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भेड़ाघाट

Monday, October 4, 2010

प्रधानमंत्री जी, अहम से बचिए

क्‍या यह सच है? उनके प्रशंसक पहले भी ऐसा कहते रहे हैं, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि ख़ुद मनमोहन सिंह भी स्वयं को भारत का सबसे अच्छा प्रधानमंत्री मानने लगे हैं? ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि प्रधानमंत्री आत्मप्रशंसा में विश्वास नहीं करते. लेकिन यदि यह सच है तो फिर उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि उनका मंत्रिमंडल नेहरू और इंदिरा के मंत्रिमंडलों से बेहतर है. मंत्रियों के बीच तालमेल की चर्चा करते हुए उन्होंने याद दिलाया कि नेहरू और पटेल अपने विरोध को पत्रों के माध्यम से हवा देते थे, जबकि इंदिरा गांधी को अपने प्रधानमंत्रित्व काल में तथाकथित युवा तुर्कों की टोली से निपटना पड़ता था. मनमोहन सिंह का यह बयान इतिहास के तराजू पर खरा नहीं उतरता. नेहरू और पटेल एक-दूसरे को पत्र तब लिखते थे, जब किसी नीतिगत मुद्दे पर उन्हें अपना पक्ष रखने की ज़रूरत महसूस होती थी. सच्चाई यह है कि उनका यह पत्राचार एक उभरते हुए राष्ट्र में प्रशासन और सरकारी कामकाज की आधारशिला तैयार कर रहा था. मौजूदा दौर में राजनीति के मठाधीश स्वार्थसिद्धि के लिए जिस तरह एक-दूसरे की टांग खिंचाई करने में लगे रहते हैं, नेहरू और पटेल का तरीक़ा उससे कहीं अच्छा था. अपने विचार और कामों से भारतीय राष्ट्र के अभ्युदय में अहम भूमिका निभाने वाले इन दोनों राजनेताओं की मौजूदा दौर के नेताओं से तुलना करना भी बेमानी है. नेहरू द्वारा साल 1947 में पटेल को लिखे एक पत्र का ही उदाहरण लें. नेहरू ने पटेल को आगाह करते हुए इसमें लिखा था कि पाकिस्तान बलपूर्वक कश्मीर पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश कर सकता है और ऐसी हालत में शेख अब्दुल्ला, जो उस समय महाराज हरि सिंह की जेल में कैद थे, भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण साबित हो सकते हैं. इस पत्र में दोनों नेताओं के बीच राजनीतिक कटुता की कोई झलक नहीं मिलती, बल्कि उनकी दूरदर्शिता झलकती है. नेहरू के इस पत्र में कितनी सच्चाई थी, इसे बताने की अब शायद कोई ज़रूरत नहीं है. स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाने वाली यह पीढ़ी पढ़ी-लिखी थी और पत्रों की अहमियत को समझती थी. नेहरू राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी लगातार चिट्ठियां लिखते थे, लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि वह उनका विरोध करते थे. नेहरू चिट्ठियों का इस्तेमाल शासन के एक हथियार के रूप में करते थे. फिर पटेल की 15 दिसंबर, 1950 को ही मृत्यु हो गई और 1964 में अपनी मौत से पहले तक नेहरू ने कई बार अपने मंत्रिमंडल का गठन किया, जिसमें पटेल शरीक नहीं थे.

इंदिरा गांधी को अपने शासनकाल के दौरान युवा तुर्कों के एक तथाकथित समूह से दो-चार ज़रूर होना पड़ा था, लेकिन युवा तुर्कों की इस टोली के सबसे बड़े खली़फा माने जाने वाले चंद्रशेखर इंदिरा की कैबिनेट का कभी हिस्सा नहीं रहे. राजनीति में मतैक्य के लिए दो चीजों का होना बेहद आवश्यक है, नीतिगत मुद्दों पर सहमति और नेता का व्यक्तित्व.

इंदिरा गांधी को अपने शासनकाल के दौरान युवा तुर्कों के एक तथाकथित समूह से दो-चार ज़रूर होना पड़ा था, लेकिन युवा तुर्कों की इस टोली के सबसे बड़े खलीफा माने जाने वाले चंद्रशेखर इंदिरा की कैबिनेट का कभी हिस्सा नहीं रहे. राजनीति में मतैक्य के लिए दो चीजों का होना बेहद आवश्यक है, नीतिगत मुद्दों पर सहमति और नेता का व्यक्तित्व. आधुनिक राजनीति में नीतियां, चाहे वे ग़लत हों या सही, अक्सर वोट बैंक या भ्रष्टाचार को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं. नेहरू और इंदिरा करिश्माई नेता थे. मनमोहन सिंह में चाहे लाख गुण हों, लेकिन उन्हें करिश्माई नहीं कहा जा सकता. एक नेता के रूप में देखें तो वह इतने कमज़ोर थे कि अपनी कैबिनेट का चुनाव करने में भी सक्षम नहीं थे. उनके लिए यह काम सोनिया गांधी ने किया. ग़ौरतलब है कि मनमोहन ने अपनी कैबिनेट की तुलना नरसिम्हाराव के मंत्रिमंडल से नहीं की, जिसमें वह वित्तमंत्री थे. इसके बजाय उन्होंने ख़ुद को कांग्रेस पार्टी के दो सबसे बड़े और महानतम व्यक्तित्वों के मुक़ाबले खड़ा कर दिया. हमारी राष्ट्रीय राजनीति में नेहरू विरोध का अपना एक अलग इतिहास रहा है. जैसा कि शेक्सपीयर ने कहा था, लोगों की अच्छाइयां उनकी मौत के साथ ही दफन हो जाती हैं, लेकिन बुराइयां राष्ट्रीय अवचेतन में लगातार बनी रहती हैं, हम उन्हें भुला नहीं पाते. नेहरू को अब दो ही चीजों के लिए याद किया जाता है, कश्मीर के मुद्दे को संयुक्त राष्ट्र के पास भेजने और 1962 में चीन के हाथों मिली करारी हार के लिए. कांग्रेस पार्टी का कोई भी नेता नेहरू का विरोधी नहीं है, लेकिन पार्टी का एक मज़बूत धड़ा यह मानता रहा है कि नेहरू दो क्षेत्रों में बुरी तरह असफल रहे, अर्थव्यवस्था और विदेश नीति. इस धड़े का यह भी मानना है कि वामपंथ के प्रति नेहरू के झुकाव की भारत को बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ी और उनके उत्तराधिकारियों ने भी इसमें सुधार के लिए कोई कोशिश नहीं की.

नरसिम्हाराव को ऐसा पहला प्रधानमंत्री माना जा सकता है, जिनका नेहरू की नीतियों के प्रति खास अनुराग नहीं था. पिछले दो दशकों में राव और मनमोहन ने समय-समय पर दक्षिणपंथी पार्टियों के समर्थन से नेहरू-इंदिरा की नीतियों को काफी बदल दिया है. हालांकि राष्ट्रीय राजनीति में उनके योगदान की चर्चा करना वह नहीं भूलते, लेकिन उन्हें यह भी लगता है कि आर्थिक सुधारों की शुरुआत और अमेरिका के साथ रणनीतिक साझेदारी को बढ़ावा देकर उन्होंने देश की बेहतर सेवा की है. इसमें भी कोई संदेह नहीं कि नई अर्थव्यवस्था के पक्षधर लोग राव और मनमोहन की प्रशंसा में कसीदे पढ़ते हैं, लेकिन यह भी सच है कि राव ने अपनी नीतियों से सामाजिक समरसता की उस भावना को तार-तार कर दिया, जिसे विभाजन के बाद नेहरू ने बड़ी लगन से विकसित किया था. मनमोहन राव की तरह क्रांतिकारी सामाजिक परिवर्तनों के पक्षधर नहीं हैं, लेकिन उन्हें शायद यह लगता है कि इतिहास राव को नेहरू से ज़्यादा अहमियत देगा. अवचेतन मन अक्सर खामोशी की आवाज़ होता है. मनमोहन सिंह ज़्यादा बोलते नहीं. विचार, मुद्दे, गर्व और शर्म की भावनाएं दिमाग़ के एक कोने में कैद होती हैं. ये चीजें इतनी आसानी से बाहर नहीं निकलतीं, क्योंकि इससे भावनाएं भड़क सकती हैं और आगे का रास्ता मुश्किलों भरा हो सकता है. लेकिन दिल में छुपी ये भावनाएं गाहे-बगाहे सामने आ ही जाती हैं. नेहरू, पटेल और इंदिरा की चर्चा करना किसी लिहाज़ से प्रशंसा के काबिल नहीं. आज तक किसी भी प्रधानमंत्री ने नींद में भी अपने मंत्रिमंडल को नेहरू के मंत्रिमंडल से बेहतर नहीं बताया, लेकिन इसमें विडंबना जैसी कोई बात नहीं, क्योंकि कांग्रेस पार्टी का स्वरूप और चरित्र ही पूरी तरह बदल चुका है. वह अपने परंपरागत समाजवादी चोले को काफी पहले ही उतार चुकी है और चमक-दमक भरी नई पार्टी में तब्दील हो चुकी है. मनमोहन सिंह शायद अपनी पार्टी को ज़्यादा अच्छी तरह से जानते हैं, उससे कहीं ज़्यादा, जितना कि पार्टी उन्हें जानती है.

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