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भेड़ाघाट

Tuesday, April 17, 2012

अभी तो मोहरे मिले हैं, खिलाड़ी नहीं!





आर.टी.आई. कार्यकर्ता शेहला मसूद की हत्या के तार का सिरा मिलने के साथ ही मध्यप्रदेश की राजनीति में गर्माहट आ गई है. पिछले छह महीने से परेशान सी.बी.आई. ने जब शेहला की हत्या करने के लिए सुपारी देने वाली कथित युवती जाहिदा परवेज को अचानक अपनी गिरफ्त में लिया, तो प्रदेश की राजनीतिक गलियारे में चहलकदमी तेज हो गई. इस मामले में भोपाल के स्थानीय विधायक एवं मध्यप्रदेश पर्यटन विकास निगम के पूर्व अध्यक्ष ध्रुवनारायण सिंह पर भी शक किया जा रहा है. दूसरी ओर इस हत्याकांड में जाहिदा परवेज को मदद करने वाले शाकिब डेंजर के साथ प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का फोटो सार्वजनिक हो जाने से सांसद प्रभात झा पर अपराधियों को संरक्षण देने का आरोप लगाया जाने लगा है.

सी.बी.आई. के अनुसार शेहला एवं जाहिदा पहले सहेली थी. शेहला ने ही जाहिदा को मध्यप्रदेश पर्यटन विकास निगम में परिचय कराकर काम दिलाया था, पर वह शेहला से आगे निकल गई. पर्यटन निगम में जब जाहिदा को कोई काम मिलता था, तब शेहला आर.टी.आई. लगाती थी. इस तरह से शेहला न केवल जाहिदा बल्कि अन्य लोगों के लिए अड़चन बन रही थी. इससे परेशान होकर उसने शेहला को रास्ते से हटाने का निर्णय लिया. इसके लिए उसने स्थानीय अपराधी शाकिब से मदद ली एवं शाकिब ने कानपुर के शूटर से संपर्क साधकर इस घटना को अंजाम दिलवाया. इस कहानी के पहले यह भी कहा जा रहा था कि अवैध संबंधों के मामले को लेकर शेहला की हत्या की गई.

इस मामले में विधायक पर शक इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि वे उस समय पर्यटन निगम के अध्यक्ष थे और जिस तरह से जाहिदा की पूछपरख निगम में थी, उससे लगता है कि उस पर उनकी मेहरबानी थी. दूसरी ओर भाजपा के अल्पसंख्यक मोर्चे के एक कार्यक्रम में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष का फोटो शाकिब के साथ है. इसे लेकर कांग्रेस द्वारा भाजपा अध्यक्ष से इस्तीफे की मांग की जा रही है. जबकि भाजपा अध्यक्ष का कहना है कि सार्वजनिक जगहों पर जनता साथ होती है, तो भीड़ में यह पता कर पाना कठिन होता है कि कौन अपराधी है. यद्यपि भाजपा के जिला अध्यक्षों को अब यह संदेश भेजा गया है कि मंच पर चढऩे वालों की छानबीन अच्छे से कर ली जाए. फिलहाल इस मामले में सी.बी.आई. सावधानी से कदम उठा रही है एवं राजनेताओं से अभी पूछताछ करने के बजाय, सबूतों को जुटाने एवं कडिय़ों को जोडऩे में लगी है.

सी.बी.आई. को कुछ अहम सुराग भी हाथ लगे हैं और वह जाहिदा का साइको टेस्ट भी करवाने जा रही है. कानपुर के शूटर इरफान से भी कड़ी पूछताछ की जा रही है एवं उससे काफी सुराग मिलने की उम्मीद है. सी.बी.आई. जिन कारणों को हत्या के लिए बता रही है, उसके लिए जरूरी है कि निगम के उन टेंडर या वर्क ऑर्डर की स्थिति को देखा जाए, जब जाहिदा को काम मिले हैं एवं आर.टी.आई. के आवेदनों की तिथियां एवं उसमें मांगी गई जानकारियों की स्थिति, मिले जवाब आदि को जांचा जाए, तभी इस कहानी पर विश्वास कर पाना संभव होगा कि निगम के कार्यों के कारण ही शेहला की हत्या की गई. साथ ही देखा जाना जरूरी है कि इस घटना को अंजाम देने के पीछे की ताकत कौन है? विपक्ष द्वारा राजनेताओं की भूमिका की जांच की मांग एवं परिजनों द्वारा यह कहे जाना कि जाहिदा इतना बड़ा कदम नहीं उठा सकती, इस बात की ओर इशारा करता है कि अभी तो मोहरे मिले हैं, खिलाड़ी नहीं. खिलाडिय़ों को बेनकाब करने में सी.बी.आई. कितनी जल्द सफल होती है, यह गिरफ्तार किए अभियुक्तों के बयान एवं सबूतों पर निर्भर करेगा.
भोपाल से भाजपा विधायक ध्रुव नारायण सिंह के फ़ोन की कालर ट्यून 'सुख के सब साथी, दुख में न कोय', उनकी वर्तमान स्थिति पर बिल्कुल मुफीद बैठती है. बीते पखवाड़े शेहला मसूद हत्याकांड से जुड़े सनसनीखेज खुलासों के बाद भोपाल की सड़कों से रातों-रात उनके पोस्टर और होर्डिंग उतरवा लिए गए. राजधानी के लोकप्रिय युवा नेता के तौर पर पहचाने जाने वाले मध्यप्रदेश टूरिस्म डेवलपमेंट कारपोरशन के पूर्व अध्यक्ष सिंह के पोस्टरों से राजधानी के गली-मोहल्ले हमेशा पटे रहते थे. जानकारों का मानना है कि ऐसा करके प्रदेश भाजपा ने सिंह से दूरी बनाये रखने के अपने इरादे स्पष्ट कर दिए हैं. प्रदेश भाजपा से जुड़े सूत्र बताते हैं कि 2013 के विधानसभा चुनाव के बाद किसी महत्वपूर्ण मंत्रालय की उम्मीद लगा रहे सिंह का राजनीतिक करियर अब लगभग समाप्त हो चुका है. पार्टी से जुड़े एक वरिष्ठ नेता बताते हैं, 'हत्याकांड से जुड़े खुलासों के बाद जिस तरह से उनका नाम कई महिलाओं के साथ जोड़ा जा रहा है, उससे पार्टी की छवि को काफ़ी नुकसान हो रहा है. ध्रुव को इसके लम्बे राजनीतिक दुष्परिणाम झेलने पड़ेंगे क्योंकि पार्टी किसी एक नेता के लिए अपनी राजनीतिक संभावनाओं का बलिदान नहीं करने वाली.'

ध्रुव नारायण सिंह की जाहिदा परवेज़ से पुरानी मित्रता थी और उन्होंने ही जाहिदा को बिना ज़रूरी डिग्रियों के मध्यप्रदेश टूरिस्म में रजिस्टर्ड आर्किटेक्ट के तौर पर शामिल भी करवाया था

बाघ बचाओ अभियान के तहत आयोजित एक प्रदर्शन में शेहला मसूद (दायें)हाल ही में सीबीआई ने राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित शेहला मसूद हत्याकांड से जुड़े अहम खुलासे किये हैं. जांच एजेंसी के अनुसार भोपाल के एक प्रतिष्ठित मुस्लिम परिवार की बहू जाहिदा परवेज ने अपनी महिला सेक्रेटरी के साथ मिलकर, प्रेम और व्यापार, दोनों की अपनी प्रतिद्वंद्वी शेहला मसूद का भाड़े के हत्यारों द्वारा क़त्ल करवा दिया. सीबीआई का कहना है कि 36 वर्षीय जाहिदा को शेहला मसूद की ध्रुव नारायण सिंह से बढ़ती नजदीकियां पसंद नहीं थीं. मध्यप्रदेश टूर्जि्म से मिलने वाले तमाम ठेकों में शेहला का बढता दखल भी जाहिदा को रास नहीं आ रहा था. ध्रुव नारायण सिंह की जाहिदा परवेज़ से पुरानी मित्रता थी और उन्होंने ही जाहिदा को बिना ज़रूरी डिग्रियों के मध्यप्रदेश टूरिस्म में रजिस्टर्ड आर्किटेक्ट के तौर पर शामिल भी करवाया था. सूत्रों के अनुसार जब शेहला ने जाहिदा को मिलने वाले ठेकों से जुड़ी जानकारियां सूचना के अधिकार के तहत मांगनी शुरू कर दीं तो जाहिदा के काम में तमाम अड़चनें आने लगीं. हालांकि इस मामले में सीबीआई ने अभी तक ध्रुव नारायण सिंह को गिरफ्तार नहीं किया है पर उन्हें तलब कर उनसे सघन पूछताछ की जा रही है. पिछले दिनों दिल्ली में उनका पोलिग्राफी टेस्ट भी हो चुका है. सीबीआई अधिकारियों का कहना है कि मामले की तहकीकात जारी है और फिलहाल ध्रुव को क्लीन चिट नहीं दी गई है.

शेहला मसूद हत्याकांड के केंद्र में उलझे ध्रुव नारायण सिंह मध्यप्रदेश के प्रभावशाली और अमीर राजनीतिक परिवार से जुड़े हैं. ध्रुव के पिता गोविन्द नारायण सिंह मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री रह चुके हैं और उनके दादा अवधेश प्रताप सिंह विंध्यप्रदेश के पहले प्रधानमंत्री थे. पर अपनी खानदानी कांग्रेसी पृष्ठभूमि से इतर ध्रुव का राजनीतिक झुकाव भाजपा की तरफ रहा. उनके एक पुराने मित्र तहलका से बातचीत में कहते हैं, 'ध्रुव को राजनाथ सिंह का वरदहस्त प्राप्त था. वही ध्रुव को राजनीति में लेकर आए. यों तो पार्टी में उनके खिलाफ एक मजबूत लॉबी हमेशा से काम करती रही पर अब उनके प्रतिद्वंदियों को उनके खिलाफ एक मज़बूत आधार मिल गया है. आखिर राजधानी की 'मध्य भोपाल' सीट से कई लोग टिकिट पाना चाहते थे. फिर इतनी कम उम्र में उन्हें एमपीटीडीसी के अध्यक्ष का जो पद मिला था, उसके लिए भी बहुत मारा-मारी थी.' पर अपनी साफ़-सुथरी छवि के लिए पहचाने जाते रहे ध्रुव नारायण सिंह का 'लेडीज मैन' में हुआ यह रूपांतरण त्वरित नहीं है. पिछले 2 दशकों से ध्रुव को करीब से जानने वाले उनके एक मित्र बताते है, 'उन्होंने एक ब्राह्मण लड़की से प्रेम विवाह किया और पिछले 25 सालों में अपनी पत्नी के सिवा कभी किसी दूसरी महिला को नहीं देखा. पर पिछले 3 -4 सालों में जैसे ही वे रियल-एस्टेट के धंधे में आए, तब से उनकी संगत में कुछ नए लोग जुड़े. ये लोग ज़मीनों की संदिग्ध खरीद-फरोक्त के साथ-साथ ठेकों से जुड़े काम-काज के लिए आने वाली तमाम महिलाओं से मित्रता बढ़ाने वाले लोग थे. ध्रुव को भी पता था कि ये ठीक लोग नहीं है पर उन्होंने उनसे मेल-जोल जारी रखा और इस भयानक हत्याकांड में बिना-वजह उलझ गए.'

आतंकियों का हथियार बनीं बार गर्ल्स





भारत के ख़िलाफ़ रची गई है अब तक की सबसे ख़ौफ़नाक साजि़श. आतंकवादियों ने इस बार भारत पर हमले के लिए तैयार की है महिला ब्रिगेड. इस महिला ब्रिगेड में मुंबई और पाकिस्तान में काम करने वाली बार गर्ल्स शामिल हैं. भारतीय ख़ु़फिया एजेंसी के पास इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि दुबई में बैठे दाऊद और उसके गुर्गे मुंबई और पाकिस्तान की बार गर्ल्स को डांस करने के नाम पर दुबई बुलाकर उन्हें आतंकी वारदातें अंजाम देने की ज़बरदस्त ट्रेनिंग दे रहे हैं. इतना ही नहीं, पाकिस्तान में भी 21 महिलाओं की एक टीम तैयार की जा चुकी है, जो मौक़ा मिलते ही भारत में घुसकर हमला करने की फिराक में है. आई बी को इस ख़तरनाक साजि़श की जानकारी तब मिली, जब मुंबई पुलिस ने जे बी नगर के अंधेरी कुर्ला रोड स्थित एक होटल सन एंड शील पर छापा मारा. इस होटल से गिरफ्तार बार डांसर्स और उनके मालिक से हुई गहन पूछताछ के बाद पुलिस को जो जानकारी मिली, वह दंग कर देने वाली थी. पता चला कि इस होटल में बार और डिस्कोथेक के नाम पर सेक्स रैकेट चलता है और यहां काम करने वाली लड़कियां दुबई, पाकिस्तान, मॉरिशस, बैंकॉक और थाईलैंड तक भेजी जाती हैं. ये लड़कियां भारत में आतंक फैलाने के लिए जि़म्मेदार संगठनों के लिए न सफिऱ् जासूस का काम करती हैं, बल्कि हवाला और मटका जैसे धंधों के लिए बड़ी मात्रा में पैसे इधर से उधर करने का भी ज़रिया बनती हैं. इस नए आतंकी गिरोह में शामिल लड़कियां अपने खातों में विदेशों से जमा पैसों को दर्जनों वीजा कार्ड्स के ज़रिए एटीएम से निकालती हैं.

ख़ुफिय़ा एजेंसियों की रिपोर्ट में इस बात की निशानदेही की गई है कि इन संगठनों के लोगों ने अपने और दूसरे लोगों के नामों से देशी और विदेशी मुद्रा में बैंक खाते खुलवा कर उन्हें इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. इनमें कुछ ऐसी बार बालाएं भी शामिल हैं, जो पहले से ही दाऊद के गिरोह के लिए पैसा वसूली और बैंक खातों के संचालन का काम करती रही हैं. हालांकि गृहमंत्री पी चिदंबरम की दलील है कि आतंकी संगठनों से संबंधित या शक के दायरे में आए इन खातों को पहले ही बंद किया जा चुका है और इन पर पैनी नजऱ रखी जा रही है. हैरानी की बात यह है कि सरकार की सतर्कता के बावजूद नए संदिग्ध खाते खोले जा रहे हैं और उनमें विदेशी धन की आमदरफ्त भी जारी है.

आई बी के मुताबिक़, ये लड़कियां ग्रुप बनाकर किसी सुनसान से एटीएम पर जाती हैं. फिर वहां के गार्ड को कुछ पैसे देकर अपने साथ मिला लेती हैं और फिर दर्जनों एटीएम के माफऱ्त वे लाखों रुपये की निकासी कर लेती हैं. बहरहाल, पुलिसिया तफ्तीश में होटल सन एन शील के सभी ग्राहकों के गहरे ताल्लुक खाड़ी देशों से निकले. यहां एक रात रुकने और खाने-पीने के छह लाख रुपये वसूले जाते थे, जिसमें ग्राहक को कॉलगर्ल के साथ शराब, खाने और डांस की सुविधा मुहैया कराई जाती थी. होटल के सुरक्षा इंतज़ामात ऐसे कि ख़ुफिय़ा एजेंसियों ने भी दांतों तले उंगलियां दबा लीं. मुंबई पुलिस के ज्वाइंट कमिश्नर राकेश मारिया ने बताया कि रात के गुमनाम अंधेरों में चलने वाले इस होटल के इर्द-गिर्द ढाबे और रोज़मर्रा की चीज़ों की दुकानें हैं. इमारत की तीसरी मंजिल पर एक रेस्टोरेंट है. पूरे दिन यहां सामान्य कारोबार होता और जैसे ही रात होती और दूसरी दुकानों पर ताले लगते, यहां की रौनक पूरे शबाब पर आ जाती. सुबह के छह बजे तक इस होटल का धंधा चलता रहता, फिर सड़कों पर चहलपहल बढ़ते ही रेस्टोरेंट अपने मामूली रंग-ढंग में तब्दील हो जाता.

इस होटल के हरेक कमरे की क़ीमत किसी भी सेवन स्टार होटल से ज़्यादा तो थी ही, अपने काले धंधे और ग्राहकों के अनैतिक काम को पुलिस या किसी भी अजनबी की नजऱ से बचाने की खातिर अत्याधुनिक तकनीक की व्यवस्था की गई थी. यह होटल इलेक्ट्रॉनिक दरवाजे से लैस है, जिसका दरवाज़ा जानी-पहचानी आहट या उसकी मेमोरी में फीड किए गए निशान को पहचान कर ही खुलता था. किसी भी ख़तरे की आशंका से जऱा से सिग्नल पर सक्रिय हो जाने वाली लिफ्ट, मैट्रेस के नीचे छुपाकर रखे गए अत्याधुनिक हथियार, किसी इमरजेंसी में दीवार तोडऩे के लिए रखे गए हैंडग्रेनेड, वॉयस आईडेंटिफिकेशन से खुलने वाले होटल के कमरे वग़ैरह जैसे सुरक्षा उपाय किसी ख़ुफिया एजेंसी के तौर तरीक़ों को भी मात दे देंगे. होटल में एक ऐसा इमरजेंसी रूम भी था, जो डांसर्स के लिए खास तौर पर तैयार किया गया था और जिसकी फर्श में लिफ्ट लगी थी, जो किसी भी ख़तरे की स्थिति में बग़ैर होटल का मेन डोर इस्तेमाल किए लड़कियों को सीधे इमारत की अंडरग्राउंड पार्किंग में पहुंचा देती थी. बिल्डिंग एंट्रेंस पर इलेक्ट्रॉनिक स्विच लगा था, जिसे दबाते ही डांस बार में ख़तरे का सिग्नल चला जाता था. ग्राउंड फ्लोर पर 12 धुरंधर सिक्योरिटी गार्ड्स की तैनाती थी, जिनका काम संदिग्ध विजिटर्स को रोकना और अपने कस्टमर्स से एक लाख रुपये कैश एंट्रेंस फीस वसूलना था.

राकेश मारिया बताते हैं कि पुलिस का छापा पडऩे पर कस्टमर्स और कॉलगर्ल्स को बचाने के लिए इस होटल में जितना मज़बूत इमरजेंसी प्लान था, उतना हिंदी फिल्मों में ही देखने को मिलता है, असल में नहीं. ख़ुफिय़ा एजेंसियों से मिली सूचना के आधार पर जब इस होटल में पूरे प्लान और एहतियात के साथ चारों ओर नाकेबंदी करके छापेमारी की गई, तब 45 लोगों और 6 कॉलगर्ल्स को गिरफ्तार किया गया, जिनमें होटल मालिक भी शामिल है. होटल मालिक लालजी सिंह उर्फ विनोद सिंह की इंटरपोल को लंबे वक़्त से तलाश थी. इस होटल के मालिक के धंधे खाड़ी देशों के साथ-साथ मॉरिशस, थाईलैंड, बैंकॉक, मलेशिया और सिंगापुर आदि में फैले हुए हैं. आई बी को यह ख़बर मिली थी कि इस होटल में डांस और कॉलगर्ल्स का काम करने वाली लड़कियों की माफऱ्त मालिक विनोद सिंह हवाला का कारोबार तो करता ही है, दुबई में बैठे आतंक के आकाओं को उन लड़कियों का पूरा ग्रुप भी मुहैया कराता है, जो पैसों की खातिर भारत के ख़िलाफ़ किसी भी हद तक जा सकती हैं. इसके अलावा यहां से इंडियन मुजाहिद्दीन के आतंकी शाहरुख़ उर्फ यासीन अहमद के एक गुर्गे की भी गिरफ्तारी हुई, जिसकी निशानदेही पर हवाला के ज़रिए दस लाख रुपये यासीन अहमद को सौंपने के आरोप में गाजियाबाद से कंवर नयन वजीरचंद पथरेजा नामक हवाला कारोबारी को भी गिरफ्तार किया गया. गाजियाबाद में रहने वाला कंवर पथरेजा चांदनी चौक में आर्टिफिशियल ज्वेलरी का काम करता है. महाराष्ट्र एटीएस की जानकारी के अनुसार, कंवर पथरेजा द्वारा यासीन को सौंपी गई रकम का प्रयोग मुंबई धमाकों को अंजाम देने में किया गया था. आई बी को मिले सबूत के मुताबिक़, भारत पर हमला करने की यह साजि़श बेहद पुख्ता तरीक़े से बनाई जा चुकी है. इस हमले को अंजाम देने की खातिर प्रतिबंधित संगठनों ने नए-नए नामों से अलग-अलग बैंकों में खाते खुलवा लिए हैं. ये तमाम खाते बार गर्ल्स के नाम से खुलवाए गए हैं और ये खाते न सफिऱ् भारत, बल्कि पाकिस्तान में भी खुलवाए गए हैं. पाकिस्तान के गुप्तचर विभाग ने भी सरकार को चेतावनी दी है कि उन खातों में देश और विदेश से रक़म का स्थानांतरण हो रहा है. ये वे प्रतिबंधित संगठन हैं, जो पिछले काफ़ी समय से सुरक्षाबलों की कार्रवाई की वजह से कमज़ोर हो गए थे. इनमें से कुछ ऐसे भी संगठन हैं, जो ताज़ा चरमपंथी कार्रवाइयों में लिप्त रहे हैं और अब कल्याणकारी कामों में व्यस्त हैं. रकम के स्थानांतरण की वजह से ये प्रतिबंधित संगठन फिर से सक्रिय हो रहे हैं. गृह मंत्रालय के मुताबिक़, सात प्रतिबंधित संगठनों ने बैंकों में बार गर्ल्स के नाम से खाते खुलवाए हैं. इन संगठनों में जैश-ए-मोहम्मद, तहरीक-ए इस्लामी, मिल्लत-ए-इस्लामिया पाकिस्तान, ग़ाज़ी फ़ोर्स, हिज़बुत्तहरीर, जमीयत-उल-फ़ुरक़ान और ख़ैरुन निशा इंटरनेशनल ट्रस्ट शामिल हैं. पाकिस्तानी सरकार ने भी ऐसे लगभग 24 संगठनों के बैंक खातों पर प्रतिबंध लगा रखा है, जिनमें लश्करे तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान, सिपाह साहेबा पाकिस्तान और लश्करे झंगवी शामिल हैं.

ख़ुफिय़ा एजेंसियों की रिपोर्ट में इस बात की निशानदेही की गई है कि इन संगठनों के लोगों ने अपने और दूसरे लोगों के नामों से देशी और विदेशी मुद्रा में बैंक खाते खुलवा कर उन्हें इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है. इनमें कुछ ऐसी बार बालाएं भी शामिल हैं, जो पहले से ही दाऊद के गिरोह के लिए पैसा वसूली और बैंक खातों के संचालन का काम करती रही हैं. हालांकि गृहमंत्री पी चिदंबरम की दलील है कि आतंकी संगठनों से संबंधित या शक के दायरे में आए इन खातों को पहले ही बंद किया जा चुका है और इन पर पैनी नजऱ रखी जा रही है. हैरानी की बात यह है कि सरकार की सतर्कता के बावजूद नए संदिग्ध खाते खोले जा रहे हैं और उनमें विदेशी धन की आमदरफ्त भी जारी है. इन बैंक खातों में आ रही बेतहाशा रकम की वजह से प्रतिबंधित संगठन एक बार फिर एकजुट होकर सक्रिय हो रहे हैं. हालांकि संघीय जांच एजेंसी ने उन बैंक खातों की जानकारी जुटाना शुरू कर दिया है, जिनकी ख़ुफिय़ा एजेंसियों की रिपोर्ट में निशानदेही की गई है. ख़ासकर मुंबई के ग्रांट रोड, चरनी रोड, कालबादेवी, ओपरा हाउस और विरार में स्थित बैंकों पर ख़ुफिय़ा विभाग की पैनी नजऱ है. पहले भी महाराष्ट्र एटीएस ने इन्हीं इलाक़ों में चलने वाले अग्रणी बैंकों पर छापेमारी कर पैंसठ सौ करोड़ के हवाला कारोबार का भंडाफोड़ किया है. बहरहाल, सारी चौकसी और घेरेबंदी के बावजूद आतंकी संगठन हिंदुस्तान की सरज़मीं पर दहशत फैलाने के लिए रोज नए तरीक़े तो ईजाद कर ही रहे हैं, अब यह बार गर्ल्स का नया जाल भी ख़ु़फिया एजेंसियों और पुलिस के लिए पहेली साबित हो रहा है.

बिटिया होने का दंश




भारतीय इतिहास की तमाम कहानियां भले ही वीरांगनाओं के शौर्य एवं वीरता से भरी पड़ी हों, लेकिन वर्तमान भारतीय समाज में आज भी बेटियों के प्रति समाज की सोच कहीं न कहीं शर्मसार करने वाली है। दिल्ली के एक बड़े अस्पताल में भर्ती कोमल के मामले में जिस तरह के राज परत दर परत खुल रहे हैं, वह कहीं न कहीं लिंगभेद के प्रति समाज की दुर्भावना को ही व्यक्त करते हैं। ऐसी न जाने कितनी कोमल इस देश में लिंगभेद के क्रूर और अमानविक कृत्यों का शिकार होती रहती हैं। आज हम एक तरफ 21वीं सदी में विकसित होने का सपना सजोए हुए हैं, वहीं दूसरी तरफ समाज में फैली तमाम कुरीतियों, कुप्रथाओं को बढ़ावा भी दिया जा रहा है। भारतीय समाज में लिंगभेद की दूषित परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। इतिहास गवाह कि हमारे समाज में लिंग विशेष के प्रति प्राचीन काल से ही दोहरा रवैया अपनाया जाता रहा है और लिंगभेद की इस दूषित भावना ने तत्कालीन समाज का एक अभद्र रूप प्रस्तुत किया है। विधवा विवाह को आज भी समाज में मान्यता न मिलना लिंग विशेष के प्रति पूर्वाग्रह का ही प्रमाण है। तमाम सामाजिक प्रयासों के फलस्वरूप सती प्रथा जैसी दूषित कुरीति से काफी हद तक निजात पाई जा चुकी है, लेकिन लिंगभेद जैसी मुख्य समस्या आज भी अपने विकराल स्वरूप के साथ बरकार है। तमाम विकास के बावजूद अभी भी हमारे समाज से लिंगभेद के दंश को अलग नहीं किया जा सका है, जिसके फलस्वरूप आज भी तमाम समस्याएं समाज को घेरे हुए हैं। दरअसल, उपरोक्त तमाम समस्याओं पर अगर विचार करें सारी समस्याओं की जड़ में समाज की लिंगविशेष के प्रति दुर्भावना ही नजर आती है। लिंगभेद के चंगुल से कभी भी हमारा समाज बाहर नहीं निकल सका है और इसी कारण से लिंगभेद के इस पौधे से समय समय पर नए-नए सामाजिक समस्याओं के बीज अंकुरित होते रहे हैं। लिंगभेद के इस जहरीले वृक्ष ने कभी समाज में सती-प्रथा और विधवा विवाह की गैर मान्यता को अंकुरित किया तो आज दहेज-प्रथा, महिला उत्पीडऩ, भूण हत्या और तमाम घरेलू हिंसा से समाज में जहर भरने का काम कर रहा है। लिंगभेद की इस काली परंपरा को वर्तमान के संदर्भ में अगर देखें तो स्त्री वर्ग को लेकर समाज का एक ऐसा चेहरा भी देखने को मिलेगा, जो बड़ा ही असामाजिक एवं कुरूप नजर आता है। लिंगभेद की पारंपरिक समस्या ने हमारी सामाजिक संरचना की जड़ों को समय के साथ खोखला करने का काम किया है। दहेज, भ्रूण हत्या, महिला उत्पीडऩ ऐसी समस्याएं हैं, जिनका सरोकार लिंग पूर्वाग्रह पर आधारित है। बहुत साल पहले जब हम तकनीकी रूप से संपन्न नहीं थे, तब बेटियों को जन्म के बाद मार दिया जाता था। आज जबकि हम तकनीकी रूप से संपन्न हैं तो दो कदम आगे बढ़कर समाज ने बेटियों को गर्भ में मारना शुरू कर दिया है। तकनीक और संसाधनों से संपन्न समाज ने इस कुप्रथा को समाज से हटाने की बजाय तकनीक का सहारा लेकर इसे बढ़ाने का काम किया है। भ्रूण हत्या पर बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले तीन दशकों में लगभग चालीस लाख से ज्यादा बच्चियों को भ्रूण हत्या का शिकार बनाया गया है, जो सामाजिक या मानवीय किसी भी दृष्टिकोण से ठीक नही है। लिंगभेद का इससे बड़ा उदाहरण भला क्या हो सकता है कि हम बड़ी निर्दायता से किसी मासूम से उसके जीने का अधिकार इसलिए छीन लेते हैं, क्योंकि वह उस लिंग के दायरे में नहीं आती, जिसे इस समाज ने झूठी प्रधानता दे रखी है। बेटियों के प्रति लिंगभेद के अपराध से ग्रसित हमारा कुंठित समाज जिस तरह की भावना रखता है वह कहीं न कहीं एक सामाजिक क्षति है और कहें तो एक तरह का अपराध है। आज समाज में लिंगभेद की दुर्भावना इस कदर हावी हो चुकी है कि बेटी के जन्म से पहले ही उसके खिलाफ सामाजिक साजिशें शुरू हो जाती हैं। ये साजिशें सिर्फ उसके जन्म लेने तक सीमित नहीं रहतीं, बल्कि जन्म लेने के बाद भी बहुसंख्यक समाज द्वारा उसके पालन-पोषण, प्राथमिक शिक्षा आदि को हाशिये पर रखा जाता है। आज जीवन के मूल अधिकारों जैसे शिक्षा, अभिव्यक्ति आदि के मामले में भी बेटियों को द्वितीय वरीयता पर रखकर समाज खुद को पुरुष प्रधान साबित करने का दंभ भर रहा है। समाज का यह एक कड़वा सच है कि बहुसंख्यक समाज द्वारा बेटे और बेटी के बीच शिक्षा जैसी मूल जरूरत में भी भेद किया जाता है। कहीं न कहीं हर कदम पर हमारे समाज द्वारा परंपरा के नाम पर बेटियों के अधिकारों का दमन किया जा रहा है जो समाज के लिए बहुत ही घातक साबित हो सकता है। अगर शिक्षा का स्तर देखें तो पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों की शिक्षा का स्तर काफी नीचे है, जो इस बात का प्रमाण है कि शिक्षा जैसी मूल सामाजिक अनिवार्यता भी लिंगभेद के दंश से अछूती नहीं है। बेटियों के पैरों में न जाने कितनी बेडिय़ां समाज द्वारा कदम कदम पर बांधी जाती हैं। बचपन से ही बेटियों को सामाजिक दायरों का पाठ पढ़ाना हमारे समाज का प्रिय शगल बन चुका है। बचपन से दायरों का पाठ पढ़ती हाशिये पर जी रही बेटी को एक ऐसे नाज़ुक मोड़ का सामना भी करना पड़ता है जब समाज की परंपराओं द्वारा उसको स्वीकार करने की खुलेआम कीमत लगाई जाती है। दहेज नामक इस कुप्रथा ने तो मानो रिश्तों की बुनियाद सौदों पर कर दी हो। हाल ही में बिहार के नवादा में दहेज के नाम पर विभा कुमारी की हत्या भी कहीं न कहीं हमारे समाज के इस सच को उजागर करने के लिए पर्याप्त है कि आज भी हमारा समाज लिंगभेद की सोच से बाहर नहीं आ पाया है और न जाने कितनी युवतियां हाथों की मेंहदी उतरने से पहले जला दी जाती हैं। दहेज भी इसी लिंगभेद के सामाजिक जहर का परिणाम है, जो व्यापक तौर पर समाज में मौजूद है। दहेज पर भले ही हमारे प्रशासन द्वारा कानून बनाकार इसे अपराध की श्रेणी में रखा गया हो, लेकिन आज समाज में यह कानून कितना सफल है यह सर्वविदित है। दहेज के लिए हर साल न जाने कितनी बेटियों की जान ली जा रह है, इसका आकलन भी कर पाना मुश्किल है। बड़ी विडंबना तो यह भी है कि दहेज के बोझ में दबे बाप की हर कसक कहीं न कहीं बेटी के आंखों के आसुओं से चुकाई जाती है। आज घरेलू हिंसा की बढ़ती घटनाओं के लिए दहेज एक प्रमुख कारण है। दहेज के नाम पर सिर्फ ग्रामीण क्षेत्रों में ही नहीं बल्कि दिल्ली जैसे महानगरों में भी उत्पीडऩ की घटनाएं प्राय: सुनने में आती हैं। आज देश की अस्सी प्रतिशत शादियां दहेज के सौदे की बुनियाद पर होती हैं। इन सभी सामाजिक कुरीतियों के पीछे कहीं न कहीं परंपरागत रूप से चले आ रहे लिंगभेद की मानसिकता का ही बोध होता है। आज बेटियों के प्रति दोहरे रवैये के लिए पुरुष ही जिम्मेदार हैं। आज घरेलू हिंसा और महिला उत्पीडऩ के मामलों में ज्यादातर संलिप्तता घर की महिलाओं का होता है। स्वाभाविक है कि लिंगभेद को लेकर समाज में एक गलत धारणा पुरुष समाज को लेकर व्याप्त है, जो बिल्कुल निराधार है।

Thursday, April 5, 2012

आदित्य उपाध्याय ने ठोका 112 रन


मनीपाल की विशाल जीत
भोपाल लक्ष्मीपति इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एंड टेक्नोलाजी द्वारा आयोजित प्रथम लक्ष्मीपति टी-20 इंटर स्कूल क्रिकेट टूर्नामेंट में मनीपाल एकेडमी ने आरडी कान्वेंट को 177 रनों से पराजित किया। टॉस जीतकर मनीपाल एकेडमी ने पहले बल्लेबाजी करते हुए 256 रनों का विशाल स्कोर खड़ा किया। आदित्य उपाध्याय ने 112 और सूरज ने 65 रनों का महत्वपूर्ण योगदान दिया। आरडी कान्वेंट के अजीत और रिची ने 1-1 विकेट लिए। जवाब में आरडी कान्वेंट की टीम 12 ओवरों में 80 रन बनाकर आल आउट हो गई। दीपक ने 12 न और मनप्रीत ने 11 रन बनाए। मनीपाल एकेडमी के आकाश ने 5 और सूरज ने 2 विकेट लिए। लक्ष्मीपति इंस्टीट्यूट के मैनेजिंग डायरेक्टर इंजीनियर शिव कुमार बंसल तथा सेंट जॉर्ज स्कूल के संस्थापक बी. थॉमस ने आदित्य उपाध्याय को मैन ऑफ द मैच का खिताब दिया।

Tuesday, April 3, 2012

चौतरफा मुश्किलों में घिरे कृपाशंकर सिंह




विलासराव देशमुख के बाद राज्य के एक और कांग्रेसी नेता मुंबई अध्यक्ष व पूर्व मंत्री कृपाशंकर सिंह पर मुंबई उच्च न्यायालय ने अपना हथौड़ा चलाया है और उनकी बेहिसाब संपत्ति को ज़ब्त कर उनके व उनके परिवार के खिला़फ आर्थिक अपराध दाखिल करने का निर्देश पुलिस को दिया. राज्य में भ्रष्टाचार की परत-दर-परत उधड़ रही है और हमारे नेता आत्ममुग्ध नज़र आ रहे हैं.
जब तक अदालती हथौड़ा नहीं पड़ता है तब तक उनका संरक्षण पार्टी संगठन सहित सरकार भी करती नज़र आती है. अब मनपा, चुनाव नतीजों के परिणाम की उलटबांसी कहा जाए या अदालती हथौड़े की मार का नतीजा कि कृपाशंकर को तुरंत मुंबई कांग्रेस का अध्यक्ष पद छोड़ना पड़ा.
महाराष्ट्र के राजनीतिक क्षितिज में इन दिनों का़फी उथल-पुथल मची हुई है, जिससे राजनीति को भी शर्मिंदगी ज़रूर महसूस होती होगी, पर राजनेताओं का शर्म से कोई नाता नहीं रहता है. आ़खिर वे माननीयों की बिरादरी से आते हैं.
अदालती हथौड़ा तो विलासराव देशमुख पर भी पड़ा है, जिन्हें फिल्म निर्माता सुभाष घई के लिए अपने पद का दुरुपयोग करने और क़ानून का उल्लंघन करने का सीधे तौर पर ज़िम्मेदार ठहराया गया है, लेकिन उन पर अभी भी पार्टी आलाकमान की कृपादृष्टि बनी हुई और वह केंद्रीय मंत्रिमंडल के नगीने बने हुए हैं. साधारण सी बात है कि उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले से रोज़ी-रोटी की तलाश में कृपाशंकर मुंबई आए थे. पहले तो उन्हें रोजगार के लिए मुंबई में भटकना पड़ा. कृपाशंकर सिंह राजनीति में आने से पहले कुछ वर्षों तक एक दवा कंपनी में मशीन ऑपरेटर थे.

उसके बाद उन्होंने आलू-प्याज़ की दुकान लगानी शुरू की. उसी दरम्यान उनका कुछ कांग्रेसी नेताओं से संपर्क हुआ और उन्होंने राजनीति का दामन थाम लिया. उसके बाद उनके क़दम तेज़ी से राजनीति में बढ़ते चले गए. राजनीति में पावर हासिल करने के बाद तो कृपाशंकर सिंह का जैसे विवादों से चोली-दामन सा साथ हो गया. उनकी शिक्षा-दीक्षा को लेकर भी विवाद रहा है. हालांकि कृपाशंकर सिंह के अनुसार वह बीएससी यानी स्नातक हैं, लेकिन जौनपुर स्थित जयहिंद इंटर कॉलेज जहां उन्होंने पढ़ाई की है, उसके रिकॉर्ड के अनुसार वह 12वीं फेल हैं. इसका खुलासा भी मुंबई के आरटीआई कार्यकर्ता संजय तिवारी द्वारा सुचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगने पर जौनपुर के जयहिंद इंटर कॉलेज के प्राचार्य ने स्कूल सर्टीफिकेट की कॉपी भेज कर सूचित किया कि वह 12वीं फेल हैं. इतना ही नहीं वर्ष 2004 और 2009 के विधानसभा चुनाव के दरम्यान कृपाशंकर सिंह ने जो एफीडेविट पेश किए थे, उसमें आयकर पैन कार्ड के नंबर भी अलग-अलग भरे थे. इतना ही नहीं उन्होंने अपनी पत्नी और अपने नाम की उत्तर प्रदेश स्थित संपत्तियों की जानकारी नहीं दी थी. इसका मतलब यही है कि कृपाशंकर सिंह का पूरा साम्राज्य ही झूठ की नींव पर खड़ा है.

अब सवाल यह उठता है कि एक आलू-प्याज़ की दुकान लगाने वाला, दवा कंपनी में कुछ हज़ार की मशीन ऑपरेटर की नौकरी करने वाला एकाएक करोड़ों की संपत्ति का मालिक कैसे बन गया? यहां तो लोग आलू-प्याज़ की दुकान लगाते-लगाते ज़िदगी गुज़ार देते हैं, लेकिन एक अदद मकान तक नहीं बनवा पाते हैं. जैसे-जैसे जीवन की गाड़ी खींचते नज़र आते हैं, लेकिन कृपाशंकर सिंह तो एकदम से आसमान में ही पहुंच गए. उनका आर्थिक साम्राज्य महाराष्ट्र से लेकर उत्तर प्रदेश तक फैल गया. इसका राज़ क्या है? इस सवाल को लेकर लोगों की जिज्ञासा का जाग उठना स्वाभाविक है. दरअसल, वर्ष 2008 में कृपाशंकर सिंह के बेटे नरेंद्र सिंह की शादी झारखंड के राजनेता कमलेश सिंह की बेटी अंकिता के साथ हुई. उसके तुरंत बाद ही झारखंड में 4000 करोड़ रुपये के गोलमाल का मामला सामने आया, जिसमें वहां के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कौड़ा के साथ ही कृपाशंकर सिंह के समधी यानी नरेंद्र सिंह के ससुर कमलेश सिंह का नाम भी आया. इस मामले में कृपाशंकर सिंह का नाम भी सामने आया. यह भी पता चला कि उनकी पत्नी, पुत्रवधू और बेटे के बैंक खातों में करोड़ों रुपये का ट्रांसफर झारखंड से किया गया. इस बात के सामने आने के बाद से आरटीआई कार्यकर्ता संजय तिवारी ने उनकी बेनामी संपत्ति होने की शिकायत राज्य के भ्रष्टाचार निरोधक विभाग में की थी. मगर यहां कृपाशंकर सिंह को पूरा राजकीय संरक्षण प्राप्त होने से जांच में कुछ खास प्रगति नहीं हो सकी. मामला जब न्यायालय में पहुंचा तो राज्य सरकार ने एसीबी की रिपोर्ट पेश कर दी. एसीबी की रिपोर्ट में कहा गया था कि कृपाशंकर सिंह के खिला़फ अपराध करने योग्य सबूत नहीं हैं. इस तरह तब उनको एसीबी की रिपोर्ट के आधार पर बेदाग़ बताकर छोड़ दिया गया. मगर बाद में एसीबी ने इस मामले में स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि जो रिपोर्ट गृह मंत्रालय द्वारा न्यायालय में पेश की गई है, उसकी जानकारी के बिना ऐसा किया गया. इससे यह बात तो सा़फ हो जाती है कि पूरी सरकार कृपाशंकर सिंह को बचाने में लगी थी. उसके बाद वर्ष 2009 में जब 2-जी स्पेक्ट्रम घोटाले का खुलासा हुआ तो इसके आरोपियों से भी कृपाशंकर सिंह व उनके बेटे नरेंद्र सिंह का संबंध होने की बात सामने आई. शाहिद बलवा के साथ बिजनेस पार्टनरशिप के तथ्य सामने आए. इसके बाद भी कृपाशंकर सिंह का कुछ नहीं बिगड़ा. इसका मुख्य कारण यह था कि कृपाशंकर सिंह कभी राज्य के गृह राज्यमंत्री की कुर्सी की शोभा बढ़ा चुके थे. उनकी वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से अच्छी पटती थी. इसलिए पुलिस भी उनके खिला़फ गंभीरता से जांच कर कार्रवाई नहीं कर सकी. इसलिए विधान परिषद में विपक्ष के नेता विनोद तावड़े के इस दावे मे दम नज़र आता है कि अवैध संपत्ति की जांच में मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष कृपाशंकर सिंह को बचाने में केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार व राज्य के गृहमंत्री आरआर पाटिल ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. प्रेस कांफ्रेंस में तावड़े ने कहा कि दरअसल भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो की जांच में ढिलाई के लिए कृपाशंकर सिंह ने 19 साल बाद एकाएक शरद पवार और गृहमंत्री से मुलाक़ात की थी और उनसे दोषमुक्त करने का अनुरोध किया था. उसके बाद ही कृपा को बचाने की सरकारी कोशिशें त़ेज हो गईं और न्यायालय में एसीबी की रिपोर्ट को आधार बनाकर गृह मंत्रालय ने उनके खिला़फ सबूत न होने का हल़फनामा दायर किया था. कृपाशंकर पर राजकीय कृपा होने के बाद भी आरटीआई कार्यकर्ता ने हार नहीं मानी और राज्य के गृह मंत्रालय द्वारा इस मामले की एसीबी की गोपनीय जांच की रिपोर्ट न देने का हवाला देते हुए मुंबई उच्च न्यायालय में गए. उच्च न्यायालय से अवैध बेहिसाबी संपत्ति अर्जित करने पर कृपाशंकर सिंह के खिला़फ एसीबी को आपराधिक मामला दर्ज करने और उसकी विशेष दल से जांच कराने का अनुरोध किया. सरकार ने पुनः कृपाशंकर सिंह को न्यायालय में बचाने के भरपूर प्रयास किए, पर एसीबी के यह कहने पर कि उसने उन्हें मामले में कोई छूट नहीं दी है, सुनवाई दरम्यान इन सारे तथ्यों के सामने आने पर मुंबई उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मोहित शाह और न्यायाधीश रोशन दलवी की खंडपीठ ने कड़ा रु़ख अपनाते हुए पुलिस आयुक्त अरूप पटनायक को सीधे आदेश दिया कि पुलिस आयुक्त भ्रष्टाचार अधिनियम के तहत कृपाशंकर सिंह पर आपराधिक कदाचार के लिए सरकार से मुक़दमा चलाने की अनुमति प्राप्त करें. कृपाशंकर सहित उनके परिजनों (पत्नी, बेटे, पुत्रवधू समेत) की चल-अचल संपत्ति के बारे में दस्तावेज़ी साक्ष्य एकत्र करें. खंडपीठ ने यह भी कहा कि कृपाशंकर की अचल संपत्ति को ज़ब्त कर लिया जाएगा, लेकिन प्रतिवादियों के बैंक खातों के संबंध में कोई निर्देश जारी नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि आरोप है कि पैसा उड़ा दिया गया है. खंडपीठ ने उक्त आदेश पर रोक लगाने के लिए कृपाशंकर सिंह के वकील द्वारा पेश याचिका को तत्काल खारिज कर दिया और पुलिस को अपने आदेश पर गंभीरता से अमल करने का आदेश है. उच्च न्यायालय के उक्त निर्देश के तत्काल बाद ही मुंबई कांग्रेस अध्यक्ष पद से कृपाशंकर की छुट्टी कर दी गई. अदालत के गंभीर व सख्त रु़ख से ऐसा लगता है कि कृपाशंकर सिंह व उनके परिजन पूरी तरह क़ानून के घेरे में आ गए हैं. इसी के साथ उनकी मुश्किलों को दौर शुरू हो गया है. अब आरटीआई कार्यकर्ता संजय तिवारी को आशा है कि उनकी मेहनत रंग लाएगी और एक भ्रष्ट राजनेता के चेहरे को बेनक़ाब करने में कामयाबी मिलेगी. कृपाशंकर सिंह की संपत्तियों के संबंध में तिवारी का कहना है कि विधायक के रूप में कृपाशंकर सिंह को हर माह क़रीब 45 हज़ार रुपये मिलते हैं. उनके परिवार की इसके अलावा आय का अन्य कोई ज्ञात स्त्रोत नहीं है. इसलिए उनके द्वारा एकत्रित पूरी संपत्ति बेमानी है. अब देखना यह है कि राज्य सरकार कृपाशंकर सिंह पर मुक़दमा चलाने की अनुमति कब तक देती है? पुलिस आयुक्त कब तक उनके खिला़फ आय से अधिक बेहिसाबी संपत्ति एकत्र करने के दस्तावेज़ी सबूत जुटा पाते हैं? इस मामले से तो यह सा़फ हो गया है कि कृपाशंकर सिंह का भ्रष्टाचारियों से गहरा नाता है और उनका आर्थिक साम्राज्य पूरी तरह से ग़ैर क़ानूनी ढंग से एकत्रित करोड़ों रुपये के दम पर जुटाई गई है.
करोड़ों रुपये कहां गए

कृपाशंकर सिंह की पत्नी मालती देवी के बैंक खाते में वर्ष 2009 के मार्च से लेकर नवंबर तक यानी आठ माह की अवधि में 3 करोड़ 40 लाख रुपये का व्यवहार किया गया. इसी तरह उनके पुत्र नरेंद्र के बैंक खाते से दो साल में 60 करोड़ का लेन-देन का व्यवहार हुआ. कृपाशंकर की पुत्रवधू अंकिता के बैंक खाते से चार माह में 1 करोड़ 25 लाख और एक वर्ष में क़रीब 1 करोड़ 75 लाख का अलग से व्यवहार किया गया. इससे यह सवाल उठता है कि इनके खातों में एकदम रुपयों की इतनी बाढ़ आई कहां से और कहां गई? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि खातों से रक़म ग़ायब की जा चुकी है. इस बात का उल्लेख न्यायालयीन निर्देश में भी किया गया है.
कृपा शंकर के बेटे ने फिल्म व रियल इस्टेट कंपनियों में पैसा लगाया

झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कौड़ा की करो़डों की रक़म को कृपाशंकर सिंह के पुत्र नरेंद्र द्वारा फिल्मों में भी निवेश किए जाने की चर्चा है. चर्चा है कि उसने उड़ान नामक एक फिल्म बनाई थी. इसके अलावा उसके द्वारा रियल इस्टेट का व्यवसाय करने वाली कंपनियों को भी क़रीब 22 करोड़ रुपये बिना ब्याज़ के देने के तथ्य भी सामने आए हैं. बहरहाल, इस मामले में राज्य की एसीबी अब तक इसका जवाब न्यायालय को स्पष्ट रूप से नहीं दे पाई है.
भ्रष्ट कमाई से जुटाई गई संपत्ति

पूर्वी बांद्रा में बांद्रा-कुर्ला संकुल के एचडीआईएल के आलीशान व्यापारी संकुल में 22 हज़ार 500 चौरस फुट का कार्यालय.
पूर्वी बांद्रा-कुर्ला संकुल के ट्रेड-लिंक, वाधवा बिल्डिंग में 12 हज़ार चौरस फुट का कार्यालय
पश्चिम बांद्रा में स्थित कार्टर रोड में 423 चौरस मीटर क्षेत्रफल का आलीशान तरंग बंगला.
पश्चिम बांद्रा में ही माउंट मेरी मार्ग पर आलीशान इमारत में फ्लैट.
विले पारले के पूर्व में स्थित वीर घाणेकर मार्ग पर जूपीटर बिल्डिंग में छठवीं एवं सातवीं मंज़िल पर 1355 चौरस फुट में निर्मित व 550 चौरस फुट का छत सहित फ्लैट.
भांडुप के पश्चिमी क्षेत्र में स्थित लाल बहादुर शास्त्री मार्ग पर एचडीआईएल बिल्डिंग में दुकानें.
सांताक्रूज टाऊन प्लानिंग स्कीम क्रमांक 4, सीटीएस 445, वांद्रे दांडा में 959 यार्ड का भूखंड.
अंधेरी पूर्व में पवई में किंगस्टन बी में 401 क्रमांक की 700 चौरस फुट और 1006 क्रमांक का फ्लैट (मुख्यमंत्री के कोटे से हासिल किया हुआ).
पश्चिम बांद्रा में टर्नर रोड में स्थित आलीशान इमारत अफेयर में 401 क्रमांक के 2000 चौरस फुट का फ्लैट.
पवई स्थित हिरानंदानी गार्डन में स्थित भव्य व्यापारी संकुल में 38 व 39 क्रमांक के 930 चौरस फुट की दुकानें.
कुर्ला स्थित हिरानंदानी गार्डंस की अब्रोसिया बहुमंज़िली इमारत में 202 क्रमांक का फ्लैट.
रत्नागिरी, वडापेठ में 250 एकड़ का भूखंड.
उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िले में 8000 चौरस फुट का व्यावसायिक परिसर.
पनवेल में 1100 चौरस फुट की दुकानें.
कोंकण के राजापुर तहसील में भी कृपाशंकर का 100 एकड़ का बाग़ होने का भी पता चला है.

भेड़ाघाट में नर्मदा का सौंदर्य देखने उमड़ती है भीड़

मध्य प्रदेश में जबलपुर शहर के बगल में नर्मदा नदी के गोद में बसा एक जगह जहाँ घुमती सड़कें उचाइयों की तरफ बढ रही थी,पेड़ों से पटी झुरमुठ के पिछे से झांकती झाड़ियाँ,जो उस जगह के लिए किसी नवविवाहिता के द्वारा प्रयुक्त श्रिंगार प्रशाधन से कम न थी.
चारों तरफ फैली बड़ी-बड़ी चट्टानें खुद में अटल एवं आभायुक्त चरित्र को समेटे हुए थी.उन चरित्रों को उभारनें का कार्य वहाँ के शिल्पकार कर रहे थे,जो उनकी जीविका का साधन एवं आगन्तुकों के आकर्षण के केन्द्र भी थे.कलाक्रितियाँ ऐसी जो बरबस ही आगन्तुकों की भीड़ को अपनी ओर खींच रही थी.
आगे बढने पर नीचे उतरते पथरीले -संकड़े रास्ते,जहाँ सुरज की किरणें चारों तरफ व्याप्त संगमरमर के वास्तविक चरित्र के प्रदर्शन में अपना योगदान दे रही थी.नदजल की कलकल ध्वनी जो उँचाई से गिरने पर कर्णप्रिय संगित के रुप में हमारे कानों तक पहुँच रही थी तथा जल की बुंदे उँचाई से गिरने पर फुहरों में परिवर्तित हो कपासी प्रतिरुप प्रदर्शित कर रही थी.
नर्मदा एवं बैण-गंगा की सम्मिलित तेज धारा एवं गहरी खाई,जो हमारे दिल की धड़कनों को तेज कर रही थी और अनजान खतरे से आगाह भी.कुल मिलाकर एक ऐसा मनोरम जगह जो हमारे मन को आह्लादित एवं नयनों को त्रिप्ती की परकाष्ठा तक ले जा रहा था.
हम धुआंधार के सामने खड़े हैं। सामने यानी रेलिंग पर। नर्मदा यहां कोई 10-12 फीट नीचे खड्ड में गिरती है और फुहारों के साथ ऊपर उछलती है, मचलती है। गेंद की तरह टप्पा खाकर फब्वारों साथ ऊपर कूदती है । यहां नर्मदा का मनोरम सौंदर्य अपने चरम पर होता है। घंटों निहारते रहो, फिर भी मन न भरे। जल प्रपात का ऐसा नजारा शायद ही कहीं और देखने को मिले।

धुआंधार के सामने दोनों ओर कतारबद्ध संगमरमर की चटानें हैं, जो नर्मदा का रास्ता रोकती हैं। इन मार्बल राक्स की बनावट ऐसी है कि लगता है इन्हें किसी धारदार छेनी से तराशा गया हो। चट्टानों की बीच नर्मदा सिकुड़ती जाती है पर वह अपने वेग में बलखाती, इठलाती और अठखेलियां करती आगे बढ़ती जाती है। मानो कह रही हो "मुझे कोई नहीं रोक सकता।

यहां ’रोपवे’ भी हैं लेकिन मेरे बेटे ने इस पर यह कहकर जाने से मना कर दिया कि यह विकलांगों के लिए है। हम तो पैदल चलकर ही जाएंगे। यानी यह जेब ढीली करने का ही साधन है।

संझा आरती का समय है। भक्तजन नर्मदा मैया की आरती कर रहे हैं। दीया जलाकर लोग आरती कर रहे हैं और कुछ लोग नर्मदा में दीप प्रवाह कर रहे हैं। कर्तल ध्वनि के साथ आरती में बहुत से लोग शामिल हो गए हैं। आरती के पशचात प्रसाद वितरण हो रहा है।

कुछ परिक्रमावासी ’हर-हर नर्बदे’ का जयकारा कर रहे हैं। पहले लोग नर्मदा के एक छोर से दूसरे छोर तक और वापस उसी स्थान तक पैदल ही परिक्रमा करते थे। अब भी कुछ लोग करते हैं। लेकिन अब बस या ट्रेन से भी परिक्रमा करने लगे हैं।

जीवनदायिनी नर्मदा की महिमा युगों-युगों से लोग गाते आ रहे हैं। लेकिन अब नर्मदा संकट में है। बरसों से नर्मदा बचाओ की लड़ाई लड़ी जा रही है। इस पर बड़े-बड़े बांध बनाए जा रहे हैं। मैं वापस लौटते समय सोच रहा था कि क्या इस जीवनदायिनी मनोरम सौंदर्य की नदी को बचाया नहीं जा सकता?
दम तोड़ रही हैं सतपुडा की नदियां

आमतौर पर जब कभी नदियों पर बात होती है तो ज्यादातर वह बड़ी नदियों पर केंद्रित होती है। लेकिन इन सदानीरा नदियों का पेट भरने वाली छोटी नदियों पर हमारा ध्यान नहीं जाता, जो आज अभूतपूर्व संकट से गुजर रही हैं। अगर हम नजर डालें तो पाएंगे कि कई छोटी-बडी नदियां या तो सूख चुकी हैं या फिर बरसाती नाले बनकर रह गई हैं। गांव-समाज के बीच से तालाब, कुंए और बाबडी जैसे परंपरागत पानी के स्रोत तो पहले से ही खत्म हो गए हैं। अब इन छोटी नदियों पर आए संकट से बडी नदियां तो प्रभावित हो ही रही हैं। जनजीवन के साथ पशु-पक्षी और वन्य- जीवों को भी परेशानी का सामना करना पड रहा है।

देश-दुनिया में नदियों के किनारे ही सभ्यताएं पल्लवित-पुष्पित हुई है। जहां जल है, वहां जीवन है। लेकिन आज नदियां धीरे-धीरे दम तोड रही हैं। नदियों का प्रवाह अवरूद्ध हो रहा है। वर्षों पुरानी नदी संस्कृति खत्म रही है। उनमें पानी नहीं हैं, पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखने वाली रेत नहीं है। सतपुडा अंचल की बारहमासी सदानीरा नदियां या तो सूख गई है या बारिश में ही उनकी जलधारा प्रवाहित होती हैं, फिर टूट जाती है। उनके किनारे लगे हरे-भरे पेड और उन पर रहने वाले पक्षी भी अब नजर नहीं आते। यानी पानी बिना सब सून।

मध्यप्रदेश में सतपुड़ा पहाड और जंगल कई छोटे-बडे नदी-नालों का उद्‌गम स्थल है। पहाड और जंगलों में पेड पानी को जडों में संचित करके रखते हैं और धीरे-धीरे वह पानी रिसकर नदियों में जलधाराओं के रूप में प्रवाहित होता है। और एक्वीफर के माध्यम से संचित पानी भूजल में संग्रहीत होता है।

जंगल कम हो रहे हैं। कुछ वर्षों से बारिश कम हो रही है या खन्ड बारिश हो रही है । बार-बार सूखा पड रहा है। इसके अलावा, नदियों के तट पर बडी तादाद में ट्‌यूबवेल खनन किए जा रहे हैं। डीजल पंप से सीधे पानी को खेतों में लिफट करके सिंचाई की जा रही है। स्टापडेम बनाकर पानी को उपर ही रोक लिया जाता है, जिससे जलधारा आगे नहीं बढ पाती। उद्योगीकरण और शहरीकरण बढ रहा है। ज्यादा पानी वाली फसलें लगाई जा रही हैं। बेहिसाब पानी इस्तेमाल किया जा रहा है।

सतपुडा की दुधी, मछवासा, आंजन, ओल, पलकमती और कोरनी जैसी नदियां धीरे-धीरे दम तोड रही हैं। देनवा में अभी पानी नजर आता है लेकिन उसमें भी साल दर साल पानी कम होता जा रहा है। तवा और देनवा में भी पानी कम है। अमरकंटक से निकलकर इस इलाके से गुजरने वाली सबसे बडी नर्मदा भी इसी इलाके से गुजरती है। इनमें से ज्यादातर नदियां नर्मदा में मिलती हैं। इनके सूखने से नर्मदा भी प्रभावित हो रही है।

अगर हम मध्यप्रदेद्गा के पूर्वी छोर पर होशंगाबाद और नरसिंहपुर जिले विभक्त करने वाली दुधी नदी की बात करें, तो नदियों के संकट को समझा जा सकता है। यह नदी कुछ वर्ष पहले तक एक बारहमासी सदानीरा नदी थी। दुधी यानी दूध के समान। साफ और स्वच्छ। छिंदवाड़ा जिले में महादेव की पहाडियों से पातालकोट से दुधी निकलती है और सांडिया से ऊपर खैरा नामक स्थान में नर्मदा में आकर मिलती है। यह नर्मदा की सहायक नदी है। पर आज दुधी में एक बूंद भी पानी नहीं ढूंढने से नहीं मिलता। बारिश के दिनों में ही पानी रहता है और अप्रैल-मई माह तक आते-आते पानी की धार टूट जाती है और रेत ही रेत नजर आती है।

जहां कभी पानी होने के कारण नदी में जनजीवन की चहल-पहल होती थी, पशु-पक्षी पानी पीते थे। बरौआ- कहार समुदाय के लोग इसकी रेत में डंगरवारी तरबूज-खरबूज की खेती करते थे। धोबी कपडे धोते थे, मछुआरे मछली पकड ते थे, केंवट समुदाय के लोग जूट के रेशों से रस्सी बनाते थे। वहां अब सन्नाटा पसरा रहता है। नदी संस्कृति खत्म हो गई है। अब लोग नदी के स्थान पर हैंडपंप और ट्‌यूबवेल पर आश्रित हो गए हैं, जिनकी अपनी सीमाएं हैं।

इसी जिले के पिपरिया कस्बे से गुजरने वाली मछवासा नदी भी सूख चुकी है। सोहागपुर की पलकमती कचरे से पट गई है। इन नदियों में जो पानी दिखता है, वह नदियों का नहीं, शहरों की गंदी नालियों का है। पलकमती से ही पूरे सोहागपुर का निस्तार होता था। सोहागपुर का रंगाई उद्योग और पानी की खेती दूर-दूर तक मशहूर थे। अब यह खेती अपनी अंतिम सांसें गिन रही है।


तवा और नर्मदा पर बांध बनाए गए हैं। उनसे सैकडों गांव विस्थापित हुए। जबसे बरगी बांध बना है तबसे तरबूज-खरबूज की खेती चौपट हो गई है। बरगी बांध १९९० में बन गया लेकिन उसकी नहरें आज तक नहीं बनी। इसलिए बांध में ज्यादा पानी रहता है तो छोड दिया जाता है जिससे डंगरवारी बह जाती है। नर्मदा बांध बनने से उसमें मछलियां भी कम हो गई है।

हालांकि नर्मदा उसकी कई सहायक नदियों के सूखने के कारण वह बहुत कमजोर हो गई है। लेकिन हम इस सबसे नहीं चेत रहे हैं और पानी का बेहिसाब इस्तेमाल से पानी के स्रोतों को ही खत्म कर रहे है, जो शायद फिर पुनर्जीवित न हो सकें। अगर हमें बड़ी नदियों को बचाना है तो छोटी नदियों पर ध्यान देना होगा। छोटी नदियों का संरक्षण जरूरी है। अगर हम इन पर छोटे-छोटे स्टापडेम बनाकर जल संग्रह करें तो नदियां भी बचेंगी और खेती में भी सुधार संभव है।

Sunday, March 18, 2012

काले हीरे का काला बाजार




काला हीरा यानी कोयले का कारोबार भी उसी की तरह काला है. कोयले के काला बाजार में सफेदपोशों की चलती है जिसके कारण यह माफियाओं की पहली पसंद बन गया है.एक अनुमान के अनुसार देश में करीब 20 फीसदी कोयला काला बाजारी की भेंट चढ़ जाती है.
भारतीय कोयला बाज़ार एक अजीबो-गऱीब दानव है. कोल इंडिया लिमिटेड (सीआईएल), सिंगरेनी कोल कोलियरी लिमिटेड (एससीसीएल) और नेवेली लिग्नाइट कॉर्पोरेशन (एनएलसी) के बीच राज्यों की स्वाधिकृत कंपनियों के उत्पादन के अल्पाधिकार की भरपाई ऐतिहासिक रूप में क्रय के एकाधिकार द्वारा की जाती रही है. उदारीकरण से पहले तक कोयले के सबसे बड़े औद्योगिक उपभोक्ता अर्थात बिजली, लोहा व इस्पात और सीमेंट के कारख़ाने भी ज़्यादातर राज्यों के स्वाधिकृत कारख़ाने ही रहे हैं, लेकिन वास्तव में रेलवे ही एक ऐसी संस्था है जिसके पास कोयले को बड़े पैमाने पर उठाने और उसे वितरित करने की अच्छी-खासी मूल्य-शक्ति है. उदारीकरण के बाद जब ये जि़म्मेदारियां सीआईएल को औपचारिक रूप में सौंप दी गईं, तब कोयला मंत्रालय ने 2000 के दशक की शुरुआत तक मूल्यों पर नियंत्रण बनाए रखा. फिर भी आयात-समानता के मूल्यों पर केवल कोयले के उच्चतम ग्रेड ही बेचे गए और भारत का अधिकांश उत्पादन निचले ग्रेड का होने के कारण कम मूल्य पर बेचा गया और हो सकता है कि इन मूल्यों का निर्देश अनिवार्य वस्तुओं, खास तौर पर बिजली की लागत को कम रखने के लिए कदाचित कोयला मंत्रालय द्वारा दिया गया था. सन 2011 के आरंभ में सीआईएल ने विभेदक मूल्य प्रणाली शुरू की, जिसके आधार पर बाज़ार-संचालित क्षेत्रों के लिए उच्चतर मूल्य तय किए गए.
इन बदलती हुई मूल्य-व्यवस्थाओं के बावजूद काले बाज़ार को छोड़कर खुले बाज़ार में थोक में कोयला खरीदना सचमुच बहुत कठिन है. भारत के छह सौ मिलियन टन के घरेलू कोयला उत्पादन में से लगभग 80 प्रतिशत का आवंटन कोयला मंत्रालय की प्रशासनिक समितियों के माध्यम से विभिन्न क्षेत्रों के सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों के आवेदकों को किया गया. अतिरिक्त 10 प्रतिशत की बिक्री ऑनलाइन ई-नीलामी के माध्यम से की गई, जिसके परिणामस्वरूप अच्छा-खासा राजस्व भी मिला है. 2009-10 में ई-नीलामी मूल्य औसतन अधिसूचित मूल्यों से लगभग 60 प्रतिशत ऊपर रहा. अवरुद्ध कोयला ब्लॉक, जिन्हें जल्द ही प्रतियोगी बोलियों के माध्यम से सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियों को आवंटित कर दिया जाएगा, 19 प्रतिशत अतिरिक्त था. अंतत: घरेलू कोयला उत्पादन का आ़खिरी 1 प्रतिशत राज्य सरकार की एजेंसियों को, जो इसे स्थानीय बाज़ारों को उपलब्ध करा देते हैं, आवंटित कर दिया जाता है.
कोयले के कम मूल्य के पीछे का तर्क था कि बिजली, इस्पात और सीमेंट का परिणामी उत्पादन अनिवार्य था और वृद्धि को बढ़ावा देने के लिए उसकी क़ीमत कम करना ज़रूरी था, लेकिन आर्थिक सलाहकार के कार्यालय से हाल के मूल्यों के आंकड़ों को देखते हुए 2004 से 2011 तक कोयले के मूल्य में 89 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि बिजली, इस्पात और सीमेंट के मूल्यों में क्रमश: 13 प्रतिशत, 26 प्रतिशत और 50 प्रतिशत की वृद्धि हुई. उसी अवधि में थोक मूल्य सूचकांक में 54 प्रतिशत वृद्धि हुई. जहां एक ओर बिजली के मूल्य विनियमित कर दिए गए, वहीं दोनों के मूल्य का विनियमन नहीं हुआ है, जिसका अर्थ यह हुआ कि इन दोनों उद्योगों ने कोयले के बढ़ते मूल्यों को पर्याप्त रूप में आत्मसात करते हुए उनका प्रबंधन कर दिया. यदि स्थिति यही है तो कृत्रिम रूप से कोयले के कम मूल्य के रूप में सहायता की इनपुट राशि का तर्क काफ़ी कमज़ोर है, लेकिन मूल्य-निर्धारण मूलभूत समस्या भी नहीं है.
यह समय सबसे अच्छा था, यह समय सबसे खराब था, यह युग समझदारी का था, यह युग ही बेवक़ूफिय़ों का था. कोयले की इस वर्तमान गतिशीलता की तुलना किसी षड्यंत्र और दो शहरों की कथा (ए टेल ऑफ़ टू सिटीज़) के झंझावात से नहीं की जा सकती. यह कथा निश्चय ही आरंभिक भावनाओं को प्रतिबिंबित करती है और इससे इस क्षेत्र में चलने वाले घटनाचक्र का अंदाज़ा हो जाता है. हाल में बाज़ारी पूंजीवाद के संदर्भ में सबसे प्रतिष्ठित कंपनी के रूप में कोल इंडिया के उदय होने की चर्चा समाचार पत्रों में गूंजती रही है. वित्तीय जश्न मनाने की बजाय पिछले कुछ वर्षों से भारत में कोयले की भारी कमी रही है, जिसके कारण राज्य सरकारें, सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की पावर और इस्पात कंपनियां समय पर कोयले की डिलीवरी न होने की लगातार शिकायतें करती रही हैं.
कोयले की आपूर्ति की निगरानी के लिए विकसित प्रशासनिक प्रणाली बहुत जल्द ही अपनी विश्वसनीयता खोने जा रही है. बिजली के क्षेत्र की क्षमता, शायद कुछ मूर्खतापूर्ण लगे, लेकिन कोयले की आपूर्ति की क्षमताओं से कहीं आगे निकल गई है. इस समय चलने वाले कई संयंत्र, खास तौर पर वे संयंत्र जो राज्य के क्षेत्र में हैं, अपनी क्षमता से बहुत कम काम कर रहे हैं. पिछले साल वर्तमान संविदागत कऱारों को पूरा करने में सक्षम न होने के कारण ही बहुत कम कोयला ईंधन आपूर्ति कऱारों पर हस्ताक्षर हो पाए हैं.
घरेलू कोयले के सुरक्षित भंडार से काफ़ी मात्रा में कोयला निकालने की भारत की क्षमता में गिरावट आने के कारण उसकी नीति पर भी मूल रूप में इसका असर पड़ा है. कोयला मंत्रालय द्वारा निष्पादित नवीनतम कोयला ईंधन आपूर्ति कऱार (एफएसए) बिजली संयंत्रों की ईंधन संबंधी 75 प्रतिशत आवश्यकताओं को पूरा करने की गारंटी देते हैं, शेष की पूर्ति निजी तौर पर की जानी चाहिए. यदि कोयला ईंधन आपूर्ति कऱार (एफएसए) निष्पादित हो भी जाए, जो अपने आपमें संपर्क अनुमोदन प्रक्रिया की जटिलताओं को देखते हुए बेहद अनिश्चित है तो भी रेल और सड़क मार्ग के मिले-जुले रूप के कारण स्त्रोत स्थल से ले जाकर गंतव्य स्थल पर उन्हें खाली करने-कराने के तौर-तरीक़ों और उसके लिए जि़म्मेदार एजेंसियों द्वारा लॉजिस्टिकल प्रबंधन के कमज़ोर समन्वयन के कारण और भी नुक़सान और देरी होती रहती है. इस बात को लेकर हैरानी भी नहीं होनी चाहिए कि बड़े-बड़े कोयला उपभोक्ता बेहतर कि़स्म के कोयले को चुनने के लिए उसे उन देशों से आयातित करने पर आमादा होने लगे हैं, जहां पर कऱार और लॉजिस्टिक्स से संबंधित दायित्वों का पूर्वानुमान किया जा सकता है. इसकी प्रतिक्रिया में कोयला निर्यातक देशों और अभी हाल में इंडोनेशिया ने भी कोयले की बढ़ती मांग को देखते हुए उसकी क़ीमत में बढ़ोतरी और विनियमों में परिवर्तन करना शुरू कर दिया है.
आशा है कि भारत अगले कुछ वर्षों में एक मिलियन टन से अधिक कोयले का आयात करेगा. क्या कारण है कि कोयले का घरेलू उत्पादन मांग को पूरा करने में विफल रहा है? हालांकि इस बारे में बहुत-से स्पष्टीकरण दिए जा चुके हैं, फिर भी यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब कदाचित सबसे कठिन है. कुछ लोग कहते हैं कि पर्यावरण संबंधी स्वीकृति और भूमि अधिग्रहण ही मुख्य बाधाएं रही हैं. कुछ लोग इसका दोष राज्यों द्वारा स्वाधिकृत कोयला कंपनियों पर मढ़ देते हैं जो अपने परिचालन में आधुनिक खनन की परिपाटियों और प्रौद्योगिकी को प्रभावशाली रूप में अपनाने में असमर्थ रहे हैं. सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कोयला कंपनियों के इन पुराणपंथी मालिकों की काफ़ी आलोचना भी हुई है. इनके कई मालिकों ने तो उत्पादन के लिए ब्लॉक ला पाने में विफल होने के बाद अपने आवंटित ब्लॉकों को अनावंटित भी करा दिया. कि़स्सागोई की तरह आपराधिक तत्वों के साथ कोयला उद्योग की मिलीभगत और उसके फलस्वरूप होने वाली चोरी और ग्रेड की गुणवत्ता को कम करने की वारदातों को भी समझा जा सकता है. यही कारण है कि घरेलू उद्योग में वर्तमान कमी के सही कारणों को समझना इतना आसान नहीं है, परंतु एक बात तो साफ़ है कि परंपरागत बाज़ार की अपेक्षित क्षमताओं का पूरा उपयोग नहीं हो पाया है.
कोयले की आपूर्ति की निगरानी के लिए विकसित प्रशासनिक प्रणाली बहुत जल्द ही अपनी विश्वसनीयता खोने जा रही है. बिजली के क्षेत्र की क्षमता, शायद कुछ मूर्खतापूर्ण लगे, लेकिन कोयले की आपूर्ति की क्षमताओं से कहीं आगे निकल गई है. इस समय चलने वाले कई संयंत्र, खासतौर पर वे संयंत्र जो राज्य के क्षेत्र में हैं, अपनी क्षमता से बहुत कम काम कर रहे हैं. पिछले साल वर्तमान संविदागत कऱारों को पूरा करने में सक्षम न होने के कारण ही बहुत कम कोयला ईंधन आपूर्ति कऱारों पर हस्ताक्षर हो पाए हैं. पिछले कुछ महीनों में श्रमिक संकट, भारी वर्षा और तेलंगाना विरोध के कारण इस प्रणाली की ऐसी कमी भी सामने आई है, जिसके कारण बिजली के संयंत्रों में कोयले के भंडार कम होने लगे और अनेक दक्षिणी राज्यों में लंबे समय तक बिजली की कटौती होने लगी.
ऐसी अप्रत्याशित परिस्थितियों में निजी क्षेत्र में भी जोखिम बढऩे के कारण उत्साह में कमी दिखाई पडऩे लगी. सीआईएल के मूल्य-निर्धारण के उत्साह से भरे सारे प्रयासों पर बार-बार पावर क्षेत्र द्वारा पानी फेर दिया गया. यदि इन्हें उचित रूप में कार्यान्वित किया जाए तो इससे पावर क्षेत्र में सैद्धांतिक रूप में स्थितियों में सुधार आ जाएगा, लेकिन बढिय़ा कोयले की डिलीवरी में सीआईएल के खराब रिकॉर्ड के कारण कई ऑपरेटर भारी रद्दोबदल करने की बजाय स्थिति को यथावत बनाए रखना ही पसंद करते हैं. इस प्रकार का संतुलन, जहां कोई भी पक्ष पूरी तरह से निकम्मी पड़ी इस प्रणाली में कोई भारी परिवर्तन नहीं चाहता, बहुत समय तक नहीं चल सकता.
इस प्रकार की समस्याओं का कोई सरल समाधान नहीं है, इसलिए इन पर गंभीर विचार मंथन की आवश्यकता है. रणनीतिक कारणों से विदेशों से कोयले के संसाधन मंगवाने की बात ठीक तो लगती है, लेकिन इस बात को मद्देनजऱ रखते हुए कि कोयले की किसी खान को पूरी तरह से विकसित करने में पांच से सात साल तक का समय लगता है, अपने देश में ही कुछ अल्पकालिक उपायों की आवश्यकता तो होगी ही. कोयले के क्षेत्र में सुधारों पर शंकर समिति की रिपोर्ट में चार साल पहले कई ऐसी समस्याओं की भविष्यवाणी की गई थी और उस समिति की सिफ़ारिशों पर कार्रवाई करने में कुछ समय तो लगेगा ही. अनेक महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करना होगा. उदाहरण के लिए पिछले बीस वर्षों में भारतीय कोयला खनन कंपनियों की उत्पादकता में बदलाव कैसे आया? कोयले की आपूर्ति की लाइनें कैसे चलती हैं और इस प्रक्रिया में बाधाएं और विचलन कहां हैं? क्या भारत अपनी घरेलू खानों से इष्टतम मात्रा में कोयला निकाल सकता है? क्या यह संभव है कि वर्तमान क़ानूनी ढांचे के भीतर अधिक खुले कोयला बाज़ार में संक्रमण किया जा सके ? इन सवालों पर गंभीरतापूर्वक विचार करने के बाद ही पिछले कुछ वर्षों से इस क्षेत्र में चली आ रही समस्याओं के लगातार समाधान की कोशिशें रंग ला पाएंगी.
काला हीरा यानी कोयले का कारोबार भी उसी की तरह काला है। कोयले के काला बाजार में सफेदपोशों की चलती है जिसके कारण यह माफियाओं की पहली पसंद बन गया है। एक अनुमान के अनुसार देश में करीब 20 फीसदी कोयला काला बाजारी की भेंट चढ़ जाती है। अकेले मध्य प्रदेश में हर साल करीब 350 करोड़ का कोयला तस्करी के माध्यम से बाजारों में पहुंच रहा है।
मध्य प्रदेश में कई कोयला खदानें हैं और इन खदानों का कोयला देश भर में भेजा जाता है। कोयले के इस कारोबार में खदान से लेकर कोल डिपो और परिवहन प्रक्रिया के दौरान भारी मात्रा में कोयला चोरी होता है और अच्छी गुणवत्ता के कोयले को चुराकर वजन पूरा करने के लिए कोयले के ढेर में पत्थर और कचरा मिलाया जाता है। यही पत्थर और कचरायुक्त कोयला बिजली संयंत्रों को भेजा जाता है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से बिजली उत्पादन कंपनियों के आला अफसर कई बार शिकायत कर चुके हैं कि राज्य के बिजली संयंत्रों को मिलने वाले कोयले में बड़ी मात्रा में पत्थर और कचरा होता है, जिससे बिजली उत्पादन प्रभावित होता है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि कोयला कंपनियां तो अच्छा कोयला ही भेजती हैं। बीच में कोयला परिवहन करने वाले और भंडारण करने वाले कोयला चोरी करते हैं और उसमें पत्थर कचरा मिलाकर वजन पूरा कर देते हैं। इस गोरखधंधे में कोयला कंपनियों और बिजली संयंत्रों के ज़मीनी अधिकारियों की मिली भगत से इंकार नहीं किया जा सकता है। कोयला चोरी करोड़ों रुपयों का लाभदायक धंधा है और इस कमाई का बंटवारा ऊपर से नीचे तक होता है।
छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जि़ले में तो कोयला चोरी का बड़ा मामला संसदीय जांच समिति ने पकड़ा भी है, लेकिन मध्य प्रदेश में अभी किसी का ध्यान नहीं गया है। यह चोरी का कोयला उद्योगों, कल कारखानों और कोयला आपूर्ति करने वाली व्यापारिक कंपनियों के भंडार में ही जाता है।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और बिजली संयंत्रों के आला प्रबंधकों ने मिलावटी कोयले की बार-बार शिकायत करके बिजली संयंत्रों के लिए बेहतर गुणवत्ता वाले कोयले के आयात के समर्थन में माहौल तैयार किया और केंद्र सरकार से आयात की अनुमति भी ले ली है। लेकिन इस बारे में कांग्रेस नेताओं को पूरी आशंका है कि कोयला आयात का धंधा भ्रष्टाचार से प्रेरित है। एक यह भी आशंका जताई जा रही है कि देश में बड़ी मात्रा में हो रही कोयला चोरी को ठिकाने लगाने के लिए कुछ कंपनियां, बिजली संयंत्रों को कोयला बेचने के लिए लालायित हैं और हो सकता है कि मध्य प्रदेश सरकार का आयातित कोयला खरीदने का फैसला भी इन कंपनियों के दबाव का ही नतीजा हो।

देश का 28 प्रतिशत कोयला उत्पादन मध्यप्रदेश से
देश के कोयला उत्पादन का 28 प्रतिशत प्रदेश की धरती से हर साल राष्ट्र को उपलब्ध कराया जाता है। यह मात्रा लगभग 75 मिलियन टन है, लेकिन प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए 17 मिलियन टन कोयला भी प्रदेश को केंद्र सरकार नहीं दे रही है। प्रदेश में बिजली उत्पादन का मुय स्रोत कोयला ही है। बिजली प्लांटों के लिए कोयला केंद्र सरकार उपलब्ध कराती है। कोल इंडिया लिमिटेड यह मात्रा तय करती है। प्रदेश के बिजली प्लांटों के लिए केंद्र सरकार ने लगभग 17 मिलियन टन कोयला आपूर्ति का कोटा तय किया है, लेकिन पिछले तीन सालों से प्रदेश को लगभग 13-14 मिलियन टन कोयला ही मिल पा रहा है। कोयले की आवंटित मात्रा उपलब्ध कराने के लिए 2009 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सारणी से कोयला यात्रा भी निकाली थी।
मप्र के कोयला उत्पादन में भारी कमी के आसार
पुरानी खदानों के बंद होने और नये कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू न होने से राज्य में कोयले के उत्पादन में भारी कमी होने जा रही है। उत्पादन में होने वाली यह संभावित कमी राज्य सरकार के लिए चिंता का विषय बन गई है क्योंकि खनन से मिलने वाली कुल रॉयल्टी में कोयले का हिस्सा 60 फीसदी होता है।
मध्य प्रदेश के सिंगरौली जिले में कई कोयला खदानें है। इसमें से सबसे बड़े कोल रिजर्व वाली झिंगुरदाह खदान जल्द ही बंद होने वाली है। एनसीएल की गोरबी खदान में भी कोयला कम बचा हुए है। प्रदेश के सिंगरौली की सभी खुली खदानेंं है, यहां के अलावा प्रदेश की ज्यादातर खदाने भूमिगत है और काफी पुरानी है। प्रदेश में फिलहाल कोल इंडिया की तीन सहायक कंपनियां एनसीएल, एसईसीएल और डब्ल्यूसीएल की कुल छह खदानें है।
दूसरी ओर प्रदेश के नये कोल ब्लॉकों में अभी तक कोल उत्पादन शुरू नहीं हुआ है तथा अगले दो सालों तक उनके शुरू होने की कोई संभावना भी नहीं है। प्रदेश में विभिन्न पॉवर कंपनियों को 22 कोल ब्लॉक आवंटित किये गये है, जिनका अनुमानित कोल भंडार 3100 मिलियन टन का है। ये ब्लॉक सिंगरौली, शहड़ोल, उमरिया, अनूपपुर और छिंदवाड़ा में है। जिन कंपनियों को यह आवंटित किये गये है उनमें रिलायंस एनर्जी लिमिटेड, एस्सार पॉवर, मध्य प्रदेश राज्य खनिज निगम, राष्ट्रीय खनिज विकास निगम, जे.पी.एसोसिएटस, ए.सी.सी. लिमिटेड शामिल है।
आज की स्थितियों को देखते हुए तय माना जा रहा है कि जब तक नये कोल ब्लॉकों में उत्पादन शुरू नहीं होगा, प्रदेश में कुल कोयला उत्पादन नहीं बढ़ेगा। ऐसी स्थिति में राज्य को कोयले से होने वाली रॉयल्टी में भी कमी आयेगी। चालू वित्त वर्ष में नवंबर महीने तक कुल रॉयल्टी 2086 करोड़ रुपये है, इसमें करीब 1079 करोड़ रुपये इन्फ्रास्ट्रक्चर फंड के रुप में आया है। इस तरह से खनन की रॉयल्टी 1007 करोड़ रुपये है। इसी दौरान कोयले से मिलने वाली रॉयल्टी 619 करोड़ रुपये है। सरकार इसी राशि में होने वाली कमी को लेकर परेशान है।
कोयला जितना काला है उससे अधिक इस धंधे में लगे लोग काले हैं। ब्लैक डायमंड के नाम से प्रख्यात कोयले के काले कारोबार ने रातों ही रात में कईयों को फर्श से उठाकर अर्श पर ला खड़ा किया है। कोयले के कारोबार में मापदंडों का जिस प्रकार उल्लंघन हो रहा है उससे पर्यावरण भी दूषित हो रहा है। सिंगरौली में 22 सितंबर को ग्रीनपीस द्वारा सार्वजनिक सभा में एक रिपोर्टे जारी की गई। रिपोर्टर को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट देश की विधुत राजधानी में छाए प्रदुषण एवं विनाश को बेनकाब करती है।
चारों तरफ कोयला की धूल के बीच पुरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है।उन्होंने अपनी जमीन विधुत उत्पादन के लिए दी जो उन तक नहीं पहुँचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं तथा स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगो की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।
यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हाशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दुसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का सम्पूर्ण पारिस्थिकी तन्त्र खतरे में है। फिर भी महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। कोयला से काला' नामक एक रिपोर्ट आज बैधन की एक सार्वजनिक सभा में जारी की गई। इस सभा में कोयला खनन एवं थर्मल पावर प्लांटों से प्रभावित गांवों के लोग और वैसे लोग जिनके गांवों में खनन या औद्योगिक परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं, उपस्थित थे।
यह रिपोर्ट ग्रीनपीस द्वारा जुलाई 2011 में गठित एक तथ्य आंकलन दल (फैक्ट फाइंडिंग मिशन)(1) का नतीजा है। इसमें पर्यावरण एवं इस क्षेत्र के लोगों पर अनियंत्रित कोयला खनन तथा ताप बिजली संयंत्र (थर्मल पावर प्लांटों) के प्रभाव को दर्ज किया गया है। इस तथ्य आंकलन दल को देश की विद्युत राजधानी के तौर पर प्रोत्साहित, सिंगरौली, में कोयला खनन के कारण हो रहे मानवीय उत्पीडऩ एवं पर्यावरण के विनाश की सच्चाई को सामने लाने के लिए गठित किया गया था।
रिपोर्ट को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा, ''सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट, देश की विद्युत राजधानी माने जाने वाले सिंगरौली, में छाए प्रदूषण एवं विनाश को बेनकाब करती है। चारों तरफ कोयले की धूल के बीच पूरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है। उन्होंने अपनी जमीनें विद्युत उत्पादन के लिए दीं जो उन तक नहीं पहुंचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं है तथा उनका स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगों की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।''
इस तथ्य आंकलन दल के निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं, खासकर मंत्रियों के समूह (जीओएम) द्वारा कोयला खनन के लिए वन प्रखंडों के आवंटन की स्वीकृति के संदर्भ में। केवल सिंगरौली में ही, माहन, छत्रसाल, अमेलिया एवं डोंगरी टाल-2 के वन प्रखंडों को पहले 'वर्जितÓ (नो-गो) की श्रेणी में रखा गया था। लेकिन अब इस विषय में मंत्रियों के समूह की ओर से स्वीकृति की प्रतीक्षा की जा रही है। हाल ही में कुछ खबरों के अनुसार मंत्रियों के समूह द्वारा 'वर्जितÓ व 'गैर वर्जितÓ (गो) क्षेत्र का सीमांकन रद्द किया जा सकता है। जब तक अक्षत वनों का सीमांकन नहीं किया जाता, इन वनों और लोगों की जमीन पर अधिग्रहण का खतरा बढ़ता रहेगा।
आधिकारिक तौर पर, 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद से सिंगरौली क्षेत्र में 5,872.18 हेक्टेयर वन का गैर-वन्य उपयोग के लिए विपथन किया जा चुका है। सिंगरौली के वन प्रमंडल अधिकारी के अनुसार और भी 3,299 हेक्टेयर वन विपथन के लिए प्रस्तावित है। इसमें वर्तमान एवं प्रस्तावित औद्योगिक गतिविधियों के कारण वन-भूमि के अतिक्रमण के विभिन्न उदाहरण शामिल नहीं हैं।
फिलहाल, प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से माहन के वनों को एस्सार एवं हिंडाल्को के खनन स्वामित्व में हस्तांतरित करने के लिए बेहद दबाव दिया जा रहा है। पूर्व पर्यावरण एवं वन मंत्री, जयराम रमेश ने संकेत दिए थे कि इन वनों में खनन नही किया जाना चाहिए। माहन में उपलब्ध कुल 144 मिलियन टन का कोयला भंडार हिंडाल्को इंडस्ट्रीज लिमिटेड एवं एस्सार पावर लिमिटेड के ताप बिजली संयंत्र के लिए केवल 14 वर्षों तक कोयले की आपूर्ति के लायक हैं।
ग्रीनपीस इंडिया की नीति अधिकारी प्रिया पिल्लई ने आगे कहा, ''यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दूसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में हैं। फिर भी, महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। वन भूमि के और अधिक विपथन के पहले सरकार को दूसरे क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन करना चाहिए। कंपनियों को भी चाहिए कि वे प्रभावित समुदायों की आजीविका पर ध्यान दें, मानवाधिकारों पर हो रहे असर का आंकलन करें, भूमिहीनों एवं वन-आश्रित समुदायों की क्षतिपूर्ति तथा पुनर्वास की व्यवस्था करें।''
तथ्य आंकलन दल ने 9 एवं 10 जुलाई 2011 को सिंगरौली के उत्तर प्रदेश वाले इलाके में चिलिका दाड, दिबुलगंज (अनपरा थर्मल पावर प्लांट के निकट), बिलवाड़ा और सिंगरौली क्षेत्र के मोहर वन प्रखंड, अमलोरी एवं निगाही खदानों का दौरा किया। इस दल ने जनपद प्रशासन एवं कोल इंडिया लिमिटेड के प्रतिनिधियों से भी मुलाकात की।
रिपोर्ट में शामिल सूचनाओं के अनुसार देश में चुनिंदा 88 अति प्रदूषित औद्योगिक खण्ड के विस्तृत पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक पर सिंगरौली नौवें स्थान पर है। इसके 81.73 अंक यह साफ-साफ संकेत करते है कि यह क्षेत्र खतरनाक स्तर पर प्रदूषित है। दरअसल, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (एनआईएच) और भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) के प्रदूषण नियंत्रण अनुसंधान संस्थान (पीसीआरआई) की रिपोर्ट साफ-साफ संकेत करती है कि कोयला खनन के कारण सिंगरौली क्षेत्र में भू-जल का प्रदूषण हुआ है।
इसके अतिरिक्त, ' इलेक्ट्रिसिटे द फ्रांसÓ की एक अप्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उत्पादन के लिए निम्नस्तरीय कोयले के उपयोग के कारण सिंगरौली के थर्मल पावर प्लांटों से हर साल लगभग 720 किलोग्राम पारा (मर्करी) निकलता है। अनेक गांवों में और यहां तक कि नॉदर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के उच्च अधिकारियों के द्वारा भी, तथ्य आंकलन दल को बताया गया कि चूंकि उनका दौरा बरसात के मौसम में हुआ है इसलिए वायु का गुणवत्ता स्तर काफी बेहतर था। सामान्यत:, और खासकर गर्मी के महीनों में वायु की गुणवत्ता का स्तर काफी खराब होता है। राख के तालाबों और खदानों के आस-पास रहने वाले ग्रामवासियों ने कहा कि उन महीनों में उनका जीवन नर्क हो जाता है। इसके फलस्वरूप, सिंगरौली गांव के लोगों को अनेक तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ रहती हैं जिनमें सांस की तकलीफ, टीबी, चर्मरोग, पोलियो, जोड़ों में दर्द और अचनाक कमजोरी तथा रोजमर्रा की सामान्य गतिवधियों को करने में कठिनाई जैसी अनेक समस्याएं हैं।
इस रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया गया है कि किस तरह विभिन्न खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों ने ग्रामीण जीवन को नुकसान पहुंचाया है लेकिन इन गतिविधियों के संचालकों से किसी ने भी स्वास्थ्य सेवा एवं बुनियादी सुविधाओं को मुहैया कर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे कुप्रभाव को कम करने की जिम्मेदारी नहीं ली है। उदाहरण के लिए, सोनभद्र जनपद (उत्तर प्रदेश में) के शक्तिनगर में चिलिका दाड गांव को लें जो नैशनल कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के मिट्टी के ढेर, कोयला ढोने वाली रेलवे लाइन और राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम के पावर प्लांट से घिरा है और यहां जल को प्रदूषित करने, वायु को प्रदूषित करने एवं स्वीकृत मानदंड से अधिक शोर पैदा करने में इनमें से हरेक की भूमिका है।
केवल अकेले चिलिका दाड में ही 600 ऐसे परिवार हैं जिन्हें इन विभिन्न परियोजनाओं के कारण अनेक बार विस्थापित होना पड़ा है। इन निवासियों को आवासीय पट्टे दिए गए केवल उस पर रहने के अधिकार के साथ। वे न तो इस जमीन को बेच सकते हैं और न ही इसके एवज में कोई कर्ज ले सकते हैं। अब इस गांव से महज 50 मीटर की दूरी पर भारी संख्या में खदानों, बेरोजगारी, उच्चस्तरीय प्रदूषण एवं खनन विस्फोट का खतरा झेल रहे ग्रामीणों के सामने बदहाली को झेलने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है।
तथ्य आंकलन दल इस बात की सिफारिश करता है कि जब तक अन्य क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन न हो जाए तब तक के लिए सिंगरौली के वन क्षेत्र में सभी खनन गतिविधियों पर रोक लगाई जाए। दल यह भी सिफारिश करता है कि सभी खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों का व्यापक मानवाधिकार आंकलन किया जाए और लोगों की शिकायतें दूर करने के लिए जमीनी स्तर पर कारवाई की जाए। इस दल ने महसूस किया है कि दशकों से सिंगरौली में प्रभावित जन समुदायों की आजीविका का सवाल बुनियादी तौर पर अनुत्तरित ही रहा है। इस मोर्चे पर तथ्य आंकलन दल ने सुझाव दिया है कि लोग अपनी पूर्ववर्ती आजीविका को जारी रख सकें, इस पर प्रशासन को ध्यान देना चाहिए। इसके लिए भूमि-आधारित क्षतिपूर्ति व्यवस्था लागू की जाए जिसके माध्यम से अधिग्रहीत की गई कृषि भूमि के बदले में किसी दूसरी जगह कृषि भूमि प्रदान की जाए।
भिलाई इस्पात संयंत्र में काले हीरे की कालाबाज़ारी इस तरह चलती है कि प्रतिवर्ष अरबों रुपये का लेनदेन अधिकारियों, कर्मचारियों और पुलिस के साथ मिलकर खुलेआम कर लिया जाता है. इस धंधे में लगे हुए ठेकेदार कहने को तो कोयले की बुहारन यानी शेष बचा हुआ कोयला बटोरते हैं, पर इसी के भरोसे छत्तीसगढ़ में एक नया कोल मा़फिया लंबे समय से सक्रिय है. इस पर लगाम लगाने की न कभी कोशिश की गई और न ही इसे गंभीरता से लिया गया. पिछले बीस वर्षों में इस धंधे से 350 करोड़ रुपये से अधिक की अवैध कमाई की गई है.
भिलाई से लेकर बिहार और झारखंड तक इस्पात कारखानों में कोल माफिया रेलवे, आरपीएफ, इस्पात संयंत्रों के अधिकारियों-कर्मचारियों और सुरक्षातंत्र के साथ मिलकर यह अवैध कारोबार कर रहे हैं, जिसे हर स्तर पर राजनीतिक संरक्षण हासिल है. भिलाई इस्पात संयंत्र को बिहार, झारखंड और कोरबा की खानों से निकलने वाला कोयला आपूर्ति किया जाता है, जो मालगाड़ी के माध्यम से यहां तक पहुंचता है. जानकारी के अनुसार, एक मालगाड़ी में 6 से 10 वैगन तक होते हैं और एक वैगन में 18 से 60 टन कोयला भरा होता है. जैसे ही मालगाड़ी यार्ड में पहुंचती है, ट्रांसपोर्ट एवं डीजल विभाग, मैटेरियल विभाग, कोक ओवन विभाग मिलकर कोयला रिसीव करते हैं और डिब्बा खाली होने का क्लियरेंस देते हैं. इसके बाद डिब्बे में पड़े कोयले का चूरा, जिसे बुहारन कहा जाता है, साफ़ करने की प्रक्रिया शुरू होती है. इसी बुहारन के ज़रिए ही भिलाई इस्पात संयंत्र से प्रतिवर्ष 350 करोड़ रुपये का चूना लगाया जाता है. भिलाई स्टील प्लांट में काम करने वाला ठेकेदार अग्रवाल, जिसका पूरा नाम ज्ञात नहीं है, इस बुहारन को पिछले कई वर्षों से लगातार साफ़ कर रहा है. इस ठेकेदार ने 60-70 मज़दूर लगा रखे हैं, जो बेलचे से बुहारन एकत्र करने का काम करते हैं. प्रत्येक मज़दूर को 90 रुपये प्रतिदिन मज़दूरी दी जाती है. एक महीने में मज़दूरों का भुगतान एक लाख 79 हज़ार रुपये के आसपास होता है. इतनी बड़ी राशि के लिए इस बुहारन का बाज़ार भाव 200 से 250 रुपये प्रति टन होता है. प्रतिमाह भिलाई इस्पात संयंत्र में 30 मालगाडिय़ां डाउनलोड होती हैं. यानी 250 टन प्रतिमाह. बारह माह में 60 हज़ार टन बुहारन मालगाडिय़ों से उतारी जाती है, जिसकी कुल क़ीमत करोड़ों में होती है. इस बुहारन के साथ योजना के अनुसार अच्छा कोयला भी डिब्बे में छोड़ दिया जाता है, जो खुले बाज़ार में अतिरिक्त रूप से बेच दिया जाता है.

पिछले बीस वर्षों के दौरान लगभग 350 करोड़ रुपये का माल तस्करों द्वारा ग़ायब कर दिया गया. यह मात्र अनुमान है. सूत्रों के अनुसार, बिना टेंडर के बेचे जाने वाले इस माल के व्यापार में लगभग हर स्तर के अधिकारी और कर्मचारी को मुंह बंद करने की पूरी क़ीमत दी जाती है. बिना किसी अधिकार के ठेकेदार द्वारा बीस वर्षों की अवधि में कितना माल निकाल कर बाज़ार में बेचा गया, इसका हिसाब इस्पात संयंत्र या रेलवे के किसी भी अधिकारी के पास नहीं है. इस संदर्भ में चौथी दुनिया ने जब विभिन्न विभागीय अधिकारियों से चर्चा करनी चाही तो अफ़सर कन्नी काट गए. भिलाई इस्पात संयंत्र के जनसंपर्क अधिकारी जेकब कुरियन का कहना है कि हमें भी कोयले की कमी की शिकायतें मिल रही हैं. हालांकि इस्पात संयंत्र का ट्रांसपोर्ट और डीजल विभाग डिब्बों को खाली कराता है. उन्होंने कहा कि प्रबंधन खुद ही अपनी निगरानी में क्लीनिंग कराएगा.
भिलाई इस्पात संयंत्र में कोयले की तस्करी का सिलसिला विभिन्न स्तरों पर निरंतर जारी है. प्रबंधन यदि जाग भी जाए तो अवैध रूप से पैसा कमाने का आदी हो चुका तंत्र उसे सक्रिय नहीं होने देगा.
झारखंड की सत्ता संस्कृति कमोबेश कोयले और लोहे के अवैध धंधे से ही ऊर्जा प्राप्त करती है. यह धंधा राज्य के ताक़तवर नेताओं और आला अधिकारियों के संरक्षण में बड़े ही संगठित रूप से संचालित होता है. कोल इंडिया की दो अनुशंगी कंपनियां भारत कोकिंग कोल लिमिटेड और सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की खदानें पूर्ण रूप से और ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड की कुछेक खदानें झारखंड की सीमा के अंदर आती हैं. इन इलाक़ों में एक प्रचलित शब्द है डिस्को पेपर. इसका इस्तेमाल चोरी के कोयले को सड़क मार्ग से मंडी तक पहुंचाने के ग़ैर सरकारी परमिट के रूप में किया जाता है. रास्ते में पडऩे वाले पुलिस थानों से लेकर तमाम सरकारी महकमे को इसकी जानकारी रहती है. यह एक सांकेतिक टोकन होता है, जिसे कोयला माफिया हर दिन बदल देता है. प्राय: दस या बीस रुपये के नोटों की गड्डी से एक-एक नोट को निकालकर आधा फाड़ दिया जाता है और चोरी का कोयला ले जाने वाले ट्रक को निर्धारित फीस के एवज में दिया जाता है. किस इलाक़े से किस सीरीज़ के नोट जारी किए गए हैं, सुबह माफिया के गुर्गे रास्ते के तमाम थानों को सूचित कर देते हैं. ट्रक वालों को सफिऱ् इसे दिखाना होता है. उन्हें हर थाना क्षेत्र में वीआइपी ट्रीटमेंट मिलता है. वैध कोयले से लदी गाड़ी भले ही रोक ली जाए, लेकिन अवैध कोयले की गाडिय़ों को कोई नहीं रोकता. कारण, हर सप्ताह माफिया की तरफ़ से बंधी बंधाई रकम का पैकेट उन तक पहुंच जाता है. पुलिस की विश्वसनीयता बनाए रखने के लिये कभी-कभी मैच फिक्सिंग के अंदाज़ में कोयले की बरामदगी भी करा दी जाती है.
कोल इंडिया की दो अनुशंगी कंपनियां भारत कोकिंग कोल लिमिटेड और सेंट्रल कोलफील्ड लिमिटेड की खदानें पूर्ण रूप से और ईस्टर्न कोलफील्ड लिमिटेड की कुछेक खदानें झारखंड की सीमा के अंदर आती हैं. इन इलाक़ों में एक प्रचलित शब्द है डिस्को पेपर. इसका इस्तेमाल चोरी के कोयले को सड़क मार्ग से मंडी तक पहुंचाने के ग़ैर सरकारी परमिट के रूप में किया जाता है. रास्ते में पडऩे वाले पुलिस थानों से लेकर तमाम सरकारी महकमे को इसकी जानकारी रहती है. यह एक सांकेतिक टोकन होता है, जिसे कोयला माफिया हर दिन बदल देता है.
झारखंड के कोयला खदान क्षेत्रों से लेकर हाइवे तक कार्य विभाजन के आधार पर धंधे का संचालन होता है. माफिया, पुलिस, औद्योगिक सुरक्षा बल और स्थानीय जनप्रतिनिधियों के संरक्षण में कुछ दबंग किस्म के अपराधकर्मी बंद खदानों में अवैध उत्खनन कराते हैं. इसमें प्राय: स्थानीय गऱीब बेरोजग़ारों को दैनिक मज़दूर के रूप में लगाया जाता है. असुरक्षित और अवैज्ञानिक खनन कार्य के कारण दुर्घटनाएं भी होती रहती हैं, जिसमें मौतें भी हो जाती हैं, लेकिन प्राय: स्थानीय ग्रामीण शवों को हटा लेते हैं और चुपके से अंतिम संस्कार कर देते हैं. अवैध उत्खनन में लिप्त होने की बात कोई स्वीकार नहीं करता. प्रतिदिन अवैध उत्खनन से उत्पादित कोयले को अवैध डिपो में एकत्र किया जाता है. जंगल, पहाड़ और आबादी से जऱा हटकर बने इन डिपो का संचालन भी माफिया के गुर्गों की टीम के जि़म्मे रहता है. स्थानीय ग्रामीण कोयला खदानों से कोयला चुराकर साइकिलों पर लादकर इन्हीं डिपो में लाकर बेचते हैं. इसके एवज में उन्हें भरण-पोषण भर रकम मिल जाती है. पुलिस वाले भी इन्हीं को परेशान करते हैं और अवैध वसूली करते हैं. रोजग़ार के अभाव में ग्रामीण इस अवैध धंधे में शामिल हो जाते हैं. स्थानीय थाने को प्रति ट्रक एक हज़ार से तीन हज़ार तक नजऱाना दिया जाता है. हाइवे के पहले पडऩे वाले थानों को भी प्रति ट्रक की दर से नजऱाना तय रहता है. डिस्को पेपर हाइवे में प्रभावी होता है. कोयलांचल के पुलिस थानों की प्रतिदिन की कमाई लाखों में होती है, इसीलिये इन थानों में पोस्टिंग के लिए पुलिस अधिकारी मुंहमांगी रकम देने को तैयार रहते हैं. इस धंधे में पुलिस, पत्रकार, नेता और यहां तक की नक्सलियों का भी हिस्सा रहता है, जिसे पूरी ईमानदारी के साथ निर्धारित अवधि में बांट दिया जाता है. पुलिस थानों के प्रभारी अपने आला अधिकारियों को इसका हिस्सा पहुंचाते हैं. माफिया की तरफ से पुलिस, प्रशासन और राजधानी के आकाओं को अलग से पैकेट भेजा जाता है. शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल हो जिसके शीर्ष नेताओं को उनकी हैसियत के मुताबिक़ थैली न पहुंचाई जाती हो. ऐसा नहीं कि यह धंधा अनवरत रूप से चलता हो. चुनाव के पूर्व या केंद्र के ज़्यादा दबाव बढऩे पर कुछ समय के लिए इसका पैमाना घटा दिया जाता है. ऐसे मौक़ों पर सरकार की छवि सुधारने के लिए ईमानदार और कड़े प्रशासकों का पदस्थापन कोयलांचल के इलाकों में किया जाता है. फिर माहिर अधिकारियों को भेजकर धंधे का दायरा बढ़ा दिया जाता है.
चोरी के कोयले को मंडी तक पहुंचाने का काम भी कुछ खास ट्रक मालिक करते हैं. उन्हें सामान्य से अधिक भाड़ा मिलता है और रास्ते में कोई परेशानी नहीं होती. कोयला माफिया के पास ऐसे ट्रकों की लिस्ट रहती है. वे हर ट्रिप के बाद माफिया के यहां उपस्थिति दर्ज करा देते हैं. उन्हें दिन के व़क्त ही बता दिया जाता है कि किस डिपो से लोड लेना है. शाम ढलने के बाद इनपर कोयले की लदाई होती है और देर रात वे हाइवे पकड़ लेते हैं. अधिकांश कोयला डिहरी और बनारस की मंडियों में खपाया जाता है, जहां से इसे देश के दूसरे इलाक़ों के कोयला व्यापारी खरीद ले जाते हैं.

कोयला चोरी को रोकने की बात हर सरकार करती है. इसके लिये तरह-तरह के उपाय भी किए जाते हैं. कभी टास्क फोर्स बनाई जाती है तो कभी लगातार छापेमारी की जाती है. कभी चिन्हित कोयला तस्करों को गिरफ्तार कर जेल में भी डाला जाता है. लेकिन सब सफिऱ् दिखावे के लिये. सत्ता में बैठे लोगों के खाने के दांत और दिखाने के दांत अलग रहते हैं. एक अनुमान के अनुसार प्रतिवर्ष कऱीब 1000 करोड़ का कोयला चोरी से मंडियों तक पहुंचाया जाता है. कुछ बड़े तस्करों का जाल तो नेपाल और चीन तक बिछा हुआ है. चोरी का कोयला स्थानीय स्तर पर भी रोलिंग मिलों, ईंट भ_ों आदि में धड़ल्ले से खपाया जाता है. उन्हें यह कोयला सस्ता पड़ता है. चोरी का कोयला खपाने वाले कल-कारखानों का नजऱाना भी स्थानीय स्तर से राजधानी तक पहुंचता है. बहरहाल, काले हीरे के काले धंधे में कई सफ़ेदपोश लाल हो रहे हैं. इसे कोई स्वीकार करे न करे, लेकिन कोयले की दलाली में अच्छे-अच्छों के हाथ काले हो रहे हैं, जिसे वे तरह-तरह के दास्त

Sunday, January 8, 2012

नौकरशाहों के निजी क्षेत्र प्रेम पर लगेगा अंकुश





निजी क्षेत्र का मोहपाश नौकरशाहों को वर्षो से अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। यही कारण है कि वर्ष 2001 के बाद से 100 से अधिक नौकरशाहों ने निजी क्षेत्र की नौकरी पकडऩे की खातिर सरकारी नौकरी से या तो स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली या फिर रिटायरमेंट के बाद निजी क्षेत्र का रूख किया है। कैरियर के बीच में नौकरी छोड़ देना आईएएस एवं आइपीएस अधिकारियों के लिए कोई नई बात नहीं है,लेकिन प्रशासनिक सेवा से रिटायर होकर निजी क्षेत्र में शानदार नौकरियां तलाशने वाले नौकरशाहों को तगड़ा झटका लगने वाला है। मौजूदा नियम के मुताबिक, सरकारी अफसर रिटायरमेंट के बाद, कम से कम एक साल तक निजी क्षेत्र में नौकरी नहीं कर सकते हैं। इस एक साल की अवधि को कूलिंग ऑफ पीरियड कहा जाता है। घोटालों की शृंखला से जूझती केंद्र सरकार इस अवधि को बढ़ाकर तीन साल करना चाहती है। केंद्रीय मंत्री वी नारायणस्वामी के नेतृत्व में कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय मौजूदा नियम में बदलाव को अंतिम रूप दे रहा है, ताकि जल्द ही उसे कैबिनेट से मंजूरी मिल सके।
ऐसे मामलों में हमेशा ही निहित स्वार्थ की संभावना बनी रहती है। हम इसे रोकना चाहते हैं। हम कूलिंग ऑफ पीरियड को फिर से तीन साल करना चाहते हैं। सात-आठ साल पहले इसे घटा कर एक साल कर दिया गया था। इस तर्क के पीछे यह सवाल छुपा हुआ है कि क्या आईएएस अफसरों को निजी क्षेत्र में काम करने की इजाजत दी जानी चाहिए? खासकर तब, जबकि लॉबिंग उसके काम का महत्वपूर्ण हिस्सा हो। हालांकि अपनी सीमाओं के बावजूद, मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने सरकारी अफसरों की निष्ठा और आचार संहिता बनाए रखने के लिए अपने तई भरसक प्रयास किए हैं।
लेकिन यह बात भी पूरी तरह सही है कि रिटायरमेंट के बाद निजी क्षेत्र में नौकरी करने की इछा रखने वाले अफसरों के आग्रह को सरकार बहुत अच्छे ढंग से मैनेज नहीं कर पाई है। देखा जाए तो मनमोहन सरकार कूलिंग ऑफ पीरियड के नियम लागू करने के मामले में काफी ढीली साबित हुई है, जबकि रिटायर होने वाले अफसरों के लिए इन नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। मिसाल के तौर पर इन मामलों पर एक नजर डालते हैं।
दरअसल, कॉरपोरेट रणक्षेत्र में प्रतिस्पर्धा के बीच ख़ुद को बचाए रखने और आगे बढ़ाने के लिए कंपनियों के पास दो ही विकल्प हैं- या तो वे नेताओं और अफ़सरों को रिश्वत दें या फिर अवकाश प्राप्त अफ़सरों को अपने यहां नौकरी पर रखें जो उनके लिए राजनीतिक और अफ़सरशाही वर्ग से निपट सकें। पहले की तुलना में दूसरा विकल्प बहुत तेजी से लोकप्रिय होता जा रहा है। निजी क्षेत्रों में आकर्षक तनख्वाह और भारतीय प्रशासनिक सेवा एवं भारतीय पुलिस सेवा की मुश्किल भरी नौकरी सहित विभिन्न कारणों के चलते आईएएस एवं आइपीएस अफसरों के नौकरी छोडऩे का सिलसिला जारी है। बीते तीन साल में 30 अधिकारियों ने आइपीएस की नौकरी छोड़ दी। अखिल भारतीय सेवा में भारतीय पुलिस सेवा (आइपीएस) की नौकरी काफी लोकप्रिय है, बावजूद इसके आइपीएस अफसर करियर के बीच में ही नौकरी छोड़ रहे हैं। बीते तीन सालों के आंकड़ों पर नजर डालें तो पता चलता है कि 2008 में 12, 2009 में दस और 2010 में आठ आइपीएस अधिकारियों ने नौकरी छोड़ी।
आईएएस अफसर अशोक मोहन चक्रवर्ती पश्चिम बंगाल के प्रमुख सचिव पद से 30 अप्रैल 2010 को रिटायर हुए। उन्होंने आईएएस कैडर पर नियंत्रण रखने वाले कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) से एस्सार समूह में काम करने की इजाजत मांगी। राज्य सरकार और अन्य संबंधित एजेंसियों से मश्विरे के बाद डीओपीटी ने उन्हें हरी झंडी दिखा दी। चक्रवर्ती ने सात अक्टूबर 2010 को स्थानीय निदेशक के पद पर एस्सार समूह को अपनी सेवाएं देनी शुरू कर दीं। वित्त सचिव पद से रिटायर होने वाले अशोक झा को सरकार ने एक ऑटोमोबाइल कंपनी में सेवा देने की इजाजत दे दी। तीन वरिष्ठ अफसर तो ऐसी कंपनियों से जुड़ गए, जो या तो सीधे तौर पर या फिर परोक्ष रूप से कॉरपोरेट लॉबिंग से जुड़ी थीं। अब इसे संयोग ही कहा जाएगा कि तीनों ही कंपनियां लॉबिंग को लेकर चल रहे हालिया विवाद से किसी न किसी तरह जुड़ी हुई हैं। ये तीनों कोई मामूली अफसर भी नहीं थे। प्रदीप बैजल विनिवेश सचिव थे, जो बाद में टेलीफोन रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) के चेयरमैन बने। अजय दुआ डिपार्टमेंट ऑफ इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रोमोशन में सचिव थे। इसी तरह सीएम वासुदेव आर्थिक मामलों के सचिव और विश्व बैंक के बोर्ड में भारत की ओर से नामित कार्यकारी निदेशक थे।
पीवी भिड़े 31 जनवरी 2010 को राजस्व सचिव के पद से रिटायर हुए थे। डीओपीटी ने उन्हें पांच कंपनियां ज्वाइन करने की इजाजत दी है। इनमें नॉसिल लिमिटेड, हिडेलबर्ग सीमेंट इंडिया लिमिटेड, ट्यूब इंवेस्टमेंट इंडिया लिमिटेड, एल एंड टी फाइनेंस लिमिटेड और ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड शामिल हैं। नरेश दयाल 30 सितंबर 2009 को केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय में सचिव पद से रिटायर हुए थे। जल्द ही उन्होंने ग्लैक्सो स्मिथक्लाइन कंज्यूमर हेल्थकेयर में अनाधिकारिक निदेशक के तौर पर जुडऩे की अर्जी दाखिल कर दी। 21 मई 2010 को उन्हें इजाजत भी दे दी गई।
उत्तर प्रदेश कैडर के 1973 बैच के अफसर अजय शंकर ने 31 दिसंबर 2009 को वित्त एवं उद्योग मंत्रालय से रिटायर होकर निदेशक के पद पर टाटा टी ज्वाइन कर लिया। इसी तरह यूनियन टेरिटरी कैडर के 1969 बैच के अफसर अनिल बैजल 31 अक्टूबर 2006 को शहरी विकास मंत्रालय के सचिव पद से रिटायर हुए। उन्हें 22 जून 2007 को इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फाइनेंस कंपनी के पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप इनिशिएटिव के सलाहकार व चेयरमैन पद पर ज्वाइन करने की इजाजत मिल गई।
तमिलनाडु कैडर के 1975 बैच के अफसर बृजेश्वर सिंह ने हाल में सड़क परिवहन और राष्ट्रीय राजमार्ग मंत्रालय को पत्र लिखकर एल एंड टी बिल्डिंग्स ज्वाइन करने की इजाजत मांगी है। उल्लेखनीय है कि एल एंड टी समूह ने हाल में विभिन्न व्यवसायों को अलग-अलग करने की रणनीति के तहत यह कंपनी बनाई है। मंत्रालय इस बात पर राजी है कि बृजेश्वर सिंह स्वतंत्र निदेशक के रूप में एल एंड टी बिल्डिंग्स ज्वाइन कर सकते हैं।
यूं तो इसमें कहीं कोई गड़बड़ी नजर नहीं आती, मगर शीर्ष नौकरशाहों को इतनी आसानी से इस तरह की इजाजत देने पर त्योरियां चढ़ सकती हैं। हाल में इस मुद्दे पर पुनर्विचार के अलावा सरकार ने कूलिंग ऑफ पीरियड में छूट दिए जाने को लेकर कभी कोई ठोस बचाव पेश नहीं किया। कैबिनेट का मसौदा तैयार करने वाले सरकारी अफसर इस बात की पुष्टि करते हैं कि कूलिंग ऑफ पीरियड के मामले का फिर से अध्ययन किया जा रहा है। नाम न छापने की शर्त पर एक अफसर ने कहा, एक खास तरह का काम है, जिसे करने की इजाजत रिटायर्ड सरकारी अफसरों को नहीं मिलनी चाहिए। फिलहाल तो सरकारी नीतियों में इस तरह के भेद का प्रावधान ही नहीं है। मिसाल के तौर पर, कूलिंग ऑफ पीरियड पूरा होते ही सेना से रिटायर हुए अफसर हथियार बेचने वाली कंपनियों में नौकरी कर सकते हैं। क्या सरकार को उन्हें इस तरह की इजाजत देनी चाहिए? सरकार का मसौदा इसकी भी पड़ताल करेगा कि क्या आईएएस अफसर को ऐसी लॉबिंग फर्म या किसी कंपनी से जुडऩे दिया जाना चाहिए, जिससे उनके अंतिम तीन पदों का कोई लेना-देना रहा हो। सही कहा जाए तो कूलिंग ऑफ पीरियड के फॉर्मूले को ही लॉबिंग में अनैतिकता रोकने के लिए काफी समझना ठीक नहीं होगा।
अधिकारी यह भी कहते हैं कि नीरा राडिया प्रकरण और पूर्व ट्राई अध्यक्ष के रिटायरमेंट के तुरंत बाद कॉरपोरेट लॉबिंग फर्म से जुडऩे का मामला कूलिंग ऑफ पीरियड में बदलाव के बारे में फिर से सोचने का बड़ा कारण बना। ऐसे और भी मामले हैं, जिनमें सेवानिवृत्त अधिकारी ऐसी कंपनियों से जुडऩे की चाहत रखते हैं, जिनके साथ उनका संबंध सरकारी नौकरी में रहते हुए भी था, जैसे कि भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग प्राधिकरण के एक पूर्व अधिकारी एक निर्माण कंपनी से जुडऩा चाहते थे। स्पष्टीकरण मांगने पर पता चला कि एक खास क्षेत्र में उनके रहते हुए उस कंपनी को कई ठेके दिए गए थे। आखिरकार, उन्हें वह कंपनी ज्वाइन करने की इजाजत नहीं मिली।
डीओपीटी एक और नजरिए से भी इस मामले को देख रही है: एक विचार यह भी है कि कूलिंग ऑफ पीरियड इस मसले को पूरी तरह नहीं सुलझा सकता, क्योंकि कई बार रिटायर हो चुके अधिकारी इसे बाईपास करते हुए फुलटाइम कर्मचारी होने की बजाय सलाहकार बनकर कंपनियां ज्वाइन कर लेते हैं। 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के बाद से तो यह खास रिश्ता ज्यादा ही चर्चा में आ गया है। सरकार इस गठबंधन को तोडऩे के रास्ते निकालने की दिशा में काम कर रही है। विशेष रूप से, चार पूर्व नौकरशाहों के पीआर कंसल्टेंट और लॉबिस्ट नीरा राडिया के संपर्क में रहने के मामले की बड़ी बारीकी से जांच की जा रही है। यह वही नीरा राडिया हैं, जिनकी फर्म में वैष्णवी कॉरपोरेट कम्युनिकेशंस, नोएसिस स्ट्रैटजिक कंसल्टिंग सर्विसेस, विटकॉम कंसल्टिंग और न्यूकॉम कंसल्टिंग शामिल हैं।
जिन नौकरशाहों पर उंगलियां उठी हैं, उनमें ट्राई के पूर्व अध्यक्ष व पूर्व विनिवेश सचिव प्रदीप बैजल, आर्थिक मामलों के पूर्व सचिव सीएम वासुदेव, इंडस्ट्रियल पॉलिसी एंड प्रमोशन के पूर्व सचिव अजय दुआ और ट्राई के पूर्व सदस्य डीपीएस सेठ शामिल हैं। जैसे ही घोटाला सामने आया, कैबिनेट सचिवालय ने तुरंत नीरा राडिया की फर्म वैष्णवी कम्युनिकेशंस से इनके रिश्तों की पड़ताल की थी। ट्राई से रिटायर होने के बाद बैजल राडिया की फर्म वैष्णवी कम्युनिकेशंस से जुड़ गए थे और फिर राडिया के साथ पार्टनरशिप में नोएसिस कम्युनिकेशन की स्थापना की थी। जब 2जी घोटाला सामने आया, तब बैजल नोएसिस के चेयरमैन थे। माना जा रहा है कि डीओपीटी अब रिटायर होते ही कूलिंग ऑफ पीरियड से छूट मांगने वाले नौकरशाहों के आग्रह पर सख्त रवैया अपनाएगा। डीओपीटी के अधिकारियों का कहना है कि उन्हें हर महीने ऐसे 10-12 प्रार्थनापत्र जरूर मिलते हैं और कोई आश्चर्य नहीं कि इनमें से ज्यादातर आर्थिक मंत्रालयों से जुड़े नौकरशाहों के होते हैं। विभाग ने अब तक काफी नर्म रवैया अपनाया है, मगर हाल के दिनों में सामने आए इन मामलों ने उसे और सावधानी बरतने पर मजबूर कर दिया है।

उदाहरण के लिए जरा इन दो मामलों पर एक नजर डालिए

हाल में, विभाग ने भारतीय राजस्व सेवा (आईआरएस) से सात महीने पहले रिटायर हुए एक अधिकारी का आग्रह ठुकरा दिया, जिन्हें दो निजी कंपनियों से 30-30 लाख रुपये प्रति माह के ऑफर मिले थे। इसी तरह के एक अन्य मामले में विभाग ने शहरी विकास मंत्रालय से रिटायर हुए एक अधिकारी को निर्माण कार्य करने वाली एक निजी कंपनी से जुडऩे की इजाजत नहीं दी। बाद में जांच से पता चला कि इस अधिकारी के कार्यकाल में उस निजी कंपनी को मंत्रालय की तरफ से कई ठेके दिए गए थे।पर एस्सार समूह से जुड़े पश्चिम बंगाल के पूर्व प्रमुख सचिव चक्रवर्ती अधिकारियों के निजी कंपनियों से जुडऩे को अनुचित नहीं मानते। वह कहते हैं, इसमें किसी तरह की गड़बड़ी कैसे हो सकती है? किसी भी अधिकारी को अनुमति देने से पहले सरकार ऐसे सभी पहलुओं की जांच करती है। एस्सार समूह से जुडऩे से पहले मुझे भी पांच महीने इंतजार करना पड़ा था। भिडे कहते हैं, इसमें गड़बड़ी क्यों हो सकती है? मैंने एक सरकारी खाद कंपनी चलाई है। निजी क्षेत्र मेरे अनुभव को इस्तेमाल कर सकता है। मैं अभी काम कर सकता हूं, मगर सरकार को अब मेरी सेवाओं की जरूरत नहीं है। इसलिए मैंने निजी क्षेत्र से जुडऩे का फैसला लिया।इसी तरह दयाल ने भी टीएसआई से कहा, सरकार ने मुझे जो भी जिम्मेदारी दी, मैंने उसे बाखूबी निभाया। निजी क्षेत्र में भी मैं अपनी जिम्मेदारियों को ऐसे ही निभाउंगा।
डीओपीटी के अधिकारियों की मानें तो रिटायरमेंट के बाद निजी क्षेत्र से जुडऩे का आग्रह करने वाले अधिकारियों की सूची काफी लंबी है। एक जनवरी 2007 तक अनिवार्य कूलिंग ऑफ पीरियड दो साल हुआ करता था, मगर आईएएस अधिकारियों की जबरदस्त लामबंदी के चलते इसे घटाकर एक साल कर दिया गया। इतना ही नहीं, अधिकारियों का एक वर्ग ऐसा भी है, जो ऐच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर निजी क्षेत्र से जुड़ जाता है।
यूपी कैडर के 1976 बैच के अधिकारी अशोक कुमार खुराना ने नवंबर 2007 में ऊर्जा मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव के पद से ऐच्छिक सेवानिवृत्ति ली थी। अप्रैल 2008 में उन्हें जेपीएसके स्पोट्र्स से जुडऩे की अनुमति दे दी गई। उत्तराखंड कैडर के 1975 बैच के अधिकारी ओपी आर्या ने मई 2008 में समय से पहले रिटायरमेंट ले लिया था। डीओपीटी से जनवरी 2009 में अनुमति मिलने के बाद वह जेपी गंगा इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरपोरेशन लिमिटेड में मुख्यकार्यकारी अधिकारी बन गए।
कहते हैं कि इन अधिकारियों को निदेशक के तौर पर एक बार बैठने के लिए दस हजार रुपये और सालाना 170 करोड़ रुपये तक वेतन मिल जाता है। यदि उन अधिकारियों को भी जोड़ लिया जाए, जिन्होंने केवल राज्य सरकारों से अनुमति लेकर निजी क्षेत्र में नौकरी कर ली है, तो यह सूची और भी लंबी हो जाएगी। नियम कहता है कि सचिव पद से नीचे तीन साल तक राज्य सरकार की नौकरी करने वाले अधिकारियों को केंद्र से नहीं, बल्कि राज्य सरकार से अनुमति लेना ही काफी है। इससे उनका काम और भी आसान हो जाता है।
ये मामले तो हाल के दिनों में खबरों में रहे हैं। 1990 के दशक की शुरुआत में तो ऐसे ढेर सारे मामले सामने आए थे, जब रुपर्ट मरडॉक ने दूरदर्शन के प्रमुख रतिकांत बासु को भारत में स्टार के प्रमुख के तौर पर अपने साथ जोड़ लिया था। बासु के साथ सूचना विभाग की वरिष्ठ अधिकारी उर्मिला गुप्ता और इंदिरा मानसिंह भी स्टार से जुड़ गई थीं।
दिसंबर 2010 में रिटायर हुए एचएचएआई के पूर्व अध्यक्ष बृजेश सिंह ने सरकार से निर्माण क्षेत्र की बड़ी कंपनी एल एंड टी से जुडऩे की अनुमति मांगी है। ये उसी शृंखला की कड़ी है, जिसमें पूर्व सरकारी अधिकारियों और सरकारी कंपनियों के प्रमुखों की निजी क्षेत्र में जाने की इच्छा साफ तौर पर बढ़ती नजर आती है। हाल में, स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेट (सेल) के पूर्व अध्यक्ष एसके रूंगटा ने बतौर प्रबंध निदेशक, वेदांता एल्यूमिनियम ज्वाइन किया है। यह तो वे कुछ नाम हैं जो पिछले दिनों चर्चा में रहे। ऐसे सैकड़ों नौकरशाह हैं जो निजी क्षेत्र में अपनी सेवाएं दे रहे हैं और कई जाने की तैयारी में हैं। अब देखना यह है कि सरकार नौकरशाहों के पलायन पर किस हद तक अंकुश लगा पाती है।