए महारानी की परिवर्तन यात्रा बेहद सफल रही। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस यात्रा के बाद ही वसुंधरा को इस बात का आभास हुआ कि वे अब राजनीति के सही ट्रेक पर हैं। महारानी की राजनीति करने की अपनी ही शैली है, एकदम रजवाड़ों की मानिंद। ना-नुकुर करने और ऑर्डर देने वालों को वे पसंद नहीं करती हैं। भैरों सिंह शेखावत से तनातनी इसी वजह से शुरू हुई।
2003 के विधानसभा चुनावों में शेखावत ने अपने समर्थकों के लिए दो दर्जन से ज्यादा टिकट मांगे तो महारानी ने हाथ खड़े कर दिए। उन्होंने अपनी मुताबिक टिकट दिए। परिणाम आए तो वसुंधरा ने इतिहास रच दिया। राजस्थान में भाजपा के लिए जो करिश्मा शेखावत सरीखे दिग्गज नहीं कर पाए, महारानी ने करके दिखाया। भाजपा को विधानसभा में पहली दफा पूर्ण बहुमत मिला। मुख्यमंत्री बनते ही जितने तेजी उनके उनके समर्थक बढ़े उसी तेजी उनके विरोधी एकजुट होते गए। बाबोसा का आशीर्वाद प्राप्त जसवंत सिंह के नेतृत्व में ये एकजुट होने लगे। इनमें से ज्यादातर नेता संघ की पृष्ठभूमि से थे, इसलिए संघ भी धीरे-धीरे महारानी के खिलाफ हो गया। भाजपा में संघ की नुमाइंदगी करने वाले संगठन मंत्री प्रकाश चंद्र और महारानी में हमेशा ही छत्तीस का आंकड़ा रहा। वसुंधरा विरोधी खेमे ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। मिलती भी कैसे, वसुंधरा को आडवाणी का वरदहस्त जो प्राप्त था। खैर विरोधी खेमा भी कहा मानने वाला था। उन्होंने वसुंधरा न सही उनके चहेते डॉ. महेश शर्मा को प्रदेशाध्यक्ष पद से हटवाकर ही दम लिया।
खैर, जैसे-तैसे कर मामला थमा कि विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए। महारानी मन मुताबिक चुनाव की तैयारी नहीं कर पाईं। पूरे प्रचार अभियान में वे अकेली तो थीं ही, गहलोत के आक्रामक प्रचार के अलावा अपनी ही पार्टी के लोगों की ओर से उनके खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को भी झेल रही थीं। खुद के कार्यकाल में हुए विकास कार्यों की दुहाई देने के बाद भी वे क्लोज फाइट में हारकर सत्ता से बाहर हो गईं।
यहीं से शुरू हुआ महारानी के अक्रामक तेवरों का प्रहार। जिसने राजस्थान की राजनीति में भूचाल ला दिया। अब जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है तो आलाकमान चाह रहे हैं कि महारानी पर अंकुश लगाए रहना चाहिए,शायद यही कारण है कि जसवंत को पार्टी में वापस लाया गया है।

Tuesday, June 8, 2010

भोपाल की नसों में आज भी रिस रही है त्रासदी

इसी टैंक से रिसे गैस के कारण हुई थी भोपाल गैस त्रासदी दुनिया की सबसे बड़ी औद्यौगिक त्रासदी "भोपाल गैस कांड" का जहर चौथाई सदी बीतने के बावजूद आज भी शहर की नसों में घुला हुआ है। 2-3 दिसम्बर 1984 की रात हजारों जिंदगियाँ लील चुके यूनियन कार्बाइड संयंत्र के आसपास के इलाकों की मिट्टी और पानी में अब भी भारी मात्रा में जहर मौजूद है। विज्ञान एवं पर्यावरण केन्द्र (सीएसई) के अध्ययन के अनुसार फैक्ट्री से तीन किलोमीटर दूर तक के इलाके के भू-जल में भारतीय मानकों से 40 गुना अधिक तक कीटनाशक पाए गए हैं।

फैक्टरी परिसर के इर्द-गिर्द यह निर्धारित मानकों से 561 गुना ज्यादा है। संस्थान की निदेशक सुनीता नारायण और संयुक्त निदेशक चंद्र भूषण ने मंगलवार को भोपाल में अध्ययन की रिपोर्ट जारी करते हुए कहा कि यूनियन कार्बाइड के प्रदूषित कचरे का जल्द से जल्द निष्पादन करने के साथ ही पूरे फैक्टरी परिसर की सफाई भी जरूरी है। सीएसई की निदेशक के मुताबिक इस प्रदूषण का हमारे शरीर पर कितना और कैसा असर पड़ेगा, यह तो नहीं कहा जा सकता लेकिन यह साफ है कि इसका असर धीमे जहर की तरह हो रहा है। यूनियन कार्बाइड के बंद पड़े संयंत्र में मौजूद 340 टन खतरनाक रासायनिक कचरा अब तक नहीं हटाए जाने पर गहरा क्षोभ जताया ।

"जिन संस्थाओं को रासायनिक कचरा हटाने का काम दिया गया है, सरकार उन्हें काम जल्द निपटाने को कहे। कार्बाइड की अधिग्रहणकर्ता "डाउ" केमिकल पल्ला झाड़ने की तैयारी में है। दुर्घटना के लिए भारतीय अदालत में एक बार मुआवजा तय होने के बाद कम्पनी की जिम्मेदारी समाप्त नहीं हो जाती। आरटीआई कानून के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय से निकाले गए कागजात इशारा करते हैं कि डाउ केमिकल्स को जिम्मेदारी से मुक्त करने की तैयारी चल रही है।" -सुनीता नारायण, निदेशक, सीएसईसंस्थान ने अपनी जांच के लिए इस वर्ष अक्टूबर में संयंत्र परिसर के भीतर से मिट्टी का एक और पानी के आठ नमूने लिए। इतना ही नहीं संयंत्र की सबसे नजदीकी बस्ती और साढे तीन किलोमीटर दूर तक की कालोनी से पानी के 11 नमूने लिए गए। इन सभी नमूनों की जाँच में उच्च स्तर का प्रदूषण पाया गया है। सुनीता नारायण ने प्रयोगशाला अध्ययन और उसके निष्कर्षों के आधार पर बताया कि भोपाल में संयंत्र क्षेत्र भीषण विषाक्तता को जन्म दे रहा है और लगातार हो रहा सूक्ष्म संपर्क हमारे शरीर में जहर घोलने का काम कर रहा है। उन्होंने बताया कि संयंत्र की जमीन में मौजूद रसायन भूजल में घुल रहे हैं और यह जहर धीरे-धीरे यहां के निवासियों के शरीर को अपना शिकार बना रहा है। संयंत्र के आसपास की बस्तियों में अनुसंधानकर्ताओं ने पाया है कि वहाँ के निवासी अभी तक असाध्य रोगों और शारीरिक विकृतियों से जूझ रहे हैं।

उन्होंने कहा कि इन नमूनों में पाए गए जहरीले पदार्थ के रसायन का चरित्र संयंत्र में जमा कचरे के रसायनों के चरित्र से मेल खाता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पाया गया रसायन क्लोरिनेटिड बेंजीन मिश्रणों और कीटनाशक का स्त्रोत यूसीआईएल के अतिरिक्त अन्य कोई नहीं हो सकता है। फैक्टरी में तीन प्रकार के कीटनाशकों का उत्पादन होता था - कारबारिल (सेविन), एल्डिकार्ब (टेमिक) और सेविडोल। संयंत्र में पारे और क्रोमियम जैसी भारी धातुएँ भी इस्तेमाल होती थीं। इन उत्पादों के ज़्यादातर तत्व स्थायी और जहरीली प्रकृति के हैं। सीएसई ने अपनी लैब में मिट्टी और पानी के नमूनों में इन्हीं रसायनों का अध्ययन किया। अध्ययन में विभिन्न रसायनों की उपस्थिति के लिए हाई परफॉर्मेस लिक्विड क्रोमेटोग्राफ, गैस क्रोमेटोग्राफ, क्रोमेटोग्राफ मास स्पेक्ट्रोमीटर, फ्लेम और एसएस-वेपर तकनीकों का उपयोग किया गया।

जाँच रिपोर्ट के अनुसार इन नमूनों में जो रसायन अधिकता में पाए गए हैं वे शरीर के लिए घातक हैं। चंद्रभूषण ने बताया कि फैक्टरी और आसपास के क्षेत्रों में भूजल और मिट्टी के सैंपलों में क्लोरीनेटिड बेंजीन के मिश्रण मिले हैं। क्लारीनेटिड बेंजीन मिश्रण की अधिकता जिगर और रक्त कोशिकाओं को प्रभावित तथा नष्ट तक कर सकती है। इसके अलावा ऑर्गेनाक्लोरीन कीटनाशक कैंसर और हड्डियों की विकृतियों के जनक हो सकते हैं। वहीं कारबारिल और एल्डिकार्ब नामक उत्पाद भी उतने ही घातक थे। इससे स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है जिसमें मस्तिष्क तथा तंत्रिका प्रणाली को नुकसान, गुणसूत्रों की गड़बड़ी भी हो सकती है। इन रसायनों से होने वाले प्रभावों का विस्तृत अध्ययन होना चाहिए।

"25 वर्षो में इतना पानी बरस चुका है कि यूनियन कार्बाइड संयंत्र में पड़े रासायनिक कचरे का सारा जहरीलापन समाप्त हो चुका है। अब वह साधारण कचरा भर है। राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान और केन्द्रीय रसायन पेट्रोकेमिकल विभाग की रिपोर्ट से भी यह साबित हो चुका है। कचरे के अब भी जहरीले होने का स्वयंसेवी संगठनों का दावा है। पूरी तरह व्यवसायिक हो चुके इन संगठनों की अब कोई जरूरत नहीं रह गई है। पीडितों के बीच पूरा मुआवजा बँट चुका है। उनके इलाज के पर्याप्त इंतजाम हो गए हैं। इसलिए अब किसी आंदोलन की जरूरत भी नहीं है।" -बाबूलाल गौर, गैस राहत एवं पुनर्वास मंत्री
रिपोर्ट के मुताबिक रसायन प्रभाव डाइक्लोरोबेंजिन व आइसोमर रक्त कोशिकाओं, फेफड़ों, गुर्दे, स्नायु तथा प्रजनन तंत्र प्रभावित 1,2,3 ट्राईक्लोरोबेंजिन रोग प्रतिरोधक क्षमता, स्नायु, प्रजनन तथा श्वसन तंत्र पर असर हेक्साक्लोरोबेंजिन लीवर रोग, अल्सर, स्नायु परिवर्तन, हड्डियों में खराबी, बाल झड़ना, कैंसर का खतरा हैक्साक्लोरोसाइक्लोहेक्सेन केंसर की आशंका, लीवर, गुर्दो, स्नायु तथा रोग प्रतिरोधक प्रणाली में खराबी कारबेरिल (सेविन) मस्तिष्क तथा स्नायु प्रणालियां क्षतिग्रस्त, बच्चों का असामान्य विकास एल्डीकार्ब (टेमिक) क्रोमोजोम असमानताएं, रोग प्रतिरोधक प्रणाली पर प्रभाव पारा स्नायुतंत्र के लिए विशकारी, स्मरण शक्ति एकाग्रता पर प्रभाव, गर्भ में पल रहे बच्चों पर प्रभाव एवं गर्भपात की आशंका संखिया उदर रोग, खून की कमी, स्नायु रोग, त्वचा पर जख्म लीवर व गुर्दे में खराबी, केंसर की आशंका सीसा गर्भपात, शुक्राणुओं की कमी, बच्चों का असामान्य मानसिक विकास, स्नायु प्रणाली प्रभावित, हीमोग्लोबिन और अनीमिया के बायोसिंथेसिस में अवरोध क्रोमियम अल्सर, दमा और श्वसन रोग, नाक की झिल्ली में छिद्र, श्वास नली और गले में जलन के मामले सामने आये हैं ।

गैस त्रासदी के तत्काल बाद इसकी जिम्मेदारी भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) को दी गई थी, लेकिन वर्ष 1994 में उसने रिसर्च का काम बंद कर दिया। सीएसई की निदेशक सुनीता नारायण ने कहा फैक्टरी का कचरा धीरे-धीरे शहर के पानी को प्रदूषित कर रहा है, इसलिए इसे जल्द साफ किया जाना चाहिए। सरकार ने इसके लिए एक कमेटी बनाई है पर भोपाल की जनता को यह काम जल्द शुरू कराने के लिए दबाव बनाना होगा। फैक्टरी की सफाई का मतलब केवल वहां रखे 340 टन रासायनिक कचरे का निष्पादन नहीं है बल्कि पूरी जमीन की मिट्टी और पानी का शुद्धिकरण होना चाहिए। सफाई की जिम्मेदारी डाउ केमिकल्स की होना चाहिए।

सीएसई के पदाधिकारियों ने प्रश्न किया कि जिस फैक्टरी की मिट्टी और पानी इतना प्रदूषित है, आखिर उसे आम लोगों के लिए क्यों खोला जाना चाहिए? सुश्री नारायण ने एक सवाल के जवाब में कहा कि हम यह नहीं कह सकते कि पूरे भोपाल का पानी प्रदूषित है। हम तो सिर्फ जहाँ से नमूने लिए गए हैं उन स्थानों का पानी बुरी तरह प्रदूषित होने की बात कह रहे हैं जो जांच में सामने आए हैं। श्री भूषण ने कहा जहां का भूजल प्रदूषित पाया गया, उस पानी का उपयोग कतई नहीं करना चाहिए। संयंत्र को आम लोगों को खोलने के लिए चल रही कोशिशों और कचरे को खतरनाक न मानने के सवाल पर सुनीता नारायण ने कहा कि यह घोर विषाक्त है । इसलिए यह दावा करना कि कचरा छूने से कुछ नहीं होगा, संयंत्र खतरनाक नहीं है यह भ्रामक प्रचार है। वे संयंत्र को खोलने के पक्ष में नहीं हैं।

यह सिर्फ भोपाल की कहानी नहीं





यह सिर्फ भोपाल की नहीं पूरे देश की कहानी है। गांव, शहर और जंगल की हवाओं में जहर फैल रहा है। नदियां सूख रही हैं या गंदा नाला बनती जा रही हैं। पर्यावरण का विनाश हो रहा है। लेकिन इसके बावजूद राजधानियों से लेकर छोटे-बड़े शहरों तक विकास का अजगर अपने पैर फैलाता जा रहा है। भोपाल पहली ऐसी त्रासदी नहीं है। पूरी दुनिया के इतिहास में ऐसी घटनाओं की एक लंबी श्रृंखला है। पचास साल पहले लंदन में भी ऐसे ही जहरीली हवा फैली थी।

उस घटना को पच्चीस साल बीत चुके हैं, जब एक अंधेरी रात को भोपाल स्थित यूनियन कार्बाइड कंपनी से निकलने वाली जहरीली गैस ने हजारों जिंदगियों को एक साथ निगल लिया था। आज पच्चीस साल बाद भी उस दुर्घटना से हमने क्या सबक सीखा है? एक यूनियन कार्बाइड का कारनामा हमारे सामने है, लेकिन ऐसे जाने कितने जहरीले संयंत्र आज भी हमारे चारों ओर फैले हुए हैं। उस पूरे यथार्थ को हम किस नजर से देखते हैं? इतिहास के पन्नों में काले अक्षरों में दर्ज उस दुर्घटना से हमने अपने वर्तमान और भविष्य के लिए क्या सबक सीखा है?

ये सब कुछ ऐसे जरूरी सवाल हैं, जिनका जवाब ढूंढ़े बगैर समाज और सभ्यता विकास की कोई दिशा तय नहीं कर सकती। उस दुर्घटना के बारे में अब तक हुए सभी अध्ययन इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यूनियन कार्बाइड का जहर अभी तक खत्म नहीं हुआ है, बल्कि वह लगातार बहुत तेजी के साथ फैल रहा है। शहर के विभिन्न इलाकों में मिट्टी और पानी उस जहर से प्रदूषित हैं और लोग अपने अस्तित्व के लिए उसी मिट्टी और पानी पर निर्भर हैं। आज दुर्घटना के पच्चीस साल बाद भी हम भोपालवासियों को यूनियन कार्बाइड के जहर से मुक्त साफ पानी और मिट्टी मुहैया नहीं करा पाए हैं। कुछ खास इलाकों और वर्गो तक साफ पानी पहुंच रहा है, लेकिन व्यापक समाज तक उसकी पहुंच नहीं है। सबसे पहले तो ऐसी दुर्घटनाओं को होने से रोकने के लिए सरकार और कंपनी के पास कोई समुचित प्रबंधन नहीं था। और एक बार जब वह दुर्घटना हो गई तो उसके बाद भी उसकी रोकथाम, उसके नतीजों के खतरनाक असर को कम करने के बारे में न सोचा गया और न ही ईमानदारी से काम किया गया। यह विश्लेषण और भी कई सवाल खड़े करता है।

दरअसल आज विकास के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है, वह हमारी हवा और मिट्टी में जहर घोलने का काम ही कर रहा है। फैक्ट्रियां कच्चे उत्पाद और ऊर्जा का इस्तेमाल करती हैं और जहरीला अपशिष्ट बाहर फेंकती हैं। न हमारी सरकार के पास और न ही कंपनियों के पास इतना धन और संसाधन है कि वे इस जहरीले उत्सर्जन का इस तरह से प्रबंधन करें कि वह जिंदगियों के लिए खतरनाक न हो। यूनियन कार्बाइड ने एक दिन में हजारों लाशों का ढेर लगा दिया था, लेकिन आज हवा और पानी में धीरे-धीरे फैल रहे जहर से लोग असंख्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं और धीमी गति से मर रहे हैं।

भोपाल गैस त्रासदी के पच्चीस साल बाद आज उस घटना से यही पाठ सीखने की जरूरत है। और यह सीख साल में एक बार नहीं, बल्कि हर दिन सीखनी है। हर दिन नया कदम उठाना है। हमें ऐसा विकास नहीं चाहिए, जिसे हम संभाल न सकें। इस देश और राज्य की सरकार को चाहिए कि वे इस यथार्थ को नकारें नहीं। उससे मुंह नहीं चुराएं और जितनी जल्दी संभव हो, भोपाल की मिट्टी और पानी को कीटनाशक मुक्त करने का प्रयास करें। इसके लिए केंद्र सरकार पर भी दबाव डालें।
जापान के मीना-माटा में मरकरी का जहर फैला था। लेकिन वे दुनिया के अमीर देश थे। उन्होंने खूब सारा पैसा लगाया और पूरी तरह नहीं तो भी काफी हद तक उन दुर्घटनाओं के प्रभाव को दूर करने में सफल रहे। लेकिन सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उन देशों ने अपना विकास तो किया, लेकिन बाकी दुनिया को तबाह कर दिया। पूरी दुनिया का धन और संसाधन लूटकर वे अपने यहां सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम कर रहे हैं, लेकिन उनके विकास की हवा में जो जहर बहकर आ रहा है, वह तीसरी दुनिया के देशों को तबाह कर रहा है।

विकास का यही समीकरण हमारे अपने देश और समाज में भी लागू होता है। आज जो विकास हो रहा है, उसमें समाज का हर व्यक्ति हिस्सेदार नहीं है। वह सिर्फ थोड़े से लोगों के हितों और सुरक्षा के बारे में सोचता है। पूरी दुनिया के सामने आज जो सबसे बड़ी समस्या मुंह बाए खड़ी है, वह है जलवायु परिवर्तन। शायद हमें इस बात का एहसास नहीं है कि आने वाली पीढ़ियों के लिए हम बहुत भयावह दुनिया बना रहे हैं। हम जंगल काट रहे हैं, इमारतें खड़ी कर रहे हैं, सड़कों को हमने गाड़ियों से पाट दिया है और इस सबको नाम दिया है - विकास। यह विकास विनाश की सीढ़ी है। अगर कल हमारे पास पीने के लिए साफ पानी और सांस लेने के लिए हवा ही नहीं होगी तो ऐसे विकास का हम क्या करेंगे? यह विकास जिनके लिए हो रहा है, उन्हीं की जिंदगियों को बचा सकने में सक्षम नहीं है। विकास उर्फ विनाश के एक नहीं, बल्कि असंख्य नतीजे हमारे सामने हैं। धरती पर जल संकट तेजी से बढ़ रहा है। अव्वल तो लोगों तक पर्याप्त मात्रा में पानी पहुंचता ही नहीं है और जो पहुंचता भी है, उसकी निकासी की समुचित व्यवस्था नहीं होती।

उस पानी को किस तरह रिसाइकिल कर उसका पुन: इस्तेमाल किया जा सके, यह हमारे लिए कोई परेशान करनेवाला सवाल नहीं है। क्या इतनी वजहें पर्याप्त नहीं हैं कि हमें इस विकास के बारे में फिर से सोचना चाहिए? हम विकास के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन ये तो सोचना होगा कि इस विकास की मंजिल क्या है? आखिरकार यह हमें कहां लेकर जा रहा है? जिस विकास का नतीजा यूनियन कार्बाइड और ऐसी ढेरों धीमी गति से घट रही दुर्घटनाओं के रूप में हमारे सामने आ रहा हो, उस विकास की हमें कोई जरूरत नहीं है।

सरकार को यूनियन कार्बाइड के खिलाफ भी सख्त कदम उठाना चाहिए। 1978 में हुए समझौते काफी नहीं हैं। आज भी वहां जहर मौजूद है और सरकार को चाहिए कि वह कंपनी के खिलाफ कड़े कदम उठाए। तमाम औद्योगिकीकरण के बावजूद भोपाल में आज भी थोड़ी हरियाली बाकी है। अत: इससे पहले कि भोपाल दिल्ली हो जाए और फिर दिल्ली को थोड़ा बेहतर बनाने की कवायद हो, हमें भोपाल को दिल्ली बनने से रोकना चाहिए। सार्वजनिक यातायात की बढ़िया व्यवस्था करनी चाहिए ताकि लोग निजी गाड़ियों का इस्तेमाल न करें। पूरे शहर में साइकिल चलाने वालों के लिए अलग से ट्रैक बनाने चाहिए और साइकिल को प्रोत्साहित करना चाहिए। हम ऐसे आधुनिक शहरों का निर्माण करें, जो विनाश नहीं, सचमुच विकास की ओर अग्रसर हों, जहां समानता हो, समाज का हर व्यक्ति विकास में भागीदार हो, सभी को मनुष्य समझा जाए और सभी को समानता का दर्जा मिले। जो समाज अपने सभी मनुष्यों को साथ लेकर नहीं चलता, वह कभी आधुनिकता और उन्नति के पायदानों पर आगे नहीं बढ़ सकता।

भोपाल में आखिर किसे मिला न्याय?


भोपाल की अदालत ने छब्बीस साल पुरानी दुनिया की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना के गुनहगारों पर जो फैसला सुनाया है उस पर तो भोपाल के ताल में डूब मरने का मन करता है।
भोपाल गैस कांड के 25 साल बाद सोमवार को सीजेएम कोर्ट का फैसला आया है। इसमें यूनियन कार्बाइड कंपनी के तत्कालीन आठ अधिकारियों को लापरवाही से हुई मौतों के लिए दोषी ठहराया गया है। इन्हें जिस धारा के तहत दोषी साबित किया गया है, उसके तहत ज्यादा से ज्यादा दो साल जेल में रहना पड़ेगा। या फिर, केवल जुर्माना भर कर भी ये छुट्टी पा सकते हैं।
एक तो इतनी देर से आया फैसला और वह भी काफी कम सजा वाले प्रावधान में दोषी ठहराया जाना। हर ओर से फैसले के खिलाफ नाराजगी और आक्रोश के सुर सुनाई दे रहे हैं। गैस कांड पीडि़तों की नाराजगी खास तौर पर बढ़ी हुई है। वे कह रहे हैं कि उन्हें इंसाफ की उम्मीद नहीं रह गई है, फिर भी उनकी लड़ाई अभी जारी रहेगी। सोमवार को भी उन्होंने भोपाल में अदालत के बाहर जमा होकर अपने गुस्से का इजहार किया।
सरकारी घोषणाओं और सरकार से जुड़ी एजेंसियों और अस्पतालों के रिकार्ड पर जाएं तो 1984 की तीन दिसंबर की रात को यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से निकलने वाली मिथाइल फाइसो साइनेट गैस से मरने वालों की संख्या चार से पांच हजार के बीच है।
इसके अलावा लाखों लोग वे हैं जो मरे नहीं है मगर जो दशा उनकी हुई है, उसमें दिन रात मरने की कामना करते हैं। इन लोगों को पहले मुआवजा देने में तमाम तरह के कानूनी धर्म संकट आये औऱ फिर जबतक मुआवजा मिला तब तक और बहुत सारे लोग मर चुके थें। इस गैस का असर खत्म करने के लिए सोडियम थायो सल्फेट का इंजेक्शन भोपाल में कम पड़ गया था औऱ क्योंकि इस त्रासदी में कोई महामहिम नहीं मारा गया इसलिए जहाजों से न दवा भोपाल पहुंचाई गयी और अगर पूरे देश में कम पड़ रही थी तो आयात की गयी।
४ दिसंबर १९८४ को यूनियन कार्बाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को भोपाल के पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था मगर धाराएं इतनी कमजोर लगाई गयीं की तुरंत पच्चीस हजार रुपये में जमानत हो गयी। जमानत के दस्तावेजों ने एंडरसन ने कसम खायी थी की वे जब भी बुलाया जाएगा हाजिर होंगे मगर अब कई बार वारंट जा चुका है औऱ एंडरसन अमेरिका के एक द्वीप पर बुढ़ापा बिता रहे हैं। उनके खिलाफ जितने सम्मन गये शुरू मे तो स्वीकार भी किए गये मगर फिर अमेरिका सरकार ने ही भारत सरकार को लिखकर दे दिया कि आपका अपराधी और हमारा नागरिक पता बदल चुका है। भारत सरकार ने पहली बार फरवरी उन्नीस सौ पचासी में सवा तीन अरब डॉलर का मुआवजा अमेरिका की एक अदालत में यूनियन कार्बाइड से मांगा।
अमेरिकी जहां देना पड़ता है वहां बहुत चालाक होते हैं। फिलहाल अमेरिका सरकार डेविड कोलमेंन हेडली को भारतीय टीम के सामने तो पेश कर रही है मगर साथ में यह कानून भी जोड़ दिया है कि जिस सूचना से अमेरिकी सरकार का अहित होता है वह भारत को नहीं दी जाएगी। इसी लिए हेडली को सलाह देने के लिए अमेरिकी एफबीआई का वकील हमेशा रहता है। मगर इसी देश के कानून ने कहा कि जब हादसा भारत में हुआ है और भोपाल में हुआ है तो सुनवाई भी भारत यानी भोपाल की अदालतों में होनी चाहिए । अमेरिकी सुविधावाद का यह एक उदाहरण है जिसमें हम तब भी कैद थे और आज भी कैद हैं। एटमी करार के दौरान एटमी जिम्मेदारी बिल का प्रावधान है मगर उसमे ये भी कहा गया है कि अगर अमेरिका द्वारा दिए गया एटमी इंधन से किसी किस्म का हादसा होता है तो पांच सौ करोड़ रुपये का भुगतान भारत की सरकार करेगी। मतलब मरेंगे भी हम और आप औऱ पैसा भी हमारे और आपके जेब से जाएगा।
सुप्रीम कोर्ट के वकील संजय पारिख ने साफ कहा कि 25 साल बाद आए इस फैसले का भोपाल गैस कांड पीडि़तों के लिए कोई मायने नहीं है। उन्होंने फैसले में दो बड़ी कमजोरियां गिनाईं। एक तो सीबीआई ने केस दमदार तरीके से नहीं लड़ा और दूसरा, यह फैसला भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली पर बड़ा सवाल खड़ा करता है। पारिख के अनुसार सीबीआई धारा 304 ए (लापरवाही से मौत का मामला) को 304-2 (लापरवाही के बारे में जानते हुए भी उसे गंभीरता से नहीं लेना) में परिवर्तित कर सकती थी। आरोपपत्र में साफ जिक्र था कि अधिकारियों को पता था कि यूनियन कार्बाइड प्लांट में किसी बड़े हादसे को न्यौता देने लायक खामियां मौजूद हैं। इसके बावजूद सीबीआई ने जरूरी सुबूत जुटाने में मुस्तैदी नहीं दिखाई।
वारेन एंडरसन एक कातिल के तौर पर भारत का भगौड़ा है। इस बात पर सिर्फ आश्चर्य ही होता है कि एंडरसन को वापस लाने की कभी कोई गंभीर कोशिश नहीं की गयी। दाउद इब्राहीम पर तो ज्यादा से ज्यादा तीन सौ चार सौ लोगों की मौत का इल्जाम है मगर वारेन एंडरसन तो एक रात में हजारों लोगों के मरने औऱ लाखों के बर्बाद हो जाने का जिम्मेदार है। इसके प्रति इतनी प्रचंड रियायत क्यों ? क्या इसलिए कि जल्दी ही खुली अर्थव्यवस्था का आगाज हो चुका था और हम पूरी दुनिया को यह संदेश देना चाहते थे कि हम उद्योगपतियों और निवेशकों के साथ, अपने नागरिकों की कीमत पर ही सही, कितना रियायत बरतते हैं।
फरवरी उन्नीस सो नवासी में यूनियन कार्बाइड औऱ भारत सरकार के बीच अदालत से बाहर एक सौदा हुआ औऱ भोपाल के सारे शोक की कीमत चार करोड़ सत्तर लाख डॉलर लगाई गयी जो यूनियन कार्बाइड ने भारत सरकार को सौंप भी दी। भारत सरकार को दिल्ली से भोपाल तक यह पैसा पहुंचाने में तीन साल लग गये फिर भी इसका एक ही हिस्सा पहुंचा जिसका एक हिस्सा भोपाल के कुछ असली औऱ कुछ फर्जी गैस शिकारों को मिला। उन्नीस सौ बानवे में ही वारेन एंडरसन को फरार घोषित किया गया औऱ इतना सनसनीखेज कानूनी मामला चल रहा था फिर भी यूनियन कार्बाइड मेकलोड रसेल नाम की कोलकात्ता की एक कंपनी को बिक गयी। इस कंपनी का नाम पहली औऱ आखिरी बार सुना गया था। उन्नीस सौ निन्यान्वे में एक औऱ कमाल ये हुआ कि यूनियन कार्बाइड को दुनिया की सबसे रसायन बनाने वाली कंपनियों में से एक अमेरिका की डो जोंस ने खरीद लिया। अब आपको समझ में आ रहा होगा कि वारेन एंडरसन पर अमेरिका का रक्षा कवच क्यों मौजूद है।
गैस कांड पीडि़तों के हक की लड़ाई लडऩे वाले सत्यनाथ सारंगी ने भी सीजेएम कोर्ट के फैसले पर सख्त नाराजगी जताई। उन्होंने कहा कि 25 साल बाद, आज आए फैसले में इंसाफ कहीं नहीं है। मुख्य अभियुक्त कानून की पकड़ से बाहर है। हमें पूरे समय यूनियन कार्बाइड से ज्यादा अपनी सरकार से लडऩा पड़ा। सरकार लगातार कंपनी को मदद करती रही और मुख्य अभियुक्त (वारेन एंडरसन) को कानून के कठघरे में खड़ा करने की एक कोशिश नहीं की गई।
2001 में जब एनडीए सरकार थी तब तो यूनियन कार्बाइड ने घोषित ही कर दिया कि जो पैसा उसने मुआवजे के तौर पर दिया है, उसे इंसानियत की खैरात मान लिया जाय वरना यूनियन कार्बाइड नहीं मानता की इस मामले में वह दोषी है। वारने एंडरसन को भारत वापस लाने के लिए आखिरी सम्मन अमेरिकी सरकार के जरिए भारत ने 2003 में दिया था। सात साल से भारत सरकार खामौश है। आज का फैसला न न्याय की जीत है और न इस हादसे के शिकारों के लिए राहत की कोई बात है। कुछ अभियुक्त तो स्वर्ग सिधार चुके हैं। ज्यादातर सत्तर से ऊपर उम्र के हैं। केशव महेंद्रा तो पचासी के हो गये औऱ अभी ये सिर्फ जिला अदालत का फैसला है। हाइकोर्ट से होते हुए सुप्रीम कोर्ट और फिर जरुरी हुआ तो समीक्षा बेंच के सामने अपील होगी औऱ दो साल अधिकतम की ये सजा का वक्त इसी में बीत जाएगा। भोपाल को न्याय नहीं मिला। भोपाल को एक ऐसा अभिशप्त अन्याय मिला है जिसने दर्द को फिर जिंदा कर दिया है। इस अन्याय के लिए हमसब जिम्मेदार हैं। धाराएं तय करने वाले, मुआवजे की राजनीति करने वाले, अमेरिका पर एंडरसन को सौंपने में लापरवाही बरतने वाले और देश के वे सब नागरिक जो खिड़कियों से आग की लपटे देखते हैं। अदालत के सामने जो रखा गया था फैसला उसी पर आया है मगर सवाल ये है कि अदालत के सामने पूरा सच क्यों नहीं रखा गया।

Friday, June 4, 2010

पश्चिम बंगाल बना दुल्हनों का बाजार

बंगाल के सीमावर्ती जिलों में ओ पार यानी बांग्लादेश से लाई जाने वाली लड़कियां कटी पतंग की तरह होती हैं, जिन्हें लूटने के लिए कई हाथ एक साथ उठते हैं। इनमें होते हैं दलाल, पुलिस, स्थानीय नेता और पंचायत प्रतिनिधि। अवैध रूप से सीमा पार से आने वाली इन लड़कियों की मानसिक हालत बलि के लिए ले जाई जा रही गाय की तरह होती है। एक समय था, जब स्थानीय स्तर पर इनका अवैध पुनर्वास आसान होता था। स्थानीय लोग इन घुसपैठिया परिवारों से शादी का रिश्ता नहीं कायम करना चाहते हैं और इन्हें बंगाल से बाहर घर बसाने का खतरा उठाना ही पड़ता है। सीमावर्ती जिलों के मूल बंगालियों में धीरे-धीरे उभरते आक्रोश ने इनकी परेशानी और बढ़ा दी है। पिछले माह बांग्लादेश के तालाथाना से लाई गई तपती मंडल के साथ कुछ ऐसा ही हुआ। बशीरहाट के चारघाट बाछारपाड़ा की एक विधवा राधारानी ने अपने बांग्लादेशी रिश्तेदारों की मदद से उसे सीमा पार कराया। पड़ोसी तारापद विश्वास ने हरियाणा के दूल्हे मुकेश चोमार की व्यवस्था की। पहले तो दोनों की कोर्ट में शादी कराने की कोशिश की गई, पर तपती के पास भारतीय नागरिकता का कोई सबूत न होने से कामयाबी नहीं मिली।
मां-बाप की गरीबी कुछ लड़कियों-बच्चों की बदकिस्मती बन गई है। ख़ुशहाल जिंदगी का सपना दिखाकर उनके अरमान तरह-तरह से रौंदे जा रहे हैं। सरकार भी जानती है कि यह गोरखधंधा कौन कर रहा है, लेकिन उसने आज तक सिर्फ चिंता ही जताई, किया कुछ भी नहीं। आखिर वजह क्या है?
राधारानी के घर में दोनों की शादी का मंडप सज गया, पर घबराई तपती ने हरियाणा के दूल्हे से शादी करने से इंकार कर दिया और पुलिस से शिकायत कर दी। पुलिस को शक पहले से था और इसकी वजह भी थी, क्योंकि तारापद और राधारानी के घरों में साल में दर्जनों शादियां होती थीं। तारापद के पास एक क_ा भी जमीन नहीं है, पर उसका पक्का घर बन रहा था।
एक बात खास थी कि इन शादियों में दूल्हे भी बंगाल के नहीं, बल्कि मुख्यत: उत्तर प्रदेश और हरियाणा के होते थे, जबकि ज़्यादातर दुल्हनें बांग्लादेश से लाई जाती थीं। 24 मार्च को जब इस सच से परदा हटा तो दूल्हा-दुल्हन के साथ चार अन्य लोगों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। पुलिस ने जब कड़ाई से पूछताछ की तो दूल्हे ने शादी के बहाने देह व्यापार के इस गोरखधंधे का खुलासा किया। दूल्हा जेल में है और अवैध रूप से सीमा पार करने वाली तपती भी सलाखों के पीछे है। जब मामले की छानबीन की तो कई तरह के सच सामने आए। वारदात के बाद पुलिस ने तारापद एवं उसकी पत्नी को मुख्य अभियुक्त बनाया। शादी का मंडप राधारानी के घर में बना था, पर उसे अभियुक्त नहीं बनाया गया। तारापद की पत्नी ने कहती है कि भगीरथ सरदार, जयंत मंडल, बिमल बाइन एवं हर्षित विश्वास ने पहले पुलिस बुलाने की धमकी देकर उसके पति से पैसे ऐंठने की कोशिश की, पर बात न बनते देख पुलिस को बुला लिया।
चारघाट की महिला समिति की सदस्य शहनाज बेगम ने गांव के कई परिवारों का हवाला देते हुए बताया कि हरियाणा के दूल्हों से शादी करके लड़कियां किस तरह चैन की जिदगी गुजार रही हैं। पुलिस ने अपना हिस्सा न मिलने पर यह कार्रवाई की है। गांव के लोगों ने भी दबी ज़ुबान से तस्करी की बात स्वीकार की, क्योंकि राधारानी का घर एक तरह से मैरिज हॉल बन गया था। जब हमने शादी के बिचौलिए से संपर्क किया तो वह हरियाणा का नहीं, बल्कि गोरखपुर का रामाश्रय निकला। चोमार के बारे में उसने कोई जानकारी होने से ही इंकार कर दिया। इस तरह शक पूरी तरह यकीन में बदल गया है कि कहीं इन शादियों में अंतरराज्यीय गिरोह का तो हाथ नहीं है?
24 परगना के ही मछलंदपुर से पांच किलोमीटर दूर देगंगा थाना इलाके की कलसुर पंचायत की झूमा को भी उसका दूर का रिश्तेदार वशीर अली काम दिलाने के बहाने लेकर फरार हो गया। उसकी शादी पहले हो चुकी थी, इसलिए मां टूनू बीबी को संदेह हुआ और उसने अपहरण की रिपोर्ट दर्ज करा दी। पुलिस ने इस मामले में लड़के के पिता आकाश मंडल, उसकी पत्नी, ससुर अबुस मंडल और रिश्तेदार बाबू मंडल को गिरफ्तार कर लिया। लड़की ने किसी दबाव में कहा कि वह अपनी मर्जी से गई थी, लेकिन पुलिस ने नाबालिग बताते हुए उसके बयान को खारिज कर दिया। पुलिस के कड़े रुख की वजह से अब तक चारों की जमानत नहीं हो पाई है। झूमा की मां टूनू बताती है कि अगर काम दिलवाने का इरादा था तो मुझे बताया क्यों नहीं गया?
अब दलालों का गिरोह टूनू पर मामला वापस लेने के लिए दबाव बना रहा है। 24 परगना के कई इलाके के गांवों में दलालों का जाल फैला हुआ है। इस धंधे में दलाल कई स्तर पर काम करते हैं। महिला दलाल बतौर चूडि़हारिन और दूसरे सौंदर्य प्रसाधन बेचने के बहाने उन घरों की तलाश करती हैं, जिन घरों में जवान लड़कियां होती हैं। इनमें खासकर गरीब घरों की लड़कियों के अभिभावकों से वे योग्य दूल्हे खोजने का प्रस्ताव रखती हैं। शुरुआती हामी भरने के बाद उन अभिभावकों को उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब के अच्छे एवं ख़ुशहाल परिवारों के युवक दिखाए जाते हैं। लड़का दिखाने की रस्म के समय उसकी आय को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। गरीब अभिभावक भी बिना किसी खर्च के शादी की चिंता से मुक्त होने के लोभ में फंस जाते हैं और हामी भर देते हैं। उनसे दहेज नहीं मांगा जाता।
शादी होने के बाद दुल्हनों की कई श्रेणियां हो जाती हैं। एक श्रेणी वह होती है, जिसमें लोग उन्हें सिर्फ पत्नी के रूप में रखते हैं। बताने की जरूरत नहीं कि खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार में कुछ परिवार पीढिय़ों से बहिष्कृत होते हैं। यानी दो पीढ़ी पहले भी परिवार के किसी सदस्य ने अगर किसी विजातीय से शादी की हो, तो उससे भात का रिश्ता नहीं होता। यहां के देगंगा प्रखंड के हसरतुल्ला ने बताया, जो अपनी बेटी मोती बीबी और दामाद के साथ मिलकर महिलाओं की तस्करी का धंधा करता था। शाहिदा नामक लड़की द्वारा अपनी रामकहानी बताने के बाद उसका पर्दाफाश हुआ था। हालांकि पिछले दो-तीन सालों से वह इस धंधे को छोड़ चुका है। ज़्यादातर फर्जी दूल्हों का मकसद होता है, दुल्हनों को कुछ समय बाद बेच देना। कुछ अपनी आमदनी का जरिया बनाने के लिए उन्हें देह व्यापार में लगा देते हैं। शादी के बाद ज़्यादातर दुल्हनों पर अत्याचार का सिलसिला शुरू हो जाता है। उन्हें पहले एक सेलनुमा कमरे में बंद रखा जाता है और हर समय निगरानी रखी जाती है। उन्हें पूरी तरह तोडऩे के लिए मारा-पीटा भी जाता है। जो दुल्हन टूट जाती है, उसके लिए सुख-सुविधाओं के दरवाजे खुलने लगते हैं।
सीमावर्ती इलाके में काम कर रही स्वयंसेवी संस्था सेंटर फॉर कम्युनिकेशन एंड डेवलपमेंट (सीसीडी) की सहयोगी संस्था नारी विकास मंच ने कुछ सालों पहले यानी 90 के दशक में ऐसी कई लड़कियों को मीडिया के सामने पेश किया था। इनमें दो बहनें मरजीना और लाल बीबी भी थीं। एक ही मंडप में इनकी शादी करके पिता माछार अली ख़ुश हुआ कि एक बड़ी चिंता दूर हो गई, पर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जि़ले में रसूलपुर गांव के दो दूल्हे शेरवानी में सजे दलाल थे। देह की मंडी के दलाल। सहारनपुर रेलवे स्टेशन पर उतरते ही दूल्हों का नक़ाब हट गया और दलाल-दर-दलाल इनके बिकने का सिलसिला शुरू हो गया। 10 हज़ार से लेकर 50 हज़ार रुपये तक दोनों बहनें कई बार बिकीं। आखिऱ में एक दिन आज़ाद होकर वे अपने मायके आ गईं। उत्तर 24 परगना के उत्तर चौरासी गांव की मरज़ीना एवं लालबीबी की तरह पास के चिडिंगा गांव की शाहिदा भी थी। देगंगा के खेजूर डांगा इलाके की माबिया को फिरोज़ा बीबी नामक दलाल ने बेचा था। इसी तरह मुर्शिदाबाद की मेहरुसिन्ना और स्वरूपनगर की काजल सरदार को भी शादी का झांसा देकर बेच दिया गया।
नारी विकास मंच ने जिले की कुल 25 लड़कियों का पता लगाया है, जिनमें फातिमा (बेटी-अजित अली, उत्तर चौरासी), आयरा (बेटी-मोहर अली, उत्तर चौरासी), जहांनारा (बेटी-हानिफ अली, उत्तर चौरासी), सुप्रिया (बेटी-अब्दुल रऊफ, उत्तर चौरासी), पारुल (बेटी- मेछेर अली, माटीकोमरा), बेगम बीबी (बेटी-खैरुद्दीन मंडल, माटीकोमरा), आसुरा ख़ातून (बेटी-अब्दुर्रहमान, चिडिंगा), आरजीना ख़ातून (बेटी-फकीर अहमद, चिडिंगा), मुमताज (बेटी-शमशेर मिस्त्री, चिडिंगा), विजया (बेटी-छोरे मोमिन, दक्षिण चौरासी), फिरोज़ा (बेटी-जमात अली, उत्तर चौरासी), बिजली कर्मकार (उत्तर चौरासी), मोमना (बेटी- जमात अली खरदार, उत्तर चौरासी)। सीमा से सटे होने के कारण बंगाल के उत्तर 24 परगना में ऐसे मामले धड़ल्ले से हो रहे हैं। जबकि मुर्शिदाबाद बच्चों की तस्करी के लिए कुख्यात होता जा रहा है। अरब देशों में ऊंट दौड़ और मस्जिदों के सामने भीख मंगवाने के लिए इस जिले से भी अपंग बच्चों की तस्करी की जाती है। 1997 में सउदी अरब से सैकड़ों अपंग बच्चों को मुक्त कराकर भारत वापस भेजा गया था। उनमें से ज़्यादातर मुर्शिदाबाद जिले के थे। सीसीडी के शमसुर हक बताते हैं कि तस्करों का गिरोह पूरी तरह कब्जे में आ चुकी दुल्हनों को दोबारा मायके भेजकर यह प्रचारित करता है कि वे वहां कितनी सुखी हैं। इससे दलालों को अगला शिकार तलाशने में सुविधा होती है। कोलकाता की चेतला इलाके की रीता जायसवारा (14 साल) को उसकी परिचित माया बारुई ने बेहला में काम दिलवाने के बहाने से फुसलाया। हालांकि उसने उसे उत्तर प्रदेश भेज दिया, जहां उसे आर्केस्ट्रा कंपनी में नाचने पर मजबूर किया गया। रीता को कोलकाता पुलिस ने उत्तर प्रदेश के कुशीनगर से मुक्त कराया।बर्धवान विश्वविद्यालय के सामाजिक विज्ञान विभाग की ओर से वुमेन स्टडीज रिसर्च सेंटर की छानबीन से पता चला कि शादी के नाम पर बंगाल से लड़कियों की खरीद में अंतरराष्ट्रीय तस्कर गिरोह शामिल है। संगठन की प्रमुख निदेशक इशिता मुखोपाध्याय कहती हैंं कि दहेज न लगने की सुविधा की वजह से अभिभावक अपनी कमसिन बेटियों को भी ब्याह देते हैं। 2001 की जनगणना और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के मुताबिक, बाल विवाह के राष्ट्रीय औसत के मुकाबले बंगाल की दर 39.16 है। नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, महिलाओं की तस्करी के मामले में नई दिल्ली और पश्चिम बंगाल सबसे ऊपर हैं।

गोल्फ कोर्स:कौन है योजना का मास्टर माइंड?



भूमाफियाओं, बिल्डरों और अधिकारियों की सांठगांठ के लिए बदनाम हो चुके इंदौर में कोई भी योजना और परियोजना ऐसी नहीं है जिसके ऊपर दाग न लगा हो। शायद यही कारण है कि यहां जब भी कोई योजना आकार लेती है उसमें भ्रष्टाचार की बू आने लगती है। ताजा मामला ग्रीन बेल्ट की जमीन पर गोल्फ कोर्स के निर्माण का है,जिसने इंदौर डेवलपमेंट अथॉरिटी के वर्तमान अध्यक्ष और संभागायुक्त को वहां के नेताओं और किसानों की आंख की किरकिरी बना दिया है। हालांकि ग्रीन बेल्ट की जमीन पर गोल्फ कोर्स के निर्माण की योजना का मास्टर माइंड कौन है यह तो स्थानीय नेता भलीभांति जानते हैं लेकिन उनके विरोध से तो एक बात स्पष्ट है कि आईडीए की यह महत्वाकांक्षी योजना कभी साकार नहीं हो सकेगी। अब सवाल यह उठता है कि आईडीए को इस तरह की विवादास्पद योजना बनाने की कैसे सूझी?
जब राज्य सरकार ने भोपाल विकास प्राधिकरण को छोड़कर प्रदेश के सभी विकास प्राधिकरणों को भंग कर दिया तब इनका कार्यभार संभागायुक्तों पर आ गया। इंदौर डेवलपमेंट अथॉरिटी का कार्यभार संभागायुक्त के हाथों में जाने के बाद बोर्ड की पहली बैठक में इंदौर को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए गोल्फ कोर्स की इस योजना को तैयार किया गया। स्थानीय लोगों का आरोप है कि पानी से लबालब चार गांवों की हजारों एकड़ जमीन को भू-माफिया के हाथ में सौंपने के लिए यह योजना बनाई गई है। इंदौर के मास्टर प्लान में ये जमीन ग्रीन बेल्ट की बताई गई है जिसे ये कहकर 'संभालनेÓ की कोशिश की जा रही है कि यदि 'देखरेखÓ नहीं की गई तो वहां अतिक्रमण हो जाएगा।
आईडीए बोर्ड ने फैसला लिया है कि कैलोद करताल, पीपल्याराव, आशापुरा और बिलावली गांव की 914 हेक्टेयर (2258 एकड़) ग्रीन बेल्ट की जमीन पर मास्टर प्लान में स्वीकार्य 13 गतिविधियों के गोल्फ कोर्स, हॉर्स राइडिंग स्कूल, वाटर एंड एम्यूजमेंट पार्क, क्लब रिसॉर्ट्स, साइंस सेंटर, कन्वेंशन सेंटर, द्ब्रलोरीकल्चर, नर्सरी, रेस्टोरेंट, नैचरोपैथी सेंटर, आर्ट गैलरी, स्विमिंग पूल और चिडिय़ाघर का संचालन किया जाए। इसके लिए राज्य शासन के डायरेक्टोरेट आफ इंस्टिट्यूशनल फाइनेंस से प्रस्ताव तैयार करवाया जाएगा। उसके बाद शासन द्वारा तयशुदा कंसल्टेंट्स में से किसी एक से संपूर्ण प्रस्ताव तैयार करवाकर निजी निवेश के लिए टेंडर जारी किए जाएंगे। इस तरह 914 एकड़ ग्रीन बेल्ट की जमीन को निजी भागीदारी से बचाया जाएगा। यहीं सैद्धांतिक स्वीकृति दी गई है कि योजना को आकर्षक बनाने के लिए ये प्रस्ताव भी रखा जाएगा कि ग्रीन बेल्ट की कुल जमीन के 5 फीसदी हिस्से पर निर्माण की अनुमति है, लिहाजा इस पर घर या फार्म हाउस भी बनाने की अनुमति दी जाए। बड़ा सवाल है कि 518 करोड़ रु. का निवेश करके ऐसी कौन सी योजना है जिसमें 914 हेक्टेयर जमीन के मात्र 5 फीसदी हिस्से पर निर्माण करके 1 फीसदी की दर का मासिक फायदा लिया जा सकता है। मास्टर प्लान में स्वीकार्य 13 में से एक भी गतिविधि ऐसी नहीं है कि उससे मासिक 5. 20 करोड़ रु. की आमदनी हो सके, सिवाय वहां घर बनाने के। असल खेल भी इसी प्रस्ताव में है। ये योजना और कुछ नहीं, बल्कि तालाब के आसपास की अति उपजाऊ और पानी से लबरेज जमीन को किसानों के हाथों से छीनकर चंद रईसों के हाथ में सौंपने की साजिश है। इंदौर में जमीन के कारोबारियों के मुताबिक जमीनों के सबसे ज्यादा भाव खंडवा रोड और इससे लगे इलाकों में ही हैं। इसका कारण साफ है। यहां लिंबोदी, बड़ा बिलावली और छोटा बिलावली जैसे तालाब हैं जो पूरे इलाके में भूमिगत जलस्तर बनाए रखते हैं। लेकिन इसी इलाके में सबसे घना ग्रीन बेल्ट भी है जो जमीन के कारोबारियों की आंख की किरकिरी बना हुआ है। अब इसी ग्रीन बेल्ट को सरकारी प्रक्रिया से हड़पने का प्रस्ताव तैयार करवाया गया है।
मास्टर प्लान के मुताबिक ग्रीन बेल्ट के लिए 4446 एकड़ जमीन आरक्षित है। इंदौर विकास प्राधिकरण ने इसमें से लगभग 1854 एकड़ जमीन पर रीजनल पार्क प्रोजेक्ट की योजना बनाई है। जबकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान यह बात कई बार कह चुके हैं कि किसानों की जमीन तभी अधिग्रहित की जाएगी जब बहुत ही आवश्यक हो अन्यथा किसानों की जमीन नहीं खरीदी जाएगी। इस पूरे प्रोजेक्ट में केवल 324 एकड़ सरकारी जमीन का हिस्सा रहेगा। इसमें से भी 50 एकड़ जमीन पर फिलहाल अतिक्रमण कर लिया गया है। 1500 एकड़ निजी मालिकाना हक की है और 90 एकड़ पर फिलहाल बसाहट है। यानी इन लोगों को उजाड़कर ही यह प्रोजेक्ट लाया जा सकता है। यदि आईडीए किसानों से मनमाने दाम पर जमीन छीन लेता है तो उनके साथ नाइंसाफी है। वहीं कुछ भूमाफियाओं के दबाव में मार्केट दर से मुआवजा देता है तो सरकारी खजाने पर डाका है। रीजनल पार्क का एक बड़ा हिस्सा बायपास के दूसरी ओर भी लगता है मगर आईडीए की जो योजना है वह सिर्फ बायपास के एक ही ओर है। सूत्रों के मुताबिक गोल्फ कोर्स योजना का जो खाका तैयार किया गया है उसमें बायपास के दूसरी ओर की जमीन को इस परियोजना से दूर ही कर दिया गया है। आईडीए की यह बहुप्रशिक्षित योजना परवान चढ़ती इससे पहले ही इसका चहुं ओर विरोध शुरू हो गया। प्रदेश युवक कांग्रेस अध्यक्ष जीतू पटवारी सहित इंदौर के लगभग सभी विधायकों ने इस योजना का विरोध शुरू कर दिया। वहीं इस क्षेत्र के विधायक जीतू जिराती भी विधानसभा में इसका विरोध दर्ज करा चुके हैं। श्री जीराती ने बताया कि हमारा विरोध योजना को लेकर नहीं है बल्कि योजना के स्थान को लेकर है।
उन्होंने कहा कि जिस क्षेत्र पर यह योजना बनाने की बात की जा रही है वह इंदौर की सबसे अधिक उपजाऊ भूमि है। इस भूमि को संरक्षित करने और ग्रीन बेल्ट को बरकरार रखने के नाम पर आईडीए यहां गोल्फ कोर्स बनाना चाह रहा था। लेकिन इससे यहां के हजारों परिवार बेदखल होते और उन्हें इतनी उपजाऊ भूमि और कहीं नहीं मिल सकती थी। अगर आईडीए गोल्फ कोर्स बनाना चाहता है तो इंदौर के पास ऐसी बहुत सी जमीन है जो पथरीली है और वहां खेती भी नहीं होती है। आईडीए उस जमीन का विकास कर गोल्फ कोर्स बना सकता है। जहां तक ग्रीन बेल्ट का सवाल है तो इस जमीन पर खेती होने के कारण वैसे भी हरियाली छाई रहती है। उन्होंने बताया कि आईडीए को मास्टर प्लान के तहत जिन जमीन को ग्रीन बेल्ट के तहत दर्शाया गया हैै। उनमें से उन जमीनों को हरियाली के लिए अधिग्रहित करना चाहिए जिस पर धड़ल्ले से अवैध निर्माण हो रहे हैं।
वहीं जब इस संबंध में शहर भाजपा अध्यक्ष एवं विधायक सुदर्शन गुप्ता ने बताया कि एक ओर जहां मुख्यमंत्री खेती को बढ़ावा देने और किसानों को व्यवसाय में लाभ पहुंचाने की बात कह रहे हैं, वहां यह योजना किसानों के पेट पर लात मारने जैसी है। इस मुद्दे को विधानसभा में मैंने और जीतू जिराती ने रखा है। जिसे मुख्यमंत्री ने स्वीकार भी किया है। उन्होंने कहा कि इंदौर में 10-12 गोल्फ खिलाड़ी हैं उनके लिए हजारों किसानों के पेट पर लात मारना कहां तक उचित है। अगर आईडीए को गोल्फ कोर्स बनाना है तो सरकारी जमीन पर बनाए किसानों की जमीन पर ही क्यों? कांग्रेस प्रवक्ता और इंदौर के रहवासी केके मिश्रा ने बताया कि ये सारा खेल भूमाफियाओं का है इन्होंने ही इसे अंजाम दिया था और इन्हीं भूमाफियाओं ने इस योजना को कुछ दिनों के लिए ठंडे बस्ते में डाल दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि यह एक खास अधिकारी वर्ग का खेल है जो इंदौर में पदस्थ रहे हैं।
अंतत: 16 मई को शहर में हरियाली जैसे संवेदनशील मुद्दे और इससे जुड़ी योजना पर जमकर बहस हुई। संभागायुक्त बसंत प्रताप सिंह रीजनल पार्क योजना लेकर एसजीएसआईटीएस पहुंचे थे। उन्हें अपनी बात कहने का मंच वरिष्ठ नागरिक मंच ने उपलब्ध करवाया था। इस अवसर पर भू-माफियाओं के साथ मिलीभगत के कथित आरोपों पर संभागायुक्त काफी आहत नजर आए और बहुत सारा समय उन्होंने इस पर सफाई देने में लगाया। किसानों के विरोध के बाद उन्होंने माना यह प्रोजेक्ट संभव नहीं है। लगभग 25 साल के लंबे प्रशासनिक कैरियर का हवाला देकर बात शुरू की जो थोड़ी देर बाद शिकायती लहजे में तब्दील हो गई। उन्होंने दलील दी कि योजना उन्होंने एसी कमरे में बैठकर नहीं बनाई है, न ही मैं भू-माफियाओं के लिए काम कर रहा हूं। उन्होंने कहा उन्हीं किसानों की वही जमीन लेंगे जो किसान दे देंगे। किसान खुद ही इसमें भागीदार बन जाए तो सबसे बेहतर होगा कि किसान यदि खेती करता है तो हमें ग्रीन बेल्ट बचाने के लिए जमीन लेने की जरूरत ही नहीं है। योजना के स्वरूप को देखे तो पूरे प्रोजेक्ट में न सिर्फ ग्रामीणों को नुकसान होगा, बल्कि कस्तूरबाग्राम ट्रस्ट जैसी संस्थाओं को भी नुकसान उठाना पड़ेगा। गांधीवादी विचारों को पूरे देश में फैलाने का काम कर रहे इस ट्रस्ट की 100 एकड़ से ज्यादा जमीन भी प्रोजेक्ट में शामिल कर ली गई है। इसके कारण यहां रहकर गांधीवादी विचारों के साथ जीवनयापन कर रही सैकड़ों महिलाओं पर भी असर पड़ेगा।
हालांकि आईडीए की इस योजना को स्थानीय नेताओं के विरोध के बाद ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है, लेकिन आग अभी भी सुलग रही है। लोगों को यह भय सता रहा है कि भविष्य में भी अगर यह योजना लागू होती है तो फिर क्या होगा?