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भेड़ाघाट

Sunday, January 8, 2012

नौकरशाहों के निजी क्षेत्र प्रेम पर लगेगा अंकुश





निजी क्षेत्र का मोहपाश नौकरशाहों को वर्षो से अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। यही कारण है कि वर्ष 2001 के बाद से 100 से अधिक नौकरशाहों ने निजी क्षेत्र की नौकरी पकडऩे की खातिर सरकारी नौकरी से या तो स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली या फिर रिटायरमेंट के बाद निजी क्षेत्र का रूख किया है। कैरियर के बीच में नौकरी छोड़ देना आईएएस एवं आइपीएस अधिकारियों के लिए कोई नई बात नहीं है,लेकिन प्रशासनिक सेवा से रिटायर होकर निजी क्षेत्र में शानदार नौकरियां तलाशने वाले नौकरशाहों को तगड़ा झटका लगने वाला है। मौजूदा नियम के मुताबिक, सरकारी अफसर रिटायरमेंट के बाद, कम से कम एक साल तक निजी क्षेत्र में नौकरी नहीं कर सकते हैं। इस एक साल की अवधि को कूलिंग ऑफ पीरियड कहा जाता है। घोटालों की शृंखला से जूझती केंद्र सरकार इस अवधि को बढ़ाकर तीन साल करना चाहती है। केंद्रीय मंत्री वी नारायणस्वामी के नेतृत्व में कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय मौजूदा नियम में बदलाव को अंतिम रूप दे रहा है, ताकि जल्द ही उसे कैबिनेट से मंजूरी मिल सके।
ऐसे मामलों में हमेशा ही निहित स्वार्थ की संभावना बनी रहती है। हम इसे रोकना चाहते हैं। हम कूलिंग ऑफ पीरियड को फिर से तीन साल करना चाहते हैं। सात-आठ साल पहले इसे घटा कर एक साल कर दिया गया था। इस तर्क के पीछे यह सवाल छुपा हुआ है कि क्या आईएएस अफसरों को निजी क्षेत्र में काम करने की इजाजत दी जानी चाहिए? खासकर तब, जबकि लॉबिंग उसके काम का महत्वपूर्ण हिस्सा हो। हालांकि अपनी सीमाओं के बावजूद, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने सरकारी अफसरों की निष्ठा और आचार संहिता बनाए रखने के लिए अपने तई भरसक प्रयास किए हैं।
लेकिन यह बात भी पूरी तरह सही है कि रिटायरमेंट के बाद निजी क्षेत्र में नौकरी करने की इछा रखने वाले अफसरों के आग्रह को सरकार बहुत अच्छे ढंग से मैनेज नहीं कर पाई है। देखा जाए तो मनमोहन सरकार कूलिंग ऑफ पीरियड के नियम लागू करने के मामले में काफी ढीली साबित हुई है, जबकि रिटायर होने वाले अफसरों के लिए इन नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। मिसाल के तौर पर इन मामलों पर एक नजर डालते हैं।
दरअसल, कॉरपोरेट रणक्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के बीच ख़ुद को बचाए रखने और आगे बढ़ाने के लिए कंपनियों के पास दो ही विकल्प हैं- या तो वे नेताओं और अफ़सरों को रिश्वत दें या फिर अवकाश प्राप्त अफ़सरों को अपने यहां नौकरी पर रखें जो उनके लिए राजनीतिक और अफ़सरशाही वर्ग से निपट सकें। पहले की तुलना में दूसरा विकल्प बहुत तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा है। निजी क्षेत्रों में आकर्षक तनख्वाह और भारतीय प्रशासनिक सेवा एवं भारतीय पुलिस सेवा की मुश्किल भरी नौकरी सहित विभिन्न कारणों के चलते आईएएस एवं आइपीएस अफसरों के नौकरी छोडऩे का सिलसिला जारी है। बीते तीन साल में 30 अधिकारियों ने आइपीएस की नौकरी छोड़ दी। अखिल भारतीय सेवा में भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) की नौकरी काफी लोकप्रिय है, बावजूद इसके आइपीएस अफसर करियर के बीच में ही नौकरी छोड़ रहे हैं। बीते तीन सालों के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि 2008 में 12, 2009 में दस और 2010 में आठ आइपीएस अधिकारियों ने नौकरी छोड़ी।
आईएएस अफसर अशोक मोहन चक्रवर्ती पश्चिम बंगाल के प्रमुख सचिव पद से 30 अप्रैल 2010 को रिटायर हुए। उन्होंने आईएएस कैडर पर नियंत्रण रखने वाले कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) से एस्सार समूह में काम करने की इजाजत मांगी। राज्य सरकार और अन्य संबंधित एजेंसियों से मश्विरे के बाद डीओपीटी ने उन्हें हरी झंडी दिखा दी। चक्रवर्ती ने सात अक्टूबर 2010 को स्थानीय निदेशक के पद पर एस्सार समूह को अपनी सेवाएं देनी शुरू कर दीं। वित्त सचिव पद से रिटायर होने वाले अशोक झा को सरकार ने एक ऑटोमोबाइल कंपनी में सेवा देने की इजाजत दे दी। तीन वरिष्ठ अफसर तो ऐसी कंपनियों से जुड़ गए, जो या तो सीधे तौर पर या फिर परोक्ष रूप से कॉरपोरेट लॉबिंग से जुड़ी थीं। अब इसे संयोग ही कहा जाएगा कि तीनों ही कंपनियां लॉबिंग को लेकर चल रहे हालिया विवाद से किसी न किसी तरह जुड़ी हुई हैं। ये तीनों कोई मामूली अफसर भी नहीं थे। प्रदीप बैजल विनिवेश सचिव थे, जो बाद में टेलीफोन रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) के चेयरमैन बने। अजय दुआ डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रोमोशन में सचिव थे। इसी तरह सीएम वासुदेव आर्थिक मामलों के सचिव और विश्व बैंक के बोर्ड में भारत की ओर से नामित कार्यकारी निदेशक थे।
पीवी भिड़े 31 जनवरी 2010 को राजस्व सचिव के पद से रिटायर हुए थे। डीओपीटी ने उन्हें पांच कंपनियां ज्वाइन करने की इजाजत दी है। इनमें नॉसिल लिमिटेड, हिडेलबर्ग सीमेंट इंडिया लिमिटेड, ट्यूब इंवेस्टमेंट इंडिया लिमिटेड, एल एंड टी फाइनेंस लिमिटेड और ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड शामिल हैं। नरेश दयाल 30 सितंबर 2009 को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में सचिव पद से रिटायर हुए थे। जल्द ही उन्होंने ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन कंज्यूमर हेल्थकेयर में अनाधिकारिक निदेशक के तौर पर जुडऩे की अर्जी दाखिल कर दी। 21 मई 2010 को उन्हें इजाजत भी दे दी गई।
उत्तर प्रदेश कैडर के 1973 बैच के अफसर अजय शंकर ने 31 दिसंबर 2009 को वित्त एवं उद्योग मंत्रालय से रिटायर होकर निदेशक के पद पर टाटा टी ज्वाइन कर लिया। इसी तरह यूनियन टेरिटरी कैडर के 1969 बैच के अफसर अनिल बैजल 31 अक्टूबर 2006 को शहरी विकास मंत्रालय के सचिव पद से रिटायर हुए। उन्हें 22 जून 2007 को इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फाइनेंस कंपनी के पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप इनिशिएटिव के सलाहकार व चेयरमैन पद पर ज्वाइन करने की इजाजत मिल गई।
तमिलनाडु कैडर के 1975 बैच के अफसर बृजेश्वर सिंह ने हाल में सड़क परिवहन और राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय को पत्र लिखकर एल एंड टी बिल्डिंग्स ज्वाइन करने की इजाजत मांगी है। उल्लेखनीय है कि एल एंड टी समूह ने हाल में विभिन्न व्यवसायों को अलग-अलग करने की रणनीति के तहत यह कंपनी बनाई है। मंत्रालय इस बात पर राजी है कि बृजेश्वर सिंह स्वतंत्र निदेशक के रूप में एल एंड टी बिल्डिंग्स ज्वाइन कर सकते हैं।
यूं तो इसमें कहीं कोई गड़बड़ी नजर नहीं आती, मगर शीर्ष नौकरशाहों को इतनी आसानी से इस तरह की इजाजत देने पर त्योरियां चढ़ सकती हैं। हाल में इस मुद्दे पर पुनर्विचार के अलावा सरकार ने कूलिंग ऑफ पीरियड में छूट दिए जाने को लेकर कभी कोई ठोस बचाव पेश नहीं किया। कैबिनेट का मसौदा तैयार करने वाले सरकारी अफसर इस बात की पुष्टि करते हैं कि कूलिंग ऑफ पीरियड के मामले का फिर से अध्ययन किया जा रहा है। नाम न छापने की शर्त पर एक अफसर ने कहा, एक खास तरह का काम है, जिसे करने की इजाजत रिटायर्ड सरकारी अफसरों को नहीं मिलनी चाहिए। फिलहाल तो सरकारी नीतियों में इस तरह के भेद का प्रावधान ही नहीं है। मिसाल के तौर पर, कूलिंग ऑफ पीरियड पूरा होते ही सेना से रिटायर हुए अफसर हथियार बेचने वाली कंपनियों में नौकरी कर सकते हैं। क्या सरकार को उन्हें इस तरह की इजाजत देनी चाहिए? सरकार का मसौदा इसकी भी पड़ताल करेगा कि क्या आईएएस अफसर को ऐसी लॉबिंग फर्म या किसी कंपनी से जुडऩे दिया जाना चाहिए, जिससे उनके अंतिम तीन पदों का कोई लेना-देना रहा हो। सही कहा जाए तो कूलिंग ऑफ पीरियड के फॉर्मूले को ही लॉबिंग में अनैतिकता रोकने के लिए काफी समझना ठीक नहीं होगा।
अधिकारी यह भी कहते हैं कि नीरा राडिया प्रकरण और पूर्व ट्राई अध्यक्ष के रिटायरमेंट के तुरंत बाद कॉरपोरेट लॉबिंग फर्म से जुडऩे का मामला कूलिंग ऑफ पीरियड में बदलाव के बारे में फिर से सोचने का बड़ा कारण बना। ऐसे और भी मामले हैं, जिनमें सेवानिवृत्त अधिकारी ऐसी कंपनियों से जुडऩे की चाहत रखते हैं, जिनके साथ उनका संबंध सरकारी नौकरी में रहते हुए भी था, जैसे कि भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के एक पूर्व अधिकारी एक निर्माण कंपनी से जुडऩा चाहते थे। स्पष्टीकरण मांगने पर पता चला कि एक खास क्षेत्र में उनके रहते हुए उस कंपनी को कई ठेके दिए गए थे। आखिरकार, उन्हें वह कंपनी ज्वाइन करने की इजाजत नहीं मिली।
डीओपीटी एक और नजरिए से भी इस मामले को देख रही है: एक विचार यह भी है कि कूलिंग ऑफ पीरियड इस मसले को पूरी तरह नहीं सुलझा सकता, क्योंकि कई बार रिटायर हो चुके अधिकारी इसे बाईपास करते हुए फुलटाइम कर्मचारी होने की बजाय सलाहकार बनकर कंपनियां ज्वाइन कर लेते हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद से तो यह खास रिश्ता ज्यादा ही चर्चा में आ गया है। सरकार इस गठबंधन को तोडऩे के रास्ते निकालने की दिशा में काम कर रही है। विशेष रूप से, चार पूर्व नौकरशाहों के पीआर कंसल्टेंट और लॉबिस्ट नीरा राडिया के संपर्क में रहने के मामले की बड़ी बारीकी से जांच की जा रही है। यह वही नीरा राडिया हैं, जिनकी फर्म में वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस, नोएसिस स्ट्रैटजिक कंसल्टिंग सर्विसेस, विटकॉम कंसल्टिंग और न्यूकॉम कंसल्टिंग शामिल हैं।
जिन नौकरशाहों पर उंगलियां उठी हैं, उनमें ट्राई के पूर्व अध्यक्ष व पूर्व विनिवेश सचिव प्रदीप बैजल, आर्थिक मामलों के पूर्व सचिव सीएम वासुदेव, इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन के पूर्व सचिव अजय दुआ और ट्राई के पूर्व सदस्य डीपीएस सेठ शामिल हैं। जैसे ही घोटाला सामने आया, कैबिनेट सचिवालय ने तुरंत नीरा राडिया की फर्म वैष्णवी कम्युनिकेशंस से इनके रिश्तों की पड़ताल की थी। ट्राई से रिटायर होने के बाद बैजल राडिया की फर्म वैष्णवी कम्युनिकेशंस से जुड़ गए थे और फिर राडिया के साथ पार्टनरशिप में नोएसिस कम्युनिकेशन की स्थापना की थी। जब 2जी घोटाला सामने आया, तब बैजल नोएसिस के चेयरमैन थे। माना जा रहा है कि डीओपीटी अब रिटायर होते ही कूलिंग ऑफ पीरियड से छूट मांगने वाले नौकरशाहों के आग्रह पर सख्त रवैया अपनाएगा। डीओपीटी के अधिकारियों का कहना है कि उन्हें हर महीने ऐसे 10-12 प्रार्थनापत्र जरूर मिलते हैं और कोई आश्चर्य नहीं कि इनमें से ज्यादातर आर्थिक मंत्रालयों से जुड़े नौकरशाहों के होते हैं। विभाग ने अब तक काफी नर्म रवैया अपनाया है, मगर हाल के दिनों में सामने आए इन मामलों ने उसे और सावधानी बरतने पर मजबूर कर दिया है।

उदाहरण के लिए जरा इन दो मामलों पर एक नजर डालिए

हाल में, विभाग ने भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) से सात महीने पहले रिटायर हुए एक अधिकारी का आग्रह ठुकरा दिया, जिन्हें दो निजी कंपनियों से 30-30 लाख रुपये प्रति माह के ऑफर मिले थे। इसी तरह के एक अन्य मामले में विभाग ने शहरी विकास मंत्रालय से रिटायर हुए एक अधिकारी को निर्माण कार्य करने वाली एक निजी कंपनी से जुडऩे की इजाजत नहीं दी। बाद में जांच से पता चला कि इस अधिकारी के कार्यकाल में उस निजी कंपनी को मंत्रालय की तरफ से कई ठेके दिए गए थे।पर एस्सार समूह से जुड़े पश्चिम बंगाल के पूर्व प्रमुख सचिव चक्रवर्ती अधिकारियों के निजी कंपनियों से जुडऩे को अनुचित नहीं मानते। वह कहते हैं, इसमें किसी तरह की गड़बड़ी कैसे हो सकती है? किसी भी अधिकारी को अनुमति देने से पहले सरकार ऐसे सभी पहलुओं की जांच करती है। एस्सार समूह से जुडऩे से पहले मुझे भी पांच महीने इंतजार करना पड़ा था। भिडे कहते हैं, इसमें गड़बड़ी क्यों हो सकती है? मैंने एक सरकारी खाद कंपनी चलाई है। निजी क्षेत्र मेरे अनुभव को इस्तेमाल कर सकता है। मैं अभी काम कर सकता हूं, मगर सरकार को अब मेरी सेवाओं की जरूरत नहीं है। इसलिए मैंने निजी क्षेत्र से जुडऩे का फैसला लिया।इसी तरह दयाल ने भी टीएसआई से कहा, सरकार ने मुझे जो भी जिम्मेदारी दी, मैंने उसे बाखूबी निभाया। निजी क्षेत्र में भी मैं अपनी जिम्मेदारियों को ऐसे ही निभाउंगा।
डीओपीटी के अधिकारियों की मानें तो रिटायरमेंट के बाद निजी क्षेत्र से जुडऩे का आग्रह करने वाले अधिकारियों की सूची काफी लंबी है। एक जनवरी 2007 तक अनिवार्य कूलिंग ऑफ पीरियड दो साल हुआ करता था, मगर आईएएस अधिकारियों की जबरदस्त लामबंदी के चलते इसे घटाकर एक साल कर दिया गया। इतना ही नहीं, अधिकारियों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो ऐच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर निजी क्षेत्र से जुड़ जाता है।
यूपी कैडर के 1976 बैच के अधिकारी अशोक कुमार खुराना ने नवंबर 2007 में ऊर्जा मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव के पद से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी। अप्रैल 2008 में उन्हें जेपीएसके स्पोट्र्स से जुडऩे की अनुमति दे दी गई। उत्तराखंड कैडर के 1975 बैच के अधिकारी ओपी आर्या ने मई 2008 में समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया था। डीओपीटी से जनवरी 2009 में अनुमति मिलने के बाद वह जेपी गंगा इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरपोरेशन लिमिटेड में मुख्यकार्यकारी अधिकारी बन गए।
कहते हैं कि इन अधिकारियों को निदेशक के तौर पर एक बार बैठने के लिए दस हजार रुपये और सालाना 170 करोड़ रुपये तक वेतन मिल जाता है। यदि उन अधिकारियों को भी जोड़ लिया जाए, जिन्होंने केवल राज्य सरकारों से अनुमति लेकर निजी क्षेत्र में नौकरी कर ली है, तो यह सूची और भी लंबी हो जाएगी। नियम कहता है कि सचिव पद से नीचे तीन साल तक राज्य सरकार की नौकरी करने वाले अधिकारियों को केंद्र से नहीं, बल्कि राज्य सरकार से अनुमति लेना ही काफी है। इससे उनका काम और भी आसान हो जाता है।
ये मामले तो हाल के दिनों में खबरों में रहे हैं। 1990 के दशक की शुरुआत में तो ऐसे ढेर सारे मामले सामने आए थे, जब रुपर्ट मरडॉक ने दूरदर्शन के प्रमुख रतिकांत बासु को भारत में स्टार के प्रमुख के तौर पर अपने साथ जोड़ लिया था। बासु के साथ सूचना विभाग की वरिष्ठ अधिकारी उर्मिला गुप्ता और इंदिरा मानसिंह भी स्टार से जुड़ गई थीं।
दिसंबर 2010 में रिटायर हुए एचएचएआई के पूर्व अध्यक्ष बृजेश सिंह ने सरकार से निर्माण क्षेत्र की बड़ी कंपनी एल एंड टी से जुडऩे की अनुमति मांगी है। ये उसी शृंखला की कड़ी है, जिसमें पूर्व सरकारी अधिकारियों और सरकारी कंपनियों के प्रमुखों की निजी क्षेत्र में जाने की इच्छा साफ तौर पर बढ़ती नजर आती है। हाल में, स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेट (सेल) के पूर्व अध्यक्ष एसके रूंगटा ने बतौर प्रबंध निदेशक, वेदांता एल्यूमिनियम ज्वाइन किया है। यह तो वे कुछ नाम हैं जो पिछले दिनों चर्चा में रहे। ऐसे सैकड़ों नौकरशाह हैं जो निजी क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रहे हैं और कई जाने की तैयारी में हैं। अब देखना यह है कि सरकार नौकरशाहों के पलायन पर किस हद तक अंकुश लगा पाती है।