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भेड़ाघाट

Wednesday, November 10, 2010

मुख्यमंत्री पहले अवर्ण नहीं तो अब सवर्ण नहीं

बिहार के एक बड़े नेता ने कुछ दिन पहले एक चुनावी सभा में कहा कि अब इस राज्य में कोई सवर्ण नेता मुख्य मंत्री बनने के बारे में सोच भी नहीं सकता। पता नहीं इस नेता की भविष्यवाणी अंततः सही होगी या नहीं,,पर ऐसी भविष्यवाणी अकारण नहीं है।आजादी के बाद के कुछ वर्षों तक बिहार की राजनीति ऐसी थी।

जब पिछडे समुदाय से आने वाले किसी नेता को मुख्य मंत्री बनने नहीं दिया जाता था। या यूं कहें कि बने ही नहीं।हालांकि उस समय इस बात की कोई नेता घोषणा नहीं करता था।अब स्थिति बदल गई है।कभी गाड़ी पर नाव तो नाव पर गाड़ी।

तब नई-नई आजादी हुई थी। आजादी की लड़ाई में अगड़े-पिछड़े सब शामिल थे। दलितों व अल्पंसंख्यकों में से भी जो नेता व कार्यकर्त्ता आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे, उनमें से भी कई नेता मुख्य मंत्री बनने की योग्यता-क्षमता रखते थे। पर आजादी के बाद के प्रारंभिक वर्षों में मुख्य मंत्री का पद तो अघोषित रूप से सवर्णों के लिए ही रिजर्व रहा। कांग्रेस की ही यह पसंद थी। सत्ता पर जब तक कांग्रेस का एकाधिकार रहा,तब तक सवर्ण ही देश के प्रधान मंत्री और बिहार के मुख्य मंत्री भी होते रहे। राज्यों के मामले में यह सब 1967 तक लगातार चला।

बाद के वर्षों में मिली जुली सरकारों का दौर चला। तब भी जब-जब कांग्रेस को बिहार विधान सभा में पूर्ण बहुमत मिला,तब-तब सवर्ण ही मुख्य मंत्री बनाये गये। हां,जब पूर्ण बहुमत नहीं मिला तो ही कांग्रेसी नेतागण किसी गैर सवर्ण के नाम पर राजी हुए। यहां तक कि बिहार की पहली गैर कांग्रेसी सरकार के मुख्य मंत्री भी एक सवर्ण नेता ही थे। सन 1967 में पहली गैर कांग्रेसी सरकार बनी थी जिसके मुख्य मंत्री थे महामाया प्रसाद सिंहा। वे कायस्थ थे।

सन 1969 के बाद तो कांग्रेस पर इंदिरा गांधी का एकाधिकार कायम हो गया। और, सन 1971 के लोक सभा चुनाव के बाद तो दिल्ली से ही कांग्रेस अपने मुख्य मंत्री मनोनीत करने लगी। पर 1969 तक कांग्रेस संसदीय दल व विधायक दल के नेता पद का बजाप्ता लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव होता था। पर सन 1971 में हुए लोक सभा चुनाव में जब इंदिरा गांधी को पूर्ण बहुमत मिल गया,तब से कांग्रेस में एकाधिकारवाद पूरी तरह लागू हो गया और अधिकतर काम मनोनयन से ही होने लगे। सन 1971 के बाद तो एक साथ सात राज्यों में एक खास सवर्ण जाति के मुख्य मंत्री मनोनीत कर दिए गये जिनमें बिहार भी शामिल था। सन 1972 में बिहार विधान सभा के हुए आम चुनाव के बाद केदार पांडेय मुख्य मंत्री बने थे। यानी न तो तब कांग्रेस को पिछड़ों का ध्यान आया जब विधायक दल के नेता पद का चुनाव होता था। और न तब जब दिल्ली से मुख्य मंत्री मनानेनीत होने लगे। हां,सवर्णों का ध्यान कुछ अधिक जरूर रहा। इस तरह स्थानीय जातीय समूहों की इच्छाओं को नजरअंदाज किया गया जिसका खामियाजा कांग्रेस को बाद के वर्षो में भुगतना पड़ा।

बिहार में तो अब पिछड़ों के बीच से अत्यंत विवादास्पद तत्वों को भी कांग्रेस में शामिल करने की उसकी मजबूरी हो गई है। आजादी के तत्काल बाद वीरचंद पटेल जैसे साफ सुथरे चरित्र के पिछड़े नेता उपलब्ध थे,पर उन्हें साठ के दशक में सवर्ण जातियों के कांग्रेसी महंतों ने कांग्रेस विधायक दल के नेता पद के चुनाव में हरवा दिया। तब के.बी.सहाय जीते जो एक विवादस्पद नेता थे । वे ऐसे विवादास्पद थे कि उन्हें मंत्री पद से हटाने के लिए 1947 में महात्मा गांधी तक ने भी तत्कालीन मुख्य मंत्री से कहा था। पर गांधी जी की बात नहीं मानी गई । कांग्रेस के हाथों से सन 1967 में बिहार की सत्ता पहली बार जब निकली तो उस समय के.बी.सहाय ही मुख्य मंत्री थे। उनके खिलाफ आम जनता सड़कों पर नारा लगाती थी।

यानी, कांग्रेस को बड़े पदों के लिए घटिया सवर्ण नेता भी मंजूर थे,पर बढ़िया पिछड़ा नहीं। इसलिए जब समय पलटा तो पिछड़ों के एक हिस्से ने अपने बीच के घटिया नेता को भी समय- समय पर स्वीकार किया।

याद रहे कि बिहार में सवर्णों की आबादी करीब 15 प्रतिशत और पिछड़ों की आबादी करीब 52 प्रतिशत मानी जाती है। हालांकि जातिवार आबादी के बारे में भिन्न-भिन्न आंकड़े समय- समय पर आते रहते हैं। पर अभी मोटा- मोटी उपर्युक्त आंकड़े को मान लिया जाएं। 52 बनाम 15 के आंकड़े को देखने से यह लगता है कि एक दिन यह होना ही था कि सवर्ण मुख्य मंत्री पद के लिए तरसेंगे।

ऐसा नहीं है कि सन 1967 तक बिहार में जो भी मुख्य मंत्री बने,वे सिर्फ किसी खास जाति के होने के कारण ही मुख्य मंत्री बने थे।पर आजादी के तत्काल बाद की दिल्ली और पटना सरकारों ने इस बात की जरूरत ही नहीं समझी कि पिछड़े समुदाय से भी स्वच्छ प्रतिभाएं निकाल -निकाल कर राजनीति सहित हर क्षेत्र में उपर लाया जाये। प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू और बिहार के प्रथम मुख्य मंत्री डा.श्रीकष्ण सिन्हा भी पिछड़ों के लिए किसी भी तरह के आरक्षण के खिलाफ थे। जबकि आजादी के तत्काल बाद के काका कालेलकर आयोग ने ऐसी सिफारिश की थी।

भारत के संविधान के अनुच्छेद-340 में यह कहा गया है कि राष्ट्रपति शैक्षणिक और सामाजिक रूप से पिछड़ों की दशाओं के अध्ययन और उनमें सुधार के लिए उपाय सुझाने के लिए आयोग गठित करेंगे। इस आलोक में काका कालेलकर की अध्यक्षता में आयोग बना। आयोग ने 31 मार्च 1955 को अपनी सिफारिश केंद्र सरकार को दे दी।आयोग ने 2399 पिछड़ी जातियों की पहचान करके उनकी दशा सुधारने के लिए आरक्षण देने और उन्हें विशेष उपाय करने के लिए भारत सरकार से कहा।

पर तत्कालीन प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू इस तरह के आरक्षण के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने 20 जून 1961 को मुख्य मंत्रियों को लिखा भी था कि ‘आरक्षण कभी इस जाति को ,कभी उस जाति को देने की अपनी पुरानी आदत से बचना होगा।मैं किसी प्रकार के आरक्षण के खिलाफ हूं।’

इस तरह की मनोवति वाले नेताओं ने आजादी के बाद लंबे समय तक इस देश पर शासन किया। शासन में सामाजिक संतुलन का तनिक भी ध्यान नहीं रखा गया। न राजनीति में न ही प्रशासन में। सन 1952 में बिहार में जो बारह सदस्यीय मंत्रिमंडल बना, उसमें नौ मंत्री सवर्ण ही थे।

करीब करीब यही हाल केंद्र सरकार का भी था। इसका असर प्रशासनिक तथा अन्य पदों पर भी पड़ा। सन 1982 में कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी सूत्रों के हवाले से एक आंकड़ा पेश किया था। उसके अनुसार सचिव,अतिरिक्त सचिव और उनके समक्ष के कुल पांच सौ पदों में से 320 पदों पर सिर्फ एक जाति के अफसर तैनात थे।

इस पष्ठभूमि में जब वी.पी.सिंह की सरकार ने 1990 में केंद्रीय सेवाओं में आरक्षण का प्रावधान किया तो सवर्णं जातियों के अधिकतर नेताओं व बुद्धिजीवियों तथा आम लोगों ने आरक्षण का तीखा विरोध शुरू कर दिया।

उन दिनों लालू प्रसाद बिहार के मुख्य मंत्री थे। उन्हें खुद को पिछड़ों में मजबूत बना लेने का एक सुनहरा अवसर मिल गया।

बिहार में आरक्षण विरोधी आंदोलन अश्लीलता की हद तक उत्तेजक था। लालू प्रसाद ने आरक्षण विरोधियों का उनसे भी अधिक अश्लील भाषा में जवाब दिया। लालू के जवाबी हमले से भी समाज में तनाव बढ़ा। दो- तरफा गोलबंदी हुई। इससे लालू प्रसाद पिछड़ों के एकछत्र नेता बन गये। तब बिहार के आम पिछड़ो के दिलो-दिमाग में यह बात बैठ गई कि अधिकतर सवर्ण नेता गण सरकारी नौकरियों में हमारे लिए आरक्षण के सख्त खिलाफ हैं।इसलिए हमें किसी न किसी पिछड़े को ही मुख्य मंत्री बनाने की कोशिश करनी चाहिए। इधर सवर्णों में भी ऐसे अनेक नेता सामने आ रहे हैं जो यह अब समझने लगे हैं कि बिहार के 15 प्रतिशत सवर्णों को 52 प्रतिशत पिछड़ों में से ही निकले किसी न किसी नेता के पीछे लग जाना चाहिए। काश ! यही काम पहले हो गया होता।

इसलिए 1990 के मंडल आरक्षण विवाद के बाद बिहार में जो भी मुख्य मंत्री बने वे पिछड़े समुदाय से ही आते हैं।पहले लालू प्रसाद ,उसके बाद उनकी पत्नी राबड़ी देवी और अब फिर नीतीश कुमार। बिहार की राजनीति की गहरी समझ रखने वाले लोग बताते हैं कि अभी इसी तरह चलेगा। हां,लालू प्रसाद की तरह सिर्फ भावना जगाने वाले नेता नहीं चलेंगे। पर पिछड़ों में ही नीतीश कुमार जैसे नेता चलेंगे जो काम तो पिछड़ों का भी करते हैं,पर सवर्णों को किसी तरह जानबूझ कर चोट नहीं पहुंचाते।

इससे पहले सन 1977 में भी बिहार के मुख्य मंत्री कर्पूरी ठाकुर बने थे जो अति पिछड़े समुदाय यानी हज्जाम जाति से आते थे।पर वे किसी खास जाति का होने के कारण मुख्य मंत्री नहीं बने । वे स्वतंत्रता सेनानी रह चुके थे और सन 1952 से लगातार विधायक चुने जाते रहे थें। वे सन 1967 में उप मुख्य मंत्री और 1970 में एक विशेष परिस्थिति में मिलीजुली गैर कांग्रेसी सरकार के मुख्य मंत्री भी बने थे।वे समाजवादी आंदोलन के शीर्ष नेताओं में से थे।

सन 1968 में पांच दिनों के लिए सतीश कुमार सिंह भी मुख्य मंत्री बने थें।वे पिछड़े समुदाय यानी कोइरी जाति से आते थे।उनके ठीक बाद बी.पी.मंडल मुख्य मंत्री बने। पर तब तक यह भावना नहीं बनी थी कि पिछड़े ही मुख्य मंत्री बन सकते हैं।इस भावना की शुरूआत 1978 में हुई जब कर्पूरी ठाकुर की सरकार ने राज्य सरकार की नौकरियों में पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया।उस आरक्षण का भी सवर्णों के बड़े हिस्से ने विरोध किया।

उस समय से ही पिछडों में यह भावना बनी कि उनके समुदाय से ही जब मुख्य मंत्री बनेगा तभी आरक्षण के नियमों को भी कड़ाई से लागू किया जा सकेगा।

पर मंडल आरक्षण के बाद तो यह तय हो गया कि फिलहाल किसी सवर्ण नेता के बिहार में मुख्य मंत्री बनने की संभावना बहुत कम है।सुदूर भविष्य की बात नहीं कही जा रही है। आज बिहार की राजनीति मुख्यतः दो खेमों में बंटी हुई है।एक के नेता नीतीश कुमार हैं जो अभी मुख्य मंत्री है। वे कुर्मी समुदाय से आते हैं।यह एक पढ़ी-लिखी व अपेक्षाकत संपन्न पिछड़ी जाति है। दूसरे नेता लालू प्रसाद को उनके राजद-लोजपा गठबंधन ने मुख्य मंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है।

इन दोनों नेताओं के इर्दगिर्द इस राज्य के सवर्ण भी बड़ी संख्या में एकत्र हैं। हालांकि सवर्ण का स्वाभाविक झुकाव कांग्रेस ही है,पर वह इन दिनों बिहार में नख दंत विहीन हो चुकी है।

कभी देश के साथ ही बिहार पर भी एकछत्र शासन करने वाली कांग्रेस ने आजादी के बाद से ही यह रणनीति अपनाई होती कि यदि योग्य उम्मीदवार पिछड़ों में भी उपलब्ध हैं तो उन्हें मुख्य मंत्री बनाया जाये तो सत्ता न तो कांग्रेस के हाथों से निकलती और न ही सवर्णों के हाथों से।

पर किसी चीज की हद होती है।कांग्रेस ने बिहार में 15 बार सवर्णों को ही मुख्य मंत्री बनवाया। जबकि उसे आजादी के बाद से सन 1989 तक 18 बार अपने दल के बहुमत के आधार पर अपने दल का मुख्य मंत्री बनाने का मौका मिला। मिलीजुली सरकारों के दौर में कांग्रेस को इस मामले में कुछ अपवाद जरूर करने पड़े थे।

दूसरी ओर, जब -जब पूर्ण बहुमत वाली गैर कांग्रेसी सरकारें बिहार में बनीं ,तब-तब पिछड़े ही मुख्य मंत्री बने। हांलाकि अब गैर कांग्रेसी पिछड़ों के भी दो खेमे बन गये हैं।एक नीतीश के और दूसरे लालू प्रसाद के ।

यानी बिहार की राजनीति में एक अति ने दूसरी अति को जन्म दे दिया है। अब पता नहीं बिहार में कब ऐसा अवसर आएगा जब मुख्य मंत्री पद का चुनाव करते समय जनता,राजनीतिक दल व विधायक दल अगड़ा-पिछड़ा का ध्यान नहीं रखते हुए किसी नेता की प्रतिभा,योग्यता,कार्य क्षमता,जनसेवा और ईमानदारी को आधार बनाएंगे।वैसे कुछ लोग यह भी कहते हैं कि थेसिस और एंटी थेसिस के बाद सिंथेसिस का समय एक दिन आएगा ही।

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