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भेड़ाघाट

Thursday, October 28, 2010

जर और जमीन की बलि चढ़ती अबलाएं

छह सितंबर, 2010. पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर ज़िले का तिलना गांव. एक आदिवासी को गांव वाले पीट-पीटकर मौत के घाट उतार देते हैं. मृतक हेमब्रम सोम का कसूर यह था कि वह एक ऐसी महिला का पति है, जिसे गांव के लोग डायन मानते हैं. हेमब्रम की पत्नी है मालो हांसदा. गांव के एक तांत्रिक के मुताबिक़ वह डायन है. नतीजतन, गांव के लोग इस परिवार के लिए सज़ा तय करते हैं. पति के लिए सज़ा-ए-मौत और मालो के लिए गांव छोड़ने की सज़ा. लेकिन यह कहानी अभी अधूरी है. इस पूरे प्रकरण का असली सच कुछ और है. दरअसल, आदिवासी बहुल तिलना गांव में तीन लोगों की अस्वाभाविक मौत हो जाने से गांव का एक दबंग परिवार ग्रामीणों को लेकर कुशमुड़ी के एक तांत्रिक के पास जाता है और उसके कहने पर लोग मालो को डायन मान लेते हैं. कुछ ही दिनों बाद उस दबंग के पुत्र की बीमारी से मौत हो जाती है और दोष इस परिवार के मत्थे म़ढ दिया जाता है. पंचायत में कथित डायन दंपत्ति पर 5,934 रुपये जुर्माने और एक बीघा जमीन दबंग के नाम लिखने का निर्णय लिया जाता है. जुर्माने की राशि तो सोम अदा कर देता है, पर जमीन देने से मना कर देता है. परिणामस्वरूप उसके पूरे परिवार की जमकर पिटाई की जाती है. जमीन के कागजात पर जबरिया दस्तखत करा लिए जाते हैं और परिवार को गांव छोड़ने का फरमान जारी कर दिया जाता है. पिटाई के दौरान सोम की मौत हो जाती है और उसकी तथाकथित डायन पत्नी गंभीर रूप से घायल. पुलिस ने भी महज़ खानापूरी की और इसे अंधविश्वास का मामला बताते हुए उसने प्राथमिकी दर्ज कर ली.

विभिन्न राज्यों में आएदिन प्रकाश में आने वाले डायन हत्या के मामले देश के विकास के गुलाबी आंकड़ों की पोल खोल रहे हैं. ऐसी घटनाओं के पीछे एक सोची-समझी साज़िश है, जिसके तहत अंधविश्वास की आड़ लेकर नेता, प्रधान, दबंग एवं प्रशासन की चौकड़ी दलित और ग़रीब तबके का शोषण कर रही है.

कुछ दिनों पहले एक ग़ैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि भारत में हर साल 150-200 महिलाओं को चुड़ैल या डायन होने के आरोप में अपनी जान गंवानी पड़ती है.इस मामले में सबसे ज़्यादा कुख्यात है खनिजों के मामले में पूरे देश में टॉप पर रहने वाला उत्तर भारतीय राज्य झारखंड. यहां प्रति वर्ष 50-60 महिलाओं को डायन कहकर मार दिया जाता है. दूसरे नंबर पर पर आंध्र प्रदेश है, जहां क़रीब 30 महिलाएं डायन के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती हैं. इसके बाद हरियाणा और उड़ीसा का नंबर आता है. इन दोनों राज्यों में भी हर साल क्रमश: 25-30 और 24-28 महिलाओं की हत्या कर दी जाती है. इस तरह पिछले 15 वर्षों के दौरान देश में डायन के नाम पर लगभग 2500 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है. ये वे आंकड़े हैं, जो किसी तरह प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज हो गए. जबकि सर्वविदित है कि सुदूर अंचलों में प्राथमिकी दर्ज कराना किसी आम आदमी के लिए कितना मुश्किल और जोखिम भरा काम है. हक़ीक़त में इन आंकड़ों का स्वरूप और वृहद हो सकता है.

महिलाओं की हत्या के जितने भी मामले दर्ज होते हैं, उनमें अधिकांश की वजह उनका डायन होना बताया जाता है, जबकि कहानी कुछ और होती है. इन हत्याओं के पीछे कई तरह के षड्‌यंत्र होते हैं. कोई किसी की ज़मीन-संपत्ति हड़पने के लिए डायन का खेल खेलता है तो कोई अपना बाहुबल दिखाने के लिए. कोई वोट बैंक की खातिर तो कोई बदला लेने के लिए. इस खेल में एक दबंग परिवार अंधविश्वास का सहारा लेकर पूरे तबके और क्षेत्र को अपने साथ मिला लेता है. जैसा तिलना गांव में सोम के मामले में हुआ. अपने बच्चे की मौत के एवज में दबंग सोम की ज़मीन हड़पना चाहता था. अगर किसी बच्चे की मौत हो जाती है तो क्या उसकी भरपाई आदिवासी की ज़मीन करेगी? व्यक्तिगत फायदे के लिए किसी को भी डायन घोषित कर दिया जाता है. इस बात की गवाही रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र (आरएलइके) के मुखिया अवधेश कौशल भी देते हैं. उनके मुताबिक़, ज़्यादातर पीड़ित अकेली रहने वाली विधवा महिलाएं हैं, जो ज़मीन या संपत्ति के लिए निशाना बनाई जाती हैं. विधवा या तलाकशुदा महिलाएं जब गांव के दबंगों की कामेच्छा का विरोध करती हैं तो अक्सर उन्हें डायन घोषित कर दिया जाता है. उन्हें जलील करने के लिए निर्वस्त्र करके गांव में घुमाने, मैला खिलाने, बाल नोंचने और नाखून उखाड़ देने जैसे अमानवीय कृत्यों को अंजाम दिया जाता है. ज़्यादातर मामलों में महिलाएं अपमानित होने के बाद ख़ुद ही आत्महत्या कर लेती हैं.

ग़ौर करने वाली बात यह है कि डायन सदैव दलित या शोषित समुदाय की ही महिला होती है. ऊंचे तबके की महिलाओं के डायन होने की बात शायद ही सुनने को मिलती हो. डायन होने-मानने का अंधविश्वास आदिवासियों में ज़रूर रहा है. वजह, आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था और जंगल के अभाव में वे अपना इलाज समुचित ढंग से नहीं कर पाते, पर इस तबके में कभी संपत्ति और दबंगई का मामला नहीं देखा गया. लेकिन तिलना गांव जैसे मामले शिक्षित समाज में व्याप्त लालच की वीभत्स कहानी बयां करते हैं. हम यह नहीं कहते कि आदिवासियों में इस तरह की घटनाएं उचित हैं. आदिवासियों को भी यह बताने की ज़रूरत है कि डायनों ने उन्हें नुक़सान नहीं पहुंचाया. नुक़सान तो उन्होंने पहुंचाया, जिन्होंने उन्हें न्यूनतम नागरिक सुविधाओं-शिक्षा, सड़क, बिजली और मानवाधिकारों से वंचित रखा. शिक्षित तबके को कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि आप सोए हुए लोगों को तो जगा सकते हैं, पर उन्हें नहीं, जो सोने का ढोंग कर रहे हैं. इन मामलों की तह तक जाने और आपसी रंजिश की राजनीति को समझने की ज़रूरत है. सरकार को चाहिए कि वह ऐसी वारदातों की रोकथाम के लिए केंद्रीय स्तर पर कोई सख्त क़ानून बनाए. झारखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ में इस संदर्भ में क़ानून बनाया गया है, लेकिन उसका पालन शायद ही कभी हुआ हो. अगर इस मामले में किसी को दोषी करार भी दिया जाए तो सबसे बड़ी सज़ा मात्र तीन महीने की क़ैद है. ऑनर किलिंग के नाम पर देश को सिर पर उठा लेने वाला मीडिया, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी और गैर सरकारी संगठन भी इस मुद्दे कोे कोई महत्व नहीं दे रहे हैं. ज़रूरत इस बात की है कि अंधविश्वास को परे हटाकर डायन किलिंग की असलियत समाज के सामने लाई जाए और बताया जाए कि यह स़िर्फ असरदार लोगों का गंदा खेल है, डायन का नाम तो बस एक बहाना है.

संपत्ति हड़पने के लिए बनाया जाता है डायन.
हर साल 200 महिलाओं को जान गंवानी पड़ती है
उ़डीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और हरियाणा भी आगे.
झारखंड सबसे ज़्यादा कुख्यात और पहले नंबर पर.

Tuesday, October 26, 2010

अंबानी ने ठगा शिव राज को

देश समेत दुनियाँ के जाने-माने उद्योगपतियों की मौजूदगी ने खजुराहो निवेशकों के सम्मेलन में मध्यप्रदेश में नई सुबह लाने का सच्चा पैगाम दे दिया। ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट-2 के कुल निवेश के करारनामों की तादाद 107 और रकम की मात्रा दो लाख 35 हजार 966 करोड़ रूपये हो गई। आज विविध उद्योगों के 57 करारनामों में 39 हजार 115 करोड़ रूपये, ऊर्जा के 15 करारनामों में 76 हजार 80 करोड़ रूपये, खाद्य प्रसंस्करण के सात करारनामों में 534 करोड़ रूपये, स्वास्थ्य के दो करारनामों में 400 करोड़ रूपये और नवीनीकृत ऊर्जा के चार करारनामों में एक हजार 200 करोड़ रूपये लगाए जाने की रजामंदी हो गई। सरकार और उसके कारिंदों ने इस इरादे का खुलासा भी अच्छे से कर दिया कि करारनामों की तकरीबन रोज़ाना ही मानीटरिंग की जाएगी ताकि उद्योगों की तयशुदा वक्त में स्थापना हो जाए और प्रदेश तथा यहाँ के लोगों को वास्तविकता की अनुभूति जल्द से जल्द हो जाए। लेकिन ठीक इसके उलट अनिल धीरू भाई अंबानी समूह (एडीजी) के चेयरमैन अनिल अंबानी खजुराहो निवेश सम्मेलन में शिव और उनके राज को मूर्ख बनाकर चले गए।
जिस तरह भाजपा ने कुछ साल पहले देश के आम चुनाव में शाइनिंग इंडिया व फीलगुड का फर्जी नारा देकर चुनाव हारा था उसी तर्ज पर अब प्रदेश में शाइनिंग एमपी के आकर्षक बोर्ड टांगे जा रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान की प्रदेश व इन्दौर को अव्वल बनाने की नेकनीयती में तो कोई शक-शुभा नहीं है मगर मैदानी हकीकत इन तमाम दावों के ठीक उलट नजर आती है। खजुराहो समिट के बड़े भारी निवेश में सवा 2 लाख करोड़ से अधिक के 107 एमओयू यानी करार निवेशकों के साथ किए जाने के साथ मुख्यमंत्री के साथ अनिल अंबानी ने प्रदेश में 75 हजार करोड़ निवेश करने का दावा करते हुए हर घंटे ढाई करोड़ के निवेश का जो आंकड़ा परोसकर जबर्दस्त मीडिया में सुर्खियां बटोरी उसकी असली हकीकत यह है कि अनिल अंबानी ने खजुराहो में कोई नया करार किया ही नहीं, बल्कि इन्दौर में 2007 में ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट में जो पचास हजार करोड़ का करार किया था, उसी को बढ़ाकर 75 हजार करोड़ का कर दिया। इतना ही नहीं 25 साल तक अनिल अंबानी से प्रदेश सरकार 20 से 25 पैसे प्रति मिनट महंगी बिजली खरीदेगी जिससे अंबानी 10 से 15 हजार करोड़ रुपये अतिरिक्त कमाएंगे। प्रदेश शासन के वित्त विभाग ने इस लूट पर आपत्ति दर्ज कराई थी मगर पिछले दिनों कैबिनेट ने इसे मंजूरी दे दी।
बड़े लोगों के बड़े खेल... यह बात रिलायंस पर सबसे सटीक साबित होती है। प्रदेश का कोई छोटा-मोटा बिल्डर या कालोनाइजर अगर कुछ फायदा उठा लेता है तो अखबारों की सुर्खियां बन जाती हैं, लेकिन दूसरी तरफ बड़े निवेशक हजारों करोड़ रुपये का गोलमाल कर लेते हैं, लेकिन इसे शहर और प्रदेश की तरक्की से जोड़कर प्रचारित किया जाता है। अभी खजुराहो में जितने भी करार हुए, वे सब प्रदेश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट यानी माइनिंग से जुड़े हुए हैं। इस पूरी समिट में सबसे बड़ी खबर अनिल अंबानी की मौजूदगी ने बनाई, जिसमें 75 हजार करोड़ रुपये के भारी-भरकम निवेश के दावे किए गए, जिसकी असलियत यह है कि इन्दौर में 26 व 27 अक्टूबर 2007 को खजुराहो की तर्ज पर ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट आयोजित की गई थी और उसमें अनिल अंबानी ने 50 हजार करोड़ रुपये का एमओयू साइन किया था, जिसमें शासन के 3960 मेगावाट अल्ट्रा पावर प्रोजेक्ट के अलावा चितरंगी तहसील सीधी जिले के एक अन्य मेगा थर्मल पावर स्टेशन के साथ चार बड़े सीमेंट के संयंत्र लगाने, जिनकी क्षमता 5 मिलियन टन हर साल होगी, वहीं सीधी जिले में एयरपोर्ट व एयर स्ट्रीप के विकास के साथ ही भोपाल में एक तकनीकी इंस्टिट््यूशन खोला जाना था। जिसके लिए खजुराहो समिट के दो दिन पूर्व प्रदेश शासन अनिल अंबानी की संस्था को भोपाल एयरपोर्ट के पास 110 एकड़ जमीन धीरूभाई अंबानी कॉलेज के लिए आवंटित कर चुका है। वहीं समिट में 75 हजार करोड़ रुपये के जिस निवेश का दावा किया गया, उसमेंं कोई नया करार नहीं हुआ, बल्कि लगने वाले सीमेंट प्लांटों की क्षमता को दोगुना करने और आठ हजार मेगावाट के बिजली संयंत्रों के पुराने करारों की क्षमता बढ़ाकर उसे 12 हजार मेगावाट से अधिक करने का निर्णय लिया गया है। मगर प्रचारित इस तरह हुआ मानो अनिल अंबानी ने 75 हजार करोड़ रुपये का कोई नया करार सरकार से किया हो।
इस पूरे मामले की एक और बड़ी हकीकत यह है कि आने वाले 25 सालों तक प्रदेश सरकार की एमपी पावर ट्रेडिंग कंपनी जो बिजली रिलायंस से खरीदेगी, वह काफी महंगी होगी। अभी 5 अक्टूबर को शिवराज कैबिनेट ने दो कंपनियों रिलायंस पावर और एस्सार पावर से बिजली खरीदने का 25 सालों का करार किया है। अनिल अंबानी के रिलायंस पावर से पहले 2 रुपये 70 पैसे और एस्सार से 2 रुपये 95 पैसे प्रति यूनिट की दर तय की गई थी। मगर बाद में निगोसिएशन के पश्चात 2 रुपये 45 पैसे प्रति यूनिट की दर फायनल की गई। इतना ही नहीं रिलायंस ने सीधी जिले के सासन अल्ट्रा पावरमेगा प्रोजेक्ट के लिए आवंटित कोलब्लाक से अपने अन्य चितरंगी पावर प्रोजेक्ट के लिए भी कोयला प्राप्त करने की मंजूरी पहले केन्द्र शासन से और फिर राज्य से प्राप्त कर ली। इसी आधार पर प्रदेश के वित्त विभाग ने यह तर्क दिया कि चूंकि रिलायंस पावर को बाहर से कोयला नहीं खरीदना पड़ेगा और वह प्रदेश से ही कोयला लेकर बिजली बनाएगा, लिहाजा परिवहन के साथ अन्य खर्चों में कमी होगी। इसलिए जनता को दी जाने वाली बिजली की दर 20 से 25 पैसे प्रति यूनिट तक और कम होना चाहिए। यह भी उल्लेखनीय है कि मात्र 1 पैसे प्रति यूनिट की अगर कमी की जाती है तो 25 सालों में लगभग 700 करोड़ रुपये की बचत एमपी पावर ट्रेंिडंग कंपनी को होती। इस लिहाज से 20 से 25 पैसे प्रति यूनिट बिजली रिलायंस पावर और एस्सार पावर से खरीदने के निर्णय से 10 से 15 हजार करोड़ रुपये का फायदा इन निजी कंपनियों को पहुंचाया गया। वित्त विभाग ने अपनी आपत्ति में रिलायंस पावर को जमीन देने के अलावा अन्य सुविधाओं का उल्लेख करते हुए प्रति यूनिट बिजली की दरों में कमी लाने का सुझाव दिया था, लेकिन अनिल अंबानी की तगड़ी ऊपरी पकड़ के चलते वित्त विभाग की इन आपत्तियों को दरकिनार करते हुए पिछले दिनों शिवराज कैबिनेट ने 25 सालों तक बिजली खरीदी का निर्णय ले लिया। अभी मध्यप्रदेश की जनता वैसे ही महंगी बिजली से हलाकान है और आने वाले दिनों में बिजली तो भरपूर निजी संयंत्रों के कारण मिलेगी, लेकिन उसके दाम इतने अधिक होंगे कि आम आदमी को दिन में ही तारे नजर आने लगेंगे।
अभी तक रिलायंस पावर के तीन साल पूर्व किए गए प्रोजेक्ट के लिए जमीन उपलब्ध नहीं हो सकी है। दरअसल शासन को रिलायंस पावर को 3879 हेक्टेयर जमीन अधिग्रहित कर उपलब्ध कराना है, जिसमें 1179 हेक्टेयर जमीन निजी, 445 हेक्टेयर सरकारी और 2255 हेक्टेयर जमीन वन भूमि है। लिहाजा इस अल्ट्रा मेगा पावर प्रोजेक्ट के बदले 10 लाख से अधिक पेड़ों को काटना भी पड़ेगा। वहीं सैकड़ों परिवारों को विस्थापित किया जाना है। हालांकि वन भूमि का मामला उच्चस्तरीय है और इसके लिए केन्द्र सरकार के पर्यावरण मंत्रालय की अनुमति भी लगेगी। उल्लेखनीय है कि अभी हजारों करोड़ रुपये के वेदांता ग्रुप को पर्यावरण विभाग ने किसी कारण अनुमति नहीं दी।

खजुराहो समिट में 75 हजार करोड़ रुपये के निवेश का दावा अनिल अंबानी द्वारा किया गया। हालांकि इस संबंध में कोई करार नहीं हुआ, क्योंकि तीन साल पहले ही इन्दौर में अनिल अंबानी खुद पचास हजार करोड़ रुपये का करार कर चुके हैं। इस 12 पेजी करार 100 रुपये के स्टाम्प पेपर पर किए गए है। 26 अक्टूबर 2007 को तत्कालीन वाणिज्यिक व उद्योग तथा रोजगार विभाग के प्रमुख सचिव अवनी वैश्य जो कि वर्तमान में प्रदेश शासन के मुख्य सचिव हैं, ने खुद रिलायंस पावर लिमिटेड के साथ उक्त करार किया था और अनिल अंबानी की ओर से डायरेक्टर बिजनेस डेवलपमेंट जेपी चालासानी ने इस करार पर हस्ताक्षर किए। इस करार में सीधी के सासन और चितरंगी के दोनों पावर प्लांटों के अलावा चार सीमेंट फैक्ट्रियों को खोलने, भोपाल में तकनीकी इंस्टिट््यूशन जिसकी जमीन अभी खजुराहो समिट के दो दिन पूर्व भोपाल एयरपोर्ट के पास आवंटित की गई। 26 अक्टूबर 2007 को किए गए इस इन्दौरी करार के वक्त भी खजुराहो की तरह अनिल अंबानी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के साथ मौजूद थे, जिसका उल्लेख भी उक्त करार में किया गया है।
मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार अभी तक 9 निवेश सम्मेलन आयोजित कर चुकी है। खजुराहो समिट में दो लाख 36 हजार करोड़ के 107 करार करना बताए, जिसमें इन्दौर का क्रिस्टल आईटी पार्क भी शामिल है, जिसमें साफ्टवेयर टेक्नोलाजी आफ इंडिया को दिया गया, जिसका सबसे पहले खुलासा अभी पिछले दिनों अग्रिबाण ने ही किया था। खुजराहो समिट के पूर्व जो 8 निवेश सम्मेलन हुए, उनमें कुल मिलाकर पौने पांच लाख करोड़ रुपये के एमओयू यानी करार किए गए और वास्तविक धरातल पर मात्र 58 हजार करोड़ रुपये का निवेश ही हो पाया है। यहां तक कि इन्दौरी ग्लोबल मीट में 102 करार सवा लाख करोड़ रुपए के किए गए थे और इनमें से मात्र 13 हजार करोड़ का निवेश हुआ है। चूंकि ज्यादादर एमओयू रियल स्टेट यानी होशियार जमीनी कारोबारियों ने कर लिए, जिनकी पोलपट्टïी भी उजागर की गई और ये सारे करार अंतत: कागजी ही साबित हुए। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान लगातार प्रयासरत हैं अधिक से अधिक निवेश जुटाने में, लेकिन मैदानी हकीकत इसके विपरीत ही नजर आती है।

Saturday, October 23, 2010

जिंदगी भर का जख्म देते रिश्ते

देश का हृदय प्रदेश मध्यप्रदेश हो या फिर केरल, गोवा, उत्तर-पूर्वी सीमांत राज्य हों या अन्य राज्य अथवा देश की राजधानी दिल्ली, मासूम अबोध बच्चियों से लेकर, युवती या प्रौढ़ा कोई भी सुरक्षित नजर नहीं आ रही हैं। बलात्कार की बढ़ती वारदातों के पीछे कोई और नहीं है, बल्कि वह लोग हैं जिन्हें प्यार से अपना कहा जाता है और जो मौका मिलते ही खून के रिश्तों तक को कलंकित करने से नहीं चूकते। जब पिता बेटी से मुंह काला करने में हिचक महसूस नहीं करता तो सौतेले पिता की बात ही क्या? दामन को दागदार करने में पिता, बच्चों के प्यारे अंकल, मामाजी, ससुर, दोस्त, प्रेमी, शिक्षक और सबसे ज्यादा पड़ोसी पाए जा रहे हैं। ऐसे में बच्चियां और महिलाएं कैसे सुरक्षित रह सकती हैं? फिर जब चारदीवारी और अपने प्रियजनों के घर में ही मौजूद आपका रक्षक भक्षक बन जाए और ईंट-पत्थरों से बना घर पिंजरा, ऑफिस के सहकर्मी जिनके साथ अपना सुख-दुख बांटने की उम्मीद बांधे, से सदैव अप्रिय आचरण की आशंका रहे या उनसे हरपल सतर्क रहना पड़े तो इससे बड़ी राष्ट्रीय समस्या और चिंता क्या हो सकती है। देश में बीते सालों में हुए बलात्कारों में अधिकांश में पड़ोसी ही संलिप्त पाए गए हैं। आंकड़े गवाह हैं कि 98.28 फीसदी बलात्कार की शिकार महिलाएं आरोपियों से पूर्व परिचित थीं। इनमें अधिकांश पड़ोसी, दोस्त, रिश्तेदार, मकान मालिक, किराएदार या शिक्षक थे, जबकि सिर्फ दस ही अजनबी थे। इनमें तीन फीसदी सहकर्मी थे।
मध्य प्रदेश में तो स्थिति और भी बदतर है। अभी हाल ही में दमोह नगर की बी.काम की एक छात्रा ने युवकों द्वारा आये दिन की जा रही छेडखानी से तंग आकर मालगाडी के सामने कूद कर जान दे दी। घटना के संबंध में मृतका के भाई पारस जैन एवं चाचा नवल चौरसिया ने बताया कि 20 वर्षीय कजली युवकों की छेडखानी से परेशान हो गई थी। इस बावत पुलिस में भी शिकायत की गई थी लेकिन पुलिस द्वारा आरोपियों के खिलाफ कोई कार्रवाई न करने पर युवती ने ट्रेन के सामने कूद कर अपनी जान दे दी। उधर इसी जिले के तेजगढ़ थानांतर्गत ग्राम मगदूपुरा में बारहवीं की छात्रा के साथ पड़ोस के सौरभ पटेल दुराचार करने के बाद दूसरे दिन किशोरी के घर में जाकर उस पर कैरोसीन डालकर जिंदा जला दिया। गंभीर रूप से जली छात्रा ने अस्पताल में दम तोड़ दिया। बताया जाता है कि घटना वाले दिन शाम पांच बजे छात्रा अपने घर के पास बाड़ी में थी। तभी पड़ोसी सौरभ पटेल वहां पहुंचा और उसने किशोरी के साथ दुष्कर्म किया। इसके बाद सौरभ ने जान की धमकी देकर उससे इस बारे में किसी नहीं बताने के लिए कहा था। लेकिन पीडि़त छात्रा ने अपने परिजनों के इस बारे में बता दिया। पीडि़ता के पिता नोनेलाल ने


बताया कि उसी दिन वे बेटी के साथ तेजगढ़ थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने पहुंचे। लेकिन प्रधान आरक्षक ने बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज करने के लिए पैसे मांगे। इस पर वे वापस आ गए। अगले दिन सुबह वे फिर से थाना जाने की तैयारी में थे। घर के अन्य लोग बाहर थे और घर में बेटी अकेली थी। तभी सौरभ,उसके पिता परसुराम,चाचा टीकाराम,सीताराम और नन्नू घर में घुसे और बेटी पर कैरोसीन डालकर आग लगा दी। उसके चिल्लाने पर आरोपी भाग निकले। नोनेलाल ने बताया कि बेटी के आवाज सुनकर अंदर गए तो आरोपी भाग रहे थे।
सलामतपुर थाना क्षेत्र के जमुनिया में एक खेत पर बने टपरे में अकेली सो रही चौदह वर्षीय एक दलित किशोरी से चाकू की नोक पर बलात्कार किए जाने का मामला प्रकाश में आया है।
गत दिनों मुंबई के एक निजी अस्पताल में आईसीयू में भर्ती एक महिला के साथ दुष्कर्म करने के आरोप में एक डॉक्टर और दिल्ली में अपनी लेक्चरर बहू के साथ बलात्कार करने का प्रयास करने के आरोप में एक प्रिंसिपल ससुर को गिरफ्तार किया गया। हिमाचल प्रदेश में प्रेरणा नामक स्वयंसेवी संस्था द्वारा मूक-बधिर बच्चों के पुनर्वास के लिए बने केंद्र में प्रिंसिपल और कुछ अध्यापकों द्वारा भी बच्चों से बलात्कार की खबरें हैं। एक समय वह था, जब कभी-कभार ही इस तरह की खबरें सुनने को मिलती थीं, लेकिन अब यह आए दिन की बात हो गई है। पहले चाचा, ताऊ, मामा आदि इन अपराधों के दोषी पाए जाते थे, लेकिन आज तो पुत्री को जन्म देने वाले कुछ पिता और उसकी रक्षा की कसम खाने वाले कुछ भाई भी इन रिश्तों को कलंकित करने का काम कर रहे हैं। शिक्षक जिन पर देश और समाज निर्माण का दायित्व है, उनके बारे में यह सब सुनकर घृणा होती है। अब तो ऐसा लगता है कि आज हम एक ऐसे समाज के अंग बन चुके हैं, जहां नैतिकता और संवेदनाओं के लिए कोई जगह ही नहीं है। आखिर समाज को हो क्या गया है? आज समाज नाम की वस्तु असल में रह ही नहीं गई है। यह एक गंभीर समस्या है। इसी तरह देश व समाज की सुरक्षा का दायित्व निभा रहे सेना व पुलिस, न्याय व्यवस्था के अलंबरदार, लोकतंत्र के सजग प्रहरी और डॉक्टर जैसे सम्मानित पेशे से जुड़े लोग भी यदि यदि इस तरह का आचरण करें तो यही कहावत चरितार्थ होती है कि जब बाड़ ही फसल को खाने लगे उस हालत में आखिर न्याय की आशा किससे की जा सकती है? हालात इसकी गवाही देते हैं कि ऐसे लोग मौका मिलते ही टूट पड़ते हैं और अपने शरीर की भूख शांत करने में पीछे नहीं रहते हैं। दरअसल, ऐसी घटनाएं समाज के लिए कलंक हैं। हालांकि ऐसी घटनाएं नई बात नही है। कहा जाता है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमंते तत्र देवता यानी जहां नारियों की पूजा होती है, वहां देवता वास करते हैं। इस विशिष्ट संस्कृति, परंपरा, मान्यता वाले देश में आज पल-पल सर्वत्र नारी शोषित-उत्पीडि़त हो रही है। यहां तक कि नवरात्र में जिस अबोध-मासूम बच्ची को गोद में उठाए, कंधे पर बिठाकर पूजा हेतु ले जाते हैं, उसी आयु वर्ग की बच्चियों को आए-दिन लोग अपनी शैतानी हवस का शिकार बना रहे हैं। ऐसी खबरें रोज-ब-रोज अखबारों की सुर्खियां बनती हैं। आखिर हमारा समाज इन घटनाओं पर मौन क्यों है। भौतिक विकास के बाद हम पाषाण युग में तो वापस नहीं जा सकते, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि आज भौतिकता ने नैतिकता को निगल लिया है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि न आज मानवता रही, न वह संस्कार रहे, न चरित्र और न ही आदर्श जिसके लिए समूची दुनिया में हमारा देश जाना जाता है। मुंबई के जेजे अस्पताल और ग्रांट मेडिकल कॉलेज में वर्ष 2004 में कराए गए अध्ययन में यह खुलासा हुआ है कि वहां कार्यरत 249 नर्सो में से 12.39 फीसदी ने यह स्वीकार किया कि अस्पताल में काम के दौरान वे अक्सर शारीरिक शोषण की शिकार हुई। पूर्व केंद्रीय मंत्री व वन्य जीव प्रेमी मेनका गांधी भले यह दावा करें कि देश से गिद्ध खत्म हो रहे हैं जबकि हकीकत में देश में मानव रूपी गिद्धों की बहुतायत है जो मौका मिलते ही स्त्री मांस नोचने को भूखे-भेडिय़ों की तरह टूट पड़ते हैं। बलात्कार मानवीयता और नैतिकता की दृष्टि से एक जघन्य और अक्षम्य अपराध है। ऐसे में बच्चियों के साथ बलात्कार निस्संदेह हैवानियत और नीचता की पराकाष्ठा है। इन घटनाओं में तेजी से हो रही वृद्धि चिंताजनक है। कोई भी समाज न तो बलात्कार की अनुमति देता है और न बलात्कारी को माफ कर सकता है। जाहिर है अति विकसित समाज का नियंत्रण राज्य के पास होने से बलात्कार एक असामाजिक जघन्य अपराध न होकर तकनीकी अपराध माना जाता है। बलात्कार वह चाहे बच्ची के साथ किया गया हो या कि वयस्क या अवयस्क के साथ, यह भूल-अज्ञानतानवश या धोखे में किया जाने वाला अपराध नहीं है। यह तो निश्चित है कि बलात्कार स्थान, समय, सुरक्षा आदि का ध्यान रखते हुए योजनाबद्ध साजिश के तहत पूरे संज्ञान में किया जाने वाला अपराध है। जहां तक बलात्कारी का सवाल है वह कोई भी क्यों न हों, उसके लिए सौंदर्य और आयु की कोई कसौटी नहीं है। उसकी कसौटी तो यही है कि वह आसानी से हमला कर अपनी भड़ास निकाल सके। अपनी ताकत का वहां प्रदर्शन करे जहां उसका कोई प्रतिवाद न कर सके। यदि ताकत का प्रदर्शन वह बाहर करेगा, तो निश्चित ही उसे विरोध का सामना करना पड़ेगा। इसीलिए बच्चियां और घर की बेटी-बहू तो बलात्कारी को सबसे आसानी से और बिना प्रतिरोध के शिकार के रूप में मिल जाती हैं। तीन साल की बच्ची के साथ बलात्कार के बाद हत्या करने, पिता द्वारा बेटी से बलात्कार और ससुर द्वारा बहू से बलात्कार की कोशिशें और हिमाचल की घटना इसका प्रमाण है कि आज आदमी की मानसिकता किस हद तक विकृत और दिवालिया हो चुकी है। इसमें दो राय नहीं कि हमारे यहां बलात्कार की कोई कड़ी सजा नहीं है। इस मामले में छात्र, शिक्षक, बुद्धिजीवी और आमजन सभी की एक राय है कि देश में लचीली कानून व्यवस्था होने के कारण ऐसे अपराधों में वृद्धि हो रही है। पुलिस द्वारा पकड़े जाने के बाद कड़ी सजा नहीं होने के कारण कुछ दिनों बाद ही अपराधी छूट जाता है। जब तक कोई ऐसी सजा का प्रावधान नहीं होगा जिससे अपराधियों में भय बना रहे, तब तक ये अपराध इसी तरह होते रहेंगे और बलात्कारी बेखौफ खुलेआम घूमते रहेंगे। इससे बलत्कृत लड़की व उसके परिजन समाज में बदनामी से बचने की खातिर बार-बार घर-बार शहर छोड़ दर-दर भटकते रहेंगे।

उमा की वापसी... इंतजार कब तक?

पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती की भाजपा में वापसी को लेकर अब रोज नई अटकलें जन्म ले रही हैं। भाजपा नेताओं से उनकी बढ़ती मेल-मुलाकात और पर्दे के पीछे संघ की विशेष रुचि यह संकेत दे रही है कि साध्वी की भाजपा में लौटने की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो अगस्त के आखिर तक उमा भाजपा में फिर एक बड़ी भूमिका में नजर आएंगी। शुरुआत बिहार चुनाव से होगी और बाद में उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी उनकी नई भूमिका गढ़ेगी। नितिन गडकरी द्वारा अपने पदाधिकारियों को राज्यों का प्रभार देने में लग रही देरी को उमा की वापसी से जोड़कर देखा जा रहा है।

गुजरात के अहमदाबाद में हाल ही में हुई संघ के कोई डेढ़ दर्जन शीर्ष नेताओं की मंथन बैठक के बाद अब जोधपुर-राजस्थान में होने वाली प्रचारकों की बैठक पर भाजपा और संघ के नेताओं की नजर लगी हुई है। इस बैठक के बाद हो सकता है कि भाजपा फिर हिन्दुत्व के मुद्दे पर मजबूती से खड़ा होने के संकेत दे। बिहार चुनाव से पहले नीतीश कुमार से गठबंधन और उनके मोदी विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी को आगे रखकर भाजपा ने इस लाइन को आगे बढ़ाने का अपना इरादा जाहिर कर दिया है। इससे उमा भारती की वापसी के मसले को और बल मिलेगा।

पिछले विधानसभा चुनाव के बाद से अपनी मुट्ठी खुलने के बाद से उमा भारती ने खुद राजनीतिक चुप्पी साध रखी है। गाहे-बगाहे भाजपा और संघ के शीर्ष नेताओं से मुलाकात उन्हें सुर्खियों में ला देती है। घरवापसी के इस मुद्दे को पार्टी का अंदरूनी मामला बताकर राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी इसकी गंभीरता को कई बार रेखांकित कर चुके हैं तो स्वयं साध्वी ने भी भाजपा में लौटने को लेकर जारी अटकलों का खंडन करना अब लगभग बंद कर दिया है। इससे इतना तो साफ हो गया है कि उमा भारती और भाजपा के बीच कोई खिचड़ी जरूर पक रही है। उमा की वापसी के लिए भाजपा को सही समय की तलाश है।

लोकसभा चुनाव में आडवाणी के पक्ष में चुनाव प्रचार, संघ दफ्तर में मोहन भागवत से चर्चा हो या फिर पूर्व उपप्रधानमंत्री और भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी व पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के रायपुर दौरे और स्वच्छ गंगा-निर्मल गंगा अभियान की गंगोत्री से शुरुआत के दौरान आडवाणी के साथ मौजूदगी के कारण उमा की वापसी के कयास चरम तक पहुंचे हैं। भाजपा में लौटने के कयासों को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के ताजा बयान ने नई दिशा दी है। गडकरी ने इस मसले पर कहा, यह पार्टी का अंदरूनी मामला और सही समय पर सही निर्णय लिया जाएगा। अध्यक्ष के इस बयान के बाद भाजपा के वे नेता जो उमा को राजनीति में अनफिट मानकर उनका मखौल उड़ाने में नहीं चूकते थे, वे अब यह कहते नजर आते हैं कि साध्वी बड़ी नेता हैं और उनका अपना जनाधार भी है।

पुरानी पीढ़ी का समर्थन!


दिल्ली में उमा की भाजपा और संघ के वरिष्ठ नेताओं से मेल-मुलाकातों के बाद अप्रत्याशित तौर पर प्रदेश भाजपा की पुरानी पीढ़ी के वरिष्ठ नेताओं सुन्दरलाल पटवा, कैलाश जोशी, कैलाश सारंग, बाबूलाल गौर का उमा भारती के सरकारी घर तक जाना चर्चा में है। पटवा, सारंग, गौर और जोशी जैसे बुजुर्ग नेता उमा भारती को पसंद नहीं करते हैं। बावजूद इसके उमा भारती की भतीजी के शादी समारोह में यह सारे नेता इक्कट्ठा हुए। भाजपा की अंदरूनी राजनीति को लेकर इसके अपने निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। क्या यह भाजपा की गुटीय राजनीति में साध्वी की घरवापसी को लेकर आड़े आ रही रिश्तों की बर्फ पिघलने के संकेत है और इसके परिणाम जल्दी सामने आ जाएंगे, कहना मुश्किल है। उमा का मुखर विरोध करने वाले पुरानी पीढ़ी के नेताओं ने वक्त की नजाकत को समझते हुए अब मामले को ज्यादा दिनों तक उलझाये रखने की बजाय पार्टी हित में विवाद को समाप्त करने के लिए अपनी ओर से मौन ही सही, सहमति दे दी है और अब सब कुछ केंद्र के पाले में है, जो उमा की वापसी का ऐलान कर इस एपीसोड को सही समय पर क्लोज करेगा। शीर्ष पदों पर बैठे भाजपा के जिन नेताओं को उमा की कार्यशैली पर ऐतराज था वो भी यह मानते हैं कि साध्वी का अपना जनाधार है और इसका फायदा संगठन को मजबूत करने में जरूर मिलेगा। आलोचकों की नजर में उमा तुनकमिजाज हैं और संगठन के निर्णयों को चुनौती देने की हद तक चली जाती हैं।


साध्वी की सजगता


बदलते परिदृश्य में भाजपा से दूर रहकर भी उमा संघ की चहेती क्यों बनी हुई हैं, इसका जवाब पार्टी के शीर्ष नेताओं के पास भी नहीं है। उमा को करीब से जानने वाले कहते हैं कि वो कब, क्या बोलें और क्या निर्णय ले लें, इसका आभास उनके इर्द-गिर्द रहने वालों को भी नहीं होता है। अपने नजदीकी लोगों की नजर में भी वे अस्थिर चित्त की नेता हैं। वो यह भी कहते हैं कि उनकी कमजोरियां ही, उनकी खूबियां भी हैं, जो उन्हें दूसरे नेताओं से अलग दिखाती हैं। यही नहीं, मुद्दों की पहचान और उन्हें समय रहते भुनाने में माहिर साध्वी की सोच पर सवाल उठाने वाले अब यह मानने लगे हैं कि विचारधारा और सिद्धांत के साथ हिन्दुत्व की राजनीति से उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया है। भाजपा में वापसी का यह उनका एक प्लस प्वाइंट साबित हो रहा है। भगवा ब्रिगेड के इस जाने-पहचाने चेहरे ने राजनीति में उतार-चढ़ाव को बहुत करीब से देखा है तो अपनों और गैरों की परख भी उन्हें बखूबी हो गई है। उनके विवादित बयानों पर ऐतराज जताने वाले आलोचकों को इन दिनों उनकी चुप्पी ने चकित कर रखा है, जो यह सोचने को मजबूर हो गए हैं कि आए-दिन भड़क जाने वाली उमा ने क्या चुप रहना भी सीख लिया है। यह इस बात का संकेत हो सकता है कि वापसी के बाद भाजपा में अपनी नई पारी में राजनीति के दांव-पेंचों में माहिर एक नई उमा से लोगों का वास्ता पड़े। भाजपा से बाहर जाने के बाद उन्होंने भाजश का गठन किया तो स्वयं उसे कमजोर कर यह संकेत पहले ही दे दिया था कि उनका घरवापसी का इरादा है। भाजपा से दूर जाकर भी जिस तरह साध्वी भाजश के कमजोर संगठन के बावजूद वैचारिक धरातल पर अकेले ही मजबूती से खड़ी रहीं और उन्होंने राजनीतिक हित में छोटे और क्षेत्रीय दलों से समझौते की बजाय दूरी बनाए रखी, वह अब उनके हक में जाता है।

भाजपा में अटल के बाद आडवाणी द्वारा पार्टी के मुख्य पदों से दूर जाने के साथ ही हुए नेतृत्व परिवर्तन और संगठन के कायाकल्प की कवायद के बीच करीब 20 महीने से चुनावी राजनीति से दूरी बनाए बैठी उमा भारती के राजनीतिक भविष्य और उनकी उपयोगिता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में भाजश उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में नहीं उतार कर उमा ने जिस तरह आडवाणी के पक्ष में प्रचार किया तभी आभास हो गया था कि वे भाजपा में जरूर लौटेंगी, लेकिन पीढ़ी बदलाव के इस दौर में भाजपा के शीर्ष पदों पर बैठे कई नेताओं का विरोध उमा की राह में रोड़ा साबित हुआ। समय के साथ मुखर विरोध के स्वर ठंडे पड़े और भाजपा के कई महत्वाकांक्षी नेताओं के बड़े पदों पर एडजस्ट हो जाने के बावजूद घरवापसी की गुत्थी अभी पूरी तरह सुलझी नहीं है।

लाख टके का सवाल


क्या उमा की वापसी शर्तों और मुद्दों पर आधारित होगी? भाजपा को करीब से जानने वाले मानते हैं कि इस मामले में शर्तों पर मुद्दा हावी रहेगा, लेकिन यदि कोई फार्मूला संघ ने बनाया है तो इसका असर उत्तरप्रदेश चुनाव के बाद ही देखने को मिलेगा। फिलहाल उमा की वापसी के अधिकृत ऐलान के बाद ही यह सब संभव होगा, अलबत्ता कड़वा सच यह भी है कि उमा को भाजपा के अलावा कहीं ठौर नहीं है तो भाजपा और संघ भी यह जानता है कि पार्टी की विचारधारा को मजबूत करने की कुब्बत साध्वी के पास जरूर है। सब कुछ भाजपा संसदीय बोर्ड और पर्दे के पीछे संघ को तय करना है। भाजपा को अच्छी तरह मालूम है कि राहुल गांधी के नेतृत्व को यदि 2014 में चुनौती देना है तो उसे देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश में खुद को मजबूत करना होगा। जहां भाजपा के पक्ष में न तो अब जातीय समीकरण हैं और न ही उसके पास मुद्दे और जनता के दिल में राज करने वाले नेता बाकी बचे हैं। उमा की भाजपा में वापसी उत्तरप्रदेश में पार्टी के लिए संजीवनी जरूर साबित हो सकती है।

Thursday, October 21, 2010

अनाथालय न बन जाएं राजभवन

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, राज्यपाल का पद संवैधानिक व गरिमामयी मानी जाता है। लेकिन जब इसकी गरिमा पर सवाल खड़े होने लगे तो क्या इसे आप स्वच्छ लोकतंत्र की स्वच्छ व्यवस्था कहेंगे..शायद नहीं, क्योंकि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के लिये एसे संवैधानिक पद पर बैठे नुमांइदों से स्वच्छ आचरण करने कि अपेक्षा होती है। लेकिन विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में राज्यपाल केन्द्र सरकार के मोहरे भर ही होते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 155 के तहत राष्ट्रपति किसी भी राज्य के कार्यपालिका के प्रमुख राज्यपाल की नियुक्ति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करता है। राज्यपाल की भूमिका पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं । इस पद का इस्तेमाल केंद्र में सत्तारूढ़ दल अपने वयोवृद्ध नेताओं को राज्यपाल नियुक्त कर उनको जीवन पर्यंत जनता के टैक्स से आराम करने की सुविधा देता है । इन राज्यपालों के खर्चे व शानो शौकत राजा रजवाड़ों से भी आगे होती है । लोकतंत्र में जनता से वसूले करों का दुरपयोग नहीं होना चाहिए लेकिन आजादी के बाद से राज्यपाल पद विवादास्पद रहा है। जरूरत इस बात की है कि ईमानदारी के साथ राज्यपाल पद की समीक्षा की जाए। अच्छा तो यह होगा की इस पद की कोई उपयोगिता राज्यों में बची नहीं है इसको समाप्त कर दिया जाए।
संविधान की एक धारा जो वाकई अटपटी और कॉमनवेल्थ की तरह हमारे गुलाम होने की बार बार याद दिलाती है वह धारा 162 है। इस धारा के तहत महामहिमों यानी राज्यपालों की नियुक्ति की जाती है और राजनीति या अब सरकारी नौकरियों से भी खारिज हो चुके लोगों को इनाम में जो दिया जाता या लिया जा सकता है उसमें राज्यपाल सबसे आसान पद है। संविधान की धारा 162 के अनुसार राज्य की निर्वाचित सरकार जो भी फैसले करती है वह राज्यपाल की ओर से करती है।
यह ठीक वैसा ही है जैसे अंग्रेजों के जमाने की भारत सरकार हर काम ब्रिटिश राजमुकुट की ओर से करता था। राज्यपाल और राष्ट्रपति पद किसी ब्रिटिश गुलामी के प्रतीक हैं और राष्ट्रपति भवन तो लाल किले से भी बड़ा महल है ही, रिटायर्ड नेता और बर्खास्त होने से बच गए अफसर जिन राज भवनों में रहते हैं वे हर राज्य की सबसे भव्य इमारते होती है। राजस्थान, गोवा, कश्मीर, कोलकाता और यहां तक की झारखंड के राजभवन देख लीजिए, फिल्मों के सेट आपको फीके नजर आने लगेंगे।
वैसे भी राज्यपाल राज्य को जागीर मान कर जागीरदार की तरह काम करते हैं। राज्यपाल बाथरूम और बेडरूम से बाहर हमेशा एक शाही छतरी ले कर चलने वाले सेवक और बहुत सारे अंगरक्षकों के साथ रहते हैं और जहां इंसान तो क्या, किसी चिडिय़ां की आत्मा भी न हो वहां भी आवाज लगाई जाती है कि महामहिम पधार रहे हैं। यह राज्यपाल का जलवा है। उस आदमी का जिसे हमारे तंत्र और व्यवस्था में उपयोग पूरा हो जाने के बाद निपटा हुआ मान कर, जैसे टीबी के मरीजों को सेनिटोरियम में भर्ती कर दिया जाता था, वैसे ही आजकल महामहिम बना दिया जाता है।
रोमेश भंडारी, बूटा सिंह, मोती लाल बोरा, सिब्ते रजी और अब हंसराज भारद्वाज की महामहिम हरकतों को याद किया जाए तो इस संस्था के अस्तित्व पर सवाल उठने लगते हैं। हालांकि हैं तो राष्ट्रपति पद ही अंग्रेजों का गुलामी का ही संकेत लेकिन यहां गनीमत है कि भारत के राष्ट्रपति जैसे भी आते हैं, निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा निर्वाचित हो कर आते हैं। दूसरे शब्दों में प्रकारांतर से राष्ट्रपति पद एक अर्जित किया हुआ पद है।
राज्यपालों के मामले में ऐसा नहीं है। बूटा सिंह का ही सवाल लें तो उन्होंने फरवरी 2005 में बिहार में हुए विधानसभा चुनावों के बाद विरोधी पक्ष की सरकार नहीं बनने दी और केंद्र को भ्रामक रिपोर्ट भेजी। इस चुनाव में जनता दल(यूनाइटेड) को 88, बीजेपी को 37 सीटें मिलीं थीं, जबकि राष्ट्रीय जनता दल को 75, लोकजनशक्ति पार्टी 29 और कांग्रेस को 10 सीटें मिलीं थीं। एनडीए कुछ निर्दलीयों के सहयोग से सरकार बनाने की स्थिति में था। लेकिन बूटा सिंह ने केंद्र को भ्रामक रिपोर्ट भेजी कि बिहार में विधायकों की खरीद फरोख्त का खेल चल रहा है। इसी रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति ने केंद्र की सिफारिश पर विधानसभा भंग कर दी। लेकिन 24 जनवरी 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल बूटा सिंह की कड़ी आलोचना की और कहा कि उनकी सिफारिश पूरी तरह अलोकतांत्रिक और अवैध थी। सुप्रीम कोर्ट ने यह बी कहा कि अब राज्यपाल कौन हो, इस प्रश्न पर व्यापक बहस की जरुरत है। अदालत ने टिप्पणी की कि राज्यपाल गैर राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए। इसके कुछ समय बाद राज्यपाल बूटा सिंह को इस्तीफा देना पड़ा था।
इसके बाद लोकसभा का एक चुनाव वे जीते और फिर उन्हें अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। जो हैं तो केंद्रीय मंत्री स्तर का पद मगर वहां भी बूटा सिंह पर अपने बेटे के जरिए रिश्वत लेने का इल्जाम लगा।
वर्ष 1998 में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने असंवैधानिक तरीके से तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह (बीजेपी) के मुख्यमंत्री रहते ही जगदम्बिका पाल(कांग्रेस) को एक साजिश के तहत रात को बारह बजे राज भवन में कर्मचारियों सहित पचास लोगों का समारोह कर के पाल को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी गई। कल्याण सिंह को हटाया गया था और प्रधानमंत्री चुने जा चुके अटल बिहारी वाजपेयी ने आमरण अनशन पर बैठ कर एक इतिहास बना दिया था और दूसरा इतिहास अदालत ने बना दिया जिसने राज्यपाल के आदेश को खारिज कर दिया।
वर्ष 2007 में झारखंड के राज्यपाल सैयद शिब्ते रजी ने भी अपने पद का दूरुपयोग किया। बजह बना तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबु सोरेन का तमाड़ विधानसभा से चुनाव हार जाना। महामहीम राज्यपाल ने बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार किये, राज्य में राष्ट्रपति शासन कि अनुशंसा कर दी। इसी तरह वर्ष 2008 में गोवा के राज्यपाल एस.सी.जमीर ने मनोहर पारिकर(बीजेपी) की सरकार को बर्खास्त कर दिया और प्रताप सिह राणे(कांग्रेस) को शपथ दिला दी। लिहाजा, राज्य में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी।
हंसराज भारद्वाज ने कर्नाटक में जो नाटक किया उसे तो कोई भूल नहीं सकता। चार दिन में दो बार एक सरकार विधानसभा के पटल पर बहुमत साबित करती है और उसे बर्खास्त करने की पूरी कोशिश की जाती है। मोती लाल बोरा तीन बार उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे और तीनों बार राष्ट्रपति शासन लगा और धारा 356 की कृपा से वर्तमान छत्तीसगढ़ के एक छोटे से शहर में बस कंडक्टर रहे और फिर नगरपालिका सदस्य बने बोरा ने देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर राज किया। इस दौरान के उनके भी सैकड़ों फैसले हैं जो आज तक अदालत में हैं। यह धारा 356 है जो राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन यानी अपना राज्य कायम करने का अधिकार देती है। जहां तक धारा 166 का सवाल है तो उसके पहले और दूसरे अनुच्छेद, जिन्हे सौभाग्य से संविधान में अनिवार्य नहीं बनाया गया है लेकिन राज्यपाल केंद्र सरकार की सहमति से इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। जब केंद्र सरकार एक निरर्थक हो चुके आदमी को राजा बना कर भेज सकती हैं तो उसे अपने मतलब के कामों में सहमति लेने से क्या ऐतराज हो सकता है? इस धारा के अनुसार राज्यपाल का कोई भी आदेश नियमों के अनुसार अनिवार्य माना जाएगा और इसकी वैधता पर कोई सवाल भी खड़ा नहीं किया जा सकता। धारा 166 के ही पहले और दूसरे अनुच्छेद में तो यह खेल कर दिया गया मगर तीसरे अनुच्छेद में लिख दिया गया कि राज्यपाल के आदेश को कानून के आधार पर अदालत में चुनौती दी जा सकती है। मगर इसी आदेश में यह भी लिखा हैं कि महामहिम राज्यपाल सरकार को किसी भी दिन अपने हाथ में ले सकते हैं और यहां तक कि मंत्रियों के काम काज भी बदल सकते हैं। ऐसा हुआ बहुत कम हैं क्योंकि राज्यपाल भी जानते हैं कि बवाल में फंसे तो पेंशन में मिली शान और शौकत जाते देर नहीं लगेगी और फिर दिल्ली में एक बंगला मिल जाएगा जहां वे 'नाहन्यते हन्यमाने शरीरे' मंत्र के जाप का इंतजार करेंगे। तब तक तो राज्यपाल पद को आत्मा बनने से रोका जाए जिसे न वायु सुखा सकती है, न अस्त्र काट सकते हैं और न आग जला सकती है और जो एक तरह से भीख में मिलता है।
अब, सवाल यह उठता है, कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर आसीन् रहने के बावजूद, इतना पूर्वाग्रह क्यों। क्या राज्यपाल अपनी वैचारिक पार्टी के प्रति वफादारी दिखाते हैं। या फिर ऐसे घटनाक्रम में मौके की नजाकत को देखते हुये, मामले को और उलझाते हैं , ताकि उस सरकार के प्रति वफादार बने रहें जिसने उसे नियुक्त किया हैज्.। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि जिस तरह से राज्यपाल केन्द्र सरकार या अपनी पार्टी के एजेंट के रुप में काम करते हैं , वो इस देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिये कितना जायज है।

Wednesday, October 20, 2010

कुशल प्रशासक नहीं मार्केटिंग एक्सपर्ट बन रहे नौकरशाह

भारत जिस तेजी से विश्व के मानचित्र पर ताकतवर बनता जा रहा है उसी तेजी से यह अंदरुनी तौर पर खोखला होता जा रहा है। हमारे देश के खोखलेपन की एक अहम वजह यह भी है कि केंद्र और राज्य में महत्वपूर्ण पदों पर गलत लोग बैठे हुए हैं। प्रशासनिक मशीनरी सही लोगों का चयन तभी संभव हो सकेगा, जब चयन प्रक्रिया का आधार गुणवत्ता और उत्कृष्टता हो।
राज्यों में प्रशासनिक दक्षता की खराब गुणवत्ता के पीछे मैदानी और सचिवालय स्तर के अफसरों के तबादले की नीति भी है, जिसका इस्तेमाल राजनीतिक औजार के रूप में किया जाता है। यह पद्धति राजनेताओं के अनुरूप हो सकती है, लेकिन यह जनता के हित में कतई नहीं है। इसी कारण प्रशासन सुशासन न होकर कुशासन बन जाता है। हमारे तंत्र की इस कमी को कोई समझे या न समझे हमारे नौकरशाह भलीभांति समझते हैं,यही कारण है कि एक कुशल प्रशासक बनने की मंशा रखने के बावजुद भी ये मार्केटिंग एक्सपर्ट (पदों की खरीद-फरोख्त में माहिर)बनने में लगे हुए हैं।
केंद्रीय सतर्कता आयुक्त के चयन में जिस तरह की प्रक्रिया अपनाई गई, उससे एक बार फिर यह साबित हुआ कि सरकार की दिलचस्पी सुप्रशासन में नहीं है। न जाने इस ढर्रे में कैसे सुधार होगा। समझ ही नहीं आता कि सुधारों की शुरुआत कहां से होती है। यह तो सभी जानते हैं कि सरकार अपने 'भरोसेमंदÓ अधिकारियों को सेवानिवृत्ति के बाद अच्छा सा ओहदा देकर पुरस्कृत करती है। यह भी सर्वविदित है कि सीबीआई, आईबी, चुनाव आयोग या इस जैसे ही महत्वपूर्ण महकमों में सरकार यह सुनिश्चित करने का भरसक प्रयास करती है कि उचित व्यक्ति ही शीर्ष पदों पर आसीन हों। हमारे तंत्र की बुनियादी खामी यह है कि आम तौर पर सरकार महत्वपूर्ण पदों के लिए ऐसे व्यक्तियों का चयन करना पसंद करती है, जो 'आज्ञाकारीÓ हों।
उदहारण स्वरूप छत्तीसगढ को ले तो हम पाते हैं कि मध्य प्रदेश से अलग हुए इस राज्य को गरीब राज्यों की श्रेणी में गिना जाता है लेकिन यहां के नौकरशाह करोड़ों-अरबों के आसामी हैं। यह राज्य के विकास या संपन्नता को परिलक्षित नहीं करता है बल्कि नौकरशाहों की मार्केटिंग क्षमता को दर्शाता है।
छत्तीसगढ़ विकास के मामले में आज भले ही देश के अग्रिम पंक्ति के राज्यों में गिना जा रहा है, लेकिन वहां विकास की अभी भी जरूरत है। किसी भी राज्य के विकास की अवधारणा वहां की सरकार की होती है लेकिन उसके क्रियान्वयन का जिम्मा वहां की नौकरशाही का होता है। छत्तीसगढ़ में विकास का दौर चल रहा है अत वहां काम और भ्रष्टाचार दोनों चरम पर है। ऐसे में वहां के कुछ आईएएस काम तो कुछ भ्रष्टाचार के कारण राज्य से मुंह मोड़ रहे हैं। बड़ी शिकायत ये है कि अफसरशाही में अव्वल माने जाने वाले आईएएस अधिकारियों को अगर प्रतिनियुक्ति (दिल्ली) पर भेजा जाए तो वे जुगाड़-तंत्रÓ के सहारे काडर में वापस नहीं जाना चाहते। नए बैच के आईएएस में भी छत्तीसगढ़ में नियुक्ति के प्रति उत्साह में भारी कमी देखने को मिल रही है।
एक तरफ विकास को आतुर छत्तीसगढ़ में सरकार हवा के पंख लगाकर उड़ रही है वहीं दूसरी तरफ योग्य अधिकारी राज्य से बाहर जा रहे हैं। आईएएस सुलेमान, आईबी चहल, बिमल जुल्का, विनय शुक्ला और एसके राजू ने काडर बदलवाने में सफलता पाई,वहीं उज्जैन की कलेक्टर एम गीता छत्तीसगढ़ काडर बदलने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा रही हैं। एम गीता को 1997 में मध्यप्रदेश काडर मिला। उसी आधार पर इलाहाबाद बैंक में कार्यरत उनके पति ने अपना स्थानांतरण मध्यप्रदेश करा लिया। छत्तीसगढ़ बना तो उन्हें वहां जाने को कहा गया। पब्लिक सेक्टर के इलाहाबाद बैंक में इस तरह से एक ही बार स्थानांतरण का प्रावधान है, इसलिए पारिवारिक बिखराव को देखते हुए उन्होंने डीओपीटी को मध्यप्रदेश काडर बहाल करने की अर्जी दी थी। सुनी-अनसुनी होने के कारण पहले कैट और अब सुप्रीम कोर्ट के सामने मामला रखा है।
डीओपीटी में इन दिनों विभिन्न राज्यों के काडर-रिव्यू में जुटा हुआ है। माना जा रहा था कि कानून-व्यवस्था में छत्तीसगढ़़ की विषम परिस्थितियों को देखते हुए मांग के अनुसार आईएएस और आईपीएस की संख्या बढ़ाने पर केंद्र राजी हो जाएगा, पर ऐसा होता दिख नहीं रहा। सूबे में आईपीएस की कुल संख्या फिलहाल 81 है, इसे बढ़ाकर राज्य सरकार ने 111 आईपीएस के पदों की अनुशंसा की थी। इसके उलट केवल 103 आईपीएस के पदों की स्वीकृति पर डीओपीटी ने मुहर लगाई। ऐसा ही कुछ आईएएस के पद के लिए भी होने की संभावना है। सूत्रों ने बताया कि राज्य सरकार ने मौजूदा आईएएस की संख्या 135 को बढ़ाकर 155 करने की गुजारिश की है। चार नए संभागों में कलेक्टर, कमिश्नर के अलावा कुछ नए सीओ और चुनिंदा मंत्रालयों में विशेष सचिव के पद सृजित किए जाने का फार्मूला बनाया गया है। सूबे के लिए आईएएस काडर-रिव्यू का काम पूरा हो गया। सूत्रों ने बताया कि अंतिम मुहर के लिए फाइल कैबिनेट सचिवालय भेज दी गई है। डीओपीटी की संस्तुति में माना जा रहा है कि आईएएस की कुल संख्या 150 रखी गई है। इसके साथ राज्य सरकार के मसविदे का हवाला देते हुए कैबिनेट सचिवालय को अलग से नोट भेजा गया है कि अगर उचित लगे तो संख्या बढ़ाई भी जा सकती है।
राज्य सरकार की चिंता इस बात पर भी है कि शैलेश पाठक और राजकमल को आईएएस से इस्तीफा दिए लंबा समय बीत जाने के बाद भी डीओपीटी राज्य के आईएएस में उनके नामों को भी गिनता है जिससे बिना वजह दो पदों का घाटा राज्य सरकार को उठाना पड़ता है। शैलेश पाठक आईसीआईसीआई में और राजकमल अंतर्राष्ट्रीय कंपनी मैकेन्जी में उच्च पदों पर काम कर रहे हैं। दोनों को इस्तीफा तकरीबन 5 वर्षो से डीओपीटी में लंबित है।
उधर छत्तीसगढ़ में कार्यरत अधिकांश आईएएस अफसरों पर भ्रष्टाचार के आरोप लग रहे हैं भारतीय प्रशासनिक सेवा के इन अधिकारियों की विवादास्पद छवि के चलते जनता के करोड़ों रुपए डकारे जा रहे हैं। पदों का दुरुपयोग खुलेआम किया जा रहा है। छत्तीसगढ़ में जिस तरह से लूट-खसोट मची है वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के दामन में एक बदनुमा दाग बनकर सामने आने लगा है और एक बारगी तो सीधे सरकार से गठजोड़ दिखाई देने लगा है। हालत यह है कि बेहिसाब संपत्ति के मालिक इन अफसरों पर अंकुश लगाने में सरकार पूरी तरह विफल है। सर्वाधिक चर्चित अफसरों में इन दिनों बाबूलाल अग्रवाल का नाम सबसे ऊपर है। अन्य अफसरों में विवेक ढांड का नाम भी सामने आया है। कहा जाता है कि रायपुर के इस अफसर ने अपने पद का दुरुपयोग स्वयं के दुकान सजाने व गृहनिर्माण मंडल के बंगले को रेस्ट हाउस के लिए किराए से देने का है।
यही नहीं मालिक मकबूजा कांड में फंसे नारायण सिंह को किस तरह से पदोन्नति दी जा रही है यह किसी से छिपा नहीं है जबकि सुब्रत साहू पर तो धमतरी कांड के अलावा भी कई आरोप है। दूसरे चर्चित अफसरों में सी.के. खेतान का नाम तो आम लोगों की जुबान पर चढ गय़ा है। बारदाना से लेकर मालिक मकबूजा के आरोपों से घिरे खेतान साहब पर सरकार की मेहरबानी के चर्चे आम होने लगे हैं। ताजा मामला जे. मिंज का है माध्यमिक शिक्षा मंडल के एमडी श्री मिंज पर रायपुर में अपर कलेक्टर रहते हुए जमीन प्रकरणों में अनियमितता बरतने का आरोप है। सरकारी जमीन को बड़े लोगों से सांठ-गांठ कर गड़बड़ी करने के मामले में उन्हें नोटिस तक दी जा चुकी है। एम.के. राउत पर तो न जाने कितने आरोप हैं जबकि अब तक ईमानदार बने डी.एस. मिश्रा पर भी आरोपों की झड़ी लगने लगी है। अजय सिंह, बैजेन्द्र कुमार, सुनील कुजूर तो आरोपों से घिरे ही है। आरपी मंडल के खिलाफ तो स्वयं भाजपाई मोर्चा खोल चुके हैं लेकिन वे भी महत्वपूर्ण पदों पर जमें हुए हैं। जबकि अनिल टूटेजा पर तो हिस्ट्रीशिटरों के साथ पार्टनरशिप के आरोप लग रहे हैं। कहा जाता है कि देवेन्द्र नगर वाले इस शासकीय सेवा से जुड़े अपराधी को हर बार बचाने में अनिल टुटेजा की भूमिका रहती है।
अधिकांश आईएएस की करतूतों का कच्चा चि_ा सरकार के पास है आश्चर्य का विषय तो यह है कि जब भाजपा विपक्ष में थी तब इनमें से अधिकांश अधिकारियों की करतूत पर मोर्चा खोल चुकी है लेकिन सत्ता में आते ही इनके खिलाफ कार्रवाई तो दूर उन्हें महत्वपूर्ण पदों से नवाजा गया। बताया जाता है कि आईएएस और मंत्रियों के गठजोड़ की वजह से करोड़ों रुपए इनके जेब में जा रहा है। यहां तक कि जांच रिपोर्टों को भी रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया है। बहरहाल छत्तीसगढ़ में बदनाम आईएएस अफसरों का जमावड़ा होता जा रहा है और सरकार भी इनकी करतूत पर आंखे मूंदे है।
उधर प्रदेश के आदिवासी अधिकारियों में असंतोष की चिंगारी एक बार फिर नजर आने लगी है। आदिवासी बहुल छत्तीसगढ़ में एक भी स्थानीय आईएएस कलेक्टर के रूप में पदस्थ नहीं है। राज्य सेवा के 8-10 अधिकारियों को विगत वर्षों में आईएएस अवार्ड तो हुआ पर उन्हें शासन ने कलेक्टर बनाना मुनासिब नहीं समझा। आधिकांश आदिवासी आईएएस अफसर लूप लाइन में डाल दिए गए हैं।
लूप में पड़े ये अधिकारी गाहे-बगाहे अपना दर्द बयान कर ही जाते हैं। ये अधिकारी चाहते हैं कि सरकार उन्हें मेन लाइन में रखे और सरकार उनकी सुनने को तैयार नहीं दिखती। वैसे, इन पंक्तियों के लिखे जाने तक प्रदेश में आदिवासी वर्ग से एक कलेक्टर तैनात हैं। दूसरे मनोहर सिंह परस्ते, जो म.प्र. के डिंडोरी के हैं, लेकिन प्रदेश के अधिकारी जिलाधीश जैसे पद के लिए योग्य नहीं माने जा रहे हैं। न सिर्फ आईएएस बल्कि आईपीएस के स्थानीय अधिकारी स्वयं को उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। आदिवासी वर्ग के आईएस अफसरों को सबसे ज्यादा दुख इस बात का भी है कि आदिवासी वर्ग के मंत्री और विधायक भी उनके लिए लॉबिंग नहीं कर रहे हैं।
इन अफसरों का कहना है कि जिन कलेक्टरों का प्रदर्शन स्तरीय नहीं रहा उन्हें प्रभावशाली प्रभारी दिया गया है, इनका कहना है कि दागी और विवादित अफसरों पर भी सरकार मेहरबान है, पर सीधे-सरल भूमिपुत्र आईएएस अफसर सर उपेक्षित हैं। इन अधिकारियों का कहना है कि सरकार उनकी काबिलियत पर या तो भरोसा नहीं है या वह स्थानीय लोगों को मौका नहीं देना चाहती। आदिवासी वर्ग के आईएस जी.एस धनंजय आदिमजाति कल्याण विभाग में संचालक हैं, जे.मिंज पाठ्यपुस्तक निगम में, एम डी है। एन.एस. मंडावी हस्त शिल्प विभाग में तैनात हैं। डीडी सिंह उद्योग विभाग में संयुक्त सचिव, एसपी शोरी संपदा विभाग में, रामसिंह ठाकुर दुग्ध संघ में, एम डी है जेवियर तिग्गा लोसेआ के सचिव और अमृत सलखो स्वास्थ्य में उपसचिव हैं। टोप्पो ही ऐसे अधिकारी हैं जो रायपुर संभाग के कमिश्नर हैं।
इन अधिकारियों का दर्द है कि राज्य सेवा में चयनित होने के बाद उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण दायित्वों का कुशलतापूर्वक निर्वाह किया है फिर आईएस अवार्ड होने के बाद उन्हें फील्ड में अच्छी पोस्टिंग नहीं हुई। मौका क्यों नहीं दिया जा रहा है। ले-दे कर बीपीएस नेताम को कलेक्टर बनाया गया था पर उन्हें कहीं टिककर काम भी नहीं करने दिया गया उनका कार्यकाल भी पूरा नहीं हो पाया। ऐसे आदिवासी अधिकारियों की फेहरिस्त लंबी है जिन्हें प्रशासनिक फेरबदल पर अकारण और बिना किसी शिकायत के हटा दिया जाता है। जबकि प्रदेश में ऐसे अधिकारियों की सूची भी खासी लंबी है जो विवादों में रहे, जिनके खिलाफ गंभीर आरोप लगते रहे और जिन पर भ्रष्टाचार के छींटे हैं आज वे जिला कलेक्टर बने हुए हैं या महत्वपूर्ण विभागों में पदस्थ हैं। आदिवासी वर्ग के आईएएस अफसरों में व्याप्त यह असंतोष नाराजगी का रूप ले रहा है। कमोवेश यही स्थिति स्थानीय आईपीएस अधिकारियों की भी है। वे भी अपनी उपेक्षा से और अच्छी पोस्टिंग नहीं मिलने से नाराज चल रहे हैं। आईपीएस अधिकारियों की नाराजगी मुख्यालय से भी चार है। सुगबुगाहट है कि स्थानीय आईएएस और आईपीएस संगठित होने की कोशिश कर रहे हैं।

Thursday, October 7, 2010

मोदी बनवाएंगे 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटी'

गुजरात लौहपुरूष सरदार वल्लभभाई पटेल की 182 मीटर ऊंची विशालकाय प्रतिमा की स्थापना करेगा। इसे 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटीÓ नाम दिया गया है। आकार व कद-कांठी के लिहाज से यह विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा होगी। मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने यह घोषणा की।
2001 में सात अक्टूबर को मोदी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल का स्थान लिया था। 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटीÓ की स्थापना के संकल्प की घोषणा करते हुए मोदी ने कहा कि आजादी के बाद देश में राजाओं के बिखरने की आशंका थी। इसे निर्मल करते हुए सरदार वल्लभभाई पटेल ने अखंड़ भारत का निर्माण किया था। इस इतिहास को युवी पीढ़ी के समक्ष शास्वत करने के उद्देश्य से हम लौहपुरूष की विशाल प्रतिमा स्थापित करने जा रहे हैं। स्मारक के रूप में इसकी स्थापना की जाएगी। देश को एकजुट करने की सरदार की दूरदृष्टि के चलते इस प्रतिमा को 'स्टेच्यू ऑफ यूनिटीÓ नाम दिया गया है।
यह प्रतिमा लौहपुरूष के विराट व्यक्तित्व व उनके बुलंद मिजाज की परिचायक होगी। राज्य के अति महत्वाकांक्षी नर्मदा बांध के समीप साधु नामक टापू पर इस स्थापित किया जाएगा। खासबात यह है कि इसकी रचना ऐसी होगी कि नौका विहार करते हुए विशालकाय प्रतिमा तक पहुंचा जा सकेगा। साधू टापू नर्मदा बांध से करीब तीन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। हालांकि इस दिशा में काम शुरू करने से पहले पर्यावरण सहित सभी पहलुओं का सर्वेक्षण किया जाएगा। तत्पश्चात फैसला किया जाएगा कि सरदार की विशालकाय प्रतिमा का निर्माण किस प्रकार किया जाए। स्मारक परिसर में गुृड गर्वनेंस, कृषि विकास, आधुनिक खेती तथा आदिवासी उद्घार शोध केन्द्र भी होगा।
राष्ट्र-निर्माता लौह पुरुष सरदार वल्लभभाई पटेल
'लौह पुरुषÓ के नाम से विख्यात सरदार पटेल को भारत के गृह मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कश्मीर के संवेदनशील मामले को सुलझाने में कई गंभीर मुश्किलों का सामना करना पड़ा था। उनका मानना था कि कश्मीर मामले को संयुक्त राष्ट्र में नहीं ले जाना चाहिए था। वास्तव में सयुक्त राष्ट्र में ले जाने से पहले ही इस मामले को भारत के हित में सुलझाया जा सकता था। हैदराबाद रियासत के संबंध में सरदार पटेल समझौते के लिए भी तैयार नहीं थे। बाद में लॉर्ड माउंटबेटन के आग्रह पर ही वह 20 नवंबर, 1947 को निजाम द्वारा बाह्म मामले भारत रक्षा एवं संचार मंत्रालय भारत सरकार को सौंपे जाने की बात पर सहमत हुए। हैदराबाद के भारत में विलय के प्रस्ताव को निजाम द्वारा अस्वीकार कर दिए जाने पर अतंत: वहाँ सैनिक अभियान का नेतृत्व करने के लिए सरदार पटेल ने जनरल जे.एन. चौधरी को नियुक्त करते हुए शीघ्रातिशीघ्र कार्यवाई पूरी करने का निर्देश दिया। सैनिक हैदराबाद पहुँच गए और सप्ताह भर में ही हैदराबाद का भारत में विधिवत् विलय कर लिया गया।
यदि सरदार पटेल को कश्मीर समस्या सुलझाने की अनुमति दी जाती, जैसा कि उन्होंने स्वयं भी अनुभव किया था, तो हैदराबाद की तरह यह समस्या भी सोद्देश्यपूर्ण ढंग से सुलझ जाती। एक बार सरदार पटेल ने स्वयं श्री एच.वी.कामत को बताया था कि ''यदि जवाहरलाल नेहरू और गोपालस्वामी आयंगर कश्मीर मुद्दे पर हस्तक्षेप न करते और उसे गृह मंत्रालय से अलग न करते तो मैं हैदराबाद की तरह ही इस मुद्दे को भी आसानी से देश-हित में सुलझा लेता।ÓÓ
हैदराबाद के मामले में भी जवाहरलाल नेहरू सैनिक काररवाई के पक्ष में नही थे। उन्होंने सरदार पटेल को यह परामर्श दिया-''इस प्रकार से मसले को सुलझाने में पूरा खतरा और अनिश्चितता है।ÓÓ वे चाहते थे कि हैदराबाद में की जानेवाली सैनिक काररवाई को स्थगित कर दिया जाए। इससे राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय जटिलताएँ उत्पन्न हो सकती हैं। प्रख्यात कांग्रेसी नेता प्रो.एन.जी.रंगा की भी राय थी कि विलंब से की गई काररवाई के लिए नेहरू, मौलाना और माउंटबेटन जिम्मेदार हैं। रंगा लिखते हैं कि हैदराबाद के मामले में सरदार पटेल स्वयं अनुभव करते थे कि उन्होंने यदि जवाहरलाल नेहरू की सलाहें मान ली होतीं तो हैदराबाद मामला उलझ जाता; कमोबेश वैसी ही सलाहें मौलाना आजाद एवं लार्ड माउंटबेटन की भी थीं। सरदार पटेल हैदराबाद के भारत में शीघ्र विलय के पक्ष में थे, लेकिन जवाहरलाल नेहरू इससे सहमत नहीं थे। लॉर्ड माउंटबेटन की कूटनीति भी ऐसी थी कि सरदार पटेल के विचार और प्रयासों को साकार रूप देने में विलंब हो गया।
सरदार पटेल के राजनीतिक विरोधियों ने उन्हें मुसलिम वर्ग के विरोधी के रूप में वर्णित किया; लेकिन वास्तव में सरदार पटेल हिंदू-मुस्लिम एकता के लिए संघर्षरत रहे। इस धारणा की पुष्टि उनके विचारों एवं कार्यों से होती है। यहाँ तक कि गांधीजी ने भी स्पष्ट किया था कि ''सरदार पटेल को मुसलिम-विरोधी बताना सत्य को झुठलाना है। यह बहुत बड़ी विडंबना है।ÓÓ वस्तुत: स्वतंत्रता-प्राप्ति के तत्काल बाद अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में दिए गए उनके व्याख्यान में हिंदू-मुसलिम प्रश्न पर उनके विचारों की पुष्टि होती है।
इसी प्रकार, निहित स्वार्थ के वशीभूत होकर लोगों ने नेहरू और पटेल के बीच विवाद को बढ़ा-चढ़ाकर प्रचारित किया तथा जान-बूझकर पटेल व नेहरू के बीच परस्पर मान-सम्मान और स्नेह की उपेक्षा थी। इन दोनों दिग्गज नेताओं के बीच एक-दूसरे के प्रति आदर और स्नेह के भाव उन पत्रों से झलकते हैं, जो उन्होंने गांधीजी की हत्या के बाद एक-दूसरे को लिखे थे। निस्संदेह, सरदार पटेल की कांग्रेस संगठन पर मजबूत पकड़ थी और नेहरूजी को वे आसानी से (वोटों से) पराजित कर सकते थे। लेकिन वे गांधीजी की इच्छा का सम्मान रखते हुए दूसरे नंबर पर रहकर संतुष्ट थे। उन्होंने राष्ट्र के कल्याण को सर्वोपरि स्थान दिया।
विदेश नीति के संबंध में सरदार पटेल के विचारों के बारे में लोगों को बहुत कम जानकारी हैं, जो उन्होंने मंत्रिमंडल की बैठकों में स्पष्ट रूप से व्यक्त किए थे तथा पं.नेहरू पर लगातार दबाव डाला कि राष्ट्रीय हित में ब्रिटिश राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने से भारत को मदद मिलेगी। जबकि नेहरू पूर्ण स्वराज पर अड़े रहे, जिसका अर्थ था-राष्ट्रमंडल से किसी भी प्रकार का नाता न जोडऩा। किंतु फिर भी, सरदार पटेल के व्यावहारिक एवं दृढ़ विचार के कारण नेहरू राष्ट्रमंडल का सदस्य बनने के लिए प्रेरित हुए। तदनुसार समझौता किया गया, जिसके अंतर्गत भारत गणतंत्रात्मक सरकार अपनाने के बाद राष्ट्रमंडल का सदस्य रहा।
सरदार पटेल चीन के साथ मैत्री तथा 'हिंदी-चीनी भाई-भाईÓ के विचार से सहमत नहीं थे। इस विचार के कारण गुमराह होकर नेहरूजी यह मानने लगे थे कि यदि भारत तिब्बत मुद्दे पर पीछे हट जाता है तो चीन और भारत के बीच स्थायी मैत्री स्थापित हो जाएगी। विदेश मंत्रालय के तत्कालीन महासचिव श्री गिरिजाशंकर वाजपेयी भी सरदार पटेल के विचारों से सहमत थे। वे संयुक्त राष्ट्र संघ में चीन के दावे का समर्थन करने के पक्ष में भी नहीं थे। उन्होंने चीन की तिब्बत नीति पर एक लंबा नोट लिखकर उसके दुष्परिणामों से नेहरू को आगाह किया था। सरदार पटेल को आशंका थी कि भारत की मार्क्सवादी पार्टी की देश से बाहर साम्यवादियों तक पहुँच होगी, खासतौर से चीन तक। अन्य साम्यवादी देशों से उन्हें हथियार एवं साहित्य आदि की आपूर्ति भी अवश्य होती होगी। वे चाहते थे कि सरकार द्वारा भारत के साम्यवादी दल तथा चीन के बारे में स्पष्ट नीति बनाई जाए।
इसी प्रकार, भारत की आर्थिक नीति के संबंध में सरदार पटेल के स्पष्ट विचार थे। मंत्रिमंडल की बैठकों में उन्होंने नेहरूजी के समक्ष अपने विचार बार-बार रखे; लेकिन किसी-न-किसी कारणवश उनके विचारों पर अमल नहीं किया गया। उदाहरण के लिए उनका विचार था कि समुचित योजना तैयार करके उदारीकरण की नीति अपनाई जानी चाहिए। आज सोवियत संघ पर आधारित नेहरूवादी आर्थिक नीतियों के स्थान पर जोर-शोर से उदारीकरण की नीति ही अपनाई जा रही है।
खेद की बात है कि सरदार पटेल को सही रूप में नहीं समझा गया। उनके ऐसे राजनीतिक विरोधियों के हम शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने निरंतर उनके विरुद्ध अभियान चलाया तथा तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया, जिससे पटेल को अप्रत्यक्ष रूप से सम्मान मिला। समाजवादी विचारधारा के लोग नेहरू को अपना अग्रणी नेता मानते थे। उन्होंने पटेल की छवि पूँजीवाद के समर्थक के रूप में प्रस्तुत की। लेकिन सौभाग्यवश, सबसे पहले समाजवादियों ने ही यह महसूस किया था कि उन्होंने पटेल के बारे में गलत निर्णय लिया है।
प्रस्तुत पुस्तक में ऐसे महत्त्वपूर्ण तथा संवेदनशील मुद्दों पर विचार करने का प्रयास किया गया है, जो आज भी विवादग्रस्त हैं। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.राजेन्द्र प्रसाद ने मई 1959 में लिखा था-''सरदार पटेल की नेतृत्व-शक्ति तथा सुदृढ़ प्रशासन के कारण ही आज भारत की चर्चा हो रही है तथा विचार किया जा रहा है।ÓÓ आगे राजेन्द्र प्रसाद ने यह जोड़ा-''अभी तक हम इस महान् व्यक्ति की उपेक्षा करते रहे हैं।ÓÓ उथल-पुथल की घडिय़ों में भारत में होनेवाली गतिविधियों पर उनकी मजबूत पकड़ थी। यह 'पकड़Ó उनमें कैसी आई ? यह प्रश्न पटेल की गाथा का एक हिस्सा है।
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के चुनाव के पच्चीस वर्ष बाद चक्रवर्ती राज-गोपालाचारी ने लिखा-''निस्संदेह बेहतर होता, यदि नेहरू को विदेश मंत्री तथा सरदार पटेल को प्रधानमंत्री बनाया जाता। यदि पटेल कुछ दिन और जीवित रहते तो वे प्रधानमंत्री के पद पर अवश्य पहुँचते, जिसके लिए संभवत: वे योग्य पात्र थे। तब भारत में कश्मीर, तिब्बत, चीन और अन्यान्य विवादों की कोई समस्या नहीं रहती।ÓÓ लेकिन निराशाजनक स्थिति यह रही कि उनके निधन के बाद सत्ताहीन राजनीतिज्ञों ने उनकी उपेक्षा की और उन्हें वह सम्मान नहीं दिया गया, जो एक राष्ट्र-निर्माता को दिया जाना चाहिए था।
गृहमंत्री, सूचना एवं प्रसारण मंत्री तथा राज्यों संबंधी मामलों के मंत्री होने के नाते सरदार पटेल स्वाभाविक रूप से जम्मू व कश्मीर मामले भी देखते थे। किंतु बाद में जम्मू व कश्मीर संबंधी मामले प्रधानमंत्री स्वयं देखने लगे। जम्मू व कश्मीर के प्रमुख नेता शेख अब्दुल्ला से प्रधानमंत्री पं.नेहरू के भावनात्मक संबंध थे। हैदराबाद के संबंध में निजाम द्वारा भारत सरकार की अति उदार शर्तें मानने से इनकार करने के बाद सरदार पटेल के पास सैन्य काररवाई के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प शेष नहीं बचा था। हैदराबाद राज्य की जनता उत्तरदायी सरकार हेतु हैदराबाद के भारतीय संघ में विलय की माँग कर रही थी। इस राज्य की आंतरिक व बाह्म शक्तियों के भारत के हित के प्रतिकूल विचारों पर सरदार पटेल का पत्र-व्यवहार काफी प्रकाश डालता है।
जम्मू व कश्मीर एक सामरिक महत्त्व का राज्य था, जिसकी सीमाएँ कई देशों से जुड़ी हुई थीं, और सरदार पटेल उत्सुक थे कि उसका भारत में विलय हो जाए। किंतु भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड माउंटबेटन के चर्चिल व टोरी पार्टी से काफी मित्रतापूर्ण संबंध थे। वे कश्मीर के पाकिस्तान के साथ मिलने के विरुद्ध नहीं थे। उनका यह आश्वासन अत्यंत ही रोचक है कि यदि कश्मीर पाकिस्तान के साथ विलय करना चाहे तो भारत कोई समस्या खड़ी नहीं करेगा। यद्यपि सरदार पटेल इस प्रकार के आश्वासन के विरुद्ध थे, किंतु युक्तियुक्त योजना के कारण वे उस समय कुछ न बोल सके। फिर भी वह कश्मीर का भारत में विलय चाहते थे। उन्होंने महाराजा हरि सिंह से कहा कि उनका हित भारत के साथ मिलने में है और इसी विषय पर उन्होंने जम्मू व कश्मीर के प्रधानमंत्री पं.रामचंद्र काक को 3 जुलाई, 1947 को एक पत्र लिखा-''मैं कश्मीर की विशेष कठिनाइयों को समझता हूँ, किंतु इतिहास एवं पारंपरिक रीति-रिवाजों आदि को ध्यान में रखते हुए मेरे विचार से जम्मू व कश्मीर के भारत में विलय के अतिरिक्त कोई अन्य विकल्प ही नहीं है।ÓÓ
उन्होंने महाराजा के इस भय को दूर करना चाहा, जिस पर उन्होंने उसी दिन के अपने पत्र में चर्चा की थी-''पं.नेहरू कश्मीर के हैं। उन्हें इस पर गर्व है, वह आपके शत्रु कभी नहीं हो सकते।ÓÓ उन्होंने और भी जोर देकर कहा कि राज्य का हितैषी होने के कारण मैं आपको आश्वस्त करता हूँ कि कश्मीर का हित अविलंब भारत में विलय तथा संविधान सभा में भाग लेने से ही है। उनके मस्तिष्क में यह साफ एवं स्पष्ट था कि कश्मीर समस्या अलग प्रकार की है। जम्मू में हिंदू बहुसंख्यक थे; कश्मीर घाटी में भी हिंदू काफी संख्या में थे; परंतु घाटी में अधिक संख्या मुसलमानों की थी तथा लद्दाख में बौद्ध बहुमत में थे। कश्मीर घाटी में मुसलिम बहुसंख्यक थे, किंतु वे वंश एवं भाषा के आधार पर पंजाब तथा शेष पाकिस्तान के मुसलिमों से भिन्न थे।
फिर भी महाराजा हरि सिंह लंबित रेडक्लिप अवार्ड के कारण असमंजस में थे, क्योंकि गुरदासपुर जिला, जिसकी पूरी सीमा कश्मीर राज्य तथा भावी भारतीय संघ से मिलती थी, पाकिस्तान में मिला लिया गया था और यदि इसे स्वीकार कर लिया गया तो इसका मतलब होगा हिमालय की ऊंची पहाडिय़ों के अतिरिक्त जम्मू और कश्मीर तथा भारत की सीमाएँ कहीं भी परस्पर नहीं मिलेंगी।
इस बीच चतुर महाराजा परिस्थितियों से लाभ उठाने के उद्देश्य से यह भी सोच रहे थे कि अपनी रियासत को स्वतंत्र घोषित कर लें। उन्होंने लॉर्ड माउंटबेटन को अपने मंतव्य से परिचित कराना चाहा और उनके 26 सितंबर, 1947 के पत्र में दिए गए सुझाव को मानते हुए कहा कि कश्मीर की सीमाएँ सोवियत रूस व चीन से भी मिलती हैं और भारत तथा पाकिस्तान से भी, अत: उसे स्वतंत्र राज्य माना जाए। संभवत: यह दोनों देशों (भारत-पाकिस्तान) तथा अपने राज्य के हित में रहेगा-यदि उसे स्वतंत्र रहने दिया जाए। इस प्रकार वह अपना काम निकालने की प्रतीक्षा में थे।
यद्यपि जवाहरलाल नेहरू के पूर्वजों ने कई पीढिय़ों पहले ही कश्मीर छोड़ दिया था, फिर भी वे स्वयं को कश्मीरी मानते हुए उस राज्य तथा नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला से भावनात्मक संबंध रखते थे। अखिल भारतीय राज्य प्रज्ञा परिषद् के अध्यक्ष होने के नाते जवाहरलाल नेहरू ने राज्य में एक उत्तरदायी सरकार की माँग का समर्थन किया तथा शेख अब्दुल्ला को बंदी बनानेवाले महाराजा हरि सिंह की भर्त्सना की। उन्होंने जून 1946 में राज्य प्रज्ञा परिषद् के आंदोलन को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से राज्य का दौरा करना चाहा, जिसका महाराजा ने निषेध कर दिया था।
पं.नेहरू ने निषेधाज्ञा का उल्लंघन करना चाहा, किंतु सरदार पटेल और कांग्रेसी कार्यकारिणी समिति के अन्य सदस्य उस समय नियमोल्लंघन के पक्ष में नहीं थे। यहाँ तक कि कांग्रेस अध्यक्ष मौलाना आजाद ने भी नेहरू को ऐसा न करने का परामर्श दिया। सरदार पटेल ने अपने विचार स्पष्ट किए कि उन दोनों (गांधी व नेहरू) में से कोई भी वहाँ न जाए। किंतु पं. नेहरू के वहाँ जाने के उद्देश्य के पूरा न होने से कहीं मानसिक तनाव न बढ़े, इस कारण पटेल ने फिर उनमें से एक को ही जाने की राय दी। उन्होंने बहुत दक्षता से कहा, ''इन दो-दो हानिकर बुराइयों में से एक को चुनने के सवाल पर मैं सोचता हूँ कि गांधीजी के जाने से हानि कम होगी।ÓÓ
11 जुलाई, 1946 को अपने पत्र में सरदार पटेल ने डी.पी. मिश्रा को लिखा-
उन्होंने (नेहरू) हाल ही में ऐसी बहुत सी बातें कही हैं, जिनसे जटिल उलझनें पैदा हुई हैं। कश्मीर के संदर्भ में उनकी गतिविधियाँ, संविधान सभा में सिख चुनाव में हस्तक्षेप, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन के तुरंत बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाना-ये सभी कार्य भावनात्मक पागलपन के थे और इनसे हम सभी को इन मामलों को हल करने में बहुत ही तनावपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा था। किंतु इन सभी निष्कलंक एवं अविवेकपूर्ण बातों को उनके स्वतंत्रता-प्राप्ति के आवेश का असामान्य उत्साह माना जा सकता है।
महाराजा हरि सिंह के साथ तनावपूर्ण संबंध होने के कारण पं.नेहरू को भारतीय संघ में विलय हेतु महाराजा के साथ बातचीत करने के लिए सरदार पटेल पर निर्भर रहना पड़ता था। इस बात पर वह बिलकुल असहाय से थे। 27 सितंबर, 1947 को पं.नेहरू ने सरदार पटेल को ध्यान दिलाया कि पंजाब के उत्तरी-पश्चिमी सीमाप्रांत के मुसलिम कश्मीर में घुसपैठ की तैयारियाँ कर रहे हैं। उनकी योजना अक्तूबर के अंत या नवंबर के आरंभ में युद्ध छेडऩे की है। वास्तव में तब हवाई मार्ग से किसी प्रकार का सहयोग देना कठिन होगा। उन्होंने यह भी बताया कि उन्हें उस स्थिति में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्ववाली नेशनल कॉन्फ्रेंस पर निर्भर रहना पड़ेगा। उन्होंने कश्मीर राज्य के भारत में शीघ्र विलय की आवश्यकता बताई, जिसके बिना शीतकाल शुरू होने से पूर्व भारत के लिए कुछ भी करना दुष्कर होगा। जवाहरलाल नेहरू ने सरदार पटेल को यह भी बताया कि उन्होंने कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन को भी परिस्थिति से अवगत करा दिया है, किंतु अभी उनके मन की बात का पता नहीं चल सका है। उन्होंने पटेल से कहा कि ''महाराजा व महाजन के लिए आपका परामर्श स्वाभाविक रूप से अधिक प्रभावी रहेगा।ÓÓ
एक कुशल राजनीतिज्ञ होने के नाते सरदार पटेल ने महाराजा हरि सिंह के साथ अच्छे संबंध बनाए थे और उन्हीं की सलाह से महाराजा ने महाजन को-जो उस समय पंजाब उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश थे-रामचंद्र काक की जगह प्रधानमंत्री नियुक्त किया था।
इस बीच पाकिस्तानी सेना के नेतृत्व में कबायलियों द्वारा बड़ी संख्या में घुसपैठ के कारण कश्मीर की स्थिति ने नाटकीय मोड़ ले लिया था। महाराजा ने राजनीतिक बंदियों-शेख अब्दुल्ला एवं अन्य को-मुक्त कर दिया था। शेख अब्दुल्ला ने अपनी ओर से महाराजा के प्रति पूरी निष्ठा एवं सहयोग का वचन दिया।
पठानकोट के भारतीय संघ में विलय से रेडक्लिफ अवार्ड के अनुसार जम्मू व कश्मीर राज्य का भारत से सीधा संपर्क हो गया। सरदार पटेल महाराजा हरि सिंह व प्रधानमंत्री महाजन को मनाने में सफल रहे कि इन परिस्थितियों में उनके पास भारतीय संघ में विलय के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं है।
27 अक्तूबर, 1947 के अपने पत्र में माउंटबेटन ने कश्मीर के महाराजा को लिखा कि बाद में भारत सरकार राज्य में कानून व व्यवस्था स्थापित होने और घुसपैठियों को खदेडऩे के बाद अपनी नीति के अनुसार इस राज्य के भारत में विलय के प्रस्ताव को राज्य की प्रज्ञा की इच्छा कहकर अंतिम रूप देकर इसे भारत में मिला लेगी। 27 अक्तूबर के ही एक अन्य पत्र में माउंटबेटन ने सरदार पटेल को एक ब्रिटिश अधिकारी के विचारों से अवगत कराया कि आंदोलन बहुत ही सुदृढ़ता से आयोजित किया गया है, पूर्व आई.एन.ए.अधिकारी इसमें सम्मिलित हैं और श्रीनगर पर नियंत्रण के लिए (उदाहरणार्थ-उपायुक्त नामित किया गया है) उसी ओर बढ़ रहे हैं और मुसलिम लीग भी इसमें सम्मिलित है। समाचार यह भी मिला था कि पाकिस्तानी हमलावरों ने कुछ क्षेत्र पर अधिकार कर लिया है और आगे बढ़ रहे है। भारत सरकार ने इसपर अपनी सेना को कश्मीर भेजने का निर्णय लिया। फिर भी ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ सर राय बुकर कश्मीर में सेना भेजने के पक्ष में नहीं थे, क्योंकि दो मुहिमों-कश्मीर व रेडक्लिफ-पर भिडऩा कठिन होगा।
एस.गोपाल ने अपनी पुस्तक 'जवाहरलाल नेहरू की आत्मकथाÓ में सरदार पटेल की भूमिका को कम दरशाते हुए इस बात पर जोर दिया कि कश्मीर में सेना भेजने का निर्णय मंत्रिमंडल का था। यद्यपि यह तथ्यों के विपरीत था। लगभग सारा मंत्रिमंडल अनिर्णय की स्थिति में था और यह सरदार पटेल ही थे, जिन्होंने सेनाध्यक्ष तथा अन्य लोगों की इच्छा के विरुद्ध श्रीनगर में सेना भेजने का निर्णय लिया।
राज्य में सेना भेजने के निर्णय पर बक्शी गुलाम मोहम्मद, जो उस समय शेख अब्दुल्ला के प्रमुख सहायक थे, ने सरदार पटेल की भूमिका पर दिलचस्प प्रकाश डाला। दिल्ली में होनेवाली उस निर्णयात्मक बैठक में बक्शी गुलाम मोहम्मद उपस्थित थे। जब निर्णय लिया गया, उस संबंध में उन्होंने अपने विचारों को अभिलिखित किया है-
लॉर्ड माउंटबेटन ने बैठक की अध्यक्षता की। बैठक में सम्मिलित होनेवालों में थे-पंडितजी (जवाहलाल नेहरू), सरदार वल्लभभाई पटेल, रक्षा मंत्री सरदार बलदेव सिंह, जनरल बुकर, कमांडर-इन-चीफ जनरल रसेल, आर्मी कमांडर तथा मैं। हमारे राज्य में सैन्य स्थिति तथा सहायता को तुरंत पहुँचाने की संभावना पर ही विचार होना था। जनरल बुकर ने जोर देकर कहा कि उनके पास संसाधन इतने थोड़े हैं कि राज्य को सैनिक सहायता देना संभव नहीं। लॉर्ड माउंटबेटन ने निरुत्साहपूर्ण झिझक दरशाई। पंडितजी ने तीव्र उत्सुकता एवं शंका प्रकट की। सरदार पटेल सबकुछ सुन रहे थे, किंतु एक शब्द भी नहीं बोले। वह शांत व गंभीर प्रकृति के थे; उनकी चुप्पी पराजय एवं असहाय स्थिति, जो बैठक में परिलक्षित हो रही थी, के बिलकुल विपरीत थी। सहसा सरदार अपनी सीट पर हिले और तुरंत कठोर एवं दृढ़ स्वर से सबको अपनी ओर आकर्षित किया। उन्होंने अपना विचार व्यक्त किया-''जनरल हर कीमत पर कश्मीर की रक्षा करनी होगी। आगे जो होगा, देखा जाएगा। संसाधन हैं या नहीं, आपको यह तुरंत करना चाहिए। सरकार आपकी हर प्रकार की सहायता करेगी। यह अवश्य होना और होना ही चाहिए। कैसे और किसी भी प्रकार करो, किंतु इसे करो।ÓÓ जनरल के चेहरे पर उत्तेजना के भाव दिखाई दिए। मुझमें आशा की कुछ किरण जगी। जनरल की इच्छा आशंका जताने की रही होगी, किंतु सरदार चुपचाप उठे और बोले, ''हवाई जहाज से सामान पहुँचाने की तैयारी सुबह तक कर ली जाएगी।ÓÓ इस प्रकार कश्मीर की रक्षा सरदार पटेल के त्वरित निर्णय, दृढ़ इच्छाशक्ति और विषम-से-विषम परिस्थिति में भी निर्णय के कार्यान्वयन की दृढ़ इच्छा का ही परिणाम थी।
सरदार पटेल के राजनीतिक विरोधियों द्वारा उनके बारे में समय-समय पर यह दुष्प्रचारित किया गया कि वे मुसलमान-विरोधी थे। किंतु वास्तविकता इसके विपरीत थी। उन पर यह आरोप लगाना न्यायसंगत नहीं होगा और इतिहास को झुठलाना होगा। सच्चाई यह थी कि हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाने के लिए सरदार पटेल ने हरसंभव प्रयास किए। इतिहास साक्षी है कि उन्होंने कई ऊँचे-ऊँचे पदों पर मुस्लमानों की नियुक्ति की थी। वह देश की अंतर्बाह्य सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता देते थे और इस संबंध में किसी तरह का जोखिम लेना उचित नहीं समझते थे। पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान (अब बँगलादेश) से भागकर आए शरणार्थियों के प्रति सरदार पटेल का दृष्टिकोण अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण था। उन्होंने शरणार्थियों के पुनर्वास एवं उनकी सुरक्षा हेतु कोई कसर बाकी न रखी और हरसंभव आवश्यक कदम उठाए।
'Óसरदार पटेल सोसाइटीÓ के संस्थापक एवं यूनाइटेड नेशनल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष श्री एस. निजलिंगप्पा ने अपनी जीवनी 'माइ लाइफ ऐंड पॉलिटक्सÓ (उनकी मृत्यु के कुछ माह पश्चात् प्रकाशित) में लिखा था-
''......आश्चर्य होता है कि पं. नेहरू से लेकर अब तक कांग्रेसी नेताओं को उनकी जीवनियाँ तथा संगृहीत चुनिंदा कार्यों को छपवाकर स्मरण किया जाता है। उनकी प्रतिमाएँ लगाई जाती हैं तथा उनके नामों पर बड़ी-बड़ी इमारतों के नाम रखे जाते हैं। लेकिन सरदार पटेल के नाम की स्मृति में ऐसा कुछ नहीं किया गया। जब हम सरदार पटेल की उपलब्धियों पर विचार करते हैं तो गांधी जी को छोड़कर अन्य कोई नेता उनके समकक्ष नहीं ठहरता। मेरा आशय अन्य नेताओं की समर्पित सेवाओं की प्रतिष्ठा को नीचा दिखाना नहीं है; लेकिन सरदार पटेल की सेवाएँ सर्वोपरि हैं।
''पिछले आठ वर्षों से मैं तत्कालीन प्रधानमंत्री से भी बार-बार अनुरोध करता रहा कि इस सोसायटी को उचित स्तर की इमारत दी जाए। हम वहाँ पर सरदार पटेल के व्यक्तित्व एवं कृतित्व संबंधी विशेषताओं को प्रदर्शित करना चाहते हैं। यह सोसायटी एक पुस्तकालय बनवाना चाहती है तथा बैठकों के आयोजन की व्यवस्था करना चाहती है। लेकिन आज तक इस दिशा में कुछ नहीं किया गया, जबकि प्रत्येक प्रधानमंत्री को इस बारे में असंख्य पत्र लिखे और अनेक बार अपील की गई।ÓÓ
सरदार पटेल से मतभेद रखनेवाले तथा उनके राजनीतिक विरोधियों ने निहित स्वार्थोंवश उनकी ऐसी छवि बनाई है कि वे मुसलिम-विरोधी थे तथा उनके प्रति भेदभाव बरतते थे। यहाँ यह ध्यातव्य है कि नीतिगत एवं महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर पं. जवाहरलाल नेहरू तथा वल्लभभाई पटेल के बीच मतभेद थे।
राष्ट्रवादी मुसलिम जवाहरलालजी के समर्थक थे तथा कई मुसलिम नेता उनके घनिष्ठ मित्र थे। मौलाना आजाद, रफी अहमद किदवई, शेख अब्दुल्ला, डॉ. सईद मदमूद, आसफ अली तथा अन्य नेता पं. नेहरू के घनिष्ठ मित्रों में थे; जबकि वल्लभभाई पटेल के साथ उनके औपचारिक संबंध ही थे।
दूसरी ओर, वल्लभभाई पटेल अकेले थे तथा उनके बहुत कम मित्र थे। उन्होंने कुछ महत्त्वपूर्ण लोगों के साथ ही संबंध रखे थे। इसमें राजेन्द्र प्रसाद, जी.बी. पंत, पी.डी. टंडन, मोरारजी देसाई, जमनालाल बजाज तथा कुछ गुजराती लोगों के नाम शामिल किए जा सकते हैं। कुछ निचली श्रेणी के नेताओं अथवा विरोधी नेताओं ने, जिनमें कुछ वामपंथी भी शामिल थे। (जैसे- के.डी. मालवीय, अशरफ, अरुणा आसफ अली, मृदुला साराभाई, पद्मजा नायडू), नेहरू के समक्ष मुसलमानों के प्रति पटेल के वैमनस्यपूर्ण रवैए के बारे में मनगढ़ंत कहानियाँ सुनाते रहते थे। इनमें से अधिकांश मुसलिम निस्संदेह मुसलिम लीग की पाकिस्तान बनाने की मांग के समर्थक थे। जब कभी चुनाव हुए, उन्होंने पाकिस्तान के लिए ही मत दिया। यह आम धारणा है कि सरदार पटेल कांग्रेस के तीन दिग्गजों-महात्मा गाँधी, पं. नेहरु और सुभाषचंद्र बोस के खिलाफ थे। किंतु यह मात्र दुष्प्रचार ही है। हाँ, कुछ मामलों में-खासकर सामरिक नीति के मामलों में-उनके बीच कुछ मतभेद जरुर थे, पर मनधेद नहीं होता था।
सरदार पटेल ने पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपए दिए जाने के प्रस्ताव पर गाँधीजी का विरोध नहीं किया था; यद्यपि वह समझ गए थे कि ऐसा करने की कीमत चुकानी पड़ेगी। इसी तरह उन्होंने प्रधानमंत्री के रुप में पं. नेहरु के प्रति भी उपयुक्त सम्मान प्रदर्शित किया। उन्होंने ही भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल में शामिल करने के लिए पं. नेहरु को तैयार किया था; यद्यपि नेहरु पूरी तरह इसके पक्ष में नहीं थे। जहाँ सुभाष चंद्र बोस के साथ उनके संबंधों की बात है, वे वरन् सन् 1939 में दूसरी बार सुभाषचंद्र बोस को कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के खिलाफ थे। सुभाषचंद्र बोस ने किस प्रकार सरदार पटेल के बड़े भाई वि_लभाई पटेल-जिनका विएना में निधन हो गया था, के अंतिम संस्कार में मदद की थी, उससे दोनों के मध्य आपसी प्रेम और सम्मान की भावना का पता चलता है।
2 सितंबर, 1946 को सरदार पटेल जब अंतिम सरकार में शामिल हुए, तो उस समय उनकी आयु 71 वर्ष थी। हम भली-भाँति जानते हैं कि गांधीजी की इच्छा का सम्मान करते हुए ही सरदार पटेल ने सन् 1946 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष पद के चुनाव से अपना नाम वापस ले लिया था, जबकि 15 प्रांतों की कांग्रेस समितियों में से 12 ने उनके नाम का अनुमोदन कर दिया था। यदि उन्हें चुनाव लडऩे दिया जाता, तो निस्संदेह वह स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री बनते।
गांधीजी के इस निर्णय पर कई बड़े कांग्रेसी नेताओं ने रोष प्रकट किया था। मध्य प्रांत के तत्कालीन गृहमंत्री डी.पी. मिश्र ने सरदार पटेल को लिखे एक पत्र में शिकायत भी की थी कि उनके (पटेल के) कारण ही कांग्रेसी नेताओं ने चुपचाप सबकुछ स्वीकार कर लिया। वस्तुत: सरदार पटेल और उनके समर्थक नेता पद के भूखे नहीं थे, उनके अपने राजनीतिक आदर्श थे, जिन्हें वे किसी भी स्थिति में छोडऩा नहीं चाहते थे।
डी.पी. मिश्र के पत्र के उत्तर में सरदार पटेल ने लिखा था कि पं. नेहरू चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुने गए हैं। उन्होंने आगे लिखा था कि पं. नेहरू अकसर बच्चों जैसी नादानी कर बैठते हैं, जिससे हम सभी के सामने बड़ी-बड़ी मुश्किलें खड़ी हो जाती हैं। इस तरह की कुछ मुश्किलों का जिक्र करते हुए उन्होंने लिखा था, ''कश्मीर में उनके द्वारा किया गया कार्य, संविधान सभा के लिए सिख चुनाव में हस्तक्षेप और अखिल भारतीय कांग्रेस के तुरंत बाद उनके द्वारा आयोजित प्रेस कॉन्फ्रेंस-सभी कार्य उनकी भावनात्मक अस्वस्थता को दरशाते हैं, जिससे इन मामलों को जल्दी-से-जल्दी सुलझाने के लिए हमारे ऊपर काफी दबाव आ जाता है।ÓÓ
जब पं. नेहरू को मंत्रिमंडल का गठन करने और उसके सदस्यों की सूची भेजने के लिए कहा गया तो उन्होंने अपनी प्रथम सूची में सरदार पटेल को कोई स्थान नहीं दिया था। बाद में जब सरदार पटेल को मंत्रिमंडल में सहायक (उप-प्रधानमंत्री) के रूप में शामिल किया गया तो उन्होंने अपने एक कनिष्ठ सहकर्मी को सहयोग देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। पं. नेहरू ने स्वयं भी अहसास किया कि उनका प्रधानमंत्री बनना सरदार पटेल की उदारता के कारण ही संभव हो सका।
सरदार पटेल को उप-प्रधानमंत्री बनाकर उन्हें सबसे महत्त्वपूर्ण विभाग-गृह तथा सूचना एवं प्रसारण-सौंपा गया। बाद में 5 जुलाई, 1947 को एक और महत्त्वपूर्ण विभाग-राज्य मंत्रालय भी उन्हें सौंप दिया गया। वस्तुत: सरदार पटेल कांग्रेस के सबसे सशक्त नेता के रूप में स्थापित थे, लेकिन पं. नेहरू को सूचित किए बिना या उनकी स्वीकृति लिये बिना शायद ही उन्होंने कभी कोई बड़ा फैसला लिया हो। अपनी अद्भुत सगंठन क्षमता और सूझ-बूझ के बल पर उन्होंने देश को विभाजन के बाद की मुश्किलों और अव्यवस्थाओं से उबारने में सफलता प्राप्त की।

यह सच है कि पं. नेहरू के साथ उनके कुछ मतभेद थे, लेकिन ये मतभेद स्वाभाविक थे, जो कुछ विशेष मामलों-खासकर आर्थिक, सामुदायिक और समय-समय पर उठनेवाले संगठनात्मक मामलों-को लेकर ही थे। किंतु दुर्भाग्य की बात है कि कुछ स्वार्थ-प्रेरित तत्त्वों ने उनके इन मतभेदों को गलत अर्थ में प्रस्तुत करके जनता को गुमराह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मणिबेन ने इस संदर्भ में पद्मजा नायडू, मृदुला साराभाई और रफी अहमद किदवई के नामों का उल्लेख किया है, जिन्होंने मौके का भरपूर फायदा उठाने का प्रयास किया था। यहाँ तक कहा गया कि सरदार पटेल पद के भूखे हैं और वह उसे किसी भी कीमत पर छोडऩा नहीं चाहेंगे। गांधीजी को जब इसका पता चला तो उन्होंने सरदार पटेल को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अत्यंत कड़े शब्दों में उनकी शिकायत की थी-
मुझे तुम्हारे खिलाफ कई शिकायतें सुनने को मिली हैं।....तुम्हारे भाषण भड़काऊ होते हैं...तुमने मुसलिम लीग को नीचा दिखाने की कोई कसर नहीं छोड़ रखी।...लोग तो कह रहे हैं कि तुम (किसी भी स्थिति में) पद पर बने रहना चाहते हो।
गांधीजी के इन शब्दों से सरदार पटेल को गहरा आघात लगा। उन्होंने 7 जनवरी, 1947 को गांधीजी को लिखे अपने पत्र में स्पष्ट रूप में उल्लेख किया कि पं. नेहरू ने उन्हें पद छोडऩे के लिए दबाव डालते हुए धमकी दी थी, जिसे उन्होंने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि इससे कांग्रेस की गरिमा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता। अपने ऊपर लगाए गए निराधार आरोपों के संदर्भ में सरदार पटेल ने गांधीजी को बताया कि ये अफवाहें मृदुला द्वारा ही फैलाई गई होंगी, जिन्होंने मुझे बदनाम करने को अपना शौक बना लिया है। वह तो यहाँ तक अफवाह फैला रही हैं कि मैं जवाहरलाल से अलग होकर एक नई पार्टी का गठन करने जा रहा हूँ। इस तरह की बातें उन्होंने कई मौकों पर की हैं। पत्र में उन्होंने यह भी लिखा कि कार्यसमिति की बैठक में भिन्न विचार व्यक्त करने में मुझे कोई बुराई दिखाई नहीं देती। आखिरकार हम सभी एक ही दल के सदस्य हैं। वस्तुत: पं. जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम के साथ सरदार पटेल के जो भी मतभेद थे, वे व्यक्तिगत मामलों को लेकर नहीं, बल्कि सिद्धांतों और नीतियों को लेकर थे। जो लोग उनके मतभेदों के बारे में जानते थे, उन्होंने इसका लाभ उठाते हुए दोनों के बीच खाई खोदने की पूरी कोशिश की।

पं. नेहरू के साथ सरदार पटेल के मतभेद उस समय और गहरा गए, जब गोपालस्वामी आयंगर का हस्तक्षेप कश्मीर मामले के साथ-साथ अन्य मंत्रालयों कार्यों में बढऩे लगा। गोपालस्वामी ने पंजाब सरकार को कश्मीर के लिए वाहन चलाने का निर्देश दे दिया, जिसका सरदार पटेल ने यह तर्क देते हुए विरोध किया कि यह मामला राज्य मंत्रालय के कार्य क्षेत्र के अंतर्गत आता है, जो उस समय पाकिस्तान से आए शरणार्थियों के पुनर्वास कार्य में लगे हुए थे, हालाँकि बाद में गोपालस्वामी ने सरदार पटेल के दृष्टिकोण की सराहना की, लेकिन पं. नेहरू किसी भी स्थिति में सरदार पटेल से सहमत नहीं हो पा रहे थे। उन्होंने प्रधानमंत्री की शक्ति का मामला उठाते हुए कड़े शब्दों में सरदार पटेल को लिखा, ''यह सब मेरे ही आग्रह पर किया गया था और मैं उन मामलों से संबंधित अपने अधिकारों को नहीं छोडऩा चाहता, जिनके प्रति मैं स्वयं को उत्तरदायी मानता हूँ।ÓÓ
इसी तरह अजमेर में सांप्रदायिक अशांति के दौरान पहले तो पं. नेहरू ने घोषणा की कि वह स्वयं अजमेर का दौरा करके स्थिति का जायजा लेंगे, लेकिन अपने भतीजे के निधन के कारण वह दौरे पर नहीं जा सके। अत: इसके लिए उन्होंने एक सरकारी अधिकारी एच.आर.वी. आयंगर को नियुक्त कर दिया, जिसने एक पर्यवेक्षक की हैसियत से शहर का दौरा किया। इस दौरान उसने उपद्रव के कारण हुई क्षति का जायजा लिया और दरगाह, महासभा तथा आर्य समाज के प्रतिनिधियों से भेंट की। उसकी गतिविधियों से ऐसा लगा कि उसे अजमेर के मुख्य आयुक्त और उसके अधीनस्थ अधिकारियों के कार्यों की जाँच करने के लिए भेजा गया है। शंकर प्रसाद ने इसकी शिकायत सरदार पटेल (गृहमंत्री) से की, जिसे गंभीरता से लेते हुए सरदार पटेल ने पूरी बात पं. नेहरू के सामने रखते हुए कहा कि यदि वह स्वयं दौरे पर जाने में असमर्थ थे तो वह अपने स्थान पर एक सरकारी अधिकारी को नियुक्त करने की बजाय किसी मंत्री को या स्वयं मुझे नियुक्त कर सकते थे। अपने अधिकारों के संबंध में उठाए गए इस सवाल पर नेहरू ने कड़ा रुख अपनाते हुए विरोध जताया और कहा कि इस तरह तो मैं एक कैदी की तरह हो जाऊँगा, जिसे स्थिति को देखते हुए कोई कार्य करने की स्वतंत्रता न हो। हालाँकि उन्होंने स्वीकार किया कि विभिन्न मामलों पर उनकी सोच और सरदार पटेल की सोच में व्यापक अंतर है।
पं. नेहरू द्वारा गृह और राज्य मंत्रालयों के कार्यों में अनावश्यक हस्तक्षेप किए जाने के मामले पर भी दोनों के बीच में अकसर मतभेद उभर आते थे। पं. नेहरू की शिकायत होती की कि राज्य मंत्रालय से संबंधित कार्यों की प्रगति की जानकारी मंत्रिमंडल को नियमित रूप से नहीं दी जाती, जबकि सरदार पटेल ने इसका खंडन करते हुए कहा था कि वह सभी नीतिगत मामलों से संबंधित सूचना प्रधानमंत्री और उनके मंत्रिमंडल को नियमित रूप से देते रहने का विशेष ध्यान रखते हैं। त्रिलोकी सिंह और रफी अहमद किदवई ने एक छोटा सा अल्पसंख्यक गुट बनाया था, जो बहुसंख्यकों पर अपना प्रभुत्व जमाना चाहता था। सरदार पटेल को यह बात बिलकुल पसंद नहीं आई। उन्होंने सुझाव दिया कि इसका निर्णय करने का सबसे अच्छा तरीका सद्भावपूर्ण समझौता है और यदि यह तरीका सफल नहीं होता तो स्थिति को देखते हुए इसका एकमात्र लोकतांत्रिक रास्ता चुनाव कराकर बहुसंख्यक मतों द्वारा इसका निर्धारण करना हो सकता है। त्रिलोकी सिंह को यह बात पसंद नहीं आई और वह अपने छोटे से गुट के साथ कांग्रेस से अलग हो गए। वस्तुत:, रफी अहमद किदवई स्वयं को उत्तर प्रदेश में गोबिंद वल्लभ पंत के प्रतिद्वंद्वी के रूप में स्थापित करना चाहते थे, क्योंकि वह पं. नेहरू के अधिक निकट थे। बाद में जब उन्हें केंद्र में आने का मौका मिला तो यह निकटता और भी बढ़ गई।
4 जून, 1948 को लिखे एक पत्र में सरदार पटेल ने पं. नेहरू को बताया कि वह उत्तर प्रदेश में चल रही स्थिति से खुश नहीं हैं। पत्र में उन्होंने स्पष्ट शब्दों में लिखा था-''रफी उत्तर प्रदेश की प्रांतीय कांग्रेस समिति के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ रहे हैं।...केंद्र में एक मंत्री के रूप में रहते हुए उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए। उनका गुट संभवत: यही सोच रहा है कि उनके पास कोई अन्य प्रत्याशी ऐसा नहीं है, जो टंडनजी को चुनाव में हरा सके।ÓÓ
संभवत:, वैचारिक मतभेदों के चलते ही सरदार पटेल ने 16 जनवरी, 1948 को गांधीजी को पत्र लिखकर उनसे अनुरोध किया था कि उन्हें पद से मुक्त कर दिया जाए, हालाँकि पत्र में उन्होंने कारण का उल्लेख नहीं किया था। इससे पूर्व 6 जनवरी, 1948 को पं. नेहरू ने भी गांधीजी को एक पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने अपने और सरदार पटेल के बीच उत्पन्न मतभेदों को विस्तृत करते हुए लिखा था कि या तो सरदार पटेल को अपना पद छोडऩा होगा, नहीं तो मैं स्वयं त्याग-पत्र दे दूँगा। नेहरू द्वारा उठाए गए मामलों पर संक्षिप्त टिप्पणी करते हुए सरदार पटेल ने गांधीजी को पत्र के माध्यम से पुन: स्पष्ट किया था कि उनके बीच हिंदू-मुसलिम संबंधों और आर्थिक मामलों को लेकर कोई मतभेद नहीं है, जैसा प्रधानमंत्री (पं. नेहरू) ने भी स्वीकार किया है, और आखिरकार दोनों के लिए देश का हित ही सर्वोपरि है। उन्होंने आगे स्पष्ट करते हुए लिखा था कि यदि पं. नेहरू की नीतियों को स्वीकार कर लिया जाए तो देश में प्रधानमंत्री की भूमिका एक तानाशाह की हो जाएगी।

Wednesday, October 6, 2010

युवराज के प्रेम पर उठने लगी उंगली

कांग्रेस में इन दिनों मार्केटिंग का दौर चल रहा है। पार्टी के नीति निर्धारक जहां युवराज राहुल गांधी को एक अजूबा प्रोडक्ट बताकर उनकी मार्केटिंग कर रहे हैं वहीं राहुल युवाओं के प्रवेश के नाम पर कांगे्रस की मार्केटिंग कर रहे हैं। अपनी तीन दिवसीय यात्रा पर मध्य प्रदेश आए राहुल गांधी की पूरी यात्रा में तो यही नजर आया। हालांकि राहुल गांधी यानि कांग्रेस की ताकत, राजनीति की मैराथॉन का हीरो, युवा पीढ़ी का नया नेता। राहुल गांधी की एक और पहचान है वो युवाओं के स्टाइल आइकॉन भी हैं। शायद राहुल की इसी छवि को भुनाने की जुगत में कांग्रेस लगी हुई है।
मार्केटिंग मैनेजमेण्ट के कुछ खास सिद्धान्त होते हैं, जिनके द्वारा जब किसी प्रोडक्ट की लॉंचिंग की जाती है तब उन्हें आजमाया जाता है। ऐसा ही एक प्रोडक्ट भारत की आम जनता के माथे पर चस्पा करने की कोशिश की जा रही है। मार्केटिंग के बड़े-बड़े गुरुओं और दिग्विजय सिंह जैसे घाघ और चतुर नेताओं की देखरेख में इस प्रोडक्ट यानी राहुल गाँधी की मार्केटिंग की गई है, और की जा रही है। जब मार्केट में प्रोडक्ट उतारा जा रहा हो, (तथा उसकी गुणवत्ता पर खुद बनाने वाले को ही शक हो) तब मार्केटिंग और भी आक्रामक तरीके से की जाती है, बड़ी लागत में पैसा, श्रम और मानव संसाधन लगाया जाता है, ताकि घटिया से घटिया प्रोडक्ट भी, कम से कम लॉंचिंग के साथ कुछ समय के लिये मार्केट में जम जाये। सरल भाषा में इसे कहें तो बाज़ार में माहौल बनाना, उस प्रोडक्ट के प्रति इतनी उत्सुकता पैदा कर देना कि ग्राहक के मन में उस प्रोडक्ट के प्रति लालच का भाव पैदा हो जाये। ग्राहक के चारों ओर ऐसा वातावरण तैयार करना कि उसे लगने लगे कि यदि मैंने यह प्रोडक्ट नहीं खरीदा तो मेरा जीवन बेकार है। ग्राहक सदा से मूर्ख बनता रहा है और बनता रहेगा, ऐसा ही कुछ राहुल गाँधी के मामले में भी होने वाला है। राहुल बाबा को देश का भविष्य बताया जा रहा है, राहुल बाबा युवाओं की आशाओं का एकमात्र केन्द्र हैं, राहुल बाबा देश की तकदीर बदल देंगे, राहुल बाबा यूं हैं, राहुल बाबा त्यूं हैं। लेकिन राहुल गांधी की यात्राओं को देखकर तो यही लगता है कि जो कुछ भी देखा और सुना जा रहा है वह केवल मार्केटिंग का ही फंडा है।
मजे की बात ये है कि राहुल सिफऱ् युवाओं और से दलित आदिवासियों मिलते हैं। युवाओं से मिलने के लिए वे विश्वविद्यालय के कैम्पस या फिर बंद स्थान जहां लड़कियाँ उन्हें देख-देखकर, छू-छूकर हाय, उह, आउच, वाओ आदि चीखती हैं, और राहुल बाबा (बकौल सुब्रह्मण्यम स्वामी राहुल खुद किसी विश्वविद्यालय से पढ़ाई अधूरी छोड़कर भागे हैं और जिनकी शिक्षा-दीक्षा का रिकॉर्ड अभी संदेह के घेरे में है) किसी बड़े से सभागार में तमाम पढे-लिखे और उच्च समझ वाले प्रोफ़ेसरों(?) की क्लास लेते हैं। खुद को विवेकानन्द का अवतार समझते हुए वे युवाओं को देशहित की बात बताते हैं, और देशहित से उनका मतलब होता है भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुडऩा। जनसेवा या समाजसेवा (या जो कुछ भी वे कर रहे हैं) का मतलब उनके लिये कॉलेजों में जाकर हमारे टैक्स के पैसों पर पिकनिक मनाना भर है। किसी भी महत्वपूर्ण मुद्दे पर आज तक राहुल बाबा ने कोई स्पष्ट राय नहीं रखी है, उनके सामान्य ज्ञान की पोल तो सरेआम दो-चार बार खुल चुकी है, शायद इसीलिये वे चलते-चलते हवाई बातें करते हैं। वस्तुओं की कीमतों में आग लगी हो, तेलंगाना सुलग रहा हो, पर्यावरण के मुद्दे पर पचौरी चूना लगाये जा रहे हों, मंदी में लाखों नौकरियाँ जा रही हों, चीन हमारी इंच-इंच ज़मीन हड़पता जा रहा हो, उनके चहेते उमर अब्दुल्ला के शासन में थाने में रजनीश की हत्या कर दी गई हो ऐसे हजारों मुद्दे हैं जिन पर कोई ठोस बयान, कोई कदम उठाना, अपनी मम्मी या मनमोहन अंकल से कहकर किसी नीति में बदलाव करना तो दूर रहा राजकुमार फ़ोटो सेशन के लिये मिट्टी की तगारी उठाये मुस्करा रहे हैं, कैम्पसों में जाकर कांग्रेस का प्रचार कर रहे हैं, विदर्भ में किसान भले मर रहे हों, ये साहब दलित की झोंपड़ी में नौटंकी जारी रखे हुए हैं और मीडिया उन्हें ऐसे फ़ॉलो कर रहा है मानो साक्षात महात्मा गाँधी स्वर्ग (या नर्क) से उतरकर भारत का बेड़ा पार लगाने आन खड़े हुए हैं।
भोपाल में तो युवराज ने हद यह कर दी कि केवल अल्पसंख्यक समुदाय के ही युवक-युवतियों को रवीन्द्र भवन में बुलाकर चर्चा की। बाहर कांग्रेस को मजबुत बनाने का ख्वाब देखने वालों को पुलिस दुत्कार रही थी। यही नहीं राहुल बाबा जब भी बोलते हैं तो यह कहने से नहीं भूलते हैं कि अब कांग्रेस और युवक कांग्रेस में चापलूसी और चमचागिरी की दाल नहीं गलने वाली और इन गुणों पर विश्वास करने वाले लोग कांग्रेस छोड़कर किसी दूसरी पार्टी में शामिल हो जाएं। लेकिन क्या उन्हें इस बात का भान नहीं है कि उनके आगे पीछे घुमने वाले कैसे लोग हैं। प्रदेश के दौरे पर कई बार केन्द्रिय मंत्री और पदाधिकारी आते हैं लेकिन उनके पीछे तो इतनी भीड़ कभी नहीं देखी जाती है। इसे चमचागिरी नहीं तो क्या कहेंगे। सवाल अब भी यही खड़ा है कि राहुल गांधी की इन यात्राओं से देश का क्या भला हो रहा है? एक साधारण से संसद सदस्य और कांग्रेस के महासचिव के दौरों पर भारत और सूबों की सरकार सरकारी खजाने से पानी की तरह पैसा क्यों बहाती है?
अब जरा कांग्रेस के बाबा के दलित प्रेम की बात करें। गांधी के पूर्वजों में देश को नेतृत्व देने के दो मॉडल हैं। एक जवाहर लाल नेहरू का मॉडल है और दूसरा इंदिरा गांधी का। राहुल गांधी ज्यादा पीछे जाने की मशक्कत न करते हुए अपनी दादी की विरासत में खुद को ढालने की कोशिश करते ज्यादा दिख रहे हैं। इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया, और 1971 के आम चुनाव में कांग्रेस के सिंडिकेट (दिग्गज नेताओं के गुट) को परास्त करते हुए एक जनप्रिय छवि की नेता के रूप में उभरीं। इसके पहले बैंक राष्ट्रीयकरण और प्रीवी पर्स खत्म करने के मुद्दे उछाल कर उन्होंने दिल्ली में खुद के आम जन की सिपाही होने का संदेश दिया था।
पिछले कुछ दिनों के अंदर पहले उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ और फिर ओडीशा के लांजीगढ़ में राहुल गांधी के भाषणों का भी यही सार-संक्षेप है। लांजीगढ़ में राहुल गांधी एक कदम और आगे गए। उन्होंने ध्यान दिलाया कि आदिवासी पहाड़ को देवता मानते हैं और उन्हें अपने देवता- अपने जंगल और जमीन की रक्षा की लड़ाई में सफल होने पर बधाई दी। फिर कहा कि आदिवासियों की ऐसी हर लड़ाई में वे दिल्ली में उनके सिपाही हैं और इसकी अभी सिर्फ शुरुआत हुई है।
दलित आदिवासियों के बीच रात बिताकर मीडिया की सुर्खियां बटोरने वाले कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी के अचानक दलित बस्तियों में जाने की बात कितनी औचक होती है, इस बात से आम आदमी अब तक अनजान ही है। राहुल बाबा का सुरक्षा घेरा स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) का होता है, जिसमें परिंदा भी पर नहीं मार सकता है, फिर अचानक किसी अनजान जगह पर कांग्रेस की नजर में भविष्य के प्रधानमंत्री राहुल गांधी का रात बिताना आसानी से गले नहीं उतरता है। वास्तविकता तो यह है कि राहुल गांधी के प्रस्तावित दौरों के स्थानों की खाक खुफिया एजेंसियों द्वारा लंबे समय पहले ही छान ली जाती है, जजमान को भी पता नहीं होता है कि उसके घर भगवान (युवराज) पधारने वाले हैं।
राहुल गांधी की इन औचक यात्राओं के बारे में हकीकत कुछ और बयां करती है। दरअसल, राहुल गांधी के इस तरह के औचक कार्यक्रम स्थानीय लोगों, प्रशासन, कांग्रेस पार्टी और मीडिया के लिए कोतूहल एवं आश्चर्य का विषय होते हैं, लेकिन सुरक्षा एजेंसियां इससे कतई अनजान नहीं होती हैं। सुरक्षा एजेंसियों के सूत्रों का कहना है कि इस तरह के औचक कार्यक्रमों में सुरक्षा एजेंसियों की लंबी कवायद के बाद ही इन्हें हरी झंडी दी जाती है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी जब भी जहां भी जाते हैं वहां जाने की योजना महीनों पहले ही बना दी जाती है।
राहुल गांधी के करीबी सूत्रों का कहना है कि राहुल गांधी के इस तरह के दौरों की तैयारी एक से दो माह पहले ही आरंभ हो जाती है। सर्वप्रथम राहुल गांधी की कोर टीम यह तय करती है कि राहुल गांधी कहां जाएंगे। उस क्षेत्र की भौगोलिक, राजनैतिक, सामाजिक स्थिति के बारे में विस्तार से जानकारी जुटाई जाती है। इसके बाद राहुल गांधी के बतौर सांसद सरकारी आवास 12, तुगलक लेन में उनकी निजी टीम इसे अंतिम तौर पर अंजाम देने का काम करती है। यहां बैठे राहुल के सहयोगी कनिष्क सिंह, पंकज शंकर, सचिन राव आदि इन सारी जानकारियों को एक सूत्र में पिरोकर एसपीजी के अधिकारियों से इस बारे में विचार विमर्श करते हैं। इन सारी तैयारियों और सूचनाओं को केंद्रीय जांच एजेंसी 'इंटेलीजेंस ब्यूरो' द्वारा खुद अपने स्तर पर अपने सूत्रों के माध्यम से जांचा जाता है। आई बी की हरी झंडी के उपरांत ही राहुल गांधी के दौरे की तारीख तय की जाती है। राहुल गांधी के कार्यालय, एसपीजी और आईबी के अधिकारियों के बीच की कवायद को इतना गुप्त रखा जाता है कि मीडिया तक उसे पता नहीं कर पाती।

Tuesday, October 5, 2010

अब राम की होगी अग्निपरीक्षा

भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला। रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है-
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू।
राम नाम अवलंबन एकू।।
अर्थात कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा हैं। लेकिन कलियुग के रावणों ने ऐसा चक्रव्यूह रचा है कि राम को बार-बार अग्रिपरीक्षा के दौर से गुजरना पड़ रहा है।
अयोध्या के ऐतिहासिक फैसले के बाद कुछ महानुभावों ने अपनी प्रतिक्रिया में इस बात पर खुशी जाहिर की कि 'अब तो अदालत से भी सिद्ध हो गया कि भगवान राम थे और वे हमारे आराध्य हैं।Ó ऐसी ही खुशी का भाव कई अन्य के चेहरों पर था कि अदालत ने भगवान राम के जन्म होने के स्थान पर मुहर लगा दी है यानी परोक्ष रूप से मान लिया है कि भगवान राम थे। कुछ लोग तो इस सीमा तक विश्लेषण करने लगे कि भगवान राम, भगवान के रूप में न सही पर हमारे पूर्वज के रूप में तो सभी को स्वीकार्य होने चाहिए। अब फिर कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कह रहे हैं। फिर तर्क-वितर्क होंगे। गवाह पेश होंगे, सबूत दिए जाएंगे, अभिलेख दिखाए जाएंगे। फिर से जमीन के हक की और उसके बंटवारे की बात होगी। यानी एक बार फिर प्रश्न उठेगा कि भगवान राम वहां जन्मे थे या नहीं, साथ ही यह भी कि भगवान राम थे भी या नहीं। यानी एक बार फिर राम की अग्नि परीक्षा होगी। सीता मैया की अग्नि परीक्षा लेकर तुमने यह क्या अनर्थ कर दिया प्रभु कि इस कलियुग में तुम्हें बार-बार अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है।
लेकिन यह बात कोई समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि राम केवल हमारे अराध्य और हिन्दु धर्म ही नहीं बल्कि हमारे साझा मुल्क साझी विरासत के प्रतिक भी है। असल धर्म का पालन लोगों के दिलों के बीच पुल बनाने और जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता रहा है. असली धर्म यानी अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण. यहां बिना किसी हानि-लाभ के, अंतरात्मा की आवाज पर, अपने होने के उद्देश्य की पूर्ति करने वालों की कुछ मिसालें दी जा रही हैं जिनसे छोटे-छोटे झगड़ों में बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करने वाले उनसे भी बड़े सबक ले सकते हैं ।
आज जिस राम भूमि को लेकर हंगामा मचा हुआ है उसी अयोध्या से होकर कलकल कर बहती
सरयू नदी में पंडे धर्म-कर्म कराते थे और मुसलिम समुदाय के लोग फूल चढ़वाने का काम करते थे. जहूर मियां बाबरी मस्जिद का केस भी लड़ते थे और संत-महंत सामने से गुजर जाएं तो दुआ-सलाम व आदर देने में कहीं भी कोताही नहीं करते थे. हाशिम मियां के क्या कहने, उनका महंत परमहंस जी से तो याराना जैसा था. हाशिम मियां आज भी हैं वे बाबरी मस्जिद के एक पक्षकार भी हैं और इसी मामले में हिंदू पक्ष की ओर से पक्षकार रहे रामचंद्र परमहंस के साथ एक ही गाड़ी में बैठकर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का मुकदमा लडऩे के लिए जाते थे.
फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिंदू-मुसलिम साथ खड़े दिखते हैं। भाजपा के सांसद रहे ब्रह्मचारी विश्वनाथ दास शास्त्री की यह बात उस अयोध्या की झलक देती है जिसकी हर ईंट में गंगा-जमुनी तहजीब और सद्भाव की मिट्टी बसी है. फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न मेले-त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिन्दू-मुसलिम साथ-साथ दिखाई देते हैं. पूजा के लिए दिए जाने वाले फूलों से लेकर मंदिरों में चढऩे वाली माला को पिरोने के काम में लगे मुसलिम समुदाय के लोग शहर के ताने-बाने में ऐसे रचे बसे हैं कि यदि ये न हों तो शायद अयोध्या की जिंदगी ही ठहर जाए.
कनकभवन के बगल में स्थित सुंदरभवन में रामजानकी का मंदिर है. अन्सार हुसैन उर्फ चुन्ने मियां 1945 से लेकर जीवन के अंतिम क्षणों तक इस मंदिर के मैनेजर रहे. मेले में तो वे पुजारी के काम में मंदिर में हाथ भी बंटाते थे. वे पंचवक्ती नमाजी थे लेकिन क्या मजाल इसे लेकर अयोध्या में कोई विवाद हुआ हो.
अयोध्या के साधु-संतों के लिए विशेष तौर पर अयोध्या के मुसलिम कारीगरों द्वारा जो खड़ाऊं बनायी जाती है उसे 'चुन्नी-मुन्नीÓ कहते हैं. इसका वजन 50 से लेकर 100 ग्राम तक होता है. इसे बनाने वाले एक मोहम्मद इकबाल बताते हैं कि यह एक खास हुनर है . इनके पिता भी यही काम करते थे और खानदान के लगभग एक दर्जन लोग इसे अपना व्यवसाय और सेवा बनाए हुए हैं. 6 दिसम्बर, 1992 को बाहरी उपद्रवी लोगों ने इनका घर जलाकर खाक कर दिया फिर भी इन्होंने न तो अयोध्या छोड़ी और न खड़ाऊं बनाना. हनुमानगढ़ी सहित तमाम मंदिरों में ये खड़ाऊं चढ़ाई जाती है. जब विश्व हिंदू परिषद के अयोध्या आंदोलन के कारण स्थितियां खराब होने के अंदेशे में खड़ाऊं के कारोबार में लगे मुसलिम कारीगर थोड़े दिनों के लिए अयोध्या छोड़कर दूसरी जगहों पर चले गए तो विश्व हिंदू परिषद को भरतकुंड के खड़ाऊ पूजन का कार्यक्रम पूरा करने के लिए जरूरी खड़ाऊं उपलब्ध नहीं हो सकी.
इतिहास पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि अयोध्या में कई मंदिर और अखाड़े हैं जिन्हें मुसलिम शासकों ने समय-समय पर जमीन और वित्तीय संरक्षण दिया. फैजाबाद के सेटिलमेंट कमिश्नर रहे पी कारनेगी ने भी 1870 में लिखी अपनी रिपोर्ट में इस आशय के कई उल्लेख किए हैं. रामकोट क्षेत्र, जहां अयोध्या विवाद का मुख्य केंद्र बिंदु विवादित परिसर है, उसी के उत्तर में स्थित जन्मस्थान मंदिर 300 वर्ष पुराना है. यह वैष्णवों के तडग़ूदड़ संप्रदाय का मंदिर है और कार्नेगी ने लिखा है कि इसके लिए जमीन अवध के नवाब मंसूर अली खान ने दी थी. रामकोट में प्रवेश द्वार पर ही एक टीलेनुमा किले के रूप में दिखती है हनुमानगढ़ी. सीढिय़ां देख लीजिए तो लगता है जैसे पहाड़ी पर चढऩा है. हनुमानगढ़ी को नवाबों के समय में दी गई भूमि पर बनाया गया था और आसफुदौला के नायब वजीर राजा टिकैतराय ने इसे राजकोष के धन से बनवाया. आज भी यहां फारसी में लिपिबद्ध पंचायती व्यवस्था चल रही है. जिसका मुखिया गद्दीनशीन कहलाता है. इस समय रमेशदास जी इसके गद्दीनशीन हैं. हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास ने 2003 में अयोध्या के इतिहास में हनुमानगढ़ी परिसर में रोजा इफ्तार का आयोजन करके हिन्दू-मुसलिम के बीच अयोध्या आंदोलन के फलस्वरूप आई कुछ दूरियों को समाप्त करने के लिए एक नया अध्याय खोला और इसके बाद सादिक खां उर्फ बाबू टेलर ने मस्जिद परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ कराकर अवध की उसी गंगा-जमुनी तहजीब का परिचय दिया जिसका अयोध्या भी एक हिस्सा है.
हनुमानगढ़ी के महंत, षटदर्शन अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास कहते हैं कि नागापनी संस्कार में उनके गुरू द्वारा बताया गया था कि अवध के नवाब आसफुदौला और सूबेदार मंसूर अली खान के समय में मंदिर को दान मिला था. महन्त ज्ञानदास फारसी में लिखे उस फरमान को दिखाते हैं जिसके अनुसार मंदिर को दान मिला. वे कहते हैं, जहां तक मुझे ज्ञात है कि नवाब के नायब नवल राय द्वारा अयोध्या के कई मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ. बाबा अभयराम दास को भी नवाबों के काल में भूमि दी गई थी.
इसी अयोध्या में बाबर के समकालीन मुसलिम शासकों ने दंतधावन कुंड से लगे अचारी मंदिर जिसे दंतधावनकुण्ड मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, को पांच सौ बीघे जमीन ठाकुर के भोग, राग, आरती के लिए दान में दी थी. महंत नारायणाचारी बताते हैं कि अंग्रेजों ने भी इस जमीन पर मंदिर का मालिकाना हक बरकरार रखा और जमीन को राजस्व कर से भी मुक्त रखा, इस शर्त पर कि मंदिर द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कोई कार्य नहीं किया जाएगा.
अयोध्या में ही उदासीन संप्रदाय का नानकशाही रानोपाली मंदिर भी है. यह वही मंदिर है जिसकी चौखट पर ऐतिहासिक 'धनदेवÓ शिलालेख जड़ा है जिसमें पुष्यमित्र के वंशजों द्वारा यहां एक ऐतिहासिक यज्ञ करने का वर्णन है. इस मंदिर का क्षेत्र ही इतना बड़ा है कि मंदिर परिसर के अंदर खेती भी होती है. तहलका ने कुछ साल पहले जब यहां महंत दामोदरदास से मुलाकात की थी तो उन्होंने नवाब आसफुद्दौला का एक दस्तावेज दिखाया था जो फारसी में लिखा था. उन्होंने बताया था, नवाब ने मंदिर के लिए एक हजार बीघे जमीन दान में दी थी लेकिन इसकी जानकारी हमें नहीं थी. 1950 में इसका पता चला जब महंत केशवदास से मार्तंड नैयर और शकुंतला नैयर ने मंदिर की जमीन का बैनामा करा लिया. मामला आगे बढ़ा तो पता चला कि यह तो हो ही नहीं सकता क्योंकि जमीन दान की थी उसी दौरान हमें आसफुद्दौला की ग्राण्ट का यह प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ था जिसे कोर्ट में लगाया गया और बैनामा खारिज हुआ. कोर्ट ने कहा कि दान की भूमि को बेचा नहीं जा सकता. गौरतलब है कि शकुंतला नैयर तत्कालीन जिलाधिकारी केकेके नैयर की पत्नी तथा मार्तंड नैयर उनके बेटे थे. केकेके नैयर के समय ही 22/23 दिसंबर 1949 को मूर्तियां बाबरी मस्जिद के अंदर रखी गई थीं. बाद में ये पति-पत्नी जनसंघ के टिकट पर सांसद भी निर्वाचित हुए थे.
सरयू किनारे स्थित लक्ष्मण किले के बारे में उल्लेख मिलता है कि यह मुबारक अली खान नाम के एक प्रभावशाली व्यक्ति ने बनवाया था. यह अब रसिक संप्रदाय का मंदिर है जिसके अनुयायी रासलीलानुकरण को अपनी उपासना के अंग के रूप में मान्यता देते हैं. अयोध्या-फैजाबाद दो जुड़वां शहर हैं. फैजाबाद नवाबों की पहली राजधानी रही है. गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रभाव फैजाबाद की दुर्गापूजा पर भी दिखता है जब चौक घंटाघर की मस्जिद से दुर्गा प्रतिमाओं के जुलूस पर फूलों की वर्षा की जाती है. यह परंपरा कब शुरू हुई यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह उसी रूप में आज भी जारी है.
असल धर्म का पालन लोगों के दिलों के बीच पुल बनाने और जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता रहा है. असली धर्म यानी अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण. यहां बिना किसी हानि-लाभ के, अंतरात्मा की आवाज पर, अपने होने के उद्देश्य की पूर्ति करने वालों की कुछ मिसालें दी जा रही हैं जिनसे छोटे-छोटे झगड़ों में बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करने वाले उनसे भी बड़े सबक ले सकते हैं
यह अस्वाभाविक या असंभव भी नहीं है। जब भी आस्था को तर्को-वितर्को की कसौटी पर कसा जाएगा, गवाहों, सबूतों और अभिलेखों के आधार पर सिद्ध किया जाएगा, ऐसे विवाद उठने स्वाभाविक हैं। ऐसे ही विवाद हमारी समझदारी और सहिष्णुता की परीक्षा लेते हैं। परीक्षा धर्य और संयम की भी होती है। यही विवाद कालान्तर में उन्माद को जन्म देते हैं, जिसकी विभीषिका हमने सन 1992 में देखी है।
प्रश्न यह है कि हम आस्था को अदालत की कसौटी पर कसने का प्रयास क्यों करते हैं? ईश्वर का अस्तित्व आस्था का प्रश्न है, तर्क और सबूतों का नहीं। हम में से कई लोग ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते। कुछ ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते पर किसी वैश्विक ऊर्जा या शक्ति को मानते हैं, जो इस पूरे ब्रह्मंड के प्रपंच को संचालित कर रही है। ईश्वर का होना एक विश्वास है, तो ईश्वर का न होना भी एक विश्वास है। हिंदू धर्मावलंबियों में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का संदर्भ आता है। हरेक को अपनी आस्था के अनुरूप ईश्वर के स्वरूप को चुनने की स्वतंत्रता है।
इसके अलावा धर्म में ऋषि, मनीषियों, संतों, महात्माओं की एक विशाल परंपरा है, जिन्हें देवतुल्य मानकर उनकी उपासना की जाती है। इसके अलावा कई और प्रतीक भी हैं, जिन्हें देवतुल्य आदर प्राप्त है और उन्हें भी उसी तरह पूजा जाता है, आराधना की जाती है। इन प्रतीकों में नदियां हैं, पर्वत हैं, पेड़ हैं और भी न जाने क्या-क्या है। लेकिन सभी अपनी-अपनी तरह से आस्था के स्थान हैं और श्रद्धालुओं के विश्वास के कारण दैवीय आभा से परिपूर्ण हैं। प्रश्न यह है कि क्या इन सभी के अस्तित्व को कसौटी पर कसने के लिए हमें हर बार अदालत का सहारा लेना पड़ेगा और क्या हर बार हम अदालत के फैसले के बाद ही अपनी आस्थाओं की पुष्टि कर पाएंगे। आस्था के अदालतों द्वारा प्रमाणीकरण का सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा?
अब चूंकि फैसला हो गया है, जो हमारे भारत की भावात्मक-रागात्मक एकता, सांस्कृतिक परंपरा और आस्था के अनुकूल है, इसलिए इस बात पर कुछ क्षण के लिए विचार किया जा सकता है कि यदि यह फैसला इसके विपरीत होता तो क्या होता? यदि माननीय उच्च न्यायालय भगवान श्रीराम के जन्मस्थान के बारे में या उनके अस्तित्व के बारे में विपरीत फैसला देता या मौन रह जाता, तब हम हमारी आस्था के लिए कैसी प्रतिक्रिया देते, यह सोचने का विषय है। क्या हम तब भगवान श्रीराम को मानना छोड़ देते या उन्हें अपना पूर्वज मानने से इनकार कर देते? क्या हम उन तर्को के सामने अपनी आस्था के प्रश्न को गौण मानकर छोड़ देते? क्या तब हमारी भगवान श्रीराम के प्रति आस्था में, उनके प्रति भक्ति भाव में कमी आती और तब क्या हम उनकी उपासना करना छोड़ देते? नहीं, हम ऐसा हरगिज नहीं कर पाते। तब फिर हम आस्था के विषय को अदालत की कसौटी पर ले जाकर माननीय अदालत के सामने भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न् क्यों छोड़ देते हैं? कई सौ वर्षो की गुलामी के काल में भी भारत पर शासन करने वालों ने भारतीयों की आस्था के विषय पर कभी कोई प्रश्नचिह्न् नहीं लगाया।
वे भारतीयों पर शासन करते रहे लेकिन भारतीयों की आस्था के साथ ही जीते रहे। खेद का विषय है कि आज हम आजाद भारत में अपने ही बनाए कानून के तहत आस्था पर सवाल उठा रहे हैं और अदालतों के माध्यम से उसे सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। आज जो लोग माननीय उच्च न्यायालय द्वारा भगवान श्रीराम का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर हर्ष व्यक्त कर रहे हैं, क्या उन्होंने कभी इस बात की पड़ताल की है कि इसके विपरीत फैसला आने पर उनकी प्रतिक्रिया क्या होती। हमारे जीवन में कुछ तो ऐसा होना चाहिए, जो तर्को-वितर्को से परे हो और जिसे गवाहों, सबूतों, दस्तावेजों के आधार पर नहीं, अपने भाव से तौला जा सके।

Monday, October 4, 2010

माओवादी अपने सिद्धांतों से भटक रहे हैं

नेपाल असमंजस के दौर से गुज़र रहा है. 30 जून को माधव कुमार नेपाल द्वारा प्रधानमंत्री पद से इस्ती़फा दिए जाने के बाद से यह देश राजनीतिक नेतृत्व के अभाव का शिकार है. प्रतिनिधि सभा में छह-सात बार मतदान के बाद भी प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों पुष्प कमल दहल प्रचंड और रामचंद्र पौडेल में से किसी को आवश्यक बहुमत हासिल नहीं हो पाया. देश की आम जनता निराश है, वहीं राजनीतिक पार्टियां अपने ऩफा-नुक़सान को लेकर ज़्यादा चिंतित हैं. उन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं कि देश के नए संविधान के निर्माण का काम अटका पड़ा है, विकास कार्य पूरी तरह बंद पड़े हैं, सालाना बजट तक पास नहीं हो पाया है. वे केवल इस बात को लेकर फिक्रमंद हैं कि नई सरकार में उनकी अहमियत बनी रहे. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) हो या नेपाली कांग्रेस, दोनों दल अपने उम्मीदवार को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने के लिए हर हथकंडा अपना रहे हैं. सबसे ख़राब हालत तो माओवादियों की है. संविधान सभा में सबसे ज़्यादा सदस्यों वाली यह पार्टी सत्ता पाने के लिए इतनी व्याकुल है कि विदेशी ताक़तों से मदद लेने में भी परहेज नहीं कर रही. सिद्धांतवादी पार्टी होने का दावा करने वाले माओवादियों का जब यह हाल है तो नेपाल में लोकतंत्र की हालत की सहज ही कल्पना की जा सकती है. प्रधानमंत्री पद के लिए छठे दौर के मतदान से ठीक पहले नेपाली मीडिया में एक सीडी को लेकर चर्चाओं का दौर गर्म रहा. इस सीडी में यूपीसीएन (माओवादी) के विदेश प्रभाग के मुखिया कृष्ण बहादुर महारा को संविधान सभा के सदस्यों का समर्थन हासिल करने के लिए चीन से आर्थिक मदद की मांग करते हुए दिखाया गया है. एक अज्ञात चीनी अधिकारी से बात करते हुए महारा विदेश में गुप्त मीटिंग के लिए तैयार होते हैं और प्रचंड की अनुमति प्राप्त होने का भरोसा भी दिलाते हैं. हालांकि महारा ने इस सीडी को फर्ज़ी क़रार दिया, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि इससे माओवादियों की सिद्धांतविहीनता और सत्तालोलुपता सतह पर आ जाती है.

राजशाही के ख़िला़फ लोगों की भावनाओं को उभार कर देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के लिए उन्हें गोलबंद करने में सफल रहे माओवादियों का राजनीतिक व्यवहार नेपाल में लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज़ से अच्छा संकेत नहीं है. राजशाही को समाप्त हुए ज़्यादा दिन नहीं हुए, लेकिन तमाम राजनीतिक दल जनता की नज़रों में ख़ारिज हो चुके हैं. माओवादियों के दबाव में माधव कुमार नेपाल की सरकार को सत्ता से बेदख़ल होना पड़ा, लेकिन तीन महीने बीत जाने के बाद नई सरकार का ब्लूप्रिंट तक तैयार नहीं हो पाया है.

नेपाल की मौजूदा राजनीतिक हालत ऐसी है कि सत्ता की चाबी चार मधेशी पार्टियों के गठबंधन के पास है. 82 सदस्यों के साथ यह गठबंधन दोनों में से किसी भी उम्मीदवार को प्रधानमंत्री बना सकता है, लेकिन मतदान की प्रक्रिया से अब तक दूर रहा है. गठबंधन के प्रतिनिधियों की माओवादियों के साथ कई दौर की बातचीत हो चुकी है और माओवादी उनकी अधिकांश मांगों को मानने के लिए तैयार भी हैं, लेकिन चारों दलों के बीच एकमत नहीं होने के कारण नतीजा सिफर ही रहा है. सीधी उंगली से घी निकलते न देख माओवादी पैसे के दम पर उन्हें ख़रीदने की कोशिश कर रहे हैं. सीडी में महारा को यह कहते हुए दिखाया गया है कि उन्हें 50 सदस्यों के समर्थन की ज़रूरत है और इसके लिए 50 करोड़ नेपाली रुपये की दरकार है. महारा इसके लिए हांगकांग में गोपनीय मीटिंग के लिए भी हामी भरते हैं. माओवादियों की ऐसी हरकतें ज़्यादा अखरती हैं, क्योंकि राजनीति में नैतिकता और मूल्यों की दुहाई देने वाली पार्टी ही यदि सत्ता के लालच में इस कदर गिर जाए तो देश में लोकतंत्र के भविष्य पर सवालिया निशान लग जाते हैं. माओवादी देश के अंदरूनी मामलों में विदेशी दखलंदाज़ी से भी लगातार इंकार करते रहे हैं और भारत के प्रति लचीला रवैया अपनाने के चलते नेपाली कांग्रेस पार्टी को लगातार निशाना बनाते रहे हैं, लेकिन सीडी प्रकरण से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता के लिए उन्हें चीन से मदद मांगने में भी कोई गुरेज नहीं है.

राजशाही के ख़िला़फ लोगों की भावनाओं को उभार कर देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के लिए उन्हें गोलबंद करने में सफल रहे माओवादियों का राजनीतिक व्यवहार नेपाल में लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज़ से अच्छा संकेत नहीं है. राजशाही को समाप्त हुए ज़्यादा दिन नहीं हुए, लेकिन तमाम राजनीतिक दल जनता की नज़रों में ख़ारिज हो चुके हैं. माओवादियों के दबाव में माधव कुमार नेपाल की सरकार को सत्ता से बेदख़ल होना पड़ा, लेकिन तीन महीने बीत जाने के बाद नई सरकार का ब्लूप्रिंट तक तैयार नहीं हो पाया है. माओवादियों के अड़ियल रवैये के चलते पूरा देश आज दो धड़ों में बंट चुका है. अपनी जायज़-नाजायज़ मांगों को मनवाने के लिए देश की राजनीतिक व्यवस्था को गिरवी रखने वाले माओवादी राजनीतिक पार्टियों के बीच ही नहीं, बल्कि जनता के बीच भी अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं. आज नेपाल एक दोराहे पर खड़ा है. एक ग़लत क़दम उसे राजनीतिक आत्महत्या की कगार पर पहुंचा सकता है. डर इस बात का है कि माओवादियों की सिद्धांतविहीनता और सत्तालोलुपता कहीं इस अंदेशे को सच्चाई में तब्दील न कर दे.

राजशाही पर फिर टिकी निगाहें
प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने के लिए चीन से आर्थिक मदद की मांग करने वाले माओवादियों की सिद्धांतविहीनता चौंकाती ज़रूर है, लेकिन राजनीतिक भ्रष्टाचार के दोषी अकेले माओवादी ही नहीं हैं. मीडिया में आ रही ख़बरों के अनुसार, देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी नेपाली कांग्रेस भी उद्योगपतियों और आम जनता से धन उगाही में लिप्त है. बांके में पार्टी की जनरल एसेंबली की बैठक के लिए स्थानीय व्यवसायियों, सरकारी अधिकारियों, स्कूल-कॉलेजों और यहां तक कि आम लोगों से भी धन की मांग की जा रही है. सच्चाई यह है कि नेपाल की हर राजनीतिक पार्टी आज स्वार्थसिद्धि में लगी है. क़रीब दो साल पहले जब राजशाही को समाप्त कर देश में लोकतंत्र की नींव डाली गई थी तो पूरा राष्ट्र एक नए जोश और उम्मीद से सराबोर था, लेकिन आज वह सारा जोश ग़ायब है और सारी उम्मीदें काफूर हो चुकी हैं. माओवादी हर हाल में सत्ता पर क़ाबिज होना चाहते हैं और नेपाली कांग्रेस उन्हें हर क़ीमत पर सत्ता से दूर रखने के लिए कटिबद्ध है, जबकि मधेशी पार्टियां अपनी स्वार्थसिद्धि में लगी हैं. राजनीति की इन कलाबाज़ियों के बीच आम जनता के लिए सोचने वाला कोई नहीं है. जनता त्राहिमाम कर रही है, विकास कार्य रुके पड़े हैं, देश के अधिकांश हिस्सों में क़ानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गई है. जनता निराश है और यह निराशा राजशाही की वापसी की पृष्ठभूमि तैयार करती दिख रही है. आम जनता उन पुराने दिनों को याद करने लगी है, जब राजशाही के दौर में नेपाल को एक अमन पसंद राष्ट्र के रूप में गिना जाता था. वह उसी दौर में फिर से लौटने को इच्छुक दिखाई देने लगी है. तमाम राजनीतिक पार्टियों की सत्तालोलुपता और स्वार्थपरता को देखते हुए उसे यह एहसास होने लगा है कि राजशाही के हाथों में ही उसका भविष्य सुरक्षित रह सकता है.