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भेड़ाघाट

Saturday, August 20, 2016

धंधेबाजों की 1,41,924 करोड़ की कमाई पर पहरा!

10,021 एनजीओ पर लगा बैन
विनोद उपाध्याय
भोपाल। पिछले 15 सालों में 165 देशों से 141924.53 करोड़ रूपए लेकर मौज करने वाले करीब 33,000 गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) में से केंद्र की मोदी सरकार ने 10,021 एनजीओ पर बैन लगा दिया है। इसमें मप्र के भी 250 एनजीओ हैं। केंद्र सरकार का मानना है कि इन संगठनों द्वारा विदेशों से मिलने वाली सहायता का दुरूपयोग किया जा रहा है। जहां कुछ एनजीओ सरकारी योजनाओं का विरोध करने तो कुछ देश में धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देने के काम कर रहे हैं। बताया जाता है कि खुफिया जांच एजेंसी आईबी ने कई स्तरों और कई कोण से जांच के बाद इन एनजीओ की रिपोर्ट सरकार को दी थी। जिसके आधार पर सरकार ने इन एनजीओ के विदेशी अनुदान लेने पर बैन लगा दिया है यानी उनके फॉरेन कंट्रीब्यूशन रजिस्ट्रेशन एक्ट (एफसीआरए) लाइसेंस को रद्द कर दिया है। ज्ञातव्य है कि इससे पहले 2012 में 4,138, 2013 में 4 और 2014 में 49 एनजीओ पर यूपीए सरकार बैन लगा चुकी है। जबकि भारत में विदेशी धन प्राप्त करने के लिए विदेशी योगदान के(विनियमन)अधिनियम (एफसीआरए) के तहत 33,091 गैर-सरकारी संगठन पंजीकृत हैं। उल्लेखनीय है कि भारतीय गैर सरकारी संगठनों को 165 देशों से अनुदान मिलता है। जिसमें सर्वाधिक सामाजिक क्षेत्र के लिए, उसके बाद शिक्षा, स्वास्थ्य, रूरल डेवलपमेंट, धार्मिक गतिविधियों, अनुसंधान, महिला उत्थान, बाल कल्याण, रोजगार, पर्यावरण, खेती आदि के लिए मिलता है। आईबी की जांच में यह बात सामने आई है कि बैन किए गए एनजीओ की वार्षिक रिपोर्ट में कई तरह की खामियां पाई गई हैं जो देश हित में नहीं है। गैर सरकारी संगठन के पंजीकरण को रद्द करने के लिए कारणों में-रिटर्न दाखिल नहीं करना, धन का गलत उपयोग, निषिद्ध गतिविधियों के लिए धन स्वीकार करना, कानूनी खर्च के वित्त पोषण, भारतीय गैर सरकारी संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं की रिट याचिकाएं और विदेशी कार्यकर्ताओं को विदेशी गैर सरकारी संगठनों द्वारा अज्ञात भुगतान करना शामिल हैं। सरकार का कहना है कि इन एनजीओ ने आयकर रिटर्न दाखिल नहीं किया और साथ ही इन्होंने उन कार्यों के लिए चंदा लिया जिसे करने की मनाही है। इसमें जमानत की फंडिंग से लेकर अदालत में दाखिल की जाने वाली याचिका तक का खर्च शामिल है। आईबी के सूत्रों का कहना है कि अभी हजारों एनजीओ की गतिविधियां संदेह के घेरे में है और उनकी पड़ताल हो रही है। मप्र को 15 सालों में मिले 5,34,57,02,196 अगर मध्य प्रदेश के संदर्भ में बात करें तो यहां के करीब 500 एनजीओ ने पिछले 15 साल में करीब 5,34,57,02,196 रूपए की विदेशी सहायता पाई है। जिनमें आधे से अधिक की कार्य प्रणाली संदेह के घेरे में है। संदेहास्पद एनजीओ की जांच चल रही है। अभी तक आईबी की जांच में जिन एनजीओ की गतिविधियां संदेहास्पद मिली है उनके खिलाफ कार्रवाई की गई है। वर्ष 2012 में ऐसे ही 92 एनजीओ के फॉरेन कंट्रीब्यूशन रजिस्ट्रेशन एक्ट (एफसीआरए) लाइसेंस को रद्द कर दिया था। वहीं वर्ष 2014 में 1 एनजीओ पर बैन लगा था। जबकि इस बार सरकार ने 250 एनजीओ पर बैन लगाया है। आईबी इन एनजीओ की गतिविधियों को संदिग्ध मानती है। बताया जाता है कि जांच में अगर किसी के खिलाफ गंभीर मामले सामने आए तो उन पर कानूनी कार्रवाई की जाएगी। 26 जुलाई को लोकसभा में सरकार द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट के अनुसार, 2010-2011 में मप्र के 468 एनजीओ को 1456495900.11 रूपए विदेशी सहायता के रूप में मिली थी। इसी प्रकार वर्ष 2011-2012 में 474 एनजीओ को 1547493703.80 रूपए, वर्ष 2012-2013 में 363 एनजीओ को 1660899947.66, वर्ष 2013-2014 में 54 एनजीओ को 249535061.58 रूपए, वर्ष 2014-2015 में 78 एनजीओ को 4687550425.25 रूपए और इस साल यानी वर्ष 2015-2016 में 21 जुलाई तक 10 एनजीओ को 408416709.26 रूपए मिले हैं। इन रूपयों का कहां और किस उद्देय से खर्च किया गया है उसमें कई विसंगतियां सामने आई हैं। जिससे एनजीओ संदेह के घेरे में हैं। मप्र में इन एनजीओ पर बैन समरीतन सेवा सदन, सहयोगिनी ट्रस्ट, साहस वॉलेंट्री सोसायटी, सागर महिला एवं बाल समिति, साधना विनय मंदिर, रिसोर्सेस डेव्लपमेंट इन्सिट्यूट, रिहैबीलिएशन कम वर्क सेंटर फॉर फिजिकली हैंडिकैप्ड, रिच कम्यूनिटी डेव्लपमेंट प्रोजेक्ट, रामा महिला मंडल, राहोद एजुकेशन सोसायटी, रफी अहमद किदवई एजुकेशन सोसायटी, पुष्पांजलि छात्र समिति, पुष्पा कान्वेंट, एजुकेशन सोसायटी, प्रखर प्रज्ञा शिक्षा प्रसार एवं समाज कल्याण समिति सागर, पिपुल्स फॉर एनिमल, न्यू शिवम व्यावसायिक युवती मंडल, नेशनल लॉ इन्सिट्यूट युनिवर्सिटी, नर-नारायण सेवा आश्रम, एमपी ब्रांच ऑफ नेशनल एसोसिएशन फॉर दा बलाइंड, शोसित सेवा संस्थान, श्रीकृष्ण ग्रामोत्थान समिति, श्रीकांत विकलांग सेवा ट्रस्ट, श्री चित्रगुप्त शिक्षा प्रसार समिति, श्री शिव विद्या पीठ, श्रम निकेतन संस्थान, शिवपुरी जिला सेवा संघ, शिव कल्याण एवं शिक्षा समिति, शिक्षा एवं ग्रामीण विकास केंद्र, शांति महिला ग्रह उद्योग कूप सोसायटी, शांति बाल मंदिर, श्री स्वामी के.विवेकानंद कुस्ता मुक्ता आश्रम, सेठ मन्नुलाल दास ट्रस्ट हॉस्पिटल, सतपुड़ा आदिवासी विकास समिति, सार्वजनिक सेवा समाज, सार्वजनिक परिवार कल्याण एवं सेवा समिति, शंकर,संजीवन आश्रम, संगम नगर शिक्षा समिति, समदर्शी सेवा केंद्र, अंजुमन इस्लामिया, अदिम जाति जाग्रति मंच, आर्दश लोक कल्याण (आलोक) संस्थान, आचार्य विद्यासागर गाऊ संवर्धन केंद्र, अभिव्यक्ति, असरारिया अल्पसं यक एजुकेशन चिकित्सा एवं वेलफेयर सोसायटी, आरोही-डेव्लपमेंट एवं रिसर्च सेंटर, अर्ध आदिवासी विकास संघ, मिशन हॉस्पिटल, मिशन हायर सेकण्ड्री स्कूल, मिशन हायर सेकण्ड्री स्कूल, मिशन गल्र्स प्राइमरी स्कूल, मिशन फॉर वेलफेयर एवं ट्रिबल चाइल्ड एंड वुमन, मेथोडिस्ट वुमन वर्क , मेथोडिस्ट वुमन प्रोजेक्ट, मिनू क्रिश्चन एजुकेशन सोसायटी, मेडीकेयर एंड रिसर्च फाउण्डेशन, मसीही प्राथमिक विद्यालय, मसीही माध्यमिक विद्यालय, मसीही कन्या विद्यालय हॉस्टल, मसीही हायर सेकण्ड्री स्कूल, मसीही हायर सेकण्ड्री स्कूल, मंजू महिला समिति, मंदसौर जिला समग्र सेवा संघ, मालवांचल विकास परिषद, मैत्री एजुकेशनल एंड कल्चरल एसोसिएशन, महिला परिषद, महिला एजुकेशन सोसायटी, महिला अध्ययन केंद्र, मध्यप्रदेश ग्रामीण विकास मंडल, मध्यप्रदेश हैरीटेज डेव्लपमेंट ट्रस्ट, माधवी महिला कल्याण समिति, मातृ सेवा संघ, लुथेरन मिशन हॉस्टल, लॉयन चैरीटेबल ट्रस्ट, कोठारी एजुकेशनल फाउण्डेशन, किसान खादी ग्रामद्योग संस्थान, खंडवा डिस्ट्रिक्ट वुमन वर्क, कर्मपा मल्टीपरपस कूप सोसायटी, कानपुर मिशन प्राइमरी स्कूल, कला जाग्रति परिवार, जोहरी क्रिएशन स्टूडेंट हॉस्टल, जन-कल्याण आश्रम समिति, जाग्रति सेवा संस्था, जगत गुरू राम भद्रचर्या विकलांग सेवा संघ, जबलपुर मिशन हॉस्पिटल प्रोजेक्ट-1641, जे.डी. सोशल डेव्लपमेंट आर्गनाइजेशन, इंदौर स्कूल ऑफ सोशल वर्क, इंदिरा गांधी एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी, इंडिया चर्च काउंसिल डिसीप्स ऑफ क्रिस्ट, हेवेंली पाइंट ऑफ एजुकेशन सोसायटी, हरित, एच.सी. मिशन हायर सेकण्ड्री स्कूल, ग्वालियर फॉरेस्टर सोसायटी, गुरू तेज बहादुर चैरीटेबल हॉस्पिटल ट्रस्ट, गुरू राजेंद्र सूरी चिकित्सालय एंड नेत्र अनुसंधान केंद्र, गायत्री शक्ति शिक्षा कल्याण समिति, ग्रासिम जन कल्याण ट्रस्ट, ग्रामोदय चेतना मंडल, गर्वमेंट पॉलिटेक्निक, गौवंश रक्षा समिति (अक्षय पशु-पक्षी सेवा सदन), गोंडवाना फाउण्डेशन, गरीबनवाज फाउण्डेशन फॉर एजुकेशन, जी.सी. मनोनित मिशन, गैस पीडि़त राहत समिति, गंगापुर युवा क्लब, गगन बाल मंदिर, फ्रेंड्स रूरल सेंटर, इकोनॉमी लाइफ कमेटी, ई.बी.ए. मिशन को-एजुकेशनल स्कूल, ईएलसी वेलफेयर एसोसिएशन, डॉ. पाठक चाईल्ड एंड मदर वेलफेयर सोसायटी,डिस्ट्रीक्ट वुमन वर्क, दिशा सामाजिक एंड विकास युवा मंडल, ड्यिोसेस ऑफ जबलपुर, धनवंतरी शिक्षा समिति, धनंतरी क्रिश्चन हॉस्पिटल, डेवलपमेंट फंड बोर्ड ऑफ सेकण्ड्री एजुकेशन, दारूल अलूम, कार्पोरेशन बास्केटबॉल ट्रस्ट, कनज्यूमर एंड राईट एसोसिएशन, काफ्रेंस ऑफ एसएस पीटर एंड पॉल (सोसायटी ऑफ सेंट. विनसेट डी पॉल), कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर, क्रिश्चया बंधूरकूलम फैमली हेल्पर प्रोजेक्ट, क्रिश्चन हॉस्पिटल वेस्ट निमार, क्रिश्चन हॉस्पिटल दमोह, क्रिश्चन हॉस्पिटल, क्रिश्चन हिंदी मिडिल स्कूल, क्रिश्चन बॉयज एंड गल्र्स हॉस्टल, क्रिश्चन एसोसिएशन फॉर रेडिया एंड विजिवल सर्विस, क्रिश्चन एसोसिएशन फॉर रेडियो एंड ऑडियो विजिवल, चिनमय सेवा ट्रस्ट, चिल्ड्रन होम, छत्तीसगढ़ विकास परिषद, चांदबाद विद्या भारती समिति, चंबल बाल एवं महिला कल्याण समिति, सेंट्रल एमप्लाई स्पोंसर्स रिलीफ ट्रस्ट, सीएएसए पतपरा मंडला डेवलपमेंट प्रोजेक्ट, बरगेस इंग्लिश हायर सेकेण्ड्री स्कूल, बुंदेलखंड क्रिश्चन सोशल सर्विस, ब्रिलियंट स्टार एजुकेशन सोसायटी, ब्राइट स्टार सोशल सोसायटी, भोपाल टेक्निकल एंड ट्रेनिंग सेंटर, भोपाल स्कूल ऑफ साईंस, भोपाल सेल्सस सोसायटी, बाल प्रगति एवं महिला शिक्षा संस्थान, अविनाश, ऑडियो विजिवल प्रोजेक्ट, सचिदानंद हॉस्पिटल, आसरा सामाजिक कल्याण समिति, एरिया एजुकेशन कमेटी, अद्र्ध आदिवासी विकास संघ, नागरथ चेरिटेबल पुष्पकुंज हॉस्पिटल, पार्टीसिपेट्री रिसर्च एंड इन्वेंसन इन, संवाद, सदर मिशन प्राइमरी स्कूल, साइकोन शिक्षा एंव ग्रामीण विकास समिति, भोपाल एसडीए इंग्लिश स्कूल, श्री अरबिंदो एंड मदर वनिता एमपॉवरमेंट ट्र्स्ट, चेतना मंडल, सोशल इकोनोमिक विलेजर्स एडवांसमेंट, तुलसी मानव कल्याण सेवा संस्थान, क्रिश्चन एनडेवर हॉस्टल, लोक कल्याण समिति, बीसीएम इंटरनेशनल, शांतिपुर लेप्रोसी हॉस्पिटल, सानिध्य, पी. नाथूराम चौबे महिला समिति, आधार सेवा केंद्र, दा गोस्पल सेंट्रल चर्च, राजीव गांधी प्राथमिक शिक्षा मिशन, खरूना चिल्ड्रन हॉस्टल, डब्ल्यूएमई ऑफ डग्लस मेमोरियल चिल्ड्रन होम, मासी उच्चतर विद्यालय, चंबल पर्यावरण सोसायटी, अमरजेंसी रिलीफ कमेटी, भारत सेवक समाज, क्रिश्चन बॉयज हॉस्टल, नव सर्वोदय विकास समिति, खुरई टेक्निकल एजुकेशन सोसायटी, केंसर केयर ट्रस्ट एंड रिसर्च फाउण्डेशन, तोलाबी चैरीटेबल ट्रस्ट, महर्षि महेश योगी वेदिक विश्व विद्यालय, वॉकेशनल ट्रेनिंग इंसिट्यूट स्कूल, सदाशिव शांति शिक्षा समिति, अनुसूचित जाति/ जनजाति कल्याण संघ, मोमिन वेलफेयर एजुकेशन सोसायटी, जनसेवा शिक्षा समिति, शिव शिक्षा समिति चुरहट, मध्यप्रदेश आदिवासी बाल महिला कल्याण समिति, खादी ग्रामोद्योग सेवा आश्रम, हेल्थ एजुकेशन एंड डेवलपमेंट प्रोजेक्ट, महिला जागरण समिति, सतपुड़ा इंटीग्रेटेड रूरल डेवलपमेंट इंस्टीट्यूट, नव क्रांति शिक्षा समिति, मसीही माध्यमिक विद्यालय, कृषक महिला समाज पानधुक्रा, एसोशिएशन फार कंप्रेसिंव रूरल असिसटेंस, कैथोलिक संस्थान जसपुर अग्रिकोण परीक्षेत्र, लुथरन होस्टल, आदिवास विकास एवं प्रशिक्षण संस्थान,सरस्वती महिला कल्याण, कांग्रेगेशन ऑफ सिस्टर ऑफ द एडोरेशन ऑफ द ब्लेस्ड सिस्टर्स, गजेंद्र शिक्षा प्रसार समिति, सैन्ट जॉर्ज कांवेंट इंग्लिस स्कूल, महाकोशल महिला शिक्षा समिति, महिला कौशल शिक्षा समिति, जयशक्ति ट्रस्ट सागर, किशन सेवा समिति, संजय बाल सेवा, उद्योग मंडल गोहारा, आश्रय सर्विस फार रूरल पूर, द नागपुर, लतहारन मिशन ऑफ सोल्यूशन, शर सयैद एजूकेशनल एण्ड शोसल वेलफेयर सोसायटी, योगा रिसर्च इंन्सट्यूट, नेशनल भोपाल डास्टर रिलाफ आर्गनाइजेशनशन, सृजन वेलफेयर सोसायटी, पर्यावरण सुधार समिति, सेंटर फॉर एंटरप्रीनरशिप डवलपमेंट एम. पी. झरनेश्वर महिला विकास एण्ड शिक्षण समिति, ग्रामीण विकास परिषद, फेडरेशन ऑफ एम.पी. वूमेन एण्ड चाइल्ड वेलफेयर एजेंसीज, महारनी लक्ष्मी बाई भोपाल जन कल्याण समिति, मीडिया सेंटर इंटर नेशनल हाउस, नव आदर्श शिक्षा एण्ड ग्रामीण विकास समिति, एम.पी. सिस्टर सोसायटी, संदेश मिशन हॉस्पिटिल,बंजा बामिया डबलपमेंट प्रोजेक्ट, जनहित सेवा केंद्र, कस्तूरबा वनवासी कन्या आश्रम, एम.पी. पस्तोरस कॉर्नफ्रेंस, श्री शांति शिशु मंदिर समिति, स्कॉट मेमोरियल वूमेन होस्टल, सरस्वती सेंट्रल अकादमी एजूकेशनल सोसायटी, वोल्यूनटरी एण्ड डवलपमेंट सोसायटी, भोपाल डॉयोसेेस भ्लेज डवलपमेंट प्रोग्राम, केनेडियन प्रेसवाइटेरियन, मिशनरी कमेटी, मानव विकास विज्ञान केंद्र, हॉयर एजूकेशन लायब्रेरी प्रोजेक्ट, विश्वास कल्याण समिति, आदर्श शिशु बिहार, प्यारे लाल गुपता समिति ल्यूपिन मानव कल्याण एवं शोध संस्थान, नई किरन महिला परिषद आदि। विदेशी योगदान के आंकड़ों पर गौर करें तो ताजा आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2013-14 की तुलना में वर्ष 2014-15 में भारतीय गैर सरकारी संगठनों के लिए विदेशी धन दोगुनी हुई है, लेकिन 10,000 एनजीओ पंजीकरण के रद्द होने के साथ ही विदेशी योगदान में गिरावट होने की संभावना है। 26 जुलाई, 2016 को लोकसभा में पेश हुए आंकड़ों से पता चलता है कि, भारत को मिलने वाली विदेशी अनुदान में से 65 फीसदी हिस्सेदारी सामुहिक रुप से दिल्ली, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश (एकीकृत), कर्नाटक और केरल की है। विश्लेषण से पता चलता है कि चार वर्षों के दौरान यानी वर्ष 2011-12 से 2014-15 के बीच भारतीय गैर सरकारी संगठनों को विदेशी अनुदान के रूप में मिली 45,300 करोड़ रुपए में से 29,000 करोड़ रुपए राष्ट्रीय राजधानी और इन चार राज्यों (तेलंगना के बाद पांच) को प्राप्त हुआ है। पिछले चार वर्षों के दौरान, दिल्ली में संगठनों को 10,500 करोड़ रुपए मिले हैं जबकि तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र को 5,000 करोड़ रुपए प्राप्त हुए हैं। विकास में रोड़े बने एनजीओ आईबी की रिपोर्ट के अनुसार विदेशों से करोड़ों रुपए का फंड लेकर कुछ एनजीओ भारत की खराब तस्वीर विदेशों में प्रस्तुत कर रहे हैं। प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई आईबी रिपोर्ट में विदेशी अनुदान प्राप्त करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को देश की आर्थिक सुरक्षा के लिए खतरनाक करार देते हुए यहां तक कहा गया है कि जीडीपी में दो से तीन फीसदी की कमी के लिए यह एनजीओ जिम्मेदार हैं। केंद्र में मोदी सरकार का गठन होने के बाद से ही जिस तरह यह रिपोर्ट सामने आई उससे यह स्पष्ट है कि उसे पहले ही तैयार कर लिया गया होगा। आश्चर्य नहीं कि उसे जानबूझ कर दबाए रखा गया हो। एनजीओ को विदेशी सहायता लेने के लिए विदेशी सहायता नियामक कानून (एफसीआरए) के तहत गृह मंत्रालय से अनुमति लेनी होती है। इसके लिए एनजीओ को बताना पड़ता है कि विदेशी मदद का उपयोग सामाजिक कार्यों के लिए किया जाएगा। आईबी की रिपोर्ट से साफ है कि कुछ एनजीओ विदेशी सहायता का उपयोग सामाजिक कामों के लिए न कर देश आईबी की रिपोर्ट प्रधानमंत्री कार्यालय को तीन जून 2014 को सौंपी गई। हकीकत यह है कि अपने देश में गैर-सरकारी संगठन बनाना एक कारोबार बन गया है। अधिकांश संगठन ऐसे हैं जो बनाए किसी और काम के लिए जाते हैं लेकिन वह करते कु छ और हैं। शायद उनकी ऐसी ही गतिविधियों को देखते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय ने कुछ समय पहले यह कहा था कि 90 फीसदी एनजीओ फर्जी हैं और उनका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है। खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट एक और गंभीर बात कह रही है। उसके मुताबिक कई गैर-सरकारी संगठन विदेश से पैसा लेकर विकास से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध करते हैं। ग्रीन पीस इंटरनेशनल की भारतीय शाखा ग्रीन पीस इंडिया को कोयला और परमाणु ऊर्जा आधारित परियोजनाओं के विरोध के लिए ही जाना जाता है। इसी तरह कुछ और गैर-सरकारी संगठन ऐसे हैं जो हर बड़ी परियोजना का विरोध करते हैं। इन संगठनों की मानें तो न तो बड़े बांध और बिजली घर बनाने की जरूरत है और न ही अन्य बड़ी परियोजनाओं पर काम करने की। पर्यावरण की रक्षा की आड़ में गैर-सरकारी संगठन जिस तरह हर बड़ी परियोजना के विरोध में खड़े हो जाते हैं वह कोई शुभ संकेत नहीं है। यह सही है कि पर्यावरण की रक्षा जरूरी है लेकिन उसके नाम पर औद्योगिकीकरण को ठप कर देने का भी कोई मतलब नहीं है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सात ऐसे क्षेत्र हैं जिन्हें लक्षित कर यह एनजीओ आर्थिक विकास दर को नकारात्मक दिशा में ले जाएंगे। करीब 24 पेज की इस रिपोर्ट के मुताबिक जातिगत भेदभाव, मानवाधिकार उल्लंघन और बड़े बांधों के खिलाफ लामबंध यह एनजीओ सारा जोर विकास दर धीमी करने में लगे हैं। इनमें खनन उद्योग, जीन आधारित फसलों, खाद्य, जलवायु परिवर्तन और नाभिकीय मुद्दों को हथियार बनाया गया है। राष्ट्रहित से जुड़ी परियोजनाओं का विरोध करने वाले इन एनजीओ को अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, नीदरलैंड के अलावा नार्वे, स्वीडन, फिनलैंड और डेनमार्प जैसे देशों या उससे जुड़ी संस्थाओं से अनुदान मिलता है। भारत की कोयला खदानों और पावर प्रोजेक्ट का लगातार विरोध कर रही ग्रीनपीस को पिछले सात वर्षों में 45 करोड़ रुपए का फंड मिला है। इस संस्था का काम अब भारत में कोयले के खिलाफ माहौल खड़ा करना रह गया है। ग्रीन पीस ने एक प्राइवेट रिसर्च इंस्टीट्यूट को पैसा दिया कि वह मध्यप्रदेश के महान को लेकर स्वास्थ्य, प्रदूषण और दूसरे मुद्दों पर ऐसी रिपोर्ट दे, जिससे वहां की कोयला खदानों पर प्रतिबंध लगवाया जा सके। कई एनजीओ को ये धन भारत में न्यूक्लियर पावर प्लांट्स, यूरेनियम खदानों, ताप-विद्युत घरों, जीएम टेक्नोलॉजी, मेगा इंडस्ट्रियल प्रोजेक्ट (पॉस्को और वेदांता), हाइडेल प्रोजेक्ट (नर्मदा सागर, उत्तराखंड, अरुणाचल प्रदेश के प्रोजेक्ट) के विरोध के लिए दिया गया है। यह भी खुलासा हुआ है कि विदेशी दानदाताओं ने जानबूझकर एनजीओ के जरिए मानवाधिकार, विस्थापित लोगों के लिए सौदेबाजी कराई और लोगों के धार्मिक अधिकारों के नाम पर बवाल खड़े कराए। विदेशी दानदाताओं ने षड्यंत्रपूर्वक इन एनजीओ के जरिए भारत सरकार की नीतियों के खिलाफ फील्ड रिपोर्ट तैयार करवाईं, ताकि पश्चिमी देशों की विदेश नीतियां भारत विरोधी बनाने के लिए जमीन तैयार हो सके। आतंक और नक्सलवाद का बढ़ावा रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि माओवादियों से भी गठजोड़ है कुछ एनजीओ का। ये नियमानुसार जर्मनी, फ्रांस, हॉलैंड, तुर्की और इटली से फंड मंगाते हैं और उसे यहां पर आतंक फैलाने वाले माओवादियों को मुहैया करा देते हैं। कुछ माओवादी संगठन फिलिपींस और इंडोनेशिया से भी जुड़े हैं, जहां न सिर्फ उनकी ट्रेनिंग होती है, बल्कि फंड भी दिया जाता है। ये संगठन फिर अपने इलाके में पडऩे वाली कोयला खदानों और वहां के पावर स्टेशनों पर हमले करवाते हैं या फिर कामकाज प्रभावित करते हैं। एनजीओ के फ्रॉड और गैरकानूनी गतिविधियों में लिप्त होने के 24 केस सीबीआई को और दस केस राज्यों की पुलिस को सौंपे गए हैं। हालांकि, इन सब तमाम बातों के उलट ग्रीनपीस और उस जैसे एनजीओ के अपने तर्क और आरोप हैं। वे इस रिपोर्ट को सिरे से नकारते हुए कह रहे हैं कि ऐसा राजनेताओं और बिजनेसमैन के गठजोड़ के कारण हो रहा है। स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) पर आई खुफिया ब्यूरो की रिपोर्ट के बाद विदेशी फंड पर चलने वाली एनजीओ ने लॉबिंग शुरू कर दी है। उनकी तरफ से एक सुर में कहा जाने लगा है कि मोदी सरकार का मकसद एनजीओ पर लगाम लगाना है। इसके लिए गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए 9 सितंबर 2006 में एनजीओ को लेकर दिए गए नरेंद्र मोदी के भाषणों का उल्लेख किया जा रहा है, जिसमें उन्होंने एनजीओ संचालकों को नोबल पिपुल और फाइव स्टार एक्टिविस्ट कहा था और यह भी जोड़ा था कि देश में आज एक एनजीओ इंडस्ट्री खड़ी हो गई है, जिनकी इमेज बिल्डिंग के लिए बड़ी-बड़ी पीआर एजेंसियों की सहायता ली जा रही है। यूपीए शासन काल में शुरू हुई थी जांच विदेशी पैसे पर चलने वाली एनजीओ इंडस्ट्रीज भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर हमलावर हो, लेकिन एक दूसरा सच यह भी है कि आईबी ने इनकी जांच पूर्व सत्ताधारी यूपीए सरकार के कहने पर की थी, जो खुद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद् बनाकर देश की सारी योजनाओं को एनजीओ के हवाले करने में शामिल रही हैं। आईबी की रिपोर्ट को छोड़ भी दें तो हम पाते हैं कि पिछले 10 सालों में विदेशी पैसे पर चलने वाली एनजीओ की पूरी कार्यप्रणाली देश की विकास परियोजनाओं में रोड़ा अटकाने वाली रही है। इनकी पूरी गतिविधियों को तथ्यात्मक दृष्टिकोण से देखने पर प्रमाणित हो जाता है कि कुछ बड़े एनजीओ समाज सेवा में कम, विदेशी एजेंट की भूमिका में ज्यादा सक्रिय हैं। विदेशी एजेंट होने का आलम यह रहा कि विदेशी सहायता नियमन कानून (एफसीआरए) का उल्लंघन कर बिना पंजीकरण वाली कबीर एनजीओ को अमरीका की फोर्ड फाउडेशन कंपनी ने लाखों डॉलर का चंदा दे दिया। बाद में इसी कबीर के सर्वेसर्वा अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने पहली एनजीओ कार्यकर्ताओं वाली सरकार देश की राजधानी दिल्ली में बनाकर यह दर्शा दिया कि अमरीका व यूरोप न केवल देश की विकास परियोजनाओं को रोकने में सफल हो रहे हैं, बल्कि इन एनजीओ इंडस्ट्रीज के बल पर भारत के अंदर सरकार निर्माण तक की क्षमता हासिल कर चुके हैं। आईबी ने ग्रीनपीस की ही तरह ही कई और एनजीओ को देश के विकास का अवरोधक बताया है। उनमें से एक हैं मेधा पाटकर। वल्र्ड बैंक से फंडिंग और सर्वोच्च न्यायालय की अवहेलना कर नर्मदा बचाओ आंदोलन ने सरदार सरोवर परियोजना को बाधित किया। जिसकी वजह से यह परियोजना छ: साल तक लटकी रही। 1988 में योजना आयोग ने सरदार सरोवर परियोजना का बजट 6406.04 करोड़ रुपए निर्धारित किया था, लेकिन मेधा पाटकर के विरोध के कारण इस परियोजना की लागत बढते-बढ़ते वर्ष 2008 तक 39,240.45 करोड़ रुपए हो गई। मेधा पाटकर ने इस परियोजना को वनवासियों के लिए नुकसानदायक बताया था, लेकिन आज इस परियोजना के कारण ही दाहोद जिले में नर्मदा नदी से वनवासी फल व सब्जियों की खेती कर रहे हैं। तमिलनाडु के तिरुनेवेली जिले में स्थित कुुडनकुलम परमाणु ऊर्जा संयंत्र रूस के सहयोग से लगना है। आर्थिक संकट में फंसा अमरीका इस संयंत्र का ठेका चाहता था, लेकिन बाजी रूस के हाथ लग गई। जिसके बाद अमरीकी चंदे से कुुछ एनजीओ व बुद्घिजीवियों को इसके विरोध में खड़ा किया गया, जिसमें सबसे बड़ा नाम पी़. उदयकुमार का है। पी. उदयकुमार देश के एनजीओ के सबसे बड़े ब्रांड बने अरविंद केजरीवाल की आप पार्टी से कन्याकुमारी से लोकसभा चुनाव लड़ चुके हैं। पी. उदयकुमार ने विदेशी सहयोग से सड़क से लेकर अदालत तक इस परियोजना को रोकने की जबरदस्त कोशिश की, लेकिन आखिर में 6 मई 2013 को देश की सबसे बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय ने इन अमरीकी एजेंटों को निराश कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कुुडनकुलम परमाणु प्लांट को यह कहते हुए मंजूरी दे दी कि प्लांट लोगों के कल्याण और विकास के लिए है। इस परियोजना को रोकने में अमरीकी दिलचस्पी का खुलासा खुद पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किया था। पूर्व प्रधानमंत्री ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि, परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम इन एनजीओ के चलते समस्या में पड़ गया है। इन एनजीओ में से अधिकांश अमरीका के हैं। वे बिजली आपूर्ति बढ़ाने की हमारे देश की जरूरत को नहीं समझते। धर्मांतरण के नाम पर काला धंधा भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है लेकिन इस समय देश की इस निरपेक्षता पर सवाल खड़े होते नजर आ रहे हैं। हाल ही में एक आरटीआई के जरिए ये बात सामने आई थी कि कर्नाटक में धर्मांतरण के लिए ईसाई मिशनरीज सरकार से पैसे दिए जा रहे हैं। इस मामले पर कांग्रेस राज्य सरकार पर भी सवाल उठे हैं। वहीं, अब ये बात सामने आई है कि देश में धर्म परिवर्तन में कई एनजीओ शामिल है। ऐसे भी एनजीओ के बारे में जानकारी मिली है, जो हर छोटी मोटी घटना को सांप्रदायिक रंग देने की साजिश रचते हैं। आईबी की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है। वहीं, 18 विदेशी डोनर्स की पहचान हुई है जो धर्मपरिवर्तन के नाम पर एनजीओ को मदद कर रहे हैं। पुलिसकर्मियों से अधिक एनजीओ ! एनजीओ का धंधा कितना चोखा है इसका अंदाजा इसी से लगाया जाता सकता है कि देश मेें पुलिसकर्मियों की संख्या से अधिक तो एनजीओ हैं। केंद्र सरकार की ऐसे स्वयं सेवी संगठनों यानि एनजीओ पर तीखी नजर है, जो कागजों पर जन सेवा करके सरकारी कोष का दुरुपयोग करती आ रही है। हालांकि सरकार समय-समय पर ऐसी संस्थाओं को जांच के बाद काली सूची में डालने की सतत कार्यवाही करती आर रही है। केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों की योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए एनजीओ का सहारा भी लिया जाता है। जो अवैध कमाई का जरिया-सा बन गया है। दिलचस्प पहलू यह भी है कि कैग भी एनजीओ के पंजीकरण पर अपनी रिपोर्ट में सवाल खड़ा कर चुकी है। वहीं केंद्रीय जांच एजेंसी ने हाल ही में देश के भीतर एनजीओ की भारी संख्या को लेकर सवाल सुप्रीम कोर्ट को एक रिपोर्ट सौंपी है। सीबीआई की इस रिपोर्ट में 20 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों का ब्योरा जुटाने की बात कही गई है, जहां 22 लाख 45 हजार 655 एनजीओ काम कर रहे हैं। यह भी संभावना जताई गई है कि एनजीओ की वास्तविक संख्या इससे भी काफी अधिक हो सकती है, क्योंकि इस रिपोर्ट में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, ओडिशा, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे राज्यों के एनजीओ शामिल नहीं हैं। रिपोर्ट में शािमल एनजीओ में से 2 लाख 23 हजार 478 ने सोसायटी रजिस्ट्रार के पास अपना रिटर्न दाखिल किया है, जो करीब दस प्रतिशत आंका जा सकता है। यानि ऐसी संस्थाएं 10 प्रतिशत से भी कम अनुदान और खर्चे को लेकर बैलेंस शीट का ब्योरा जमा करवाते हैं। एक अनुमान के अनुसार 1.25 अरब की आबादी वाले भारत में औसतन 535 लोगों पर एक एनजीओ है, जबकि गृह मंत्रालय के आंकड़ों की माने तो देशभर में एक पुलिसकर्मी के हिस्से में 940 लोग आ रहे हैं। संसद के पिछले सत्र के दौरान एनजीओ को लेकर उठे सवालों में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री थांवर चंद गहलोत ने भी स्वीकार किया था एनजीओ सरकारी फंड में हेरफेर कर अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने की गतिविधियों में लिप्त हैं जिन पर नकेल कसने के लिए सरकार ने कवायद शुरू कर दी है। उनके अनुसार सरकारी धन का दुरुपयोग करने वाली एनजीओ के 26 मामले सामने आए थे, जिनमें से जांच के बाद चार एनजीओ को काली सूची मेें डाल दिये गए हैं और सरकार ऐसे एनजीओ को दंडित करने की तैयारी भी कर रही है। किस प्रदेश में कितने एनजीओ पर बैन आंध्र प्रदेश- 1404 अरुणाचल प्रदेश- 68 असम- 132 बिहार- 659 छत्तीसगढ़- 41 गोवा- 55 गुजरात- 515 हरियाणा- 97 हिमाचल प्रदेश- 68 ज मू और कश्मीर- 40 झारखण्ड- 123 कर्णाटक- 1070 केरल- 964 मध्य प्रदेश- 250 महाराष्ट्र- 1292 मणिपुर- 414 मेघालय- 42 मिजोरम- 17 नागालैण्ड- 89 ओडि़शा- 786 पंजाब- 75 राजस्थान- 251 सिक्किम- 10 तमिलनाडु- 1822 तेलंगाना- 664 त्रिपुरा- 14 उत्तर प्रदेश- 1212 उत्तराखण्ड- 50 पश्चिम बंगाल- 1106 अण्डमान और निकोबार द्वीपसमूह- 8 चण्डीगढ़- 41 दादरा और नगर हवेली- 1 दमन और दीव-1 दिल्ली- 666 पुदुच्चेरी- 20 9999999999999

अब मेरे पैरों के निशां कैसे हैं!

इस बार गर्मियों में मैं जब अपने गांव (मझरिया, जिला बक्सर, बिहार)गया था तो गंगा मईया की टूटती सांसे, काई के अंदर से रिसता पानी, मुर्दों को नोचते कुत्ते और इन सब के बीच नाले से भी गंदे पानी में लोटे से नहाकर गंगा स्नान की पुण्यता पाने का उपक्रम करते लोगों को देखकर मन रो उठा। फिर सवाल उठा क्या यही वह गंगा मईया हैं, ढाई दशक पहले जिनकी निर्मल जल राशि में पांव डालने से पहले हम आचमन किया करते थे? जी, बिलकुल नहीं। आज गंगा दुनिया के दस सबसे प्रदूषित नदियों में शामिल है। आज देश की पतित पावन इस मां स्वरूपा इस नदी की मलिनता देख देवता भी स्वर्ग में आंहे भर रहे होंगे। शायद गंगा मईया की भी यही स्थिति होगी और उनके मन में भी सवाल उठ रहा होगा कि.. ऐ सबा तू तो उधर से गुजरती होगी तू ही बता अब मेरे पैरों के निशां कैसे हैं लेकिन देर से ही सही अब गंगा मईया के सपूतों को उनकी यह दुर्दशा असहनीय हो गई है और उन्हें फिर से पावन करने का अभियान शुरू हो गया है। इसी कड़ी में नमामि गंगे प्रोजेक्ट के तहत गंगा को स्वच्छ और निर्मल बनाने के लिए आईआईटी कानपुर ने गंगा नदी के किनारे बसे शहर के पांच गांवों को गोद लिया है। यही नहीं आईआईटी कानपुर ने गंगा नदी को स्वच्छ और निर्मल बनाए जाने के लिए गंगोत्री से गंगासागर तक बसे शहरों के सभी 13 शिक्षण संस्थानों को पांच पांच गांव गोद लेने की बात कही है। कानपुर के जिन पांच गांवों को आईआईटी ने गोद लिया है उनमें रमेल नगर, ख्योरा कटरी, प्रतापपुर, हरी हिंदपुर और कटरी लोधवा खेड़ा गांव शामिल है। यह सभी गांव कानपुर में गंगा नदी के किनारे बसे है। इन गांवों को आदर्श गांव बनाए जाने की योजना है। इसके तहत इन गांवों के पानी की जांच की जाएगी और वहां लोगों को साफ पानी पीने के लिए मिले इसके लिए प्रयास किए जाएंगे। यहां की नालियों में गंदगी युक्त पानी नहीं बहेगा बल्कि बारिश का पानी बहेगा। ऐसे शौचालय बनाए जाएंगे जिससे गंदगी बाहर न निकले। गांव का गंदा पानी गंगा नदी में न जायें इसके लिए प्रयास किए जाएंगे। निश्चित रूप से आईआईटी कानपुर का यह कदम अन्य संस्थानों, संगठनों और लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत बनेगा। गंगा सिर्फ एक नदी का नाम ही नहीं, बल्कि यह जीवनदायिनी है। गंगा की लहरों ने न जाने कितनी सभ्यताओं व संस्कृतियों को बनते-बिगड़ते देखा। वैदिक काल से लेकर आधुनिक युग तक के उत्थान-पतन की गवाह है गंगा। राजनीति, अर्थनीति, सामाजिक व्यवस्था से लेकर धर्म, आध्यात्म, पर्यटन, पर्यावरण तक सब इससे प्रभावित होते रहे हैं। एक ही गंगा के न जाने कितने रूप हैं। हर कोई उसे अपने-अपने नजरिए से विश्लेषित करता है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। अगर इन सबकी बात न भी करें तो गंगा हर भारतीय के रग-रग में रची-बसी है। इसलिए गंगा के अस्तित्व को बचाने के लिए केवल सरकार, कुछ संस्थानों या संगठनों को ही नहीं अपितु पूरे देश को सार्थक कदम उठाना पड़ेगा। क्योंकि गंगा नदी का न सिर्फ सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व है बल्कि देश की 40 फीसदी आबादी गंगा नदी पर निर्भर है। 2014 में न्यूयॉर्क में मैडिसन स्क्वायर गार्डन में भारतीय समुदाय को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था, अगर हम इसे साफ करने में सक्षम हो गए तो यह देश की 40 फीसदी आबादी के लिए एक बड़ी मदद साबित होगी। अत: गंगा की सफाई एक आर्थिक एजेंडा भी है। दरअसल, विकास की अंध दौड़ में गंगा ही नहीं अन्य नदियां भी प्रदूषण की चपेट में हैं। इससे इनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। हरिद्वार से गंगा सागर तक की कहानी गंगा नदी में औद्योगिकी कचरे से जुड़ी है। गंगा नदी में 144 बड़े नाले गिरते हैं और पांच से 10 हजार छोटे नालों से गंदगी नदी में आती है। इसके साथ ही 1600 ग्राम पंचायत और 6000 गांव से निकलने वाली गंदगी भी स्थिति को गंभीर बनाते हैं। हालांकि केंद्र सरकार नेे गंगा नदी के प्रदूषण को समाप्त करने और नदी को पुनर्जीवित करने के लिए 'नमामि गंगेÓ नामक एक एकीकृत गंगा संरक्षण मिशन शुरू कर रखा है। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नदी की सफाई के लिए बजट को चार गुना करते हुए पर 2019-2020 तक नदी की सफाई पर 20,000 करोड़ रुपए खर्च करनेकी प्रस्तावित कार्य योजना को मंजूरी दे दी और इसे 100 प्रतिशत केंद्रीय हिस्सेदारी के साथ एक केंद्रीय योजना का रूप दिया। लेकिन उत्तरांचल में हिमालय से लेकर बंगाल की खाड़ी तक 2,071 किमी लंबी यात्रा करते हुए सहायक नदियों के साथ दस लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के अति विशाल उपजाऊ मैदान की रचना करने वाली गंगा नदी को बचाए रखने के लिए सामुहिक प्रयास की जरूरत है। इस नदी में मछलियों तथा सर्पों की अनेक प्रजातियां तो पाई ही जाती हैं मीठे पानी वाले दुर्लभ डालफिन भी पाए जाते हैं। यह कृषि, पर्यटन, साहसिक खेलों तथा उद्योगों के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देती है तथा अपने तट पर बसे शहरों की जलापूर्ति भी करती है। इसके तट पर विकसित धार्मिक स्थल और तीर्थ भारतीय सामाजिक व्यवस्था के विशेष अंग हैं। इसके ऊपर बने पुल, बांध और नदी परियोजनाएं भारत की बिजली, पानी और कृषि से संबंधित जरूरतों को पूरा करती हैं। वैज्ञानिक मानते हैं कि इस नदी के जल में बैक्टीरियोफेज नामक विषाणु होते हैं, जो जीवाणुओं व अन्य हानिकारक सूक्ष्मजीवों को जीवित नहीं रहने देते हैं। गंगा की इस असीमित शुद्धीकरण क्षमता और सामाजिक श्रद्धा के बावजूद इसका प्रदूषण रोका नहीं जा सका है। क्योंकि हमने कभी गंगा के दूषित होते रूप को गंभीरता से नहीं लिया। जबकि हमारे जीवन में गंगा का क्या महत्व है हम भलीभांति जानते हैं। फारसी भाषा में कहे गए इस शेर में भारत के लिए गंगा के महत्व को रेखांकित किया गया है... ऐ आबे-रूदे-गंगा तू आबरू-ए-हिंद अस्त। तू जिन्दगी-ए-मास्त तू रूहे-मुल्के हिंद अस्त।। यानी ऐ गंगा का पानी! तू हिन्दुस्तान की इज्जत है। तू हमारी जिन्दगी तो है ही, भारत की आत्मा भी है। लोगों को मोक्ष दिलाने वाली गंगा का पानी प्रदूषण के कारण काला पड़ रहा है। गंगा में प्रदूषण का एक प्रमुख कारण इसके तट पर निवास करने वाले लोगों द्वारा नहाने, कपड़े धोने, सार्वजनिक शौच की तरह उपयोग करने की वजह है। अनगिनत टैनरीज, रसायन संयंत्र, कपड़ा मिलों, डिस्टिलरी, बूचडख़ानों और अस्पतालों का अपशिष्ट गंगा के प्रदूषण के स्तर को और बढ़ा रहा है। औद्योगिक अपशिष्टों का गंगा के प्रदूषण में बढ़ता योगदान प्रमुख चिन्ता का कारण है। औद्योगिक कचरे के साथ-साथ प्लास्टिक कचरे की बहुतायत ने गंगाजल को बेहद प्रदूषित किया है। गंगा में 2 करोड़ 90 लाख लीटर प्रदूषित कचरा प्रतिदिन गिर रहा है। विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश की 12 प्रतिशत बीमारियों की वजह प्रदूषित गंगा का जल है। यह घोर चिन्तनीय है कि गंगाजल न पीने के योग्य रहा, न स्नान के योग्य और न ही सिंचाई के योग्य रहा है। गंगा की पराभव का अर्थ होगा, हमारी समूची सभ्यता का अन्त। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार गंगा के जल में आर्सेनिक, फ्लोराइड एवं क्रोमियम जैसे जहरीले तत्व बड़ी मात्रा में मिलने लगे हैं। गंगा नदी को स्वच्छ बनाने के लिए केन्द्र एवं राज्य सरकारों ने कई योजनाएं बनाई हैं। इन योजनाओं के तहत करोड़ों रुपए प्रदान किए गए हैं। लेकिन इतने खर्चे के बावजूद भी गंगा के पानी में प्रदूषण की मात्रा कम नहीं हुई। पर्यावरणविदों एवं वैज्ञानिकों के अनुसार जब तक गंदे नालों का पानी, औद्योगिक अपशिष्ट, प्लास्टिक कचरा, सीवेज, घरेलू कूड़ा-करकट आदि गंगा में गिरते रहेंगे तब तक गंगा का साफ रहना मुश्किल है। ऐसे में आईआईटी कानपुर ने गंगा किनारे के गांवों को गोद लेकर इस नदी को प्रदूषण मुक्त बनाने की योजना में जो कदम बढ़ाया है वह आगे मील का पत्थर साबित होगा। पतित पाविनी गंगा नदी के अस्तित्व को बचाने एवं प्रदूषण को समाप्त करने हेतु आम आदमी की जागरुकता एवं प्रयास अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। सरकार चाहे जो योजना बना ले जब तक आम जन-मानस की सहभागिता नहीं होगी तब तक इन योजनाओं की सफलता पर प्रश्नचिन्ह लगा रहेगा। इसलिए हम सभी को गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के अभियान में सहभागी बनना पड़ेगा। क्योंकि शायर नजीर बनारसी साहब अपने एक शेर में कहते हंै... सोएंगेे तेरी गोद में एक दिन मरके, हम दम भी जो तोड़ेंगे तेरा दम भर के, हमने तो नमाजें भी पढ़ी हैं अक्सर, गंगा तेरे पानी से वजू कर करके।

Saturday, July 2, 2016

बॉक्साइट, तेंदूपत्ता और अफीम से पोषित हो रहा लाल आतंक

केंद्रीय खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट से उड़े सरकार के होश
अफीम माफिया और नक्सलियों ने तैयार किया अपना नेटवर्क
मध्य प्रदेश के छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र के कुछ सीमावर्ती इलाकों में नक्सली गतिविधियां फिर तेज हो गई हैं। केंद्र सरकार के खुफिया विभागों ने राज्य को रिपोर्ट भेजी है कि बॉक्साइट, तेंदूपत्ता और अफीम की वैकल्पिक अर्थव्यवस्था विकसित हो रही है, जिसका सीधा लाभ नक्सली समूह अपनी गतिविधियां बढ़ाने और संगठन को मजबूत करने में कर रहे हैं। तेंदू पत्ता संग्रहण के दौरान ठेकेदारों से लेवी वसूलने के साथ ही नक्सलियों की नजर बॉक्साइट खदानों से अवैध वसूली पर भी है। खुफिया जानकारी के अनुसार मध्य प्रदेश के बालाघाट, मंडला, सतना, रीवा, कटनी, सीधी और अनूपपुर जैसे जिलों में पिछले कुछ वर्षों में नक्सली गतिविधियां बढ़ी हैं। काले कारोबार को बढ़ाने के लिए अफीम की खेती का सहारा भी नक्सली ले रहे हैं। यह सारी गतिविधियां मध्य प्रदेश के नक्सल प्रभावित जिलों में भी तेजी पकड़ रही है।
विनोद कुमार उपाध्याय/बिच्छू डॉट कॉम
भोपाल (डीएनएन)। पिछले कुछ वर्षों तक शांत रहने के बाद एक बार फिर मप्र में लाल आतंक पैर पसारने लगा है। मप्र के बालाघाट जिले में पिछले एक साल से नक्सली अपने आप को मजबूत करने में लगे हुए थे लेकिन प्रदेश सरकार को इसकी भनक तक नहीं लगी। केंद्र के पास पहुंची खुफिया रिपोर्ट के बाद जब इसकी खबर मप्र पहुंची तो पुलिस के हाथ-पैर फुल गए। रिपोर्ट में बताया गया है कि जिस खनिज संपदा पर मप्र, छत्तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा नाज करते हैं वही आज इनके लिए अभिशाप बन गई है। खुफिया विभाग से मिली रिपोर्ट के अनुसार इन राज्यों की खनिज संपदा, वन उत्पाद और अफीम के वाले कारोबार से लाल आतंक यानी नक्सलवाद बढ़ रहा है। रिपोर्ट के अनुसार, म326892-woman-naxalप्र, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में एक नए किस्म का नक्सलवाद जन्म ले चुका है जो काली कमाई के कारोबार में जुट गया है। नक्सलियों का यह समूह मप्र के बॉक्साइट की खान वाले क्षेत्रों बालाघाट, मंडला, अनूपपुर, सतना, रीवा, कटनी और सीधी, छत्तीसगढ़ के बिलासपुर, दुर्ग, रायपुर और कोण्डागांव, झारखंड के लोहरदग्गा, गुमला और सुंदरगढ़ और ओडिशा के कालाहांडी में पिछले कुछ वर्षों में पनपा है। साथ ही मप्र और छत्तीसगढ़ के तेंदूपत्ता उत्पादन वाले क्षेत्रों में सक्रिय हैं। मप्र में बालाघाट, सीधी, सिंगरौली, मंडला, डिंडौरी, शहडोल, अनूपपुर और उमरिया नक्सल प्रभावित जिले माने जाते हैं। कुछ साल पहले केंद्र और राज्य सरकार ने मान लिया कि प्रदेश में नक्सलवाद का प्रभाव नहीं है लेकिन खात्मे की कगार पर पहुंच चुके नक्सलवाद को तेंदूपत्ता के काले कारोबार से कमाई का ऐसा चस्का लगा कि वह मप्र के जंगलों से निकलकर छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड तक के जंगलों में तेंदूपत्ता पर लेवी वसूलने के साथ बॉक्साइट के काले कारोबार में लग गया है। नक्सली बॉक्साइट की खदानों में खनन कार्य करने वाली कंपनियों से न केवल लेवी वसूलते हैं बल्कि उनके काले कारोबार को संरक्षण प्रदान करते हैं। मप्र से सालाना 200 करोड़ की कमाई: पुलिस, वन और खनिज विभाग के साथ ही स्थानीय लोगों से बातचीत में यह तथ्य सामने आया कि मप्र के बालाघाट, मंडला, अनूपपुर, सतना, रीवा, कटनी और सीधी में स्थित बॉक्साइट की खदानों से नक्सलियों को हर साल करीब 200 करोड़ की लेवी और काली कमाई हो रही है। पुलिस अधिकारियों का कहना है कि डकैत प्रभावित रीवा, सतना, कटनी और सीधी में डकैतों का आतंक कम होते ही नक्सली अपनी गतिविधियां बढ़ाने लगे हैं। आलम यह है तेंदूपत्ता की तुड़वाई के सीजन नक्सली तो इन क्षेत्रों में डेरा डाल देते हैं। नक्सली गतिविधियों की जानकारी रखने वालों का कहना है कि बॉक्साइट और तेंदूपत्ता से होने वाली कमाई से नक्सली आधुनिक हथियारों को खरीद कर अपने नेटवर्क को मजबूत कर रहे हैं। आज मप्र में नक्सली बालाघाट, सीधी, सिंगरौली, मंडला, डिंडौरी, शहडोल, अनूपपुर और उमरिया जिलों के अतिरिक्त जबलपुर, कटनी, सिवनी, छिंदवाड़ा और बैतूल में भी कई तरह के संगठन काम कर रहे हैं। मालवा-निमाड़ के आदिवासी जिले धार-बड़वानी में नक्सली से हटकर दूसरे तरह की गतिविधियां सामने आ चुकी हैं। गोपनीय तरीके से बड़ी योजना पर काम शुरू बालाघाट में वर्चस्व गंवा चुके नक्सली संगठन पीपुल्स वार ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) ने दोबारा अपना दबदबा बनाने के लिए गोपनीय तरीके से एक बड़ी योजना पर काम करना शुरू कर दिया है। पुलिस सूत्रों ने बताया कि नक्सलियों ने इस जिले को अपनी दमदार मौजूदगी वाले महाराष्ट्र के गढ़चिरौली डिविजन में शामिल कर अपने पुराने तीनों दलम मलाज खंड, परसवाड़ा और टांडा की गतिविधियां तेज कर दी है। नक्सलियों की योजना छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र की सीमा से लगे बालाघाट जिले को अपना डिविजनल मुख्यालय बनाकर इसे पश्चिम बंगाल के लालगढ़ के अभेद्य दुर्ग की तरह बनाने की तैयारी है। बालाघाट में पिछले कुछ साल में नक्सलियों के केवल एक दलम मलाजखंड की सक्रियता देखी गई है। इसमें नक्सलियों की संख्या आमतौर पर 14 या 15 ही रही है। जबकि यहां पूर्व में सक्रिय रहे परसवाड़ा और टांडा दलम की यहां मौजूदगी न के बराबर ही बची थी। लेकिन पिछले कुछ माह से यहां नक्सलियों के चार-पांच ग्रुपों के मौजूद होने की खबरें पुलिस को मिल रही हैं। इन ग्रुपों ने लांजी और पझर थाना क्षेत्र के अलावा भरवेली, हट्टा, बैहर, किरनापुर और बालाघाट के ग्रामीण थाना क्षेत्रों में भी मूवमेंट बढ़ा दी है। बालाघाट के एसपी गौरव कुमार तिवारी कहते हैं कि नक्सलियों की गतिविधियों को पूरी तरह समाप्त करने की दिशा में पुलिस एक्शन प्लान भी चला रही हैं। जंगलों में सर्चिग हो रही है। बॉक्साइट खान पर नक्सलियों की कुंडली बॉक्साइट शुरू से ही नक्सलियों के आकर्षण का केंद्र रहा है। नक्सली अविभाजित मप्र के दौर से ही बॉक्साइट को अपनी कमाई का जरिया बनाते आ रहे हैं। देश का सबसे अच्छा बॉक्साइट भंडार छत्तीसगढ़ के कोंडागांव जिले में मौजूद है। केशकाल ब्लॉक के कुएमारी क्षेत्र को नक्सल प्रभावित क्षेत्र में शामिल किया गया है। यहां दिन के समय भी माओवादियों का आतंक रहता है। यहां 1996 में नक्सलियों ने उत्पात मचाते हुए अपनी मौजूदगी दर्ज करवाई थी। 1980 से 1996 तक काम भी चला है, लेकिन 1996 के बाद से यह इलाका माओवादियों के कब्जे में है। नक्सलियों का प्रतिबंधित संगठन उत्तर बस्तर डिविजन और केशकाल एरिया कमेटी इस क्षेत्र में सक्रिय है। दोनों माओवादी संगठनों ने यहां लंबे समय से अपना अधिकार जमाए हुए है और इस क्षेत्र से जाना नहीं चाहते। ग्रामीणों को रोजगार दिलाने के उद्देश्य से कुदालवाही प्लांट को दोबारा शुरू करवाया जा रहा है। इसके लिए पुलिस जवान लगातार यहां सर्चिंग कर रहे हैं, लेकिन माओवादी इससे नाखुश होते हुए 8 जून को जिले का सबसे बड़ा आईईडी बम प्लांट किया था। जवानों की सक्रियता ने बम को ढूंढ़ निकाला गया था। इस इलाके में माओवादी गतिविधि व बम का मिलना इस बात की ओर इशारा करता है कि माओवादी यहां किसी भी तरह के घुसपैठ पसंद नहीं कर रहे। कोंडागांव एसपी संतोष सिंह के मुताबिक प्रदेश गठन से कई साल पहले 1980 के (पूर्व मध्य प्रदेश) खनिज विभाग ने केशकाल ब्लॉक के कुएमारी के कुदालवाही के दो स्थानों को प्राकृतिक बॉक्साइट भंडार क्षेत्र घोषित किया। 1980 में मध्य प्रदेश खनिज विभाग ने इसे इकबाल फारूकी को 74 प्रतिशत और 26 प्रतिशत खुद के मालिकाना हक पर लीज पर दे दिया। इस बॉक्साइट प्लांट के ऑफिस में तोड़-फोड़, गाडिय़ों में आगजनी के बाद प्लांट को बंद करवा दिया गया। माओवादियों के कब्जे वाले कुदालवाहीं, कुएमारी समेत घोड़ाझर, उपरचंदेली, बावलीपारा, नंदगट्टा आदि को मुक्त करवाने के लिए एसपी संतोष सिंह विशेष कार्य योजना चला रहे हैं। क्षेत्र में पुलिस का दबाव बढ़ते ही नक्सलियों ने मप्र का रूख करना शुरू कर दिया और बालाघाट को अपना सेंटर बनाने में जुट गए हैं। 50 लाख का इनामी नक्सली फैला रहा है दहशत मध्यप्रदेश के नक्सल प्रभावित जिले बालाघाट में नक्सलियों के एक समूह ने तेंदूपत्ता मजदूरी बढ़ाए जाने की मांग करते हुए बांस ढुलाई में लगे एक ट्रक को आग के हवाले कर दिया। बालाघाट के पुलिस अधीक्षक गौरव तिवारी ने बताया कि लॉजी से लगभग 45 किमी दूर छत्तीसगढ़ की सीमा के करीब धीरी मुरुम इलाके में 30 से 35 नक्सलियों के समूह ने इस वारदात को अंजाम दिया है। पुलिस अधीक्षक ने बताया कि खैरागढ़ किसान मजदूर संगठन का डिविजनल कमांडेंट अशोक उर्फ पहाड़ सिंह भी इस वारदात में शामिल था। उस पर 50 लाख का इनाम है। नक्सलियों ने बांस ढुलाई के काम में लगे एक ट्रक के कर्मचारियों को वाहन छोड़कर अपने उपयोग का सामान लेकर भागने को कहा। इन्हीं कर्मचारियों ने लॉजी थाने पहुंचकर नक्सलियों के संबंध में जानकारी दी और कुछ परचे भी सौंपे। तिवारी ने बताया कि इन नक्सलियों का खैरागढ़ किसान मजदूर संगठन से नाता है। इन्होंने ट्रक के स्टाफ को जो परचे दिए हैं, उनमें तेंदूपत्ता तुड़ाई की मजदूरी बढ़ाने की मांग की गई है। बांस ढुलाई में लगे ट्रक को आग के हवाले करने के बाद नक्सली छत्तीसगढ़ की ओर भाग गए। बालाघाट जिले में पिछले एक पखवाड़े में नक्सलियों की गतिविधियों में अचानक तेजी आई है। इससे पहले नक्सलियों ने एक सरपंच के पति को मनरेगा की मजदूरी का जल्दी भुगतान करने की हिदायत दी थी। जंगलों में उतरी तीन राज्यों की पुलिस: बालाघाट जिले के जंगलों में पनाह लिए नक्सलियों का सफाया करने अब पुलिस जंगलों में उतर गई है। इधर, तीन राज्यों का ज्वाइंट ऑपरेशन भी शुरू कर दिया गया है। मप्र के अलावा छग और महाराष्ट्र राज्य की पुलिस जंगलों में सर्चिंग कर रही है। वहीं सीमावर्ती क्षेत्रों को सील कर थाना-चौकियों में तैनात अमले को अलर्ट कर दिया गया है। पांच ट्रकों को जलाने की नक्सली वारदात के बाद जहां पुलिस और ज्यादा अलर्ट हो गई है। वहीं नक्सलियों के चिह्नित स्थानों पर दबिश भी दे रही है। हालांकि, पुलिस को अभी सफलता नहीं मिल पाई है। एसपी तिवारी ने बताया कि 14 जून को वारदात करने वाले नक्सलियों की शिनाख्त हो गई है। मौके पर मौजूद ग्रामीणों को नक्सलियों के फोटो दिखाकर उनकी शिनाख्त कराई गई है। इसके आधार पर नामजद नक्सलियों के खिलाफ प्रकरण भी दर्ज किया गया है। नक्सलियों के हर दल में महिला सदस्य: जिले में पनाह लिए नक्सली अलग-अलग दलों में बंटे हुए हंै। वे वारदात को भी दलवार ही अंजाम दे रहे हैं। 14 जून को भी हुई वारदात इसका उदाहरण बनी हुई है। एसपी तिवारी के अनुसार 14 जून को भी नक्सली दो अलग-अलग दलों में बंटे हुए थे। इसमें एक दल में 15-20 नक्सली मौजूद थे। जबकि दूसरे दल में करीब 17 नक्सली थे। दोनों ही दलों में महिला नक्सली भी शामिल हैं। उधर, जिले में लगातार बढ़ रही नक्सली वारदात के बाद अब तीन राज्यों की पुलिस ज्वाइंट ऑपरेशन चला रही है। इसमें एमपी की सीमा में प्रदेश की पुलिस सर्चिंग कर रही है। वहीं छत्तीसगढ़ राज्य में वहां की पुलिस नक्सलियों की घेराबंदी कर रही है। इधर, महाराष्ट्र राज्य की भी पुलिस प्रदेश की सीमा से लगे क्षेत्र के जंगलों की खाक छान रही है। एसपी तिवारी के अनुसार तीनों ही राज्यों की पुलिस आपसी सामांजस्य स्थापित कर सर्चिंग कर रही है। ताकि किसी भी प्रकार से ऑपरेशन में गलतफहमी पैदा न हो। एसपी ने संभावना जताई है कि शीघ्र ही पुलिस को बड़ी सफलता मिल सकती है। तेंदूपते से हर साल करोड़ों की कमाई: मप्र में तेंदूपते की तुड़ाई शुरू होते ही नक्सली वन क्षेत्र में सक्रिय हो जाते हैं और समितियों और ठेकेदारों से करोड़ों रुपए की लेवी बटोर ले जाते हैं। वन विभाग के सूत्रों के अनुसार 94,668 वर्ग किलोमीटर में फैले प्रदेश के वन क्षेत्र में हर साल अच्छी गुणवता वाले करीब 35 लाख बोरा तेंदूपत्ता उत्पादित होता है। लेकिन पिछले कुछ साल से सरकारी खाते में मात्र 16 लाख बोरा ही पहुंच पा रहा है। 19 लाख बोरा तेंदूपता यानी 237.50 करोड़ रुपए का हरा सोना कहां जा रहा है किसी को नहीं मालुम। अगर अंतराष्ट्रीय मानक से देखें तो 760 करोड़ रुपए होता है। आलम यह है कि सरकार की तमाम कोशिशों के बावजूद न तो प्रदेश के राजस्व में वृद्धि हो पा रही है और न ही तेंदूपत्ता मजदूरों की माली हालत सुधर पा रही है। जबकि सरकार हर साल करोड़ों रुपए का बोनस भी बांट रही है। दरअसल, सफेदपोश, माफिया, ठेकेदारों के गठबंधन की अवैध कमाई में से नक्सली हर साल लेवी वसूलने जंगलों में उतरते हैं। नक्सलवाद के लिए संजीवनी बना अफीम मध्यप्रदेश का मालवांचल हमेशा से सिमी का गढ़ रहा है। भले ही पुलिस दावे करे कि मालवांचल सहित पूरे प्रदेश में सिमी के गढ़ को नेस्तानाबूत कर दिया गया है, लेकिन राख में आग अभी भी सुलग रही है। खूफिया सूत्रों की माने तो पुलिस के तेज होते पहरे के बीच सिमी कार्यकर्ताओं ने नक्सलियों से हाथ मिला लिया है और उन्हें आर्थिक सहायता पहुंचा रहे हैं। इसमें सिमी का साथ दे रहे हैं प्रदेश में अफीम की अवैध खेती करने वाला माफिया। मध्य प्रदेश के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी कहते हैं कि भारत में अफीम की खेती नक्सलवाद के लिए आर्थिक आधार का प्रमुख स्रोत हो गया है कि मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान में अफीम की खेती के कारोबार के जरिए नक्सली अपने लिए धन जुटा रहे हैं। भारत में वैसे तो अफीम की खेती तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में की जाती है। लेकिन अभी भी सबसे अधिक अफीम का उत्पादन मध्यप्रदेश के दो जिलों नीमच और मंदसौर में होता है। हालांकि अफीम की खेती करने वालों पर पुलिस की नजर रहती है, लेकिन सूत्र बताते हैं कि अपनी लचर प्रणाली और सांठ-गांठ के कारण वह अवैध खेती पर अंकुश नहीं लगा पा रही है। जिसके कारण यहां हो रही अफीम की अवैध खेती की कमाई नक्सलियों को पहुंचाई जा रही है। गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती मध्यप्रदेश और राजस्थान के अलावा कहीं और अफीम की खेती करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। किंतु अब उत्तर प्रदेश में भी इसकी खेती होने लगी है। हाल ही में इस श्रेणी में बिहार और झारखंड का नाम भी शामिल हो गया है। दरअसल, बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती की जा रही है। अफीम की खेती के लिए सबसे उपयुक्त जलवायु ठंड का मौसम होता है। इसके अच्छे उत्पादन के लिए मिट्टी का शुष्क होना जरूरी माना जाता है। इसी कारण पहले इसकी खेती सिर्फ मध्य प्रदेश और राजस्थान में ही होती थी। हालांकि कुछ सालों से अफीम की खेती उत्तर प्रदेश के गंगा से सटे हुए इलाकों में होने लगी है, पर मध्य प्रदेश और राजस्थान के मुकाबले यहां फसल की गुणवत्ता एवं उत्पादकता अच्छी नहीं होती है। अफीम की खेती पठारों और पहाड़ों पर भी हो सकती है। अगर पठारों और पहाड़ों पर उपलब्ध मिट्टी की उर्वरा-शक्ति अच्छी होगी तो अफीम का उत्पादन भी वहां अच्छा होगा। इस तथ्य को बिहार और झारखंड में कार्यरत नक्सलियों ने बहुत बढिय़ा से पकड़ा है। वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद, नवादा, गया और जमुई में और झारखंड के चतरा तथा पलामू जिले में अफीम की खेती चोरी-छुपे तरीके से की जा रही है। इन जिलों को रेड जोन की संज्ञा दी गई है। ऐसा नहीं है कि सरकार इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। पुलिस और प्रशासन के ठीक नाक के नीचे निडरता से नक्सली किसानों के माध्यम से इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं। प्रतिवर्ष इस रेड जोन से 70 करोड़ राजस्व की उगाही नक्सली कर रहे हैं। मप्र के अफीम से उड़ता पंजाब चाहे आतंकवाद हो या नक्सलवाद, उनके भरण-पोषण का एक बड़ा आधार अफीम का अवैध धंधा है। अब नशीले पदार्थों की तस्करी आम आपराधिक या तस्कर गिरोहों के हाथ में नहीं रही। नक्सलियों और आतंकवादी संगठनों ने इस पर कब्जा कर लिया है। इनके तार अफगानिस्तान और दूसरे अंतरराष्ट्रीय ड्रग माफिया से जुड़े हैं। इनके माध्यम से हेरोइन, मॉर्फिन आदि मुंबई के रास्ते अंतरराष्ट्रीय बाजार तक पहुंचता है। लेकिन मप्र के अफीम का दुष्प्रभाव अगर सबसे अधिक किसी पर पड़ा है तो वह है- पंजाब। मप्र से पंजाब में लगातार स्मैक, हेरोइन, चरस व अफीम पहुंच रहा है और वहां की युवा पीढ़ी को नशे से खोखला कर रहा है। पंजाब सरकार कई माह पहले ही ग्वालियर स्थित नारकोटिक्स कमिश्नर को पत्र लिखकर अफीम की पैदावार कम करने का आग्रह कर चुकी है। पंजाब में स्मैक, हेरोइन, चरस व अफीम के नशे ने हजारों परिवारों को बर्बाद कर दिया है। ऐसे में पंजाब सरकार अफीम की पैदावार घटाने पर दबाव बना रही है तो दवा कंपनियां इसकी पैदावार बढ़ाने पर। पंजाब के पुलिस महानिदेशक सुरेश अरोरा कहते हैं कि अफीम और नशे की समस्या तो है। हमने इसके लिए रेलवे स्टेशन और बस स्टैंड्स पर चौकसी बढ़ाने को कहा है। वहीं डायरेक्टर स्टेट नारकोटिक कंट्रोल ब्यूरो आईजी ईश्वर सिंह कहते हैं कि विभाग ने मप्र के नारकोटिक विभाग को पत्र लिखा है। वहां की सरकार क्या कदम उठा रही है, हमें नहीं मालूम। गत वर्ष नारकोटिक्स कमिश्नर मुख्यालय ग्वालियर ने मध्यप्रदेश के मंदसौर व रतलाम सहित राजस्थान के कोटा व उत्तर प्रदेश के लखनऊ को कुल 3000 क्विंटल अफीम का उत्पादन लक्ष्य रखा था। किसानों से ये अफीम 900 से 3500 रुपए के बीच खरीदी गई। इसे दवा कंपनियों में सप्लाई कर दिया गया, लेकिन समस्या यहीं से शुरू हो गई। कई किसानों ने तस्करों से साठगांठ कर 10 हजार रुपए प्रति किलोग्राम के भाव से अफीम बेच दी। यहां से ये अफीम ड्रग लॉर्ड या ड्रग माफिया के पास पहुंच गई। वहां इसे स्मैक व हेरोइन में प्रोसेस कर 25 लाख से एक करोड़ रुपए प्रति किलोग्राम के भाव से सप्लाई किया जाता है। एजेंट इसे कॉलेज, स्कूलों व युवाओं के क्लब आदि में पुडिय़ा बनाकर सप्लाई करते हैं। इस धंधे में एक रुपए का माल एक लाख का फायदा देता है, इसलिए मृत्युदंड तक के प्रावधान के बाद भी इसका कारोबार थमने का नाम नहीं ले रहा है। 12,500 करोड़ का अवैध धंधा… मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश के कुछ जिलों में ही अफीम की खेती होती है। वह भी केंद्र सरकार की अनुमति से। लेकिन पंजाब जैसे जो भी राज्य नशीले पदार्थों की तस्करी की समस्या से जूझ रहे हैं, वह चाहते हैं कि अफीम की खेती को कम किया जाए। वहीं दवा कंपनियां इनके उत्पादन को बढ़ाने की मांग कर रही हैं। वैध के साथ-साथ अवैध धंधा भी फल-फूल रहा है। एक आंकड़े के अनुसार यह करीब 12.50 हजार करोड़ रुपए तक का है। कई तस्करों के नक्सली गिरोहों से जुडऩे का अंदेशा पुलिस लगा रही है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि पिछले कुछ वर्षों में सौ से ज्यादा तस्कर फरार हो चुके हैं। उनका कोई निशान नहीं मिल रहा है। इससे खुफिया एजेंसियों को शक है कि यह लोग नक्सली ग्रुप्स में शामिल होकर अवैध गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं। इतनी जानकारी होने के बाद भी नारकोटिक्स विभाग कुछ नहीं कर पा रहा है। नारकोटिक्स कमिश्नर मुख्यालय ग्वालियर में पदस्थ एक अफसर के अनुसार इस धंधे पर लगाम लगाना आसान नहीं हैं। वह कहते हैं कि मप्र में अफीम, स्मैक, हेरोइन व अन्य नशीले पदार्थों का अवैध कारोबार करीब 12,500 करोड़ का है। इस कारोबार को माफिया नक्सलियों से सांठ-गांठ कर रहे हैं। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है की जंगलों के रास्ते माल को एक-जगह से दूसरी जगह आसानी से पहुंचाया जा सकता है। उक्त अधिकारी कहते हैं कि गत एक वर्ष में विभाग ने 100 करोड़ रुपए से अधिक की स्मैक, हेरोइन व अन्य नशीले पदार्थ जब्त किए हैं लेकिन मार्केट में सप्लाई होने वाले माल का एक प्रतिशत भी नहीं हैं। दुनिया के अलग-अलग देशों में अफीम से तैयार की जाने वाली स्मैक, हेरोइन, ब्राउन शुगर जैसे ड्रग्स बेचने या उनका इस्तेमाल करने पर सजा-ए-मौत तक का प्रावधान है। इसमें सबसे ज्यादा कठोर कानून अरब देशों में है, जहां सीधे ही तस्करों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। इसके अलावा नॉर्थ कोरिया, फिलीपींस, मलेशिया जैसे देशों में भी यही कानून है। चीन, वियतनाम, थाईलैंड सरीखे देशों में तस्करों व ड्रग एडिक्ट को रीहेबिलिटेशन सेंटर या जेल में लंबे समय के लिए डाल दिया जाता है। भारत में ड्रग्स के केस में एनडीपीएस एक्ट 1985 के तहत अलग-अलग सजा के प्रावधान हैं। इसमें धारा 15 के तहत एक साल, धारा 24 के तहत 10 की सजा व एक लाख से दो लाख रुपए तक का जुर्माना और धारा 31ए के तहत मृत्युदंड तक का प्रावधान है। कहां गायब हो गए 109 अफीम तस्कर: नीमच और मंदसौर हमेशा से अफीम व डोडा-चूरा की तस्करी का अड्डा रहे हैं। इन दोनों जिलों में देश के विभिन्न राज्यों के तस्कर आते रहते हैं। लेकिन पिछले कुछ सालों से 109 तस्कर फरार हैं। आशंका जताई जा रही है कि कहीं ये तस्कर नक्सलियों के ग्रुप में तो शामिल नहीं हो गए हैं। इनमें से नीमच जिले के थानों के रिकॉर्ड में करीब 79 तस्कर फरार है। इसमें राजस्थान के 36, हरियाणा के 5, पंजाब के 4 और यूपी-महाराष्ट्र का एक-एक तस्कर फरार है। वहीं मंदसौर के थानों में 30 तस्कर फरार हैं। नीमच एसपी मनोज सिंह ने कुख्यात तस्कर कमल राणा के नेटवर्क के रिकार्ड को खंगालने के साथ ही अब जिले के थानों क्षेत्रों से फरार तस्करों की जन्मकुंडली भी निकालना शुरू कर दी है। 2003 से लेकर मई 2016 तक रिकार्ड निकाला गया है। पुलिस रिकार्ड के अनुसार जिले के नीमच कैंट थाने में 19, नीमच सिटी में 7, बघाना में 7, जीरन में 8, जावद में 18, रतनगढ़ में 6, सिंगोली में 3, मनासा में 8 और कुकड़ेश्वर थाने में 3 तस्कर फरार है। जिले के सभी थानों से 79 तस्कर फरार है और इसमें कुख्यात तस्कर कमल राणा भी शामिल है। तस्करों पर एनडीपीएस एक्ट की धाराओं में मुकदमे दर्ज है। कोई 2003 से फरार चल रहा है तो कोई 2005 से और कोई 2016 में फरार हुआ है। एसपी मनोजसिंह ने बताया नीमच जिले के थानों से करीब 79 तस्कर फरार है और उन्हें पकडऩे के लिए योजना बनाई जा रही है। हमारा प्रयास है तस्करों को गिरफ्तार किया जाए। तीन हजार टन प्रतिवर्ष है खेती अफीम की खेती के लिए सेंट्रल ब्यूरो ऑफ नारकोटिक्स द्वारा किसानों को लाइसेंस दिए जाते हैं। वैधानिक रूप से सिर्फ तीन राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान व उत्तर प्रदेश में ही अफीम की खेती के लिए 40 हजार से अधिक किसानों को लाइसेंस दिए गए हैं। वर्तमान में मध्यप्रदेश के मंदसौर व नीमच, राजस्थान के कोटा, झालावाड़, चित्तौडग़ढ़, भीलवाड़ा व प्रतापगढ़ और उत्तर प्रदेश के लखनऊ व बाराबंकी में साढ़े पांच हजार हेक्टेयर में अफीम की खेती का रकवा तय किया गया है। वर्ष 2015-16 में मध्यप्रदेश व राजस्थान में 58 किलो और उत्तर प्रदेश में 52 किलो प्रति हेक्टेयर की उपज हुई थी। देश में प्रतिवर्ष तीन हजार टन अफीम की खेती की जाती है। जेल के अंदर से गैंग चला रहा तस्कर अफीम की तस्करी में लगे तस्करों का नेटवर्क कितना मजबूत है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कुख्यात तस्कर बंशी गुर्जर पिछले कई महीनों से नीमच जेल से ही अपनी गैंग चला रहा था, वह भी जेल के फोन से। बंशी ने जेल के फोन से अपने साथियों को 93 कॉल किए। जेल में एक कैदी 8 कॉल कर सकता है। बंशी ने जेल प्रशासन की मिलीभगत से दूसरे कैदियों के कोटे के कॉल भी कर लिए। यह खुलासा हुआ है जेल प्रशासन के लैंडलाइन फोन नंबर के रिकॉर्ड की जांच में। पुलिस की पूछताछ में तस्कर बंशी गुर्जर ने भी यह बात स्वीकारी है। दरअसल, जावद पुलिस ने 22 मार्च को नयागांव में कोटड़ी रोड स्थित रेलवे अंडर ब्रिज के अंदर बैठकर नयागांव टोल बैरियर को लूट की योजना बना रहे अपराधियों को पकड़ा था। पूछताछ में आरोपियों ने बंशी गुर्जर को मास्टर माइंड बताया था। इस मामले में पूछताछ के लिए रतलाम जेल में बंद तस्कर गुर्जर को जावद पुलिस दो दिन के पीआर पर लेकर नीमच आई थी। पूछताछ में बंशी ने बताया वह जेल के फोन से कॉल कर अपने साथियों के संपर्क में रहता था। बंशी और राणा का कनेक्शन : पुलिस का कहना है कमल राणा के गुर्गों ने जेल में बंशी गुर्जर से मिलने के लिए कई बार संपर्क किया। बंशी ने पूछताछ में यह बात स्वीकार की है। पुलिस पता लगा रही है कि आखिर बंशी और राणा का कनेक्शन क्यों बना है। पुलिस का मानना है तस्कर गुर्जर जब जेल में था उस समय इसका भाई समरथ इससे मिलने आता था। इसकी क्या बात होती होती थी पुलिस के पास रिकॉर्ड नहीं है लेकिन पुलिस को आशंका है कि उसका भाई भी योजना में शामिल हो सकता है। पुलिस पूछताछ में बंशी गुर्जर ने कुछ पुलिस अधिकारियों, जवानों और पत्रकारों के नाम भी लिए हैं। हालांकि, पुलिस ने इस संबंध में कुछ भी कहने से इंकार कर दिया है। फेक एनकाउंटर के बाद हुआ था गिरफ्तार: गौरतलब है कि 8 फरवरी 2009 को पुलिस ने कुख्यात तस्कर बंशी गुर्जर को एनकाउंटर में मार गिराने का दावा किया था। जबकि 20 दिसंबर 2012 को वह जिंदा पकड़ा गया था। पूर्व में मादक पदार्थ की तस्करी में फरार आरोपी घनश्याम धाकड़ निवासी मोतीपुरा (राजस्थान) भी जिंदा पकड़ा गया था। उसे भी सितंबर 2011 में एक सड़क हादसे में पुलिस ने मृत घोषित कर दिया था। घनश्याम ने ही बंशी गुर्जर के जिंदा होने का राज खोला था। दरअसल, यह पूरा मामला भ्रष्ट पुलिस प्रशासन और अफीम माफिया की मिलीभगत की पोल खोलता है। दरअसल, पुलिस मुख्यालय की कार्मिक शाखा के आईजी वेदप्रकाश शर्मा जब नीमच एसपी थे उस वक्त उन्होंने कुख्यात तस्कर बंशीलाल गुर्जर का 8 फरवरी 2009 को एनकाउंटर किया था जबकि आश्चर्यजनक बात तो यह है कि जिस बंशीलाल को पुलिस मुठभेड़ में मार गिराना बताया था वह आज रतलाम जेल (1 अप्रैल 2016 को नीमच के कनावटी जेल से शिफ्ट किया गया) में बंद है। वर्तमान में इस फर्जी एनकाउंटर मामले की जांच सीबीआई कर रही है। वर्ष 2009 से अब तक बंशी गुर्जर के नाम पर किस व्यक्ति को मार गिराया गया यह प्रश्न नीमच पुलिस समेत सभी पुलिस अफसरों के लिए पहेली बना हुआ है। इतना ही नहीं इस प्रकरण की न्यायिक जांच हुई सीआईडी ने भी जांच की लेकिन नतीजा सिफर रहा। दरअसल, यह पूरा मामला पुलिस और तस्करों के गठजोड़ की कहानी बताता है। कुख्यात अपराधी बंशी गुर्जर, घनश्याम धाकड़ और शराब कारोबारी पप्पू गुर्जर, चित्तौडगढ़, नीमच में तस्करी के साथ अन्य अपराधों में लिप्त थे। बताया जाता है कि पुलिस से पीछा छुड़ाने के लिए बंशी गुर्जर ने 8 फरवरी 2009 का पहले अपने आपको पुलिस एनकाउंटर में मरवाया। एनकाउंटर में मृत घोषित होने के बाद बंशी गुर्जर को अपने ऊपर लदे एक दर्जन अपराधों से मुक्ति मिल गई। अब वह नए ढंग से जिंदगी जीने लगा। इस दौरान खनन ठेके लेने के साथ मध्यप्रदेश-राजस्थान में तस्करी के जरिए करोड़ों रुपए कमाए। बंशी की खुशनुमा जिंदगी देख उसका सहयोगी छोटी सादड़ी (चित्तौडगढ़़) निवासी घनश्याम धाकड़ भी अपने अपराधों से मुक्ति चाहता था। यह बात उसने बंशी को बताई, योजना बनी और फिर एक हत्या हुई। मृतक की जेब में घनश्याम से संबंधित दस्तावेज मिले। जिसे देखकर पुलिस ने घनश्याम को भी मृत घोषित कर दिया। यह घटना 10 मार्च 2011 को हुई थी। कुछ माह बाद पुलिस को एक मुखबिर से पता चला था कि घनश्याम जिंदा है तो खोजबीन शुरू हुई और 25 सितंबर 2012 को जावद से घनश्याम को गिरफ्तार कर लिया गया। तब पूछताछ के दौरान पता चला था कि बंशी जिंदा है और उसने ही एक युवक की हत्या कर उसे हादसे में मृत दर्शाया। घनश्याम से मिली इंफर्मेशन के बाद तत्कालीन आईजी उपेंद्र जैन ने एक टीम गठित कर जाल बिछाया और उसे गिरफ्तार कर लिया। बंशी गुर्जर की गिरफ्तारी के बाद रिमांड पर आते ही मामले की परतें खुलनी शुरू हो गई हैं। सीबीआई ने अब तक नहीं सौंपी जांच रिपोर्ट न्यायिक जांच-तत्कालीन नीमच कलेक्टर संजय गोयल ने मामले की न्यायिक जांच के आदेश दिए थे। यह जिम्मा तत्कालीन एडीएम सुबोध रेगे को सौंपा गया, लेकिन वे घटनास्थल पर एक बार भी नहीं पहुंचे और जांच रिपोर्ट सौंप दी गई। इसमें दावा किया गया कि बंशी गुर्जर का ही एनकाउंटर हुआ है। हालांकि, पुलिस ने बंशी गुर्जर को जिंदा पकडऩे के बाद इस मामले को दबाने की कोशिशें तेज कर दी हैं। इसी बीच सामाजिक कार्यकर्ता मुलचंद खिची ने मप्र हाईकोर्ट में याचिका लगा दी। तब कोर्ट ने 2013 में इस मामले की सीबीआई जांच करवाने के आदेश दिए। सीबीआई को छह महीने में जांच करने को कहा गया था, लेकिन अब तक उसने अपनी रिपोर्ट नहीं सौंपी है। ऐसे में इस पूरी जांच प्रक्रिया पर ही सवाल उठने लगे हैं। नक्सलियों की सरकार को चेतावनी नक्सलियों ने लांजी के माताघाट और धीरी मुरूम के बीच जंगल में बांस से भरे पांच ट्रकों को आग लगाने के बाद पर्चे भी फेंके थे। इन पर्चों में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के इशारे पर एसपी गौरव तिवारी द्वारा माओवादी समर्थक के नाम पर बेगुनाह आदिवासियों को झूठे प्रकरण में गिरफ्तार करने का आरोप लगाया गया है। पर्चे में कहा गया है कि माओवादी आंदोलन जल-जंगल-जमीन पर स्थानीय जनता के संपूर्ण अधिकार की बात करता है। गरीबी और आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, क्षेत्रीय असमानता का उन्मूलन कर समाज में समानता स्थापित करना चाहता है। पुलिस, सरकारी, वन विभाग के अधिकारी, ठेकेदारों के अन्याय, अत्याचार से पीडि़त जनता इस उत्पीडऩ के खिलाफ संगठित हो चली है। इस आंदोलन को बालाघाट जिले के सैकड़ों गांवों से मिल रहे जन समर्थन से पुलिस न सिर्फ खौफ खा रही है बल्कि बुरी तरह बौखला गई है। इसी बौखलाहट में एसपी ने पर्चा जारी किया है। इस नक्सली पर्चे में पुलिस द्वारा जारी पर्चे का हवाला देते हुए कहा गया है कि एसपी ने लिखा है कि अगर नक्सली आत्मसमर्पण करते हैं तो एनकांउटर तो दूर कोई झूठा अपराध भी पंजीबद्ध नहीं किया जाएगा और न ही मारपीट की जाएगी। इस वाक्यांश का सीधा मतलब है यह निकलता है कि दबे स्वर में ही सहीं पुलिस यह स्वीकार कर रही है कि वह झूठा एनकाउंटर करती है। झूठा अपराध पंजीबद्ध कर निर्दोषों को सालो साल जेल में सड़ाती है। बेकसूर लोगों को बेरहमी से पिटती है। नक्सली पर्चे में कहा गया है कि 16 मई 2016 को जागला गांव के 3 बेकसूर ग्रामीण घनश्याम मरकाम, सावनीबाई मरकाम व मंशाराम धुर्वे की गिरफ्तारी और थाने में की गई मारपीट, उन पर पंजीबद्ध किए गये झूठे केस न केवल पुलिस के इस पर्चे में किए गए झूठे दावे और आश्वासनों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करते हैं, बल्कि पुलिस की कथनी और करनी में क्या अंतर है इसका जीता जागता सबूत पेश करता है। इन आदिवासियों का कसूर इतना ही है कि वे जागला पहाड़ी को खोदे जाने के विरोध में थे। वे अपने गांव को विस्थापित होने से बचा रहे थे। नक्सलियों ने कहा है कि तिवारी जी ने पर्चे में माओवादियों को विकास विरोधी बताया और इसके लिए उन्होंने बांस ट्रक जलाने का उदाहरण पेश करते हुए लिखा कि बाजार में बांस नहीं बिकने से मजदूरों को तनख्वाह का भुगतान नहीं हो पा रहा है। तिवारी, आप और आपके आला अधिकारी बौद्धिक रूप से दुर्बल मालूम पड़ते हैं। क्या आप इतना भी नहीं जानते कि पासिंग हो चुकी बांस की ही ढ़ुलाई होती है और एक बार पासिंग हो जाने पर वह जले या सड़े या बाजार में न भी बिके, उससे मजदूर के भुगतान पर कोई असर नहीं होता। यहां के मजदूरों को उनके मेहनताने से मतलब है, आपके वन विभाग के बांस की बिक्री या खरीदी से नहीं। हम तो इस उसूल के पक्षधर हैं कि मजदूर को पसीना सूखने से पहले ही उसका मेहनताना मिले जो कि उसका हक है। नक्सली पर्चे में कहा गया है कि क्या माओवादी आंदोलन से यह श्रेय कोई छीन सकता है कि उसने आदिवासियों और दलितों के उत्थान और विकास की बात को आज देश के सरकारों के एजेंडे में ला खड़ा किया है। 14 जून को मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लांजी के कारंजा में डिजिटल पंचायत के शुभारंभ कार्यक्रम में शामिल होने आये थे। जब सीएम का कार्यक्रम चल रहा था उसी दौरान लांजी के माताघाट और धीरी मुरूम के जंगल में 25 से 30 सशस्त्र नक्सलियों ने एक के बाद एक बांस से भरे पांच ट्रकों को आग के हवाले कर दिया। इनमें से 3 ट्रक झनकार किरनापुरे के और 2 ट्रक सरकारी थे। इतना ही नहीं नक्सलियों ने वन कर्मी गुलाब सिंह उइके के साथ बुरी तरह मारपीट भी की जिससे उसके कान का पर्दा फट गया। उइके से चालान आदि भी छीन ले गए थे।

सरपंचों-सचिवों ने लगाया 42 अरब का चूना

सरकार के निशाने पर 7,800 पूर्व और वर्तमान सरपंच
नलजल योजना, बलराम तालाब, शौचालय निर्माण, कपिलधारा कूप निर्माण में हुआ भ्रष्टाचार
भोपाल। मप्र में पुचायती राज व्यवस्था भ्रष्टाचार का गढ़ बन गया है। पिछले 22 साल में पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग में चार मंत्री बदल गए, लेकिन निर्माण कार्यों में भ्रष्टाचार कम करने के बजाय लगातार बढ़ता गया। वजह यह है कि पंचायत एवं ग्रामीण विकास के लिए बजट लगातार बढ़ रहा है। ग्रामीण इलाकों में विकास कार्यों के लिए विभिन्न योजनाओं के तहत सरकार द्वारा भेजी गई रकम में अरबों रुपए सरपंचों-सचिवों द्वारा हजम कर ली गई है। इसका खुलासा तब हुआ जब सरकार के पास इस संबंध में आई तरकीबन आठ हजार शिकायतों के आधार पर रिपोर्ट तैयार कार्रवाई गई। रिपोर्ट से खुलासा हुआ की ग्राम पंचायतों में पंच-सरपंचों और सचिवों द्वारा विभिन्न मदों में विकास कार्यों के लिए सीधे पंचायत खाते मे भेजी गई रकम को मनमर्जी तरीके से उपयोग किया गया है। जिसमें नलजल योजना, बलराम तालाब, शौचालय निर्माण, कपिलधारा कूप निर्माण में जमकर भ्रष्टाचार किया गया है और सरकार को करीब 42 अरब का चूना लगाया है है। सरकार इस मामले में 7,800 पूर्व और वर्तमान सरपंचों की पड़ताल कर रही है। दरअसल प्रदेश में ग्रामीण इलाकों के विकास कार्यों के लिए हर साल हजारों करोड़ की राशि आवंटित की जाती है। यह राशि सीधे पंचायतों के खातों में भेजी गई थी, जिसमें पंच परमेश्वर सहित आधा दर्जन योजनाओं के लिए आवंटित राशि शामिल है लेकिन सरपंचों ने न तो स्कूल बनवाए और न ही शौचालय और राशि या तो अन्य मद में खर्च कर दी या फिर बैंक खाते से निकाल ली। विभागीय अफसरों का कहना है कि प्रदेश में सबसे अधिक भ्रष्टाचार बलराम तालाब योजना और कपिलधारा कूप निर्माण में हुआ है। जहां बलराम तालाब निर्माण में 8 अरब से अधिक का फर्जीवाड़ा हुआ है वहीं कपिलधारा कूप निर्माण में 21 अरब के घोटाले की बात सामने आई है। वहीं नलजल योजना, शौचालय निर्माण, शांतिधाम आदि योजनाओं में 13 अरब का फर्जीवाड़ा हुआ है। इन मामलों में एक सैकड़ा से अधिक सचिव और सरपंचों को सजा हो चुकी है। बता दें कि प्रदेश में पिछले 22 साल से पंचायतों में फर्जीवाड़े हो रहे हैं, लेकिन रसूखदारों की क्षत्रछाया मिलने के कारण अधिकांश पंच-सरपंच अभी तक बचे हुए हैं। कांग्रेस शासनकाल में हरवंश सिंह, अजय सिंह और भाजपा के शासनकाल में नरेंद्र सिंह तोमर इस विभाग की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं। अब इस विभाग में गोपाल भार्गव मंत्री हैं। वर्तमान समय में पंचायतों को सबसे अधिक फंड मिल रहा है। पंचायत एवं गमीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव का कहना है कि ग्रामीण इलाकों के विकास के लिए राज्य सरकार की विभिन्न योजनाओं में भ्रष्टाचार होने की शिकायतें मिल रही हैं। इसकी जांच में यदि पंच-सरपंच दोषी पाए गए हैं तो उन्हें नियम विरुद्ध खर्च राशि जमा करना पड़ेगी। नहीं तो जेल वारंट काटा जाएगा। वसूली की कार्रवाई कई जिलों में शुरू हो गई है। कपिलधारा कूपों के नाम पर सिर्फ खुदे गढ्ढे मप्र में बलराम तालाब के बाद अब कपिलधारा कूप में फर्जीवाड़ा सामने आया है। सरकार का दावा है कि प्रदेशभर में 3 लाख 15 हजार कपिलधारा सिंचाई कूप का निर्माण किया गया है। इनमें से 1 लाख 3 हजार 400 हितग्राही को विभिन्न विभागीय योजनाओं के जरिए सिचाई पंप के लिये अनुदान सहायता भी मुहैया करवाई गई। लेकिन जमीनी हकीकत इसके विपरीत है। प्रदेश के सभी जिलों में कपिलधारा कूप के निर्माण में फर्जीवाड़ा किया गया है। कही कूप ही नहीं खुदा है तो कहीं गहराई कम है तो कहीं कपिलधारा कूपों के नाम पर सिर्फ गढ्ढे खुदे हैं। यही नहीं हजारों मामले ऐसे भी सामने आए हैं जिसमें जिन किसानों के नाम पर कूप खुदा है उन्हें इसकी जानकारी ही नहीं है। ऐसे करीब 1 लाख 27 हजार कपिलधारा कूपों में भ्रष्टाचार का मामला सामने आया है। यानी सरकार का सरपंच, सचिव, जनपद सीईओ, सहायक यंत्री और उपयंत्री आदि ने मिलकर करीब 21अरब रूपए हजम कर गए हैं। सात साल बाद अब इस मामले की परते खुल रही हैं। उल्लेखनीय है कि मनरेगा के तहत गरीब किसानों की गरीबी दूर करने और उनके जीवन में खुशहाली लाने के लिए कपिलधारा कूप योजना शुरू की गई थी। इस योजना में शुरुआती दौर में जिस तरीके की बंदरबांट फर्जी कामों की हुई थी, उसके परिणाम आने शुरू हो गए हैं। 2007-08 के कपिलधारा कूप मामले में शिकायतें आने लगी थीं। अब जिलेवार हुई जांच में भ्रष्टाचार सामने आने लगा है। इसमें सरपंच, जनपद सीईओ सहित सहायक यंत्री और उपयंत्री भी दोषी पाए जा रहे हैं। आलम यह है कि कपिलधारा योजना के तहत खोदे गए 3 लाख 15 हजार कुंओं में से ज्यादातर खोदे ही नहीं गए हैं। अगर इस मामले की सही ढग़ से जांच की जाए तो हर पंचायत में भ्रष्टाचार उजागर होगा और पूर्व के जितने सरपंच और सचिव हैं वे इसके घेरे में आएंगे। दरअसल, सरकार की मंशा थी की हर किसान के खेत में अपना कुंआ हो ताकि सिंचाई के लिए उसे भटकना न पड़े। सरकार की इस महत्वाकांक्षी योजना का लाभ गरीबों के नाम पर रसूखदारों ने जमकर उठाया। वैसे देखा जाए तो जिस मनरेगा योजना ने प्रदेश के लोगों की आर्थिक स्थिति कुछ हद तक बेहतर की है उसका प्रदेश में जमकर मजाक उड़ाया जा रहा है। मनरेगा की राशि का उपयोग जहां नौकरशाह और अन्य रसूखदार अपनी सुविधाएं जुटाने में कर रहे हैं तो वहीं विकास कार्य महज कागजों पर हो रहे हैं। कपिलधारा कूप निर्माण में किस तरह फर्जीवाड़ा किया गया है इसका ताजा मामला सतना जिले के जनपद पंचायत उचेहरा की मानिकपुर ग्राम पंचायत में सामने आया है। दादूलाल प्रजापति ने कपिलधारा कूप के लिए आवेदन किया था। स्थानीय अमले ने मिलीभगत कर उसके पहले से बने कुंए को ही कपिलधारा कूप बनाना दिखाते हुए पूरी राशि निकाल कर हड़प ली गई। गबन में जनपद सीईओ सहित सहायक यंत्री और उपयंत्री की भूमिका प्रमुख रही। मामला संज्ञान में आने के बाद जांच की गई। जांच में पाया कि कुआं पहले से बना था और उसका फर्जी मूल्यांकन कर राशि आहरित कर ली गई है। इस दौर में आ रही शिकायतों के भौतिक परीक्षण के लिए जितने भी उपयंत्री और सहायक यंत्री मौके पर जाते तो वे भी लेनदेन कर मामला दबा देते थे। ड्रैगो के निरीक्षण प्रतिवेदन और जांच रिपोर्ट में पूरी हकीकत आने के बाद तत्कालीन जनपद सीईओ ओपी झा समेत तत्कालीन सहायक यंत्री आईपी पाण्डेय, संतलाल प्रजापति तत्कालीन उपयंत्री, जीपी मिश्रा तत्कालीन प्रभारी सहायक यंत्री (मूलत: उपयंत्री) मामले में दोषी पाए गए। अब सात साल बाद इस मामले में इन सभी आरोपी अधिकारियों पर विभागीय जांच शुरू करने के आदेश अधीक्षण यंत्री ने जारी कर दिए हैं और इसमें प्रस्तुतकर्ता अधिकारी कार्यपालन यंत्री ग्रामीण यांत्रिकी सेवा संभाग सतना को बनाया गया है। शासन की जनकल्याणकारी व विकास योजनाओं का प्रदेश के ग्रामीण अंचलों में किस तरह से माखौल उड़ाया गया है। उसकी बानगी प्रदेश के तीन से अधिक दर्जन जिलों की ग्राम पंचायतों में देखने को मिली है। जहां कपिलधारा कूपों के नाम पर सिर्फ कुछ फूट गहरे गढ्ढे खुदवाए गए हैं। सालों से कूपों के निर्माण का काम अधूरा पड़ा है। फिर भी कूप निर्माण के नाम पर लाखों रूपए खर्च कर दिए गए हैं। इस फर्जीवाड़े में जितने दोषी सरपंच-सचिव है उतने ही दोषी निर्माण कार्य पर नजर रखने वाले उपयंत्री, सहायक यंत्री और मानीटरिंग अधिकारी यानि जनपद के सीईओ भी हैं। जिनकी सरपरस्ती के बगैर आधे-अधूरे कपिलधारा कूपों के नाम पर लाखों का वारा-न्यारा होना संभव नहीं हैं। नया मामला दतिया जिले के हथलई गांव का है जहां कपिलधारा के कूप सिर्फ कागजों पर बने दिखाए गए हैं। गांव के किसानों ने बताया कि उनके खेतों में कपिलधारा का कुआं बना ही नहीं है तथा कागजों पर निर्माण होना बताया जा रहा है। इतना ही नहीं, किसानों के अधबने कुओं को भी पूरा कर कपिलधारा योजना के कुएं बताया गया है। यहां निर्माण कार्य मजदूरों से नहीं, बल्कि जेसीबी मशीन से कराया गया है। कागजों पर ही खोद डाले कूप विभिन्न स्तरों पर हुई जांच में यह तथ्य सामने आया है कि मनरेगा के तहत होने वाले कार्य अधिकारियों के साथ जनप्रतिनिधियों के लिए चरागाह साबित हो रही है। कागजों पर कपिलधारा बनाने की पोल खुली तो पहले उसे दबाने के प्रयास भी हुए। अधिकारियों ने गलत जांच रिपोर्ट भी प्रस्तुत कर प्रकरणों की दिशा बदलने की भरपूर कोशिश की। लेकिन जांच में यह बात सामने आई कि ग्वालियर, जबलपुर, आलीराजपुर, अनूपपुर, अशोकनगर, बालाघाट, बड़वानी, बैतूल, बुरहानपुर, छतरपुर, दमोह, दतिया, देवास, धार , डिंडौरी, खंडवा, खरगोन, गुना, हरदा, होशंगाबाद, झाबुआ, कटनी, मंदसौर, मुरैना, पन्ना, रतलाम, रीवा, सागर, सतना, उज्जैन जिलों में सबसे अधिक भ्रष्टाचार हुआ है। उधर सरकार का दावा है कि मनरेगा में प्रदेश के हितग्राही गरीब किसानों की निजी भूमि में सिचाई सुविधा के लिए बनाए गए कपिलधारा कुओं से प्रदेश में करीब 4 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र में सिंचाई सुविधा निर्मित हुई है। इससे हितग्राही अपने खेतों में दो फसल और फलों तथा सब्जियों के उत्पादन का लाभ ले रहे हैं। इन हितग्राही को रबी सीजन 2015-16 में औसतन 7.5 क्विंटल प्रति हेक्टेयर के मान से प्रति क्विंटल चना/गेहूं की औसत दर 2,500 रूपये के मान से कुल 750 करोड़ रूपये की अतिरिक्त आमदनी रबी फसलों से हुई है। इसी प्रकार कपिलधारा कूप योजना के जरिये कुंल 4 लाख हेक्टेयर सिंचित भूमि में से करीब 20 फीसदी (80 हजार हेक्टेयर) भूमि में हितग्राही किसानों ने फलों और सब्जियों के उत्पादन से करीब 40 हजार प्रति हेक्टेयर के मान से कुंल 320 करोड़ रूपये की अतिरिक्त आय अर्जित की है। कर्ज के कुओं में नहीं है पानी खेतों में पानी सहेजने के लिए बलराम तालाब योजना के तहत बनाए गए अधिकतर तालाब केवल कागजों पर बन कर तैयार हो गए है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विभाग ने जो लक्ष्य दिया था उस के अनुरूप विकासखंडों में तालाब नहीं बन सके है। वहीं किसी विकास खंड में लक्ष्य से दो गुने तालाब बन कर तैयार हो गए और बिना भौतिक सत्यापन के किसानों को अनुदान राशि भी जारी कर दी गई है। ऐसे में विभाग की कार्यप्रणाली पर सावालिया निशान खड़े हो गए हैं कि विभाग ने तालाबों का बिना सत्यापन किए अरबों रूपए की अनुदान राशि कैसे जारी कर दी। कपिलधारा कूप योजना से लाभान्वित हितग्राही अब अपने आप को इस योजना का लाभ लेने पर कोस रहे हैं। शासन-प्रशासन द्वारा हितग्राहियों की मांग पर कूप तो स्वीकृत कर दिए, लेकिन उन्हें कुआं निर्माण के बाद राशि का भुगतान नहीं किया। किसी ने कर्ज लेकर तो किसी ने जेवर बेचकर कुएं का काम शुरू करवाया, जो किस्त के अभाव में कुआं पूर्ण नहीं हो पाया। कोई हितग्राही चार साल से, तो कोई सालभर से कुएं की किस्त के लिए जनपद व ग्राम पंचायतों के चक्कर काट रहे हैं, लेकिन उन्हें राशि नहीं मिली। कर्ज देने वाले आंखे तरेर रहे हैं। इससे कई लोगों के बीच में विवाद भी हो रहे हैं। झाबुआ जिले के ग्राम पंचायत तलावली के ग्राम खेरमाल में सकरिया करकिया बामनिया को चार साल पूर्व 1 लाख 60 हजार रुपए का कपिलधारा कूप स्वीकृत हुआ था। सकरिया को इसमें से अभी तक मात्र 27 हजार रुपए मिले। घर के लोगों ने खुद कुआं खोदा। बाजार से कर्ज लेकर उसका जगत बनाया। इसमें डेढ़ लाख रुपए खर्च हो चुके हैं। रुपए मांगने पर पंचायत वाले उसे कुआं और गहरा करने का बोल रहे हैं। पहले से कर्ज में डूबे सकरिया ने बताया कि रुपए हों तो कुआं गहरा करवाएं। पहले ही सिर पर काफी कर्ज है। उधार देने वाले प्रतिदिन तकादा कर रहे हैं। घर से निकलना मुश्किल हो गया है। ग्राम खेरमाल के वेस्ता लाला वागुल को भी चार साल पहले 1 लाख 60 हजार का कपिलधारा कूप मंजूर हुआ था। लाला के परपोते उदयसिंह ने बताया कि अभी तक कुएं की राशि के नाम पर उन्हें मात्र 33 हजार रुपए दिए। पंचायत सचिव और सरपंच का कहना था कि 9 मीटर खोदो तब बाकी की राशि मिलेगी। मशीन लगाकर बाजार से उधार रुपया लेकर नौ मीटर खुदाई करवा दी। कुएं में पानी भी है। उसकी मुंडेर बनवाना बाकी है। चार साल बाद भी राशि नहीं मिली। बारिश के पानी के साथ मिट्टी बहने से कुएं में मिट्टी भरती जा रही है। राशि मिलना तो दूर कोई कुआं देखने भी नहीं आया। ये तो महज उदाहरण है। अधिकांश पंचायतों में कपिलधारा कूप के लाभांवित हितग्राही राशि के लिए सालों से चक्कर काट रहे हैं। सोहागपुर में तो एक अजब ही मामला सामने आया है। यहरं के निवासी सुरेश मायवाड़ के खेत में कपिलधारा कुआं खुदवाने के लिए 2014 में स्वीकृति मिली थी। 5 फीट कुआं भी खोदा गया लेकिन हाल ही में उन्हें यह नोटिस थमाया गया कि वे हितग्राही की पात्रता शर्तें पूरी नहीं करते इसीलिए निर्माण कार्य निरस्त किया जाता है। अब वे जनसुनवाई में तीन बार समस्या बताकर शिकायत कर चुके हैं लेकिन उनकी समस्या हल नहीं हो रही है। काम भी रुका हुआ है। मायवाड़ ने बताया नोटिस में कहा गया है कि कपिलधारा कुएं का निर्माण नहर क्षेत्र के सिंचिंत क्षेत्र में नहीं किया जा सकता। इसीलिए निर्माण कार्य निरस्त किया जाता है। इसके बाद वे 15 दिसंबर 2015, 9 फरवरी 2016 और 5 अप्रैल 2016 को वे जनसुनवाई में आवेदन दे चुके हैं लेकिन समस्या का कोई निराकरण नहीं हुआ। जिला पंचायत सीईओ सौरभ कुमार सुमन का कहना है कि मामले की जांच करके कार्रवाई की जाएगी। डिंडोरी जिले के समनापुर जनपद अंतर्गत ग्राम पंचायत सुंदरपुर में हितग्राही अशोक कुमार को 2013-14 में हितग्राही मूलक योजना के तहत कपिलधारा कूप स्वीकृत किया गया था। आरोप है कि इसके लिए आवंटित राशि तत्कालीन सरपंच और सचिव ने आहरित कर ली, लेकिन अभी तक कूप निर्माण अधूरा पड़ा है। आलीराजपुर जिले के ग्राम सौरवा झिंझनी फलिया के निवासियों ने आवेदन दिया कि तीन वर्ष पूर्व पीएचई विभाग अंतर्गत मुख्यमंत्री नल-जल प्रदाय योजना तैयार की गई थी, लेकिन आज तक फलिए में पानी नहीं पहुंचा है। ग्रामीणों ने बताया कि नल-जल योजना तीन वर्ष से बंद पड़ी है। नल-जल प्रदाय योजना प्रारंभ की जाए, जिससे ग्रामीणों को सुचारू रूप से पेयजल मिल सकें। ग्राम पंचायत झिझना तहसील क_ीवाडा के कपिलधारा हितग्राहियों ने बताया कि उनके कपिलधारा कूप स्वीकृत हुए थे। जिनसे से कुछ कुओं की खुदाई का कार्य, बंधाई का कार्य किया जा चुका है और कुछ अधूरे पड़े हुए है। उनको कपिलधारा निर्माण के लिए सामग्री प्राप्त नहीं हुई जबकी राशि पूर्व सरपंच पति द्वारा बिल लगाकर निकाल ली गई है। मुख्यमंत्री के बधाई पत्र के बाद खुली पोल प्रदेश में सर्वाधिक भ्रष्टाचार मंडला, डिण्डौरी, शहडोल, उमरिया, झाबुआ, धार आदि आदिवासियों जिलों में ही होता है, इन सब में मंडला संभवत: प्रथम स्थान पर माना जा सकता है। मंडला जिले में रोजगार गारंटी योजना चालू होने के बाद लगभग 6000 कुंओ का निर्माण किया गया है। जिनकी लागत 77 करोड़ रूपये आंकी गई है। इस 77 करोड़ रूपये के कार्य का कोई रिकार्ड जमीन पर मौजूद नहीं है। जिले में चुपचाप हो रहे इस फर्जीवाड़े का खुलासा 28 दिसम्बर 2009 को तब हुआ जब ग्राम अंजनिया के किसानों को मुख्यमंत्री का बधाई पत्र मिला। पत्र के बाद किसानों को यह ज्ञात हुआ हैं कि कपिलधारा योजना के तहत उनके विकास के लिए जिला पंचायत को ग्रामीण क्षेत्रों में कुओं का निर्माण भी करना था जो कागजों में किया जा चुका है। भेजे गए अपने पत्र में मुख्यमंत्री ने खेती को लाभ का धंधा बनाने के लिए खेतों को सिंचित करने के लिए कपिलधारा योजना के अंतर्गत कूप खनन पर इन आदिवासियों को बधाई दी थी। इस पत्र के प्राप्त होने के बाद संबंधित आदिवासियों ने खोज करनी शुरू की, कि उनके खेत में जिला प्रशासन ने कुआं आखिर खोदा कहां हैं। इस तरह की खोज बिछिया जनपद की सबसे बड़ी ग्राम पंचायत अंजनिया के आनंद पूरन, कृष्णदयाल शंकर सहित कई लोगों ने प्रारंभ की। इस बारे में जब विस्तार से पड़ताल की तो आश्चर्यजनक तथ्य सामने आए, मंडला जिले में अब तक रोजगार गारंटी योजना चालू होने के बाद लगभग 6000 कुओं का निर्माण किया गया है। जिनकी लागत 77 करोड़ रूपये आंकी गई है। इस 77 करोड़ रूपये के कार्य का कोई रिकॉर्ड जमीन पर मौजूद नहीं है। कागजों में बनाए गए कुंओं के लाभार्थी आनंद कुमार मरावी के अनुसार उनके खेत में आज तक कोई कुंआ नहीं खोदा गया है, तो बधाई किस बात की। उन्होंने कूप निर्माण के लिए पंचायत में आवेदन जरूर दिया है। इसी गांव के कृष्ण दयाल शंकर के अनुसार उन्हें भी एक पत्र मिला था। जिस इंदिरा आवास में वे रह रहे हैं उसमें एक झोपड़ी हैं जिसमें न दरवाजे हैं और न छत। उनके अनुसार वे कई सालों से आवेदन लगा रहे हैं, लेकिन आज तक आवास आवंटित नहीं हुआ। इस तरह हुई बंदरबांट कपिलधारा में व्याप्त भ्रष्टाचार के विषय में बताते हुए ग्राम के लोगों ने बताया कि स्कूल फलिये में बने एक कूप को वर्ष 2010 में दीपक सकरिया कटारा के नाम से कपिलधारा में हितग्राही बनाया था जिसकी लागत 58 हजार रुपए थी। फिर उसी कुंए को वर्ष 2013-14 में सार्वजनिक दर्शाते हुए ढाई लाख रुपए का गबन किया है। इसी तर्ज पर चरपोटा फलिये में भी कलजी मईड़ा चरपोटा को वर्ष 2007-08 में कपिलधारा योजना का लाभ देकर 58 हजार का कूप स्वीकृत किया था, जिसे वर्तमान में सार्वजनिक कूप दर्शाकर 2 लाख 71 हजार रूपए की राशि का गबन किया गया है। इसी प्रकार वालचंद, कारू, चुनिया और पारू द्वारा बनाए गए कूप को पूर्व में पारू को हितग्राही बनाकर 58 हजार की राशि स्वीकृत कर दी गई थी, जिसे वर्तमान में सार्वजनिक कूप बताकर 2 लाख 71 हजार की राशि का गबन किया गया है। उक्त तीनों कूप के विषय में जब जानकारी हासिल की गई तो पता चला कि उक्त तीनों कूप निजी भूमिपर भूमि मालिक ने अपनी जेब की राशि खर्च करके बनाए थे। कपिलधारा कूप योजना के अंतर्गत उन्हें कुछ राशि देकर लाखों की राशि का भ्रष्टाचार हुआ है। इसी तरह ग्राम देवीगढ़ के सभी फलियों में शासन की राशि का जमकर भ्रष्टाचार हुआ है। पूंजा मल्ला कटारा ने अपना दुखड़ा सुनाते हुए बताया कि चार वर्ष पूर्व उसका कूप कपिलधारा योजना के अंतर्गत स्वीकृत हुआ था लेकिन चार हाथ गड्ढा खोदकर कार्य की इतिश्री कर दी गई थी। फिर हितग्राही पूंजा ने बैंक ऑफ बड़ौदा से ऋण लेकर कूप का निर्माण किया है। उक्त कूप की स्वीकृत राशि 1 लाख 78 हजार रूपए उसे आज तक नहीं मिल पाई है। कानु भीलजी डामोर निवासी लाम्बी सादेड़ ने बताया कि 3 वर्ष पूर्व 1 लाख 58 हजार म स्वीकृत कूप की राशि आज तक नहीं मिल पाने के कारण कर्ज मे डुबा हुआ है। बुंदेेलखंड में तो हर गांव में घोटाला पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्यमंत्री प्रदीप जैन का कहना है कि कपिलधारा कूप योजना में बंदेलखंड में जमकर घोटाला किया गया है। कागजों में कुंआ खोदने के इस भ्रष्टाचार में ग्राम पंचायत के जिम्मेदार बुनियाद तैयार करते रहे और उपयंत्री के फर्जी मूल्यांकन की रिपोर्ट से गबन का खाका तैयार होता रहा, मनरेगा की मजदूरी बैंक खातों में जमा होती है इसलिए फर्जी मस्टर रोल के आधार पर मजदूरों के बैंक खातों से बैंक कर्मियों की मिली-भगत से राशि आहरित कर ली गई। इस खेल में कमीशन का खूब बंदरबांट किया जाता रहा। मनरेगा के तहत सागर संभाग के पांच जिलों में कपिलधारा के कुंओं की खुदाई में भारी घोटाला हुआ है। सुर्खियों में आने के बाद भी प्रदेश सरकार इस महाघोटाले का सच सामने लाने से कतराती रही। जांच की औपचारिकताएं ही की जाती रहीं। जांच गुम होती गई। बड़ी मछलियों को साफ बचा लिया गया। पंचायत स्तर से लेकर अधिकारी और बैंक तक इस घपले में शामिल रहे। यह महाघोटाला ढाई अरब रुपए से अधिक का है। बंदेलखंड में सागर, छतरपुर, दमोह, पन्ना और टीकमगढ़ जिले में करीब 13767 शिकायतें प्रशासनिक तंत्र के पास पहुंची। शिकायत में कुंओं के निर्मित होने के बाद भी मजदूरों का भुगतान न होना आम बात थी। कागजों में ही कुंए खोद लिए गए। सरकारी राशि हजम कर ली गई। सागर जिले में 11953, छतरपुर में 13790, टीकमगढ़ में 9574, दमोह में 11071 और पन्ना जिले में 6935 कुंएं स्वीकृत किए गए थे। इसके लिए करीब एक हजार करोड़ रुपए स्वीकृत किया गया था। सागर के लिये 225 करोड़, छतरपुर 245, टीकमगढ़ 176, दमोह 185 और पन्ना जिले में 121 करोड़ रुपए स्वीकृत किये गए थे। कपिलधारा योजना के नियमों के अनुसार निर्धारित मापदंड के अनुसार ग्राम पंचायत सम्बन्धित हितग्राही के खेत पर कुंआं खुदवाने का कार्य करती हैं। पहले एक कुंआं पर एक लाख 82 हजार रुपए व्यय किये जाते थे। लेकिन मनरेगा में मजदूरी दर के बढऩे के साथ यह राशि 3 लाख 26 हजार रुपए हो गई है। प्रति कुंआं लाखों रुपए व्यय करने का यह अधिकार ही भ्रष्टाचार को जन्म देता रहा। ग्राम पंचायत के जिम्मेदार और मूल्यांकन करने वाले इंजीनियर की मिली भगत से कागजों में ही कुंआं खुदवाकर मनरेगा की मजदूरी बैंक खातों में जमा होती है और फर्जी मस्टर रोल के आधार पर मजदूरों के बैंक खातों से बैंक कर्मियों की मिली-भगत से राशि आहरित कर ली गई। इस खेल में कमीशन का खूब बन्दरबांट किया जाता रहा। सरपंच संघ छतरपुर के पूर्व अध्यक्ष सुंदर रैकवार कहते हैं कि सरपंच-सचिव तो बदनाम है पर असली खेल तो उपयंत्रियों का होता है। कई कुंएं ऐसे हैं जिनका कार्य पूर्ण हो चुका लेकिन उपयंत्री कमीशन न मिलने तक इन्हें कागजों में अपूर्ण ही बताते रहे। प्रदेश सरकार के पिछले कार्यकाल के कृषि राज्य मंत्री रहे बृजेन्द्र सिंह के पन्ना जिले के गृह ग्राम इटौरा में भी कागजों में खुदे कुंओं का मामला सामने आने के बाद सनसनी फैल गई थी। वर्ष 2009-2010 के दौरान इस गांव में खोदे गए सात कुंए ढूंढे गए तो यह कागजों में मिले। इतना ही नहीं इन कुंओं से सिंचाई के लिए बुंदेलखंड पैकेज से पम्प के लिए बीस हजार रुपए भी दिए गए। करीब 20 लाख रुपए का भ्रष्टाचार सामने आने के बाद ग्रामीण विकास मंत्रालय विभाग ने पन्ना जिले के सभी कुंओं का सच जानने के लिए जांच टीमें गठित कर दी थी। इस मामले में गांव के सरपंच, सचिव और उपयंत्री के खिलाफ आपराधिक प्रकरण दर्ज करने का आदेश दिया गया है। पर पूरे जिले में कूप निर्माण की जांच का क्या हुआ इसका जवाब देने वाला कोई नहीं है। टीकमगढ़ जिले की जनपद निवाड़ी के ग्राम बपरौली में तो स्वयं मुख्यमंत्री का शुभकामना पत्र उपहास का कारण बना। किसान मोहनलाल लुहार को कपिलधारा कुंआं खोदने पर मुख्यमंत्री का शुभकामना पत्र प्राप्त हुआ। वह चौंक सा गया। लेकिन फिर सच्चाई भी सामने आ गई। जो इस योजना में घपलों की बानगी प्रकट कर गई। हुआ यूं कि ग्राम सचिव और सरपंच ने मोहनलाल की आड़ में स्वयं के खेत में कुंआं खुदवा लिया और राशि का भी आहरण कर लिया। मुख्यमंत्री ने जब कुंआं खोदने पर मोहनलाल को बधाई पत्र भेजा तो इस गोलमाल का खुलासा हुआ। मोहनलाल ने इस मामले की शिकायत भी मुख्यमंत्री सहित उच्च स्तर तक की। पर कार्रवाई बेनतीजा रही। छतरपुर जिले के लौंडी के ग्राम सिजई में तो स्वयं एक पूर्व सरपंच ने कपिलधारा कुंओं से बहने वाली भ्रष्टाचार धारा की कलई खोल दी थी। लेकिन दर्जनों शिकायतों के बाद भी प्रशासन ने कुछ नहीं किया। मजेदार यह है कि कूप निर्माण के मस्टर रोल में बाकायदा मजदूरों का काम करना बताया गया है। जिसमें गांव के उपसरपंच सहित एक दर्जन मजदूरों को केन्द्रीय सहकारी बैंक लौंडी के खाते से भुगतान करना बताया गया है। सचिव, इंजीनियर और बैंक कर्मचारियों की मिली-भगत से मजदूरों के खातों में राशि जमा की गई। उनके फर्जी हस्ताक्षर कर राशि का आहरण कर लिया गया। छतरपुर जिले की जनपद बिजावर में तो कागजों में ही कुंएं खुद गए। ग्राम पंचायत राईपुरा में दरबारी बसोर, धनुवा अहिरवार की जमीन पर मात्र दस फुट कुंआं खोदा गया और मजदूरी पूरी आहरण कर ली गई। वहीं मुरली पाल, झल्लू बसोर, प्रेमलाल अहिरवार, परसुआ अहिरवार और शंकर अहिरवार की जमीन पर तो बिना कुंआं खुदे ही राशि हड़प कर ली गई। छतरपुर जिले में केन्द्र की राशि से संचालित इस जल संरक्षण की योजना में भारी आर्थिक अनियमितताओं के मामले को महाराजपुर विधानसभा से विधायक मानवेन्द्र सिंह ने वर्ष 2012 में विधानसभा में उठाया था। कुंओं में भ्रष्टाचार की धार का सच जानने के लिए प्रदेश स्तरीय जांच दल छतरपुर आया। रोजगार गारंटी परिषद के गठित इस जांच दल में आए विभिन्न विभागों के शीर्ष अधिकारियों को कहीं भ्रष्टाचार ही नजर नहीं आया। आरोप लगे कि अधिकारियों का सत्कार और मिलने वाले नजराने ने इस पूरे मामले को लीपने का काम कर दिया। वर्ष 2014 में एक बार फिर इस महाघोटाले की जांच होने की रस्म अदायगी हुई। सम्भागीय क्षेत्र में 34 दलों ने 2335 कुंओं का मौके पर निरीक्षण किया। सरकार ने यह सैम्पल सर्वे कराया था। हर ब्लॉक स्तर पर कार्यपालन यंत्री की निगरानी में उपयंत्रियों को जांच सौंपी गई। मजेदार बात यह है कि इस जांच को भी उन्हीं उपयंत्रियों से कराया गया जो जनपद कार्यालयों में पदस्थ थे और जिनकी निगरानी में ही कपिलधारा कुंओं का निर्माण कर मूल्यांकन किया जाता है। जांच का स्वांग रचा गया क्योंकि सैकड़ों गड़बडिय़ों के मामले उजागर होने पर भी कहीं कोई दोष नहीं पाया गया। इनकी जांच हो तो निकलेगा महाघोटाला मनरेगा के तहत मजदूरों के बैंक खातों में राशि जमा करने का प्रावधान है। मजदूरों के खातों में जमा राशि कैसे आहरण कर ली जाती है, यह गंभीर मामला है। एक कुंएं के निर्माण पर 1 लाख 84 हजार रूपए की राशि स्वीकृत होती है। सागर संभाग के पांचो जिलों में खोदे गए 27303 कुंओं में हुए घपले के आंकड़े से आर्थिक अनिमियत्ताओं की राशि का आंकडा भी दो अरब से अधिक पहुंच जाता है। साथ ही इस राशि में बुंदेलखंड पैकेज के तहत सिचाईं पंपो की राशि को जोड़ दिया जाए तो यह महाघोटाला साबित होगा। उल्लेखनीय है कि मनरेगा में महाभ्रष्टाचार से संबंधित प्रदेशभर की करीब 300 शिकायतें वर्ष 2009 से अभी तक मुख्यमंत्री पीजी सेल सहित अनेक विभाग प्रमुखों के पास की गईं लेकिन यहां भी जांच तीन साल बाद भी लंबित पड़ी हुई है। यह सब देखकर तो स्पष्ट होता है कि सरकारी तंत्र भी भ्रष्टाचार के इस दलदल में सना हुआ है और जांच नहीं कराना चाहता है। पूर्व केंद्रीय ग्रामीण विकास राज्यमंत्री प्रदीप जैन का कहना है कि मैंने स्वयं कई गांवों का दौरा किया है। कुएं वास्तव में बने नहीं हैं लेकिन कागज पर बने दिखाए गए हैं। इसके अलावा गड़बडिय़ों की गवाही भी सरकारी कागजात देते हैं। अधिकारी कुआं निर्माण का प्रमाणीकरण छह सितम्बर को दे रहे हैं वहीं निर्माणस्थल पर कार्य पूरा होने की तिथि 16 सितम्बर दर्ज है, जबकि वास्तव में निर्माण कार्य पूरा होने के बाद ही अधिकारी का प्रमाणीकरण जारी होता है। 263 करोड़ रुपए का 'पंच भत्ता घोटालाÓ राज्य सरकार ने पंचों का सालाना भत्ता दोगुना करने की घोषणा क्या की, 263 करोड़ रुपए का 'पंच भत्ता घोटालाÓ सामने आ गया। दरअसल प्रदेश के 90 फीसदी से ज्यादा पंचों को यही नहीं पता कि सरकार उन्हें बैठकों के लिए सालाना 600 रुपए देती है। सरकार की घोषणा के बाद कुछ जिज्ञासु पंचों ने पूछताछ की तो ये राज खुला कि ऊपर से तो पैसा आता है, लेकिन जनपद पंचायत आकर रुक जाता है। 20 सालों में 3 लाख 61 हजार पंचों के बैठक भत्ते के लगभग 263 करोड़ रुपए अफसर और कर्मचारी डकार गए। 1995 से 2008 तक 300 रूपए भत्ता दिया जाता था। 2009 से इसे 600 रुपए और दो माह पहले 1200 रुपए कर दिया।

धन कुबेरों की काली कमाई का पैतृक गांवों में निवेश

जांच एजेंसियों के राडार पर 2200 अधिकारी
मप्र के 51 आईएएस को मिली क्लीन चिट
भोपाल। मप्र के 109 आईएएस अफसरों सहित देशभर के 2200 अधिकारी एक बार फिर पीएमओ और डीओपीटी के निशाने पर हैं। भ्रष्टाचार मुक्त शासन देने का वादा कर सत्ता पर काबिज हुए नरेंद्र मोदी ने अब ब्यूरोक्रेसी को भ्रष्टाचार मुक्त बनाने की ओर कदम बढ़ा दिए है। इसके तहत धन कुबेर नौकरशाहों के पैतृक गांवों पर भी नजर रखने को कहा गया है जहां करोड़ों रूपए के निवेश के संकेत मिले हैं। पीएमओ के एक अधिकारी के मुताबिक, प्रधानमंत्री ने कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (डीओपीटी) से सभी राज्यों और केंद्र सरकार के मंत्रालयों में काम कर रहे अफसरों के कामकाज की समीक्षा कर रिपोर्ट देने को कहा है। पीएमओ ने सीबीआई से ऐसे अफसरों को रडार पर लेने को कहा है जिनके कामकाज का प्रदर्शन संतोषप्रद न होने के साथ संदिग्ध भी नजर आ रहा है। उल्लेखनीय है कि विजय माल्या के विदेश भाग जाने के लिए केन्द्र सरकार के ढुलमुल रवैये और अधिकारियों की मिलीभगत के आरोंपों से सकते में आई केन्द्र सरकार ने सभी शीर्ष अधिकारियों के कामकाज पर पैनी नजर रखने के निर्देश सीबीआई को दिए है। कैबिनेट सचिव प्रदीप कुमार सिन्हा ने सभी मंत्रालयों से अधिकारियों के रोटेशन करने की सलाह भी दी है। साथ ही राज्यों के भ्रष्ट अधिकारियों की समीक्षा करने को कहा है। गौरतलब है कि पिछले एक वर्ष में सीबीआई ने सीनियर ब्यूरोक्रेट्स, सरकारी कंपनियों के अधिकारियों, रक्षाकर्मियों और बैक अधिकारियों सहित इस तरह के 101 अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर चुकी है। यही नहीं सीबीआई ने पिछले वर्ष 1044 चार्जशीट भी दाखिल की है, जो पिछले पांच वर्ष में सबसे अधिक है। अरबों के आसामी हैं मप्र के नौकरशाह भ्रष्टाचार और आय से अधिक संपत्ति के मामलों में सीबीआई व आयकर विभाग की चपेट में आए मप्र के आला अफसरों की लंबी फेहरिश्त है। कई अफसरों के खिलाफ तो केन्द्र एवं राज्य सरकार की जांच एजेंसियों के अलावा प्रवर्तन निदेशालय में भी छानबीन चल रही है। वहीं आयकर विभाग अरबों रुपए की काली कमाई पर टैक्स वसूली की कार्रवाई कर रहा है। प्रदेश के अनेक अफसर ऐसे भी हैं जिन पर केन्द्र और राज्य की जांच एजेंसियों की नजर बनी हुई है, ये वे अफसर हैं जिन्होंने आय से अधिक संपत्ति जोड़ ली है। साथ ही वे लगातार ऐसी पोस्टिंग पर रहे हैं जिसे आम बोलचाल की भाषा में मलाईदार पोस्टिंग कहा जाता है। मप्र कैडर के ऐसे 160 आईएएस केंद्र सरकार के निशाने पर थे, लेकिन करीब आधा सैकड़ा अफसरों को क्लीन चिट दे दी गई है। अभी भी 109 आईएएस पीएमओ और डीओपीटी के निशाने पर है। डीओपीटी विभिन्न स्रोतों से इनकी आय और नामी-बेनामी संपत्ति की जानकारी जुटा रहा है। अगर आयकर विभाग के सूत्रों की माने तो पिछले एक दशक में प्रदेश के नौकरशाहों ने ही करीब 27,000 करोड़ रुपए की काली कमाई को निवेश किया है। इसके अलावा मध्यप्रदेश में पिछले एक दशक में आईएएस अफसरों सहित कई अन्य सरकारी मुलाजिमों के ठिकानों पर आयकर विभाग के छापों में अब तक करीब 945 करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता चला है, जबकि कई हजार करोड़ की संपति आज भी जांच एजेंसियों के राडार से बाहर है । प्रशासनिक पारदर्शिता और नियम कायदों से कामकाज का ढोल पीटने वाली सरकार की नाक के नीचे नौकरशाह किस तरह सरकारी योजनाओं को पलीता लगा रहे हैं, ये छापे इसका खुलासा कर रहे हैं। आयकर विभाग, लोकायुक्त, ईओडब्ल्यू को मिली शिकायतों के अनुसार प्रदेश में पिछले एक दशक में जितने संस्थान तेजी से खुले या बढ़े हैं, उनमें नौकरशाहों की अवैध कमाई लगी हुई है। जांच के दायरे में मप्र के नौकरशाह आयकर विभाग के शिकंजे में अब तक प्रदेश के अनेक आला अफसर आ चुके हैं। विभाग का अनुमान है कि इनके पास अरबों रुपए की संपत्ति पाई गई जो कि आय से कई गुना अधिक है। भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी कर्मचारी और अधिकारी काली कमाई छिपाने में माहिर हैं। भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाली एंटी करप्शन ब्यूरो (एसीबी) भी इस कमाई को उजागर करने में खास कामयाब नहीं हो पाई। यही कारण है कि रंगे हाथ रिश्वत लेने व पद के दुरुपयोग के कई मामले दर्ज करने वाली सीबीआई अधिक सम्पत्ति के मामले तलाशने में कमजोर रही। एक वर्ष में ऐसे दो दर्जन मामले ही सामने आ सके हैं। इसके विपरीत जगजाहिर है कि भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र में किस कदर छाया हुआ है। आय से अधिक स पत्ति का मामला दर्ज करने से पहले एसीबी स बंधित अधिकारी की सम्पत्ति की जानकारी जुटाती है। यह भी जुटाया जाता है कि सम्पत्ति कब और किसके नाम से खरीदी गई। इसके बाद उसके वेतन से तुलना की जाती है। एसीबी में वर्ष 2014 में दर्ज 460 मामलों में से इनकी संख्या 26 ही रही। इसके विपरीत रंगे हाथ रिश्वत लेने के मामलों की संख्या बहुत अधिक है। 12 माह में 40 सरकारी विभागों के 262 लोगों को रंगे हाथ पकड़ा गया। इनमें 56 राजपत्रित अधिकारी तो 206 अराजपत्रित अधिकारी शामिल हैं। इसी तरह पद के दुरूपयोग के 26 विभागों के 172 कर्मचारियों के खिलाफ मामले दर्ज किए गए। मप्र में भ्रष्टाचार के आरोपी अफसरों के ठिकानों पर आयकर और लोकायुक्त के छापे के बाद काली कमाई का सबसे ज्यादा निवेश रियल एस्टेट में मिला है। जांच एजेंसियों के अफसरों के मुताबिक इन अफसरों ने मकान, प्लॉट, खेती की जमीन और कॉलोनियों में सबसे ज्यादा निवेश किया है। खास बात यह है कि छापे से बचने के लिए अधिकांश ने शहरों से दूर गांवों में करोड़ों का निवेश किया है। उन्होंने निवेश या तो अपने पैतृक गांव में किया है या फिर लंबे समय से जिस जिले में पदस्थ हैं उन स्थानों में। चौंकाने वाला खुलासा यह है कि कई अफसरों ने बेनामी संपत्ति खरीदी और बाद में उसे दान में ले लिया। ऐसा करके अफसरों ने न सिर्फ राजस्व का नुकसान किया, बल्कि अपनी काली कमाई को भी आसानी से छुपाने का प्रयास किया। जांच एजेंसियों से मिली जानकारी के मुताबिक भ्रष्टाचार के आरोपी अफसरों ने घरों में नकद पैसे रखने की बजाए अलग-अलग सेक्टर में निवेश किया है। इसमें कई अफसरों ने शेयर बाजार, गाडिय़ों की एजेंसी और होटल में भी पैसा लगाए हैं। लोकायुक्त ने प्रदेश में जिन छोटे-बड़े अफसरों के यहां छापामार कार्रवाई की है उनके यहां मिले दस्तावेजों से भी यह खुलासा हुआ है। बताया जा रहा है कि छोटे अधिकारियों और खासतौर पर तृतीय और चतुर्थ वर्ग के कर्मियों के पास से करोड़ों की संपत्ति मिल रही है। कई अधिकारियों ने जमीन के साथ कॉलेज और होटल व्यवसाय में भी निवेश किया है। योजनाओं का किया बंटाढार प्रदेश में आम आदमी की सहूलियत को देखते है प्रदेश सरकार ने आधा सैकड़ा से अधिक नई योजनाएं संचालित कर रखी हैं, वहीं केन्द्र प्रायोजित योजनाओं की संख्या 72 हैं जिनमें से 90 फीसदी तो अफसरों की कमाई का जरिया बनी हुई हैं। इसी कारण अफसरों के पास अकूत दौलत आ रही है। दरअसल, अफसरों की कमाई के दो जरिए हैं- एक तबादला और दूसरा कमीशनखोरी। यहां यह तथ्य नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि दोनों तरह के काम विभागीय मंत्री की सहमति या नेताओं के दखल के बिना नहीं हो सकते। हाल ही के आयकर छापों से साबित हो गया है कि अरबों रुपए की केन्द्रीय मदद का लाभ जनता को पहुंचने के बजाय भ्रष्ट अफसरों की तिजोरियों में जा रहा है। तमाम अफसरों व कारोबारियों के ठिकानों पर आयकर, लोकायुक्त व ईओडब्ल्यू ने कार्रवाई कर अकूत संपत्ति का पता लगाया है। सुप्रीम कोर्ट से लेकर प्रधानमंत्री तक की टिप्पणियों पर गौर करें तो पाते हैं कि भ्रष्टाचार की असली जड़ नेता, अफसर और किस्म-किस्म के माफिया का गठजोड़ है। यहां के नौकरशाह कई स्तरों पर भ्रष्टाचार में डूबे हैं। जो ईमानदार माने जाते हैं, उनके बाल-बच्चे विदेश में पढ़ते हैं। किन घरानों की बदौलत? जो केंद्र सरकार की नीतियां बनाते हैं, वे रिटायर्ड होने से पहले ही मुक्ति पाकर बड़े घराने ज्वाइन करते हैं। जनता की उंगलियों पर नाम, सरकार को पता नहीं प्रदेश में कितने और कौन-कौन भ्रष्ट अफसर हैं, जनता नाम गिना देगी, पर प्रदेश सरकार को इसकी जानकारी नहीं है। तभी तो प्रदेश सरकार ने अभी तक केंद्र सरकार को भ्रष्ट अफसरों की सूची नहीं भेजी है। भ्रष्टाचार करके भी लम्बे अरसे तक लाभ के पदों पर काबिज रहने वाले नौकरशाहों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए पीएमओ ने डीओपीटी के माध्यम से सभी राज्यों से भ्रष्ट अफसरों की सूची मांगी थी। कई राज्यों ने तो सूची भेज दी है लेकिन मप्र सरकार आनाकानी कर रही है। जब डीओपीटी का इस संदर्भ में पहला पत्र आया था तब राज्य सरकार ने कहा था कि यहां कोई भी ऐसा भ्रष्ट अफसर नहीं है जिसके खिलाफ कार्रवाई करने की अनुशंसा की जाए। उसके बाद दो और पत्र आए लेकिन राज्य सरकार ने जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। आलम यह है कि सब भ्रष्ट न सिर्फ ताकतवर पदों पर हैं, बल्कि खुली लूट में शरीक भी हैं। मप्र में एक भी कमजोर अफसर नहीं मध्यप्रदेश सरकार को नहीं लगता कि उनके राज्य में अखिल भारतीय सेवा (आईएएस, आईपीएस, आईएफएस) का एक भी अफसर सुस्त है। प्रदेश के 166 अफसरों के कामकाज की समीक्षा करने के बाद मप्र ने केंद्र को लिखा है कि सभी अधिकारी सेवा जारी रखने के लिए सक्षम पाए गए। अन्य राज्यों की तुलना में मप्र ने सबसे ज्यादा अफसरों की समीक्षा की थी। इसके आधार पर केंद्र सरकार अक्षम पाए गए अधिकारियों को जनहित में समय से पहले रिटायर होने के लिए कह सकती है। केंद्र ने पिछले साल अपने 13 अधिकारियों को इसी आधार पर हटाया भी था। हालांकि, मध्यप्रदेश समेत 14 राज्य सरकारों ने अपने अधिकारियों पर काफी नरमी बरती है। मध्य प्रदेश ने कुल 1089 अधिकारियों में से सबसे अधिक 166 अधिकारियों की समीक्षा की। हालांकि उसे इनमें से एक भी अधिकारी अक्षम नहीं मिला। आलम ये है कि 1089 अधिकारियों में से सिर्फ दो की सेवा समाप्त करने की अनुशंसा की गई है। ये दोनों अफसर एजीएमयूटी कैडर के हैं जिनकी समीक्षा केंद्रीय गृह मंत्रालय करता है। यानी 14 राज्य सरकारें अपने एक भी अफसर को हटाने की इच्छुक नहीं हैं। गुडग़ांव में प्रॉपर्टी खरीदने में ले रहे हैं दिलचस्पी जांच एजेंसियों से मिली जानकारी के अनुसार मप्र के अधिकांश आईएएस, आईपीएस अधिकारी गुडग़ांव में प्रॉपर्टी खरीदने मे दिलचस्पी दिखा रहे हैं। जहां अफसरों ने पत्नी, पुत्र, पिता या अन्य परिजनों के नाम से संपत्ति खरीदी है। साथ ही प्रदेश की राजधानी भोपाल, इंदौर, होशंगाबाद, ग्वालियर, जबलपुर में खेती की जमीन तो सतना, कटनी, दमोह,छतरपुर और मुरैना में बिल्डर व खनन माफिया के पास करोड़ों रुपए का निवेश किया है। वहीं प्रदेश के बाहर मुंबई, दिल्ली, गुडग़ांव, हिमाचल प्रदेश, ओडिशा,पंजाब, शिमला, असम, आगरा के साथ ही विदेशों में ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, सिंगापुर, दुबई, मलेशिया, बैंकॉक, कनाडा, लंदन में भी संपत्ति जुटाई है। वहीं डीओपीटी की वेबसाइट पर अफसरों ने अपनी संपत्ति की जानकारी छुपाई है। कई अफसरों ने अपनी संपत्ति का सिर्फ खरीद मूल्य बताया है, जबकि कुछ ने 4 प्रॉपर्टी में से केवल एक या दो का मूल्य घोषित किया है। कुछ ऐसे अधिकारी हैं जिन्होंने कलेक्टर रेट के आधार पर अपनी संपत्ति की प्रजेंट वैल्यू (अनुमानित कीमत) बताई है। कुछ अफसर ऐसे भी हैं जिन्होंने अपनी एग्रीकल्चर और रेजिडेंशियल प्रॉपर्टी तो बताई है, लेकिन उसकी प्रजेंट वैल्यू बताने से यह कहकर इनकार कर दिया है कि उन्होंने कीमत का असेसमेंट नहीं कराया है। डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग की वेबसाइट पर 25 अप्रैल तक उपलब्ध आईपीआर रिटर्न के आंकड़ों के अनुसार, मप्र कैडर के अफसरों ने लोकपाल एवं लोकायुक्त एक्ट-2013 के तहत अपनी अचल संपत्ति घोषित की है। मात्र 10 फीसदी ही पाक-साफ पीएमओ के एक अधिकारी की माने तो मौजूदा तकरीबन 4,200 आईएएस अफसरों में से 10 फीसदी यानी 420 ही ऐसे निकलेंगे जो जायदाद के मामले में पाक साफ हों। फर्क इतना है कि कुछ संभल कर जायदाद बनाते हैं तो कुछ किसी की परवाह नहीं करते। अधिकारियों ने बचने का नया तरीका यह निकाल लिया है कि जायदाद नजदीकी रिश्तेदारों के नाम से बनाई जाए। हालांकि यह भी जोखिम वाला काम है पर जानकारी देने से तो बेहतर है। बताया जाता है की डीओपीटी ने राज्य सरकारों सेएक बार फिर से भ्रष्ट अफसरों की सूची मांगी है। लोकायुक्त से मिली जानकारी के अनुसार, वर्तमान समय में मप्र में विभिन्न विभागों में कई अफसर सहित 104 लोग ऐसे हैं जिन्हें न्यायालय से भ्रष्टाचार सहित अन्य मामलों में सजा हो चुकी है, लेकिन वे जमानत लेकर नौकरी कर रहे हैं। लोकायुक्त ने इस संदर्भ में मुख्यमंत्री को एक पत्र भी भेजा है और अपने पत्र के साथ 400 ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की सूची भी सौंपी है, जिनके खिलाफ अभियोजन की अनुमति लंबित है या चालान दाखिल हो जाने के बाद भी उन्हें निलंबित नहीं किया गया है। जिसमें सबसे अधिक राजस्व विभाग के 27 अधिकारी शामिल हैं। इसके अलावा पंचायत व ग्रामीण विकास और गृह विभाग के 13-13, स्कूल शिक्षा- 10, पीएचई- 9, कृषि-7, नगरीय विकास एवं पर्यावरण- 5, वन- 5, महिला एवं बाल विकास-4, ग्रामोद्योग-3, ऊर्जा- 2, श्रम- 2, आदिम, अजा-2, सहकारिता-2, खनिज- 1, सामाजिक न्याय-1, खाद्य विभाग- 1 और पीडब्ल्यूडी का 1 अधिकारी शामिल है। हवाला में भी अफसरों का पैसा आयकर विभाग द्वारा बीते दिनों प्रदेश सहित अन्य राज्यों में कई ठिकानों पर की गई छापे की कार्रवाई में एक हजार करोड़ के हवाला कारोबार का खुलासा हुआ है। खास बात यह है कि इसका संचालन मप्र से किया जा रहा था और इसमें कई आईएएस और आईपीएस अफसरों का भी पैसा लगा है। इस गोरखधंधे के कर्ता-धर्ता काली बोगस कंपनियों व फर्जी खातों में घुमाकर नंबर एक में बदला जा रहा था। बैंकों की सांठगांठ भी मिली है, कालेधन के बदले ये कारोबारी देश के किसी भी शहर में चैक जारी कर देते थे। आयकर ने सभी राज्यों को अलर्ट जारी कर छानबीन शुरू कर दी है। आयकर इन्वेस्टीगेशन विंग को खुफिया सूत्रों से लगातार सूचनाएं मिल रही थीं कि जबलपुर और कटनी के कुछ व्यापारी बिना किसी उद्योग-धंधों के अपनी कंपनियों के जरिए अरबों रुपए लेनदेन कर रहे हैं। अफसरों ने जब जांच-पड़ताल की तो पता चला ये लोग नकद रुपए के बदले किसी भी शहर में मौजूद कंपनी के नाम पर चैक जारी कर देते हैं। एक लाख पर 150 से 200 रुपए कमीशन लेकर रोज ही करोड़ों का लेनदेन चल रहा था। कई वर्षों से यह सिलसिला जारी था। कटनी-जबलपुर के लोग इनके पास आते थे अधिकांश साइकल व कपड़ा व्यापारी ब्लैक मनी का भुगतान करते थे। किसी व्यापारी को यदि काली कमाई के 10 लाख रुपए कर्नाटक भेजना है तो वह तयशुदा कमीशन देकर संबंधित व्यापारी के नाम पर चैक ले लेता था। हवाला कारोबारी अपनी दो-तीन बोगस कंपनियों में यह राशि घुमाकर चौथी कंपनी के नाम से दूसरे स्टेट के संबंधित व्यापारी के नाम चैक दे देता था। ये बैंक खाते इनके नौकरों, माली और ड्राइवरों के नाम पर चल रहे थे। इस काम में बैंक अफसरों की सांठगांठ भी सामने आई है। विभाग को आश्चर्य इस बात का है ज्यादातर मामलों में एक्सेस, एचडीएफसी, आईसीआईसीआई एवं आईडीबीआई बैंकों की भूमिका सामने आई है। अब बैंक अफसरों से पूछताछ की तैयारी की गई है। 5 साल में 101 अधिकारी सीबीआई जांच के दायरे में पिछले पांच साल में 101 आईएएस अधिकारी भ्रष्टाचार के अलग अलग मामलों में कथित संलिप्तता के चलते सीबीआई की जांच के दायरे में आए हैं जिनमें से 66 के खिलाफ सरकार से मुकदमे की अनुमति मिली है। 2010 से सीबीआई ने 100 आईएएस अधिकारी, 10 सीएसएस ग्रुप ए अधिकारी और 9 सीबीआई ग्रुप ए अधिकारियों के खिलाफ मुकदमे के लिए अनुमति देने का अनुरोध किया था। केंद्र सरकार ने 66 आईएएस अधिकारी, 8 सीएसएस ग्रुप ए अधिकारियों और छह सीबीआई ग्रुप ए अधिकारियों के मामले में मुकदमे की अनुमति दी। नाकाबिल अफसर मोदी के टेस्ट में पास मप्र कैडर के 43 अफसरों की राज्य सरकारों ने जिन करीब 1,100 ब्यूरोक्रेट्स के वर्क परफॉर्मेंस की सिफारिश की है, उनमें से केवल दो के लिए प्री-मच्योर रिटायरमेंट (समय से पूर्व सेवानिवृत्ति) की सिफारिश की गई है। नियमों के हिसाब से केंद्र सरकार संबंधित राज्य के साथ विचार-विमर्श करके नॉन परफॉर्मेंस के लिए किसी ऑफिसर को लोकहित में सेवा से रिटायर होने के लिए कह सकती है। डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल ऐंड ट्रेनिंग ने कहा है, इस नियम का मकसद अवांछित व्यक्ति को बाहर निकालना है ताकि स्टेट सर्विसेज में एफीशिएंसी और इनीशिएटिव्स के हाई स्टैंडर्ड को बनाए रखा जा सके। ऐसा जरूरी नहीं है कि कोई अच्छा ऑफिसर हर समय सक्षम बना रहे। हालिया स्टेटस रिपोर्ट के मुताबिक 15 साल की सर्विस पूरी कर चुके 549 ऑफिसर्स के परफॉर्मेंस की समीक्षा की गई। इनमें से सर्वाधिक महाराष्ट्र काडर के 76, झारखंड काडर के 64, एजीएमयूटी (अरुणाचल प्रदेश-गोवा-मिजोरम-केंद्रशासित प्रदेश) काडर के 62, उत्तर प्रदेश काडर के 58, पंजाब के 44 , मध्य प्रदेश काडर के 43, उड़ीसा काडर के 37, राजस्थान के 36, गुजरात और छत्तीसगढ़ के 33, मेघालय काडर के 24, बिहार और हरियाणा काडर के 19-19 अधिकारियों के प्रदर्शन की समीक्षा की गई। रिपोर्ट में कहा गया है कि एजीएमयूटी काडर के एक अधिकारी को समय से पहले सेवानिवृत्त करने की सिफारिश की गई है। वहीं हरियाणा काडर के एक अधिकारी के संबंध में अंतिम फैसले का इंतजार है। अन्य सभी सेवा में बने रहने के लिए उपयुक्त पाए गए हैं। यूपी और बिहार को ज्यादा आईएएस अफसर मिलेंगे केंद्र सरकार आईएएस अफसरों के बंटवारे के लिए नियमों में बदलाव करने जा रही है। जिन राज्यों में आईएएस अफसरों की कमी ज्यादा है, उन्हें अब ज्यादा अफसर मिलेंगे। जहां पहले से अफसर ठीकठाक संख्या में हैं, उनके कोटे में कमी की जा सकती है। नए आईएएस अफसरों के कैडर आवंटन के मौजूदा नियमों को बदलने की तैयारी कर ली गई है। कार्मिक मंत्रलय के सूत्रों के अनुसार 22 अप्रैल को दिल्ली में बुलाई गई राज्यों के प्रमुख कार्मिक सचिवों की बैठक में इस प्रस्ताव को रखा जाएगा। राज्यों के विचार जानने के बाद केंद्र 2015 के बैच से अमल शुरू कर देगा। अफसरों के पिछले साल के बैच को इस साल के अंत तक कैडर आवंटित होंगे। कार्मिक मंत्रलय के अनुसार अभी 150 नए आईएएस अफसरों की भर्ती हो रही है। राज्यों के तय कोटे के मुताबिक इनका आवंटन किया जाता है। अफसरों के आवंटन का जो फामरूला है, उसमें राज्य की जरूरत यानि जिलों की संख्या को ध्यान में रखा जाता है तथा आंशिक रूप से खाली पदों को आधार बनाया जाता है। लेकिन भविष्य में सिर्फ रिक्त पदों को आधार बनाया जाएगा। अफसरों की कमी से जूझ रहे राज्यों ने केंद्र को आईएएस देने में आनाकानी शुरू कर दी है। आईएएस अफसर राज्य कैडर के होते हैं। राज्यों के कोटे में केंद्र का कोटा तय होता है। तीन राज्यों में अफसरों की सबसे ज्यादा कमी कार्मिक मंत्रलय के अनुसार यूपी में 115 तथा बिहार में 112 आईएएस अफसरों की कमी बनी हुई है। हालांकि पश्चिम बंगाल में करीब 150 पद खाली हैं। इन तीन राज्यों में सबसे ज्यादा कमी बनी हुई है। इसलिए अगले बैच से इन राज्यों को सर्वाधिक अफसर आवंटित होने की उम्मीद है। इसके अलावा छोटे राज्य झारखंड में भी करीब 95 रिक्तियां हैं। इसलिए झारखंड को भी नई योजना का लाभ मिल सकता है।

भ्रष्टाचार का गढ़ बना पीडब्ल्यूडी

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रष्टों ने लगाई 27,000 करोड़ की चपत
भोपाल। लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) मप्र में ही नहीं भारतभर में भ्रष्टाचार का गढ़ बना हुआ है। अकेले मप्र में ही भ्रष्ट अधिकारियों, नौकरशाहों, राजनेताओं और ठेकेदारों ने मिलीभगत से सरकार को पिछले एक दशक में करीब 27,000 करोड़ की चपत लगाया है। सरकार को यह चपत पूर्ण हो चुकी 14,714 सड़कों और 95 पुल-पुलियों के साथ ही निर्माणाधीन 16,783 सड़कों और 290 पुल-पुलियों के घटिया सड़क निर्माण, टेंडर में गड़बड़ी, पुरानी सड़कों पर पुन: निर्माण, पुल-पुलिया का मापदंड को दरकिनार कर बनाना, समय पर निर्माण नहीं होने से लागत बढऩे और भ्रष्टाचार से लगाई गई है। पीडब्ल्यूडी में भ्रष्टाचार की जड़ें किस तरह फैली हैं, इसका खुलासा अफसरों व कर्मचारियों पर छापामार कार्रवाई से हो रहा है, पर विभाग के जिम्मेदारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। यही नहीं विभाग के भ्रष्टाचार की पोल कैग की रिपोर्ट में भी खुलती रही है। उधर, आम आदमी पार्टी ने सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। एक प्रेस कांफ्रेंस में पार्टी के पदाधिकारियों ने घोटालों का खुलासा किया। ट्विटर पर तस्वीर जारी कर और विभिन्न आंकड़ों के जरिए पार्टी ने सरकार पर लगभग 36,000 करोड़ से ज्यादा के घोटालों का आरोप लगाया है। जिसमें पीडब्ल्यूडी विभाग में 9765.22 करोड़ की वित्तीय अनियमित्ताएं भी हैं। उल्लेखनीय है कि लोक निर्माण विभाग शासकीय भवनों, मार्गों तथा पुलों के सर्वेक्षण, रूपांकन, निर्माण एवं रख-रखाव आदि सभी कार्यों को सम्पन्न करने वाला प्रमुख विभाग है। यह विभाग मध्यप्रदेश के समस्त कार्य विभागों के ठेकेदारों के पंजीयन का कार्य भी करता है। मुख्यमंत्री युवा इंजीनियर कांट्रेक्टर योजना संचालित किए जाने का नोडल विभाग है। इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी वाले इस विभाग को हर साल राज्य सरकार द्वारा हजारों करोड़ रूपए का बजट मुहैया कराया जाता है। वित्तीय वर्ष 2015-16 में विभाग को राज्य सरकार नक 5911.80 करोड़ का बजट मुहैया कराया था वहीं वित्तीय वर्ष 2016-17 के लिए 7124.80 करोड़ का बजट दिया है। लेकिन इतना बड़ा बजट मिलने के बाद भी विभाग गुणवत्ता पूर्ण कार्य करने में असफल साबित हुआ है। विभाग में भर्राशाही और भ्रष्टाचार किस कदर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विभाग ने अब तक 179 ठेकदारों को ब्लैक लिस्टेड कर रखा है। पीडब्ल्यूडी ने भारत में भ्रष्टाचार को बुनियादी स्तर पर सचमुच नए सिरे से परिभाषित किया है। अन्य विभागों के विपरीत, जहां रिश्वत, काम की रफ्तार को तेज करने का काम करता है, वहीं पीडब्ल्यूडी में इसकी भूमिका बदल जाती है। यह संभवत: उन चंद विभागों में से है, जहां, अधिकारी घटिया सेवाएं देने के लिए पैसे लेते हैं। यहां भ्रष्टाचार का पूरे समाज पर व्यापक असर पड़ता है। सड़कों के रखरखाव और जल निकासी की व्यवस्था के लिए काफी हद तक पीडब्ल्यूडी ही जिम्मेदार होता है। कोई भी साल ऐसा नहीं होता है, जब भारी बारिश के बाद प्रदेश के ज्यादातर शहरों में जिंदगी ठहर सी न जाती हो। हर साल, प्रदेश भर में, बारिश के बाद न केवल सड़कें बर्बाद हो जाती हैं, बल्कि नाले-नालियां भी उफनाने लगते हैं। इसीलिए उन शहरों को किस्मतवाला माना जाता है, जहां जल निकासी का अच्छा इंतजाम होता है। पीडब्ल्यूडी, मरम्मत का जो भी काम कराता है, वह चंद महीनों में ही बराबर हो जाता है। अगली बारिश में ही पता चल जाता है कि दरअसल क्या काम कराया गया था। नतीजा यातायात में रुकावट, सार्वजनिक जीवन में बाधा, सामग्री का नुकसान और बड़े पैमाने पर महामारी का प्रकोप। मप्र में हर साल सड़क की वजह से सरकार को सैकड़ों करोड़ रुपए का खामियाजा उठाना पड़ता है। प्रदेश में सड़क माफिया, पीडब्ल्यूडी के कर्मचारियों, स्थानीय राजनेताओं, वेंडरों और ठेकेदारों का गठजोड़ इस हद तक पहुंच गया है कि किसी भी ईमानदार आदमी की प्रतिबद्धता खतरे में पड़ गई है। पीडब्ल्यूडी कई बार निजी कंपनियों के जरिए निर्माण कार्य करवाता है और पीडब्ल्यूडी की नाक के नीचे और दोनों की सुविधा के अनुसार, सड़कों, पुलों और बुनियादी सुविधाओं के निर्माण में धड़ल्ले से घटिया सामग्री का इस्तेमाल होता है। इसका परिणाम यह होता है कि हर साल करोड़ों रूपए खर्च करने के बाद भी प्रदेश की सड़के बदहाल हैं। पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण ने करीब 14,000 से अधिक सड़कों का निर्माण कराया है लेकिन भ्रष्टाचार के कारण ये सड़कें ऐसी बनी हैं कि कईयों का अस्तित्व केवल कागजों पर है। रिश्वतखोरों का स्वर्ग लोक निर्माण विभाग में ें रिश्वत नारियल जैसा हो गया है, हर काम से पहले चढ़ाना ही पड़ता है। आलम यह है कि तमाम सतर्कता के बाद भी विभाग में रिश्वत लेने वाले अधिकारी-कर्मचारी हमेशा लोकायुक्त के हत्थे चढ़ रहे हैं। सही कहा जाए तो पीडब्ल्यूडी के ज्यादातर अधिकारी भ्रष्ट हैं। और नौकरशाहों और राजनेताओं से माफिया की मिलीभगत इस समस्या को और गंभीर बना देती है। इसकी वजह से प्रदेश को करदाताओं के पैसे का भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। न्यायिक विलंब इस गठजोड़ के लिए उत्प्रेरक का काम कर रहा है। एक समय था जब उम्मीद की किरण दिखाई दी थी, जब मध्य प्रदेश के देवास में पीडब्ल्यूडी के एक भ्रष्ट अधिकारी को एक स्थानीय न्यायाधीश ने पांच करोड़ रुपए का जुर्माना और तीन साल कैद की सजा सुनाई थी। इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कड़ी सजा के तौर पर देखा गया था। लेकिन विभाग में भ्रष्टाचार के भष्मासूर इस कदर भरे पड़े हैं कि लगातार रिश्वत के मामले सामने आ रहे हैं। अक्टूबर 2015 में बिल्डर एसोसिएशन ऑफ इंडिया इंदौर सेंटर के चेयरमैन अरुण जैन ने पीडब्ल्यूडी के प्रमुख सचिव (पीएस) प्रमोद अग्रवाल से की शिकायत में कहा था कि पीडब्ल्यूडी ऑफिस में भ्रष्टाचार का बोलबाला हैं। वे यदि सत्यता जांचना चाहते हैं, तो एसी ऑफिस के रिकॉर्ड में अटकी फाइलें देख लें। एसोसिएशन ने सुझाव भी दिए थे, पर ध्यान नहीं दिया गया। पीडब्ल्यूडी में जनसुनवाई करने में भी कोई दिलचस्पी नहीं लेता है। इस कारण भ्रष्टाचार लगातार बढ़ रहे हैं। इस साल इस ही पीडब्ल्यूडी में रिश्वतखोरी और लोकायुक्त की छापामार कार्रवाई में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जो विभाग में चल रहे भ्रष्टाचार की पोल खोल रहे हैं। 8 मार्च को कार्यपालन यंत्री (ईई) ब्रजेन्द्र कुमार माथुर के खिलाफ लोकायुक्त ने सड़क घोटाले में प्राथमिकी दर्ज की थी। देपालपुर के गंगाजल खेड़ी से चिमनखेड़ी गांव के बीच 7.70 किमी की सड़क में दो ठेकेदारों का पेमेंट रोका और तीसरे ठेकेदार को ज्यादा राशि में टेंडर भरवाकर काम सौंप दिया। ठेकेदार राकेश कुमार सांवला ने अधिकारियों की बात की रिकार्डिंग और वीडियो बनाकर स्टिंग भी किया था। इससे पहले लोकायुक्त ने 29 जनवरी को रेसीडेंसी इलाके में माथुर को 30 हजार रुपए की रिश्वत लेते रंगेहाथ पकड़ा था। वह ठेकेदार ब्रजेश सोनी को सड़क की डीपीआर बनाने के भुगतान के लिए 50 हजार की रिश्वत मांग रहा था। पकड़े जाने के एक माह बाद माथुर का तबादला सागर कर दिया और विभागीय जांच की बात कहकर सस्पेंड होने से बचा लिया गया। 18 अप्रैल को लोकायुक्त पुलिस ने पीडब्ल्यूडी के एक रिश्वतखोर बाबू रजनीकांत केसरी को तीस हजार रूपए घूस लेते हुए धर- दबोचा। लोकायुक्त की इस कार्रवाई से पीडब्ल्यूडी विभाग में अफरा-तफरी मच गई। जानकारी के अनुसार फरियादी इंद्रर प्रजापति टीआई माल में स्थित विक्टोरिया रेस्टोरेंट में बार चलाने के लिए आबकारी विभाग में लाइसेंस के लिए आवेदन दिया था। इस पर आबकारी विभाग में जगह का प्राक्लन करने के लिए पीडब्ल्यूडी को निर्देशित किया था। आबकारी विभाग से जैसे ही यह फाइल पीडब्ल्यूडी के भ्रष्ट बाबू रजनीकांत केसरी के पास आई वैसे ही प्राक्लन के नाम पर फरियादी से पच्चास हजार रुपए की मांग की। इस पर आवेदक ने मना कर दिया। फरियादी इंदर प्रजापति महीनों भ्रष्ट बाबे केसरी का चक्कर काटता रहा, लेकिन वह फाइल बढ़ाने को तैयार ही नहीं होता था। अंत में किसी तरह दोनों के बीच तीस हजार रूपये में सौदा तय हुआ। इधर फरियादी इस पूरे मामले की शिकायत लोकायुक्त एसपी अरूण मिश्रा से कर दी। लोकायुक्त पुलिस ने जाल बिछाकर भ्रष्ट बाबू केसरी को दबोच लिया। पीडब्ल्यूडी का बाबू केसरी कितना भ्रष्ट है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह अपने पद पर एक ही जगह सालो सें बैठा हुआ था। रसूख के चलते उसका तबादल कहीं नहीं होता था। विभाग के अधिकारियों को भी उसके खिलाफ शिकायत मिलती थी लेकिन कोई अधिकारी हाथ नहीं डालता था। इससे स्पष्ट है कि उसका विभाग में एक तरफा तूती बोलती थी। बताया जा रहा है कि पीडब्ल्यूडी में बिना उसके इशारे से एक काम भी नहीं होता था। जिस किसी को अपना काम विभाग में करवाना होता था सभी लोग केसरी से संपर्क करते थे। केसरी इतना शातिर था कि वह अपने ही विभाग के अधिकारियों को ब्लैकमेल करता रहता था। उसके इस आदत से विभाग का कोई बड़ा अधिकारी कोई कार्रवाई करने का साहस नहीं करता था। सूत्रों का कहना है कि वह अधिकारियों को खुले तौर पर धमकी देता था कि अगर उसका कोई काम नहीं करेंगे तो वह अधिकारियों की पोल खोल देगा। इसके डर से विभाग का कोई भी अधिकारी या कर्मचारी केसरी के खिलाफ कुछ भी कहने का साहस नहीं रखता था। अधिकारियों के साथ विभाग के कर्मचारी भी भ्रष्टाचार कर मोटी कमाई करने में पीछे नहीं हैं। दो साल पहले लोकायुक्त ने टाइम कीपर कृपाल सिंह के तिलक नगर स्थित घर पर दबिश दी, तो 14 मकान, 20 एकड़ जमीन सहित कुल 12 करोड़ रुपए की संपत्ति का खुलासा हुआ था। वहीं डेली वेजेस से अपना कैरियर शुरू करने वाले पीडब्ल्यूडी के सब-इंजनीयर की आर्थिक सेहत लोकायुक्त छापे से पता चल गई है और अब इस भ्रष्ट सब इंजीनियर की भागीदारी वाली दो फर्मों की पूरी कुंडली लोकायुक्त पुुलिस खंगालेगी। उल्लेखनीय है कि इंदौर के इन्द्रपुरी में पुलिस ने पीडब्ल्यूडी के इंजीनियर राजेंद्र शर्मा के फ्लैट पर छापा मारा था तो आय से अधिक सम्पत्ति के साथ कई चौंकाने वाली जानकारी सामने आई थी। अटलांटा और ओरा नामक दो बिल्डर कंपनियों में राजेंद्र शर्मा के पिता की 27 प्रतिशत भागीदारी पता चली थी। बताते हैं कि इस अटलांटा और ओरा ने श्रीनगरमेन, इन्द्रपुरी, विजयनगर सहित प्रमुख इलाकों में 10 से अधिक बहुमंजिला इमारतें और बंगले बनाए हैं। पिता के नाम पर भागीदारी लेकर राजेंद्र शर्मा इन सब मामलों को डील कर रहा था। उसने यह सब निवेश उस समय शुरू किया, जब वह पीडब्ल्यूडी से हटाया गया था। फिलहाल उसका लॉकर खुलना बाकी है, लॉकर से भी कुछ महत्वपूर्ण जानकरियां मिल सकती हैं। लोकायुक्त पुलिस के सूत्रों के मुताबिक पुलिस दल आज अटलांटा और ओरा के ऑफिसों, उनके प्रमुख कार्यस्थल पर जाएगा और पता लगाएगा कि कौन-सा प्रोजेक्ट कब शुरू हुआ, कितने में जमीन खरीदी गई, कितने फ्लैट बनाये गये, कितना प्राफिट हुआ, 27 फीसदी के हिसाब से शर्मा के हिस्से में कितना आया, इस पैसे का निवेश कहां किया गया। यह सब बातें जांच का हिस्सा होंगी। दागी सबसे अधिक शक्तिशाली पीडब्ल्यूडी ऐसा विभाग है जहां दागी सबसे अधिक शक्तिशाली हैं। इसका अंदाज इससे लगता है कि विभाग में जिन इंजीनियरों को अनियमितता के आरोप में निलंबित किया जाता है उन्हें कुछ दिनों बाद बहाल कर दिया जाता है। पीडब्ल्यूडी हरदा के कार्यपालन यंत्री आरसी सिरोले, एसडीओ बीआर जगदेव और सब इंजीनियर आरके जैन 12 फरवरी 2015 में निलंबित किया गया। उन पर प्रथमदृष्टया आरोप था कि चारूवा-डेडगांव-दामोदरपुरके काम में गंभीर अनियमितताएं की हैं। उसी दिन उन्हें निलंबित कर दिया था। इसके तीन महीने बाद ही तीनों अफसरों सिरोले को मुख्य अभियंता कार्यालय पश्चिम परिक्षेत्र इंदौर, जगदेव को अधीक्षण यंत्री कार्यालय मंडल इंदौर और जैन को अधीक्षण यंत्री मंडल कार्यालय उज्जैन में पदस्थ कर दिया गया है। सिंहस्थ में निर्माण कार्यों की कमान एक ऐसे इंजीनियर के हाथों में हैं, जो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले सीहोर में घटिया सड़क निर्माण कराने का दोषी है। इस महाआयोजन में 600 करोड़ रुपए के निर्माण कार्यों की मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी पीडब्ल्यूडी के कार्यपालन यंत्री पीजी केलकर हैं। उनके वेतन से 42 लाख रु की वसूली हो रही है। खासबात यह है कि जांच में केलकर दोषी साबित हुए। उन्हें दंडित तो किया, लेकिन उज्जैन से नहीं हटाया गया। घोटाले की वजह से केलकर की कई पदोन्नतियां और वेतन वृद्धि रोकी गईं। उज्जैन में पदस्थ करने के बाद विभाग ने उन्हें एक नोटिस जारी किया था कि मप्र सिविल सेवा नियम 1966 के नियम 10 एवं 16 के अंतर्गत केलकर पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का निर्णय लिया गया है। इसमें लोकायुक्त के सर्कलर की अनदेखी भी की गई है। लोकायुक्त का एक सर्कुलर है, जिसमें कहा गया है कि भ्रष्टाचार के लिए दोषी किसी भी अफसर की फील्ड पोस्टिंग नहीं की जाए। लेकिन केलकर की उज्जैन में पोस्टिंग करने के दौरान इस सर्कलर को दरकिनार किया गया है। इस मामले में पीडब्ल्यूडी मंत्री सरताज सिंह का कहना है कि केलकर के खिलाफ कार्रवाई की गई है। लेकिन इस मामले की जांच उन्हें उज्जैन में पदस्थ किए जाने के बाद पूरी हुई थी। उन्हें उज्जैन से इसलिए भी नहीं हटाया गया, क्योंकि यहां उनके द्वारा कराए जा रहे किसी भी काम की अभी तक कोई शिकायत नहीं मिली है। सूत्रों की माने तो केलकर की उज्जैन में पोस्टिंग कराने में उज्जैन कलेक्टर कवींद्र कियावत की भूमिका बताई जा रही है। यह दावे इसलिए भी सही हो सकते हैं, क्योंकि केलकर ने घोटाला उस अवधि में किया, जब कियावत सीहोर कलेक्टर रहे। केलकर दो साल सीहोर में रहे। रीवा में 30 करोड़ का घपला रीवा में चोरहटा बायपास से रतहरा तक सड़क निर्माण और सौंदर्यीकरण के नाम पर व्यापक पैमाने पर घपला किए जाने का आरोप लगाया गया है। कांग्रेस विधायक सुंदरलाल तिवारी ने कहा कि उन्हें मिले दस्तावेजों के आधार पर अब तक 30 करोड़ रुपए के भुगतान में अनियमितता की गई है। एक ही कार्य को कई ठेकेदारों के नाम पर भुगतान किया गया है। राशि का बंदरबाट करने के लिए शासन की आधा दर्जन एजेंसियों ने इस मार्ग में रुपए खर्च किए हैं। उन्होंने कहा कि 14.40 किलोमीटर की इस सड़क के बारे में विधानसभा में सरकार ने पूरी जानकारी नहीं दी है। बीते छह वर्षों के अंतराल में पीडब्ल्यूडी ने 10.35 करोड़, राष्ट्रीय राजमार्ग परिक्षेत्र ने 9.95 करोड़, नगर निगम ने भी करीब दस करोड़ रुपए का भुगतान किया है। अभी कई कार्यों का भुगतान किया जाना बाकी है। नगर निगम ने वर्ष 2008 से अब तक इस मार्गमें 2.02 करोड़ रुपए का पौधरोपड़ करा दिया है जो कहीं पर भी नजर नहीं आ रहा। इसी तरह वन विभाग ने भी करीब 60 लाख रुपए चोरहटा से रतहरा के बीच पौधे लगाने में खर्च कर दिए। विधायक का आरोप है कि एक ही कार्य के लिए दो ठेकेदारों को भुगतान किया गया है। इस मार्गमें ब्रिज कार्पोरेशन ने चौराहों में रोटरी बनाया तो समान तिराहे का काम एमपीआरडीसी ने किया है। इस मार्ग में सड़क, नाली, डिवाइडर, सौंदर्यीकरण आदि कार्यों के लिए मेसर्स विजय शंकर मिश्रा, शांती कांस्ट्रक्शन, मे. अजीत सिंह, विजय कुमार द्विवेदी, मोहम्मद मकसूद, रमेश कुमार मंशानी, एबी कांस्ट्रक्शन एवं इंफ्रास्ट्रक्चर, गोपाल सिंह, रामसज्जन शुक्ला, श्रीजी कंस्ट्रक्शन आदि को अलग-अलग हिस्सों में कई बार काम देने और भुगतान किए जाने की जानकारी विधानसभा में दी गई है। ढह गये 100 करोड़ के पुल लोक निर्माण विभाग कितना गुणवतायुक्त निर्माण करवाता है इसका उदाहरण यह है कि 3 साल में करीब 100 करोड़ से अधिक की राशि से बने पुल ढह गए हैं। भिंड की क्वारी नदी, बेगमगंज के राहतगढ़, हरदा, बैतूल जिले में सारणी के पास राजडोह पर बने पुल, होशंगाबाद जिले के सिवनी-मालवा क्षेत्र में नर्मदा का निर्माणाधीन आंवलीघाट पुल इसके उदाहरण हैं। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता केके मिश्रा कहते हैं कि प्रदेश सड़कों का निर्माण करने वाली अधिकांश कंपनियां राजनैतिक परिवारों और रिश्तेदारों से संबद्ध हैं? समूचा लोक निर्माण विभाग भ्रष्टाचार की कर्मस्थली के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। वह कहते हैं कि जब मुख्यमंत्री और लोक निर्माण मंत्री के विधानसभा क्षेत्रों में ही भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी और गुणवत्ताविहीन निर्माण सामग्री उस पुल को लील गई, तब अन्य क्षेत्रों की भयावहता क्या होगी? मिश्रा कहते हैं कि वर्ष 2011-12 में राजमार्गों की मरम्मत हेतु केंद्र द्वारा आवंटित 43 करोड़ 74 लाख रूपयों में से राज्य के केवल 23 करोड़ 59 लाख रूपए ही खर्च कर पाया। वर्ष 2012-13 में भी 110 करोड़ रूपयों की आवंटित राशि में 89 करोड़ 84 लाख रूपए ही खर्च हो सके। राजमार्गों के अलावा वर्ष 2011-12 में आवंटित 1568 करोड़ रूपए में से सिर्फ 1288 करोड़ रूपये ही खर्च हुए। इसी प्रकार वर्ष 2012-13 में भी आवंटित 1628 करोड़ रूपए में से मात्र 930 करोड़ 43 लाख रूपये ही खर्च हो पाए? अशोकनगर, ग्वालियर, शिवपुरी और दमोह में बिना किसी निर्माण कार्य कराये ही उनके विभाग ने ठेकेदारों को भुगतान कर दिया। जिसमें 18 इंजीनियर और ठेकेदार फसे, किंतु उनके विरूद्व कोई असरकारक कार्यवाही नहीं हुई। निर्धारित मानको के अनुरूप लगभग 6 हजार किलोमीटर सड़कें और 500 पुल बह गये हैं। यही नहीं, राजधानी भोपाल में करीब 300 किलोमीटर के मुख्य मार्ग में 150 किलोमीटर सड़कें बह गई हैं। इन संकेततात्मक स्थितियों में तो यही कहा जा सकता है कि लोक निर्माण विभाग सड़कों की ऊपरी मरम्मत और मरहम-पट्टी करवाकर भ्रष्टाचार को दबा नहीं सकता है। मिश्रा कहते हैं कि कि पिछले 11 वर्षों में सरकार करीब 1 लाख किलोमीटर सड़कों के निर्माण का दावा तो कर रही है, किंतु प्रदेश में आज भी 7 हजार गांव सड़क विहीन हैं। सबसे भ्रष्टाचार वाला क्षेत्र सड़क निर्माण को शायद सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार वाले क्षेत्र के तौर पर देखा जाता है। यही वजह है कि सड़क निर्माण में गुणवत्ता को लेकर हमेशा संशय बना रहता है। यह आम है कि भारी राशि खर्च करके कोई सड़क तैयार की जाती है और बारिश या वाहनों के दबाव से कुछ ही समय बाद उसके टूटने की खबर आ जाती है। शायद इसी के मद्देनजर ग्रामीण विकास योजनाओं की प्रगति की समीक्षा करते हुए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत बनाई जा रही सड़कों की गुणवत्ता की सख्त निगरानी सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री ने एक प्रभावशाली तंत्र स्थापित करने का निर्देश दिया। छिपी बात नहीं है कि सड़क निर्माण की निविदा निकलने से लेकर सामग्री की खरीद, निर्माण और रख-रखाव तक भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार पसरा हुआ है। पिछले आठ-दस सालों के दौरान देश भर में सड़कों का जाल बिछाने की कोशिश की गई, बहुत सारे दूरदराज के इलाकों को मुख्य सड़कों से जोड़ा गया। खासकर जब से प्रधानमंत्री सड़क निर्माण योजना की शुरुआत हुई, उसके बाद इस क्षेत्र में बड़ी कामयाबी हासिल हुई। लेकिन सवाल है कि इतने बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण के साथ क्या गुणवत्ता का भी खयाल रखा गया? इसका अंदाजा सिर्फ इसी से लगाया जा सकता है कि कई जगहों पर महज दो-तीन साल पहले की बनी हुई सड़कों को भी आज इस कदर दुर्दशा में देखा जा सकता है कि उस पर सहज तरीके से वाहन न चल पाएं। जब भोपाल में सड़कें धंसकने से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है तो दूर-दराज इलाकों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा इसलिए संभव होता है कि किसी खास दूरी में सड़क निर्माण के लिए सब कुछ नाप-तौल कर बजट बनाया जाता है, मानक तय किए जाते हैं और राशि जारी की जाती है। लेकिन संबंधित महकमे के अधिकारियों से लेकर निचले स्तर के ठेकेदार तक भ्रष्ट तरीके से इसी राशि में से हिस्सा बंटाने के फेर में इस बात का ख्याल रखना जरूरी नहीं समझते कि इसका सड़क की गुणवत्ता पर क्या असर पड़ेगा। बचे हुए पैसे में काम पूरा करने की कोशिश का नतीजा यह होता है कि जिस सड़क को बनाने में जितनी और जिस स्तर की सामग्री का उपयोग होना चाहिए उसमें कभी मामूली तो कभी ज्यादा कटौती कर दी जाती है। ऐसा शायद इसलिए हो पाता है कि राशि जारी करने से लेकर निर्माण की समूची प्रक्रिया के पूरा होने और फिर देखरेख पर निगरानी तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं है। ग्रामीण इलाकों में साधारण लोगों के बीच इस बात को लेकर जागरूकता कम है कि उनके उपयोग के लिए जो सड़क बनाई जा रही है, अगर वह तय मानकों के हिसाब से नहीं बनी है तो वे शिकायत करें। मगर अब तकनीक और संचार के बढ़ते दायरे के दौर में प्रधानमंत्री ने जिस अभिनव पहल की बात की है, उसके तहत 'मेरी सड़कÓ नामक ऐप के जरिए नागरिक शिकायतों के निवारण की भी व्यवस्था की जाएगी। जाहिर है, अगर सड़क निर्माण के क्षेत्र को भ्रष्टाचार और अनदेखी की समस्या से मुक्त करने के उपाय किए जा सके, तो यह जन-कल्याण के क्षेत्र में बड़ी कामयाबी होगी। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि सड़कें केवल सुगम आवाजाही का जरिया नहीं, बल्कि वे किसी इलाके से लेकर समूचे देश की अर्थव्यवस्था का सबसे मुख्य आधार होती हैं।