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भेड़ाघाट

Monday, October 4, 2010

माओवादी अपने सिद्धांतों से भटक रहे हैं

नेपाल असमंजस के दौर से गुज़र रहा है. 30 जून को माधव कुमार नेपाल द्वारा प्रधानमंत्री पद से इस्ती़फा दिए जाने के बाद से यह देश राजनीतिक नेतृत्व के अभाव का शिकार है. प्रतिनिधि सभा में छह-सात बार मतदान के बाद भी प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों पुष्प कमल दहल प्रचंड और रामचंद्र पौडेल में से किसी को आवश्यक बहुमत हासिल नहीं हो पाया. देश की आम जनता निराश है, वहीं राजनीतिक पार्टियां अपने ऩफा-नुक़सान को लेकर ज़्यादा चिंतित हैं. उन्हें इस बात की कोई फिक्र नहीं कि देश के नए संविधान के निर्माण का काम अटका पड़ा है, विकास कार्य पूरी तरह बंद पड़े हैं, सालाना बजट तक पास नहीं हो पाया है. वे केवल इस बात को लेकर फिक्रमंद हैं कि नई सरकार में उनकी अहमियत बनी रहे. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी) हो या नेपाली कांग्रेस, दोनों दल अपने उम्मीदवार को प्रधानमंत्री पद तक पहुंचाने के लिए हर हथकंडा अपना रहे हैं. सबसे ख़राब हालत तो माओवादियों की है. संविधान सभा में सबसे ज़्यादा सदस्यों वाली यह पार्टी सत्ता पाने के लिए इतनी व्याकुल है कि विदेशी ताक़तों से मदद लेने में भी परहेज नहीं कर रही. सिद्धांतवादी पार्टी होने का दावा करने वाले माओवादियों का जब यह हाल है तो नेपाल में लोकतंत्र की हालत की सहज ही कल्पना की जा सकती है. प्रधानमंत्री पद के लिए छठे दौर के मतदान से ठीक पहले नेपाली मीडिया में एक सीडी को लेकर चर्चाओं का दौर गर्म रहा. इस सीडी में यूपीसीएन (माओवादी) के विदेश प्रभाग के मुखिया कृष्ण बहादुर महारा को संविधान सभा के सदस्यों का समर्थन हासिल करने के लिए चीन से आर्थिक मदद की मांग करते हुए दिखाया गया है. एक अज्ञात चीनी अधिकारी से बात करते हुए महारा विदेश में गुप्त मीटिंग के लिए तैयार होते हैं और प्रचंड की अनुमति प्राप्त होने का भरोसा भी दिलाते हैं. हालांकि महारा ने इस सीडी को फर्ज़ी क़रार दिया, लेकिन इतना तो स्पष्ट है कि इससे माओवादियों की सिद्धांतविहीनता और सत्तालोलुपता सतह पर आ जाती है.

राजशाही के ख़िला़फ लोगों की भावनाओं को उभार कर देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के लिए उन्हें गोलबंद करने में सफल रहे माओवादियों का राजनीतिक व्यवहार नेपाल में लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज़ से अच्छा संकेत नहीं है. राजशाही को समाप्त हुए ज़्यादा दिन नहीं हुए, लेकिन तमाम राजनीतिक दल जनता की नज़रों में ख़ारिज हो चुके हैं. माओवादियों के दबाव में माधव कुमार नेपाल की सरकार को सत्ता से बेदख़ल होना पड़ा, लेकिन तीन महीने बीत जाने के बाद नई सरकार का ब्लूप्रिंट तक तैयार नहीं हो पाया है.

नेपाल की मौजूदा राजनीतिक हालत ऐसी है कि सत्ता की चाबी चार मधेशी पार्टियों के गठबंधन के पास है. 82 सदस्यों के साथ यह गठबंधन दोनों में से किसी भी उम्मीदवार को प्रधानमंत्री बना सकता है, लेकिन मतदान की प्रक्रिया से अब तक दूर रहा है. गठबंधन के प्रतिनिधियों की माओवादियों के साथ कई दौर की बातचीत हो चुकी है और माओवादी उनकी अधिकांश मांगों को मानने के लिए तैयार भी हैं, लेकिन चारों दलों के बीच एकमत नहीं होने के कारण नतीजा सिफर ही रहा है. सीधी उंगली से घी निकलते न देख माओवादी पैसे के दम पर उन्हें ख़रीदने की कोशिश कर रहे हैं. सीडी में महारा को यह कहते हुए दिखाया गया है कि उन्हें 50 सदस्यों के समर्थन की ज़रूरत है और इसके लिए 50 करोड़ नेपाली रुपये की दरकार है. महारा इसके लिए हांगकांग में गोपनीय मीटिंग के लिए भी हामी भरते हैं. माओवादियों की ऐसी हरकतें ज़्यादा अखरती हैं, क्योंकि राजनीति में नैतिकता और मूल्यों की दुहाई देने वाली पार्टी ही यदि सत्ता के लालच में इस कदर गिर जाए तो देश में लोकतंत्र के भविष्य पर सवालिया निशान लग जाते हैं. माओवादी देश के अंदरूनी मामलों में विदेशी दखलंदाज़ी से भी लगातार इंकार करते रहे हैं और भारत के प्रति लचीला रवैया अपनाने के चलते नेपाली कांग्रेस पार्टी को लगातार निशाना बनाते रहे हैं, लेकिन सीडी प्रकरण से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि सत्ता के लिए उन्हें चीन से मदद मांगने में भी कोई गुरेज नहीं है.

राजशाही के ख़िला़फ लोगों की भावनाओं को उभार कर देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के लिए उन्हें गोलबंद करने में सफल रहे माओवादियों का राजनीतिक व्यवहार नेपाल में लोकतंत्र के भविष्य के लिहाज़ से अच्छा संकेत नहीं है. राजशाही को समाप्त हुए ज़्यादा दिन नहीं हुए, लेकिन तमाम राजनीतिक दल जनता की नज़रों में ख़ारिज हो चुके हैं. माओवादियों के दबाव में माधव कुमार नेपाल की सरकार को सत्ता से बेदख़ल होना पड़ा, लेकिन तीन महीने बीत जाने के बाद नई सरकार का ब्लूप्रिंट तक तैयार नहीं हो पाया है. माओवादियों के अड़ियल रवैये के चलते पूरा देश आज दो धड़ों में बंट चुका है. अपनी जायज़-नाजायज़ मांगों को मनवाने के लिए देश की राजनीतिक व्यवस्था को गिरवी रखने वाले माओवादी राजनीतिक पार्टियों के बीच ही नहीं, बल्कि जनता के बीच भी अपनी विश्वसनीयता खोते जा रहे हैं. आज नेपाल एक दोराहे पर खड़ा है. एक ग़लत क़दम उसे राजनीतिक आत्महत्या की कगार पर पहुंचा सकता है. डर इस बात का है कि माओवादियों की सिद्धांतविहीनता और सत्तालोलुपता कहीं इस अंदेशे को सच्चाई में तब्दील न कर दे.

राजशाही पर फिर टिकी निगाहें
प्रचंड को प्रधानमंत्री बनाने के लिए चीन से आर्थिक मदद की मांग करने वाले माओवादियों की सिद्धांतविहीनता चौंकाती ज़रूर है, लेकिन राजनीतिक भ्रष्टाचार के दोषी अकेले माओवादी ही नहीं हैं. मीडिया में आ रही ख़बरों के अनुसार, देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी नेपाली कांग्रेस भी उद्योगपतियों और आम जनता से धन उगाही में लिप्त है. बांके में पार्टी की जनरल एसेंबली की बैठक के लिए स्थानीय व्यवसायियों, सरकारी अधिकारियों, स्कूल-कॉलेजों और यहां तक कि आम लोगों से भी धन की मांग की जा रही है. सच्चाई यह है कि नेपाल की हर राजनीतिक पार्टी आज स्वार्थसिद्धि में लगी है. क़रीब दो साल पहले जब राजशाही को समाप्त कर देश में लोकतंत्र की नींव डाली गई थी तो पूरा राष्ट्र एक नए जोश और उम्मीद से सराबोर था, लेकिन आज वह सारा जोश ग़ायब है और सारी उम्मीदें काफूर हो चुकी हैं. माओवादी हर हाल में सत्ता पर क़ाबिज होना चाहते हैं और नेपाली कांग्रेस उन्हें हर क़ीमत पर सत्ता से दूर रखने के लिए कटिबद्ध है, जबकि मधेशी पार्टियां अपनी स्वार्थसिद्धि में लगी हैं. राजनीति की इन कलाबाज़ियों के बीच आम जनता के लिए सोचने वाला कोई नहीं है. जनता त्राहिमाम कर रही है, विकास कार्य रुके पड़े हैं, देश के अधिकांश हिस्सों में क़ानून व्यवस्था नाम की कोई चीज नहीं रह गई है. जनता निराश है और यह निराशा राजशाही की वापसी की पृष्ठभूमि तैयार करती दिख रही है. आम जनता उन पुराने दिनों को याद करने लगी है, जब राजशाही के दौर में नेपाल को एक अमन पसंद राष्ट्र के रूप में गिना जाता था. वह उसी दौर में फिर से लौटने को इच्छुक दिखाई देने लगी है. तमाम राजनीतिक पार्टियों की सत्तालोलुपता और स्वार्थपरता को देखते हुए उसे यह एहसास होने लगा है कि राजशाही के हाथों में ही उसका भविष्य सुरक्षित रह सकता है.

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