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भेड़ाघाट

Tuesday, October 25, 2011

कब धुलेगा कुपोषण का कलंक





मध्य प्रदेश के माथे पर कुपोषण एक ऐसा कलंक बन गया है जिसे मिटाने के लिए जितना सरकारी प्रयास हो रहा है वह उतना ही बढ़ रहा है। वर्तमान वित्तीय वर्ष में प्रदेश सरकार ने महिला एवं बाल विकास विभाग को 2209 करोड़ 49 लाख रुपये का बजट मुहैया कराया है लेकिन खंडवा जिले के खालवा में जिस तेजी से कुपोषण फैला रहा है उससे सरकार के सारे प्रयास बेमानी साबित हो रहे हैं। खालवा में स्थिति नियंत्रण में है,जबकि हकीकत यह है कि कुपोषण के आंकड़ों से सरकारी मशीनरी सकते में है। जिले में कुपोषण के शिकार लगभग नब्बे बच्चे अस्पताल में जीवन और मौत के बीच झूल रहे हैं। कुछ ऐसे ही हालात प्रदेश के अन्य जिलों में भी हैं। सरकार के तमाम प्रयासों के बाद भी वर्तमान में राज्य में नवजात शिशुओं से लेकर पांच वर्ष तक की आयु के 60 प्रतिशत बच्चे कुपोषण की समस्या से ग्रस्त होने के कारण कमज़ोर और बीमार हैं। इनमें से कई बच्चों की असमय मौत हो जाती है।
सरकारी रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश के आदिवासी बहुल जिले में कुपोषण की स्थिति सबसे ज्यादा चिंताजनक पाई गई है, जिनमें राज्य के झाबुआ, अलीराजपुर, मंडला, सीधी, धार और अनूपपुर जिलों में अतिकुपोषित बच्चों की संख्या 7 से 15 प्रतिशत तक रही। हालांकि कुपोषण की स्थिति का पता लगाने के लिए बच्चों के वजन मापने के इस अभियान में कई तरह की खामियां और गड़बडियां भी सामने आईं, जिसके कारण प्रदेश में कुपोषण के शिकार बच्चों की वास्ततिक स्थिति सामने नहीं आ सकी। ऐसे में इन नतीजों पर पूरी तरह से भरोसा तो नहीं किया जा सकता, किन्तु यह राज्य सरकार और इसके कर्ता-धार्ताओं के लिए आंख खोलने वाले हैं। गड़बडियों में वजन मापने की मशीनों की कमी के कारण 30 हजार से ज्यादा आंगनबाड़ी केंद्रों में दूसरे स्थानों से मशीने लाई गईं और कई मशीनें बिगड़ जाने से सुदूर ग्रामीण अंचलों में उन्हें सुधारा भी नहीं गया और मनमाने तौर पर बच्चों का वजन लिया गया। फिर भी इन ताजे परिणामों से भी यह सिध्द होता है कि मधयप्रदेश में बच्चों में कुपोषण की स्थिति काफी खतरनाक स्थिति में हैं।
कुपोषण को लेकर प्रदेश सरकार और प्रशासनिक अमला कितना गंभीर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में समेकित बाल विकास सेवाओं के लिए पूरे राज्य में जहां एक लाख 46 हजार आंगनबाड़ी केंद्रों की जरूरत है, वहां राज्य में केवल 70 हजार आंगनबाड़ी केंद्र ही संचालित हो रहे हैं, जो कि राज्य के मात्र 76 फीसदी बच्चों को ही अपनी सेवाएं दे पा रही हैं, जबकि एक चौथाई बच्चे अभी भी बाल कल्याण सेवाओं से पूरी तरह से वंचित हैं। मधयप्रदेश की केवल 13 हजार आदिवासी बस्तियों में समेकित बाल विकास सेवा का लाभ पहुंच रहा है, लेकिन तकरीबन 4200 आदिवासी बस्तियां इस सेवा से आज भी वंचित हैं।
मध्यप्रदेश के माथे पर लगे चुके कुपोषण के कलंक को मिटाने के लिए प्रदेश सरकार जहां पानी की तरह पैसा बहा रही है वहीं आज भी मप्र में कुपोषण के नाम पर कुपोषित का नहीं, बल्कि किसी और का पोषण हो रहा है। हाल ही में प्रदेश की भाजपा सरकार ने करोड़ों रुपए खर्च कर प्रदेश में कुपोषण के खिलाफ एक मिशन के तौर पर जिस तरह से 'अटल बाल अरोज्य एवं पोषण मिशनÓ की शुरुआत की है उससे तो यही लगता है कि यह 'पोषण मिशनÓ भी प्रदेश से कुपोषितों का पोषण करने के बजाय कहीं पोषितों के पोषण का जरिया न बन जाए। मिशन की शुरुआत जिस तरह से गरीब व भूखे को धयान में रखकर इसका नामकरण पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर किया गया और शुभारंभ कार्यक्रम के दौरान प्रदेश का कोई कुपोषित बच्चों की नहीं, बल्कि प्रदेश के माननीयों और नौकरशाहों की टोली दिखी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सरकार यदि मिशन के शुभारंभ के अवसर पर स्वपोषितों के बजाय कुपोषितों को बुलाकर उनसे रूबरू होती तो शायद यह मिशन अपने मकसद में कामयाब होने के ज्यादा करीब रहता।
बच्चों के अधिकारों की वकालत करने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था चाइल्ड राइट्स एंड यू (क्राई) ने मध्य प्रदेश के दस जिलों में किए गए सर्वे के आधार पर दावा किया है कि यहां कुपोषित बच्चों की संख्या 60 फीसदी से ज्यादा है। वहीं महिला बाल विकास मंत्री रंजना बघेल की माने तो वर्ष 2009-10 में 69 लाख 69 हजार से अधिक बच्चों का परीक्षण किया गया, जिनमें से 46 लाख 34 हजार से ज्यादा बच्चे सामान्य पाए गए, वहीं 23 लाख 34 हजार बच्चे कुपोषित पाए गए। कुपोषित कुल 23 लाख 24 हजार बच्चों में से एक लाख 37 हजार बच्चे ऐसे हैं जो गंभीर स्थिति यानी तीसरी व चौथी श्रेणी के हैं। उन्होंने बताया कि कुपोषण को रोकने के लिए पूरक पोषण आहार पर पिछले वित्त वर्ष में 51,166 लाख रुपए खर्च किए गए। वहीं क्राईका कहना है कि पूरे राज्य में आदिवासी समुदाय के 74 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। चौंकाने वाला तथ्य तो यह है कि राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। संस्था के प्रदेश में इस सर्वे को पूरा करने वाले विकास संवाद के प्रशांत दुबे का कहना है कि सिर्फ रीवा जिले में अकेले 83 फीसदी बच्चे कुपोषण के शिकार पाए गए हैं। संस्था द्वारा राजधानी भोपाल की पुनर्वास कॉलोनियों में कराए गए शोध के आंकड़े और भी ज्यादा चौंकाने वाले मिले हैं। भोपाल के लगभग 11 रिसेटमेंट कॉलोनियों से इक_ा किए गए आंकड़ों से पता चला है कि यहां के 49 फीसदी बच्चे कुपोषण से ग्रसित हैं। जबकि इन्हीं इलाकों के 20 फीसदी बच्चे गंभीर कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।
दिल्ली में क्राई की निदेशक योगिता वर्मा का कहना है कि भले राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान राज्य के सभी बच्चों के मामा होने का दावा करें लेकिन वे अभी भी राज्य के मासूम बच्चों को कुपोषण से निजात दिलाने में नाकाम साबित हुए हैं। राज्य में बच्चों के बेहतर देखभाल के लिए जरूरी आंगनबाड़ी का भी पूरी तरह इंतजाम नहीं करा पाए हैं। अभी भी पूरे मध्य प्रदेश में लगभग 47 प्रतिशत आंगनबाडिय़ों की कमी हैं। क्राई के एक अन्य सदस्य आरबी पाल का कहना है कि राज्य में रहने वाले आदिवासी समुदाय के लगभग 74 फीसदी बच्चे भी कुपोषण के शिकार पाए गए हैं।
मध्यप्रदेश के बच्चे देशभर में वजन में सबसे कम और शारीरिक रूप से भी सबसे कमजोर हैं। केंद्र सरकार द्वारा एनीमिया और कुपोषण पर जारी आंकड़ों से यह शर्मनाक खुलासा हुआ है। प्रदेश के 60 प्रतिशत बच्चे अंडरवेट (सामान्य से कम वजन) बताए गए हैं। इसके बाद झारखंड 56.6 और बिहार 55.9 प्रतिशत के साथ क्रमश:दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
प्रदेश सरकार द्वारा हाल में राष्ट्रीय पोषण संस्थान, हैदराबाद से कराए गए सर्वेक्षण के मुताबिक 51.77 फीसदी बच्चे कुपोषित हैं। अति कुपोषित बच्चों की संख्या 8.34 फीसदी है। यानी अभी भी प्रदेश में सात लाख से अधिक बच्चे अति कुपोषित हैं। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार मधयप्रदेश में हर साल करीब 30 हजार बच्चे अपना पहला जन्मदिन तक नहीं मना पाते और काल के गाल में समा जाते हैं। ये वो अभागे अबोधा बच्चे हैं, जो धारती पर पैर रखने के साथ ही कुपोषण के शिकार होते हैं और जन्म के बाद पोषण आहार की कमी के चलते अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसी कलंक की बदौलत मध्यप्रदेश देश के उन पिछड़े राज्यों में शुमार है, जहां शिशु मृत्युदर सबसे ज्यादा है। मधयप्रदेश में शिशुमृत्यु दर 70 प्रति हजार है। गरीबी, पिछड़ेपन और अशिक्षा की मार झेल रहे मध्यप्रदेश में कुपोषण की स्थिति चिंताजनक है, जबकि प्रदेश की भाजपा सरकार इसे लेकर गंभीर नहीं है। हालांकि पिछले दिनों भारत सरकार द्वारा राज्य सरकार और केंद्र के अधिकृत प्रतिवेदनों के आधार पर जारी रिपोर्ट के बाद प्रदेश सरकार को शर्म से झुकना पड़ा और उसने स्वीकार किया कि मध्यप्रदेश में हर साल हजारों बच्चे कुपोषण के कारण बेमौत मारे जाते हैं।

पोषण आहार कार्यक्रम माफियाओं के कब्जे में

भारत सरकार के सहयोग से राज्य सरकार ने कुपोषण निवारण के लिए कई कार्यक्रम चला रखे हैं, लेकिन राज्य में पोषण आहार सप्लाई करने और उसका वितरण करने तक की पूरी प्रक्रिया माफियाओं के क़ब्ज़े में होने के कारण वास्तविक हितग्राहियों को पोषण आहार कार्यक्रम का पूरा लाभ नहीं मिल रहा है। सरकार ने इस योजना में अपनों को लाभ पहुंचाने के लिए बड़े-छोटे मा़फिया तंत्र को प्रोत्साहित किया है, लेकिन अब यह मा़फिया तंत्र सरकार के नियंत्रण से बाहर होकर अपना हित साधन में लगा हुआ है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को इन मा़फियाओं की उपस्थिति और करतूतों की भली प्रकार जानकारी है, इसीलिए उन्होंने इस कार्यक्रम को शहरी क्षेत्रों में सक्रिय मा़फियाओं से मुक्त रखने के निर्देश दिए थे। मुख्यमंत्री के स्पष्ट निर्देश थे कि भोपाल, इन्दौर, ग्वालियर, जबलपुर जैसे बड़े शहरों में एक समूह या प्रतिष्ठान को 15 से 20 आंगनवाडिय़ों में ही पोषण आहार आपूर्ति के लिए नियुक्त किया जाए। बाक़ायदा सरकारी फाइल चली और मुख्यमंत्री के इन निर्देशों पर महिला एवं बाल कल्याण विभाग की मंत्री और प्रमुख सचिव ने भी स्वीकृति की मोहर लगाई, लेकिन फाइलों में दबा यह आदेश शहरों तक नहीं पहुंचा हैं और इसलिए बड़े शहरों में सक्रिय पोषण आहार आपूर्ति करने वाले मा़फिया अभी भी खुलकर अपना खेल खेल रहे हैं और कुपोषित बच्चों तथा गऱीब माताओं के हिस्से को डकार रहे हैं।
पूरे प्रदेश में 69238 आंगनवाड़ी केंद्रों में पूरक पोषण आहार वितरण की व्यवस्था है, इनमें लगभग 50 लाख बच्चों और 10 लाख गर्भवती महिलाओं को पोषण आहार उपलब्ध कराया जाता है। इन्हें 300 से 600 कैलोरी तक का प्रोटीन पोषण आहार के रूप में दाल-दलिया या अन्य खाद्य पदार्थ के रूप में दिया जाता है, लेकिन इस कार्यक्रम में कई खामियां, गड़बडिय़ा और घपले-घोटले होते रहे हैं। मुख्यमंत्री के निर्देश पर पूरी व्यवस्था में सुधार लाने के लिए प्रदेश भर की आंगनवाडिय़ों में बच्चों और गर्भवती तथा धात्री माताओं को ताज़ा पका खाना देने के उद्देश्य से साझा चूल्हा योजना बनाई गई। मुख्यमंत्री ने योजना 15 जुलाई 2009 से शुरू करने के निर्देश दिए थे, पर योजना 1 नवम्बर से अस्तित्व में आ पाई इसके देर से शुरू होने का कारण भी दलिया मा़फिया और विभाग के कुछ अधिकारियों को माना जा रहा है।

विंध्य क्षेत्र में बच्चों की उपेक्षा

कुपोषण के कारण गऱीबी में जी रहे हज़ारों बच्चों की मौत की दर में सतना जि़ला अव्वल है। राज्य सरकार द्वारा बच्चों की सुरक्षा और सेहत के मामले में जारी किए गये कोई भी निर्देश सतना में प्रभावशील नहीं है। पिछले चार वर्षों के दौरान राज्य सरकार ने राज्य में बच्चों की सुरक्षा पर हर साल औसतन दो रुपये और स्वास्थ्य पर पंद्रह रुपये खर्च किए हैं। एक ग़ैर सहकारी संगठन द्वारा जारी किये गए सर्वेक्षण रिपोर्ट से उपरोक्त तथ्यों का खुलासा हुआ है। वर्ष 2005 से लेकर 2009 तक क्रमश: 1603, 2060, 1688 और 1856 बच्चों की मौत सतना जिले में हुई है। वहीं रीवा और सीधी जिलों में क्रमश: इसी अवधि में 1051 और 573, 1324 एवं 1070, 972 एवं 1450, 702 एवं 1122 बच्चों की मौत हुई है। मध्य प्रदेश सरकार द्वारा प्रत्येक बच्चे के स्वास्थ्य पर वर्ष 2004 से लेकर 2009 तक पंद्रह रुपया खर्च किया गया वहीं उड़ीसा राज्य द्वारा सत्रह रुपये और उत्तर प्रदेश द्वारा 60 रुपये व्यय किया गया। बाल सुरक्षा के मामले में प्रत्येक बालक पर सालाना खर्च मध्य प्रदेश में 01.94 रुपये और आंध्र प्रदेश द्वारा 27.54 रुपया किया गया। बलात्कार सहित बच्चों पर होने वाले अपराधों की संख्या भी प्रदेश में सबसे ज़्यादा है। राज्य सरकार द्वारा बाल शिक्षा पर 2004 से 2009 के मध्य प्रतिवर्ष प्रति बालक 1395 रुपये और इसी अवधि में हिमाचल प्रदेश द्वारा 4894 रुपये व्यय किए गए।
ग़ैर सहकारी संगठन संकेत डेवलपमेंट ग्रुप द्वारा जारी रिपोर्ट में वर्ष 2001 से वर्ष 2009 तक राज्य सरकार द्वारा बच्चों को लाभ पहुंचाने वाली योजनाओं पर बजट प्रावधानों का अध्ययन किया गया। इस अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार बच्चों की शिक्षा शिशु विकास पर तुलनात्मक रूप से अधिक राशि खर्च की गई है जबकि बाल स्वास्थ्य और सुरक्षा को नजऱअंदाज़ किया गया है।

Friday, October 21, 2011

रेत माफिया के कारण घडिय़ालों पर संकट




मध्य प्रदेश में खनिज और रेत माफियाओं के कारण वनों और नदियों के साथ ही जीवों का जीवन भी खतरे में पड़ गया है। प्रदेश में अब बाघों के बाद घडिय़ालों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। हालात ऐसे बन गए हैं कि प्रदेश का एक और अभ्यारण्य समाप्त होने की कगार पर है. विंध्य क्षेत्र की सबसे बड़ी नदियों में शामिल की गई सोन नदी के तट पर बना घडिय़ाल अभ्यारण्य राज्य शासन की उपेक्षा और अनदेखी का शिकार बन चुका है. मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी. इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है. प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है. रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है.
सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य मध्य प्रदेश में सोन नदी की विविधता और प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते हुए मध्य प्रदेश शासन के आदेश से 23 सितम्बर 1981 को स्थापित किया गया था. इस अभ्यारण्य का उद्घाटन प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह द्वारा 10 नवम्बर 1981 को किया गया था. अभ्यारण्य का कुल क्षेत्रफल 209.21 किमी का है. इसमें सीधी, सिंगरौली, सतना, शहडोल जिले में प्रवाहित होने वाली सोन नदी के साथ गोपद एवं बनास नदी का कुछ क्षेत्र भी शामिल है. सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य नदियों के दोनों ओर 200 मीटर की परिधि समेत 418.42 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र संरक्षित घोषित है.उस समय के एक सर्वेक्षण के अनुसार इस क्षेत्र में मगरमच्छ और घडिय़ालों की कुल संख्या 13 बताई गई थी, जबकि वास्तविकता कुछ और थी. क्षेत्र में कार्यरत पर्यावरणविदों के अनुसार इस क्षेत्र में घडिय़ालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और उसका प्रमुख कारण सोन नदी के तट पर अनधिकृत रूप से कार्यरत रेत माफिया हैं.
रेत माफिया के अवैध संग्रहण के कारण मगरमच्छ और घडिय़ाल सोन नदी से करीब बसाहट वाले गांव में घुसकर जानवरों और ग्रामीणों को शिकार बना रहे हैं. जिला चिकित्सालय वैढऩ में पदस्थ चिकित्सक डॉ. आर.बी. सिंह के अनुसार प्रतिवर्ष 40 से 50 लोग घडिय़ालों के हमले का शिकार होकर यहां आते है, जिनमें से कुछ को तो बचा लिया जाता है पर कई लोग अकाल मौत का भी शिकार हो जाते हैं. रेत माफिया सोन नदी से अवैध रूप से उत्खनन करने के लिए नदी को लगातार खोदने का काम करता है, परिणामत: पानी में होने वाली लगातार हलचल के परिणाम स्वरूप घडिय़ालों के लिए निर्मित किए गये इस प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन आता है.
मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी. इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है. प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है. रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है. सूत्रों की मानें तो भारत शासन द्वारा घडिय़ाल अभ्यारण्य में खर्च की जाने वाली राशि फर्जी बिल बाउचर्स के जरिए वन अधिकारियों एवं स्थानीय अधिकारियों के निजी खजाने में जा रही है. सोन नदी के जोगदाह पुल से कुछ आगे रेत का अवैध उत्खनन व्हील बना हुआ है, जहां से रेत माफिया इस क्षेत्र में पूरी तरह सक्रिय हैं.
सोन घडिय़ाल के प्रभारी संचालक ने बताया कि 200 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र के लिए केवल 13 सुरक्षाकर्मी उपलब्ध है. मगरमच्छ एवं घडिय़ालों की सुरक्षा के लिए प्रतिवर्ष 30 लाख रूपये का बजट आवंटित किया जाता है. अब तक तकरीबन 250 मगरमच्छ एवं घडिय़ालों के बच्चे संरक्षित क्षेत्र में छोड़े गए हैं, जिनकी संख्या अब लगभग 150 के करीब है. श्री वर्मा के अनुसार शीघ्र ही वैज्ञानिक सर्वे कराया जाना प्रस्तावित है, इसके बाद भिन्न प्रजातियां एवं उनकी वास्तविक संख्या का आंकलन किया जा सकेगा.वरना बाघों की तरह इनके दर्शन भी दुर्लभ हो जाएंगे.
उल्लेखनीय है कि चंबल सेंचुरी क्षेत्र में दिसंबर-2007 से जिस तेजी के साथ किसी अज्ञात बीमारी के कारण एक के बाद एक सैकड़ों की संख्या में डायनाशोर प्रजाति के इन घडिय़ालों की मौत हुई थी उसने समूचे विश्व समुदाय को चिंतित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होने लगा था कि कहीं इस प्रजाति के घडिय़ाल किसी किताब का हिस्सा न बनकर रह जाएं। घडिय़ालों के बचाव के लिए तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं आगे आई और फ्रांस, अमेरिका सहित तमाम देशों के वन्य जीव विशेषज्ञों ने घडिय़ालों की मौत की वजह तलाशने के लिए तमाम शोध कर डाले। वन्य जीव प्रेमियों के लिए चंबल क्षेत्र से एक बड़ी खुशखबरी सामने आई है। किसी अज्ञात बीमारी के चलते बड़ी संख्या में हुई डायनाशोर प्रजाति के विलुप्तप्राय घडिय़ालों के कुनबे में सैकड़ों की संख्या में इजाफा हो गया है। अपने प्रजनन काल में घडिय़ालों के बच्चे जिस बड़ी संख्या में चंबल सेंचुरी क्षेत्र में नजर आ रहे हैं वहीं चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों की अनदेखी से घडिय़ालों के इन नवजात बच्चों को बचा पानी काफी कठिन प्रतीत हो रहा है।
घडिय़ालों की हैरत अंगेज तरीके से हुई मौतों में जहां वैज्ञानिकों के एक समुदाय ने इसे लीवर क्लोसिस बीमारी को एक वजह माना तो वहीं दूसरी ओर अन्य वैज्ञानिकों के समूह ने चंबल के पानी में प्रदूषण की बजह से घडिय़ालों की मौत को कारण माना। वहीं दबी जुबां से घडिय़ालों की मौत के लिए अवैध शिकार एवं घडिय़ालों की भूख को भी जिम्मेदार माना गया। घडिय़ालों की मौत की बजह तलाशने के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने करोड़ों रुपये व्यय कर घडिय़ालों की गतिविधियों को जानने के लिए उनके शरीर में ट्रांसमीटर प्रत्यारोपित किए।
घडिय़ालों के अस्तित्व पर संकट के प्रति चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारी लगातार अनदेखी करते रहे हैं। घडिय़ालों की मौत की खबर भी इन अधिकारियों को हरकत में नहीं ला सकी और अब जबकि घडिय़ालों के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इटावा जनपद से गुजरने वाली चंबल में बड़ी संख्या में घडिय़ालों के बच्चों ने जन्म लिया है तो अभी तक इनकी सुरक्षा के लिए सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों ने कोई उपाय नहीं किए हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को जोडऩे वाली चंबल नदी में घडिय़ालों के बच्चों को नदी के किनारे बालू पर रेंगते हुए और नदी में अठखेलियां करते हुए आसानी से देखा जा सकता है। इतनी बड़ी संख्या में घडिय़ालों के प्रजनन के बारे में जानकर अंतर्राष्ट्रीय वन्य जीव प्रेमियों में उत्साह है तो वहीं इनकी सुरक्षा को लेकर चिंता भी जताई जा रही है। वन्य जीव प्रेमियों को आशंका है कि आने वाले दिनों में मानसून में चंबल के बढ़ते वेग में कहीं यह बच्चे बह कर मर न जाएं परंतु इसके बावजूद भी चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों को इससे कोई सरोकार नहीं रह गया है।
नेचर कंजर्वेसन सोसायटी फार नेचर के सचिव एवं वन्य जीव विशेषज्ञ डा. राजीव चौहान बताते हैं कि पंद्रह जून तक घडिय़ालों के प्रजनन का समय होता है जो मानसून आने से आठ-दस दिन पूर्व तक रहता है। घडिय़ालों के प्रजनन का यह दौर ही घडिय़ालों के बच्चों के लिए काल के रुप में होता है क्योंकि बरसात में चंबल नदी का जलस्तर बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप घडिय़ालों के बच्चे नदी के वेग में बहकर मर जाते हैं। इन बच्चों को बचाने के बारे में वह उपाय बताते हैं कि यदि इन बच्चों को कृत्रिम गर्भाधान केंद्र में संरक्षित कर तीन साल तक बचा लिया जाए तो इन बच्चों को फिर खतरे से टाला जा सकता है। वे कहते हैं कि महज दस फीसदी ही बच्चे बच पाते हैं जबकि 90 फीसदी बच्चों की पानी में बह जाने से मौत हो जाती है। वहीं डा.चौहान यह जानकर चौंकते हैं कि घडिय़ालों के बच्चों की संख्या हजारों में है। वह संभावना जताते हैं कि विगत दिनों इस प्रजाति को बचाने के लिए 840 बच्चों को नदी के ऊपरी हिस्से में छोड़ा गया था। कहीं ऐसा न हो कि यह वही बच्चे नीचे उतर आए हों परंतु नदी के तट पर जिस प्रकार से टूटे हुए अंडे नजर आते हैं उससे साफ है कि इन बच्चों ने अभी हाल ही में जन्म लिया है।

कैसे हुई संकट की शुरूआत?
देश मे दो घाटियां है,एक कश्मीर घाटी एवं एक चंबल घाटी। कश्मीर घाटी जहां आतंकवादियों के आंतक से ग्रस्त है। वहीं चंबल घाटी को खूंखार डकैतों की शरण स्थली के रूप मे दुनिया भर मे ख्याति हासिल है। इसी चंबल घाटी मे खूबसूरत नदी बहती है चंबल। जिसमें मगर, घडिय़ाल, कछुये, डाल्फिन समेत तमाम प्रजातियों के वन्यजीव स्वच्छंद विचरण करते है। इतना ही नहीं चंबल की खूबसूरती में चार-चांद लगाने के लिये हजारों की संख्या मे प्रवासी पक्षी भी आते है, लेकिन पिछले दिनो दुर्भल घडिय़ालों की मौत का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अब डाल्फिन एवं मगर तक आ पहुंचा है। खूंखार डकैतों के खात्मे के बाद चंबल घाटी के वन्यजीवों पर जो संकट आया है। ऐसा लगता है कि खूंखार डकैतों के खात्मे के बाद सक्रिय अधिकारियों ने चंबल की खूबसूरती को दाग लगा दिया है। राजस्थान से प्रवाहित चंबल मध्य प्रदेश होते हुये उत्तर प्रदेश के इटावा के पंचनंदा तक इतनी खूबसूरत है जहां एक साथ मगर, डाल्फिन और घडिय़ाल रहते है और यहां हजारों की तादात मे घडिय़ाल मर रहे थे. उस समय यह आशंका भी व्यक्त की जा रही थी कि कहीं ऐसा तो कहीं ऐसा न हो कि चंबल की आने वाले दिनों मे खूबसूरती समाप्त हो जायें।
चंबल की खूबसूरती इसलिये भी बढ़ जाती है क्योकि यहां की रीजनल डायवर्सिटी अपने आप में खूबसूरत है। इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुन्दरता के कारण हजारो विदेशी पक्षी आते है, जिनकी 200 से अधिक प्रजातियां देखने को मिलती है। इसीलिए इस क्षेत्र को पक्षी अभयारण्य घोषित किया गया था. लेकिन इटावा मे पिछले साल दिसम्बर के पहले सप्ताह मे चंबल नदी मे घडिय़ालों के मरने की खबरो ने सनसनी फैला दी। हालांकि पूछने पर वन अधिकारियों ने इससे साफ इंकार किया कि किसी घडिय़ाल की मौत हुई है. लेकिन वन पर्यावरणीय संस्था सोसायटी फार कन्जरवेशन आफ नेचर के सचिव डा.राजीव चौहान ने इन मृत घडिय़ालों को खोज ही नही निकाला बल्कि वन अधिकारियों की उस करतूत को भी उजागर कर दिया जो उन्होने बेजुबान घडिय़ाल की मौत के बाद किया था।
अगर दुर्लभ घडिय़ालों, डाल्फिन एवं मगरों की मौत की बात करें तो कही न कही चंबल मे अधिकारियों का साम्राज्य हावी है और उन्हीं की यह करतूत है जो चंबल मे वन्यजीवो पर संकट आ खड़ा हुआ है। यह कब दूर होगा कुछ कहा नहीं जा सकता।
कभी इटावा में चंबल नदी से इसी तरह से एक सौ से अघिक घडियाल भटक कर यमुना और दूसरी नदियों में चले गए थे, जो आज तक वापस नहीं लौट सके हैं। इसका कोई जबाव ना तो वन अधिकारियों के पास है, और ना ही इस अभियान में लगे विषेशज्ञ इस बारे में जानकारी देने तैयार हो रहे हैं। इनमें तो कई मर भी गए, लेकिन वन विभाग आज तक नहीं चेता है। इस बात को तब बल मिलता है, जब यमुना नदी से एक मरा हुआ घडियाल मिला। उसके बारे में कहा जा रहा है कि मछली का शिकार करने वालों ने इसे मार कर फेंक दिया है। इलाकाई लोगों के साथ पर्यावरणविदों का भी यही मानना है। वन्य जीव विभाग ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि चंबल नदी से पलायन कर यमुना नदी में पहुंचे 100 से अधिक घडियालों की जान अब शिकारियों के हाथ में हैं।
जिस तरह से चंबल के बजाय अब यमुना नदी से मरे हुए घडियाल बाहर निकल रहे हैं, उससे एक बार फिर से घडियालों की प्रजाति पर संकट सा आता नजर आ रहा है। यमुना नदी में मरे हुए घडियाल का परीक्षण करवा कर सैंपल बरेली स्थित आईबीआरआई लैब को भेज दिए गए हैं। अधिकारी घडियालों पर आने वाले हर प्रकार के संकट से निबटने के लिए तत्पर नजर आ रहे हैं। घडियाल को बचाने की दिशा में तमाम संगठन भी अधिकारियों के साथ सक्रिय नजर आ रहे हैं। इन सबके बावजूद, इतना तो तय है कि विलुप्त प्रजाति के इन घडियालों को बचाने की दिशा में चल रहा अभियान सही ढंग से काम नहीं कर रहा है, तभी तो घडियाल एक के बाद एक करके भटक रहे हैं।

बीहड़ों में तब्दील होती उपजाऊ भूमि

कहने को तो भारत कृषि प्रधान देशों की श्रेणी में आता है, इसके बावजूद हम गेहूं से लेकर अन्य खाद्य पदार्थों का आयात करने पर मजबूर हैं. ऐसा नहीं है कि हमारे पास अन्न पैदा करने के लिए उपजाऊ भूमि और अन्य साधनों की कमी है. यहां तो 800 एकड़ कृषि योग्य भूमि ही बीहड़ों में तब्दील होकर बर्बाद हो रही है. चंबल संभाग की अधिकांश भूमि एल्यूवियल होकर भी हल्के किस्म की है. इस भूमि में रेत,सिल्क, मिट्टी, कंकड़ मिला हुआ है. बरसात होने पर पानी पूरी तरह से भूमि के अंदर नहीं जाता, अपितु ढाल पर ही बहने लगता है. पहले छोटी नाली बनती है, धीरे-धीरे बड़ी नाली में, फिर गहरे नालों में और अंत में बीहड़ों का रूप लेती चली जाती है.
मनुष्य धरती की संतान है, इसलिए मनुष्य सब कुछ पैदा कर सकता है, लेकिन धरती पैदा नहीं कर सकता है. दुनिया में, और खासकर हमारे देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है. अनुमान है कि भारत की जनसंख्या 2020 तक 125 करोड़ हो जाएगी. ऐसे में धरती की कमी हमारे लिए एक समस्या बन सकती है. ऐसे में बर्बाद हो रही या उजाड़ हो रही बीहड़ भूमि को समतल बनाकर उसे मनुष्य के काम आने लायक रूप देना समय की सबसे बड़ी ज़रूरत है.
मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में चंबल नदी के कच्छार में एल्यूवियल मिट्टी के कारण लाखों हेक्टेयर भूमि उबड़-खाबड़ होकर बीहड़ के रूप में व्यर्थ पड़ी हुई है. इसके साथ ही भूमि में कटाव के कारण हर साल हज़ारों एकड़ उपजाऊ भूमि बीहड़ में तब्दील हो रही है. मध्य प्रदेश में 6.30 लाख हेक्टेयर भूमि बीहड़ भूमि है, जिसका अधिकांश भाग मध्य प्रदेश के उत्तरी अंचल में बसे जि़ला भिंड, मुरैना एवं श्योपुर में स्थित है. भिंड मुरैना एवं श्योपुर जि़लों में ही हर वर्ष लगभग 800 हेक्टेयर भूमि बीहड़ के रूप में परिवर्तित हो जाती है जिसकी अनुमानित क़ीमत लगभग 400 करोड़ रुपये है. उत्तर मध्य प्रदेश एवं उत्तर प्रदेश राजस्थान के लगे हुए जि़ले इटावा, उरई, जालौन, आगरा, धौलपुर, भरतपुर आदि का यह अंचल यहां डाकुओं के आतंक से जाना जाता है. वहीं दूसरी ओर प्रकृति के प्रकोप से यह अभिशाप बीहड़ बाहुल्य क्षेत्र के नाम से भी जाना जाने लगा है.
सामाजिक एवं सर्वोदय कार्यकर्ताओं के प्रयासों से इस क्षेत्र में डाकुओं द्वारा आत्म समर्पण के कारण मुक्ति मिल जाने से एक नई आशा की किरण का उदय हुआ है. परंतु इस आशा की किरण का पूर्ण लाभ इस क्षेत्र की जनता को तब तक प्राप्त नहीं होगा, जब तक सदियों से बने बीहड़ों को कृषि भूमि एवं वन भूमि में नहीं बदल दिया जाता, जिसकी अभी तक गंभीर उपेक्षा हुई है. चंबल संभाग के भिंड, मुरैना, श्योपुर जि़लों में चंबल, सिंध, क्वारी, बेसली, सीप, सोन, कूनों एवं इनकी सहायक नदियों द्वारा अत्यंत उपजाऊ भूमि को बीहड़ों में परिवर्तित कर दिया गया है. संभाग के 16.14 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में से लगभग 3.10 लाख हेक्टेयर भूमि बीहड़ों में रुपांतरित हो चुकी है जो कि संभाग के संपूर्ण क्षेत्र का लगभग 20 प्रतिशत है, जिसकी क़ीमत खरबों रुपये हैं. यह भी अनुमानित है कि लगभग 800 हेक्टेयर उपजाऊ भूमि प्रति वर्ष बीहड़ में बदलती जा रही है. यदि बीहड़ भूमि को बीहड़ बनने से नहीं रोका गया तो अगली शताब्दी तक भिंड, मुरैना, श्योपुर जि़ले पूरी तरह से बीहड़ में परिवर्तित हो जाएंगे एवं इस बीहड़ की सीमा ग्वालियर एवं दतिया जि़लों को छूने लगेगी.
चंबल संभाग की अधिकांश भूमि एल्यूवियल होकर भी हल्के किस्म की है. इस भूमि में रेत,सिल्क, मिट्टी, कंकड़ मिला हुआ है. बरसात होने पर पानी पूरी तरह से भूमि के अंदर नहीं जाता, अपितु ढाल पर ही बहने लगता है. पहले छोटी नाली बनती है, धीरे-धीरे बड़ी नाली में, फिर गहरे नालों में और अंत में बीहड़ों का रूप लेती चली जाती है. भिंड, मुरैना, श्योपुर जि़लों में अलग-अलग गहराई के बीहड़ हैं. 0 से 1.5 मीटर गहराई के 0.738 लाख हेक्टेयर, 1.5 से 5 मीटर के 1.265 लाख हेक्टेयर, 5 मीटर से 10 मीटर की गहराई के 0.615 लाख है एवं 10 मीटर से अधिक गहराई के 0.489 लाख हेक्टेयर बीहड़ भूमि अनुमानित है. पूर्व ग्वालियर स्टेट के बंदोबस्त के अनुसार मुरैना तहसील का बीहड़ का क्षेत्रफल तहसील के कुल क्षेत्रफल का 21 प्रतिशत था, जबकि वर्ष 1989 में यह बीहड़ क्षेत्र लगभग दो गुना होकर 42 प्रतिशत हो गया था. इसी प्रकार भिंड तहसील के कुल क्षेत्रफल का 49 प्रतिशत बीहड़ क्षेत्रफल है जो कि अब बीहड़ बनने की तीव्र रफ्तार एवं बीहड़ रोकने के गंभीर उपाय न होने से अब यह बीहड़ क्षेत्रफल लगभग तिगुना हो गया होगा.
50 गांवों का अस्तित्व ख़तरे में
चंबल, कछार में अब तक भूमि के कटाव से जो नुकसान हो चुका, उसे अनदेखा किया जाता रहा है, लेकिन आगे होने वाले नुकसान को रोकने के लिए भी कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं, यह चिंता का विषय है. जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के भूगर्भ शास्त्र विभाग द्वारा किए गए शोधकार्य से पता चला है कि चंबल घाटी में जिन 213 गांवों का अध्ययन किया गया, उनमें से 14 गांव तो उजडऩे की कगार पर हैं, क्योंकि बीहड़ इन गांवों से केवल 100 मीटर दूर रह गए हैं और ये बीहड़ कभी भी फैलकर इन गांवों को लील सकते हैं. इनके अलावा 23 गांवों में बीहड़ अभी 200 मीटर दूर हैं और 13 गांवों में 500 मीटर दूर बने बीहड़ इन गांवों को लीलने के लिए तेजी से आगे बढ़ रहे हैं. सेटेलाईट चित्रों से इन गांवों की तस्वीर आई है.
भूगर्भ अध्ययन शाला, जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर के विभाग प्रमुख प्रोफेसर एसएन महापात्रा का कहना है कि शोधकार्य से यह पता चला है कि चंबलघाटी में हो रहे मिट्टी के अपरदन की वज़ह से लगभग 50 गांवों पर बीहड़ में तब्दील होने का ख़तरा मंडरा रहा है. अब इस बात को लेकर शोध किया जा रहा है कि मिट्टी के कटाव को कैसे रोका जा सके.
बीहड़ के नज़दीकी गांव खुशहाली और समृद्धि से कोसो दूर हैं. मिट्टी के लगातार कटाव से किसानों की स्थिति दयनीय हो गई है. कृषि योग्य भूमि लगातार बीहड़ों में बदलती जा रही है, ऐसे में इन गांवों के किसानों का जीवन काफ़ी कठिन और समस्याग्रस्त हो गया है. इस समस्या से चिंतित शोधकर्ता अब इस अध्ययन में जुटे हैं कि ऐसा कौन सा उपाय किया जाए कि घाटी का कटाव रुक जाए और हज़ारों घर बर्बाद होने से बच जाए. हालांकि शोधकर्ताओं को भरोसा है कि वे जल्दी ही किसी ऐसे निष्कर्ष पर पहुंच जाएंगे, जिससे इन गांवों को बीहड़ बनकर उजडऩे से रोक लिया जाएगा. मृदा में नाइट्रोजन, फास्फोरस, आर्गेनिक कार्बन, पोटेशियम, पीएच जिसमें हाईड्रोजन आयंस होते हैं. मृदा की अम्लीय एवं क्षारीय स्थिति को स्पष्ट करते हैं. बारिश होने पर मृदा में मौजूद ये पोषक तत्व बह जाते हैं.
पर्यावरण संकट की दृष्टि से इटावा जिला निरंतर संवेदनशील होता जा रहा है। यहां की चंबल, यमुना और क्वारी नदी के बीच के गांव बंजर बीहड़ का रूप लेते जा रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक लगभग पांच सौ हैक्टेयर भूमि प्रतिवर्ष बीहड़ों में तब्दील हो रही है। लकड़ी का भारी कटान अगर इसी तरह होता रहा तो यहां का पूरा क्षेत्र रेगिस्तान हो जायेगा। लकड़ी कटान का धंधा बेखौफ जारी है।
जिन माननीयों के हाथों पौधे रोपे जाते हैं वह उस दिन के बाद कभी उसे मुड़कर भी नहीं देखते सबसे दु:खद बात तो यह है कि जो संस्थायें पौधरोपण कराती हैं वह भी उस दिन के बाद एक दिन भी पानी डालने कभी नहीं जाती। कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाये तो पौधों के जीवन रक्षा की किसी को चिंता नहीं है। यही कारण है कि प्रतिवर्ष करोड़ों पौधे रोपे जाते हैं और हजारों भी पेड़ नहीं बन पा रहे। राज्य सरकार ने तो गत वर्षो में 31 जुलाई को प्रदेश भर के स्कूलों को लक्ष्य देकर पौधे रोपने का काम कराया था लेकिन यह अभियान भी समारोह बनकर रह गया। स्कूलों में हरियाली कितनी बढ़ी यह किसी से छिपा नहीं है।
चंबल यमुना क्षेत्र में बढ़ते बीहड़ से चिंतित होकर दो दशक पूर्व मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने हैलीकाप्टर से विलायती बबूल के बीज जमीन पर गिरवाये थे लेकिन यह प्रयोग भी बहुत सफल नहीं हो सका। इस क्षेत्र की जमीन पर बेशरम ने पैर जमाये जिसने जमीन की उत्पादन क्षमता को निरंतर कमजोर ही किया। अब जब सड़कों का जाल बिछ रहा है ईट भट्टे बढ़ रहे हैं तब उपजाऊ भूमि पर संकट स्वाभाविक ही है।
चंबल क्षेत्र में बीहड़ों का विस्तार गांव के गांव लीलता जा रहा है. इस अंचल के भिंड, मुरैना और श्योपुर जिलों में हर साल पन्द्रह सौ एकड़ भूमि बीहड़ में बदल रही है. इन जिलों की कुल भूमि का 25 फीसद हिस्सा बीहड़ों का है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक चंबल नदी घाटी क्षेत्र में 3000 वर्ग किलोमीटर इलाके में बीहड़ों का विस्तार है. इन जिलों की छोटी-बड़ी नदियां जैसे बीहड़ों के निर्माण के लिए अभिशप्त हैं.

चंबल में 80 हजार, कुआंरी में 75, आसन में 2036, सीप में 1100, बैसाली में 1000, कूनों में 8072, पार्वती में 700, सांक में 2122 और सिंध में 2032 हेक्टेयर बीहड़ हैं. बीते आठ सालों में करीब 45 प्रतिशत बीहड़ों में वृद्धि दर्ज की गई है. इन बीहड़ों का जिस गति से विस्तार हो रहा है, उसके मुताबिक 2050 तक 55 हजार हेक्टेयर कृषि भूमि बीहड़ों में तब्दील हो जाएगी. इन बीहड़ों का विस्तार एक बड़ी आबादी के लिए विस्थापन का संकट पैदा करेगा.

जमीन की सेहत अब प्राकृतिक कारणों की तुलना में मानव उत्सर्जित कारणों से ज्यादा बिगड़ रही है. पहले भूमि का उपयोग रहवास और कृषि कार्यों के लिए होता था, लेकिन अब औद्योगीकरण, शहरीकरण बड़े बांध और बढ़ती आबादी के दबाव भी भूमि को संकट में डाल रहे हैं. जमीन का खनन कर उसे छलनी किया जा रहा है, तो जंगलों का विनाश कर बंजर बनाए जाने का सिलसिला जारी है. जमीन की सतह पर ज्यादा फसल उपजाने का दबाव है तो भू-गर्भ से जल, तेल व गैसों के अंधाधुंध दोहन के हालात भी भूमि पर नकारात्मक प्रभाव डाल रहे हैं. पंजाब और हरियाणा में सिंचाईं के आधुनिक संसाधन हरित क्रांति के उपाय साबित हुए थे, लेकिन ज्यादा मात्रा में पानी छोड़े जाने के कारण कृषि भूमि को क्षारीय भूमि में बदलने के कारक सिद्ध हो रहे हैं.

कोयला से काला




कोयला जितना काला है उससे अधिक इस धंधे में लगे लोग काले हैं। ब्लैक डायमंड के नाम से प्रख्यात कोयले के काले कारोबार ने रातों ही रात में कईयों को फर्श से उठाकर अर्श पर ला खड़ा किया है। कोयले के कारोबार में मापदंडों का जिस प्रकार उल्लंघन हो रहा है उससे पर्यावरण भी दूषित हो रहा है। सिंगरौली में 22 सितंबर को ग्रीनपीस द्वारा सार्वजनिक सभा में एक रिपोर्टे जारी की गई। रिपोर्टर को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट देश की विधुत राजधानी में छाए प्रदुषण एवं विनाश को बेनकाब करती है।
चारों तरफ कोयला की धूल के बीच पुरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है।उन्होंने अपनी जमीन विधुत उत्पादन के लिए दी जो उन तक नहीं पहुँचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं तथा स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगो की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजऱअंदाज़ नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।
यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हाशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दुसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का सम्पूर्ण पारिस्थिकी तन्त्र खतरे में है। फिर भी महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। कोयला से काला' नामक एक रिपोर्ट आज बैधन की एक सार्वजनिक सभा में जारी की गई। इस सभा में कोयला खनन एवं थर्मल पावर प्लांटों से प्रभावित गांवों के लोग और वैसे लोग जिनके गांवों में खनन या औद्योगिक परियोजनाएँ प्रस्तावित हैं, उपस्थित थे।
यह रिपोर्ट ग्रीनपीस द्वारा जुलाई 2011 में गठित एक तथ्य आंकलन दल (फैक्ट फाइंडिंग मिशन)(1) का नतीजा है। इसमें पर्यावरण एवं इस क्षेत्र के लोगों पर अनियंत्रित कोयला खनन तथा ताप बिजली संयंत्र (थर्मल पावर प्लांटों) के प्रभाव को दर्ज किया गया है। इस तथ्य आंकलन दल को देश की विद्युत राजधानी के तौर पर प्रोत्साहित, सिंगरौली, में कोयला खनन के कारण हो रहे मानवीय उत्पीडऩ एवं पर्यावरण के विनाश की सच्चाई को सामने लाने के लिए गठित किया गया था।
रिपोर्ट को जारी करते हुए ग्रीनपीस की प्रिया पिल्लई ने कहा, ''सिंगरौली पर पर्यावरण एवं मानवाधिकार के हनन के निशान दिखाई देते हैं। हमारी रिपोर्ट, देश की विद्युत राजधानी माने जाने वाले सिंगरौली, में छाए प्रदूषण एवं विनाश को बेनकाब करती है। चारों तरफ कोयले की धूल के बीच पूरा जन-समुदाय कोयला खदानों के भारी बोझ के साये में जी रहा है। उन्होंने अपनी जमीनें विद्युत उत्पादन के लिए दीं जो उन तक नहीं पहुंचती है और अब उनके पास जीविकोपार्जन के लिए कोई भरोसेमंद साधन नहीं है तथा उनका स्वास्थ्य चौपट हो गया है। इसे विकास नहीं कहा जा सकता। धरती और लोगों की इतने व्यापक पैमाने पर हो रही बरबादी को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते जिसे उनके अधिकारों की रक्षा किए बिना और हमारे द्वारा किए जा रहे पर्यावरण के अतिक्रमण की सीमा तय किए बिना उन पर थोपा जा रहा है।''
इस तथ्य आंकलन दल के निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं, खासकर मंत्रियों के समूह (जीओएम) द्वारा कोयला खनन के लिए वन प्रखंडों के आवंटन की स्वीकृति के संदर्भ में। केवल सिंगरौली में ही, माहन, छत्रसाल, अमेलिया एवं डोंगरी टाल-2 के वन प्रखंडों को पहले 'वर्जितÓ (नो-गो) की श्रेणी में रखा गया था। लेकिन अब इस विषय में मंत्रियों के समूह की ओर से स्वीकृति की प्रतीक्षा की जा रही है। हाल ही में कुछ खबरों के अनुसार मंत्रियों के समूह द्वारा 'वर्जितÓ व 'गैर वर्जितÓ (गो) क्षेत्र का सीमांकन रद्द किया जा सकता है। जब तक अक्षत वनों का सीमांकन नहीं किया जाता, इन वनों और लोगों की जमीन पर अधिग्रहण का खतरा बढ़ता रहेगा।
आधिकारिक तौर पर, 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लागू होने के बाद से सिंगरौली क्षेत्र में 5,872.18 हेक्टेयर वन का गैर-वन्य उपयोग के लिए विपथन किया जा चुका है। सिंगरौली के वन प्रमंडल अधिकारी के अनुसार और भी 3,299 हेक्टेयर वन विपथन के लिए प्रस्तावित है। इसमें वर्तमान एवं प्रस्तावित औद्योगिक गतिविधियों के कारण वन-भूमि के अतिक्रमण के विभिन्न उदाहरण शामिल नहीं हैं।
फिलहाल, प्रधानमंत्री कार्यालय की ओर से माहन के वनों को एस्सार एवं हिंडाल्को के खनन स्वामित्व में हस्तांतरित करने के लिए बेहद दबाव दिया जा रहा है। पूर्व पर्यावरण एवं वन मंत्री, जयराम रमेश ने संकेत दिए थे कि इन वनों में खनन नही किया जाना चाहिए। माहन में उपलब्ध कुल 144 मिलियन टन का कोयला भंडार हिंडाल्को इंडस्ट्रीज लिमिटेड एवं एस्सार पावर लिमिटेड के ताप बिजली संयंत्र के लिए केवल 14 वर्षों तक कोयले की आपूर्ति के लायक हैं।
ग्रीनपीस इंडिया की नीति अधिकारी प्रिया पिल्लई ने आगे कहा, ''यह हजारों हेक्टेयर सघन वनों का सवाल है, हशिए पर पड़े हजारों आदिवासी एवं दूसरे समुदाय तथा इस क्षेत्र का संपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में हैं। फिर भी, महज कुछ टन निम्नस्तरीय कोयले के लिए सरकार यहां की समृद्ध जैव विविधता का विनाश करने पर तुली हुई है। वन भूमि के और अधिक विपथन के पहले सरकार को दूसरे क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन करना चाहिए। कंपनियों को भी चाहिए कि वे प्रभावित समुदायों की आजीविका पर ध्यान दें, मानवाधिकारों पर हो रहे असर का आंकलन करें, भूमिहीनों एवं वन-आश्रित समुदायों की क्षतिपूर्ति तथा पुनर्वास की व्यवस्था करें।''
तथ्य आंकलन दल ने 9 एवं 10 जुलाई 2011 को सिंगरौली के उत्तर प्रदेश वाले इलाके में चिलिका दाड, दिबुलगंज (अनपरा थर्मल पावर प्लांट के निकट), बिलवाड़ा और सिंगरौली क्षेत्र के मोहर वन प्रखंड, अमलोरी एवं निगाही खदानों का दौरा किया। इस दल ने जनपद प्रशासन एवं कोल इंडिया लिमिटेड के प्रतिनिधियों से भी मुलाकात की।
रिपोर्ट में शामिल सूचनाओं के अनुसार देश में चुनिंदा 88 अति प्रदूषित औद्योगिक खण्ड के विस्तृत पर्यावरण प्रदूषण सूचकांक पर सिंगरौली नौवें स्थान पर है। इसके 81.73 अंक यह साफ-साफ संकेत करते है कि यह क्षेत्र खतरनाक स्तर पर प्रदूषित है। दरअसल, केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड, राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान (एनआईएच) और भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स लिमिटेड (भेल) के प्रदूषण नियंत्रण अनुसंधान संस्थान (पीसीआरआई) की रिपोर्ट साफ-साफ संकेत करती है कि कोयला खनन के कारण सिंगरौली क्षेत्र में भू-जल का प्रदूषण हुआ है।
इसके अतिरिक्त, ' इलेक्ट्रिसिटे द फ्रांसÓ की एक अप्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार उत्पादन के लिए निम्नस्तरीय कोयले के उपयोग के कारण सिंगरौली के थर्मल पावर प्लांटों से हर साल लगभग 720 किलोग्राम पारा (मर्करी) निकलता है। अनेक गांवों में और यहां तक कि नॉदर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के उच्च अधिकारियों के द्वारा भी, तथ्य आंकलन दल को बताया गया कि चूंकि उनका दौरा बरसात के मौसम में हुआ है इसलिए वायु का गुणवत्ता स्तर काफी बेहतर था। सामान्यत:, और खासकर गर्मी के महीनों में वायु की गुणवत्ता का स्तर काफी खराब होता है। राख के तालाबों और खदानों के आस-पास रहने वाले ग्रामवासियों ने कहा कि उन महीनों में उनका जीवन नर्क हो जाता है। इसके फलस्वरूप, सिंगरौली गांव के लोगों को अनेक तरह की स्वास्थ्य समस्याएँ रहती हैं जिनमें सांस की तकलीफ, टीबी, चर्मरोग, पोलियो, जोड़ों में दर्द और अचनाक कमजोरी तथा रोजमर्रा की सामान्य गतिवधियों को करने में कठिनाई जैसी अनेक समस्याएं हैं।
इस रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया गया है कि किस तरह विभिन्न खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों ने ग्रामीण जीवन को नुकसान पहुंचाया है लेकिन इन गतिविधियों के संचालकों से किसी ने भी स्वास्थ्य सेवा एवं बुनियादी सुविधाओं को मुहैया कर लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहे कुप्रभाव को कम करने की जिम्मेदारी नहीं ली है। उदाहरण के लिए, सोनभद्र जनपद (उत्तर प्रदेश में) के शक्तिनगर में चिलिका दाड गांव को लें जो नैशनल कोलफील्ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के मिट्टी के ढेर, कोयला ढोने वाली रेलवे लाइन और राष्ट्रीय ताप विद्युत निगम के पावर प्लांट से घिरा है और यहां जल को प्रदूषित करने, वायु को प्रदूषित करने एवं स्वीकृत मानदंड से अधिक शोर पैदा करने में इनमें से हरेक की भूमिका है।
केवल अकेले चिलिका दाड में ही 600 ऐसे परिवार हैं जिन्हें इन विभिन्न परियोजनाओं के कारण अनेक बार विस्थापित होना पड़ा है। इन निवासियों को आवासीय पट्टे दिए गए केवल उस पर रहने के अधिकार के साथ। वे न तो इस जमीन को बेच सकते हैं और न ही इसके एवज में कोई कर्ज ले सकते हैं। अब इस गांव से महज 50 मीटर की दूरी पर भारी संख्या में खदानों, बेरोजगारी, उच्चस्तरीय प्रदूषण एवं खनन विस्फोट का खतरा झेल रहे ग्रामीणों के सामने बदहाली को झेलने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचा है।
तथ्य आंकलन दल इस बात की सिफारिश करता है कि जब तक अन्य क्षेत्रों में कोयले की उपलब्धता एवं वैकल्पिक ऊर्जा समाधानों का आंकलन न हो जाए तब तक के लिए सिंगरौली के वन क्षेत्र में सभी खनन गतिविधियों पर रोक लगाई जाए। दल यह भी सिफारिश करता है कि सभी खनन एवं औद्योगिक गतिविधियों का व्यापक मानवाधिकार आंकलन किया जाए और लोगों की शिकायतें दूर करने के लिए जमीनी स्तर पर कारवाई की जाए। इस दल ने महसूस किया है कि दशकों से सिंगरौली में प्रभावित जन समुदायों की आजीविका का सवाल बुनियादी तौर पर अनुत्तरित ही रहा है। इस मोर्चे पर तथ्य आंकलन दल ने सुझाव दिया है कि लोग अपनी पूर्ववर्ती आजीविका को जारी रख सकें, इस पर प्रशासन को ध्यान देना चाहिए। इसके लिए भूमि-आधारित क्षतिपूर्ति व्यवस्था लागू की जाए जिसके माध्यम से अधिग्रहीत की गई कृषि भूमि के बदले में किसी दूसरी जगह कृषि भूमि प्रदान की जाए।

Thursday, October 20, 2011

फिर विवादों के पायलट बाबा





पाकिस्तान के खिलाफ १९६५ और १९७१ के युद्ध के दौरान हवा में अपना रणकौशल दिखाने वाले पायलट कपिल अद्धैत अब अध्यात्म के महागुरु पायलट बाबा के नाम से मशहूर हैं। उन पर आरोप है कि वे धर्म के रथ पर सवार होकर उत्तराखण्ड में जमीन-संपत्ति कब्जाने का कला-कौशल दिखा रहे हैं। ऊची रसूख और सत्ताधारी दलों में पहुंच के कारण प्रशासन उन पर हाथ डालते हुए कांपता है। जिससे इन्हें बल मिल रहा है और वे अपनी मनमानी कर रहे हैं।
उत्तराखण्ड की राजनीति में साधु संतों का खासा हस्तक्षेप रहता है। यहां तक की कि कई संत तो स्वयं राजनेता भी हैं तो कई अन्यों के शिष्य बड़े राजनीतिक पदों पर बैठे हैं। यही कारण है कि इनमें से कई संतों की गतिविधियां संदिग्ध होने के बावजूद उन पर कार्रवाई करने का साहस प्रशासन नहीं कर पाता है। विंग कमांडर कपिल अद्वैत उर्फ पायलट बाबा ऐसे ही एक संत हैं जिन पर नाना प्रकार के गंभीर आरोप होने के बावजूद आज तक ठोस कार्रवाई नहीं हो सकी है। २००७ में काले धन को सफेद करने की गारंटी लेने वाले पायलट बाबा की भाजपा के वरिष्ठ नेताओं से नजदीकी का ही परिणाम है कि उत्तरकाशी में सरकारी जमीन कब्जाने के बावजूद बाबा पर हाथ डालने से स्थानीय प्रशासन हिचक रहा है।
बाबा के नैनीताल, हरिद्वार, उत्तरकाशी के आश्रम अपनी जमीन पर कम, सरकारी जमीन पर ज्यादा बने हुए हैं। पर्यावरण के लिहाज से अति संवेदनशील गंगोत्री में बाबा ने गंगा तट का अतिक्रमण कर अपना आश्रम बना रखा है तो उत्तरकाशी जिला मुख्यालय से महज २५ किमी दूर कुमाल्टा गांव में कई नाली सरकारी भूमि पर कब्जा किया हुआ है। कुमाल्टा गांव से अंतरराष्ट्रीय सीमा कुछ ही दूरी पर है। अति संवेदनशील क्षेत्र होने के बावजूद बाबा ने यहां के आश्रम में निजी हैलीपैड भी बना डाला है। इस हैलीपैड पर प्राय: हेलिकॉप्टर उतरते देखे जाते हैं लेकिन स्थानीय अधिकारी ऐसी किसी भी जानकारी से इंकार करते हैं।
कुमाल्टा गांव ऋषिकेश-गंगोत्री राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित है। इस राष्ट्रीय राजमार्ग से ५० मीटर नीचे गंगा बहती है। पायलट बाबा राष्ट्रीय राजमार्ग से लेकर गंगा तट तक अपने आश्रम को फैला चुके हैं। हालांकि यहां उन्होंने कुछ नाली जमीन खरीदी थी। वर्ष २००६ से उस पर आश्रम बनाने का कार्य शुरू किया गया। आज पांच साल के भीतर पायलट बाबा का यह आश्रम अपनी निजी भूमि के अलावा १६ नाली सरकारी जमीन पर फैल चुका है। आश्रम का विस्तार आज भी बदस्तूर जारी है। धीरे-धीरे यह आश्रम और कितनी सरकारी जमीन पर फैलेगा इसका अंदाजा किसी को नहीं है। गौरतलब है कि गंगातट से दो सौ मीटर दूरी तक किसी भी प्रकार के निर्माण पर सुप्रीम कोर्ट की रोक है। परंतु यह रोक पायलट बाबा के लिए नहीं है। वर्ष २००६ से शुरू हुए पायलट बाबा के कुमाल्टा गांव स्थित आश्रम का निर्माण रोका जा सकता था लेकिन ऐसा नहीं किया गया। गंगा की कलकल धारा इस आश्रम के कंस्ट्रक्शन को छूकर आगे निकलती है। यही स्थिति गंगोत्री स्थित आश्रम की भी है। यहां भी बाबा ने गंगा तट पर अवैध कब्जा किया है और प्रशासन इस अवैध कब्जे को हटाने में असमर्थ नजर आ रहा है।
सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष २००९ में एक मामले की सुनवाई करते हुए प्रदेश सरकार को निर्देश दिए थे कि सरकारी जमीन पर बने धार्मिक स्थलों की लिस्ट बनाए। शुरू में उत्तरकाशी में सरकारी जमीन पर बने ९ धार्मिक स्थलों को चिह्नित किया गया। इसकी सूची बनाई गई लेकिन इस सूची में पायलट बाबा के आश्रम का नाम नहीं दिया गया। पायलट बाबा के आश्रम को छोडऩे का राजस्व विभाग ने तब यह कारण बताया था कि पायलट बाबा का यह आश्रम १० साल से भी पुराना है। उसी राजस्व विभाग के रिकॉर्ड में यह भी दर्ज है कि कुमाल्टा गांव में पायलट बाबा ने वर्ष २००५ में आश्रम के लिए जमीन खरीदी और वहां निर्माण कार्य वर्ष २००६ से शुरू किया गया। आखिर राजस्व विभाग ने इतना बड़ा झूठ किसके इशारे पर बोला? राजस्व विभाग किसी के दबाव में तो नहीं था। ये जांच का विषय है और जनहित में इसकी जांच होना जरूरी भी है। फिर भी आज तक इसकी जांच नहीं हुई है। कुमाल्टा गांव की जिस जमीन पर कब्जा है, उस पर कभी आस- पास के गांवों के किसानों के लिए सिंचाई नहर बनी हुई थी, जिसे ढ़क कर बाबा का आश्रम बना दिया गया है। किसान उस नहर से अपने खेतों की सिंचाई करते थे और बारह महीने उनके खेतों में फसल लहलहाती रहती थी। वहीं आज उन किसानों के खेत पानी की कमी से बंजर होने लगे हैं और सिर्फ बरसात में ही खेती हो पाती है।
सैंण के किसान धरम सिंह भण्डारी कहते हैं, अब किसी बाबा पर हम विश्वास नहीं करते। पायलट बाबा के आश्रम ने हमारी जीवन रेखा (सिंचाई नहर) को ही पाट दिया है। कुमाल्टा, सैंण और आस-पास के गांवों में रहने वाले, जो किसान पहले खुशहाल थे वे अब भुखमरी की कगार पर हैं। हम लोगों ने कई बार इसका विरोध भी किया पर प्रशासन मौन रही। हम इन्हें यहां से हटाना चाहते हैं। ताकि हम किसानों की जिंदगी बचा सकें।ज् बाबा ने नहर को ढ़क कर किसानों के खेतों की सिंचाई तो रोक ही दी है, अपने आश्रम की जलपूर्ति के लिए गैर कानूनी ढंग से पाइप लाइन गंगा नदी से जोड़ रखी है।
बाबा के आश्रम में सरकारी जमीन पर अवैध कब्जे, विदेशी बालाओं की आवाजाही,संवेदनशील क्षेत्र होने के बावजूद हैलीपैड का निर्माण, गंगा के प्रवाह से छेड़-छाड़ जैसे मामलों को दो साल पूर्व स्थानीय नागरिक विनोद नौटियाल ने उजागर किया था। विनोद नौटियाल उत्तराखण्ड स्वाभिमान मंच के अध्यक्ष हैं। नौटियाल ने बाबा द्वारा किए जा रहे अतिक्रमण आदि की बाबत जिलाधिकारी को अवगत कराया था। उन्होंने अपने लिखित पत्र में बाबा की गैर कानूनी गतिविधियों की जांच की मांग की। बकौल नौटियाल पायलट बाबा ने कुमाल्टा गांव में आश्रम निर्माण के बहाने सरकारी जमीन पर कब्जा कर लिया है। यह कब्जा राष्ट्रीय राजमार्ग क्षेत्र से लेकर गंगा के प्रवाह तक है। वहीं कुमाल्टा गांव सहित आस-पास के गांवों के खेतों को सिंचित करने वाली नहर को पाटकर वहां देवी- देवताओं की बड़ी-बड़ी मूर्तियां भी खड़ी कर दी हैं।
अंतरराष्ट्रीय सीमा से सटे इस संवेदनशील क्षेत्र में बिना सरकारी अनुमति के हैलीपैड का निर्माण किया गया है। गंगा नदी से आश्रम तक गैर कानूनी ढंग से पाइप लाइन डाल कर वे गंगा वाटर का उपयोग कर रहे हैं, जिसकी अनुमति किसी विभाग से नहीं ली गई है। ऐसे भी कोई भी व्यक्ति गंगा नदी से पानी नहीं निकाल सकता इसलिए इन सभी बातों की जांच होनी चाहिए। उत्तरकाशी के तत्कालीन जिलाधिकारी ने नायब तहसीलदार भटवाड़ी को जांच की जिम्मेदारी दी। नायब तहसीलदार भटवाड़ी ने इन सभी आरोपों की जांच की और अपनी रिपोर्ट जिलाधिकारी को सौंप दिया। लेकिन जांच से आगे की कोई कार्यवाही इस पर नहीं हुई। बाबा के ये सभी गैरकानूनी कार्य वर्ष २००९ से प्रशासन के संज्ञान में आने के बाद भी जारी हैं।
बाबा के विभिन्न आश्रमों (गंगोत्री, कुमाल्टा, अल्मोड़ा, नैनीताल, हरिद्वार आदि) में विदेशी पर्यटक आते रहते हैं। ऐसे भी पायलट बाबा विदेशी शिष्यों के अध्यात्मिक गुरु के रूप में चर्चित हैं। इनके अनुयायियों में ज्यादातर विदेशी हैं इसलिए विदेशी नागरिकों का इनके आश्रम में जमावड़ा लगा रहता है। हालांकि इसमें कुछ गलत नहीं है लेकिन
फॉरनर्स रजिस्ट्रेशन एक्ट के मुताबिक विदेशी नागरिक की जानकारी फार्म सी के जरिए २४ द्घंटे के भीतर स्थानीय पुलिस को देना अनिवार्य है। पर पायलट बाबा के सहयोगियों ने इसकी जानकारी देना और कानून का पालन करना कभी जरूरी नहीं समझा। उत्तरकाशी के सीमांत जनपद होने के कारण यहां प्रशासन को विदेशियों के मामले में चौकस रहने का फरमान जारी है। फिर भी पायलट बाबा के आश्रम में आने जाने वाले विदेशियों का लेखा-जोखा प्रशासन के पास नहीं है। क्षेत्र के वरिष्ठ आंदोलनकारी एवं बुद्धिजीवी चंदन सिंह राणा कहते हैं कि यह देश की रक्षा पर सवाल है। हमारा देश आतंकी निशाने पर है। इस प्रकार की गलतियों का फायदा आतंकी संगठन उठा सकते हैं। हालांकि यह क्षेत्र शांत है लेकिन चारधाम की यात्रा के समय इन क्षेत्रों में देश-विदेश के तीर्थयात्री और पर्यटक आते रहते हैं इसीलिए सुरक्षा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।
विगत १५ अगस्त को उत्तरकाशी के कुछ स्थानीय पत्रकार पायलट बाबा के कुमाल्टा गांव आश्रम गऐ थे। उनका मूल उद्देश्य आश्रम की गतिविधियों को परखना और बाद में उसे प्रकाशित-प्रसारित करना था लेकिन कुछ ही समय में आश्रम में मौजूद बाबा के शिष्यों से किसी बात पर उनकी बहस हो गई। बात आगे बढ़ी और आश्रम के बाबाओं ने उन पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार किया। उन्हें धक्के मारकर आश्रम से बाहर निकाल दिया। पत्रकारों ने इसका जमकर विरोध किया और वे अब तक धरने पर बैठे हुए हैं। विगत १३ सितंबर को एसडीएम भटवाड़ी चंद्र सिंह धर्मशक्तू की निचली अदालत ने आश्रम प्रबंधन को आदेश दिया कि वह एक महीने के भीतर सरकारी जमीन से अवैध कब्जा हटा ले। इसी बीच पत्रकारों के विरोध प्रदर्शन को देखते हुए प्रशासन और आश्रम प्रबंधन के बीच २६ अगस्त को एक मीटिंग भी हुई, जिसमें कुमाल्टा आश्रम के प्रबंधक ने प्रशासन को लिखित आश्वासन दिया कि वह एक महीने के भीतर अवैध कंस्ट्रक्शन रोक देंगे और यदि आश्रम ने एक महीने में अवैध कंस्ट्रक्शन नहीं रोका तो प्रशासन उक्त कंस्ट्रक्शन को हटाने के लिए स्वतंत्र है। इस लिखित आश्वासन के बाद आश्रम में कंस्ट्रक्शन रोकने की प्रक्रिया शुरु हो गई थी लेकिन एक-दो दिन बाद ही उसे रोक दिया गया। आश्रम प्रशासन अवैध कब्जा हटाने के बजाय अब अदालत से स्टे-ऑर्डर लेने की जुगत में लगा है। ३ अक्टूबर को उत्तरकाशी की जिला अदालत में इस मामले की सुनवाई हुई, जिसमें अदालत ने आश्रम को स्टे-ऑर्डर देने से मना कर दिया है। बताया जाता है कि प्रशासन किसी प्रकार की कार्रवाई करने से हिचक रहा है। यहां के स्थानीय लोग लगभग दो महीने से भी अधिक समय से धरने पर बैठे हैं। रोजाना उनकी स्थानीय अधिकारियों से इस मामले में बात भी होती है लेकिन कार्रवाई के नाम पर कुछ भी नहीं हो पा रहा है।
उत्तरकाशी के वरिष्ठ पत्रकार सूरत सिंह रावत कहते हैं गंगोत्री से लेकर उत्तरकाशी तक कई बाबाओं ने अपने आश्रम जमीनों पर अवैध कब्जा कर बनाए हैं और पायलट बाबा इन सबमें आगे हैं। इन्होंने सरकारी जमीन पर कब्जा किया सो किया गरीब किसानों के खेतों को सिंचित करने वाली नहर पर भी कब्जा कर लिया है। बेशक यहां आने वाले श्रद्धालुओं को इसमें देवता का निवास दिखे लेकिन इस कार्यप्रणाली ने स्थानीय किसानों के मुंह से निवाला छीन लिया है।
इस बीच एक और द्घटना पायलट बाबा के आश्रम की गैर कानूनी गतिविधियों को सही साबित करती है। जिसके गवाह दो अप्रवासी भारतीय बने हैं। विगत ७ सितंबर को अमेरिका में रहने वाले भारतीय मूल के नागरिक शरन दीप और न्यूजीलैंड में रहने वाले मनिंदर जीत सिंह गंगोत्री से वापस उत्तरकाशी आ रहे थे। शरनदीप पायलट हैं।
इन्होंने जब कुमाल्टा गांव के पास आश्रम के मुख्यद्वार पर महायोगी पायलट बाबा आश्रम बोर्ड देखा तो वे अपने मित्र मनिंदर जीत सिंह के साथ आश्रम में चले गए। फिर थोड़ी देर तक आश्रम में द्घूमने-फिरने के बाद रात उन्होंने वहीं रुकने का
प्रोग्राम बनाया। इसके लिए उन्होंने आश्रम प्रबंधन से बात भी कर ली। प्रबंधन उन्हें आश्रम में कमरा उपलब्ध कराने के लिए तैयार भी हो गया था लेकिन उसी दौरान उन दोनों की नजर आश्रम में मौजूद विदेशी लड़कियों पर पड़ी। वे उन लड़कियों से बात करने लगे परंतु आश्रम के बाबाओं ने उन्हें लड़कियों से बात करने से रोक दिया। फिर भी वे दोनों नहीं माने तो आश्रम के लोग बदसलूकी पर उतर आए और उन्हें आश्रम से निकाल दिया गया। वे दोनों उत्तरकाशी पहुंचे और आरोप लगाया कि आश्रम में मौजूद लड़कियांनाबालिग थीं, जिनकी गतिविधियां उन्हें संदिग्ध लगीं। हम दोनों ने उनसे बात करनी चाही तो हमें रोक दिया गया। उनके मुताबिक अधिकांश लड़कियां बाबा की सेवा में लगी रहती थीं। हमें यह भी आभास हुआ कि बाबा के कमरे में कोई पुरुष नहीं जाता था। हम दोनों को लड़कियों से बात करने से रोकना उनकी संदिग्ध गतिविधियों की ओर इशारा करता है। इन अप्रवासी भारतीयों की लिखित शिकायत पर ३ सितंबर को पुलिस अधीक्षक उत्तरकाशी डॉ ़ सदानंद दाते ने पुलिस बल के साथ आश्रम पर छापा मारा। जहां नौ विदेशी लड़कियां मिलीं। इनमें ४ रूस और ४ उक्रेन की रहने वाली थीं। डॉ ़ दाते के मुताबिक सभी तीन महीने से आश्रम में रह रही थीं। उन सभी के पास पासपोर्ट और वीजा थे लेकिन जब उनसे पूछा गया कि आश्रम ने या उन लड़कियों ने स्थानीय पुलिस को विदेशी लड़कियों की आश्रम में आने की जानकारी क्यों नहीं दी तो उन्होंने कुछ भी कहने से इंकार कर दिया। पुलिस ने आश्रम के तत्कालीन प्रबंधक अंबरीश के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज की है लेकिन उनकी गिरफ्तारी अभी तक नहीं हो पाई है। शासन -प्रशासन के पास पायलट बाबा के आश्रम के खिलाफ इस तरह के कई मामले दर्ज हैं, जिसमें कुछ को सही भी पाया गया है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि क्या कभी बाबा पर कार्रवाई हो पायेगी और यदि होती भी है तो इसमें भी आश्रम के निचले अधिकारी ही प्रशासन के शिकंजे में फसेंगे और बाबा आजाद पक्षी की तरह उड़ान भरते रहेंगे।

भावी प्रधानमंत्री अपराधियों की मोटर साइकिल पर



विनोद उपाध्याय

राजनीति में अपनी पैठ बनाने के लिए नेता किस हद तक जा सकते हैं इसके नजारे हम रोज देखते और सुनते है। ऐसा ही नजारा पिछले दिनों राजस्थान के गोपालगढ़ में देखने को मिला,जहां देश के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी एक अपराधी की मोटर साइकिल पर सवार होकर 6 किलोमीटर घूमे।
दरअसल गोपालगढ़ में पिछले दिनों हुए एक गोलीकांड में राजनीति की रोटी सेंकने का सिलसिला चल रहा था। कांग्रेस ने इस बहती गंगा में हाथ धोने के लिए राहुल गांधी को बुला लिया। भाजपा ने आरोप लगाया है कि कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी ने जिन दो लोगों की मोटर साइकिल पर बैठकर गोपालगढ़ और आसपास के गांवों का दौरा किया था, उन दोनों के खिलाफ क्षेत्र के थानों में कई मामले दर्ज है। पार्टी ने यह भी आरोप लगाया कि राहुल ने एक समुदाय के लोगों के मिलकर दोनों समुदाय के लोगों के बीच वैमनस्य के बीज बो दिए हैं। भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष अरुण चतुर्वेदी और प्रदेश उपाध्यक्ष डॉ. दिगंबर सिंह ने बताया कि राहुल पहाड़ी तहसील के पथराली गांव पहुंचे, उस समय उनके आगे बिल्ला उर्फ आशू पुत्र इस्माइल मोटर साइकिल चला रहा था। बिल्ला के खिलाफ पहाड़ी थाने में कई मामले दर्ज हैं। राहुल गांधी पथराली में सरफराज उर्फ शरफू पुत्र हिम्मत के घर गए। चतुर्वेदी और डॉ. सिंह ने आरोप लगाया कि शरफू मेवात इलाके में टटलू गैंग का सरगना है और उसके खिलाफ कई मुकदमे दर्ज हैं। एक मामले में उसके खिलाफ स्टेंडिंग वारंट भी जारी है, फिर भी शरफू बेखौफ सरेआम घूम रहा है। पथराली में एक मृतक के घर सांत्वना देने पहुंचे राहुल गांधी के साथ बिल्ला और शरफू दोनों थे।
राहुल बिल्ला की मोटर साइकिल पर और उनका निजी सहायक शरफू की मोटर साइकिल पर बैठकर गोपालगढ़ में गए थे। गोपालगढ़ में मस्जिद देखने के बाद जाते समय राहुल ने बिल्ला से गले लगाया और कोई काम होने पर दिल्ली आने का न्यौता भी दिया। इस यात्रा के बाद इन दोनों ने क्षेत्र में दहशत फैलाना शुरू कर दिया है। उन्होंने आरोप लगाया कि दोनों अपराधी कामां विधायक जाहिदा के कृपापात्र हैं। चतुर्वेदी ने यह भी आरोप लगाया कि राहुल की यात्रा के बाद दोनों समुदाय में वैमनस्य बढ़ा है। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी की यात्रा के बाद ही सीबीआई की टीम जांच के लिए आई है, इससे भी जांच पर शक होता है। उन्होंने चेतावनी दी कि जांच में अगर एकतरफा कार्रवाई की तो भाजपा आंदोलन करेगी। उन्होंने कहा कि राहुल गांधी के इस गुपचुप दौरे ने यह भी साबित कर दिया है कि दिल्ली के नेताओं को राज्य सरकार पर भरोसा नहीं है।
उधर स्थानीय विधायक अनीता सिंह ने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के गोपालगढ़ दौरा को महज दिखावटी व राजनीति से प्रेरित बताया है। विधायक सिंह ने कहा कि मेवात क्षेत्र में राहुल का दौरा न यूपी चुनावों की राजनीति से प्रेरित है। उन्होंने एक पक्ष के लोगों से मिलकर कांग्रेस की पुरानी तुष्टिकरण वाली नीति को उजागर किया है। गोपालगढ़ कस्बे में फायरिंग के बाद राज्य सरकार द्वारा एसपी व कलेक्टर को निलंबन करना सांप्रदायिक ताकतों को बढ़ावा देना है। इससे मेवात क्षेत्र में दोनों पक्षों के बीच तनाव बढ़ेगा। जिससे शांति व्यवस्था कायम होने में समय लगेगा। विधायक अनीता सिंह ने कहा कि राहुल को मेवात क्षेत्र में शांति कायम करने के लिए दोनों पक्षों के लोगों से मिलना था। तभी घटना की सही स्थिति उन्हें मिल पाती।
उल्लेखनीय है कि 14 सितंबर को गोपालगढ़ फायरिंग में मारे गए लोगों और घायलों के परिजनों से मुलाकात करने कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी 9 अक्टूबर की सुबह करीब नौ बजे अचानक गोपालगढ़ पहुंचे थे। उनके साथ केंद्रीय गृह राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह भी थे। कहा तो यह भी जा रहा है कि राहुल के इस दौरे की जानकारी न सरकार को थी न प्रशासन को। राहुल करीब दो घंटे तक मोटरसाइकिल पर बैठकर गोपालगढ़ के अलावा पिथोली, परसोली व मालिगा गांवों में घूमे। उधर प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि 8 अक्टूबर की दोपहर राहुल गांधी की टीम के तीन व्यक्ति गांव पथराली पहुंचे थे। इनकी गाडिय़ों पर नंबर प्लेट नहीं थीं। तीनों लोग गांव के बिल्ला नामक युवक से मिले और गांव व घटना के बारे में जानकारी ली।
बिल्ला के अनुसार तीनों व्यक्तियों में से एक ने अपना नाम चंदर खां बताया और दूसरे ने यादव। तीसरे ने अपने बारे में कोई जानकारी नहीं दी थी। इन तीनों व्यक्तियों ने बिल्ला से गोपालगढ़ फायरिंग में मारे गए लोगों के घर ले जाने की बात कही। तीनों से पीडि़तों के घर देखे। गांव के कुछ अन्य लोगों से भी घटना की जानकारी की। इसके बाद बिल्ला से कहा कि 9 अक्टूबर सुबह उनके साहब आएंगे। मदद करना। बिल्ला ने स्वीकृति दी। 8 अक्टूबर की सुबह सात बजे बिल्ला को चंदर ने फोन किया और कहा कि तिलक पुरी आ जाए। बिल्ला तिलक पुरी से थोड़ी दूर ही था कि गाडिय़ों के काफिले ने उसे रोक लिया। टूरिस्ट गाड़ी से राहुल गांधी को उतरते देख बिल्ला भी हैरान रह गया। राहुल बिना देर किए बिल्ला की मोटरसाइकिल पर बैठ गए और मोबाइल स्विच ऑफ करा दिया। इसके बाद बिल्ला से कहा गया कि 8 अक्टूबर को जहां गए थे, वहीं ले चलें। यह स्थान तिलक पुरी से एक किलोमीटर दूरी पर था। यहां से दो किलोमीटर दूर गांव पथराली, इतनी ही दूरी पर मालीकी तथा एक किलोमीटर दूर पिपरौली गांव पहुंचे। यहां से राहुल कार से गोपालगढ़ गए। इस तरह राहुल ने 6 किलोमीटर का सफर मोटरसाइकिल से तय किया। राहुल के गोपालगढ़ दौरे को लेकर प्रदेश में राजनीतिक चर्चाओं का दौर तेज हो गया है। प्रदेश कांग्रेस और सरकार के रहनुमाओं की नजरें अब राहुल के रुख पर टिकी हैं। उधर भाजपा इस मामले को तूल देने की कोशिश कर रही है। अब देखना यह है कि शह मात के इस खेल में कौन बाजी मारता है।

टीम भूरिया में टसन



विनोद उपाध्याय

मध्य प्रदेश में दो साल पहले की सत्ता का संग्राम शुरू हो गया है। प्रदेश में पहली बार करीब 8 साल तक सत्ता से दूर रहने के कारण कांग्रेस में सत्ता हथियाने की ललक देखी जा रही है। लेकिन प्रदेश में भाजपा की स्थापित सरकार को हटाने का सपना देख रही कांग्रेस आलाकमान ने छह महीने के इंतजार के बाद प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया को जो टीम दी है उसको लेकर बवाल मचा हुआ है। आलम यह है कि जिन नेताओं को भाजपा से लडऩा था वे अपने में ही जूझ रहे हैं।
कागज ही नहीं धरातल पर भी कांग्रेस से कई गुना मजबूत भाजपा से मुकाबला करने कांतिलाल भूरिया को जो टीम मिली है उसमें 11 उपाध्यक्ष, 16 महामंत्री और 48 सचिव बनाए गए हैं। कहा जा रहा है कि मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी में पहली बार कांतिलाल भूरिया ने बरसों पुरानी चली आ रही परिपाटी को बदलने की हिम्मत जुटाकर ज्यादातर युवाओं को अपनी टीम का हिस्सा बनाया है, जिनमें कुछ तो काम के हैं, लेकिन इनमें से अधिकांश नाम कांगे्रसियों के लिए संभवत: एकदम नए हैं। चूंकि भूरिया को काम इन्हीं से चलाना पड़ेगा, लिहाजा उन्हें इन्हीं चेहरों को काम वाला बनाना पड़ेगा। मिशन-2013 के लिए भूरिया को कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह, केंद्रीय मंत्री द्वय कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया, वरिष्ठ नेता सुरेश पचौरी जैसे नेताओं को साथ रखना अनिवार्य होगा। यानी यवाओं के नाम पर भले ही भूरिया को नई टीम सौंप दी गई है लेकिन काम दिग्गजों को ही करना होगा। लेकिन कार्यकारिणी में अपने समर्थकों की उपेक्षा होने के कारण ये नेता भूरिया का साथ देंगे या नहीं यह शोध का विषय है।
कांग्रेस की कार्यकारिणी घोषित होने के बाद अनेक पार्टीजनों में पैदा असंतोष दूर होने का नाम नहीं ले रहा है। केंद्रीय नेताओं को चि_ियां लिखी जा रही हैं और राजधानी भोपाल में पर्चेबाजी हो रही है। कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। अपनी वरिष्ठता के मुताबिक पद नहीं मिलने से नाराज कुछ पदाधिकारी कांग्रेस दफ्तर में फटक तक नहीं रहे। उन्हें दिलासा दिया जा रहा है कि सूची में जल्द संशोधन होगा। हालांकि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया की तरफ से इस तरह के कोई संकेत नहीं दिए जा रहे हैं। भूरिया छह माह पहले अप्रैल में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। उनकी टीम बनते-बनते छह माह का वक्त लग गया। उम्मीद की जा रही थी कि गुटीय न सही मगर क्षेत्रीयता और वरिष्ठता के लिहाज से पदाधिकारियों की सूची संतुलित होगी, मगर ऐसा नहीं हो पाया। पदाधिकारियों, विशेष आमंत्रित सदस्यों और अन्य समितियों में समायोजित किए गए कुछ चेहरे तो ऐसे हैं, जो वर्षो से घर बैठे थे। ऐसा लगता है कि उन्हें झाड़-फूंक के पद दे दिया गया है।
प्रदेश में अन्य कांग्रेसी नेता भूरिया का साथ दे या न दे दिग्विजय सिंह का उन्हें भरपूर सहयोग मिलेगा। इस बात का संकेत इससे भी मिलता है कि नवगठित प्रदेश कांग्रेस कार्यकारिणी में अधिकतर दिग्विजय समर्थकों का ही दबदबा है। एक तरफ जहां पार्टी के तीन प्रमुख पदों पर दिग्विजय समर्थकों का कब्जा है वहीं नवगठित कार्यकारिणी में उनके समर्थकों की भरमार है। वहीं जिला इकाइयां भी दिग्विजय सिंह समर्थकों की मु_ी में हैं। राज्य के अन्य प्रमुख नेता केंद्रीय मंत्री कमलनाथ, ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थकों को अहम जिम्मेदारी दिलाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। असंतोष की आवाज प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया के जिले और नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह के करीबी लोगों से आई है। सचिव बनाए गए रतलाम के राजेंद्र सिंह गेहलोत ने पद लेने से इंकार कर दिया है। भूरिया रतलाम के सांसद हैं। प्रदेश कांग्रेस सेवादल के अध्यक्ष और कांग्रेस कमेटी के सचिव रहे गेहलोत को भूरिया ने महासचिव बनाने का वादा किया था, लेकिन दिल्ली से जो सूची आयी उसमें गेहलोत सचिव बनाए गए। इससे दुखी गेहलोत ने भूरिया को फोन कर सचिव का पद लेने से इंकार कर दिया है। यही हाल सचिव बने महेंद्र सिंह चौहान का है। वे नेता प्रतिपक्ष सिंह के करीबी हैं। उन्हें भी महासचिव या उपाध्यक्ष बनने की आस थी, लेकिन वे भी इस पद को लेने से मान कर रहे हैं। उनके साथ छात्र राजनीति करने वाले कई नेता महासचिव और उपाध्यक्ष बनाए गए जबकि चौहान को सचिव बना कर संतुष्ट करने का प्रयास किया गया।
नए पदाधिकारियों में से कुछ नाम ऐसे हैं, जिनकी पहचान का संकट मीडिया में ही नहीं, पार्टी में भी है। मसलन भोपाल की तनिमा दत्ता को महासचिव बनाया गया है। उन्हें भोपाल जिला कांग्रेस में कोई पहचानता नहीं है। प्रबंध समिति के साथ उन्हें प्रवक्ता भी बनाया गया है। बताया जाता है कि वे युवक कांग्रेस नेता रहे अश्विनी श्रीवास्तव की नजदीकी रिश्तेदार हैं। उन्हें कैप्टन जयपाल सिंह ने भूरिया से मिलवाया था। दत्ता तो महासचिव बन गई, लेकिन गृहमंत्री रहे कैप्टन को कुछ नहीं मिला है। मगर अब तक प्रदेश कार्यालय में संगठन का कागजी काम देखते रहे केप्टन जयपाल सिंह की क्या भूमिका रहेगी, यह स्पष्ट नहीं किया गया है। वह अब तक महामंत्री का दायित्व निभा रहे थे। अंग्रेजी ज्ञान अच्छा होने के कारण पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सुरेश पचौरी ने भी उन्हें अपनी टीम में बरकरार रखा था। बल्कि उनकी गिनती पचौरी के निकटतम सिपहसालारों में होने लगी थी। उन्हें तत्कालीन अध्यक्ष सुभाष यादव ने प्रदेश कांग्रेस दफ्तर में जगह दी थी। इसी तरह भूरिया के नजदीकी शांतिलाल पडिय़ार का नाम भी नहीं है। पडिय़ार अब तक प्रभारी महामंत्री की भूमिका में काम कर रहे थे। भूरिया ने अपने दौरों का काम देखने के लिए भोपाल के जिस संजय दुबे को कांग्रेस दफ्तर में टेबिल कुर्सी मुहैया कराई थी, वह भी सूची से नदारद हैं। देखा जाए तो भूरिया की कोर टीम में से सिर्फ प्रमोद गुगालिया ही एकमात्र ऐसे शख्स हैं, जिन्हें प्रवक्ता बनने में कामयाबी मिल सकी है। यह अलग बता है कि भूरिया ने अध्यक्ष बनते ही उनको मीडिया प्रभारी बनाया था। बहरहाल ऐसा क्यों हुआ, इसके कारण तलाशे जा रहे हैं।
भोपाल में केरोसिन का कारोबार करने वाले अब्दुल रज्जाक और निजामुद्दीन अंसारी चांद को सचिव बनाया गया है। रज्जाक के बारे में कहा जाता है कि वे भूरिया को चेहरा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे, यहां तक कि भूरिया की यात्राओं के दौरान वे साथ रहने की गरज से रेल या प्लेन का टिकट लेने से भी नहीं हिचकते थे। चांद और ईश्वर सिंह चौहान पिछले चुनावों में कांग्रेस की खिलाफत कर चुके हैं। यही स्थिति एक अन्य महामंत्री जीएम राईन भूरे पहलवान को लेकर है। नई सूची में पदाधिकारी बने एक नेता ने कहा, आपकी तरह हमारे लिए भी ये दोनों नाम खोज का विषय हैं। प्रदेश सचिव बने रज्जी जॉन और जैरी पॉल के मामले में भी ऐसी ही स्थिति है। कांग्रेसी ही सवाल कर रहे हैं कि कौन हैं ये लोग? प्रभारी महासचिव और मुख्य प्रवक्ता रह चुके मानक की 2009 लोकसभा चुनाव के बाद कार्यालय में वापसी हुई है।
उधर उज्जैन से सासद प्रेमचंद गुड्डïू ने भूरिया के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। भूरिया से नाराज कई नेता गुड्डïू से जुड़ गए हैं। भूरिया के प्रदेश कार्यकारिणी बनाने के बाद गुपचुप बैठकों के दौर तो शुरू हो गए थे। मगर अब जल्दी ही खुलकर बगावत के आसार बन रहे हैं। कभी कमलनाथ के खिलाफ मोर्चा खोलने वाले गुड्डïू के घर कमलनाथ समर्थक भी पहुंच रहे हैं। गुड्डïू ने भी नाराज काग्रेसियों से बात करना शुरू कर दिया है। मालवा-निमाड़ के सभी दिग्गज भूरिया के फैसले से नाराज तो थे, मगर विरोध करने की पहल से बच रहे थे। मगर खुद के समर्थकों को दरकिनार करने के बाद गुड्डïू ने भूरिया विरोध की कमान संभाल ली है। बताया जा रहा है कि कमलनाथ के विरोध के कारण जो सज्जन सिंह वर्मा कभी गुडू से खार खाते थे वो भी गुड्डïू के साथ जा खड़े हुए हैं। कांग्रेस नेता पंकज संघवी, विधायक अश्र्विन जोशी भी गुड्डïू के साथ भूरिया विरोध की तैयारियों में जुट गये हैं। वहीं महेश जोशी, शोभा ओझा, सत्यनारायण पटेल की भी गुड्डïू से इस सम्बन्ध में बात हुई है। गुड्डïू सिंधिया खेमे के विरोधी माने जाते हैं। मगर जिन सिंधिया समर्थकों को घर बैठा दिया गया है वो भी गुड्डïू से हाथ मिलाने के लिये तैयार हैं। माना जा रहा है कि आने वाला वक्त भूरिया और प्रदेश काग्रेस के लिए सुकून भरा नहीं होगा।

सबसे ज्यादा हैरानी बुंदेलखंड की स्थिति को लेकर है। कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने बुंदेलखंड के पिछड़ेपन को दूर करने केंद्र सरकार से अड़तीस सौ करोड़ रुपये का विशेष पैकेज तो दिला दिया, मगर जब पार्टी संगठन में इलाके को प्रतिनिधित्व देने का मौका आया तो धेला नहीं मिला। प्रदेश पदाधिकारियों की 75 लोगों की सूची में से सिर्फ पांच नाम बुंदेलखंड से हैं। यदि प्रवक्ता को भी जोड़ लिया जाए तो यह संख्या छह हो जाती है। इसमें भी वरिष्ठता का ख्याल नहीं रखा गया। बुंदेलखंड में छह जिले हैं। मगर सभी को तरजीह देने के बजाए दमोह और सागर से पांच नाम ले लिये गए। दमोह की हटा तहसील से दो लोगों को शामिल किया गया है। दिग्विजय सिंह के मंत्रिमंडल में रहे राजा पटेरिया को प्रवक्ता जैसा मामूली पद दिया गया, जबकि उनसे बहुत जूनियर मनीषा दुबे महामंत्री बना दी गई। दोनों ही ब्राह्मंाण हैं। सागर जिले की बात करें तो बीना के अरुणोदय चौबे उपाध्यक्ष और राजेन्द्र सिंह ठाकुर सचिव बनाए गए हैं।
तीन लोकसभा और 23 विधानसभा क्षेत्र वाले इस इलाके में जातीय समीकरणों का हमेशा महत्व रहा है। मगर कांग्रेस की सूची में इसका भी ख्याल नहीं किया गया। वोटों में भागीदारी के लिहाज से देखें तो लगभग 30 प्रतिशत अनुसूचित जाति, 28 प्रतिशत ओबीसी, पांच फीसदी ब्राह्मंाण, पांच प्रतिशत ठाकुर, चार प्रतिशत मुस्लिम सहित अन्य अल्पसंख्यक, 15 प्रतिशत आदिवासी और बारह प्रतिशत वैश्य समाज है। मगर दलित, आदिवासी, ओबीसी और वैश्य कांग्रेस की सूची में जगह बनाने में कामयाब नहीं हो सके।
सूत्रों का कहना है कि बुंदेलखंड में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की दिलचस्पी के कारण इलाके के कांग्रेसी इस उम्मीद में हैं कि इस विसंगति की तरफ उनका ध्यान जाएगा तो सूची में सुधार जरूर होगा। जानकारों का कहना है कि इसके पूर्व सुरेश पचौरी के कार्यकाल में बुंदेलखंड से ग्यारह पदाधिकारी थे। भूरिया तो पुराने आंकड़े को ही बरकरार नहीं रख पाए। बहरहाल, कांग्रेसजन किसी तरह राहुल के पास वस्तुस्थिति पहुंचाने में लगे हैं ताकि इस पिछड़े इलाके की भलाई के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री से विशेष पैकेज दिलवाने में जो भावना दिखाई, उसकी एक झलक कांग्रेस की लिस्ट में भी दिखाई पड़े।
प्रदेश कांग्रेस कमेटी को लेकर भले ही कांग्रेसी हल्ला मचा रहे हो, लेकिन कप्तान भूरिया तो गदगद हैं और वे गर्व से कह रहे है कि इससे अच्छी कार्यकारिणी नहीं बन सकती थी। कांतिलाल भूरिया से जब उनकी टीम को लेकर बात की, तो कहने लगे कि आम कांग्रेसी खुश है। मैंने सबको जगह देने की कोशिश की है। पहली 33 फीसदी महिलाओं को पद दिए हैं। जब उनसे कहा कि टीम का तो विरोध हो रहा है? तो वे बोले - किस बात का विरोध? सभी नेताओं से बात की थी। बड़े नेताओं से नाम लिए थे, जो पंद्रह-बीस साल से काम कर रहे हैं, उनको भी भाव दिया है, सीनियर नेताओं को अनुभव के लिए साथ में रखा। युवाओं को दौडऩे के लिए बनाया। उन महिला नेत्रियों को मौका दिया, जो पहले से महिला कांग्रेस में काम कर रही थी। पार्षद, विधायक और जिला पंचायत प्रतिनिधि रही।
नए चेहरों के पास अनुभव की कमी है, तो अनुभवियों के पास कोई अधिकृत पद नहीं है, ऐसी स्थिति में अब प्रदेश अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष पर ये लोग दवाब बढ़ा सकते हैं। जानकारों का कहना है कि कांगे्रस ने बरसों बाद उन कांगे्रसियों की भी सुध ली है, जो हासिए पर थे। युवा कंधों पर बूढ़ी कांगे्रस का भार मिशन-2013 में कांगे्रस को कितनी मजबूती दे पाता है, यह तो आने वाला वक्त बताएगा, मगर सबसे खास यह होगा कि कांगे्रस अध्यक्ष भूरिया को अब इन्हीं नए और गैरअनुभवी चेहरों के अनुभव को बढ़ाते हुए इस चुनावी रणभूमि में जंग के लिए उतरना होगा।

Wednesday, October 19, 2011

प्रधानमंत्री पद को लेकर भाजपा में रार



विनोद उपाध्याय

घोटालों से घिरी कांग्रेसनीत यूपीए सरकार के फिर सत्ता में नहीं आने की धारणा के बीच भाजपा में प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान शुरू हो गया है। पार्टी को लग रहा है कि इस बार उसे उत्तर भारत के कांग्रेस प्रभावित क्षेत्रों में अच्छी सफलता हासिल होगी। भले ही वह अकेले अपने दम पर सरकार न बना पाए, मगर भाजपानीत एनडीए तो सत्ता में आ ही जाएगा। जाहिर तौर पर भाजपा सबसे बड़ा दल होगा, लिहाजा उसी का नेता प्रधानमंत्री पद पर काबिज हो जाएगा। इस अनुमान के आधार पर भाजपा नेताओं में प्रधानमंत्री पद पाने की होड़-सी लग गई है और पार्टी गाइड लाइन को दरकिनार कर नेता स्वयंभू प्रधानमंत्री बनने के जतन में जुट गए हंै।
राजनीतिक संकेतों और भाजपा के सूत्रों की मानें तो पार्टी में प्रधानमंत्री पद के दावेदार नेताओं में लालकृष्ण आडवानी,सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, नरेन्द्र मोदी, राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, यशवंत सिन्हा और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के अलावा जद(यू) से नितीश कुमार अपने-अपने तरीके से दावा पेश कर रहे हैं।
इस दृश्य को देखकर एक बात तो साफ झलक रही है कि अटल बिहारी वाजपेयी के राजनीतिक अवसान के बाद आज भाजपा ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां कोई किसी का माई-बाप नहीं है। 31 साल की युवा भाजपा जिसका उदय भारतीय राजनीति में दक्षिणपंथ की ओर ऐतिहासिक मोड़ माना गया, जिसे पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी ने करीब छह साल तक सत्ता के शिखर पर बैठाया आज उसके प्रौढ़ और बुजुर्ग नेताओं में इतना सामथ्र्य नहीं रहा की वे एक-दूसरे को एकता के बंधन में बांध सके और संघ की धार भी भोथर हो गई है। जिसका परिणाम यह हो रहा है कि नेता अपनी डफली अपना राग अलाप रहे हैं और पार्टी रसातल की ओर जा रही है।
लोकसभा चुनाव 2014 में होना है पर भाजपा के अंदर प्रधानमंत्री पद के लिए घमासान छिड़ गया है। यहां एक नहीं कई प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं। जिससे पूछो वही कह बैठता है मेरे में क्या कमी है। हालांकि कुछ वरिष्ठ नेता अपने को इस दौर से बाहर रखे हुए हैं पर कुछ ने खुलकर अपनी दावेदारी पेश कर दी है। पार्टी में कुछ माह पूर्व तक लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज और राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली के बीच ही प्रधानमंत्री पद को लेकर प्रतिस्पर्धा चल रही थी, मगर अब दावेदारों की लंबी फौज सामने आने लगी हैं। गुजरात में लगातार दो बार सरकार बनाने में कामयाब रहे नरेन्द्र मोदी ने गुजरात दंगों से जुड़े एक मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्देश को अपनी जीत के रूप में प्रचारित कर अपनी छवि धोने की खातिर शांति और सद्भावना के लिए तीन दिवसीय उपवास किया। उसी दौरान अमेरिकी कांग्रेस की रिसर्च रिपोर्ट में उनकी तारीफ करते हुए ऐसा माहौल बना दिया कि अगले आम चुनाव में प्रधानमंत्री पद का मुकाबला मोदी और राहुल गांधी के बीच हो सकता है। इससे मोदी का हौंसला और बढ़ गया और शांति और साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए तीन दिन के उपवास के माध्यम से राष्ट्रीय स्तर पर अपनी छवि बदल कर सर्वमान्य नेता बनने का प्रयास किया। जाहिर तौर पर इससे सुषमा स्वराज व जेटली को तकलीफ हुई होगी। वे ही क्यों पिछले चुनाव में प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में पेश किए गए आडवाणी तक को तकलीफ हुई और उन्होंने न केवल रथयात्रा की घोषणा की बल्कि अपने प्रिय नेता नरेन्द्र मोदी के कट्टर विरोधी बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार की अगुआई में जयप्रकाश नारायण की तथाकथित जन्मस्थली सिताब दियरा से अपनी रथ यात्रा भी शुरू कर दी है।
आडवाणी ने रथ यात्रा तो शुरू कर दी है लेकिन उस पर सवाल खड़े होने लगे हैं। सबसे पहला यह की आडवाणी अपनी यात्राओं को रथयात्रा ही नाम क्यों देते हैं? रथ आवाम से नहीं जोड़ता है। जनता से दूर ले जाता है। रथ सामंती प्रतीक है। हमारी परम्परा में रावण रथी है। और रघुवीर विरथ। रथ लोक से काटता है, फिर भी लालकृष्ण आडवाणी बिना घोड़ों के रथ पर सवार हैं। पार्टी, मित्रों और संघ परिवार की इच्छा के खिलाफ आडवाणी की रथयात्रा निकल चुकी है। आडवाणी 'आदि रथयात्रीÓ हैं। उनकी यात्रा के निहितार्थ सब जानते हैं। आखिर क्यों वे संघ और भाजपा के कई अपमानजनक शर्तों के बावजूद रथ पर सवार हो रहे हैं? कौन सी मजबूरी है कि प्रधानमंत्री पद की आमरण उम्मीदवारी छोडऩे को वे तैयार नहीं हैं? देश इक्कीसवीं सदी के उस मुकाम पर है। जहां से राजनीति के सूत्र युवाओं के हाथ जा रहे हैं। देश में 72 करोड़ 99 लाख मतदाताओं में से 50 प्रतिशत युवा हैं। राहुल गांधी मुकाबले में हैं। युवा आगे देख रहा है और रथ पीछे ले जाता है। इसलिए आडवाणी की रथयात्रा युवा वर्ग को लुभाती नहीं है। शायद इसी सोच से संघ और भाजपा अपना नेता बदलना चाहते हैं। वे दूसरी पीढ़ी को सत्ता सौंपना चाहते हैं। राजनीति के प्रतीक बदलना चाहते हैं। रथ, राम, अयोध्या और उग्र हिन्दुत्व से परे नए प्रतीक। ताकि भाजपा एक ऐसा उदार राजनैतिक दल बने जिसमें युवा वर्ग अपना भविष्य देख सके। ऐसे नए वैचारिक उपकरण बने जिससे युवा मतदाताओं के तार सीधे जुड़ सके। इसलिए संघ का जोर दूसरी पीढ़ी की ओर है, पर आडवाणी की प्रधानमंत्री पद की चाह रास्ते की अड़चन। आडवाणी की दुर्दशा देखिए। भाजपा के भीतर जो गडकरी, जेटली, वेंकैया, सुषमा स्वराज और नरेन्द्र मोदी इस रथयात्रा के खिलाफ खड़े थे, वे सब आडवाणी द्वारा गढ़े गए हैं। पार्टी में आडवाणी ने उन्हें बड़ा बनाया है। पर उस सवाल पर जंग खाए लौह पुरुष पार्टी में अकेला पड़ गया है।
दरअसल आडवाणी दो परिवारों के बीच पिस रहे हैं। एक-उनका अपना परिवार है। जो उन्हें प्रधानमंत्री देखना चाहता है। उसकी दलीलें हैं, कि मोरारजी भाई तो 83 की उम्र में प्रधानमंत्री बने थे। फिर दादा की सेहत अच्छी है। दिमाग दुरुस्त है। पार्टी में सबसे ज्यादा योगदान है। दूसरा है संघ परिवार। जो किसी भी कीमत पर आडवाणी को अब भाजपा की मुख्यधारा में रहने देना नहीं चाहता। वह जल्दी में है दूसरी पीढ़ी के लिए। इन दो परिवारों के बीच मुश्किल हैं। फिर क्या करें लौहपुरुष? एक सम्मानजनक रास्ता है। वे उस पर क्यों नहीं जाना चाहते? अगर आडवाणी गांधी, लोहिया, जयप्रकाश या अन्ना से नहीं सीख सकते, तो उन्हें कम से कम सोनिया गांधी से ही सीखना चाहिए। कैसे कुर्सी की दौड़ से अलग रह कर राजनीति में हस्तक्षेप किया जा सकता है। कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए दिन-रात अथक परिश्रम कर रही हैं। क्या भाजपा के लिए आडवाणी के मन में ऐसी भावना नहीं जाग सकती?
पहले आरएसएस के संकेतों, इशारों और अब साफ-साफ कहने के बावजूद आडवाणी राजनीति से हटने को तैयार नहीं हैं। देश ने पिछले आम चुनावों में नेता के तौर पर उन्हें खारिज किया है। इसलिए संघ पिछले दो साल से आडवाणी के राजनैतिक सन्यास की घोषणा सुनना चाहता है। आडवाणी उस रास्ते जा भी रहे थे। पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की हिलती कुर्सी देख। वे लौट आए। उनकी लालसा जगी। उन्हें लगा भाजपा में सामूहिक नेतृत्व पर बात नहीं बन रही है। वहां प्रधानमंत्री पद के लिए आधा दर्जन से ज्यादा उम्मीदवार हैं। ऐसे में रथयात्रा के जरिए वे दोबारा सत्ता में आने के लिए दावेदारी कर सकते हैं। पर उनकी इस योजना की हवा इस बार विपक्ष ने नहीं अपनों ने ही निकाल दी। यही वजह है 11 अक्टूबर से निकली उनकी रथयात्रा इस बार कोई माहौल पैदा नहीं कर पा रही है। पार्टी के बड़े नेताओं और मुख्यमंत्रियों ने हाथ खींच लिए थे। पार्टी का यह रुख देख आडवाणी ने रथयात्रा नितीश कुमार के हवाले कर दी। वरना हर कोई जानता है कि जयप्रकाश नारायण की जन्मस्थली सिताब दियारा बिहार में नहीं उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में है। सिताब दियारा का जेपी का मकान स्मारक और कुटुम्ब के लोग आज भी उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में रहते हैं। घाघरा के कटाव से गांव का सीमांत बिहार के सारण जिले में जरूर पड़ता है। पर सिताब दियारा रेवन्यू गांव यूपी का है। यूपी में फिजा नहीं बन सकती। इस दौरान यूपी में राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र दोनों अपनी-अपनी यात्राएं लेकर यहां निकल रहे हैं, सो उत्तर प्रदेश में पार्टी ने हाथ खड़े किए। इसलिए रथयात्रा अब नितीश कुमार के हवाले हुई। इस शर्त के साथ कि यात्रा में लगने वाले नारे, पोस्टर में ऐसा कोई जिक्र और उल्लेख नहीं होगा जो रथयात्री को प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताए।
लालकृष्ण आडवाणी ने निश्चिततौर पर भाजपा को सत्ता की राजनीति के सर्वश्रेष्ठ दिन दिखाए हैं। जनसंघ से भाजपा तक उनका योगदान बेजोड़ रहा है। उनकी पहली रथयात्रा ने पूरे देश में रामजन्मभूमि आंदोलन के लिए एक उफान पैदा किया था। उस लिहाज से वे पार्टी के केंद्र में रहे। आडवाणी की खुद की यात्रा भी कम रोचक नहीं है। पहले वे अटल बिहारी वाजपेयी के सहायक रहे। फिर उनके समकक्ष हुए। बाद में प्रतिद्वंदी बने। हालांकि पार्टी के भीतर उनकी कभी सर्वमान्य नेता की हैसियत नहीं रही। यह संयोग है कि अटल बिहारी वाजपेयी के प्रतिद्वंदी बनने के बावजूद आडवाणी तभी तक ताकतवर थे। जब तक वे अटल बिहारी वाजपेयी की छाया में थे। उससे निकलते ही वे न सिर्फ प्रभावहीन हुए। पार्टी के क्षत्रपों ने उनका विरोध शुरू कर दिया। उन्हे लगा कि प्रधानमंत्री बनने के लिए अटल जैसा उदार चेहरा चाहिए। अपने चेहरे को उदार बनाने के लिए उन्होंने जिन्ना का सहारा ले लिया। बस यहीं से शुरू हुई गड़बड़। जिन्ना प्रकरण के बाद संघ ने उनकी नाक में नकेल डाली। बीजेपी के नए नेतृत्व ने उन्हें लगभग धकिया कर नेतृत्व की दौड़ से बाहर किया। पर कमजोर होते मनमोहन सिंह और भ्रष्टाचार के आरोपों से साख खोती सरकार ने उनकी सारी उम्मीदें जगा दी। अब देखना यह है की आडवाणी की मंशा पर विपक्ष पानी फेरता है या अपने?
प्रधानमंत्री पद के एक अन्य दावेदार गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का जनाधार अन्य नेताओं के मुकाबले अधिक है, लेकिन उन्हें कट्टरपंथी माना जाता है, इस कारण राजग के घटक दल उनके नाम पर सहमति नहीं देंगे। आज की तारीख में भाजपा में अगर कोई जन नेता है तो अटल बिहारी वाजपेयी के अलावा नरेंद्र मोदी का ही नाम लिया जा सकता है। वाजपेयी के अलावा मोदी की ही सभाओं में लाखों की भीड़ होती है और वे वाजपेयी की तरह सहज वक्ता नहीं हैं लेकिन भीड़ को बांध कर रखना उन्हें अच्छी तरह आता है। मुहावरे वे गढ़ लेते हैं, जहां जरूरत होती है, वहां वही भाषा बोलते हैं और अच्छे-अच्छे खलनायकों को हिट करने वाली और दर्शकों को मुग्ध करने वाली जो बात होती है, वह मोदी में भी है कि वे अपने किसी कर्म, अकर्म या कुकर्म पर शर्मिंदा नजर नहीं आते। नरेंद्र मोदी गोधरा के खलनायक हैं मगर संघ परिवार, भाजपा और कुल मिला कर हिंदुओं के बीच भले आदमी माने जाते हैं। लेकिन मोदी गोधरा कांड की काली छाया से अभी तक उबर नहीं पाए हैं।
पिछली चुनावी विफलताओं से भाजपा ने सबक सीखा है। सबक यह है कि अगले चुनाव में भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में किसी नेता को पेश नहीं किया जायेगा। प्रधानमंत्री पद के लिए नरेंद्र मोदी के नाम की चर्चा तो बुद्धि विलास या फिर एक खास वर्ग में डर पैदा करने की अनावश्यक कोशिश के अलावा और कुछ भी नहीं लगती है। नरेंद्र मोदी व्यक्तिश: प्रधानमंत्री पद के योग्य हैं या नहीं, इस सवाल को छोड़ भी दिया जाए तो भी सवाल यह उठता ही है कि उन्हें प्रधानमंत्री आखिर बना कौन रहा है? क्या उनकी पार्टी में आज इस सवाल पर एकमत कौन कहे, सर्वानुमति भी है? सबसे बड़ा सवाल यह भी है कि आरएसएस आखिर चाहता क्या है? यदि आरएसएस मोदी को प्रधानमंत्री पद पर देखना भी चाहे तो उसके लिए भाजपा को खुद अकेले अपने बल पर लोकसभा में बहुमत लाना होगा? आज के राजनीतिक माहौल को देखते हुए ऐसा बहुमत कहीं से संभव नहीं लगता है। यहां मान कर चला जा रहा है कि भाजपा के कतिपय सहयोगी दल नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के पद पर देखना नहीं चाहेंगे। फिर भी इस पद को लेकर मोदी के नाम की चर्चा क्यों इतनी अधिक हो रही है, आश्चर्य होता है।
आडवाणी और मोदी की वनिस्वत सुषमा व जेटली अलबत्ता कुछ साफ-सुथरे हैं, मगर उनकी ताकत कुछ खास नहीं। सुषमा स्वराज फिलहाल चुप हैं, क्योंकि वे जानती हैं कि अकेले भाजपा के दम पर तो सरकार बनेगी नहीं, और अन्य दलों का सहयोग लेना ही होगा। ऐसे में मोदी की तुलना में उनको पसंद किया जाएगा। रहा सवाल जेटली का तो वे भी गुटबाजी को आधार बना कर मौका पडऩे पर यकायक आगे आने का फिराक में हैं। इसी प्रकार जहां तक राजनाथ सिंह के नाम का सवाल है तो यह उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों पर निर्भर करता है। यदि भाजपा का प्रदर्शन अच्छा रहा तो निश्चितरूप से उनकी दावेदारी मजबूत होगी। आडवाणी के अतिरिक्त पूर्व पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह भी उत्तर प्रदेश में रथयात्रा के माध्यम से आगे निकलने की कोशिश कर रहे हैं। इन सबके अतिरिक्त सुनने में यह भी आ रहा है कि पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी भी गुपचुप तैयारी कर रहे हैं। वे लोकसभा चुनाव नागपुर से लडऩा चाहते हैं और मौका पडऩे पर खुलकर दावा पेश कर देंगे। हालांकि कुछ वरिष्ठ नेता अपने को इस दौर से बाहर रखे हुए हैं पर कुछ ने खुलकर अपनी दावेदारी पेश कर दी है इसमें झारखंड से सांसद और पूर्व वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा का भी नाम शामिल हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा ने कहा है कि पार्टी में उनके सहित कई नेता प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवारी के योग्य हैं लेकिन लोकसभा चुनावों के करीब आने पर ही यह फैसला किया जाएगा कि प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार किसे बनाया जाए किसे नहीं। उन्होंने स्वयं को भी प्रधानमंत्री पद दावेदार बताते हुए कहा कि मेरी क्षमता पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। सिन्हा ने भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी में से किसे प्रधानमंत्री बनाया जाएगा इस आशय की अटकलों और इन दोनों नेताओं के बीच मतभेद की रिपोर्टों को कम महत्व देने की कोशिश की। पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा कि यह केवल मीडिया की देन है और भाजपा में कोई इस बारे में बात नहीं कर रहा है।
इन सबके इतर एक नेता जो दबे और सधे कदमों से प्रधानमंत्री की कुर्सी की ओर बढ़ रहा है वह हैं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान। शिवराज संघ और भाजपा दोनों की आंखों के नूर हैं। भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व शिवराज को तराश कर उन्हें अगला अटल बिहारी बनाने में जुट गया है। केन्द्रीय नेतृत्व को यह बात भलीभांति मालूम है कि क्षेत्रीय नेताओं में शिवराज ही ऐसे नेता हैं जिन्होंने केन्द्र और राज्य में विभिन्न पदों पर लंबे समय तक काम किया है। शिवराज की अभी तक की सफल राजनीतिक यात्रा पर गौर करें तो हम पाते हैं कि उनमें एक कुशल राजनेता के सभी गुण हैं। शिवराज की इसी खूबी को भाजपा भुनाने की तैयारी कर रही है। संघ और भाजपा की मंशा भांपकर शिवराज सिंह चौहान ने भी यात्राओं के इस माहौल में बेटी बचाओ अभियान के तहत यात्राओं का दौर शुरू कर दिया है। शिवराज की कार्यप्रणाली को देखे तो हम पाते हैं की आम आदमी के दिल में पैठ बनाने की अदा उनसे अधिक किसी अन्य नेता में नहीं है। आम जनता की दुखती नस की पहचान उन्हें खूब है। संघ और भाजपा संगठन इस बात को भलीभांति जानता है और मौका मिला तो वह शिवराज की सेक्यूलर छवि को भुनाने का कोई अवसर नहीं छोड़ेगा। जानकारों की मानें तो यह सब दो साल बाद की राजनीतिक परिस्थितियों को ध्यान में रख किया जा रहा है। राष्ट्रीय फलक पर गौर करें तो भाजपा के पास ऐसे चेहरों की कमी दिखाई पड़ती है जो भीड़ खींचने का माद्दा रखते हों और जिनकी छवि भी अच्छी हो। न काहू से दोस्ती न काहू से बैर की नीति पर चलने वाले शिवराज इस कसौटी पर फिट बैठते हैं। उन्हें चुनौती गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी और हाल ही में पार्टी की सदस्य बनी उमा भारती से मिल सकती है। लेकिन दोनों हिंदूवादी चेहरे हैं जिनसे गठबंधन के इस दौर में कई सहयोगियों को दिक्कत हो सकती है,इसलिए शिवराज जैसे मध्यमार्गी नेता पार्टी के लिए फायदेमंद रह सकते हैं।
रामनामी ओढ़कर राजनीति के मैदान में उतरी भारतीय जनता पार्टी अपनी साम्प्रदायिक छवि से आजिज आ चुकी है इसलिए वह अब अपनी छवि बदलने में लगी हुई है लेकिन उसे दमदार सेक्युलर चेहरा नहीं मिल पा रहा है। भाजपा में लालकृष्ण आडवाणी, नितिन गडकरी, मुरली मनोहर जोशी, अरुण जेटली, सुषमा स्वराज, राजनाथ सिंह, नरेन्द्र मोदी आदि जितने कद्दावर नेता हैं इन सबकी साम्प्रदायिक छवि है। जब भाजपा हिन्दू पार्टी थी। जब हिंदुओं को भाजपा ने आंदोलित किया था। तब दलित, फारवर्ड, जाट, किसान आदि सभी जातियों या वर्गों ने अपनी पहचान हिन्दू मानी थी। तब जब आडवाणी ने राम रथयात्रा की थी। उस रियलिटी को भाजपा लीडरशिप ने आज इस दलील से खारिज किया हुआ है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ा करती। आज का समाज, आज का नौजवान और आज का हिन्दू अयोध्या पुराण से आगे बढ़ चुका है। इसलिए जरूरत आज वाजपेयी बनने की है। पार्टियों को पटाने की है और 2014 के लिए एलांयस के जुगाड़ की है। ऐसे में गठबंधन की मजबूरियां सामने आती हैं तो पार्टी मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को प्रधानमंत्री पद के लिए आगे कर सकती है।
अगर एनडीए गठबंधन की बात करें तो बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार का नाम प्रधानमंत्री के लिए सामने आता है। जिस नितीश कुमार के बारे में इस पद को लेकर आये दिन अटकलबाजी होती रहती है, उस मुख्यमंत्री ने हाल में यह साफ-साफ कह दिया कि बिहार की सेवा ही देश की सबसे बड़ी सेवा है। मैं प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार नहीं हूं। मैं ऐसी चर्चा करने वालों से हाथ जोड़ कर कहता हूं कि मुझ पर रहम कीजिए और मुझे बिहार की सेवा करने दीजिए जिसके लिए जनता ने मुझे आदेश दिया है।
भाजपा नेताओं की प्रधानमंत्री पद की इस दौड़ के परिपे्रक्ष्य में अगर हम देखें तो आज देश का जो राजनीतिक माहौल है,उसमें मोटे राजनीतिक तौर पर इस देश के मतदाता तीन हिस्सों में बंटे हुए हैं। मुख्यत: तीन राजनीतिक शक्तियां हैं-कांग्रेस गठबंधन, राजग और अन्ना-स्वामी रामदेव टीमें। यदि अन्ना-राम देव टीम के साथ राजग का कोई ढीला ढाला चुनावी तालमेल हुआ तो उस समूह की सीधी टक्कर कांग्रेस यानी यूपीए होगी। मान लिया कि ऐसा हो गया और राजग-अन्ना टीम को लोकसभा में बहुमत मिल गया। तो फिर क्या होगा?
अगले चुनाव में यदि अन्ना खेमे को सफलता मिलती है तो अभी यह भी अनिश्चित है कि उस खेमे की ओर से कौन नेता प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनेगा। यह भी तय नहीं है कि अन्ना-रामदेव खेमों का राजग से किस तरह का और कितना तालमेल हो पायेगा। कांग्रेस की ओर से चुनाव पूर्व प्रधानमंत्री या फिर अगले चुनाव के बाद प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार की बात तय करने में सबसे कम समय लगने वाला है। उस दल में किसी आंतरिक या बाह्य विवाद की कोई संभावना/गुंजाइश ही नहीं है। क्योंकि पार्टी पर सोनिया गांधी की पूरी पकड़ अभी भी बरकरार है।
यह बात भी मार्के की है कि कांग्रेस को छोड़कर किसी भी दल ने इस पद के लिए अपने उम्मीदवार की घोषणा अब तक तो नहीं की है, यहां तक कि कोई संकेत भी नहीं है। हां, प्रणव मुखर्जी ने हालिया बयान में राहुल गांधी की ओर इशारा जरूर किया है। पर वह तो एक मानी हुई बात रही है। दरअसल आज भ्रष्टाचार ही इस देश का सबसे बड़ा मुद्दा है। यदि अगले चुनाव से पहले इस बीच देश के जनजीवन में इससे भी बड़ी अन्य कोई घटना नहीं हो जाए या कोई अन्य मुद्दा नहीं उछल जाए तो अगला लोकसभा चुनाव इसी भ्रष्टाचार के मुद्दे के इर्द-गिर्द ही लड़ा जायेगा। भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नायक अन्ना हजारे खुद प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं ही नहीं। वे तो चुनाव भी नहीं लड़ेंगे। हां, किसी न किसी रूप में अगले चुनाव को वह प्रभावित जरूर करेंगे जिस तरह जेपी ने 1977 में किया था। लेकिन देश की मुख्य विपक्षी पार्टी में जिस तरह प्रधानमंत्री पद को पाने को लेकर घमासान मचा हुआ है वह देश की राजनीति के लिए शुभ संकेत नहीं है। अगला प्रधान मंत्री कौन बनेगा? इस सवाल का जवाब बिलकुल भविष्य के गर्भ में है। क्योंकि तब जरूरी नहीं कि भाजपा का ही कोई नेता प्रधानमंत्री बने।

Tuesday, October 11, 2011

2जी में डूबा 4जी का सपना



विनोद उपाध्याय
कभी-कभी ऐतिहासिक पात्र किस तरह वर्तमान परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक होकर भविष्य की इबारत तय करते हैैं इसे सन 1735 में दिल्ली में कत्लेआम मचाकर उसे लूटने वाले नादिरशाह के उदाहरण से समझा जा सकता है... नादिर शाह ने सिर्फ दिल्ली लूटी थी और मुगलिया सल्तनत के प्रतीक तख्ते-ताउस को लूटकर ईरान ले गया था लेकिन दिल्ली की गद्दी पर बैठे सोनिया गांधी के नादिरशाहों ने तो पूरे देश को दिल्ली समझकर जिस तरह लूट-खसोट का कत्लेआम मचाया है उसने कांग्रेस के तख्तो ताज के लुट जाने की नींव रख दी है।
सेकेंड जनरेशन 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले सहित कई दूसरे घोटालों ने जनता के विश्वास को खोदकर इतनी गहरी खाई बना दी है कि उसमें न सिर्फ कांग्रेस के दफन होने की इबारत लिख दी हैै बल्कि नेहरू, इंदिरा, राजीव के बाद फोर्थ जनरेशन (4जी) का प्रतिनिधित्व कर रहे राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने का सपना 2जी घोटाले की खाई में दफन होना तय है। कांग्रेस के 4जी यानी राहुल की ताजपोशी का सपना लिए शतरंजी चालें चल रहीं राजमाता (सोनिया गांधी) और उनके दिग्गज - दिग्विजय सिंह, अहमद पटेल जैसे सिपहसालार जब मीडिया मैनेजमेंट के साथ राजकुमार की इमेज गढऩे की तैयारी में भट्टा परसौल से लेकर बुंदेलखंड के बुधिया की खाट पर रात बिताने की स्क्रिप्ट लिखते रहे और इधर ए राजा, कनिमोझी, मारन, चिदंबरम् जैसे लोगों की करतूतें कांग्रेस की खटिया उलाट करने की इबारत लिखती रहीं। भटï्टा परसौल में राख के ढेर से 4जी याने राहुल के लिए राजनीतिक फायदे का जिन्न भले ही न जागा हो लेकिन जैसा कि मोबाइल तरंगों की प्रकृति है, उसी तर्ज पर अलीबाबा और उनके 67 चोरों वाली मंडली की करतूतें जरूर देश के कोने-कोने में मोबाइल सिग्रल से ज्यादा तेजी से फैलाकर जनता को जगाने में जरूर कामयाब हो गई है।
जब कांग्रेस का राजकुमार मीडिया मैनेजमेंट के साथ उत्तर प्रदेश के बांदा में बलात्कार पीडि़ता के घर जाकर उसे न्याय दिलाने की नौटंकी कर रहा था उसी समय कांग्रेस की यूपीए सरकार के फरमाबरदार देश के खजाने के साथ सामूहिक बलात्कार में जुटे हुए थे। आखिरकार पाप के घड़ों को एक न एक दिन फूटना ही था, सो अब भ्रष्टïाचार के मवाद से भरे घड़े एक-एक कर फूटना शुरू हो गये हंै... इसी सड़ांध से राजमाता से लेकर राजकुमार तक का दामन बदबू से सराबोर हो चुका है... जनता जानती है कि देश की सत्ता से कांग्रेस के कपड़े को उतार फेंकना स्थाई हल भले ही न हो लेकिन तात्कालिक राहत तो मिल ही जाएगी।
2जी घोटाले के चलते देश में बनते जा रहे इसी जनमानस के जलजले में 4जी यानी नेहरू की विरासत के फोर्थ जनरेशन के दावेदार राहुल गांधी के सपनों का भी जलना तय है। दिल्ली का ताज 2जी लुट चुका है और 4जी के पास बची सिर्फ हसरत। सोनिया की भ्रष्टाचारियों पर चुप्पी और मनमोहन की कायरता की चादर ओढ़े ईमानदारी तो राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने के सपनों को दफन करने के लिए जिम्मेदार है ही उससे कहीं ज्यादा जिम्मेदार है उनके राजनीतिक सिपहसालार। विचारक मेकियावेली ने अपनी प्रसिद्घ किताब 'द पॉलिटिक्सÓ में कहा हैै कि राजा की सफलता उसके राजनीतिक सलाहकारों को चुनने की क्षमता में निहित होती है। 2जी घोटाले की गहराई को कम आंकना अब महंगा पड़ रहा है। राजनैतिक सलाहकार अन्ना के आंदोलन के समय नेतृत्व विहीन युवा के सामने राहुल का विकल्प खड़ा करने में असफल रहे। वे अन्ना की बाल सुलभ मुस्कान का मुकाबला मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह जैसे लोगों की कुटिलता से करने की रणनीति चलाते रहे, नतीजा सामने है, आज अन्ना हीरो है और कांग्रेस जीरो।
जानकारों की मानें तो सोनिया गांधी जिस मंशा से प्रधानमंत्री पद का त्याग कर नेहरू-गांधी परिवार की 4जी यानी चौथी पीढ़ी के युवराज राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की रणनीति के तहत अराजनीतिक व्यक्ति मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनवाया था उनका वही हथियार यूपीए सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया है। यूपीए के पहले कार्यकाल में परदे के पीछे से सत्ता चलाने की कांग्रेस की तरकीब काम कर गयी थी, लेकिन अब यही ताकत उसकी बड़ी कमजोरी बन गयी है। मौजूदा यूपीए सरकार 2जी के बवंडर में दिन-ब-दिन घिरती जा रही है। सरकार की साख दांव पर है। सरकार आज जिस दोराहे पर खड़ी दिख रही है, वह उसके मंत्रियों के बीच आंतरिक मतभेद के कारण है। सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों के बीच खींचतान से मंत्रिमंडल की सामूहिक जिम्मेदारी की नीति पर सवाल खड़ा हो गया है। मंत्रियों की इस करतूत के बीच प्रधानमंत्री असहाय दिख रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार सामूहिक जिम्मेदारी की नीति से चलती है और उसका नेतृत्व प्रधानमंत्री करता है। लेकिन 2जी मामले में नित नये खुलासों से प्रधानमंत्री की भूमिका भी संदेहास्पद हो गयी है।
सरकार में शामिल मंत्रियों ने पद का दुरुपयोग कर सरकारी राजस्व को नुकसान पहुंचाया है। यह काम मंत्री रहते हुए किया गया। मंत्रियों को इतना अधिकार नहीं होता है कि नीति संबंधी फ़ैसले वे अपनी मर्जी से कर सकें। इससे जाहिर होता है कि 2जी मामले में जो भी फ़ैसले लिये गये, उसकी जानकारी प्रधानमंत्री को भी हर स्तर पर रही होगी। 2जी के लाइसेंस देने की प्रक्रिया में संचार मंत्री, वित्त मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री कार्यालय तक शामिल रहा है। ऐसे में अगर चिदंबरम पर सवाल उठता है तो इसकी आंच प्रधानमंत्री तक पहुंचना तय है। इसमें चिदंबरम ही नहीं, प्रधानमंत्री की भी जिम्मेदारी बनती है। किसी मंत्री पर निगरानी रखने का काम उसके मुखिया का होता है। लेकिन प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों के कुकृत्य पर निगरानी रखने में असफ़ल रहे। यह मौजूदा राजनीतिक स्थिति की सबसे बड़ी विडंबना है कि क्षेत्रीय दल अपने राजनीतिक हैसियत के लिहाज से मंत्रालय पाते हैं और फिऱ अपनी मर्जी से नीतियों का निर्धारण करते हैं। सरकार मुखिया गठबंधन की आड़ में मंत्रियों की करतूतों से अनजान बनी रहती है। यह देश के लिए दु:खद और विकट स्थिति है।
यूपीए सरकार में पहले भी कई दागी मंत्री शामिल रहे हैं। सांसद शिबू सोरेन भी मनमोहन कैबिनेट में कोयला मंत्री रह चुके हैं। उन पर जो आरोप लगे थे वे उनके मंत्री बनने से पहले के थे। लेकिन राजा ने मंत्री रहते 2जी के लाइसेंस अपनी मर्जी से बांटे। इसकी जानकारी होने के बावजूद उन्हें दोबारा वही मंत्रालय सौंप दिया गया। राजा की इस करतूत का पर्दाफ़ाश प्रधानमंत्री ने नहीं, बल्कि जांच एजेंसियों ने किया। मंत्री पद और गोपनीयता की शपथ सरकारी कामकाज के निर्वहन के लिए लेता है, और यदि वह इस मर्यादा को अपने फ़ायदे के लिए ताक पर रखने लगे तो प्रधानमंत्री को उस पर निगरानी रखनी चाहिए।
हालिया घटनाक्रम का दूसरा पहलू यह है कि मनमोहन सिंह राजनीतिक व्यक्ति नहीं हैं। कांग्रेस में कई कद्दावर नेताओं को दरकिनार कर उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया है। उनकी पहली ताजपोशी के पीछे कई कारण रहे थे। लेकिन दोबारा प्रधानमंत्री बनने के बाद उम्मीद थी कि वे राजनीतिक नेता का कद हासिल करने में सफ़ल रहेंगे। परंतु अब उनकी सबसे बड़ी पूंजी व्यक्तिगत ईमानदारी ही सवालों के घेरे में आ गयी है। कांग्रेस के कद्दावर नेता शुरू से ही उनका नेतृत्व मन से स्वीकार नहीं कर रहे थे। यही कारण है कि मनमोहन सिंह को अब तक के सबसे सफल प्रधानमंत्री होने का तमगा मिलने के बाद भी 10 जनपथ के नेता राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की वकालत करते फिरते थे।
राजनतिक विश£ेषकों का कहना है कि 2जी घोटाला अन्य बड़े घोटालों की तरह फाइलों में दब कर रह जाता लेकिन जिस तरह 10 जनपथिया नेताओं ने पार्टी में अनुभवी और योग्य नेताओं को आहत करते हुए राहुल गांधी में एक योग्य प्रधानमंत्री की छवि देखकर उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की लॉबिंग कर रहे थे उससे इस घोटाले की परतें एक-एक करके खुलने लगी और आज स्थिति यह है कि नेहरू-गांधी परिवार की फोर्थ जनरेशन का प्रधानमंत्री बनने का सपना धूमिल होता नजर आ रहा है।
धर्मशास्त्रों में कहा गया है कि अन्याय, अत्याचार जैसे पाप कर्म का विरोध करना प्रत्येक व्यक्ति का परम धर्म है। यदि राजा या प्रशासक किसी के दबाव या भय से अन्याय करने वालों की अनदेखी करता है, तो वह भी उस पाप का भागी माना जाता है। शास्त्रों की इन पंक्तियों की नजर से अगर केंद्र की कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को देखें तो पूरी की पूरी सरकार पाप की पूर्ण भागीदार है और इस सरकार का सबसे बड़ा पाप है भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना। संप्रग सरकार के काल में सार्वजनिक धन की जिस तरह लूट मची उसकी परतें अब प्याज के छिलकों की तरह उघड़ती जा रही हैं। जिसके कारण सरकार संकट में है। उधर संकटग्रस्त सरकार के लिए सबसे बड़ी परेशानी यह है कि अब तक जो व्यक्ति (प्रणव मुखर्जी) संकटमोचक था वही संकट का कारण बन गया है। उधर आईपीएल, राष्ट्रमंडल खेल, 2जी स्पेक्ट्रम, सेटेलाइट स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसाइटी घोटाला, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर दागदार व्यक्ति की नियुक्ति और भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना हजारे के आंदोलन को हासिल हुए जनसमर्थन के साथ सियासी बवंडर के बीच नाव खे रहे प्रधानमंत्री की ईमानदार छवि भी दागदार हो गई है।
दरअसल जिस 2जी घोटाले के कारण पूर्व संचार मंत्री ए राजा, द्रविड़ मुनेत्र कडग़म (डीएमके) प्रमुख एम.करुणानिधि की बेटी और सांसद कनिमोझी और कई कंपनियों के अधिकारी इन दिनों तिहाड़ जेल में बंद हैं उसी 1.75 लाख करोड़ रुपये के घोटाले के तार अब प्रधानमत्री और तत्कालीन वित्तमत्री पी. चिदंबरम से जुड़ रहे हैं। सामाजिक कार्यकर्ता विवेक गर्ग द्वारा सूचना के अधिकार से जुटाई गई जानकारी के अनुसार 2जी स्पेक्ट्रम को सरकार किस तरह बेचे, इसका निर्णय मत्रियों के समूह को करना था, परंतु प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के कारण यह काम तत्कालीन सचार मंत्री दयानिधि मारन को सौंपा गया। इस कदम के कारण ही मारन और उनके उत्ताराधिकारी ए. राजा जनवरी, 2007 में 2जी स्पेक्ट्रम सन् 2001 की दरों पर बेचने का दु:साहस कर पाए।
जनवरी 2006 में प्रधानमंत्री ने दूरसंचार कंपनियों के लिए रक्षा मंत्रालय से अतिरिक्त स्पेक्ट्रम खाली करवाने के मामले में जीओएम के गठन को मंजूरी दी थी। जीओएम के सामने सिफारिशों पर विचार करने के विषय विस्तृत थे। इसमें दुर्लभ 2जी स्पेक्ट्रम की कीमतों के निर्धारण पर भी चर्चा होनी थी। एक फरवरी 2006 को तत्कालीन दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन ने प्रधानमंत्री से मुलाकात की। इसके बाद उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखा। 28 फरवरी 2006 को तत्कालीन दूरसंचार मंत्री और द्रमुक नेता दयानिधि मारन ने प्रधानमंत्री को अर्धशासकीय पत्र (डीओ नंबर एल-14047/01/06-एनटीजी) लिखा। मारन ने 'गोपनीयÓ पत्र में लिखा, 'आपको याद ही होगा कि एक फरवरी 2006 की मुलाकात में हमने रक्षा मंत्रालय द्वारा स्पेक्ट्रम खाली करने के मुद्दे पर गठित जीओएम पर चर्चा की थी। आपने मुझे आश्वस्त किया था कि जीओएम के टीओआर हमारी इच्छानुसार तैयार होंगे। यह जानकर आश्चर्य हुआ कि जीओएम के सामने जो विषय रखे गए हैं, वे बहुत व्यापक हैं। ऐसे मामलों का परीक्षण किया जा रहा है, जो मेरे अनुसार मंत्रालय स्तर पर किए जाने वाले कार्यों में अतिक्रमण है। विचार के इन बिंदुओं में हमारी सिफारिशों के आधार पर बदलाव किया जाए।Ó मारन ने पत्र के साथ जीओएम के लिए कार्यवाही के बिंदुओं का नया प्रस्ताव भी भेजा। पहले जीओएम को छह बिंदुओं पर चर्चा के लिए कहा गया था। इनमें स्पेक्ट्रम का मूल्य निर्धारण शामिल था। मारन ने प्रस्तावित एजेंडे में से उसे हटा दिया। सिर्फ चार विषयों को ही प्रस्तावित कार्यवाही के बिंदुओं में शामिल किया। यह सभी रक्षा मंत्रालय से अतिरिक्त स्पेक्ट्रम खाली कराने से जुड़े थे। प्रधानमंत्री ने जवाबी पत्र में मारन का पत्र मिलने की पुष्टि की। इसमें शायद ही किसी को संदेह हो कि मनमोहन सरकार अपनी ही जनता की नजरों में गिर गई है। देश में यह धारणा गहराती जा रही है कि इस सरकार ने अपने कर्मों से अपनी जैसी दुर्गति कर ली है उसे देखते हुए भगवान ही उसका मालिक है।
सरकार के समक्ष उभरे संकट की गंभीरता चिदंबरम के चेहरे की रंगत ने भी बयान की है और उनके बचाव में उतरने वाले दिग्विजय सिंह ने भी। क्या इससे दयनीय और कुछ हो सकता है कि चिदंबरम को अब उस दिग्विजय सिंह के प्रमाणपत्र की जरूरत पड़ रही है जो उन्हें कुछ दिन पहले ही आंतरिक सुरक्षा में नाकामी के लिए जिम्मेदार ठहरा चुके हैं-और वह भी लिखित रूप में। इसके पहले वह लिखित रूप में ही उन्हें बौद्धिक रूप से अहंकारी बता चुके हैं। चिदंबरम के बचाव में उतरे दिग्विजय सिंह ने हमेशा की तरह कुतर्कों का सहारा लिया। उनकी मानें तो भाजपा इसलिए उनके पीछे पड़ी है, क्योंकि वह कथित संघी आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं। समस्या यह है कि इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है कि प्रणब मुखर्जी चिदंबरम के पीछे क्यों पड़े? आखिर उनके मंत्रालय को यह नोट लिखने की जरूरत क्यों पड़ी कि यदि चिदंबरम चाहते तो 2जी स्पेक्ट्रम का आवंटन नीलामी के जरिये हो सकता था? चूंकि प्रधानमंत्री को भेजे गए इस नोट के बारे में यह भी स्पष्ट है कि उसे वित्तमंत्री ने देखा था यानी स्वीकृति दी थी इसलिए इस बहाने से भी बात बनने वाली नहीं कि उसे तो एक कनिष्ठ अधिकारी ने लिखा था। यह नोट इसलिए रहस्यमय है, क्योंकि उसे इसी वर्ष मार्च में लिखा गया। इस समय तक ए. राजा गिरफ्तार हो चुके थे। वित्त मंत्रालय की ओर से भेजे गए इस नोट का मकसद कुछ भी हो, उसने चिदंबरम की खोट उजागर कर दी है।
एक अन्य नोट भी सरकार के खोट को उजागर कर रहा है। यह स्पेक्ट्रम की कीमत तय करने संबंधी राजा और चिदंबरम की मुलाकात से संबंधित है। अभी तक सरकार की ओर से यह बताया जा रहा था कि राजा और चिदंबरम की यह मुलाकात औपचारिक किस्म की थी और इसीलिए उसके ब्यौरे को दर्ज करने की जरूरत नहीं समझी गई। इस बारे में पवन बंसल ने सफाई पेश करते हुए यह भी समझाने का प्रयास किया था कि मंत्रियों के बीच इस तरह की मुलाकातें होती रहती हैं। इस सफाई के बाद देश ने भी यह समझ लिया था कि राजा और चिदंबरम की मुलाकात वाकई औपचारिक किस्म की रही होगी और इसीलिए उसका ब्यौरा भी तैयार नहीं किया होगा, लेकिन पिछले हफ्ते वह नोट सामने आ गया जिसमें इस मुलाकात का ब्यौरा दर्ज है। यह ब्यौरा किसी और ने नहीं तात्कालिक वित्त सचिव और रिजर्व बैंक के मौजूदा गवर्नर डी. सुब्बाराव ने तैयार किया था। इसका सीधा मतलब है कि सरकार झूठ बोलकर देश को गुमराह कर रही थी। क्या कोई बताएगा कि इस नोट के अस्तित्व से क्यों इंकार किया जा रहा था? आखिर किस झूठ को छिपाने के लिए झूठ पर झूठ बोले जा रहे हैं? अभी तक आम धारणा यह थी कि स्पेक्ट्रम आवंटन में जो भी बंदर-बांट हुई वह ए. राजा ने अपने दम पर की, लेकिन अब तो यह लग रहा है कि उन्हें कोई और बल प्रदान कर रहा था। आखिर कौन था वह शख्स? नि:संदेह वित्त मंत्रालय के नोट से यह साबित नहीं होता कि 2जी स्पेक्ट्रम के मनमाने तरीके से आवंटन के लिए चिदंबरम उतने ही दोषी हैं जितने कि ए. राजा, लेकिन यह नोट उन्हें निर्दोष होने का प्रमाणपत्र भी नहीं देता। प्रधानमंत्री ने महज एक वक्तव्य देकर चिदंबरम से इस्तीफे की विपक्ष की मांग खारिज कर दी, लेकिन वह जनता के मन में घर कर गए संदेह को इतनी आसानी से दूर नहीं कर सकते-यह इसलिए भी संभव नहीं, क्योंकि उनकी साख पर बटï्टा लग चुका है?
अब यह स्थापित सत्य है कि प्रधानमंत्री ने ही इस घोटाले की नींव रखी, क्यों? सर्वोच्च न्यायालय में 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के सदर्भ में पेश एक हलफनामे में कहा गया है कि प्रणब मुखर्जी ने 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में तत्कालीन वित्तमंत्री पी. चिदंबरम की भूमिका पर सवाल उठाया था। इस बारे में वित्त मंत्रालय ने प्रधानमंत्री को पत्र भी भेजा था। दस पृष्ठ के उक्त नोट मे कहा गया है कि यदि तत्कालीन वित्तमंत्री चिदंबरम ने जोर दिया होता तो दूरसंचार मंत्रालय 2जी स्पेक्ट्रम लाइसेंस के आवंटन के लिए नीलामी की प्रक्रिया अपना सकता था, किंतु उन्होंने तत्कालीन संचार मंत्री ए. राजा को पुरानी दरों पर स्पेक्ट्रम बेचने की इजाजत दी। जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रह्मण्यम स्वामी ने प्रणब मुखर्जी का यह पत्र सर्वोच्च न्यायालय में दस्तावेज के तौर पर पेश किया है। स्वामी के अनुसार स्पेक्ट्रम का मूल्य तय करने के लिए चार बैठकें हुईं, जिसमें से अंतिम बैठक में चिदंबरम और ए. राजा प्रधानमत्री के साथ शामिल हुए थे। यह स्थापित सत्य है कि संप्रग सरकार में हुए कई अन्य घोटालों की तरह राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन और 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में हुई सार्वजनिक धन की लूट की खबर प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को भी थी।
आईपीएल, राष्ट्रमंडल खेल, 2जी स्पेक्ट्रम, सेटेलाइट स्पेक्ट्रम, आदर्श सोसाइटी घोटाला, केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के पद पर दागदार व्यक्ति की नियुक्ति और इन सब घोटालों से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अनजान होने की मासूम दलील से मनमोहन सिंह के साथ-साथ समूची संप्रग सरकार की विश्वसनीयता धुल चुकी है। इसके कारण पूरी दुनिया में भारत को एक भ्रष्ट देश के रूप में देखा जा रहा है, जिसे कल तक एक अत्यंत ऊर्जावान और उदीयमान सशक्त अर्थव्यवस्था के रूप में दुनिया सम्मान के भाव से देख रही थी और देश-विदेश के निवेशक यहा पूंजी निवेश के लिए उत्सुक थे। इस छवि को जो क्षति पहुंची है, क्या उसके लिए एक लचर व अक्षम नेतृत्व जिम्मेदार नहीं है? क्या इस परिस्थिति में संप्रग सरकार के हाथों में भारत की 120 करोड़ जनता का भविष्य सुरक्षित है?
ऐसे में कांग्रेस का राहुल को प्रधानमंत्री बनाने का सपना ध्वस्त होता नजर आ रहा है। कांग्रेस के रणनीतिकार इस 2जी के मामले को नेहरू-गांधी परिवार के 4जी (फोर्थ जनरेशन) को प्रधानमंत्री बनाने के लिए तीन वर्षों से अच्छे-भले ठीक-ठाक मैनेज करते आ रहे थे, परन्तु एकाएक सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 'लक्ष्मण रेखा पारÓ करने की वजह से अब आगे बात बनना बहुत मुश्किल हो गया है।

बेटी बचाओ का प्रहसन कब तक...?




विनोद उपाध्याय
ेमध्य प्रदेश में बेटियों को बचाने के नाम पर सरकार द्वारा हर वर्ष करोड़ों रूपए स्वाहा किए जा रहे हैं लेकिन न तो बेटियां बच रही हैं और ना ही उनकी अस्मत। हालात यह है कि देश में बालिकाओं के साथ सवार्धिक बलात्कार और अत्याचार मध्य प्रदेश में हो रहा है। अब जब प्रदेश में हालात नाजुक हो गए हैं तो सरकार ने बेटी बचाओ अभियान शुरू किया है। सरकार के इस कदम को चहूं ओर सराहा जा रहा है। लेकिन विसंगति की एक तस्वीर यह देखिए की 'बेटी बचाओÓ अभियान के नाम पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जिस समय अपने निवास पर बेटियों की चरण वंदना कर खुश हो रहे थे, उसी समय एक ऐसी बच्ची भी खबरों में थी, जिसके तीन पिता हैं? प्राइमरी स्कूल में पढऩे वाली इस बच्ची के प्रमाण-पत्र में तीन 'पिताओंÓ के नाम दर्ज है? इन पिताओं की महानता यह है कि इन पर बच्ची की मां का बलात्कार का आरोप था।
मामले की तह तक जाने के लिए हमें आज से आठ साल पीछे जाना होगा। जबलपुर के डिंडोरी के निगवानी गांव में वर्ष 2003 पंद्रह साल की एक लड़की अपने गरीब बाप का हाथ बंटाने के लिए मजदूरी का काम करती है। मजदूरी कराने वाला ठेकेदार लड़की पर बुरी नजऱ रखता था और एक दिन मौका देखकर अपने दो साथियों के साथ उसकी अस्मत को तार-तार कर देता है। लड़की डर के मारे घर पर कुछ नहीं बताती,लेकिन कब तक ? खुद तो मुंह सिल सकती थी, लेकिन पेट में आई नन्ही जान को कब तक छुपाती। आखिर पिता को बताना ही पड़ा कि किन तीन वहशियों ने उसके साथ दरिंदगी की थी। ठेकेदार समेत तीनों आरोपियों के खिलाफ एफआईआर भी दर्ज की गई,लेकिन पैसे और रसूख के आगे बेचारी लड़की और उसके गरीब पिता की लड़ाई कहां तक चल पाती। पीडि़ता के पिता ने जिन तीन लोगों का नाम लिया, ठेकेदार- मल्लेसिंह, ओमप्रकाश और बसंत दास। मुकदमे के दौरान ही लड़की आरोपों से मुकर गई, क्योंकि परिवार झंझट में नहीं पडऩा चाहता था। पिताओं की महान परंपरा और पौरुषेय उद्दंडता का इससे असंवेदनशील वाकया सुना है क्या?
यहां तक तो थी लड़की की कहानी। लेकिन लड़की ने जिस मासूम को जन्म दिया उसके साथ क्या हुआ ये जानकार किसी का भी कलेजा मुंह को आएगा। मासूम का नाना निगवानी पंचायत से उसका जन्म प्रमाण पत्र बनवाने गया तो ऐसा भद्दा मज़ाक किया गया जिसका दर्द बलात्कार से भी बड़ा है। बच्ची का जो जन्म प्रमाणपत्र जारी किया गया उसमें पिता के नाम के तौर उन तीनों लोगों का नाम लिख दिया गया, जिन पर बलात्कार का आरोप लगा था।
आज सात साल की हो गई उस लड़की का कोई जायज पिता भले न हो, पर उसके जन्म प्रमाणपत्र में 'पिता का नामÓ वाले स्थान में तीन लोगों के नाम हैं। लेकिन यह सवाल आज हर किसी को सोचने पर मजबूर कर रहा है कि उक्त जन्म प्रमाणपत्र जारी करते हुए एक बार भी नहीं सोचा गया कि बच्ची बड़ी होगा तो उस पर क्या बीतेगी। सात साल की मासूम अब दूसरी क्लास में पढ़ रही है। औसत बच्चों से वह ज़्यादा होशियार है। अभी उन बातों को मतलब नहीं समझता होगा जो उसकी मां के साथ बीती। लेकिन जैसे जैसे यह बच्ची बड़ी होगी, समझने लायक होगी तो भावनात्मक रूप से उस पर क्या असर होगा, ये सोच कर ही दहल उठता है। इस मामले को संवेदनहीनता की मिसाल मानते हुए एसडीएम (डिंडोरी) कामेश्वर चौबे ने कहा कि वे निजी तौर पर मानते हैं कि अगर यह प्रमाण पत्र सही है, तो भी यह कैसे जारी किया गया और इस मामले में सख्त कार्रवाई करेंगे। चौबे ने बताया कि जिस प्राइमरी स्कूल में बच्ची पढ़ती है, वहां के रिकार्ड में 'पिता का नामÓ वाला कॉलम खाली रखा गया था। उसके जन्म प्रमाणपत्र में यह असमान्य प्रविष्टि उस समय सामने आई जब बच्ची को दाखिले के लिए स्कूल लाया गया। यह जन्म प्रमाणपत्र पंचायत ने जारी किया था। यह व्यथा भले ही एक बच्ची की है लेकिन इसी की तरह हजारों और बच्चियां हैं जो अपने अस्तित्व को लेकर संघर्षरत हैं।
प्रदेश में लाडली को बचाने की योजना का फायदा आम जनता को कितना हो रहा है इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जिस दिन मुख्यमंत्री ने बेटी बचाओ योजना की शुरूआत की उसके अगले दिन बुरहानपुर जिले के शिकारपुरा थाना क्षेत्र के बोहरड़ा गांव में एक नवजात बालिका को जिंदा जमीन में दफनाने का मामला सामने आया। हालांकि नवजात बच्ची को बचा लिया गया। यही नहीं मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल के पूर्व विधायक और कांग्रेस जिला अध्यक्ष पीसी शर्मा ने कुछ ऐसी बच्चियों को सामने लाकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान से सवाल करते हैं कि इन बेटियों को बचाने के लिए सरकार कब कदम उठाएगी। शर्मा कहते हैं कि भाजपा सरकार और उसके मुख्यमंत्री द्वारा बेटी बचाने का आह्वान करने वाले विज्ञापनों और होर्डिगों से किस क्रांति की कल्पना की जा रही है, यह तो प्रदेश का मुखिया ही बता सकता है। समूचे देश में ही औरतों की ऐसी दुर्दशा है कि हर तरफ बचाओ-बचाओ की पुकार मची है।
सवर्ण समाज पार्टी की अध्यक्ष अर्चना श्रीवास्तव कहती हैं कि औरत और मर्द को ऊपर वाले ने एक ही माटी से रचा है, लेकिन मां के गर्भ में आने के साथ की औरत (कन्या भ्रूण) को बचाओ-बचाओ का सहारा लेना पड़ता है जो जीवन पर्यंत जारी रहता है। आखिर इस बचाओ-बचाओ से कब तक मुक्ति मिलेगी। वे कहती हैं कि सूचना प्रसारण मंत्रालय को किसी फिल्म में नायिका के वक्ष की नग्नता कुछ दृश्यों में इतनी खटकी है कि उसे यह स्त्री को अपमानित करने वाली लगती है, जिसके खिलाफ वह गंभीर कदम उठाने को उतावला हो जाता है। लेकिन उनको बच्ची के प्रमाण पत्र पर चस्पा तीन बाप नहीं दिख सकते, इनके नामों से किसी को जलालत नहीं होती।
राज्य की पूर्व मुख्य सचिव तथा बाल अधिकार संरक्षण (चाइल्ड राइट ऑब्जर्वेटरी) की निर्मला बुच कहती हैं कि योजनाओं व रैलियों से बालिकाओं की रक्षा नहीं होने वाली है। इसके लिए जरूरी है कि कानून का सहारा लिया जाए।
मध्य प्रदेश महिला कांग्रेस की अध्यक्ष अर्चना जायसवाल कहती हैं कि भाजपा का बेटी बचाओ अभियान महज छलावा मात्र है। सरकार ने प्रदेश में बच्चियों तथा महिलाओं के संरक्षण के लिए पीछले आठ सालों से दावे कर रही है लेकिन पिछले तीन सालों में ही साढ़े तीन सौ महिलाओं को जिन्दा जलाए जाने के मामले प्रकाश में आए हैं। व कहती हैं कि पिछले तीन सालों में ग्वालियर में 23, दतिया में 21, इंदौर में 20, सागर में 17, छिंदवाड़ा और विदिशा में 15 -15, सतना में 13, राजधानी भोपाल में 12, नरसिंहपुर में 11 तो संस्कारधानी जबलपुर में 10, देवास, छतरपुर, भिण्ड, शिवपुरी में 9-9, डिंडोरी, धार कटनी में 8-8, मुरेना, मंदसौर, उज्जैन एवं बड़वानी में 7-7, हरदा, गुना, टीकमगढ़ और खरगोन में 6-6, मण्डला, अशोक नगर, सीहोर और होशंगाबाद में 5-5, शाजापुर और नीमच में 4-4, बैतूल व खण्डवा में 3-3, रीवा बुरहानपुर में 2-2 तथा रतलाम, सिंगरोली, उमरिया, पन्ना और झाबुआ में 1-1 महिलाओं को जिन्दा जला दिया गया। ऐसे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि भाजपा सरकार का बेटी बचाओ अभियान की हकीकत क्या है।
एनसीआरबी द्वारा 2009-10 के आंकड़ों के अनुसार मप्र में 1071 बालिकाओं के साथ बलात्कार की घटनाएं हुईं। यह देश में हुई इन घटनाओं का 20 प्रतिशत थी। उधर, राष्ट्रीय महिला आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक सबसे ज्यादा बाल विवाह भी मप्र में ही होते हैं। इसके अनुसार मप्र में लगभग 70 प्रतिशत बालिकाओं का विवाह 18 वर्ष के पहले हो जाता है। ये सभी आंकड़े मप्र में बच्चों एवं महिलाओं से संबंधित चल रहे विभिन्न कल्याणकारी कार्यो पर प्रश्नचिन्ह लगाते हैं।
शिवराजसिंह ने 'लाड़लीÓ को बचाने के लिए यह अच्छी तरकीब तजवीज की है और इसके नतीजे अच्छे आ सकते हैं। इसके लिए सरकार को सजग होना पड़ेगा। अभी हाल ही में राज्य सरकार ने लड़कियों की आबादी बढ़ाने की गरज से लड़कियों के मां-पिता को पेंशन देने की योजना शुरू की है।
पेंशन की धनराशि ही तय करेगी कि बच्ची का पैदा होना कम होगा या ज्यादा। फिर पचपन साल के होने पर मिलेगी यह पेंशन। तब तक तो लड़की 'परायीÓ कर दी जाएगी। इतना धैर्य अगर मां-पिता देखने लगे तो बेटी-हत्या बंद ही हो जाए। यह भी सच है कि पेंशन के लिए कोई बेटी पैदा नहीं करना चाहेगा, लेकिन यह जरूर हो सकता है कि पेंशन के लालच में बेटी को पैदा होने दिया जाए। यहां यह विचार आ सकता है कि बेटी के बदले पेंशन क्या इसलिए दी जा रही है कि बेटा होता तो मां-बाप की सेवा करता, उन्हें अपने पास रखता या पालता क्या सारे बेटे ऐसे ही होते हैं क्या बेटों के मां-पिता भी अनाथालय में दिन नहीं गुजार रहे हैं क्या जमीन-जायदाद के लिए मां- पिता को ठिकाने लगाने वाले बेटों के नमूने कम हैं सबसे अहम बात यही है कि बेटे और बेटी का फर्क महसूस करने वाली मानसिकता को बदलना होगा। क्या आज भी पढ़े-लिखे और अपने आपको बुद्धिजीवी समझने और कहलाने वाले लड़के की चाह में लड़कियां पैदा नहीं करते रहे हैं इस वक्त में एक परिवार-एक बच्चे की सबसे ज्यादा जरूरत है...फिर वह लड़की ही क्यों न हो। चीन को हम और किसी तरह तो नहीं लेकिन हां, आबादी के मामले में जरूर पछाडऩे जा रहे हैं। सरकार तो पैसा दे सकती है, लेकिन अच्छे-बुरे के फैसले हमें खुद ही करना होंगे। मध्यप्रदेश में लड़कियों की घटती आबादी को रोकने के लिए हमारी समझ ज्यादा जरूरी है...बजाय किसी लालच के!