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भेड़ाघाट

Thursday, November 18, 2010

20 लाख करोड़ रुपये चढा भ्रष्टाचार की भेंट !

हमारी लोकत्रांत्रिक शक्ति, तरक्की के चर्चे जहां फोब्र्स सूची से लेकर जिनेवा तक अमीरों की दुनिया में हो रहे हों वहीं भ्रष्टाचार भारतीय सिस्टम में किस हद तक समाया है उसके स्वदेसी रूप तो आपने कई देखें होगे, लेकिन वाशिंगटन में हुए एक अध्ययन के बाद भारत की छवि को अंतर्राष्ट्र्रीय स्तर पर और झटका लगने की आशंका बढ़ गई है। एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत ने स्वतंत्रता के बाद से 2008 तक 20,556 अरब रुपए या करीब 20 लाख करोड़ (462 बिलियन डॉलर) भ्रष्टाचार, अपराध और टेक्स चोरी के कारण गंवाई है। वाशिंगटन के एक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ समूह ग्लोबल फाइनेंशियस इंटिग्रिटी(जीएफआई) ने हाल ही में जारी 'द ड्राइवर्स एंड डायनामिक्स ऑफ इलिसिट फाइनेंशियल फ्लो फ्रॉम इंडिया 1948-2008Ó शीर्षक से जारी रिपोर्ट 1991 में भारत की सुधरती अर्थव्यवस्था के बावजूद देश से बाहर अवैध रूप से भेजे जा रहे धन की मात्रा काफी बढ़ी है। इस आंकलन के अनुसार भारत को कुल 462 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है और इसमें से बड़ी रकम विदेशी बैंको में जमा है। भारतीय मुद्रा में यह रकम कुल 20,556,548,000,000 या करीब 20 लाख करोड़ रुपए होती है। भारत का विदेशों से कर्जा करीब 230 डॉलर का है, लेकिन यह अवैध धन उससे दुगना है। संस्था के संचालक रेमंड्स बेकर ने कहा कि जाहिर है कि इतनी बड़ी रकम देश से बाहर भेजे जाने के कारण ही भारत में गरीब और गरीब हो गया है और अमीर और गरीब के बीच का अंतर काफी बढ़ गया है। यही नहीं ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ष 2010 के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 87वें स्थान पर पहुँच गया है। जबकि, 2009 में वह 84वें स्थान पर था। सूची में एशिया में भूटान को सबसे कम भ्रष्ट देश बताया गया है।

इस वक्त जबिक भ्रष्टाचार में सरकार के कई मंत्री और मुख्यमंत्री फंसे हैं यह आंकलन सरकार के लिए और मुश्किले खड़ा करेगा। यह भी एक सच्चाई है कि आजादी के बाद देश में सबसे ज्यादा कांग्रेस की सरकार रही है। आज के हिंदुस्तान में राजनीतिक पार्टियों और नौकरशाही से जुड़ाव ने कुछ लोगों को कुछ भी करने का लाइसेंस दे दिया है। ये अकारण नहीं है कि 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद पहले आईपीएल, फिर कॉमनवेल्थ, उसके बाद आदर्श घोटाला और अब टू जी स्पेक्ट्रम पर हंगामा मचा हुआ। हर नया घोटाला पहले से कहीं ज्यादा हैरतअंगेज, ज्यादा लोमहर्षक, ज्यादा खतरनाक। आईपीएल ने जहां ये साबित किया कि एक अकेला शख्स किस तरह से पूरी व्यवस्था का मखौल उड़ाते हुए मनमानी कर सकता है। कॉमनवेल्थ ने बताया कि घोटालेबाजों को देश की इज्जत की जरा भी परवाह नहीं है, बस उनकी जेब भरनी चाहिए। आदर्श इस बात का सबूत है कि पूरा सरकारी तंत्र योजनाबद्ध तरीके से लूट के खेल में लगा है और मंत्री, नौकरशाह और सेना के अफसर अगर चाह लें तो रात को दिन और दिन को रात किया जा सकता है। लेकिन टू जी स्पेक्ट्रम ने सारी सीमाओं को तोड़ दिया है। टू जी घोटाला हमारे संवैधानिक सिस्टम की कमजोरी और गठबंधन सरकार की बेबसी की कहानी है। गठबंधन युग में क्षेत्रीय पार्टी का एक मंत्री कुछ भी कर सकता है। इसलिए नहीं कि वो कानून के ऊपर है बल्कि इसलिए कि उसकी पार्टी के समर्थन से केंद्र की सरकार चलती है और वो दलित है। उसको छूने का मतलब है सरकार का गिरना और राजनीति में इस मिथ को बल देना कि किसी खास जाति के नेता के खिलाफ कार्रवाई करने का अर्थ है उस जाति की नाराजगी मोल लेना। अन्यथा ये कैसे संभव है कि एक अदना सा मंत्री वित्त मंत्रालय, कानून मंत्रालय, प्रधानमंत्री कार्यालय सबकी अवहेलना करे, किसी की न सुने और सरकारी खजाने को एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ का चूना लगा दे? प्रधानमंत्री कार्यालय टुकुर-टुकुर देखता रहे, आम आदमी की बात करने वाली पार्टी की मुखिया हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे?
हांलाकि घोटाले के आरोपियों से इस्तीफे लेने के लिए कांग्रेस थोड़ी-सी प्रशंसा की हकदार है। लेकिन इसे किसी भी रूप में सजा नहीं माना जा सकता। इस्तीफे महज एक अच्छा पहला कदम हैं। इन इस्तीफों के साथ नैतिकता और शुचिता के ऊंचे दावे किए जा रहे हैं, जो नितांत झूठे हैं। इस्तीफे इस बात की स्वीकारोक्ति हैं कि वास्तव में कुछ गलत हुआ है।
इस्तीफे लेने का यह मतलब भी है कि सत्तारूढ़ पार्टी मानती है कि अपने भविष्य की खातिर वह मीडिया के दबाव और जनाक्रोश से उदासीन नहीं रह सकती।
भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डूबे युपीए सरकार के मंत्री और नेताओं की पोल खुलने के साथ हीप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का निष्कंटक राज खत्म हो गया है. देश के सबसे बड़े घोटाले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी पर सवाल उठाने के बाद स्पेक्ट्रम घोटाले में अब प्रधानमंत्री खुद घिरते नजर आ रहे हैं. बेदाग राजनीतिक कैरियर के बदौलत छह साल से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के तरंगों से ऐसे घिर रहे हैं कि उन्हें कुर्सी छोडऩी भी पड़ सकती है.

प्रधानमंत्री कार्यालय पर सुप्रीम कोर्ट का रुख सीबीआई के काम काज पर मनमोहन सिंह की चुप्पी है. दरअसल, जिस सीबीआई जांच का तर्क देकर प्रधानमंत्री कार्यालय ने ए.राजा के खिलाफ मुकदमे से इंकार किया था, वही सीबीआई तो खुद अदालत के कठघरे में खड़ी है और स्पेक्ट्रम घोटाले में जांच में देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लताड़ खा रही है. अदालत ने राजा पर मुकदमे की इजाजत दे दी है, लेकिन राजा पर हाथ डालना राजनीतिक मुश्किलों का सबब बनेगा. गठबंधन राजनीति बेदाग छवि वाले प्रधानमंत्री से महंगी कीमत वसूल रही है। यही वजह है कि सरकार के लिए बेहद संवेदनशील हो चुके 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में पीएमओ कुछ भी बोलने से बच रहा है.

प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत काम करने वाली सीबीआई ने इस मामले में याचिका के 11 माह बाद एफआईआर दर्ज की और वह भी अनजान लोगों के खिलाफ। जांच के आगे न बढऩे पर सीबीआई ने 29 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जीएस संघवी और एके गांगुली की पीठ से लताड़ भी खाई थी। सीबीआई जांच के लिए और ज्यादा वक्त मांगने अदालत पहुंची थी। पीएमओ के लिए इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा कि पिछले साल अक्टूबर में संचार भवन में छापा मारने वाली सीबीआई अब तक अनजान लोगों के खिलाफ ही जांच क्यों कर रही है? मामले की सुनवाई में अदालत ने राजा के खिलाफ मुकदमे की अनुमति दे दी है। सरकारी वकील भी मुकदमा चलाने से सहमत हैं, लेकिन राजा पर हाथ डालने से गठबंधन की सेहत बिगड़ती है। इसलिए दाग धोने के लिए राजा पर मुकदमे चलाने की सुविधा भी प्रधानमंत्री को नहीं है। गत 12 नवंबर को अदालत में दाखिल दूरसंचार विभाग का हलफनामा एक अन्य पेंच है। इसमें पूरी प्रक्रिया को पाक साफ ठहराते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय की सहमति होने का दावा किया गया है। हालांकि हलफनामे के उलट सीएजी ने प्रधानमंत्री को पाक साफ बताया है, लेकिन उसकी रिपोर्ट ने राजा के मामले में प्रधानमंत्री की चुप्पी और निष्क्रियता को और मुखर कर दिया है।?
जाहिर है मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बर्दाश्त न करनेवाले कांग्रेसी धड़े के लिए यह एक सुनहरा मौका साबित होनेवाला है. अगर आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा स्पेक्ट्रम घोटाले की आग को इसी तरह हवा देना जारी रखती है तो संभवत: राजा के बाद दूसरा बड़ा निर्णय खुद प्रधानमंत्री की विदाई हो सकती है. निश्चित ही मनमोहन सिंह के लिए पहली बार इतना बड़ी राजनीतिक संकट पैदा हुआ है जिससे पार पाना फिलहाल तो मुश्किल ही लग रहा है.

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