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भेड़ाघाट

Wednesday, April 21, 2010

वर्क कल्चर ने बैठाया भट्टा

देश में लोकतंत्र की स्थापना के 58 साल बाद भी हमारी नौकरशाही का चाल, चेहरा, चरित्र वही पुराना है। अंग्रेजी शासनकाल के दौरान देश में प्रशासन का जो ढांचा तैयार किया गया था उसका मकसद जनता की सेवा करना और उसके प्रति संवेदनशील और जवाबदेह होना कतई नहीं था। पारदर्शिता के बजाय सरकारी गोपनीयता पर ज्यादा जोर दिया गया और इसका कानून भी बना। लेकिन आजादी के बाद भी यह कानून चलता रहा। अब यह कानून अस्तित्व मेें नहीं है और सूचना के अधिकार के रूप में लोगों के पास अब पारदर्शिता का हथियार तो आ गया है, लेकिन सरकारी कामकाज का रंग-ढंग अब भी वैसा ही है।
मध्यप्रदेश में कार्य करने की संस्कृति को नौकरशाहों ने रद्दी की टोकरी में फेंक दिया है। वैसे उसके दोषी राजनेता है जो संविधान तो बनाते हैं, लेकिन उतनी दृत्रढता से पालन नहीं करवाते हैं। प्रदेश के पिछत्रडने का कारण ही कार्य संस्कृति है। वेतन भत्तों से लबरेज और सुविधाएं पाने में सबसे आगे रहने वाले इन नौकरशाहों पर थैलीशाहों का कब्जा हो गया है। इनका अब कार्य करने में मन नहीं लगता है बल्कि किसी अच्छे काम को उलझाने में महारत हासिल हो चुकी है। काम के घंटे सरकार ने तय किये हैं, लेकिन कोई अधिकारी इस भीत्रडतंत्र में कार्य संस्कृति के अनुरूप कार्य करता है तो उसे अनकल्चर्ड अधिकारी सनकी, तुनकमिजाज और यहां तक की 'अरे वह तो पागल है ' की संज्ञा देकर जनता में बदनाम किया जाता है। आखिर किसी ने यह जानने की कोशिश की इतनी आराम तलब नौकरी को लात मारकर आईएएस जनसेवा में क्यों चले जा रहे हैं।
आखिर क्या कारण रहे कि इतनी सुविधा और अधिकार संपन्न ओहदे को छोत्रडकर आईएएस जनसेवा मेें चले गए और वहां पर संतोषी सदा सुखी का जीवन भी जी रहे हैं। स्वाभाविक है कि जनसेवा ओहदे पर बैठकर भी की जा सकती है लेकिन इन्हेें कहीं न कहीं ऐसा लगा कि फाइलों की अत्रडंगेबाजी उनके इस कार्य मे रोत्रडे ही नहीं अटकाएगी बल्कि न चाहते हुए भी कई ऐसे निर्णयों का अपरोक्ष रूप से भागीदार बनना पत्रडेगा जिसके लिए उनका जमीर इजाजत नहीं देता है। अपने समय के सक्त एवं ईमानदार आईएएस रहे बीडी शर्मा (ब्रम्हदेव शर्मा) नर्मदा बचाओ आंदोलन में शरीक होकर डूब प्रभावितों के हकों की लत्रडाई लत्रडते रहे इस दौरान उनकी गिरफतारियां भी हुई, लेकिन यह कार्य करने से उन्हें आत्मसंतोष है। हरीश रावत ने इस ओहदे को छोत्रडकर दूसरा रास्ता चुना। अजय सिंह यादव बेहद ईमानदार और सख्त छवि रखने वाले इस अधिकारी ने बीच में ही आईएएस पद को तिलांजलि दे दी। एक कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि 'मेरा दम घुटता था अब मैं स्वतंत्र हूं।' इनकी ही राह पर चले हर्ष मंदर, जिकी रूचि और तैनाती ट्राइबल क्षेत्र में रही इन्होंने भी बीच मेें ही मंत्रालय को नमस्ते कर एक एनजीओ के माध्यम से जनसेवा मेें जुट गए हैं। आखिर क्या कारण है कि इस उच्चश्रेणी के ओहदे को पाने के लिए लोग अपना सर्वस्व दांव पर लगा देते हैं, लेकिन इस पद पर आने के बाद न जाने किन कारणों से उन्हें विरक्ति हो जाती है। इन कारणों की खोजबीन कर उसका हल ढूंढना होगा वरना वह दिन दूर नहीं कि जब इस ओर कोई आना नहीें चाहेगा लेकिन अभी के अधिकांश अधिकारी इसलिए नौकरी छोत्रड रहे हैं कि उन्हें मोटी तनख्वाह में विदेशों में पत्रढाना है या फिर बहुराष्ट्रीय कंपनियों मेें ऊँचे ओहदे पर जाना है। ऐसे भी उदाहरण हैं जिन अधिकारियों ने अपने स्वर्णिमकाल मेें जिस बत्रडी कंपनी का वर्क कल्चर से हटकर काम किया है बाद मेें उसी कंपनी में आईएएस की नौकरी छोत्रडकर वह अधिकारी दिखाई दिया। कोई पत्रढाई के नाम पर गायब, तो कोई बंदा रिसर्च के नाम पर ऐश कर रहा है। इन्हें कोई कुछ नहीं बोलता, क्योंकि ऐसा बताया जाता है कि आईएएस की कमी है। आश्चर्य की बात यह है कि प्रशासनिक सुधार के नाम पर जितने भी काम हुए हैं उनका तो एक-एक करके अंत हो गया है। मध्यप्रदेश के प्रशासनिक अधिकारियों की कार्य करने की जिम्मेदारी और निपटान के लिए समय सीमा तय है। इसको लेकर समय-समय पर कमेटियां भी बनी हैं और उसके निर्देशों का पालन कैसे हुआ है यह प्रदेश की बदतर प्रशासनिक व्यवस्था बता रही है। काम किसी का विलंब से न हो और निर्बाध गति से हो इसके लिए आईएएस प्रशिक्षण की मातृ संस्था मसूरी से भी अधिकारियों की टीम आ चुकी है, लेकिन हम नहीं सुधरेंगे की तर्ज पर टीम के निर्देश हवा में उत्रडा दिए गए। किसी भी फाईल का निपटान करने के लिए व्यवहारिक रूप से ती स्तरीय व्यवस्था लागू है लेकिन हालात यह है कि प्रदेश मेें पांच और छह स्तरीय प्रणाली से काम चलाया जा रहा है। नतीजा फाईल निपटान में देरी और लंबित फाईलों का अंबार लगना स्वाभाविक है। जहां तक टेञफलॉजी की बात है, तो प्रदेश के आईएएस से दूसरे प्रदेश के अधिकारी इसका भरपूर उपयोग कर रहे है। यहां लेपटॉप और कम्प्यूटर तो ले लिए गए लेकिन उसका सही रूप से उपयोग करने के बजाय कोर्ट बाबू की तरह चेटिंग करने के काम आ रहा है। लेपटॉप खरीदने में राज्य सरकार को चूना लगा वह अलग से। यहां के आईएएस नियम कायदे और समय से काम करने के बजाया अपनी कुर्सी बचाने के लिए क्या उद्योगपति और क्या उल्टा-सुल्टा करने में लगे हुए हैं। इस समझौतावादी प्रवृति ने इनके काम करने के जुनून को मार दिया है। मसूरी और मंत्रालय की ट्रेनिंग मेें जमीन आसमान का अंतर है। मंत्रालय के कामकाज करने के तरीके को देखकर यही कहा जा सकता है कि चलती चाकी देकर दीया कबीरा रोय। मध्यप्रदेश इतना भुगत चुका हे कि प्रशासनिक सुधार करने में पसीने आ रहे हैं। अब फाइलों को निपटाने के लिए विकेन्द्रीकरण की बात की जा रही है, फिलहाल तो आलम यह है कि फाईल में मुद्दे छोटे हों या बत्रडे, सभी मंत्री की टेबल से होकर गुजर रहे हैं। इन्हें प्रमुख सचिव स्तर के अधिकारी भी निपटा सकते हैं, लेकिन काम करने की दबगंता अपने-अपने स्वार्थो के चलते मर चुकी है, अधिकारी कब आयेगा और कब जाएगा और कब छुट्टी मनाएगा। इसके लिए मापदंड तय है लेकिन इन मापदंडो का पालन कौन कर रहा है इस वर्क कल्चर को देखकर तो शायद यही कहा जा सकता है कि कोई भी नहीं। छुट्टियों के मामले में यह लोग स्कूली बच्चों से आगे हैं। वर्ष के अंतिम माह में लंबी छुट्टी पर जाने का अंग्रेजियत रिवाज है, जो बदस्तूर जारी है। बीच में एकाध कोई प्रशासनिक मुखिया नियम कायदे के आते हैं तो लंबी छुट्टी पर रोक तो लग जाती है लेकिन बहानों की गंगा में डूबकी लगाकर नया बहाना हाथ में थमाया और चलते बने।
ऐन-केन प्रकारेण धन पाने की लालस ने अधिकारी की कार्य संस्कृति को मार दिया है। हालात यह हो गई कि वह चाहे मध्यप्रदेश हो या यूं कहिए कि सूबेदार अपने विवेक को ताले में बंद रखकर उनकी बनाई हुई राह पर चलता है। ऐसे में कौन अधिकारी मूर्ख होगा जो मुखिया को मुखिया मानकर व्यवहार करेगा। जब मुखिया की हालत वैसाखियों पर चलने जैसी हो जाए तब कौन इन अधिकारियों से हिसाब मांगेगा। जिस जनता के टैक्स से इन अधिकारियों की मोटी तनख्वाह निकलती है उनके काम करने में फाईल या तो मिलती नहीं है या फाईल इतनी मोटी हो जाती है कि उसका कि उसका निराकरण कोई जन भी नहीं कर सकता है। उपसचिव, सचिव और न जाने कितने सचिवों की एक जानलेवा शृंखला रावण की मुंडी की तरह एक दूसरे से जुत्रडी हुई है। सार्वजनिक शौचालय के काम भी इन मुंडियों के हस्ताक्षर के बिना पूरा नहीं होता है। ऐसे में कोई मुंडी बीच में से गायब हो जाए, तो मामला पेंडिंग। अब लंबित मामले को और लंबित करने की कला भी इनके ही पास है झट एक जिज्ञासा वाला प्रश्न लिखा और फाईल नीचे रख दी। फाईल जिस गति से आई थी उसी गति से सद्गति को प्राप्त हो जाती है और उसके मरने की खबर किसी को भी लगती नहीं है। लेकिन थैलीशाहों की फाईल पर नौकरशाहों की नजर ही नहीें होती है, बल्कि नजारे इनायत भी होती है। किसी जमीन का उपयोग बदलना हो या हाईराइज बिल्ंडिग की परमिशन, जंगल से खेत खेत से जंगल और कालानाइजर्स बंधुओ के काम के लिए एक नहीं दस-दस बार केबिनेट बैठ जाएगी। बार-बार अधिकारी वही फाईल मीटिंग में लेकर आएगा जिसका सौदा पट चुका है। इन सौदों की भनक तक नहीं लगती और क्या निर्णय लिए गए वह जानना तो आम आदमियों के लिए दूर की कौत्रडी है। लेकिन ऐसे में किसी मूंगफली बेचने वाले का लोन मंजूर होता है या किसी के इलाज के लिए सरकारी खजाने से पैसे निकलते हैं तो बाजार में दौंडी पीट-पीटकर सुनो....सुनो.... चिल्लाया जाता है। थैलीशाहों के नाजायज काम को जायज करते समय दौंडी पीटी जाती है ऐसा कभी सुनाई नहीं दिया। वह तो कुछ विभीषण रहते हैं जो दूसरे खेमे में बात फैलाकर रायता ढोलने में कामयाब हो जाते हैं। वरना आम आदमी तो आज भी तहसीलदार के दफतर में घुसने के लिए चपरासी से जुगत भित्रडाते हुए अक्सर दिखाई देता है। ऐसे में एक सवाल फिर खत्रडा होता है कि इस सूरत को कौन बदलेगा। सार्वजानिक जीवन मेें पत्रढे लिखों का धीरे-धीरे टोटा हो रहा है और यह टोटा ही राज्य का असली विकास की टोटी बंद किए हुए है। शिक्षित मुखिया आईएएस जमात से उनकी ही भाषा में बात करने वाला होता है तो सूबा अपने आप तरक्की करता है और जन्नोमुखी काम होते हैं। इसके उदाहरण है डी.पी.मिश्रा, अर्जुनसिंह, वीरेन्द्र कुमार सखलेचा, सुंदरलाल पटवा जिन्होंने अपने विवेक के घोत्रडे को किसी आईएएस के अस्तबल में बांधा नहीं है बल्कि अपने हिसाब से चाबूक लेकर इन अधिकारियों की समय-समय पर खबर ली है और नतीजा आज सामने है कि इनके कार्यकाल को आम और खास दोनों जमात याद रखती है। वैसे देखा जाए तो सन् 1993 से लेकर अभी तक आईएएस मंडली किसी न किसी विक्रम के कांधे पर बेताल की तरह चिपकी हुई है और उसे मालूम है कि विक्रम को उलझाकर रखेंगे तो पेत्रड पर उल्टा लटकने की बारी नहीं आएगा।

Tuesday, April 20, 2010

भूख के मुंहाने पर खड़ा मध्यप्रदेश

मध्यप्रदेश में महिलाओं और बच्चों के समग्र विकास के लिए जिम्मेदार महिला एवं बाल विकास विभाग मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान का सबसे लाडला विभाग है। अपने लाडले विभाग पर मुख्यमंत्री की मेहरबानियां भी जमकर बरसती है। जिसका फायदा उठाकर इस विभाग के मंत्री से लेकर पलायनवादी अफसरों के भ्रष्टाचार ने इस विभाग को खोखला बना दिया है। यह केवल हमारा आंकलन नहीं , बल्कि खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की व्यथा भी है। आंकड़े भी तो यही बता रहे हैं कि मध्यप्रदेश में पिछले पांच साल में लगभग छह लाख बच्चे कुपोषण और बीमारियों से मर गए, लेकिन राज्य सरकार पर इसका कोई असर नहीं हुआ है। सबसे दर्दनाक पहलु यह है कि इन शिशुओं को बचाने के लिए विधानसभा ने जो बजट सरकार को दिया था वह भी सरकार ने खर्च नहीं किया। मप्र में शिशु मृत्यु दर देश में सबसे अधिक है और इंटरनेशनल फूड रिसर्च इंस्टीटय़ूट की रिपोर्ट कहती है कि मध्यप्रदेश भूख के मुंहाने पर खड़ा है।
मध्यप्रदेश में सरकार की जनोपयोगी योजनाएं किस तरह मंत्रियों, नेताओं और अफसरों की लालसा भ्रष्टाचार की शिकार हो रही हैं, इसका नजारा महिला एवं बाल विकास विभाग के बजट और उससे होने वाली खरीददारी तथा परिणामों को देखकर सहज में अनुमान लगाया जा सकता है। भ्रष्टाचार में लिप्त अपने मंत्रियों और अधिकारियों की कारगुजारियों से व्यथित शिवराज सिंह का विक्षोभ और गुस्सा हाल ही में राजधानी स्थित रविन्द्र भवन में उस समय देखने को मिला, जब अभी तक वातानुकूलित कमरे में बैठ कर महिला एवं बच्चों के सर्वांगिण विकास के लिए योजनाएं बनाने वाली विभागीय मंत्री रंजना बघेल ने रविन्द्र भवन में कुपोषण से मुक्ति पाने की योजना बनाने के लिए बैठक आयोजित कर विभाग की पारदर्शिता दिखाने का प्रहसन किया तो मुख्यमंत्री ने इस दिखावे पर अपना आपा खो दिया। हालांकि उन्होंंने मंत्री महोदया को तो शब्दों के माध्यम से कुछ नहीं कहा लेकिन उनके सामने ही विभाग की पोल खोल डाली। उन्होंने कहा कि मैं कुपोषण के बचाव के लिए इतना पैसा दे रहा हूं, फिर भी हालात इतने खराब क्यों है? सारा पैसा कहां जा रहा है? मुख्यमंत्री के इस संवेदनशील रूख को देखकर जिम्मेदारियों के प्रति उपेक्षा बरतने के टाइप्ड हो चुके अधिकारी भी सन्न रह गए। दरअसल आंकड़ों और दूसरी जानकारियों के पहाड़ों में उच्च अधिकारी जनप्रतिनिधि को ऐसा उलझाते हैं कि अक्सर जनप्रतिनिधि समझ नहीं पाते कि इनके नीचे छिपा सच क्या है। मुख्यमंत्री ने पूरी गंभीरता से अधिकारियों की जिम्मेदारियों को तय किया। उन्हें बताया कि आखिर वे किस लिए अपनी सेवाएं दे रहे हैं। मुख्यमंत्री को कहना पड़ा कि जो लोग वेतन की बात कर रहे हैं उन्हें नौकरी छोंड़ देनी चाहिए। यह एक मुखिया कि व्यथा कि हद है। जब उसे कहना पड़े कि आप अगर ठीक से काम नहीं कर सकते तो नौकरी छोंड दें। इसका निहितार्थ यही है कि नौकरी सिर्फ वेतन नहीं होती है यह लोकतांत्रिक व्यवस्था में सेवा, कर्तव्य और जिम्मेदारी मिला-जुला रूप है। हालांकि जो प्रश्न मुख्यमंत्री ने अपने आक्रोशित भाषण में उठाया है वही प्रश्न जनता की ओर जनप्रतिनिधियों के लिए भी उठाए जा सकते हैं। आखिर क्या कारण है कि मुख्यमंत्री भी स्वयं तब स्थितियों का आंकलन कर रहे हैं। जब उन्हें आंकड़ो के बारे में बताया जा रहा है। क्या इसकी जानकारी समय-समय पर दूसरे स्त्रोंतो से नहीं मिल रही थी। या नहीं दी जा रही थी। सवालों से अधिक यह मामला जिम्मेदारी को वहन करने का है। मुख्यमंत्री और संबंधित विभाग के मंत्री अपनी जिम्मेदारियों को पूरी शक्ति से अधिकारियों और मैदानी अमले तक अगर प्रेषित नहीं कर सकते हैं तो यह असफलताएं उनका पीछा नहीं छोड़ सकती हैं। वैसे भी देखा जाए तो महिला एवं बाल विकास विभाग कमाई का सबसे आसान माध्यम माना जाता है। अब तक इस विभाग में जो मंत्री रहा है वह केवल कमाई में ही लिप्त रहा है, चाहे शासन कांग्रेस का हो या भाजपा का।
मुख्यमंत्री की इस वेदना को काश विभागीय मंत्री महोदया पहले समझ सकती तो उन्हें तथा उनके अधिकारियों को भरी सभा में नीचा नहीं देखना पड़ता। लेकिन सरकार की तरफ से मिल रहे बेपनाह बजट को बेवजह खरीदी की आड़ में खात्मा लगाने में व्यस्त मंत्री महोदया और आलाधिकारी यह भूल गए कि भले ही वह सरकारी कागजों पर मुख्यमंत्री को बरगला सकते हैं लेकिन हकीकत का कोई न कोई तो पीछा कर रहा है। आज स्थिति यह है कि प्रदेश में कुपोषण से हो रही मौतों ने शिवराज सिंह चौहान की आंखें खोल दी हैं। क्योंकि मप्र में महिला एवं बाल विकास विभाग को इन बच्चों को बचाने के लिए महिलाओं एवं बच्चों को पोषण आहार के लिए जो बजट 2001 में 22 करोड़ रुपए मिलता था, वह बढ़कर 348 करोड़ तक पहुंच गया है, लेकिन इस विभाग में भ्रष्टाचार किस कदर हावी है, यह पिछले दिनों आयकर विभाग के छापे के दौरान देखने मिला। इस विभाग की प्रमुख सचिव टीनू जोशी के घर से तीन करोड़ रुपए नगद बरामद किए गए। महिला एवं बच्चों के पोषण आहार के बजट पर दलालों की तीखी नजर रहती है। बेशक सरकार ने पोषण आहार का काम मप्र एग्रो इंडस्टी को सौंपा है, लेकिन वहां भी दलाल पहुंच गए हैं और उन्होंने एग्रो से मिलकर यही राशि हड़पने की कवायद शुरू कर दी है।
पिछले दिनों झाबुआ में एक के बाद एक 40 बच्चों की कुपोषण से हुई मौत के बाद जब केन्द्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने क्षेत्र का दौरा कर स्थिति का जायजा लिया तब मुख्यमंत्री को इसकी खबर लगी। लेकिन मुख्यमंत्री करें भी तो क्या? गर्भवती महिलाओं के लिए आने वाले केन्द्र व राज्य के बजट पर आला अफसरों और दलालों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। महिला एवं बाल विकास विभाग की मंत्री करोड़ों खर्च कर अपना महल बनाने में व्यस्त हैं वहीं प्रमुख सचिव (पूर्व) के बिस्तरों से आयकर विभाग करोड़ों रुपए बरामद कर रहा है। कुपोषण एवं गंभीर बीमारियों से पीडि़त बच्चों के लिए आवंटित बजट को राज्य सरकार खर्च नहीं करना चाहती और नतीजे सामने हैं - पांच साल में लगभग छह लाख बच्चों की मौत। मौत का यह आंकड़ा केवल उन बच्चों का है जो अपना पहला जन्मदिन भी नहीं मना सके, यानि एक वर्ष से कम उम्र में ही मौत के शिकार हो गए। एक से चार वर्ष बच्चों की बात की जाए तो प्रति हजार बच्चों पर 94 बच्चे भी कुपोषण व बीमारियों के कारण मौत के शिकार हो रहे हैं। यह आंकड़े किसी को भी विचलित कर सकते हैं। लेकिन राज्य सरकार जबरन अपनी योजनाओं का ढोल पीटने में लगी हुई है।
उपरोक्त आंकड़े भी हमारे नहीं है बल्कि मप्र के स्वाथ्यमंत्री अनूप मिश्रा ने पिछले दिनों कांग्रेस के महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा के प्रश्र के जबाव में इन्हें प्रस्तुत करते हुए बताया है कि 1 अप्रेल 2005 से 31 मार्च 2009 तक पिछले चार साल में मप्र में कुपोषण एवं उससे होने वाली बीमारियों के कारण 1 लाख 22 हजार 422 शिशुओं की मौत हुई है। स्वास्थ मंत्री ने इन मौतों का जिलेवार ब्यौरा भी दिया है। लेकिन क्या यह आंकड़े सही है? क्योंकि राज्य के स्वास्थ मंत्री ने स्वीकर किया है कि मप्र में प्रति एक हजार बच्चों के जन्म लेने पर 70 शिशुओं की मौत हो जाती है। यानि मप्र में शिशु मृत्यु दर 70 है, जो कि पूरे देश में सबसे अधिक है। स्वास्थ मंत्री के इस दावे को सही माना जाए तो मप्र में 1 मार्च 2005 से 1 जनवरी 2010 तक 5 लाख 91 हजार 204 बच्चों की मौत हो चुकी है। क्योंकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार उक्त अवधि में 84 लाख 45 हजार 806 प्रसव हुए हैं।
मप्र में शिशुओं बचाने के लिए राज्य विधानसभा ने वर्ष 2005-06 में 11.13 करोड़ रुपए का बजट दिया था, लेकिन राज्य सरकार केवल 27.65 लाख रुपए ही व्यय कर पाई। इसी प्रकार वर्ष 2006-07 में 14.26 करोड़ मंजूर किए थे, लेकिन 4.15 करोड़ ही खर्च हुए। वर्ष 2007-08 में 10.79 करोड़ का बजट स्वीकृत हुआ लेकिन सरकार ने केवल 4.45 करोड़ ही व्यय किए। ऐसे में मध्यप्रदेश में कुपोषण कैसे रुक सकता है। हालांकि महिला एवं बाल विकास विभाग की हकीकत अब मुख्यमंत्री के सामने आ गई है। देखना यह है कि वह विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार पर किस तरह लगाम लगाते हैं।

आईपीएल खेल या खिलवाड़

हम ऐसे पूंजीवाद को पिछले बीस सालों से बढ़ावा दे रहे हैं जो लोकतंत्र और राजनीति को फालतू और विध्वंसक बता कर पैसे को सबसे महत्वपूर्ण बताने में लगा हुआ है। आईपीएल (इंडियन प्रीमियर लीग) इस कड़ी का सबसे बड़ा उदाहरण है। देश की लगभग एक अरब जनता की रग-रग में बसे क्रिकेट पर ग्लैमर का तड़का लगाकर पूंजीवाद को बढ़ावा देने का जो खेल खेला जा रहा हैै वह असली भारत से परे लगता है। वहीं जिसे कभी खेलों का राजा और राजाओं का खेल कहा जाता था वह क्रिकेट अब सटोरियों-जुआरियों के खेल के रूप में अपनी पहचान बनाने में व्यस्त है। हालांकि क्रिकेट में शर्त और सट्टे का इतिहास बहुत पुराना है, लेकिन आईपीएल ने इसे संजीवनी दे दी है।
आईपीएल की चकाचौंध भले ही कुछ बुद्धिजीवियों को साल रही हो, लेकिन इसने केन्द्र और राज्यों की सरकारों को बहुत ही राहत पहुंचाई है। महंगाई, आतंकवाद और नक्सलवाद के इस दौर में लोग अपनी समस्या भूल बैठे हैं और आईपीएल में खेल रही टीमों और खिलाडिय़ों के रन, विकेट, कैच और जीत-हार का हिसाब लगाने में व्यस्त हैं।
आईपीएल में हो रहे शाही खर्चे और चकाचौंध को देखकर तो यही लगता है कि सचमुच में भारत सोने की चिडिय़ा है, जबकि हकीकत यह है कि इस देश में दरिद्रों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। एक ओर इस देश की अधिकांश जनता दो जून की रोटी जुगाडऩे में सारा श्रम खर्च कर देती है वहीं देश की अधिकांश रियाया भुखमरी की शिकार है, ऐसे में चंद अमीरों की पिपासा को शांत करने के लिए दूधिया रोशनी में भद्र पुरूषों के खेल 'क्रिकेटÓ पर चियर्स लीडर्स का तड़का लगाकर जो तमाशा हो रहा है वह महात्मा गाँधी का सपना नहीं हो सकता। महात्मा गांधी को आदर्श मानकर राजनेता आज भी इस देश में रामराज स्थापित करना चाह रहे हैं, पर रामराज तो स्थापित नहीं हो पाया उसकी जगह रोमराज जरूर स्थापित हो गया है।
इस देश के गरीबों की हालत अफ्रीका के सब-सहारन देशों के गरीबों जैसी हो चुकी है। इस देश में 77 फीसदी आबादी 20 रुपये प्रतिदिन की आय पर निर्वाह के लिए मजबूर है। यह कोई कपोल कल्पना नहीं बल्कि सरकार द्वारा नियुक्त डॉ. अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट इस विदारक सत्य का साक्ष्य देती है। जिस देश में आजादी के 63 साल बाद 77 फीसदी आबादी भूख की कगार पर खड़ी हो वहाँ आईपीएल खेल की जगह खिलवाड़ ही तो साबित हो रहा है।
देश के ग्रामीण अंचलों में आज भी लोगों को महज चार से छ: घंटे भी बिजली नहीं मिल पाती है, तब फिर आईपीएल में खर्च होने वाली बिजली को बचाकर उसे देश के ग्रामीण अंचलों के बच्चों की पढाई और कृषि पैदावार के लिए क्यों नहीं दिया जाता है। बात बात पर न्यायालयों में जाकर जनहित याचिका लगाने वाली गैर सरकारी संस्थाओं की नजरों में क्या यह बात नहीं आई। यदि आई भी होगी तो उन्हें इस मामले में अपने निहित स्वार्थ गौड ही नजर आ रहे होंगे तभी उन्होंने भी खामोशी अख्तियार कर रखी है।
ललित मोदी को शत-शत नमन जिन्होंने ग्लैमर के साथ क्रिकेट को सफल कारोबार का रूप दे दिया। भले भारत सरकार के नवरत्न बाजार में पिट गए, आईपीएल का शेयर कुलांचे भर रहा है। धर्मशाला तो छोटा है पर कानपुर, नागपुर, अहमदाबाद, इंदौर जैसे महानगरों को पछाड़ कोच्चि और पुणे बिक गए। बिके भी तो हल्के में नहीं, दोनों की कीमत (32 अरब रुपए) पिछली आठ टीमों के कुल जमा दाम से भी अधिक है। माननीय मोदी जी ने उम्मीद जताई है कि दोनों फ्रेंचाइजी बढिय़ा कारोबार करेंगे। उनके मुंह से ये शब्द नहीं निकले कि आईपीएल की ये नई टीमें खेल की प्रतिस्पर्धा को नई उंचाइयां देंगी या क्रिकेट में इनका योगदान उल्लेखनीय रहेगा। खेल को बिजनेस का शक्ल देना इसी को कहते हैं। वैसे भी आईपीएल में सब कुछ है, फिल्मों के नायक हैं, तारिकाएं हैं, छम-छम करतीं चीयर्स लीडर हैं, सेलिब्रिटी हैं, शराब है, शबाब है लेट-नाइट पार्टी है, असल में क्रिकेट तो बस नाम का है।
बिजनेस की हॉस्पिटेलिटी देखिए एक केंद्रीय मंत्री की पुत्री ने आईपीएल प्रेमियों के लिए एक पैकेज दिया है 22 लाख का। उद्घाटन समारोह, सेमी फाइनल-फाइनल छोड़, इसमे सभी 56 मैचों के प्रवेश टिकट, हवाई यात्रा और पांच सितारा खान-पान सुविधाओं के साथ ही पोस्ट आईपीएल पार्टी का खर्च शामिल है। अगर आप सभी मैच में शामिल नहीं होना चाहते तो एक मैच के लिए एक व्यक्ति का रेट है 50 हजार रुपए। सेमी फाइनल और फाइनल के अलग रेट हैं 1.42 लाख रुपए प्रति व्यक्ति। बालीवुड की ताजातरीन नायिकाओं और सेलिब्रिटी से सजी पार्टी की रौनक को देखते हुए यह मूल्य कम ही प्रतीत होगा। दिल्ली में हुई पोस्ट आईपीएल पार्टी की जो झलक अखबारों में दिखी उसमे हरभजन और युवराज सरीखे खेल से अधिक आधुनिकाओं के साथ आमोद-प्रमोद के लिए चर्चा में रहे। इस पार्टी के एक्सक्लूसिव टिकट का घोषित मूल्य था 40 हजार रुपए। जब मैच की एक-एक गेंद तक बिक चुकी हो और चौका-छक्का कहां से लगा कहां गया यह देखने-समझने से पहले विज्ञापन परोस दिए जाते हों देर रात की पार्टी निशुल्क किस खुशी में हो?
आईपीएल सिर्फ और सिर्फ खेल होता तो शायद आयोजक कुछ मूल बातों पर जरूर ध्यान देते। पहले क्रिकेट मैच और बड़े टूर्नामेंटों की तारीखें तय करते समय आयोजक ध्यान रखते थे कि उस दौरान बोर्ड की परीक्षाएं न हों या उसके आगे पीछे होली-दिवाली जैसे त्योहार न पड़ रहे हों। मंशा कि छात्रों की पढ़ाई में खलल न पड़े या फिर दर्शक समूह को टीवी के सामने बिठाने में सहूलियत रहे। आज देश में अगर क्रिकेट पूजा जा रहा है तो उसके पीछे हैं करोड़ों की संख्या में दर्शक लेकिन आईपीएल कमाने में दर्शक हित कहीं पीछे छूट रहा है। पिछली बार जब चुनाव के समय सरकार ने सुरक्षा देने में ना नुकर की तो ललित मोदी आईपीएल को ले उड़े दक्षिण अफ्रीका। चिदंबरम् जैसे प्रोफेशनल गृहमंत्री गुस्से में कहने से नहीं चूके कि आईपीएल सिर्फ खेल नहीं, खेल से बढ़कर भी कुछ है। चुनाव में माना गया कि आईपीएल ने नेताओं की जनसभा में भीड़ कम कर दी। इन हालात में यह अपेक्षा करना कि आयोजक बोर्ड परीक्षाओं को माफी देंगे बेकार है। वह भी मार्च-अप्रैल में जब आईसीएसई, सीबीएसई समेत सभी राज्यों की बोर्ड परीक्षाएं होती हैं और आईपीएल का तमाशा पूरे शबाब पर होता है। बच्चे परीक्षा दें कि आईपीएल देखें? अभिभावकों के दिमाग में परीक्षा है तो बच्चों का ध्यान आईपीएल पर। कौन कहे, किससे कहे कि कृपया पूरे साल तीन टाइम क्रिकेट का डोज न दें, गरमी-बरसात भूल गए, दिन-रात का विभेद मिटा डाला कम से कम बच्चों की परीक्षा तो बख्श देते। आईपीएल वालों को सरकार समझा नहीं सकती तो कम से कम बोर्ड से परीक्षा की तिथियां ही मोदी से पूछ कर तय करने को कहे।
आईपीएल का तमाशा साल दर साल बढ़ता ही जा रहा है। अभी 45 दिन में 60 मैच हो रहे हैं अगले साल से 94 होने हैं यानी कुछ नहीं तो दो महीने का उत्सव। आयोजकों के लिए मार्च-अप्रैल का समय ही शायद मुफीद बैठता है क्योंकि आईसीसी के कैलेंडर में यही समय खाली रहता है। और बीसीसीआई अब इतनी हैसियतदार है कि आईसीसी का कैलेंडर अपने हिसाब से बना सके और बदल सके। आईपीएल के आगे सभी देशों के खिलाड़ी और क्रिकेट बोर्ड नत मस्तक हैं आखिर असली ब्रेड-बटर तो इसी में है। सौजन्य बीसीसीआई, एक यही क्षेत्र है जहां हम शान से कह सकते हैं कि क्रिकेट में वही होता है जो भारत चाहता है। बाकी तो हमारी पड़ोस तक में नहीं चलती, चीन आंखें तरेरता है, पाकिस्तान अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहा, नेपाल-बांग्लादेश सरीखे भी चिढ़ाने के लिए चीन की तरफ हाथ बढ़ाने लगते हैं। आईपीएल की माया देखिए, इस 45 दिन में देश की सारी समस्याएं उडऩ-छू हो गईं। हम भूल गए कि गरीब देश के रहने वाले हैं, नहीं याद रहा कि महंगाई से रसोई तंग है, कि पवार की कृपा से गरमी शुरू होते दूध का भाव 30 रुपए लीटर हो गया, कि महंगाई रोकने का वादा करके केंद्र ने पेट्रोल-डीजल के दाम बढ़ा दिए। महंगाई की आड़ में आरबीआई ने होम और कार लोन महंगा करने की जमीन बना दी, गैस-केरोसिन के दाम बढ़ाने की तैयारी है। इसी हल्ले में दिल्ली की शीला दीक्षित सरकार ने बजट में रसोई गैस से सब्सिडी हटा ली, अब प्रति सिलिण्डर 40 रूपए अधिक देने होंगे। फिर भी हम गाएंगे जय हो।
आईपीएल को मोदी ने ऐसा खेल बना दिया है जिसका नाम लेने के लिए भी पैसा वसूल करना चाहते हैं, टीम बनने से जो खरीद बिक्री का खेल शुरू होता है वह खेलने और देखने तक जारी रहता है। यह सवाल दीगर है कि ऐसे में क्या इसे खेल कहा जाए या फिर इसे एक जुए की उपाधि देकर इसका तिरस्कार कर दिया जाए? लेकिन ललित मोदी का पैसे कमाने का यह अति उत्साह उनके अपने ही ब्रेन चाईल्ड आईपीएल के लिए अब जहर की घुट्टी बनता जा रहा है। आईपीएल की एक भी बाईट समाचार चैनलों पर नहीं जानी चाहिए यह जिद्द आईपीएल के कमिश्नर ललित मोदी की ही थी क्योकि उन्होंने सेट मैक्स से इतना पैसा ले लिया था कि सेटमैक्स आईपीएल का एक भी फुटेज सिवाय अपने चैनल के कहीं और दिखाना बर्दाश्त नहीं कर सकता था। यहां तक कि खबर के नाम पर समाचार चैनलों पर भी आईपीएल की फुटेज नहीं दिखाई जा सकती। इसका परिणाम यह हुआ कि टेलीवीजन चैनलों ने आईपीएल के कवरेज का ही बहिष्कार कर दिया।
न्यूज चैनलों के लिए भी यह घाटे का सौदा था। इसलिए दोनों ओर से पैच-अप का खेल हुआ और पहले मैच के दिन दोनों ओर से एक सहमति बनी कि एक दिन में एक न्यूज चैनल 5.5 मिनट से अधिक का फ्रेश फुटेज नहीं दिखाएगा। इसके साथ ही आईपीएल ने एक शर्त और लादी कि चीयर लीडर्स को डेढ़ मिनट से ज्यादा का फुटेज न्यूज चैनल नहीं दिखा सकते। इतनी शर्तों के बाद भी न्यूज चैनलों ने बहिष्कार वापस ले लिया और भिक्षा में मिली फुटेज से ही काम चलाने का फैसला कर लिया।
ऐसे ही वक्त में इंटरनेट कनेक्शन का इस्तेमाल करने वालों के लिए गूगल के साथ मिलकर यूट्यूब पर आईपीएल का टेलिकास्ट करने का करार कर लिया। 19 जनवरी को हुए इस करार के तहत यू-ट्यूब को यह अधिकार दिया गया कि वह थोड़ी देर के अंतर पर मैच को सीधा प्रसारित कर सकता है। हालांकि यह रहस्य भेदन नहीं हुआ कि गूगल और आईपीएल ने यह डील कितने में किया लेकिन गार्जियन अखबार ने यह खबर जरूर प्रकाशित की थी कि यूट्यूब पर प्रसारण से जो भी विज्ञापन की कमाई होगी वह दोनों कंपनियों में बंटेगी। इंटरनेट कंपनी गूगल ने आईपीएल के जरिए बड़ा दांव लगाया था क्योंकि भारत में प्रतिमाह उसके 3 करोड़ 10 लाख से अधिक यूनिक यूजर्स हैं तो कि किसी भी सेटेलाइट बेस्ड चैनल से अधिक बड़ा दर्शक वर्ग है। लेकिन गूगल और मोदी के इस दांव को भारत की इंटरनेट स्पीड ने फुस्स कर दिया। भारत में औसत स्पीड 100 एमबीपीएस है जो कि वीडियो दिखाने में भी पांच सेकेण्ड से अधिक की बाईट नहीं दिखा पाता और बफर करता है। फिर लाईव टेलीकास्ट के लिए कम से कम 1 एमबीपीएस की स्पीड तो होनी ही चाहिए, ललित मोदी की चालाकी और गूगल का दांव दोनों ही उल्टा पड़ गया है।
हालांकि एयरटेल ने अपने ग्राहकों को आफर किया है कि वे चाहें तो आईपीएल के लिए उसके 2 एमबीपीएस के विशेष पैकेज को ले सकते हैं। यहां भी एयरटेल आईपीएल के जरिए अपनी कमाई का रास्ता खोल रही है लेकिन सामान्य दर्शकों के लिए जो आईपीएल का के्रज था वह तो पूरी तरह से प्रभावित हो ही गया। धुर पूंजीवादी मानसिकता ऐसे ही प्रभाव डालती है। जब आईपीएल का गठन हुआ था तब विद्वानों ने यह कहने में संकोच नहीं किया था कि यह खेल नहीं तमाशा है जो पूरी तरह से पूंजी के प्रभाव में है। आईपीएल खेल न होकर पूंजी का ऐसा झमेला बन गया है जिसके पास शायद ही कोई स्वस्थ दिमाग वाला व्यक्ति फटकना चाहे।
भारत में सबसे लोकप्रिय खेल क्रिकेट और मनोरंजन का पसंदीदा जरिया है बॉलीवुड। और जब दोनों का मिलन हो रहा हो तो धूम और पैसों की बरसात होनी तो तय ही है। आईपीएल लीग में खिलाडिय़ों, कंपनियों, मालिकों के वारे न्यारे हो रहे हैं। भले ही क्रिकेट को परंपरागत स्वरूप में चाहने वाले आईपीएल को महज 'ग्लैमर इवेंट या 'सर्कस कह कर खारिज करें लेकिन सच तो यह है कि आईपीएल का बुखार डेढ़ महीने के लिए भारत और भारत से बाहर भी लोगों को अपनी गिरफ्त में लेने लगा है। आईपीएल के पहले 14 मैचों में ही इसे टीवी पर देखने वाले दर्शकों की संख्या बढ़ कर 10 करोड़ से ज़्यादा हो गई है। आईपीएल पहला ऐसा खेल आयोजन बन गया है जो यूट्यूब पर भी देखा जा सकता है यानी दर्शकों की संख्या और बढ़ी। ब्रैंड फिनेन्स कंपनी की मानें तो आईपीएल की कीमत तीसरे साल में ही आसमान छू रही है। आईपीएल ब्रैंड की कीमत 4 अरब डॉलर से भी ज़्यादा है यानी करीब 18 हजार करोड़ रूपये, अपने तीसरे साल में ही आईपीएल खेल की दुनिया में छठा सबसे कीमती इवेंट बन गया है। बीसीसीआई को साल 2010 में होने वाला मुनाफा बढ़ कर 700 करोड़ रुपये हो जाने की उम्मीद है जो पिछले साल से 25 फीसदी ज़्यादा है। आईपीएल से कुछ ही पहले शुरुआत हुई थी इंडियन क्रिकेट लीग की लेकिन उस पर बीसीसीआई और आईसीसी की मुहर न लगी थी। आयोजन सफल नहीं रहा..खिलाड़ी बागी कहलाए, मगर आईपीएल में ताकत है बीसीसीआई की..तड़का बॉलीवुड का और तजुर्बा खिलाडिय़ों का।
आईपीएल टीम मालिकों के लिए कमाई का मुख्य जरिया स्पॉन्सरशिप और प्रमोशन है। लोकप्रिय टीमों से पैसा बनाने की कोशिश इस हद तक है कि खिलाडिय़ों के कपड़ों, उनके जूतों, हेलमेट, बैटिंग ग्लव्स, पैड तक बिकाऊ हैं। सिर्फ खिलाडिय़ों के चेहरे ही बचे हैं। रियल एस्टेट में भारत की बड़ी कंपनी डीएलएफ ने आईपीएल का हेडलाइन स्पॉन्सर बनने के लिए पांच करोड़ डॉलर चुकाए हैं। जापान की सोनी एंटरटेनमेंट वर्ल्ड स्पोर्ट ग्रुप के साथ अगले दस साल के लिए आईपीएल के प्रसारण अधिकार खऱीदने के लिए एक अरब डॉलर से ज़्यादा की कीमत दे चुकी है।
पहले सीजन में मुंबई इंडियंस और रॉयल चैलेन्जर्स बैंगलोर सबसे महंगी टीमों में आंकी गई। करीब 440 करोड़ रुपये में खऱीदी गई दोनों टीमें। लेकिन इस बार कोच्ची और पुणे की टीमों के लिए लगने वाली बोली ने तो सबकी नजरें आईपीएल पर टिका दी। पुणे के लिए सहारा ने 1700 करोड़ रुपये दिए तो कोच्ची के लिए रान्देवू गु्रप ने 1530 करोड़ रुपये से ज़्यादा की कीमत चुकाने को तैयार था। टीमों के मालिक अपनी कंपनियों के प्रचार करने का मौका भी नहीं छोड़ रहे हैं। रॉयल चैलेन्जर्स बैंगलोर के मालिक विजय माल्या अपनी टीम के नाम के जरिए रॉयल चैलेंज व्हिस्की का नाम भी पेश कर रहे हैं जबकि डेक्कन चार्जर्स हैदराबाद अपने अख़बार डेक्कन क्रोनिकल को फायदा पहुंचाने की कोशिश में है। टीमों के मालिकों को कितना मुनाफ़ा हो रहा है इस पर अभी मतभेद है। कुछ रिपोर्टों में कहा जाता है कि किंग्स इलेवन को छोड़ कर सब टीमें मुनाफे में आ गई हैं जबकि ऐसी भी रिपोर्टें हैं जिसमें सिर्फ चार टीमों के फायदे में होने की बात कही जाती है। लेकिन मालिकों, खिलाडिय़ों, कंपनियों को होने वाले फायदे के बीच यह बहस भी हो रही है कि कहीं आईपीएल एक बुलबुला तो नहीं जो जल्द ही फूटेगा। परंपरागत क्रिकेट को नुकसान पहुंचने की आशंका तो विशेषज्ञ जता ही रहे हैं..लेकिन आईपीएल में चौकों, छक्कों और ग्लैमर की धूम में अभी ये बातें अनसुनी ही हो रही हैं।
क्रिकेट अब एक लाख करोड़ रुपए का हो चुका है। अब ये दुनिया के सबसे ज़्यादा पैसे वाले खेल फुटबॉल के मुकाबले में आ खड़ा हुआ है। माना जा रहा है कि धोनी और पोलार्ड की सितंबर में जब फिर से कीमत लगाई जाएगी तो वो 100 करोड़ के पार जा सकती है। बाकी स्टॉर खिलाड़ी जैसे सचिन तेंदुलकर, युवराज सिंह वगैरह भी 50 से 100 करोड़ तक के ब्रैंड बन सकते हैं। यानी अमिताभ, शाहरुख और आमिर सरीखे बॉलीवुड स्टार्स से कहीं ज़्यादा महंगे हो जाएंगे क्रिकेट खिलाड़ी।
2008 में इंग्लिश प्रीमियर लीग के क्लब मैनचेस्टर सिटी को अबूधाबी के एक इंडस्ट्रियल ग्रुप ने 200 मिलियन डॉलर यानी 1380 करोड़ रुपए में खरीदा था। जबकि इस साल आईपीएल में पुणे को 1702 करोड़ रुपए में और कोच्चि को 1533 करोड़ रुपए में खरीदा गया। यानी फुटबॉल पर भारी क्रिकेट। पुणे को सहारा एडवेंचर स्पोर्ट्स ने खरीदा, तो कोच्चि को खरीदा रोंदेवू स्पोर्ट्स वर्ल्ड ने। साल 2008 में जब आईपीएल की शुरुआत हुई थी तब 8 टीमें कुल मिलाकर 2800 करोड़ रुपए में बिकी थीं। लेकिन आईपीएल 4 के लिए महज 2 टीमों की कीमत ही 3200 करोड़ रुपए तक पहुंच गई।
लेकिन पैसे की चकाचौंध में इस तथ्य को नजर अंदाज किया जा रहा है कि देश को आजाद हुए तिरसठ साल से ज्यादा बीत चुके हैं। इन सालों में देश का आम आदमी ब्रितानी बर्बरता तो नहीं भोग रहा है, पर स्वदेशी जनसेवकों की अदूरदर्शी नीतियों के चलते नारकीय जीवन जीने पर अवश्य मजबूर हो चुका है। एक आम भारतीय को (जनसेवकों और अमीर लोगों को छोडकर) आज भी बिजली, पानी साफ सफाई जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिल सकी हैं। सरकारी दस्तावेजों में अवश्य इन सारी चीजों को आम आदमी की पहुंच में बताया जा रहा हो पर जमीनी हकीकत किसी से छिपी नहीं है। कमोबेश पचास फीसदी से अधिक की ग्रामीण आबादी आज भी गंदा, कंदला पानी पीने, अंधेरे में रात बसर करने, आधे पेट भोजन करने एवं शौच के लिए दिशा मैदान (खुली जगह का प्रयोग) का उपयोग करने पर मजबूर ही है।
इन परिस्थितियों के वाबजूद भारत में आईपीएल 20-20 जैसी क्रिकेट प्रतियोगिताएं सभ्रांत नागरिकों के मनोरंजन का साधन है। फटाफट क्रिकेट के इस आयोजन में कुछ मैच दिन में तो अधिकांश दिन के बजाय रात गहराने के साथ ही होते हैं। जाहिर है, इन मैच के लिए सैकडों फ्लड लाईट का इस्तेमाल किया जाता है। कहने का तात्यपर्य यह कि रात गहराने के साथ ही जब लोगों के दिल दिमाग पर हाला (शराब) का सुरूर हावी होता जाएगा, वैसे वैसे नामी गिरामी क्रिकेट के सितारे अपना जौहर दिखाएंगे। दर्शक भी अधखुली आंखों से इस फटाफट क्रिकेट का आनंद उठाते नजर आते हैं। जनवरी से लेकर अप्रेल तक का समय अमूमन हर विद्यार्थी के लिए परीक्षा की तैयारी करने और देने के लिए सुरक्षित रखा जाता है। सवाल यह उठता है कि जब देश के भविष्य बनने वाले छात्र-छात्राएं परीक्षाओं की तैयारियों में व्यस्त होंगे तब इस तरह के आयोजनों के औचित्य पर किसी ने प्रश्न चिन्ह क्यों नहीं लगाया। क्या देश के नीति निर्धारक जनसेवकों की नैतिकता इस कदर गिर चुकी है, कि वे देश के भविष्य के साथ ही समझौता करने को आमदा हो गए हैं।
यहां हम यह बता देना उचित समझते हैं कि वर्ष 1903 में जब पहली बार चीयर लीडर्स संस्था गामा सिगमा का गठन हुआ था तब यह पूर्णत: पुरुष संस्था थी। लीडर्स प्रदर्शन के दौरान विभिन्न प्रकार के स्टन्ट तथा जिम्नास्टिक कर लोगों को गुदगुदाते थे। 1923 में इसमें महिलाओं की भागीदारी शुरू हुई। आईपीएल में सिर्फ महिला चीयर लीडर्स दिखाई दे रही हैं वह भी कम कपड़े में। सबसे आश्चर्यजनक यह लगता है कि इसे भारत में एकदम सेक्सुअल तरीके से परोसा जा रहा है। इसी कारण मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित बहुत से लोगों को इस पर आपत्ति है।

Tuesday, April 6, 2010

नर्मदा के सौंदर्य पर जादू-टोने का अमावस

भले ही गंगा मैली हो गई हो और यमुना काली, मगर नर्मदा माई की पवित्रता आज भी बरकरार है। निर्मल जलधारा और मनोहर घाट। देखकर रोम-रोम पुलकित हो उठता है।Ó मगर जब अपनी आंखों से इसे देखें तो महसूस होता है कि जितना सुनने को मिलता है वह कितना कम है। नर्मदा नदी की तारीफ में गढ़े गए कशीदे उसकी गरिमा और सौंदर्य को व्यक्त करने में कितने अक्षम थे।
मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र में महेश्वर अपनी खास पहचान रखता है। अहिल्या बाई होल्कर की नगरी के नाम से पुकारा जाने वाला यह कस्बा नर्मदा नदी के तट पर बसा है। यह कस्बा धार्मिक कारणों से तो प्रसिद्ध है ही, बड़े बांधों के विरोध में नर्मदा बचाओ आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र होने के कारण भी अक्सर सुर्खियों में रहता है। सुबह नर्मदा स्नान और शाम को तटों की खूबसूरती निहारने का अपना अनूठा अनुभव है। ऐसा प्रतीत होता है कि उस दौर में जहां विकास के नाम पर हर खूबसूरत चीज पर कालिख पोती जा रही है, वहां कम से कम कोई तो ऐसी जगह है जहां का माहौल शांत, सुंदर और स्निग्ध है। मगर यहीं कुछ ऐसे नजारे भी देखने को मिलेंगे जो आप को झकझोरने में सक्षम हैं। अनायास सामने आए ऐसे नजारे मन पर पड़ी नर्मदा की पवित्र छाप को मटियामेट करने के लिए पर्याप्त है। ठीक उसी तरह जैसे एक सुंदर चेहरे पर किसी शैतान ने तेजाब फेंक दिया हो।
सामने ढ़ोल की आवाज पर तलवार लेकर नाच रही महिलाओं को देखकर भले ही लगे कि यह सब निमाड़ क्षेत्र की खूबसूरत संस्कृति का हिस्सा है। देवी अहिल्या की नगरी में नर्मदा माई को रिझाने का एक पारंपरिक अनुष्ठान है। मगर जैसे-जैसे ढोलक की थाप तेज होती है तलवार लेकर नाचने वाली औरतों का नृत्य जुनून में बदलते समय नहीं लगता। नाच रही महिलाएं रह-रहकर उन्मत्त हो उठती हैं। रह-रहकर चीखने की आवाजें, आवेग में पूरे शरीर को झुमाना सामान्य व्यक्ति को असहज करने के लिए पर्याप्त है। आसपास खड़े लोग चारो तरफ घेरकर गोला बना लेते हैं जैसे कोई बड़ा रोचक तमाशा हो रहा हो। यह तमाशा देखने वाले बताते हैं कि इन पर देवी सवार है। यह देवी एक महिला के सिर पर सवार भूत को भगाएंगी। फिर उस महिला को लाया गया जिस पर भूत सवार होने का अंदेशा जताया जा रहा होता है। पहली नजर में वह महिला मानसिक रूप से पीडि़त नजर आ रही थी। लोगों ने बताया कि भूत ने उसे कुछ इस तरह कब्जे में ले लिया है कि वह अपने बच्चों तक पर ध्यान नहीं देती। महिला को एक अन्य बूढ़ी महिला ने उन दोनों नाचने वाली महिलाओं के हवाले कर दिया, बूढ़ी महिला संभवत: उसकी सास होगी। इसके बाद उन दोनों महिलाओं ने भूत उतारने के नाम पर पीडि़त महिला के साथ जो कुछ करती है वह रोंगटे खड़े कर देने वाला होता है। मगर शारिरिक अत्याचार की पद्धतियां इतनी खतरनाक है कि कहीं पीडि़त महिला की मौत न हो जाए। जब कभी कोई संगठन इस गोरखधंधे को रोकने की कोशिश करता है तो स्थानीय लोग कहते हैं कि आप लोग तनाव न लें। इस बीच वह विश्वास भी दिलाते हैं कि इन्हें कुछ नहीं होता, वह जल्द ठीक होकर अपने घर चली जाती हैं।
दरअसल माना जाता है कि नर्मदा माई के पानी में इतनी ताकत है कि यहां स्नान करने से भूत-पे्रत का साया उतर जाता है। इसलिए अमरकंटक से लेकर गुजरात तक नर्मदा नदी के तट पर इस तरह के अनुष्ठान चलते ही रहते हैं। नर्मदा के तट पर प्रेतबाधा मुक्ति के जबरदस्त अनुष्ठानों का दौर चलाना कोई नई बात नहीं है। भूतड़ी आमावश्या के नाम पर जगह-जगह ओझाओं की दुकानें लग गई हैं। पूरे मध्यप्रदेश से लाखों की संख्या में लोग प्रेतबाधा से मुक्ति के लिए ओझाओं के शरणागत हो जाते हैं। चौदस और अमावश्या की दरमियानी रात कई घाटों पर तंत्र पूजा होती है और भजन-कीर्तन, गम्मत और कथाओं के बीच पूरी रात ओझाओं और तांत्रिकों की दुकानदारी प्रशासनिक सुरक्षा के बीच निर्बाध रूप से चलती रहती है।
सौंदर्य की इस नदी के किनारे बरसों से चल रहे इस घिनौने कारोबार पर यह सोचकर हैरत होती है कि अंधविश्वास और शारिरिक यंत्रणा के इन अनुष्ठानों पर सवाल उठाना तो दूर इसकी कहीं चर्चा तक नहीं होती। नर्मदा नदी को साबुन के झागों तक से बचाने में जुटा प्रशासन भी इसकी छवि को कलंकित करने वाले इन कृत्यों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं करता। और न ही इस नदी का गुण गाने वाला मध्यप्रदेश का बुद्धिजीवी ही इसके खिलाफ कोई मुहिम चलाने को तैयार नजर आता है। उद्योग का प्रतिरूप बन चुकीं इस तरह की प्रथाओं को बंद करने के बाजाय मीडिया में तथाकथित बाबा सिर्फ सात घंटे में समस्या का 101 प्रतिशत समाधान। गारंटी कार्ड के साथ बाबा मिलते हैं। कोई गलत साबित कर दे तो मुंहमांगा ईनाम। जैसे लोकलुभावन विज्ञापनों की भरमार कर अंधविश्वासियों की तलाश जारी रखते हैं।
अखबारों और लोकल टीवी चैनलों पर इस तरह के विज्ञापनों की तादाद रोज-ब-रोज बढ़ रही है। इसके चलते कई इनके चंगुल में फस कर बरबाद हो जाते है। एक पढ़े लिखे परिवार ने इसी तरह के एक बाबा के दरबार की शरण ली थी। उसकी समस्या थी कि उनकी बेटी को ससुराल में उतना सुख नहीं मिल रहा था, जितनी उनकी अपेक्षा थी।
बाबा 51 रुपये से शुरू हुए और 11 हजार रुपये तक पहुंच गये। उसके बाद 11-11 हजार रुपये की तीन और विशेष पूजा हुई लेकिन बेटी को मां-बाप की इच्छा अनुरूप सुख नहीं मिला। इधर जब बैंक बैलेंस निल हो गया तो मां-बाप को लगा कि कहीं वह ठगी के शिकार तो नहीं हुए हैं लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। पुलिस की भी मदद ली लेकिन पुलिस भी क्या करती। रिपोर्ट दर्ज की। गिरफ्तारी की औपचारिकता पूरी की। बाबा को जमानत मिल गई। वह फिर अपनी दुकान पर बैठने लगे। मां-बाप को अब अपनी लड़की के सुख की चिंता कम इस बात की चिंता ज्यादा खाये जा रही है कि पेट काट-काट कर उन्होंने पचास-साठ हजार रुपये जो बैंक में जमा किए थे, वह खत्म हो गए हैं। अब उनके परिवार के समक्ष कोई ऐसी जरूरत आन पड़ी, जिसमें फौरी पैसों की जरूरत हो तो फिर वह इसका इंतजाम कैसे करेंगे? इसी तरह कुछ समय पहले ऐसे ही एक तांत्रिक बाबा ने एक महिला को अपने जाल में फंसा उसकी इज्जत से खिलवाड़ करने की भी कोशिश कर डाली। इस तरह के कोई एक-दो उदाहरण नहीं है बल्कि जब-तब अखबारों में इस तरह की ठगी खबर हिस्सा बनती है। इस तरह के बाबाओं की तादाद बढ़ती ही जा रही है। कोई भी शहर या जिला ऐसा नहीं है जहां इस तरह की दुकानें न खुल गई हों और स्वयंभू तंत्र सम्राट गारंटी कार्ड के साथ केवल कुछ घंटों के भीतर आपकी किसी भी समस्या का समाधान सौ प्रतिशत नहीं बल्कि 101 प्रतिशत करने का दावा न कर रहे हों। एक व्यवसायी की तरह इन बाबाओं में भी अपने प्रतिद्वंद्वी को पिछाड़ कर खुद आगे निकल जाने की होड़ है। वे विज्ञापनों पर मोटी रकम खर्च करते हैं। इन्होंने खूबसूरत लड़कियों को अपनी रिसेप्शनिस्ट बना रखा है। यही रिसेप्शनिस्ट पहले आपकी समस्या नोट करेंगी, उसके बाद बाबा से आपकी मुलाकात कराएगी। सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें ज्यादातर बाबाओं का अतीत दागी है। कइयों के खिलाफ चार सौ बीसी, हत्या के प्रयास, दंगा भड़काने जैसे संगीन मामलों में मुकदमे चल रहे हैं। बाबजूद इसके कि गली मुहल्लों में चल रही दुकाने नर्मदा के पवित्र तटों को भी नहीं बक्श पा रही है।

सिमट रहा 'दादाओं? का दायरा

पुलिस और अर्धसैनिक बलों के बढ़ते दबाव से माओवादी इस समय भारी मुश्किल में हैं। इसके बावजूद वे अपनी कमजोरी प्रकट न होने देने की रणनीति के तहत बस्तर के जंगल में रह-रह कर जहां-तहां बारूदी धमाके और हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। माओवादियों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि अपनी ही सिद्धांतहीन हरकतों से छत्तीसगढ़ में उनकी बुनियाद खिसक रही है। बस्तर में उनका असली चेहरा इस कदर बेनकाब हो गया है कि खुद उनके कैडर के लोगों को अब यह महसूस हो रहा है कि माओवाद का कोई भविष्य नहीं है। हत्या, लूटपाट, ठेकेदारों से लेवी की वसूली और आदिवासी महिलाओं की इज्जत-आबरू बेखौफ लूटने की वजह से लोग उन्हें 'दादाÓ कहने लगे हैं। माओवादियों की ये हरकतें उनके कैडरों को ही सिद्धांतहीन लगती हैं। इन हरकतों की वजह से खुद उनके कैडर यह मानने लगे हैं कि माओवादियों और लुटेरों-अपराधियों के बीच फर्क करना उनके लिए अब मुश्किल हो रहा है। इस हकीकत से अवगत हो जाने के बाद उनके फौजी दस्ते के लोगों का माओवादियों से मोहभंग होने लगा है और वे हमेशा 'दादाÓ का साथ छोडऩेे की ताक में हैं। मौका पाकर कई लोग तो भाग भी चुके हैं उनके चंगुल से। दंतेवाड़ा के किरंदुल, बचेली, सुकमा, नकुलनार, कुआकोंडा, गादीरास, मोखपाल, मैलाबाड़ा, चंगावरम, कोर्रा, दोरनापाल, केरलापाल, कोंटा और जगरगुंडा के घने जंगलों में सीधे-सादे आदिवासियों से बातचीत करने के बाद पिछले दिनों यही हकीकत उभर कर सामने आई।
दंतेवाड़ा से सुकमा और फिर सुकमा से नेशनल हाइवे 221, जो आंध्रप्रदेश के भद्राचलम तक जाता है, यह बस्तर का एक महत्वपूर्ण नक्सल प्रभावित इलाका है। इस हाइवे की कुल लंबाई 329 किलोमीटर है। यह आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से शुरू होकर छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में आकर समाप्त होता है। छत्तीसगढ़ में इसकी कुल लंबाई 174 किलोमीटर है। इस नेशनल हाइवे के दोनों ओर घने जंगल हैं मगर यह सिर्फ कहने भर को नेशनल हाइवे है। एक वाहन गुजरने भर की इस सड़क की हालत जगह-जगह बहुत जर्जर है। इस इलाके के लोग कहते हैं कि माओवादियों ने इसे जगह-जगह खोद कर और लैंडमाइंस लगाकर बर्बाद कर दिया है। सरकार ने मिट्टी और पत्थर के टुकड़े भर कर इस हाइवे को बमुश्किल यातायात के काबिल बना तो जरूर दिया है मगर अब भी इस हाइवे से बेहतर कई जगह की ग्रामीण सड़कें हैं। लोगों का कहना है कि नेशनल हाइवे होने की वजह से न तो राज्य सरकार इस पर ध्यान दे रही है न ही केंद्र सरकार जबकि इस इलाके के विकास और माओवादियों पर काबू पाने के लिए इसका न सिर्फ दुरुस्त होना जरूरी है बल्कि इसे डबल लेन भी प्राथमिकता के आधार पर करना आवश्यक है। छत्तीसगढ़ को आंध्रप्रदेश से जोडऩे वाले इस नेशनल हाइवे पर दिन में माल से लदे ट्रकों की आवाजाही देखने को मिलती है। आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ तक करखनिया माल और खनिज की ढुलाई के लिए यह सड़क बेहद जरूरी है इसलिए ट्रक चालकों के लिए इस हाइवे से गुजरना उनकी मजबूरी है। इस नेशनल हाइवे से उस इलाके के जंगली गांवों को जोडऩेे के लिए राज्य सरकार ने इसके दोनों ओर जहां-तहां सड़कों के निर्माण की योजना तो बनाई है, कई जगह कच्ची सड़कें बन भी गई हैं मगर उन सड़कों के कंक्रीटीकरण या डामरीकरण का काम नहीं हो पाया है। माओवादी नहीं चाहते कि वे सड़कें बनें क्योंकि सड़क बन जाने से आदिवासियों तक विकास की रोशनी पहुंच जाएगी और इस रोशनी में 'दादाÓ यानी माओवादियों के चेहरे बेनकाब हो जाएंगे।
बस्तर का यह वह इलाका है जहां माओवादियों ने अब तक सबसे अधिक हिंसा और रक्तपात किया है। इस नेशनल हाइवे के किनारे कुछ जगहों पर जैसे भूसारास और रामपुरम में सीआरपीएफ के कैंप हैं। पिछले दो साल में इस इलाके में माओवादियों पर पुलिस फोर्स का दबाव इतना बढ़ गया है कि दिन में इस हाइवे से गुजरना अब उतना खतरनाक नहीं रह गया। नकुलनार और गादीरास समेत कई जगहों पर साप्ताहिक बाजार लगे हुए मिले मगर शाम होने से दो घंटे पहले ही बाजार समाप्त हो गया। इसकी वजह यह है कि ग्रामीण सूरज ढ़लने से पहले सुरक्षित अपने गांव लौट जाना चाहते हैं। लोग सामान्य जिंदगी जीना तो चाहते हैं मगर 'दादाओंÓ का खौफ उनमें अब भी कायम है। हाइवे के किनारे कुछ गांवों के पास दो-एक जगह मुर्गों की लड़ाई के आयोजन भी दिखे। मनोरंजन के लिए आयोजित इस तमाशे में बड़ी संख्या में आदिवासी हाथ में दस-दस रुपए के नोट लिए उस मैदान को घेरे हुए इस में शिरकत करते दिखे जिसमें मुर्गे की लड़ाई चल रही थी। मतलब कि उस आदिवासी इलाके के लोग सामान्य जिंदगी जीना चाहते हैं, मनोरंजन करना चाहते हैं मगर 'दादाओंÓ यानी माओवादियों का खौफ अब भी उनके सिर पर नाच रहा है। अब से दो साल पहले ये ग्रामीण और आदिवासी इस इलाके में आसमान में सूरज के रहते न तो ढंग से बाजार कर सकते थे न ही मनोरंजन। लोगों को यह जो थोड़ी सी राहत मिली है वह 'दादाओंÓ पर पुलिस फोर्स के बढ़ते दबाव का प्रतिफल है। लोगों से बात करने पर यह बात साफ-साफ सामने आई कि इसी तरह पुलिस फोर्स का दबाव बना रहा तो दो साल में इस इलाके से माओवादियों का सफाया तय है और आदिवासियों में 'दादाओंÓ की दहशत खत्म हो जाएगी।
दरअसल केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ समन्वय स्थापित कर पिछले कुछ महीनों में माओवादियों के खिलाफ जिस तरह संयुक्त अभियान चला रखा है उससे माओवादी भारी परेशान हैं। इसी परेशानी में वे अब अभियान रोकने के लिए केंद्र पर दबाव बना रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम को माओवादियों ने इसी तिलमिलाहट में हमले की धमकी भी दी है। माओवादी अपने उन बुद्धिजीवी कैडरों को भी इस काम में लगाए हुए हैं जो दिल्ली समेत अन्य शहरी इलाकों में मानवाधिकार की आड़ लेकर 'दादाओंÓ के खिलाफ जारी पुलिस कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। हार्डकोर माओवादियों को भी इस बात का अहसास अब होने लगा है कि उनके कैडर में शामिल आदिवासी युवकों और युवतियों को माओवाद के सपने दिखाकर बहुत दिनों तक संगठित रखना आगे चलकर अब मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं होगा। वे यह भलीभांति जानते हैं कि उनके हिंसक आतंक की वजह से जो आदिवासी अभी उनका विरोध नहीं कर रहे या चुप हैं वे कभी भी विरोध का झंडा उठा सकते हैं। यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है क्योंकि आदिवासी उनकी रंगदारी और दादागीरी से आजिज आ चुके हैं। इसीलिए अब वे उन्हें माओवादी की जगह 'दादाÓ कहते हैं। अच्छी-खासी संख्या में युवक और युवतियां माओवादी दस्ते से भाग भी चुके हैं। यात्रा के इस क्रम में जगरगुंडा के जंगली इलाके में ऐसी कई युवतियों से मुलाकात हुई। उनसे बातचीत में जो तथ्य सामने आए वे गरीबों और शोषितों के हित के लिए हिंसा और हथियारबंद माओवादियों की हकीकत खोलने के लिए काफी हैं।
छत्तीसगढ़- आंध्रपद्रेश की सीमा पर जगरगुंडा जंगल में पोरियम पोजे नाम की एक युवती का, जो पांच साल से ज्यादा वक्त से विजय दलम में सक्रिय है, कहना है कि माओवादी आंदोलन का कोई भविष्य नहीं है। पोजे लगभग तीस साल की युवती है जिसने 12 बोर की बंदूक थाम कर आधा दर्जन से अधिक माओवादी हमलों में उसने हिस्सा लिया। उसका साफ कहना है कि शुरू में वह माओवादियों के सिद्धांत से प्रभावित जरूर हुई। वे लोग एक दिन शाम में हमें घर से जबरन उठा कर ले गए थे। मगर पांच साल से भी अधिक दिनों तक इसमें सक्रिय रहने के बाद अब इस आंदोलन से उसका मोहभंग हो गया। उसे ऐसा लगा कि माओवादी लड़ाके सिद्धांत से भटक चुके हैं और वे अब लुटेरे और हत्यारे हो गए हैं। सिद्धांत से उनका अब कोई लेना-देना नहीं रह गया है। उसने कहा कि माओवादियों के संघर्ष को उसने बहुत करीब से देखा और समझा है। शोषितों पीडि़तों के कल्याण के नाम पर शुरू की गई यह हथियारबंद लड़ाई आतंक की राजनीति के रूप में तब्दील हो गई। 'दादाÓ लोग गांव- गांव में आतंक मचा रहे हैं। निर्दोष ग्रामीणों की सरेआम हत्या कर रहे हैं। इसलिए उसका इससे मोहभंग हो गया है। आतंक की इस राजनीति को वह हमेशा के लिए अलविदा कहने के लिए तैयार है। पोजे ने कहा-शुरू में दादाओं (माओवादियों) ने कहा कि वे लोग भारत सरकार का तख्तापलट कर अपना शासन कायम करेंगे। इस सरकार में उनका भला होने वाला नहीं है। अपना शासन होने पर वे गरीबों को जमीन, मकान व अनाज देंगे, रोजी-रोजगार देंगे। मगर दादाओं ने लेवी वसूली, लूटपाट और हत्याओं का सिलसिला जिस कदर चला रखा है उससे तो ऐसा लगता है कि इस आंदोलन का अब कोई भविष्य नहीं है, इससे गरीबों का कोई भला होने वाला नहीं है।
पोजे मुडिय़ा आदिवासी युवती है। वह हिंदी नहीं जानती। पिछले कुछ महीनों से वह मुख्य धारा में आने के लिए हिंदी बोलने- समझने की कोशिश कर रही है इसलिए वह टूटी-फूटी हिंदी ही बोल पाती है। उससे बात करने में एक दुभाषिए ने सहायता की। उसने साफ-साफ कहा कि 'दादाÓ बस्तर में लुटेरे बन गए हैं, हत्यारे बन गए हैँ, क्रांति के नाम पर वे निर्दोष लोगों की हत्याएं कर रहे हैं तथा व्यापारियों और अन्य लोगों से रंगदारी व लेवी वसूलते हैं। इतना ही नहीं वे दलम में शामिल महिलाओं और युवतियों का यौन शोषण करते हैं। उसने कहा वह इस बात की गवाह है और उसका यौन शोषण करने की भी कोशिश की गई .. इससे उसका मन 'दादाओंÓ के प्रति घृणा से भर गया। बड़े गुस्से में उसने कहा कि हत्यारे और लुटेरे जो काम करते हैं 'दादाÓ लोग भी तो वही सब कर रहे हैं.. फिर माओवादियों और लुटेरों व हत्यारों में क्या अंतर रह गया? पोजे कहती है कि पुलिस से उसे अब कोई डर नहीं लगता। वह अब भी अविवाहित है और अपने गांव लौट जाने का मन बना चुकी है। मौका मिलते ही कभी भी भाग निकलेगी। वह विवाह कर सामान्य जिंदगी जीना चाहती है। उसका कहना है कि हिंसा और आतंक की इस राजनीति का न तो कहीं अंत दिखता है, न ही कोई भविष्य। पोजे ने कहा-'दादाओंÓ का कहना है कि उनका जनाधार बढ़ रहा है जबकि उसका अनुभव है पुलिस के बढ़ते दबाव के कारण पिछले एक साल में 'दादाओंÓ पर न सिर्र्फ खतरा बढ़ा है बल्कि वे डर के मारे एक जंगल छोड़ दूसरे जंगल में पनाह लेते फिर रहे हैं। उसने कहा कि हकीकत यह है कि बस्तर में दिन पर दिन 'दादाओंÓ का दायरा सिमटता जा रहा है।