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भेड़ाघाट

Thursday, October 28, 2010

जर और जमीन की बलि चढ़ती अबलाएं

छह सितंबर, 2010. पश्चिम बंगाल के उत्तर दिनाजपुर ज़िले का तिलना गांव. एक आदिवासी को गांव वाले पीट-पीटकर मौत के घाट उतार देते हैं. मृतक हेमब्रम सोम का कसूर यह था कि वह एक ऐसी महिला का पति है, जिसे गांव के लोग डायन मानते हैं. हेमब्रम की पत्नी है मालो हांसदा. गांव के एक तांत्रिक के मुताबिक़ वह डायन है. नतीजतन, गांव के लोग इस परिवार के लिए सज़ा तय करते हैं. पति के लिए सज़ा-ए-मौत और मालो के लिए गांव छोड़ने की सज़ा. लेकिन यह कहानी अभी अधूरी है. इस पूरे प्रकरण का असली सच कुछ और है. दरअसल, आदिवासी बहुल तिलना गांव में तीन लोगों की अस्वाभाविक मौत हो जाने से गांव का एक दबंग परिवार ग्रामीणों को लेकर कुशमुड़ी के एक तांत्रिक के पास जाता है और उसके कहने पर लोग मालो को डायन मान लेते हैं. कुछ ही दिनों बाद उस दबंग के पुत्र की बीमारी से मौत हो जाती है और दोष इस परिवार के मत्थे म़ढ दिया जाता है. पंचायत में कथित डायन दंपत्ति पर 5,934 रुपये जुर्माने और एक बीघा जमीन दबंग के नाम लिखने का निर्णय लिया जाता है. जुर्माने की राशि तो सोम अदा कर देता है, पर जमीन देने से मना कर देता है. परिणामस्वरूप उसके पूरे परिवार की जमकर पिटाई की जाती है. जमीन के कागजात पर जबरिया दस्तखत करा लिए जाते हैं और परिवार को गांव छोड़ने का फरमान जारी कर दिया जाता है. पिटाई के दौरान सोम की मौत हो जाती है और उसकी तथाकथित डायन पत्नी गंभीर रूप से घायल. पुलिस ने भी महज़ खानापूरी की और इसे अंधविश्वास का मामला बताते हुए उसने प्राथमिकी दर्ज कर ली.

विभिन्न राज्यों में आएदिन प्रकाश में आने वाले डायन हत्या के मामले देश के विकास के गुलाबी आंकड़ों की पोल खोल रहे हैं. ऐसी घटनाओं के पीछे एक सोची-समझी साज़िश है, जिसके तहत अंधविश्वास की आड़ लेकर नेता, प्रधान, दबंग एवं प्रशासन की चौकड़ी दलित और ग़रीब तबके का शोषण कर रही है.

कुछ दिनों पहले एक ग़ैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र द्वारा किए गए अध्ययन में बताया गया है कि भारत में हर साल 150-200 महिलाओं को चुड़ैल या डायन होने के आरोप में अपनी जान गंवानी पड़ती है.इस मामले में सबसे ज़्यादा कुख्यात है खनिजों के मामले में पूरे देश में टॉप पर रहने वाला उत्तर भारतीय राज्य झारखंड. यहां प्रति वर्ष 50-60 महिलाओं को डायन कहकर मार दिया जाता है. दूसरे नंबर पर पर आंध्र प्रदेश है, जहां क़रीब 30 महिलाएं डायन के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती हैं. इसके बाद हरियाणा और उड़ीसा का नंबर आता है. इन दोनों राज्यों में भी हर साल क्रमश: 25-30 और 24-28 महिलाओं की हत्या कर दी जाती है. इस तरह पिछले 15 वर्षों के दौरान देश में डायन के नाम पर लगभग 2500 महिलाओं की हत्या की जा चुकी है. ये वे आंकड़े हैं, जो किसी तरह प्रथम सूचना रिपोर्ट में दर्ज हो गए. जबकि सर्वविदित है कि सुदूर अंचलों में प्राथमिकी दर्ज कराना किसी आम आदमी के लिए कितना मुश्किल और जोखिम भरा काम है. हक़ीक़त में इन आंकड़ों का स्वरूप और वृहद हो सकता है.

महिलाओं की हत्या के जितने भी मामले दर्ज होते हैं, उनमें अधिकांश की वजह उनका डायन होना बताया जाता है, जबकि कहानी कुछ और होती है. इन हत्याओं के पीछे कई तरह के षड्‌यंत्र होते हैं. कोई किसी की ज़मीन-संपत्ति हड़पने के लिए डायन का खेल खेलता है तो कोई अपना बाहुबल दिखाने के लिए. कोई वोट बैंक की खातिर तो कोई बदला लेने के लिए. इस खेल में एक दबंग परिवार अंधविश्वास का सहारा लेकर पूरे तबके और क्षेत्र को अपने साथ मिला लेता है. जैसा तिलना गांव में सोम के मामले में हुआ. अपने बच्चे की मौत के एवज में दबंग सोम की ज़मीन हड़पना चाहता था. अगर किसी बच्चे की मौत हो जाती है तो क्या उसकी भरपाई आदिवासी की ज़मीन करेगी? व्यक्तिगत फायदे के लिए किसी को भी डायन घोषित कर दिया जाता है. इस बात की गवाही रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटिलमेंट केंद्र (आरएलइके) के मुखिया अवधेश कौशल भी देते हैं. उनके मुताबिक़, ज़्यादातर पीड़ित अकेली रहने वाली विधवा महिलाएं हैं, जो ज़मीन या संपत्ति के लिए निशाना बनाई जाती हैं. विधवा या तलाकशुदा महिलाएं जब गांव के दबंगों की कामेच्छा का विरोध करती हैं तो अक्सर उन्हें डायन घोषित कर दिया जाता है. उन्हें जलील करने के लिए निर्वस्त्र करके गांव में घुमाने, मैला खिलाने, बाल नोंचने और नाखून उखाड़ देने जैसे अमानवीय कृत्यों को अंजाम दिया जाता है. ज़्यादातर मामलों में महिलाएं अपमानित होने के बाद ख़ुद ही आत्महत्या कर लेती हैं.

ग़ौर करने वाली बात यह है कि डायन सदैव दलित या शोषित समुदाय की ही महिला होती है. ऊंचे तबके की महिलाओं के डायन होने की बात शायद ही सुनने को मिलती हो. डायन होने-मानने का अंधविश्वास आदिवासियों में ज़रूर रहा है. वजह, आधुनिक चिकित्सा व्यवस्था और जंगल के अभाव में वे अपना इलाज समुचित ढंग से नहीं कर पाते, पर इस तबके में कभी संपत्ति और दबंगई का मामला नहीं देखा गया. लेकिन तिलना गांव जैसे मामले शिक्षित समाज में व्याप्त लालच की वीभत्स कहानी बयां करते हैं. हम यह नहीं कहते कि आदिवासियों में इस तरह की घटनाएं उचित हैं. आदिवासियों को भी यह बताने की ज़रूरत है कि डायनों ने उन्हें नुक़सान नहीं पहुंचाया. नुक़सान तो उन्होंने पहुंचाया, जिन्होंने उन्हें न्यूनतम नागरिक सुविधाओं-शिक्षा, सड़क, बिजली और मानवाधिकारों से वंचित रखा. शिक्षित तबके को कुछ समझाने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि आप सोए हुए लोगों को तो जगा सकते हैं, पर उन्हें नहीं, जो सोने का ढोंग कर रहे हैं. इन मामलों की तह तक जाने और आपसी रंजिश की राजनीति को समझने की ज़रूरत है. सरकार को चाहिए कि वह ऐसी वारदातों की रोकथाम के लिए केंद्रीय स्तर पर कोई सख्त क़ानून बनाए. झारखंड, बिहार और छत्तीसगढ़ में इस संदर्भ में क़ानून बनाया गया है, लेकिन उसका पालन शायद ही कभी हुआ हो. अगर इस मामले में किसी को दोषी करार भी दिया जाए तो सबसे बड़ी सज़ा मात्र तीन महीने की क़ैद है. ऑनर किलिंग के नाम पर देश को सिर पर उठा लेने वाला मीडिया, राजनीतिज्ञ, समाजसेवी और गैर सरकारी संगठन भी इस मुद्दे कोे कोई महत्व नहीं दे रहे हैं. ज़रूरत इस बात की है कि अंधविश्वास को परे हटाकर डायन किलिंग की असलियत समाज के सामने लाई जाए और बताया जाए कि यह स़िर्फ असरदार लोगों का गंदा खेल है, डायन का नाम तो बस एक बहाना है.

संपत्ति हड़पने के लिए बनाया जाता है डायन.
हर साल 200 महिलाओं को जान गंवानी पड़ती है
उ़डीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और हरियाणा भी आगे.
झारखंड सबसे ज़्यादा कुख्यात और पहले नंबर पर.

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