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भेड़ाघाट

Friday, September 24, 2010

मिलिए लोकतंत्र के राजाओं से

राजनीति पेशा है या समाजसेवा का ज़रिया, इसका जवाब इस साल संसद के मानसून सत्र को देखकर पता लग जाता है. सत्र के दौरान सांसदों ने जिस तरीक़े से अपना वेतन और भत्ता बढ़ाने की मांग की, उससे यह साफ हो गया कि इन माननीयों के लिए राजनीति समाजसेवा का ज़रिया तो कतई नहीं हो सकती. उनके लिए राजनीति पेशे से भी एक क़दम आगे की चीज है. यानी भरपूर सुख-सुविधा भोगने का एक ज़रिया. चाहे इसके लिए जनता को कोई भी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़े. लेकिन यह हाल स़िर्फ सांसदों का ही नहीं है, राज्य के मुख्यमंत्री भी जनता की जेब ढीली कर सुख-सुविधा भोगने में पीछे नहीं हैं. वह भी तब, जब दिल्ली जैसे शहर में 80 हज़ार से ज़्यादा लोगों के सिर पर छत नहीं है. विदर्भ में अब तक 2 लाख से ज़्यादा किसान असमय मौत को गले लगा चुके हैं. उत्तर प्रदेश में हर साल सैकड़ों बच्चे इंसेफ्लाइटिस की वजह से दम तोड़ देते हैं, लेकिन इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों की जीवनशैली पर नज़र डालें तो एक अलग ही तस्वीर दिखाई देती है. चमक-दमक से भरपूर तस्वीर. बिल्कुल इंडिया शाइनिंग की तरह. जिस देश की एक बड़ी आबादी को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं, वहीं इन राज्यों में से एक के मुख्यमंत्री आवास का पानी का बिल 62 लाख रुपये आए तो इसे आप क्या कहेंगे? उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र के कितने गांवों तक बिजली पहुंची है. और अगर पहुंचती भी है तो कितने घंटों के लिए, यह रिसर्च का मामला हो सकता है, लेकिन इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री अपने आवास को रोशन करने के लिए महीने में 20 लाख रुपये से ज़्यादा बिजली पर ख़र्च कर देते हों तो इसे आप क्या कहेंगे? चौथी दुनिया ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री आवास पर होने वाले ख़र्च का ब्योरा आरटीआई के ज़रिए जुटाया है. प्राप्त सूचना के विश्लेषण से पता चलता है कि कैसे आम आदमी की गाढ़ी कमाई इन राज्यों के मुख्यमंत्री आवासों पर बेहिसाब ख़र्च की जा रही है.

राजतंत्र नहीं रहा, उसकी जगह प्रजातंत्र आ गया, लेकिन अंतर क्या आया? अब एक राजा की जगह कई राजा मिल कर आम आदमी का शोषण करते हैं, वह भी इतनी सफाई से कि आम आदमी को भनक तक नहीं लगती. कुछ ऐसे ही राजाओं की ख़बर ली है चौथी दुनिया ने. आरटीआई से मिली सूचना के मुताबिक़, इन राजाओं की प्यास बुझाने के लिए आम आदमी को अपनी करोड़ों की कमाई गंवानी पड़ रही है. अपना घर अंधेरे में रखकर राजाओं के आलीशान महलों (मुख्यमंत्री आवास) को रोशन कर रहा है आम आदमी. ख़ुद के सिर पर छत नहीं, लेकिन वह इन राजाओं के महलों की पेंटिंग पर ही लाखों रुपये ख़र्च कर रहा है.

प्रधानमंत्री भले ही अपने मंत्रियों को विदेश दौरे न करने, सरकारी ख़र्च घटाने की सलाह देते रहते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री अपने आवास की रंगाई-पुताई पर पांच सालों में 86 लाख रुपया पानी की तरह बहा देते हैं. उत्तर प्रदेश में मायावती की शाही आदत के मुताबिक़ ही उनके आवास के रखरखाव पर बेशुमार पैसा ख़र्च किया जा रहा है. और यह सब कुछ हो रहा है एक ऐसे देश में, जहां का हर तीसरा नागरिक ग़रीब है. 70 फीसदी आबादी की रोज की आय 20 रुपये से भी कम है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2009 के आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में भूखे एवं कुपोषित लोगों की संख्या पाकिस्तान, नेपाल, सूडान, पेरू, मालावी और मंगोलिया जैसे देशों से भी ज़्यादा है. पांच साल से कम उम्र के अंडरवेट (उम्र के हिसाब से कम वजन) बच्चों की सूची में भारत की हालत बांग्लादेश, पूर्वी तिमोर और यमन जैसी है. भारत में नाइजीरिया के मुक़ाबले ज़्यादा भूखे और कुपोषित लोग हैं. देश की राजधानी दिल्ली की जन वितरण प्रणाली के तहत ज़्यादातर ग़रीब परिवारों के पास राशनकार्ड नहीं हैं. एपीएल कोटे वाले के पास बीपीएल कार्ड हैं. उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में किसान मर रहे हैं, लेकिन इस सबसे बेपरवाह हमारे माननीय मुख्यमंत्रीगण इसी धरती पर स्वर्ग का मज़ा ले रहे हैं.

यह सब कुछ एक ऐसे देश में हो रहा है , जहां का हर तीसरा नागरिक ग़रीब है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2009 के आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में भूखे एवं कुपोषित लोगों की संख्या पाकिस्तान, नेपाल, सूडान, पेरू, मालावी और मंगोलिया जैसे देशों से भी ज़्यादा है. अंडरवेट बच्चों की सूची में भारत की हालत बांग्लादेश, पूर्वी तिमोर और यमन जैसी है. जन वितरण प्रणाली के तहत ज़्यादातर ग़रीब परिवारों के पास राशनकार्ड नहीं हैं. उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में किसान मर रहे हैं. लेकिन हमारे माननीय मुख्यमंत्रीगण इसी धरती पर स्वर्ग का मज़ा ले रहे हैं.

राज्यवार मुख्यमंत्री आवास पर ख़र्च, वित्तीय वर्ष 2005-06 से 2009-10 के दौरान

उत्तर प्रदेश

हिंदी पट्टी के बीमारू राज्यों में से एक है उत्तर प्रदेश. 2005 से अब तक यहां के मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव और मायावती. एक ख़ुद को समाजवादी कहते हैं तो दूसरी ख़ुद को दलितों का मसीहा. इन समाजवादी और दलितों के मसीहा की निजी ज़िंदगी में कितना समाजवाद है, दलितों के लिए कितनी चिंता है, इसका खुलासा इनके आवास (मुख्यमंत्री आवास) पर होने वाले ख़र्च को देखकर हो जाता है. इन पांच सालों में मुख्यमंत्री आवास का बिजली बिल आया लगभग 92 लाख रुपये का. यानी हर साल लगभग 20 लाख रुपये. महीने के हिसाब से लगभग डेढ़ लाख रुपये. मुख्यमंत्री आवास को जगमग बनाने के लिए बल्ब, सीएफएल बदलने और बिजली मरम्मत इत्यादि पर भी 13 लाख रुपये ख़र्च किए गए. साथ ही मुख्यमंत्री आवास में एसी और इलेक्ट्रानिक उपकरण इत्यादि लगाने पर भी 33 लाख रुपये ख़र्च किए गए. टेलीफोन बिल भी आया 19 लाख का. दरवाजे और खिड़कियों के पर्दे बदलने में भी 35 लाख रुपये ख़र्च हो गए. बदरंग उत्तर प्रदेश की तस्वीर सुंदर दिखाने के लिए मुख्यमंत्री आवास की रंगाई-पुताई भी जमकर की गई.

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र की एक और पहचान है. वह है विदर्भ. जहां के हर गांव में बड़ी संख्या में वैसी विधवाएं मिल जाती हैं, जिनके पति किसान थे और फसल अच्छी न होने की वजह से उन्होंने आत्महत्या कर ली थी. लेकिन इस राज्य के मुखिया चाहे वह विलासराव देशमुख रहे हों या अभी के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, किसी को कोई फर्क़ नहीं पड़ता. कम से कम उनकी निजी ज़िंदगी और उस पर आने वाले ख़र्च, जो जनता की जेब से चुकाए जाते हैं, को देखकर तो यही लगता है. महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा बिजली उत्पादन विदर्भ क्षेत्र में होती है, लेकिन सारी बिजली मुंबई, नागपुर और पुणे जैसी जगहों के लिए आरक्षित कर ली जाती है. विदर्भ अंधेरे में डूबा रहता है, लेकिन मुंबई में मुख्यमंत्री आवास

दिन-रात गुलज़ार रहता है. पिछले 5 सालों में इसकी क़ीमत भी जनता ने चुकाई है, 92.26 लाख रुपये. विदर्भ के किसानों की फसल भले ही सूखे से बर्बाद हो जाती है, लेकिन मुख्यमंत्री आवास में पानी के बिल/मिनरल वाटर के मद में 61.74 लाख रुपये ख़र्च हो जाते हैं. विदर्भ का बदरंग चेहरा मुख्यमंत्री को परेशान न करे, इस खातिर उनके आवास की रंगाई-पुताई पर पिछले 5 सालों में 86 लाख रुपये ख़र्च कर दिए गए.

दिल्ली

मुख्यमंत्री आवास पर ख़र्च के मामले में दिल्ली उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से काफी पीछे है, ख़र्च भी काफी कम है. वैसे यहां भी 47 हज़ार रुपये का मिनरल वाटर 2006-09 के दौरान पिया गया. बिजली और पानी का बिल भी क़रीब 10 लाख रुपये आया. टेलीफोन बिल क़रीब 6 लाख रुपये का.

माया की माया
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बजाय असली मुद्दों पर ध्यान देने के पांच सितारा होटलों में रात्रिभोज (पार्टी) का आयोजन करती हैं और वह भी जनता के पैसों पर. दलित उत्थान की बात करने वाली मायावती की जन्मदिन की पार्टियां हमेशा से सुर्ख़ियां बटोरती रही हैं. वजह, ऐसे मौक़ों पर होने वाली शाहख़र्ची, सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल, कार्यकर्ताओं से महंगे उपहार लेने जैसे आरोप. खैर ये आरोप तो विरोधी दलों की तऱफ से लगाए जाते रहे हैं, लेकिन सूचना का अधिकार क़ानून के तहत जो जानकारी मिली है, उससे ख़ुद को दलितों की मसीहा मानने में फख्र महसूस करने वाली मायावती की शख्सियत के एक अलग ही पहलू का पता चलता है. मई 2007 में राज्य विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत दर्ज करके मायावती सरकार बनाती हैं. 13 मई, 2007 को माया सरकार शपथ ग्रहण करती है और 25 मई, 2007 को मुख्यमंत्री दिल्ली के पांच सितारा होटल ओबरॉय में एक शानदार पार्टी (रात्रिभोज) का आयोजन करती हैं. उपलब्ध दस्तावेज के मुताबिक़, इस रात्रिभोज में विशिष्ट महानुभावों को आमंत्रित किया गया. हालांकि इस दस्तावेज में इन विशिष्ट महानुभावों के नाम का जिक्र नहीं है. ज़ाहिर है, विशिष्ट होटल (पांच सितारा) में विशिष्ट महानुभावों को दी गई पार्टी (रात्रिभोज) का ख़र्च भी विशिष्ट ही आना था. इसलिए इस एक रात की पार्टी का ख़र्च आया 17 लाख 16 हज़ार 8 सौ 25 रुपये. इस धनराशि का भुगतान स्थानीय आयुक्त, उत्तर प्रदेश शासन, नई दिल्ली के माध्यम से सचिवालय प्रशासन विभाग की ओर से किया गया. यह सूचना राज्य संपत्ति विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार की तऱफ से उपलब्ध कराई गई है. हो सकता है कि लोगों को यह रकम मामूली लगे, लेकिन सवाल धनराशि का नहीं है. सवाल पांच सितारा होटल में पार्टी देने का भी नहीं है. मायावती अपने जन्मदिन की पार्टियों पर जितना ख़र्च करती हैं, उसके मुक़ाबले 17 लाख की रकम कोई बहुत बड़ी रकम नहीं मानी जा सकती, लेकिन सवाल उस व्यवस्था का है, जहां हमारे नुमाइंदों को यह सोचने की फुर्सत नहीं है कि जो एक पैसा भी वह अपने ऊपर ख़र्च करते हैं, वह ग़रीब जनता के हिस्से का होता है. वह ग़रीब जनता, जिसकी प्राथमिकता आज भी रोटी, कपड़ा और मकान है. सवाल हमारे नेताओं की उस मानसिकता का भी है, जो उन्हें पांच सितारा होटलों में पार्टी आयोजित करने के लिए प्रेरित करती है. इसका एक बेहतरीन उदाहरण ख़ुद मायावती ही हैं, जो अपना जन्मदिन समारोह मनाने के लिए अंबेडकर पार्क का ही चुनाव करती थीं. लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव तक पहुंचते-पहुंचते जैसे बसपा का नारा बहुजन से बदल कर सर्वजन हो गया, कुछ उसी तर्ज पर सत्ता मिलने के बाद मायावती की तऱफ से दी जाने वाली पार्टियां भी पार्क से निकल कर पांच सितारा होटलों तक पहुंच गईं.

भूतपूर्व को भी अभूतपूर्व सुविधा
हाल तक झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं पर भी सालाना करोड़ों का ख़र्च था. हालांकि अब राज्यपाल ने इस सुविधा को ख़त्म करने का आदेश दे दिया है. झारखंड के 4 भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, मधु कोड़ा एवं अर्जुन मुंडा के आवास, सुरक्षा और टेलीफोन बिल पर करोड़ों रुपये ख़र्च होते थे. शिबू सोरेन मुख्यमंत्री रहते जितने बड़े बंगले में नहीं रहते थे, उससे बड़ा बंगला उन्हें भूतपूर्व बन जाने पर मिला हुआ था. इन पूर्व मुख्यमंत्रियों के आवासों की देखरेख और साजसज्जा पर पिछले 6 सालों में 13 करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे. पिछले वित्तीय साल के दौरान स़िर्फ सुरक्षाकर्मियों का वेतन ही क़रीब 17 लाख रुपये आया. ध्यान दीजिए, भूतपूर्वों के उक्त शाही ख़र्च झारखंड जैसे राज्य में वहन किए जा रहे थे.

लालबत्ती पर लुटता बचपन

राजू की उम्र महज़ 5 साल है. नन्हें-नन्हें हाथ-पैर, मासूम चेहरा, नन्हीं आंखें और शरीर पर मैले-कुचैले कपड़े पहने राजू दिल्ली के बाराखंभा चौराहे पर बैठा सिग्नल लाल होने का इंतज़ार कर रहा है. अचानक सिग्नल लाल होता है, गाड़ियां रुकती हैं. झट से वह उठकर गाड़ियों के बीच में जाकर तमाशा दिखाने लगता है. लोहे की रॉड्‌स के बीच से अपने शरीर को मुश्किल से एक से दूसरे पार निकालता है. उसका चेहरा शरीर पर आए ज़ख्म के दर्द को साफ बयां करता है, लेकिन वह कमर हिलाते हुए जल्दी से गाड़ी में बैठे बाबुओं-साहबों से पैसे मांगना शुरू करता है. उसे महज़ दो-चार रुपये मिलते हैं. इतने में सिग्नल हरा हो जाता है और वह निराश होकर बचते हुए भागता है और बगल में बैठकर अगली लालबत्ती का इंतज़ार करने लगता है. बाराखंभा रेडलाइट पर अकेले राजू ही नहीं, बल्कि उसकी मां, बुआ और छोटे-छोटे भाई-बहन यानी पूरा परिवार इसी तरह रोटी के जुगाड़ में लगा रहता है. आज हज़ारों परिवार ऐसे हैं, जिनकी शाम की रोटी इन लालबत्तियों पर तमाशे करके ही चलती है.

आश्चर्य है कि जिन मासूम बच्चों के हाथों में किताब और कलम होनी चाहिए, उन हाथों में आज दूसरों का मनोरंजन करने की ज़िम्मेदारी है. ग्रामीण इलाक़ों में तो हालत यह है कि लाखों बच्चों को किताब-पेंसिल तो दूर, पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता. उनके अभिभावक ग़रीबी की वजह से ज़्यादा दिनों तक अपने बच्चों को नहीं पढ़ा पाते. बच्चों के दर-बदर होते और लुटते बचपन के लिए उनके मां-बाप पूरी तरह ज़िम्मेदार हैं, जो उन्हें दुनिया में लाकर उनके नसीब पर सड़कों पर छोड़ देते हैं. ज़िम्मेदार सरकार भी है, जो देश से ग़रीबी मिटाने समेत समस्यारहित राष्ट्र के निर्माण के वादे करती है.

राजू से हमने घंटों बातचीत की. पूरी तरह घुल-मिल जाने पर राजू से उसकी पढ़ाई के बारे में पूछा तो वह मासूमियत भरी नज़रों से तुतलाते हुए बताता है, मां से अक्सर कहता हूं कि मुझे भी पढ़ना है, कॉपी-कलम दो. इस पर वह डांट देती है. कहती है कि खाकर सो जाओ, सुबह रेडलाइट पर जाना है. इतने में राजू पूछ बैठता है, भैया, मां मुझे रोज़ क्यूं भेज देती है, क्यूं नहीं पढ़ने देती? राजू के इस सवाल का हमारे पास कोई जवाब नहीं था. राजू का बड़ा भाई अशोक कहता है कि हमारे माता-पिता भी तमाशे दिखाते थे. उसके बाद वह और अब उसके छोटे भाई-बहन करतब दिखाते हैं, जिन्हें प्रशिक्षण वह ख़ुद देता है. बात करते-करते उसकी आंखें नम हो जाती हैं. वह कहता है कि उसे अबोध छोटे भाई-बहनों को देखकर दु:ख भी होता है, लेकिन क्या करे? अगर ख़ुद तमाशा दिखाएगा तो लोग पैसा नहीं देंगे. छोटे-छोटे बच्चों के तमाशों को देखकर ही लोग हमदर्दीवश पैसे देते हैं, जिससे घर का चूल्हा जलता है. अशोक बताता है कि लालबत्तियों पर पुलिस ख़ूब परेशान करती है. कभी तमाशा दिखाते हुए पकड़ कर पीट देती है तो कभी हवालात में रात भर बंद कर देती है. नतीजतन तमाशा दिखाने के लिए वह स्थान बदलता रहता है. सरकार से मदद मिलने के नाम पर अशोक कहता है कि वह कई बार दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, किरण वालिया और मंगतराम सिंघल जैसे कई मंत्रियों के दफ्तर अपनी फरियाद लेकर गया, लेकिन कभी उसे वहां से भगा दिया गया तो कभी उसकी बात वहां तक पहुंच ही नहीं पाई, पर बाहर सरकारी बाबुओं ने आश्वासन ज़रूर दिए.

लेनसेट के 2008 में 20 देशों पर किए गए एक अध्ययन के मुताबिक़, भारत में तमाशबीन बच्चों की संख्या क़रीब 61 मिलियन से अधिक है. इनमें आधे से अधिक (क़रीब 51 फीसदी) बच्चों की उम्र 5 साल से कम है. ऐसा नहीं कि करतब दिखाने वाले सभी बच्चों का यह पेशा वंशानुगत रहा है. चूंकि भीख मांगने पर उन्हें पुलिस द्वारा परेशान किया जाता है, इसीलिए ये बच्चे छोटे-मोटे करतब दिखाकर पैसा मांगते हैं. एक रिपोर्ट के मुताबिक़, केवल राजधानी दिल्ली में 60 हज़ार से ज़्यादा बाल भिखारी हैं. कॉमनवेल्थ गेम्स के चलते दिल्ली में सामाजिक कल्याण विभाग ने भिखारियों की संख्या कम करने के लिए मुहिम छेड़ी. ग़ैर सरकारी संगठनों को यह जिम्मा दिया गया. विभाग ने 1098 नंबर लांच किया, जिस पर कॉल करने पर ग़ैर सरकारी संगठन के अधिकारी आकर उन भिखारियों को हिरासत में ले लेते थे. पापी पेट का सवाल था. ट्रेंड बदला. इन बच्चों को अब आप लालबत्तियों पर भीख मांगते नहीं, बल्कि कार का शीशा साफ करते या फूल-किताबें बेचते पाएंगे. दलाल इन बच्चों का ख़ूब दोहन भी करते हैं. आश्रम रेडलाइट पर किताबें बेचने वाला 10 वर्षीय दीपक बताता है कि वह दिन भर में 500 से 600 रुपये तक की किताबें बेच लेता है. इसके बदले उसका मालिक प्रतिदिन 40 रुपये देता है. दीपक कहता है कि उसके मालिक ने आश्रम में ही एक कमरा लिया है, जहां उसके सत्रह-अट्ठारह दोस्त रहते हैं और वे भी दूसरी लालबत्तियों पर किताबें बेचते हैं.

आश्चर्य है कि जिन मासूम बच्चों के हाथों में किताब और कलम होनी चाहिए, उन हाथों में आज दूसरों का मनोरंजन करने की ज़िम्मेदारी है. ग्रामीण इलाक़ों में तो हालत यह है कि लाखों बच्चों को किताब-पेंसिल तो दूर, पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता. उनके अभिभावक ग़रीबी की वजह से ज़्यादा दिनों तक अपने बच्चों को नहीं पढ़ा पाते. बच्चों के दर-बदर होते और लुटते बचपन के लिए उनके मां-बाप पूरी तरह ज़िम्मेदार हैं, जो उन्हें दुनिया में लाकर उनके नसीब पर सड़कों पर छोड़ देते हैं. ज़िम्मेदार सरकार भी है, जो देश से ग़रीबी मिटाने समेत समस्यारहित राष्ट्र के निर्माण के वादे करती है. इन बच्चों को तमाशा करने या भीख मांगने से तो रोका जा सकता है, लेकिन इससे इनके पेट की भूख ख़त्म नहीं हो सकती. पेट की आग शांत करने के लिए ये कभी भीख मांगेंगे, कभी किताब बेचेंगे, कभी तमाशा दिखाएंगे तो कभी ग़लत राह का अनुसरण कर लेंगे. देश में इसी साल राइट टू एजूकेशन एक्ट लागू हो चुका है. प्रधानमंत्री समेत तमाम नेता देश की गली-गली में शिक्षा पहुंचाने का दावा करते हैं. पूरे देश की बात छोड़िए, केवल राजधानी दिल्ली की बाराखंभा रेडलाइट का उदाहरण ले लीजिए, जहां दिन भर सरेआम मासूम बच्चे आपको तमाशा करते नज़र आ जाएंगे.

बाराखंभा के आसपास का कनॉट प्लेस दिल्ली का सबसे बड़ा पॉश इलाक़ा है. दिन भर न जाने कितने नेताओं की गाड़ियां इस इलाक़े से होकर गुज़रती हैं. मीडिया-कैमरे के सामने ग़रीबी मिटाने, शिक्षा देने और बेरोज़गारी दूर करने जैसे तमाम वादे करने वाले इन नेताओं को जब फोन और लैपटाप से फुर्सत मिलती है तो वे मासूम चेहरों की तऱफ देख 1-2 रुपया उछाल कर आगे बढ़ जाते हैं. सवाल उठता है कि क्या संविधान ने इन बच्चों को जीने का यही अधिकार दिया है? क्या इन्हें शिक्षा पाने का अधिकार नहीं है? अगर देश के नेताओं को सरेआम लालबत्तियों पर तमाशा करते बच्चे नज़र नहीं आते हैं तो फिर गली-गली में शिक्षा के प्रसार-प्रचार की क्या गारंटी है?

आंकड़ों में बाल श्रमिक
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने हाल में स्वीकारा है कि भारत में 37 फीसदी लोग ग़रीबी रेखा से नीचे रहते हैं. अभिभावकों की इसी ग़रीबी की वजह से बाल मज़दूरी का जन्म होता है. बाल मजदूरी आज भी पूरे देश के लिए चिंता का विषय है. वैश्विक तौर पर भारत में सबसे ज़्यादा बाल मज़दूर हैं. सरकार ने 14 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए काम करना ग़ैरक़ानूनी बताया है, लेकिन हक़ीक़त में बहुत सारे कारखाने, फैक्ट्रियां, दुकाने, गैरेज, कृषि या अन्य व्यापार हैं, जहां खुलेआम बच्चों से मज़दूरी कराई जा रही है. 21 नवंबर, 2005 को एक एनजीओ कार्यकर्ता ने श्रम विभाग के सहयोग से दिल्ली के सीलमपुर स्थित 100 से अधिक अवैध कारखानों में छापेमारी कर 480 से अधिक बाल श्रमिकों को मुक्त कराया. उसके बाद बाल श्रमिकों से संबंधित ग़ैर सरकारी संगठनों ने दिल्ली सरकार के साथ संगठित होकर इस मामले पर कार्रवाई की योजना बनाई. 1997 में कांचीपुरम में किए गए एक शोध से खुलासा हुआ कि ज़िले में केवल सिल्क बुनने के व्यवसाय से क़रीब 60,000 से ज़्यादा बच्चे जुड़े रहे. जबकि 2007 में रूरल इंस्टीट्यूट ऑफ डेवलपमेंट एजूकेशन की सार्थक पहल के बाद इनकी संख्या घटकर क़रीब 4,000 से नीचे पहुंच गई. भारत में स्ट्रीट चिल्ड्रेंस की संख्या भी सबसे ज़्यादा है. एक आंकड़े के मुताबिक़, देश में क़रीब 18 मिलियन से अधिक स्ट्रीट चिल्ड्रेन हैं. वैसे तो देश में बच्चों की भुखमरी, ग़रीबी की विकट स्थिति पर अनगिनत अध्ययन और रिपोर्ट सामने आ चुकी हैं, लेकिन नेशनल फेमिली हेल्थ सर्वे द्वारा 2005-06 में जारी एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 8 सालों में बच्चों के पोषण संबंधी समस्या में कोई सुधार नहीं हो पाया है. सर्वे के मुताबिक़, भारत में 3 साल से कम उम्र के क़रीब 46 फीसदी बच्चे सामान्य से कम वज़न के हैं. आंकड़े यह भी बताते हैं कि मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ आदि राज्यों में बच्चों की आधी से ज़्यादा आबादी कुपोषण की शिकार है. वैसे बाल मज़दूरी की समस्या केवल हमारे देश की ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व की है. यूनीसेफ के मुताबिक़, पूरे विश्व में 5 से 14 साल के क़रीब 158 मिलियन बच्चे बालश्रम के शिकार हैं. इसमें घरेलू कामकाज से संबद्ध बच्चे शामिल नहीं हैं. सीएसीएल की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 70 से 80 लाख बाल श्रमिक हैं. एक आंकड़े पर ग़ौर करें तो एशिया में बच्चों की आबादी का 22 फीसदी, अफ्रीका में 32 फीसदी, लैटिन अमेरिका में 17 फीसदी एवं यूएस, कनाडा, यूरोप और दूसरे धनी देशों में एक-एक फीसदी हिस्सा मज़दूरी करने के लिए मजबूर है.

Thursday, September 23, 2010

टूटने से पहले ही बिक गई थी बाबरी?




बाबरी विध्वंस से दो दिन पहले 4 दिसंबर 1992. स्थान-कच्चा हाता, लखनऊ, जफरयाब जिलानी का आवास. एक तरफ लाखों कारसेवक श्री राम जन्मभूमि पर निर्णायक लड़ाई लड़नें के लिए अयोध्या में एकत्रित हो रहा था, तो दूसरी तरफ देश के करोड़ो मुसलमानों के दिलोदिमाग में विस्फोटक आक्रोश मचल रहा था। इन सबसे बेखबर बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जनाब जफरयाब जिलानी लखनऊ के कच्चाहाता स्थित अपने मकान में इस बात को लेकर गमज़दा हो रहे थे कि हमारे उस पत्र पर अशोक सिंघल की क्या प्रतिक्रिया होगी जिसे हमनें अभी-अभी अपने विशेष व्यक्ति के हाथों अशोक सिंघल के पास अयोध्या में भेजी है- देखें खत का मजमून....

‘‘आपसे बहुत जरुरी बात करनी थी चूंकि आप मिल नही पा रहे हैं जिसकी वजह से बात नही हो पा रही है। पता चला है कि आप इस वक्त अयोध्या में है इसलिए अपने आदमी के हाथ यह खत भेज रहे हैं। खास बात यह है कि आपसे 'जो बात हुई थी उसकी खबर किसी तरह से हमारे कुछ साथियों को लग गई है।' इसलिए इस वक्त वह काम किसी तरह रुकवा लो जो 'पहले तय' हुआ था, वरना हमारी बहुत बदनामी हो जाएगी। खबरों से पता चल रहा है कि कारसेवक काफी तादात में पहुँच रहे हैं जिन्हें अब रोकने का काम आप का है, हमारी इज्जत आपके हाथों में है। हम आप पर भरोसा कर रहे हैं। बाकी बातें मिलने पर होंगी।’’ आपका- ज़फरयाब जिलानी

1992 में दिसंबर का वह महीना जिन्हें याद होगा उन्हें उस सर्दी की सिहरन आज भी महसूस हो रही थी. एक तरफ पूरा देश, पूरा प्रशासन, राज्य और केन्द्र सरकार के पसीने छूट रहे थे, फिर ठीक उसी वक्त रामजन्मभूमि आंदोलन और बाबरी एक्शन कमेटी के रहनुमा इतने इत्मीनान से किस सौदे को बचाने की बातचीत कर रहे थे? उस वक्त हिन्दुओं और मुसलमानों को सिंहल और जिलानी अपने अपने रहनुमा नजर आ रहे हों लेकिन सच्चाई यह है कि दोनों ही नेता अपनी अपनी कौमों के साथ धोखा कर रहे थे. जफरयाब जिलानी की दो चिट्ठियों को देखकर किसी को भी अंदाज लग सकता है कि उस वक्त विश्व हिन्दू परिषद किसी भी तरीके से रामजन्मभूमि पर अपना कब्जा चाह रही थी संभवत: उसने जफयरयाब जिलानी से "डील" किया. हालांकि जिलानी की ही चिट्ठी से यह भी पता चलता है कि विश्व हिन्दू परिषद के कुछ और नेता जिलानी के साथ भी धोखाधड़ी का खेल खेल रहे थे. जफरयाब जिलानी को जो कुछ "देने" का आश्वासन दिया गया था उसके बदले में जिलानी बाबरी एक्शन कमेटी से बाबरी मस्जिद पर दावा छोड़ने का दबाव बनाते और अपना केस कमजोर करते. लेकिन विश्व हिन्दू परिषद के नेता इसलिए चूक गये क्योंकि वे इस मुद्दे का राजनीतिक लाभ भी लेना चाहते थे. जन ज्वार ने हिन्दुओं और मुसलमानों के सरगनाओं दोनों को शर्मसार कर दिया.

सांप्रदायिकता की राजनीति करनेवाले लोगों की असलियत क्या होती है, वह इस पूरे मामले में जफरयाब जिलानी को देखकर समझा जा सकता है. एक ओर वे अशोक सिंहल से बाबरी का सौदा कर रहे थे और सौदे पर खलल पड़ता देख अशोक सिंहल को कहते हैं कि कारसेवकों को रोकें, नहीं तो वे बदनाम हो जाएंगे तो दूसरी ओर जब छह दिसंबर को बाबरी गिरा दी जाती है तो 10 दिसंबर को वे संयुक्त राष्ट्र संघ को एक तार भेजते हैं जिसमें कहते हैं कि भारत में मुसलमानों का कत्लेआम किया जा रहा है. साक्ष्यों के अनुसार-जिस समय पूरा देश दिसम्बर 1992 के पहले हप्ते में साम्प्रदायिकता की आग में पूरी तरह से तप रहा था उस समय दोनों ही सम्प्रदायों के कथित मठाधीश बाबरी मस्जिद के नाम पर सौदेबाजी का घिनौना खेल-खेल 
रहे थे। दोनों ही कथित धर्मध्वजा वाहकों के बीच लेन-देन का खेल कैसे खेला गया यह इसी से स्पष्ट हो जाता है कि विवादित ढ़ॉचे के ध्वस्त होनें के दिन (06 दिसम्बर-1992) से ठीक दो दिन पहले ही मुस्लिमों के कथित पुरोधा जफरयाब जिलानी नें 04 दिसम्बर 1992 को अशोक सिघल (जो उस समय अयोध्या में मौजूद थे) के नाम एक खत लिख कर अपने विशेष पत्रवाहक के हाथों भेजा जिसमें स्पष्ट रुप से लिखा गया है कि ‘‘आप मिल नही पा रहे है, जिसकी वजह से बात नही हो पा रही है। पता चला है कि आप इस वक्त अयोध्या में हैं। खास बात यह है कि आपसे जों बात हुई थी उसकी खबर किसी तरह से हमारे कुछ साथियों को लग गयी है। इसलिए इस वक्त वह काम किसी तरह रूकवा लो जो पहले तय हुआ था, वरना हमारी बहुत बदनामी हो जाएगी। खबरों से पता चल रहा है कि कारसेवक काफी तादात में पहुंच रहे है जिन्हें अब रोकनें का काम आपका है, हमारी इज्जत आपके हाथों में है। हम आप पर भरोसा कर रहे है। शेष बातें मिलने पर होंगी।’’ अब जरा अपने दिमाग पर जोर डालिये और याद करिए कि आखिर क्या कारण था कि अशोक सिंहल कारसेवकों से उग्र न होने की अपील कर रहे थे? क्या 6 दिसम्बर को अयोध्या में कुछ कर गुजरने के लिए कटिबद्ध उग्र कारसेवकों को रोकने का काम अशोक सिंघल जिलानी के इसी पत्र के आ जाने के दबाव में कर रहे थे?

अब बात उस "बात" की जिसका हवाला जिलानी दे रहे हैं. बाबरी मस्जिद को बचाने की जंग लड़नेवाले अयोध्या में रामजन्मभूमि पर राम का अस्तित्व स्वीकार न करनेवाले जिलानी का भला रामनाम के किसी भवन में क्या दिलचस्पी हो सकती है? अशोक सिंहल ने लखनऊ के मॉडल हाउस स्थित रामभवन को आखिर जिलानी को क्यों दे दिया था? चाहे जिन भी कारणों से अशोक सिंघल ने ही जिलानी को दिया हो, जिलानी को मिला ‘‘राम भवन’’ उन दिनों मुस्लिम राजनीति में काफी चर्चा का विषय बना था। बताया जाता है कि मॉडल हाउस का यह ‘‘राम भवन’’ मकान हिन्दू धर्म के कथित ठेकेदार एवम् विश्व हिन्दू परिषद् के महासचिव अशोक सिंघल ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक ज़फरयाब जिलानी को दोस्ती नें 'उपहार' स्वरूप प्रदान किया है। इस मकान ‘‘राम भवन’’ के संदर्भ में चर्चा यह है कि इसके पूर्व के मालिक ‘‘जोधा राम’’ से मकान का सौदा विश्व हिन्दू परिषद् के महासचिव अशोक सिंघल ने किया, फिर इस मकान को सिंघल ने बतौर उपहार जिलानी को देने की पेशकश की, जिस पर जिलानी ने यह कह कर आपत्ति की कि यदि देना ही है तो उपहार स्वरूप न देकर ‘‘रजिस्ट्री’’ की जाय जिस पर संभवतः अशोक सिंघल को झुकना पड़ा था। अपने पत्र में जिलानी ने लिखा है- "मैंने आपको पहले ही कह दिया है कि लेन-देन किस प्रकार से होगा. इसे गिफ्ट के रूप में नहीं किया जाएगा."

यहॉ यह काबिले गौर है कि विश्व हिन्दू परिषद् के अशोक सिंघल व बाबरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी के संयोजक ज़फरयाब जिलानी के बीच लेन-देन का यह वार्तालाप ‘‘गुप्तपत्र’’ के माध्यम से ही होता रहा। बावरी मस्जिद ऐक्शन कमेटी के संयोजक द्वारा अशोक सिंघल को लिखे गए पत्र से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि अपने-अपने धर्म के दोनों कथित ठेकेदारों के कुछ बीच लेन-देन की राजनीति जरूर चलती रही है। क्योंकि सिंघल को लिखे गए पत्र में जिलानी ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि ‘‘हमारे बीच में जो लेन-देन हो वह उपहार स्वरूप न होकर वह विधिवत् बिक्री के रूप में दर्शाया जाये।" पत्र में जिलानी ने सिंघल के उन प्रश्नों का उत्तर भी दिया है, जिनका जवाब सिंघल ने अपने पत्रों के माध्यम से मांगा हैं, जिलानी ने उन प्रश्नों का भी उत्तर दिया है जो सिंघल ने कल्याण सिंह मंत्रिमण्डल के उर्जा एवम नगर विकास मंत्री लाल जी टंडन से मौखिक रूप से जिलानी तक पहुचाया था। पत्र में बाबरी एक्शन कमेटी के सदस्यों के विषय में जिलानी ने अशोक सिंघल को कुछ इन शब्दों में आश्वस्त किया है ‘‘अब्दुल मन्नान को तो हम किसी न किसी तरह समझौते के लिए मना लेंगे, रही बात मौलाना मुजफ्फर हुसैन किछौछवी की तो किछौछवी को मुसलमान अपना नेता मानता ही नही जिससे उनसे डरने की कोई आवश्यकता नहीं है, हॉ आज़म खॉ की भावुकता पर विश्वास नहीं किया जा सकता। फिर भी उन्हें समझाने का क्रम चल रहा है।" इस पत्र के माध्यम से यह स्पष्ट हो गया कि शुरू से ही दोनों कथित धार्मिक नेताओं में मित्रवत् एवं लेन-देन का व्यवहार चल रहा था। अगर ऐसा नहीं था तो जिलानी अपनी एक और चिट्ठी में अशोक सिंहल को भला क्यों लिख रहे हैं कि "मैंने अपना काम कर दिया है. और आगे भी हमारे आपके बीच जो तय हुआ है उसी के अनुसार काम करेंगे."

यहां यह जान लेना आवश्यक है कि- बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक ज़फरयाब जिलानी वकालत करते है। 1986 में ऐक्शन कमेटी के गठन से पूर्व मुसलमानों के इस कथित धर्म के बहुरुएिपए की आर्थिक स्थित कुछ विशेष अच्छी नहीं थी। पूर्व में जिलानी से जुड़े कुछ लोगों के अनुसार 86 से पूर्व जिलानी के पास 51- कच्चा हाता, अमीनाबाद, लखनऊ का ही एक मकान था जहॉ इस घटना तक जिलानी रहते थे। पर ऐक्शन कमेटी का गठन होने के बाद जिलानी के पास अकूत सम्पत्तियों की भरमार हो गई है। जिलानी से जब यह पूछा गया की इन सम्पतियों का रहस्य क्या है तो जिलानी के अनुसार मैंने हाउसिंग बोर्ड से एक मकान अपनी धर्म पत्नी श्रीमती अज़राज़फर के नाम ए-835
इन्दिरा नगर में लिया था, जिसे भी बाद में बेंच कर एक दूसरा मकान ले लिया। उस समय जिलानी की अकूत अचल सम्पत्तियों के रूप में लखनऊ-फैजाबाद मार्ग पर स्थित चिनहट का वह बाग भी काफी चर्चित रहा है जिसके सन्दर्भ में कहा जाता है कि ज़फरयाब जिलानी के भाई कमरयाब जिलानी ने ख्याति प्राप्त टुबैकों मर्चैन्ट अहमद हुसैन-दिलदार हुसैन से करीब 85 लाख रूपये में तीन चार वर्ष पूर्व खरीदा था।

इस समूचे प्रकरण पर जब जिलानी द्वारा अशोक सिंघल को लिखे गए पत्र की असलियत के लिए पूछा गया तो उनका जवाब यही था कि उनका लेटरपैड और उनके हस्ताक्षर है तो असली लेकिन पत्र गलत है। जब उनसे यह कहा गया कि जब आप स्वयं इस पत्र के लेटरपैड एवं हस्ताक्षर को सही मान रहे है तो यह गलत कैसे हो गया इस पर जनाब ज़फरयाब जिलानी का कहना था हमारे हस्ताक्षर को किसी ने कॉपी करके इस लेटरपैड पर लगा कर हमें बदनाम करने का प्रयास किया है। हमारे द्वारा जब यह कहा गया कि इस प्रकरण पर आपका भी पक्ष प्रस्तुत करते हुए खबर को लिखा जायेगा तो जिलानी साहब तैश में आकर वह फाइल दिखाने लगे जो वे अपने साथ लाये थे और धमकी देने के अंदाज में कहने लगे कि आपने अगर इस खबर को लिखा तो मैं आप पर भी मानहानी का मुकदमा दायर कर दूॅगा। क्योंकि इसी खबर पर हमने लखनऊ से एक निकलने वाले अखबार एवं बनारस से निकलने वाले एक अखबार पर मानहानी का मुकदमा दायर कर रखा था।

दो दिन बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट का लखनऊ बेंच अपना फैसला सुनाने जा रहा कि जमीन पर मालिकाना हक किसका होगा. अयोध्या से लेकर देवबंद तक एक ही आवाज सुनाई दे रही है कि अदालत का जो फैसला होगा वह मान्य होगा. जिसे स्वीकार नहीं होगा वह ऊंची अदालत का दरवाजा खटखटाएगा. अदालत जो भी फैसला दे, लेकिन जनता की अदालत का फैसला क्या होगा? अगर हिन्दू और मुसलमानों के रहनुमाओं ने देश के भावनाओं को भड़कानेवाले सबसे विवादास्पद मुद्दे को अपनी किसी डील का विषय बना दिया था तो क्या इसलिए कि वे अमन चैन चाहते थे? या फिर देश को सांप्रदायिक आग में झोंककर अपनी राजनीतिक और आर्थिक मजबूती सुनिश्चित कर रहे थे. बाबरी विध्वंस के बाद देश दुनिया में जितनी लाशें गिरी, जितने घर उजड़े, दिलों में जितनी दूरियां बढ़ीं क्या उसकी भरपाई कभी की जा सकेगी? या फिर जो लोग बाबरी को सांप्रदायिक उन्माद का प्रतीक बनाने में कामयाब रहे उन सियासतदानों को हम सिर्फ यह कहकर माफ कर देंगे कि-

‘‘कुछ भी कहो इन पर असर नही होता।
खानाबदोस आदमी का कोई घर नहीं होता।।
ये सियासत की तवायफ का दुपट्टा हैं साहिब।
जो किसी की आसुओं से तर नही होता।।’’

अयोध्‍या विवाद पर फैसला सुनाने पर 28 तक स्‍टे

अयोध्‍या में विवादित जमीन पर मालिकाना हक हिंदुओं का है या मुसलमानों का, इस पर आने वाला फैसला फिलहाल 28 सितंबर तक टल गया है। इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच 24 सितंबर को यह फैसला सुनाने वाली थी। लेकिन इसे टाले जाने की मांग वाली याचिका पर सुनवाई करते हुए गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी।

सुप्रीम कोर्ट ने सभी संबंधित पक्षों को नोटिस जारी किया और 28 तारीख को सुनवाई की अगली तारीख तय कर दी। फैसला टाले जाने की दलील देते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि ऐसा जनहित में किया जा रहा है।

इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच की तीन जजों की पीठ को शुक्रवार को बताना था कि अयोध्या में विवादित जमीन पर मालिकाना हक किसका है। हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच फैसला टाले जाने की मांग वाली रमेश चंद्र त्रिपाठी की याचिका 17 सितंबर को खारिज कर चुकी थी। उन पर 50,000 रुपए का जुर्माना भी लगाया गया था। लेकिन त्रिपाठी यही मांग लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। उनकी दलील है कि इस विवाद का अदालत के बाहर हल निकल सकता है और इसके लिए थोड़ा समय दिए जाने की जरूरत है। लिहाजा फैसला टाला जाए। सुप्रीम कोर्ट ने एक तरह से उनकी दलील मानते हुए तर्क दिया कि इस मामले में ‘हीलिंग टच’ की जरूरत है।

पहले सुनवाई से कर दिया था सुप्रीम कोर्ट ने इंकार
सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को त्रिपाठी की याचिका पर सुनवाई करने से इनकार कर दिया था। लेकिन बृहस्पतिवार को कोर्ट में हुई सुनवाई हुई। कल यह याचिका जस्टिस अल्तमश कबीर तथा एके पटनायक की बेंच के समक्ष लगाई गई थी। बेंच ने इस पर सुनवाई से इनकार करते समय यह नहीं बताया था कि मामले को पुन: सुनवाई के लिए कब लिया जाएगा। जस्टिस कबीर ने कहा था कि चीफ जस्टिस की इजाजत से रजिस्ट्रार यह मामला सुनवाई के लिए समुचित बेंच को सौंपेंगे। बेंच ने कहा था कि एक सिविल मामला होने के कारण हमें इस पर फैसले का हक नहीं है। ऐसे में यह मामला वैसी बेंच के पास जाएगा, जिसके पास हक है।

साठ साल से चल रहा है मुकदमा
अयोध्या में विवादित स्थल की जमीन के मालिकाना हक को लेकर 1950 से मुकदमा चल रहा है। इसमें चार मुख्य दावेदार हैं- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा, रामजन्मभूमि न्यास तथा दिवंगत गोपाल सिंह विशारद। इनके वकीलों का कहना है कि वे कोई समझौते की बात नहीं चला रहे हैं। केवल निर्मोही अखाड़ा ने फैसले की तारीख तीन दिन बढ़ा कर 27 सितंबर करने की बात की थी।

फैसला टाले जाने पर किसने क्‍या कहा
मैं सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आहत हूं। इस पूरे मामले में असामाजिक और त‍थाकथित राजनीतिक तत्वों ने वकीलों की मेहनत पर पानी फिरवा दिया है।
-रंजना अग्निहोत्री, श्रीराम जन्मभूमि पुनर्उद्धार समिति की वकील

हमें सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार है। हालांकि, हम चाहते थे कि यह फैसला जल्द से जल्द आए।
जफरयाब जिलानी, सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के वकील

इस मामले में याचिकाकर्ता रमेशचंद्र त्रिपाठी का इरादा संदेह के दायरे में है। रमेश चंद्र त्रिपाठी के पीछे कौन लोग हैं, यह देखा जाना चाहिए।
- रविशंकर प्रसाद, भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्‍ता


अयोध्या विवाद का फैसला कौन टलवाना चाहता है?
अयोध्या के फैसले को टालने व मध्यस्तता की मांग करने वाले रमेशचंद्र त्रिपाठी के पीछे कौन है ! इस रहस्य से अभी तक पर्दा नही उठ सका है। इस मामले में उत्तर प्रदेश और केंद्र सरकार से जुड़े नौकरशाह की चर्चा हो रही है। त्रिपाठी सेना में एकाउंटेंट थे, लेकिन इनका राम जन्म भूमि विवाद से पुराना नाता है।

जानकारों के मुताबिक करीब 15 साल की उम से वे इस मुद्दे से किसी न किसी तरह जुड़े है। मुकदमें मे इनकी पहचान प्रतिवादी संख्या 17 के रूप में है। हालांकि ये निष्क्रियपक्षकार के रूप में चर्चित है।

कांग्रेस के नेता व प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय श्रीपति मिश्र के रिश्ते के भाई है। स्वर्गीय मिश्र के बेटे पूर्व एमएलसी राकेश मिश्र ने कहा कि त्रिपाठी रिश्तेदार जरूर है पर पिता के स्वर्गवासी होने के बाद उन्होने आना कम कर दिया इसलिए उनसे मुलाकात नही हुई है। सुना है कि वे लखनऊ में अपनी बेटी के परिवार के साथ रहते है। त्रिपाठी मूल रूप से अंबेडकरनगर जिले रहने वाले है।

त्रिपाठी ने 2005 में अयोध्या विवाद में गवाही दी थी। इनके अधिवक्ता अयोध्या के वीरेश्वर द्विवेदी थे। जिनकी बहस के बाद फैजाबाद कोर्ट ने विवादित स्थल का ताला खोला था। त्रिपाठी ने अपनी गवाही में कई तथ्यात्मक भूले की थी। त्रिपाठी की गवाही पर सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधिवक्ता जफरयाब जिलानी ने आपत्ति की थी। त्रिपाठी ने कोर्ट में कहा था कि दोपहर के समय मेरी याददाश्त कम हो जाती है।

त्रिपाठी ने अपनी गवाही में 1946 से 1949 की घटनाओं का जि‎क्र किया। जिस पर जिलानी ने उनसे सवाल किया कि आप भूल रहे है तो 1946 से 1949 की घटनाओं की याद आप को कैसे है तो त्रिपाठी ने कहा था कि मेरी स्मृति में पुरानी बातें रहे गइ है। 1987 में पिंडारी ग्लेशियर में स्नोबर्ग में फंसने के बाद से याददाश्त कमजोर हुई है। अयोध्या मामले में त्रिपाठी ने गवाही जरूर दी लेकिन अपनी निष्क्रियता के कारण लिखित बयान दाखिल नही किया था।

लखनऊ बेंच में त्रिपाठी की फैसला टालने और मध्यस्तता कराने की अर्जी पर सुनवाई के दौरान वे कोर्ट में मौजूद थे। पत्रकरों के सवालों का जवाब देते हुए त्रिपाठी अयोध्या विवाद का फैसला आने से रोकने के लिए उनके पीछे कोई और नही है। यह उनका स्वयं का निर्णय है।

त्रिपाठी ने कहा कि अर्जी देने में देर भले ही हुई है देशहित में ऐसी कोशिश करना गलत नहीं है। उन्होने कहा कि देश के कई राज्य वैसे ही नक्सलवाद और माओवाद जैसी परेशानियों से जूझ रहा हैं। देश में राष्ट्रमंडल खेल भी होने जा रहे हैं। ऐसे में जोखिम नहीं लिया जा सकता है। राज्य सरकार ने भी खतरे को देखते हुए केंद्र से बड़ी संख्या में अर्ध सैनिक बलों की मांगा है। इसीलिए मामले की सुनवाई कर रही विशेष पूर्ण पीठ के सामने अर्जी देकर फसला टालने व मध्यस्तता की मांग की थी।

त्रिपाठी की सक्रियता सुन्नी वक्फ बोर्ड के अधिवक्ताओं के गले के नीचे नही उतर रही है। ऐसा ही कुछ जन्मभूमि पक्ष के अधिवकताओं का है। गौरतलब है कि अयोध्या मामले की विशेष पीठ ने त्रिपाठी की अर्जी को खारिज करते हुए 50 हजार कर जुर्माना ठोका है।


...और ढह गई बाबरी मस्जिद

6 दिसंबर 1992 को जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ढांचे को ढहाया जा रहा था तो उस वक्त हजारों साल पुरानी हिंदू-मुस्लिम एकता भी ढह रही थी। हिंदूओं के एक बड़े तबके का मनाना है कि बाबरी मस्जिद राम मंदिर को ढहा कर बनाई गई थी जब मुसलमानों के एक तबका इससे इंकार करता है। इन सब के बीच पूरा मामला कोर्ट में गया, कोर्ट के साथ फिर देश में इसे लेकर राजनीति शुरू हुई और देखते-देखते राम मंदिर निर्माण को लेकर एक पूरा का पूरा आंदोलन ही खड़ा हो गया। इस आंदोलन की अगुवाई राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों ने की। इसमें भाजपा, विहिप जैसे संगठन शामिल थे। तस्वीरों में देखिए कैसे ढहा दी गई बाबरी मस्जिद..


अयोध्या के बारे में जानिए सबकुछ

अयोध्या उत्तर प्रदेश प्रान्त का एक शहर है। यह फैजाबाद जिले के अन्तर्गत आता है। रामजन्मभूमि अयोध्या उत्तर प्रदेश में सरयू नदी के दाएं तट पर बसा है। प्राचीन काल में इसे कौशल देश कहा जाता था। अयोध्या हिन्दुओं का प्राचीन और सात पवित्र तीर्थस्थलों में एक है। अथर्ववेद में अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है और इसकी संपन्नता की तुलना स्वर्ग से की गई है। रामायण के अनुसार अयोध्या की स्थापना मनु ने की थी। कई शताब्दियों तक यह नगर सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी रहा। अयोध्या मूल रूप से मंदिरों का शहर है। यहां आज भी हिन्दू, बौद्ध, इस्लाम और जैन धर्म से जुड़े अवशेष देखे जा सकते हैं। जैन मत के अनुसार यहां आदिनाथ सहित पांच र्तीथकरों का जन्म हुआ था।

रामकोट

शहर के पश्चिमी हिस्से में स्थित रामकोट अयोध्या में पूजा का प्रमुख स्थान है। यहां भारत और विदेश से श्रद्धालुओं का साल भर आना-जाना लगा रहता है। मार्च-अप्रैल में रामनवमी पर्व यहां बड़े जोश और धूमधाम से मनाया जाता है।

त्रेता के ठाकुर

यह मंदिर उस स्थान पर बना है जहां भगवान राम ने अश्वमेघ यज्ञ का आयोजन किया था। लगभग 300 साल पहले कुल्लू के राजा ने यहां एक नया मंदिर बनवाया। इस मंदिर में इंदौर के अहिल्याबाई होल्कर ने 1784 में और सुधार किया। उसी समय मंदिर से सटे हुए घाट भी बनवाए गए। कालेराम का मंदिर नाम से लोकप्रिय नये मंदिर में जो काले बलुआ पत्थर की प्रतिमा स्थापित है वह सरयू नदी से हासिल की गई थी।

हनुमान गढ़ी

नगर के केन्द्र में स्थित इस मंदिर में 76 कदमों की चाल से पहुंचा जा सकता है। कहा जाता है कि हनुमान यहां एक गुफा में रहते थे और रामजन्मभूमि और रामकोट की रक्षा करते थे। मुख्य मंदिर में बाल हनुमान के साथ अंजनि की प्रतिमा है। श्रद्धालुओं का मानना है कि इस मंदिर में आने से उनकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं।

नागेश्वर नाथ मंदिर

कहा जाता है कि नागेश्वर नाथ मंदिर को भगवान राम के पुत्र कुश ने बनवाया था। माना जाता है जब कुश सरयू नदी में नहा रहे थे तो उनका बाजूबंद खो गया था। बाजूबंद एक नाग कन्या को मिला जिसे कुश से प्रेम हो गया। वह शिवभक्त थी। कुश ने उसके लिए यह मंदिर बनवाया। कहा जाता है कि यही एकमात्र मंदिर है जो विक्रमादित्य के काल के बाद सुरक्षित बचा है। शिवरात्रि का पर्व यहां बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है।

कनक भवन

हनुमान गढ़ी के निकट स्थित कनक भवन अयोध्या का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह मंदिर सीता और राम के सोने के मुकुट पहने प्रतिमाओं के लिए लोकप्रिय है। इसी कारण बहुत बार इस मंदिर को सोने का घर भी कहा जाता है। यह मंदिर को टीकमगढ़ की रानी ने 1891 में बनवाया था।

जैन मंदिर

हिन्दुओं के मंदिरों के अलावा अयोध्या जैन मंदिरों के लिए भी खासा लोकप्रिय है। जैन धर्म के अनेक अनुयायी नियमित रूप से अयोध्या आते रहते हैं। अयोध्या को पांच जैन र्तीथकरों की जन्मभूमि भी कहा जाता है। जहां जिस र्तीथकर का जन्म हुआ था, वहीं उस र्तीथकर का मंदिर बना हुआ है। इन मंदिरों को फैजाबाद के नवाब के खजांची केसरी सिंह ने बनवाया था।

वायु मार्ग-

अयोध्या का निकटतम एयरपोर्ट लगभग 140 किलोमीटर की दूरी पर लखनऊ में है। यह एयरपोर्ट देश के प्रमुख शहरों से विभिन्न फ्लाइटों के माध्यम से जुड़ा है।

रेल मार्ग-

फैजाबाद अयोध्या का निकटतम रेलवे स्टेशन है। यह रेलवे स्टेशन मुगल सराय-लखनऊ लाइन पर स्थित है। उत्तर प्रदेश और देश के लगभग तमाम शहरों से यहां पहुंचा जा सकता है।

सड़क मार्ग-

उत्तर प्रदेश सड़क परिवहन निगम की बसें लगभग सभी प्रमुख शहरों से अयोध्या के लिए चलती हैं। राष्ट्रीय और राज्य राजमार्ग से अयोध्या जुड़ा हुआ है।
सत्ता के साथ कमजोर हुआ राम मंदिर आंदोलन

देखते ही देखते राम मंदिर आंदोलन को दो दशक बीत गए। इस बीच अयोध्या की सरयू नदी में काफी पानी बह चुका है। आंदोलन के समय कई नेता, साध्वी और संत खूब सुर्खियों में रहे। धुआंधार और आग उगलने वाले भाषणों ने उन्हें जमकर लोकप्रियता दिलाई। जिनकी एक आवाज पर लाखों की भीड़ मैदानों में उमड़ती थी, वे वक्त के साथ जाने कहां खो गए। छह दिसंबर 1992 के बाद आंदोलन की आग ठंडी होती गई। अगली कतार के नेताओं में से कुछ तो मंदिर को पीछे छोड़कर भाजपा की राजनीति के सहारे आगे बढ़ गए, लेकिन ज्यादातर खुद को आज तक ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं। सत्ता में आकर मंदिर को भूल बैठी भाजपा से उन्हें ढेरों शिकायतें रही हैं। उनका कहना है कि भाजपा ने यह मुद्दा हथियाकर सियासी फायदा बटोरा। आंदोलन के इन किरदारों में से अब कोई भागवत कथाओं में व्यस्त है तो कोई पिछड़े इलाकों में शिक्षा के प्रसार में जुटा है। कुछ शीर्ष बुजुर्ग नेताओं का जोश उम्र और सेहत के चलते ढलान पर है। तस्वीरों में देखिए इन नेताओं को

मस्जिद तोड़े जाने ने समाज में दरार पैदा कर दी

आज़ादी के बाद भारत में हिंसा की कम से कम तीन ऐसी बड़ी घटनाएँ हुई हैं जिन्होंने उसे अंदर तक झिंझोड़ दिया. सिख विरोधी दंगे, बाबरी मस्जिद ध्वंस और गुजरात का नरसंहार.

इसमें से दो का संबंध धर्म या आस्था से था. जाहिर है उनका असर समाज और उसकी सोच पर ज्यादा पड़ा.

बाबरी मस्जिद तोड़े जाने ने समाज में ऐसी दरार पैदा की जिसे भरना मस्जिद को दोबारा तामीर करने से ज्यादा मुश्किल हो गया. यह दरार ऊपर नहीं दिखती लेकिन अंदरूनी घाव की तरह है.

तक़रीबन हज़ार साल की साझा विरासत के हवाले से समाज ने उसे लीप-पोतकर ठीक कर दिया. लेकिन जरा सा खुरचने पर टीस उभर आती है.

अयोध्या एक छोटा सा कस्बा है. स्थायी आबादी क़रीब तीस हज़ार. धर्मनगरी होने के नाते साल में कुछेक दिन लाखों लोग इकट्ठा होते हैं.

बाबरी मस्जिद तोड़े जाने ने समाज में ऐसी दरार पैदा की जिसे भरना मस्जिद को दोबारा तामीर करने से ज्यादा मुश्किल हो गया. यह दरार ऊपर नहीं दिखती लेकिन अंदरूनी घाव की तरह है. तक़रीबन हज़ार साल की साझा विरासत के हवाले से समाज ने उसे लीप-पोतकर ठीक कर दिया. लेकिन जरा सा खुरचने पर टीस उभर आती है.

किंवदंती के मुताबिक़ सीता को मुँह दिखाई में मिला कनक भवन और पवनपुत्र की हनुमान गढ़ी उसके भव्यतम आकर्षण केंद्र. पूरब में सदानीरा सरयूजी.

किसी धर्मनगरी की तरह अयोध्या में भी मंदिर रहते हैं. उनके बीच में लोग और उदारता.

कहते हैं कि वहाँ हर घर मंदिर है और मंदिर घर. बांट कर देखना संभव नहीं.

लेकिन इस सघन बस्ती में खुलापन बहुत है. इतनी गुंजाइश की सबको थोड़ी सी जगह मिल जाए. आस्था के दूसरे रंगों को भी. दिगंबर जैन मंदिर, गुरुद्वारा, प्राचीन बौद्ध विहार और पचास से ज्यादा मस्जिदें.

हर मायने में अयोध्या देश का गुटका संस्करण है, जहाँ संक्षेप में सब कुछ उपलब्ध है.

दिसंबर, 1992 में अयोध्या पर हुआ हमला दरअसल इसी उदारता और खुलेपन पर हमला था.

कोशिश उसे नष्ट करने की थी ताकि वहाँ और देश के दीगर हिस्सों में लोगों के साथ डर रहने लगे.

लेकिन वे अल्पज्ञानी थे. नहीं जानते थे कि अयोध्या अ-योध्या है, अवध अ-वध्य है.

हज़ार साल का साझा चार घंटे में नहीं टूटता. अयोध्या थोड़ा-सा हिलडुलकर फिर अपनी जगह आ गई.

दरार

इस दौरान दो चीजें टूटीं. बाबरी मस्जिद और उसके साथ अयोध्या की छवि.

इस घटना में राजनीति थी. पर राजनीति इससे प्रभावित होने वाली सबसे छोटी चीज रही होगी. उसका सतही असर सियासत में आए फेरबदल में दिखाई दिया और धुल भी गया. नफ़रत और ख़ून से सींची ज़मीन पर फसलें नहीं उगतीं. सियासत की ऐसी ज़मीन टिकाऊ नहीं होती.
उसकी शक्ल आधा उठी दीवार और उस पर तने त्रिपाल की रह गई. जैसे इसके अलावा अयोध्या में कुछ हो ही नहीं.

इस हमले के बावजूद अयोध्या ने अपनी उदारता नहीं छोड़ी. डर-सहमकर चले गए लोगों को वापस बुला लिया. उन्हें रोज़गार दिया. जगह बना दी.

लेकिन एक काम अयोध्या भी नहीं कर पाई. घरों और दिलों से डर निकालने का.

डर लोगों के साथ रहता है, ख़ासकर मुस्लिम परिवारों के. वह जाते-जाते ही जाएगा.

प्रसिद्ध दार्शनिक रामचंद्र गांधी के शब्दों में बाबरी मस्जिद पर हमला मस्जिद पर नहीं बल्कि भारतीय सोच पर था.

किसी इमारत पर आक्रमण हिंसा का क्रूरतम उदाहरण है, क्योंकि इमारत निहत्थी होती है. अपना बचाव नहीं कर सकती.

यह एक निहत्थे-निरपराध व्यक्ति को घेरकर मारने से ज्यादा ख़तरनाक़ है.

मस्जिद का ध्वंस दुनिया को अहिंसा का पाठ पढ़ाने वाले देश की सामूहिक सोच को नकारना था. बुद्ध और गांधी को विरासत को खारिज करना था.

इस घटना में राजनीति थी. पर राजनीति इससे प्रभावित होने वाली सबसे छोटी चीज रही होगी. उसका सतही असर सियासत में आए फेरबदल में दिखाई दिया और धुल भी गया.

नफ़रत और ख़ून से सींची ज़मीन पर फसलें नहीं उगतीं. सियासत की ऐसी ज़मीन टिकाऊ नहीं होती

अयोध्या में कब-कब क्या हुआ?

अयोध्या विवाद भारत के हिंदू और मुस्लिम समुदाय के बीच तनाव का एक प्रमुख मुद्दा रहा है और देश की राजनीति को एक लंबे अरसे से प्रभावित करता रहा है.

भारतीय जनता पार्टी और विश्वहिंदू परिषद सहित कई हिंदू संगठनों का दावा है कि हिंदुओं के आराध्यदेव राम का जन्म ठीक वहीं हुआ जहाँ बाबरी मस्जिद थी.

उनका दावा है कि बाबरी मस्जिद दरअसल एक मंदिर को तोड़कर बनवाई गई थी और इसी दावे के चलते छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद गिरा दी गई.

इसके अलावा वहाँ ज़मीन के मालिकाना कब्ज़े का विवाद है.

मामले-मुक़दमे अदालतों में चल रहे हैं और इस बीच लिब्राहन आयोग ने अपनी रिपोर्ट दे दी है.

जानिए अयोध्या में कैसे घूमा है समय का पहिया पिछली पाँच सदियों में.

1528: अयोध्या में एक ऐसे स्थल पर एक मस्जिद का निर्माण किया गया जिसे कुछ हिंदू अपने आराध्य देवता राम का जन्म स्थान मानते हैं. समझा जाता है कि मुग़ल सम्राट बाबर ने यह मस्जिद बनवाई थी जिस कारण इसे बाबरी मस्जिद के नाम से जाना जाता था.

हिंदू उस जगह पर राम मंदिर बनाना चाहते हैं

1853: पहली बार इस स्थल के पास सांप्रदायिक दंगे हुए.

1859: ब्रितानी शासकों ने विवादित स्थल पर बाड़ लगा दी और परिसर के भीतरी हिस्से में मुसलमानों को और बाहरी हिस्से में हिंदुओं को प्रार्थना करने की अनुमति दे दी.1949: भगवान राम की मूर्तियां मस्जिद में पाई गयीं. कथित रुप से कुछ हिंदूओं ने ये मूर्तियां वहां रखवाईं थीं. मुसलमानों ने इस पर विरोध व्यक्त किया और दोनों पक्षों ने अदालत में मुकदमा दायर कर दिया. सरकार ने इस स्थल को विवादित घोषित करके ताला लगा दिया.

1984: कुछ हिंदुओं ने विश्व हिंदू परिषद के नेतृत्व में भगवान राम के जन्म स्थल को "मुक्त" करने और वहाँ राम मंदिर का निर्माण करने के लिए एक समिति का गठन किया. बाद में इस अभियान का नेतृत्व भारतीय जनता पार्टी के एक प्रमुख नेता लालकृष्ण आडवाणी ने संभाल लिया.1986: ज़िला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं को प्रार्थना करने के लिए विवादित मस्जिद के दरवाज़े पर से ताला खोलने का आदेश दिया. मुसलमानों ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद संघर्ष समिति का गठन किया.

1989: विश्व हिंदू परिषद ने राम मंदिर निर्माण के लिए अभियान तेज़ किया और विवादित स्थल के नज़दीक राम मंदिर की नींव रखी.1990: विश्व हिंदू परिषद के कार्यकर्ताओं ने बाबरी मस्जिद को कुछ नुक़सान पहुँचाया. तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने वार्ता के ज़रिए विवाद सुलझाने के प्रयास किए मगर अगले वर्ष वार्ताएँ विफल हो गईं.

1992: विश्व हिंदू परिषद, शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने 6 दिसंबर को बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया. इसके परिणामस्वरूप देश भर में हिंदू और मुसलमानों के बीच सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे जिसमें 2000 से ज़्यादा लोग मारे गए.1998: प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी ने गठबंधन सरकार बनाई.

2001: बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी पर तनाव बढ़ गया और विश्व हिंदू परिषद ने विवादित स्थल पर राम मंदिर निर्माण करने के अपना संकल्प दोहराया.

हिंदू संगठनों के कार्यकर्ताओं ने छह दिसंबर, 1992 को विवादित ढाँचा गिरा दिया था

जनवरी 2002: अयोध्या विवाद सुलझाने के लिए प्रधानमंत्री वाजपेयी ने अयोध्या समिति का गठन किया. वरिष्ठ अधिकारी शत्रुघ्न सिंह को हिंदू और मुसलमान नेताओं के साथ बातचीत के लिए नियुक्त किया गया.

फ़रवरी 2002: भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे को शामिल करने से इनकार कर दिया. विश्व हिंदू परिषद ने 15 मार्च से राम मंदिर निर्माण कार्य शुरु करने की घोषणा कर दी. सैकड़ों हिंदू कार्यकर्ता अयोध्या में इकठ्ठा हुए. अयोध्या से लौट रहे हिंदू कार्यकर्ता जिस रेलगाड़ी में यात्रा कर रहे थे उस पर गोधरा में हुए हमले में 58 कार्यकर्ता मारे गए.13 मार्च, 2002: सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में कहा कि अयोध्या में यथास्थिति बरक़रार रखी जाएगी और किसी को भी सरकार द्वारा अधिग्रहीत ज़मीन पर शिलापूजन की अनुमति नहीं होगी. केंद्र सरकार ने कहा कि अदालत के फ़ैसले का पालन किया जाएगा.

15 मार्च, 2002: विश्व हिंदू परिषद और केंद्र सरकार के बीच इस बात को लेकर समझौता हुआ कि विहिप के नेता सरकार को मंदिर परिसर से बाहर शिलाएं सौंपेंगे. रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत परमहंस रामचंद्र दास और विहिप के कार्यकारी अध्यक्ष अशोक सिंघल के नेतृत्व में लगभग आठ सौ कार्यकर्ताओं ने सरकारी अधिकारी को अखाड़े में शिलाएं सौंपीं.22 जून, 2002: विश्व हिंदू परिषद ने मंदिर निर्माण के लिए विवादित भूमि के हस्तांतरण की माँग उठाई.

जनवरी 2003: रेडियो तरंगों के ज़रिए ये पता लगाने की कोशिश की गई कि क्या विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद परिसर के नीचे किसी प्राचीन इमारत के अवशेष दबे हैं, कोई पक्का निष्कर्ष नहीं निकला.मार्च 2003: केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से विवादित स्थल पर पूजापाठ की अनुमति देने का अनुरोध किया जिसे ठुकरा दिया गया.

अप्रैल 2003: इलाहाबाद हाइकोर्ट के निर्देश पर पुरातात्विक सर्वेक्षण विभाग ने विवादित स्थल की खुदाई शुरू की, जून महीने तक खुदाई चलने के बाद आई रिपोर्ट में कहा गया है कि उसमें मंदिर से मिलते जुलते अवशेष मिले हैं.मई 2003: सीबीआई ने 1992 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी सहित आठ लोगों के ख़िलाफ पूरक आरोपपत्र दाखिल किए.

जून 2003: काँची पीठ के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती ने मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थता की और उम्मीद जताई कि जुलाई तक अयोध्या मुद्दे का हल निश्चित रूप से निकाल लिया जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.

हाईकोर्ट ने आडवाणी पर आपराधिक मुक़दमा चलाने की अनुमति नहीं दी है

अगस्त 2003: भाजपा नेता और उप प्रधानमंत्री ने विहिप के इस अनुरोध को ठुकराया कि राम मंदिर बनाने के लिए विशेष विधेयक लाया जाए.

अप्रैल 2004: आडवाणी ने अयोध्या में अस्थायी राममंदिर में पूजा की और कहा कि मंदिर का निर्माण ज़रूर किया जाएगा.जुलाई 2004: शिव सेना प्रमुख बाल ठाकरे ने सुझाव दिया कि अयोध्या में विवादित स्थल पर मंगल पांडे के नाम पर कोई राष्ट्रीय स्मारक बना दिया जाए.

जनवरी 2005: लालकृष्ण आडवाणी को अयोध्या में छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद के विध्वंस में उनकी कथित भूमिका के मामले में अदालत में तलब किया गया.जुलाई 2005: पाँच हथियारबंद चरमपंथियों ने विवादित परिसर पर हमला किया जिसमें पाँचों चरमपंथियों सहित छह लोग मारे गए, हमलावर बाहरी सुरक्षा घेरे के नज़दीक ही मार डाले गए.

06 जुलाई 2005 : इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के दौरान 'भड़काऊ भाषण' देने के मामले में लालकृष्ण आडवाणी को भी शामिल करने का आदेश दिया. इससे पहले उन्हें बरी कर दिया गया था.28 जुलाई 2005 : लालकृष्ण आडवाणी 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में गुरूवार को रायबरेली की एक अदालत में पेश हुए. अदालत ने लालकृष्ण आडवाणी के ख़िलाफ़ आरोप तय किए.

04 अगस्त 2005: फ़ैजाबाद की अदालत ने अयोध्या के विवादित परिसर के पास हुए हमले में कथित रूप से शामिल चार लोगों को न्यायिक हिरासत में भेजा.

लिब्रहान आयोग ने 17 सालों बाद अपनी रिपोर्ट सौंप दी है

20 अप्रैल 2006 : कांग्रेस के नेतृत्ववाली यूपीए सरकार ने लिब्रहान आयोग के समक्ष लिखित बयान में आरोप लगाया कि बाबरी मस्जिद को ढहाया जाना सुनियोजित षड्यंत्र का हिस्सा था और इसमें भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, बजरंग दल और शिव सेना की 'मिलीभगत' थी.

जुलाई 2006 : सरकार ने अयोध्या में विवादित स्थल पर बने अस्थाई राम मंदिर की सुरक्षा के लिए बुलेटप्रूफ़ काँच का घेरा बनाए जाने का प्रस्ताव किया. इस प्रस्ताव का मुस्लिम समुदाय ने विरोध किया और कहा कि यह अदालत के उस आदेश के ख़िलाफ़ है जिसमें यथास्थिति बनाए रखने के निर्देश दिए गए थे.19 मार्च 2007 : कांग्रेस सांसद राहुल गाँधी ने चुनावी दौरे के बीच कहा कि अगर नेहरू-गाँधी परिवार का कोई सदस्य प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जिद न गिरी होती. उनके इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हुई.

30 जून 2009: बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के मामले की जाँच के लिए गठित लिब्रहान आयोग ने 17 वर्षों के बाद अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी.सात जुलाई, 2009: उत्तरप्रदेश सरकार ने एक हलफ़नामे में स्वीकार किया कि अयोध्या विवाद से जुड़ी 23 महत्वपूर्ण फ़ाइलें सचिवालय से ग़ायब हो गई हैं.

24 नवंबर, 2009: लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश. आयोग ने अटल बिहारी वाजपेयी और मीडिया को दोषी ठहराया और नरसिंह राव को क्लीन चिट दी.20 मई, 2010: बाबरी विध्वंस के मामले में लालकृष्ण आडवाणी और अन्य नेताओं के ख़िलाफ़ आपराधिक मुक़दमा चलाने को लेकर दायर पुनरीक्षण याचिका हाईकोर्ट में ख़ारिज.

26 जुलाई, 2010: रामजन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विवाद पर सुनवाई पूरी.

Tuesday, September 21, 2010

इल्म की आड़ जुल्म का पहाड़

मदरसों को इल्म की इबादतगाह कहा जाता है. मगर इनमें से कई इसकी बजाय जुल्म की पनाहगाह बन गए हैं जहां बिहार और दूसरे राज्यों से गरीब बच्चों को लाया जाता है और फिर उनसे हर दिन 12-12 घंटे तक मजदूरी करवाई जाती है- कभी फैक्टरियों में भेजकर, कभी मदरसे के भीतर, कभी नाममात्र का पैसा देकर तो कभी मुफ्त में. नेहा दीक्षित की पड़ताल

उत्तरी दिल्ली की शकूरपुर बस्ती. मुसलिम बहुल इस इलाके में एक चारमंजिला इमारत है. यह दारुल उजलूम निजामिया गासुल उलूम मदरसा है जिसकी सबसे निचली मंजिल पर एक मस्जिद है. बाहर से देखने पर आपको ऐसा कुछ नजर नहीं आएगा जो इसे देश के बाकी 35 हजार मदरसों से अलग करता हो. लेकिन तहलका की पड़ताल के बाद यह सच सामने आया कि समुदाय की आंखों में धूल झोंकते हुए दारुल उजलूम मदरसा ऐसे कामों को अंजाम दे रहा है जो न सिर्फ उसके असल मकसद के खिलाफ जाते हैं बल्कि कानून के नजरिए से अपराध की श्रेणी में भी आते हैं.

यहां इस समस्या का एक और अंधेरा पहलू दिखता है और वह है मजहब के नाम पर गरीबों से बच्चे छीनना और फिर उन्हें एक नरक में धकेल देना
मुसलिम समाज में मदरसों की हमेशा से खासी अहमियत रही है. ये धार्मिक शिक्षा का केंद्र तो हैं ही, गरीब इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए अनौपचारिक शिक्षा का एक सुलभ जरिया भी हैं. भारत में ज्यादातर मदरसे देवबंदी, बरेलवी या अहले-हदीथ संप्रदायों से संबद्ध हैं और जकात (भलाई के कामों के लिए अपनी आय का 2.5 हिस्सा दान करना) से मिले पैसे से इनका खर्च पूरा किया जाता है. इसी रवायत के तहत 1992 में दारुल उजलूम मदरसा शुरू हुआ था. बरेलवी संप्रदाय के तीन मौलवियों ने इसकी स्थापना की थी. मदरसे का मकसद 150 मुसलिम बच्चों के रहने, खाने और पढ़ने की व्यवस्था सुनिश्चित करना था. लेकिन हमने पाया कि इस मदरसे से बच्चों को गैरकानूनी तरीके से 12-12 घंटों की पालियों में आसपास की फैक्टरियों और दुकानों में काम करने के लिए भेजा जा रहा था.

ऐसा ही एक बच्चा है अनीस. दस साल का अनीस बिहार के पूर्णिया जिले का रहने वाला है. उसके पिता वहां दिहाड़ी मजदूर हैं. उल्लेखनीय है कि बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद भारत में सबसे ज्यादा मुसलिम आबादी वाला राज्य है. 2001 की जनगणना के मुताबिक राज्य के 87 फीसदी मुसलिम ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और इनमें से 49 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करते हैं. औसतन देखा जाए तो राज्य के ग्रामीण इलाकों में हर तीन में से दो मुसलिम परिवार कम-से-कम अपने एक बच्चे को उसके बेहतर भविष्य की उम्मीद में घर से दूर भेज देते हैं. अनीस का परिवार भी इन्हीं में से एक है. उसके पिता की दिहाड़ी 50 रुपए है जो आठ सदस्यों के परिवार के लिए दो वक्त का खाना जुटाने के लिहाज से काफी नहीं. इन्हीं हालात में एक शख्स जिसे वे 'चाचू' कहते हैं, ने उन्हें सलाह दी थी वे अपने सबसे बड़े बेटे को दिल्ली के मदरसे में भरती करवा दें जिससे वह हाफिज कुरान (वह व्यक्ति जिसे पूरी कुरान कंठस्थ होती है) बन सके (चाचू बाल तस्करी की दुनिया में आम शब्द है. कई बार ये रिश्तेदार या परिचित होते हैं जो मां-बाप से झूठे वादे करते हैं और उन्हें बच्चों को उनके साथ भेजने के लिए फुसलाते हैं. शिकंजे में फंसे हर बच्चे के लिए ऐसे चाचुओं को दो से ढाई हजार रु कमीशन मिलता है). अनीस के पिता तुरंत ही इस पर राजी हो गए और अपने बेटे को चाचू के सुपुर्द कर दिया. यह अनीस के मदरसे तक आने की कहानी है.

मदरसे की इन गतिविधियों के बारे में हमें एक सामाजिक कार्यकर्ता से सूचना मिली थी. इसके भीतर दाखिल होने के लिए तहलका संवाददाता ने खुद को फंड मुहैया करवाने वाले लखनऊ के एक एनजीओ का प्रतिनिधि बताया. हमारे छिपे हुए कैमरे के सामने मदरसे में अनीस से हमारी बातचीत हुई.

अनीस : चाचू ने कहा था कि हाफिज कुरान बनने के बाद मैं मस्जिद में इमाम बन जाऊंगा और मुझे पांच हजार की पगार मिलेगी.
तहलका : क्लास कितने बजे होती है?
अनीस : सुबह आठ से दस बजे तक.
तहलका : सिर्फ दो घंटे?
अनीस : हां, उसके बाद मैं काम करने जाता हूं.
तहलका : काम करने कहां जाते हो?
अनीस : ब्रिटैनिया बिस्किट फैक्टरी.
(तहलका ने अलग से अनीस के ब्रिटैनिया बिस्किट
फैक्टरी में काम करने की पुष्टि नहीं की है)
तहलका : क्या काम करते हो वहां ?
अनीस : पैकिंग करता हूं.
तहलका : काम करने का वक्त क्या है?
अनीस : दोपहर के दो बजे से रात दस बजे तक.
तहलका : वहां कितना पैसा मिलता है?
अनीस : 2,500.
तहलका : कितने वक्त से काम कर रहे हो?
अनीस : चार महीने से.
तहलका : तुम्हारे पास आई-कार्ड है?
अनीस : हां.
तहलका : तुम्हारे अब्बू-अम्मी को पता है कि तुम काम करते हो?
अनीस : नहीं.


" मैं सुबह नौ बजे से रात के साढ़े नौ बजे तक एक जूता फैक्ट्री में काम करता हूं. मुझसे कहा गया है कि मुझे हर महीने तीन हजार रुपए मिलेंगे. सेठ कहता है कि वह मुझे पैसे तब देगा जब मैं वापस अपने गांव जाऊंगा "

- जमील, 13 वर्ष

बातचीत के दौरान हम जैसे ही अनीस से पूछते हैं कि वह फैक्टरी से मिले पैसे का क्या करता है, मौलवी उसे कमरे से बाहर जाने को कह देते हैं.

इजाजत लेने के बाद हम इमारत का चक्कर लगाते हैं. ट्रेन के डिब्बों की तरह एक के पीछे एक बने छोटे-छोटे कमरे. इनमें बच्चों का सामान ठुंसा पड़ा है और खाली और खुली जगह कम ही दिखती है. कुछ कमरे खुले हैं और ज्यादातर बंद. साफ है कि अधिकांश बच्चे काम पर गए हैं. अनीस की दो बजे वाली शिफ्ट का वक्त भी होने ही वाला है.

बाल श्रम भारत में नई बात नहीं है मगर यहां इस समस्या का एक और अंधेरा पहलू दिखता है और वह है मजहब के नाम पर गरीबों से उनके बच्चे छीनना और फिर उन्हें एक ऐसे नरक में धकेल देना जहां हाड़तोड़ मेहनत है, नाम को खाना और काम के बदले अकसर कुछ नहीं.

तहलका की इस पड़ताल का दायरा बहुत बड़ा (दिल्ली के पांच मदरसे) तो नहीं मगर इससे जो संकेत मिलते हैं वे जरूर चिंता जगाते हैं. मानव संसाधन और शिक्षा मंत्रालय के अनुमानों के मुताबिक देश भर में 35 हजार मदरसे हैं और इनमें तकरीबन 15 लाख छात्र पंजीकृत हैं. अकेले दिल्ली में पांच हजार मदरसे हैं और इस आंकड़े में उन मदरसों की संख्या शामिल नहीं है जो बिना पंजीकरण के चल रहे हैं.

यह हमारे लिए काफी हैरानी भरी बात थी कि दारुल उजलूम मदरसा के मौलवी असरार-ए-कादरी और नसीम अझाई ने हमारे सामने खुलकर माना कि बच्चों को काम करने के लिए बाहर भेजा जाता है. वे हमें कागजात भी दिखाते हैं जिनमें उनके काम करने की जगहों के नाम और पते दर्ज हैं. हो सकता है कि यह बेपरवाह नजरिया उस घनघोर गरीबी को देखकर उपजता हो जिसमें ये बच्चे मदरसे आने से पहले रह रहे थे. यह भी हो सकता है वे उस एनजीओ से फंड मिलने के लालच में यह कर रहे हों जिसके हम प्रतिनिधि बनकर गए थे.

इसके बाद हमारी मौलवी नसीम अझाई से बातचीत होती है -

तहलका : हम यह जानना चाहते हैं कि क्या मदरसे के बच्चे कहीं काम करते हैं.
नसीम : देखिए, गरीब लोग अपने बच्चों का खर्चा नहीं उठा सकते. यदि बच्चे थोड़ा बहुत काम करके कुछ कमाई कर लें तो इसमें कोई बुराई नहीं है.
तहलका : क्लास किस वक्त होती है?
नसीम : सुबह 8 बजे से 11:30 तक. लेकिन जिन बच्चों को पहले काम पर जाना होता है उन्हें हम 10 बजे ही छोड़ देते हैं.
तहलका : वे कहां काम करते हैं?
नसीम : जरी फैक्टरी, कोल्ड स्टोर, कपड़ा फैक्टरी, मोबाइल शॉप और दूसरी दुकानों में.
तहलका : ये नजदीक ही हैं?
नसीम : हां. शकूरपुर गांव में सड़क के पार हैं.
तहलका : बच्चों का सारा खर्च मदरसा उठाता है?
नसीम : हां, खाने, रहने और पढ़ने का पूरा खर्च हम ही उठाते हैं.
तहलका : बच्चों को कितने वक्त का खाना दिया जाता है?
नसीम : जो बच्चे काम पर जाते हैं उनके बारे में तो हम नहीं बता सकते. जो मदरसे में रुकते हैं उन्हें खाना दिया जाता है.
तहलका : मदरसे में कितने बच्चे रहते हैं?
नसीम : 150.
तहलका : इनमें से कितने काम पर नहीं जाते?
नसीम : सिर्फ 30.

हालांकि तहलका को इसके सबूत नहीं मिले कि मौलवी को उन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से कोई सीधा फायदा होता है जहां ये बच्चे काम करने जाते हैं, लेकिन नसीम की बातों से बहुत-सी सच्चाइयां उजागर हो जाती हैं. कादरी और नसीम मदरसा चलाने के खर्च के बारे में बात करते हैं. बच्चों के तीन वक्त के खाने का मासिक खर्चा 600 रुपए होता है लेकिन नसीम के शब्दों में ‘हम बच्चों के मालिकों से कहते हैं कि उन्हें खाना भी दें.’ जैसे कि नसीम हमें पहले बता चुके हैं कि 150 में से 120 बच्चे काम पर जाते हैं. वे मदरसे के बाहर ही खाना खाते होंगे. इस हिसाब से हर महीने मदरसा चलाने में 72 हजार रुपए का खर्च बचता होगा. इसका कोई हिसाब नहीं है कि मौलवी इस बचत का इस्तेमाल कैसे करते हैं.

खाना और भूख इस कहानी का सबसे दर्दनाक पहलू है. अनीस की तरह ही 11 साल का मोहम्मद कल्लन भी इसी मदरसे में रहता है. कल्लन शकूरपुर की एक कपड़ा फैक्टरी में काम करता है जहां उसकी सुबह नौ बजे से रात के नौ बजे तक 12 घंटे की शिफ्ट होती है. कल्लन के मुताबिक वह जींस की सिलाई करता है जिसमें अक्षय कुमार की फोटो आती है. हालांकि तहलका अलग से यह पुष्टि नहीं कर सका कि ये जींस असली होती हैं या नकली, पर कल्लन की बात से जाहिर होता है कि वह उस फैक्टरी में काम करता है जहां स्पाइकर ब्रांड के लिए जींस बनाई जाती हैं.

बच्चों को काम पर भेजने के बारे में मौलवी नसीम का तर्क था कि गरीब बच्चे काम करके कुछ कमाई कर लें तो कोई हरजा नहीं है, लेकिन विडंबना यह है कि कल्लन को कभी पगार ही नहीं दी गई. कल्लन बचपन की पूरी मासूमियत के साथ कहता है, 'कोई बात नहीं, अभी तो मैं ट्रेनी हूं, उन्होंने कहा है कि अगले साल से मुझे हर महीने 1,200 रुपया पगार देंगे.'


"चाचू ने कहा था कि हाफिज कुरान बनने के बाद मुझे इमाम के तौर पर पांच हजार रु की नौकरी मिल सकती है. अभी मैं दो बजे से दस बजे तक ब्रिटैनिया फैक्टरी में काम करता हूं"

- अनीस, 10 वर्ष

बिहार में मधेपुरा के रहने वाले कल्लन के अब्बू का इंतकाल हो चुका है. कोई जहांगीर चाचू उसे 2008 में मधेपुरा से लाकर दारुल उजलूम मदरसे में भरती करा गया था. कल्लन इसी मदरसे के अपने 25 साथियों के साथ काम पर जाता है. सभी से कहा गया था कि उन्हें दिन में दो बार खाना भी मिलेगा. कल्लन के मुताबिक रात में जब वे काम खत्म करते हैं तो उन्हें दो रोटी और थोड़ा-सा मटन दिया जाता है. लेकिन सुबह जब वे मदरसे से बिना कुछ खाए-पिए निकलते हैं तो फैक्टरी में एक कप चाय दी जाती है और साथ में दो ब्रेड जिनमें आयोडेक्स लगा होता है. कल्लन बताता है, ‘खाने पर पहले पेट में जलन होती है फिर मुंह में ठंडा लगने लगता है.’ खाने में आयोडेक्स का इस्तेमाल नशे के तौर पर होता है. यह किडनी और तंत्रिकातंत्र पर घातक असर डालता है. इसे खाने के बाद नशे की हालत में बच्चे घंटों तक बिना रुके काम करते रहते हैं. असंगठित क्षेत्र में बिना लिखा-पढ़ी के काम पर रखे गए बच्चों को ट्रेनी या अप्रेंटिस के तौर पर रखना आम बात है. ऐसा मजदूरी की लागत बचाने के लिए किया जाता है. अप्रेंटिसशिप कानून के मुताबिक यह गैरकानूनी है. स्वाभाविक ही है कि फैक्टरी मालिकों से इस मुद्दे पर बात करने की हमारी सारी कोशिशें नाकाम रहती हैं.
शकूरपुर बस्ती की इस दारुल उजलूम मस्जिद में हर शुक्रवार को 500 लोग नमाज पढ़ने आते हैं. लेकिन इनमें से किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं कि यहां पर कुछ ऐसा भी हो रहा है जिसे कुरान के मुताबिक गुनाह माना जाता है.

उत्तरी दिल्ली के खजूरी खास इलाके में भी एक मदरसा है. लगभग ढाई कमरे की जगह घेरने वाले इस फैज-ए-आजम मदरसे से बच्चे काम करने बाहर नहीं जाते बल्कि यही उनकी मजदूरी की जगह है. उमस भरे माहौल में यहां 5 से 10 साल की उम्र के तकरीबन 20 बच्चे बिंदियां पैक कर रहे हैं. कमरे में न पंखा है और न कुदरती रोशनी. तेज आवाज में रेडियो बज रहा है और मेजों पर झुके बच्चे बिंदियों पर चमकीले दाने चिपकाने में व्यस्त हैं.

एक दिन पहले हम यहां बिंदियों के कारोबारी की हैसियत से आ चुके थे. हम बच्चों को देख ही रहे होते हैं कि अचानक मौलवी इफ्तेकार कादरी (मदरसे के संचालक) हड़बड़ी में कमरे में आते हैं और बच्चों से किताबें निकालने को कहते हैं. मानो सब कुछ पहले से तय हो, बिंदियों के पैकेट अलग रख दिए जाते हैं, बच्चे चार लाइनों में व्यवस्थित होकर बैठ जाते हैं, ब्लैक बोर्ड खींचकर लटका दिया जाता है और इसके साथ ही मौलवी बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देते हैं.

शायद उन्हें किसी ने खबर दे दी है कि मदरसे पर छापा पड़ने वाला है. कुछ ही देर के बाद यहां श्रम निरीक्षक गिरीश राज और एक स्वयंसेवी संस्था शांति वाहिनी के सदस्य पुलिस के साथ पहुंचते हैं. 27 बच्चों को बचा लिया जाता है. कुछ खिड़की के रास्ते भाग जाते हैं. इसके बाद मौलवी से पूछताछ की जाती है. हम जब कादरी से पूछते हैं कि वे बच्चों का शोषण क्यों करते हैं तो उनका जवाब आता है, ‘मैं मदरसा तीन दिन पहले ही आया हूं. मुझे बिंदी के धंधे के बारे में कुछ पता नहीं.’ उधर, शाहदरा के एसएचओ हमें बताते हैं कि जांच से बचने के लिए मौलवी झूठ बोल रहे हैं. श्रम निरीक्षक राज भी एसएचओ की बात की पुष्टि करते हैं. वे कहते हैं, ‘सच्चाई यह है कि बच्चे वहां रहते हैं और काम करते हैं. जब भी हम छापा मारकर उन्हें पकड़ने की कोशिश करते हैं तो तुरंत ही बिंदी बनाने की जगह कक्षा में बदल दी जाती है.’

बाल मजदूरी और शोषण की इस सामाजिक समस्या को गंभीर बनाने में फैज-ए-आजम जैसे गैरमान्यताप्राप्त मदरसों की काफी अहम भूमिका है. यह मदरसा जिस मोहल्ले में बना है वहां आस-पड़ोस के लोगों को इसके बारे में शक था लेकिन किसी के पास पुख्ता जानकारी नहीं थी. इसके पास ही रहने वाली मेहनाज बताती हैं, ‘छह साल से यहां हम दो-तीन लोगों को आते-जाते देख रहे हैं, लेकिन बच्चे बाहर नहीं निकलते. हमने जब भी पूछा कि इतने सारे बच्चे क्यों रखे गए हैं तो बताया गया कि यह मदरसा है. लेकिन वे स्थानीय बच्चों को मदरसे में दाखिला नहीं देते. हर बार कुछ महीने बाद नए बच्चे आ जाते हैं.'

यहां न तो सरकार की नजर है और न ही समुदाय के लोग इस पर ध्यान देते हैं. यही वजह है कि मोहम्मद अकमल जैसे बच्चे मौलवी इफ्तेकार कादरी जैसों के चंगुल में फंस जाते हैं. मूल रूप से बिहार के अररिया जिले का रहना वाला नौ साल का अकमल दो साल पहले यहां आया है. अकमल के पिता, जो रिक्शा चलाकर अपना गुजर-बसर करते हैं, ने उसे साकिब के साथ दिल्ली भेजा था. अकमल के चचेरे भाई साकिब ने उसे यहां आते ही कादरी साहब के सुपुर्द कर दिया. उसके बाद साकिब दोबारा उनसे मिलने कभी नहीं आया. यहां आने के बाद से ही इस सात साल के बच्चे को काम में लगा दिया गया. बच्चे यहां सुबह सात बजे से लेकर रात के दस बजे तक लगातार काम करते हैं. इस दौरान उन्हें छत पर जाने की भी इजाजत नहीं होती. अकमल बताता है, ‘मौलवी साहब ने बताया था कि जल्दी ही क्लासें शुरू होंगी तब तक मुझे यह काम सीखना चाहिए. लेकिन अभी तक क्लासें शुरू नहीं हुई हैं.’ इसके बाद अकमल हमें जो आपबीती सुनाता है वह हमारे रोंगटे खड़े करने के लिए काफी है. अकमल बताता है, ‘मैं पहले बहुत धीरे काम करता था, एक दिन में सिर्फ 20-30 पैकेट ही बना पाता था. एक दिन कादरी साहब नाराज हो गए और सब लोगों से कहा कि मुझे सबक सिखाएं.’ फिर सब बच्चों से उसके ऊपर थूकने और पेशाब करने को कहा गया. अकमल आगे कहता है, ‘मैं खूब रोया, मैंने उल्टियां भी कीं लेकिन उसके बाद मैं तेजी से काम करने लगा.’

अकमल अब एक दिन में बिंदियों के 100 पैकेट तैयार कर लेता है. दो साल से वह घर नहीं गया. जाना चाहता है, अपने छोटे भाई रफीक के साथ गिल्ली-डंडा खेलना चाहता है. लेकिन मजबूर है. अपने काम के लिए उसे हर इतवार को 50 रुपए मिलते हैं. उसकी जिंदगी में वही थोड़ी राहत का दिन होता है क्योंकि इनसे वह एक होटल में जाकर ढंग का खाना खाता है.

मौलवी इफ्तिकार कादरी और उनके साझीदारों को कठघरे में खड़ा करते हुए एसडीएम एके शर्मा कहते हैं कि मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों के हाथों बनाई गई बिंदियां बेचकर ये लोग 40,000 रुपए महीने तक कमाते हैं और इस तरह मजहब और मानवता का खून करते हैं.

जैसा कि हमने पहले भी कहा, तहलका की यह पड़ताल एक बहुत बड़ी और गंभीर समस्या की छोटी-सी झलक हो सकती है. इस समस्या की जड़ें कितनी गहरी हैं, अंदाजा लगाना मुश्किल है पर बेशक यह एक गंभीर चेतावनी तो है ही. कई सालों से बाल तस्करी पर काम कर रहे बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) नाम के एक संगठन के मुताबिक उसने पिछले एक साल में दिल्ली के अलग-अलग मदरसों से करीब 50 बच्चों को छुड़ाया है.


"एक बार पुलिस का छापा पड़ा तो सेठ ने मुझे बांधकर एक बोरे में बंद कर दिया. दिन भर मैं गोदाम में पड़ा रहा. शाम को जब उन्होंने बोरा खोला तो मैं बेहोश था. मैं सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक काम करता हूं"

- जुनैद, 9 वर्ष

शक्ति वाहिनी को चलाने वाले ऋषिकांत कहते हैं, ‘यह बहुत संवेदनशील मामला है. जिम्मेदार संस्थानों को इसके खिलाफ तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए. इस तरह की चीजें हमारे लिए बिलकुल नई हैं. मैं एकदम सही आंकड़े तो नहीं बता सकता लेकिन पिछले एक महीने में ऐसे 15 मामले मेरे सामने आए हैं जिनमें हम 10 बच्चों को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और कुछ मदरसों से निकाल पाने में कामयाब रहे हैं. बच्चों को इस वादे पर लाया जाता है कि उन्हें मदरसों में पढ़ाया जाएगा, लेकिन यहां लाकर उन्हें कारखानों में फेंक दिया जाता है. गृह मंत्रालय और एनसीपीसीआर (राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग) को चाहिए कि इन मदरसों के लिए सख्त हिदायतें बनाई जाएं. जो बच्चे यहां पढ़ते हैं उनका पंजीयन हो और उनका ब्योरा सरकारी दस्तावेजों में हो ताकि पुलिस और गैरसरकारी संस्थानों को इस तरह की तस्करी पर अंकुश लगाने में कुछ मदद मिल सके.’
ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी इस पर सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘यह शर्मनाक है कि बच्चों की तस्करी करने वालों का धार्मिक संस्थाओं के साथ गठजोड़ हो गया है. दो साल पहले हमें बाल तस्करी के इस नए तरीके के संकेत मिले थे जब हमने बिहार-नेपाल सीमा से कुछ बच्चों को छुड़वाया था. बहुत पूछताछ के बाद पता लगा कि उन बच्चों को मदरसों में ले जाया जा रहा था ताकि धार्मिक संस्थाओं की आड़ में उनसे मजदूरी करवाई जा सके. अभी तक हम तकरीबन 150 बच्चों को ऐसे लोगों की गिरफ्त से छुड़वा चुके हैं. ये लोग जांच एजेंसियों की आंखों में धूल झोंकते हुए बाल शोषण के नए-नए तरीके ईजाद करते हैं. बस नाम के मदरसों में बच्चों को रखकर उनसे मजदूरी करवाना इन्हीं तरीकों में से एक है. बचपन बचाने और मदरसों से जुड़े इन रैकेटों का पर्दाफाश करने के लिए मुसलिम नेताओं और मौलवियों को आगे बढ़कर हमारा साथ देना होगा क्योंकि किसी भी धार्मिक ढांचे की छानबीन का मसला बहुत संवेदनशील है और यह हमारे काम में बड़ी मुश्किलें खड़ी करता है.'

पिछले साल सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने केंद्रीय मदरसा बोर्ड बनाने का प्रस्ताव रखा था. इसका काम होता परीक्षाएं करवाने, पाठ्यक्रम डिजाइन करने और बुनियादी सुविधाओं का सृजन करने में मदद करना. शायद इस तरह मदरसों की व्यवस्था में कुछ हद तक जवाबदेही आती. इससे पहले कि यह प्रस्ताव पारित होता मुसलिम समुदाय के एक धड़े की आलोचना के चलते इसे ठंडे बस्ते में रख देना पड़ा.

दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली में राज्य मदरसा बोर्ड तक नहीं है जो कम से कम इस घटिया खेल को कुछ हद तक ही सही, रोक पाता. शाहदरा के एसएचओ ईश्वर सिंह कहते हैं, ‘शुरू में जब भी बच्चों को इस चंगुल से छुड़वाने हम मदरसों में जाते तो मौलवी हमें मदरसे का सर्टिफिकेट दिखाकर दरवाजे से लौटा देते थे, लेकिन बाद में जब ऐसी शिकायतें बढ़ने लगीं तो हम सक्रिय हुए और उनके दस्तावेजों की जांच-पड़ताल शुरू की. दो मामलों में सर्टिफिकेट फर्जी निकले. पिछले छह महीनों में पांच मदरसों से बिंदी बनाने और जरी के कारखानों में काम करने वाले 30 बच्चों को छुड़वाने में हमें कामयाबी मिली है. इस मामले को लेकर अब हमारी सजगता बढ़ गई है.’
सात साल का मोहम्मद नन्हे एलएनजेपी कॉलोनी में बने एक छोटे-से मदरसे से छुड़वाया गया है जिसका नाम उसे याद नहीं (बचाने वाली संस्था बताती है कि यह अलिया अरबिया मदरसा है). यह पूछने पर कि वह करता क्या था, नन्हे झट से चांदी का झुमका बनाने का तरीका बताने लगता है, ‘चांदी का लंबा-सा तार लो. उसको दो हिस्सों में काटो. फिर हरे और लाल मोती को एक-एक कर उस तार में लगाओ और झुमका तैयार. नन्हे के मुताबिक वह एक दिन में 20 जोड़े झुमके बना सकता था और कई विदेशी इन्हें थोक में खरीदने आते थे.

लेकिन सीखने की यह प्रक्रिया क्रूरता से भरी हुई है. बिहार के कटिहार जिले से यहां लाए गए नन्हे को जरूरत से ज्यादा तार लगाने की सजा के तौर पर ऐसी यातना दी गई जिसे सुनकर रूह कांप जाती है. तारों को काटने वाले वायर कटर से उसकी दाईं हथेली इस निर्ममता से दबाई गई कि उसकी दो उंगलियां टूट गईं और बाकी में गहरा जख्म हो गया. दो साल की भयावह यातना झेलने के बाद नन्हे और उसके तीन दोस्तों को वहां से छुड़ाकर मुक्ति आश्रम (नई दिल्ली के बुराड़ी गांव में बीबीए द्वारा बनाया गया छोटा-सा घर) लाया गया. हम नन्हे से पूछते हैं कि क्या उसने कभी अपने मां-बाप को अपनी हालत के बारे में बताया, तो वह कहता है, ‘क्या फायदा है? वे बेमतलब रोएंगे, चिल्लाएंगे और परेशान होंगे.’ महज सात साल के बच्चे का ऐसा जवाब जाने कितने सवाल खड़े करता है.
बीबीए के अध्यक्ष आरएस चौरसिया कहते हैं, ‘नन्हे जैसे बच्चों ने इतनी यातना झेली है कि इन्हें सलाह दे पाना या समझा पाना बहुत मुश्किल है. एक बार सारी कानूनी प्रक्रियाएं पूरी हो जाएं तो फिर उसके मां-बाप से बातचीत कर हम उसे घर पहुंचवा देंगे. इन बच्चों की दोबारा तस्करी न हो, इसके लिए इनका पुनर्वास जरूरी है.’

बचपन के साथ हो रहे इस खतरनाक खिलवाड़ में फंसे बच्चों में बिहार के बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है. एक अनुमान के अनुसार बिहार में कुल 4,000 मदरसे हैं, बावजूद इसके वहां लोग अपने बच्चों को इतनी दूर दिल्ली भेजते हैं. असल में उन्हें भरमाया जाता है कि देश की राजधानी में उनके बच्चों को बेहतर जिंदगी मिलेगी.

बिहार के सीतामढ़ी जिले से बरगला कर लाए गए नौ साल के जुनैद की कहानी भी ऐसी ही है. उसे भी कोई चाचू छह दूसरे बच्चों के साथ नांगलोई (उत्तर दिल्ली) के जीनातुल मदरसे तक लेकर आया था. खजूरी खास में बने फैज-ए-आजम मदरसे की तरह नांगलोई का यह मदरसा भी किसी संप्रदाय या संस्था से संबद्ध नहीं है. बल्कि कहा जाए तो यह मदरसा नहीं बल्कि एक अस्थायी डेरा है जहां बच्चे बंधुआ मजदूरी पर जाने से पहले कुछ समय के लिए रखे जाते हैं.

जुनैद बताता है, 'चाचू ने कहा कि वे शाम को लौट आएंगे. लेकिन साल भर होने को आया वे अभी तक नहीं लौटे.' इस बीच मौलाना अल्लामा हसनैन रजा खान - जिसके जिम्मे जुनैद को सौंपा गया था- ने उसे किसी और के हाथ सौंप दिया जिसे वह सेठ के नाम से पुकारता था. यह सेठ प्रशांत प्रसाद नाम का एक शख्स था जिसकी नांगलोई इलाके में जूतों की फैक्टरी थी, जिसे जूतालैंड के नाम से पुकारा जाता था. दूसरे बच्चों के साथ जुनैद सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक इस फैक्टरी में काम करता था. उन दिनों को याद करते हुए वह बताता है, 'एक बार पुलिस ने फैक्टरी पर छापा मारा तो सेठ ने मुझे बोरे में बांधकर गोदाम में छिपा दिया था.' शाम को बोरा खोला गया तो वह बेहोश हो चुका था. जुनैद को 1,200 रुपए महीना तनख्वाह देने का वादा किया गया था जो उसे कभी नहीं मिली. जुनैद कहता है, 'सेठ ने कहा कि जब मैं घर जाऊंगा तब पैसे मुझे मिलेंगे.'

खुद को एक खरीददार बताकर तहलका जूतालैंड पहुंचा जो नांगलोई पुलिस थाने से महज 500 मीटर दूर है. अब पढ़िए प्रशांत प्रसाद ने कैमरे के सामने क्या कहा.

तहलका : जूतालैंड में आप कौन-सा ब्रांड बनाते हैं?
प्रशांत : हम सभी लोकल ब्रांड बनाते हैं.
तहलका : जैसे?
प्रशांत : एक्शन, कैंपस, बेसिक, ऐक्टिव, बाटा.
तहलका : आप कारीगर कहां से लाते हैं?
प्रशांत : बिहार
तहलका : कैसे?
प्रशांत : वहां हमारे लोग हैं.

इसके बाद असहज प्रशांत आगे किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर देता है. हालांकि तहलका स्वतंत्र रूप से इस बात की पुष्टि नहीं कर सका कि जूतालैंड उन ब्रांडों की सप्लाई चेन का हिस्सा है या नहीं जिनका जिक्र प्रशांत ने किया था, लेकिन प्रशांत ने अपनी फैक्टरी में निर्मित बाटा चप्पल का एक सैंपल हमें जरूर मुहैया करवाया (Art. no. 601-9008). इस बात की पुष्टि पंजाबी बाग के एसडीएम पीआर झा भी करते हैं. झा भी बचाव टीम के सदस्य थे. वे कहते हैं, ‘छुड़ाए गए बच्चे फैक्टरी के सिलाई वाले विभाग में काम करते थे, वे बाटा की चप्पलें तैयार कर रहे थे’ बाजार में बहुतायत में मौजूद नकली वस्तुओं को देखते हुए जरूरी नहीं कि यहां असली माल ही बन रहा हो, मगर बड़ी कंपनियों के लिए ये एक चेतावनी तो है ही कि वे अपनी निर्माण चेन की निगरानी कड़ाई से करें.
इसी साल 5 मार्च को बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) ने जूतालैंड से 27 बच्चों को छुड़ाया. इनमें से एक 10 वर्षीय साहिल से बातचीत में वहां की अमानवीय स्थितियों का अंदाजा मिलता है. इसकी असेंबली लाइन में काम करने वाले बच्चों ने भी यहां तमाम बड़े ब्रांडों के स्पोर्ट शूज बनाए जाने की बात कही. यहां हम एक बार फिर कहना चाहेंगे कि तहलका स्वतंत्र रूप से इन दावों की पुष्टि नहीं कर सका.

तहलका : तुम फैक्टरी में क्या करते थे?
साहिल : मैं सिलाईवाले डिपार्टमेंट में था.
तहलका : कितनी देर तक काम करना पड़ता था?
साहिल : 12 घंटे की शिफ्ट थी.
तहलका : तुम्हारी उम्र कितनी है?
साहिल : दस.
तहलका : तुम्हें तनख्वाह कितनी मिलती थी?
साहिल : एक घंटे के 30 रुपए.

(इतनी छोटी उम्र में साहिल शायद अपनी आय का अनुमान नहीं लगा सकता. यही सवाल हमने दूसरे और उम्र में बड़े जामिल से पूछा.)

तहलका : कौन-से ब्रांड बनाते थे?
जामिल : एडीडास, रिबॉक और एयरफोर्स.
तहलका : सेठ तुम्हें कितनी तनख्वाह देता था?
जामिल : 3,000.
तहलका : कब से यहां काम कर रहे हो?
जामिल : दो साल से.
तहलका : तुम्हारी उम्र कितनी है?
जामिल : 13.
तहलका : कभी तनख्वाह मिली?
जामिल : सेठ कहते थे कि जब मैं गांव जाऊंगा तब वे मुझे पैसे देंगे.
तहलका : तुम्हारा गांव कहां है?
जामिल : नालंदा, बिहार में.
तहलका : कितने से कितने बजे तक काम करते थे?
जामिल : सुबह 9 बजे से रात 9.30 बजे तक.


"मैं सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक जींस पर पॉकेट की सिलाई का काम करता हूं. नाश्ते में ब्रेड और आयोडेक्स खाता हूं. कुछ देर पेट में जलन होती है फिर मुंह में ठंडा लगता है"

-मोहम्मद कल्लान, 11 वर्ष

लेकिन मौलाना कादरी की तरह ही प्रशांत प्रसाद भी एक हफ्ते के भीतर जमानत पर रिहा हो गया. देश भर में बाल तस्करी की व्यापक समस्या के बावजूद इसके खिलाफ कानून बेहद लचर हैं. बच्चों की खरीद-फरोख्त करने वाले के खिलाफ इनमें से किसी भी कानून के तहत कार्रवाई की जा सकती है- भारतीय दंड संहिता, बालश्रम विरोधी कानून, जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट और बंधुआ मजदूर कानून. हालांकि इन कानूनों के तहत छह महीने तक की जेल की सजा का प्रावधान है, लेकिन जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट को छोड़कर बाकी मामलों में जमानत हो सकती है. जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट भी सिर्फ दिल्ली में ही गैरजमानती है. अगर आरोपित पर बालश्रम विरोधी कानून के तहत कार्रवाई होती है तो उसके ऊपर प्रति बालक 20,000 रुपए का जुर्माना लगाने का प्रावधान है. यह रकम उस कोष में जमा हो जाती है जिसका उपयोग छुड़ाए गए बच्चों की 18 साल की उम्र तक देखरेख के लिए किया जाता है. अगर आरोपित को बंधुआ मजदूर कानून के तहत गिरफ्तार किया जाता है तो उसे बच्चों के मां-बाप को तत्काल ही 20,000 रुपए देने पड़ते हैं. साफ है कि ये सभी कानून बाल तस्करी रोकने के लिए नाकाफी हैं.
लेकिन सबसे दुखद पहलू अभी बाकी है. तस्करी किए गए इन बच्चों की कहानी का सबसे बुरा पहलू है इनका यौन शोषण. दक्षिणी दिल्ली के मुसलिम बहुल इलाके जामिया नगर की संकरी गलियों में मदरसों की एक पूरी शृंखला है जो महज नाम के लिए मदरसे हैं. ये दरअसल इन इलाकों में मौजूद अनगिनत जरी और कढ़ाई की दुकानों में काम करने वाले बच्चों की आपूर्ति के केंद्र जैसे हैं (इस धंधे में बच्चों को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि उनकी पतली और फुर्तीली उंगलियों से काम तेजी और आसानी से होता है).
12 वर्षीय सद्दाम चार साल पहले उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर से पढ़ाई के लिए तर्तुल कुरान जामिया मदरसा (बटला हाउस के पास) आया था. यह मदरसा देवबंद से जुड़ा हुआ है. इस मदरसे में सद्दाम हर रविवार को दो घंटे शरीयत की पढ़ाई करता है. सप्ताह के बाकी दिन वह एक जरी फैक्टरी में सुबह 7 बजे से रात के 12 बजे तक काम करता है. शुरुआत में सद्दाम ने खुद पर हो रही ज्यादती का विरोध किया. वह बताता है, 'सेठ ने मुझसे कपड़े उतारने के लिए कहा और मेरे साथ गलत काम किया. जब उसने यह बात मदरसे के मौलवी शाह अहमद नूरानी को बताई तो उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘मजा आया?’

यह सद्दाम की बेबसी का मजाक था. इस सदमे को बर्दाश्त करने के लिए वह लिक्विड जूता पॉलिश सूंघने लगा. सड़कों पर रहने वाले गरीब बच्चों के बीच नशाखोरी के लिए इसका इस्तेमाल आम बात है. सद्दाम कहता है, 'इससे मुझे राहत मिलती थी. मैं इससे जोश महसूस करता था.' वह आज तक एक बार भी घर नहीं गया है. कैसे जाए, इतने पैसे ही नहीं होते. उसने एक बार फैक्टरी से भागने की कोशिश भी की लेकिन उसे पकड़ लिया गया और अगले दो दिन तक जंजीरों से बांधकर रखा गया. सद्दाम कहता है कि वह फिर से भागने की कोशिश करेगा.

जब तहलका इस बात की पुष्टि करने के लिए मदरसा पहुंचा तो मदरसे के प्रमुख मौलवी हसन अबरार ने यह कहते हुए हमसे बात करने से इनकार कर दिया कि हम मदरसे की छवि और इस्लाम को बदनाम करना चाहते हैं.

खुशकिस्मती से समुदाय के दूसरे बुजुर्ग इतने अड़ियल नहीं हैं. तहलका ने इस संबंध में दारुल इफ्ता उलूम देवबंद के प्रमुख मुफ्ती हबीबुर रहमान से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि मदरसा बाल श्रमिकों की आपूर्ति कर रहा है. उनका कहना था, 'अगर ऐसा हो रहा है तो हम इसकी पुरजोर मजम्मत करते हैं. यह गुनाह है.'

देश भर की मस्जिदों के इमामों की संस्था अखिल भारतीय इमाम संगठन के अध्यक्ष जनाब अल-हाज हजरत मौलाना जमील अहमद इलियासी और भी कड़ा रुख दिखाते हुए कहते हैं, 'ये वक्त की जरूरत है कि मदरसे मुसलिम समुदाय की तरक्की और उसे रास्ता दिखाने में अहम भूमिका निभाएं. उनके काम ऐसे हों जिनसे मुसलमान आपसी भाईचारे और इंसानियत की बातें सी

परिंदों से दरिंदगी

इन हरे कबूतरों के पंख कतर दिए गए हैं चाहे पिंजरे में कैद हों या फिर जंगल में आजाद, परिंदों की जान को भारत में आफत ही है. बर्डवॉचिंग यानी पंछियों को देखने का शौक पूरा करने के लिए अब मुंह अंधेरे उठने और दूरबीन साथ में लेकर चलने की जरूरत नहीं. बस एक बार दिल्ली के चांदनी चौक हो आइए. यहां आपको तोते से लेकर मुनिया तक हर वह परिंदा मिल जाएगा जो देश के आसमान से गायब हो रहा है.
जिन पक्षियों को छोटे में ही पकड़ लिया गया हो उन्हें यूं ही छोड़ देना उनकी हत्या जैसा है क्योंकि उन्हें खुद अपना खाना ढूंढना नहीं आताचिड़ियों के व्यापारी रहमान अली यहां दोहरी बल्कि कहें तो दोगली भूमिका में हैं. छोटे-छोटे पिंजरों में ठुंसी हुई चमकदार रंगों और बुझी आंखों वाली चिड़ियों को दिखाकर वे पहले तो आपमें संवेदना जगाते हैं और फिर कंक्रीट के जंगल में चिड़ियों के कुदरती आवास खत्म होते जाने पर आंसू बहाते हुए कहते हैं कि इन पक्षियों के बचने की उम्मीद तभी है जब आप जैसे लोग इन्हें खरीद लें.
1991 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (डब्ल्यूपीए) में हुए संशोधन के बाद से भारतीय वन्य पक्षियों के घरेलू या अंतर्राष्ट्रीय बाजार में व्यापार पर रोक लगी हुई है. इसके बावजूद हरेक शहर में खुलेआम चिड़ियों के बाजार लगते हैं. जैसा कि अली हंसते हुए बताते हैं, ’पुलिस तो बड़ी चिड़ियों (अपराधियों) के पीछे लगी रहती है.’
सच्चाई इससे अलग नहीं. वन्यजीव कारोबार पर नजर रखने वाले गैरसरकारी संगठन ट्रेड रिकॉर्ड्स एनालिसिस ऑफ फ्लोरा एंड फाउना इन कॉमर्स (ट्रैफिक) के मुखिया समीर सिन्हा के अनुसार भारत में पक्षियों की विविध प्रजातियों की मौजूदगी और यहां के निष्प्रभावी कानून एक ऐसा संयोग है जिसके चलते भारत जंगली चिड़ियों का मुख्य आपूर्तिकर्ता है. अनुमानों के मुताबिक चिड़ियों का घरेलू कारोबार ही कम से कम ढाई करोड़ रुपए प्रति वर्ष का है. इस आंकड़े में पिंजड़े बनाने से हुई आमदनी और हॉकरों के मुनाफे की रकम शामिल नहीं है.
हालात बदतर इसलिए भी हो जाते हैं क्योंकि वन्यजीव संरक्षण कार्यकर्ताओं का सारा ध्यान बाघ, गैंडों और दूसरे जीवों पर अधिक होता है, चिड़ियों पर कोई ध्यान नहीं देता. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के डॉ असद रहमानी पिछले 30 साल से इसके लिए संघर्ष कर रहे हैं कि सरकार ’प्रोजेक्ट बस्टर्ड’ शुरू करने की मंजूरी दे दे, लेकिन उन्हें अब तक कामयाबी नहीं मिली है. वे कहते हैं, ’अगर तत्काल कार्रवाई नहीं की गई तो ग्रेट इंडियन बस्टर्ड अगले 10 वर्षों में लुप्त हो जाएगा. आखिर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय चिड़ियों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों करता है?’

व्यापार तो चिंता की बात है ही उतना ही चिंताजनक यह भी है कि ’बचा लिए जाने’ के बावजूद गैरकानूनी रूप से खरीदी-बेची जा रही अधिकतर चिड़ियों के वास्तव में बच पाने की संभावना बहुत कम होती है. 2 जुलाई को ढाका के हजरत शाह जलाल अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जंगली चिड़ियों से भरे एक मालवाहक हवाई जहाज को पकड़ा गया था. इस पाकिस्तानी अंतर्राष्ट्रीय हवाई जहाज से दर्जनों पिंजड़े जब्त किए गए जिनमें चिड़ियों को ठूंस-ठूंसकर भरा गया था. ढाका के वन विभाग के एक आधिकारिक दस्तावेज के अनुसार (जिसकी प्रति तहलका के पास है) अधिकारियों ने 775 पक्षी पकड़े थे जिनमें से 330 की मौत लाने-ले-जाने के बर्बर तरीकों के चलते हो चुकी थी. इनकी मौत के लिए जिम्मेदार पाकिस्तानी नागरिक अहमद शेख वाजिद बांग्लादेश की अदालत में मामले की सुनवाई का इंतजार कर रहा है. हालांकि वन विभाग द्वारा अपनी कामयाबी पर पीठ थपथपाने के बावजूद बचा लिए गए ये परिंदे आजाद नहीं हुए हैं. वे अब बंगबंधु शेख मुजीब सफारी पार्क के पिंजड़ों में कैद हैं और इस मामले में अदालती प्रक्रिया चल रही है.

लेकिन इन चिड़ियों को आजाद करने के लिए पिंजड़ों का दरवाजा खोल देना भर काफी नहीं है. जैसा कि ट्रैफिक के साथ काम कर रहे अबरार अहमद बताते हैं, ’आप शेर जैसे क्षेत्रीय जीवों को किसी भी इलाके में नहीं छोड़ सकते. चिड़ियों पर भी यह नियम लागू होता है.’ उल्लू जैसी क्षेत्रीय चिड़ियों को एक सीमित जगह में नहीं छोड़ा जा सकता. जब तक यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि छोड़ी गई चिड़ियां अपने स्थानीय आवास में वापस पहुंच जाएंगी, इन चिड़ियों को छोड़ना बेकार है. जिन पक्षियों को छोटे में ही पकड़ लिया गया हो उन्हें यूं ही छोड़ देना उनकी हत्या करने जैसा है क्योंकि उन्हें अपना भोजन खुद ढूंढ़ने के तरीके मालूम ही नहीं होते. ऐसी हालत में पक्षियों को कई चरणों में छोड़ा जाना चाहिए. उन्हें पहले पिंजड़े से एक बड़े चिड़ियाघर में ले जाया जाए, जिसके बाद उन्हें जंगल के एक छोटे-से हिस्से में ले जाकर रखा जाए. कुछ दिनों बाद उन्हें पूरी तरह आजाद कर दिया जाए. हरेक चरण में इन पक्षियों की देखरेख की जाए.' लेकिन अबरार इस तरीके की मुश्किलों से वाकिफ हैं. वे कहते हैं, ’किसी के पास उतना धैर्य या समय नहीं है. चिड़ियों की देखभाल के लिए वैज्ञानिक विशेषज्ञता के साथ-साथ ममता की भी जरूरत होती है.’

हालांकि मीरशिकारी और बहेलिया जनजातियां पारंपरिक तौर से चिड़ियों को पकड़ने और उनके व्यापार से ही जीविका कमाती रही हैं लेकिन अबरार को लगता है कि वन्य जीवों का संरक्षण करने के हिमायती उनसे काफी कुछ सीख सकते हैं. वे कहते हैं, ’आदिवासी पक्षियों को पकड़ने के लिए ऐसे देसी तरीके इस्तेमाल करते हैं, जो मशीनी तरीकों या जालों से बहुत कम नुकसानदेह होते हैं. दूसरे तरीके तो कभी-कभी पक्षियों की मौत की वजह भी बन जाते हैं. आदिवासी इन पक्षियों को पीढ़ियों से जानते हैं. वे उनके घोंसला बनाने के तरीके से लेकर प्रणय के तरीकों तक, सबके बारे में जानते-समझते हैं.’
आदिवासियों के ज्ञान का यह भंडार पक्षियों की बीमारियों के इलाज में भी भारी योगदान दे सकता है, क्योंकि यह क्षेत्र अब तक आश्चर्यजनक रूप से काफी पिछड़ा हुआ है. दिल्ली के जैन बर्ड हॉस्पिटल में सर्जन डॉ वाईजी गौड़ स्वीकार करते हैं कि उनका सारा ज्ञान कोशिश करके सीखने की एक दर्दनाक प्रक्रिया से गुजर कर हासिल किया है. अधिकतर पक्षी, यहां तक कि फल खाने वाले पक्षी भी पर्याप्त प्रोटीन के लिए कीड़े खाते हैं. चूंकि यह जैन अस्पताल है इसलिए वार्डों (पिंजड़ों) में रखे घायल बाजों को भी पनीर और अनाज से संतोष करना पड़ता है. गौड़ बताते हैं, ’हम यहां हिंसक पक्षियों को अधिक समय तक रखना पसंद नहीं करते और मुझे नहीं लगता कि वे भी यहां बहुत दिनों तक रहना चाहते हैं.’ स्वस्थ पक्षियों को यहां छत पर बने एक बड़े घेरे में रखा जाता है जहां से उन्हें जैन त्योहारों के मौके पर आजाद कर दिया जाता है.

पक्षियों को लोग अनेक वजहों से खरीदते हैं, पालतू बनाने के लिए, चिड़ियाघरों के लिए, मांस के लिए, जादू के खेल के लिए, इलाज के लिए, चिड़ियों की लड़ाई जैसे खेलों के लिए और सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण लिए. अकसर सौदों के दौरान मानवीय करुणा को भी भुनाया जाता है क्योंकि लोग पुण्य कमाने के लिए पकड़ी गई चिड़ियों को खरीद कर आजाद करते हैं.

लेकिन चिड़ियों को इसके लिए काफी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. पकड़ने और लाने-ले जाने के दौरान चार में से सिर्फ एक चिड़िया ही जिंदा बच पाती है. गौरैया, कठफोड़वा, कोयल और उल्लू जैसे आम पक्षी पहले ही हमारे शहरों से गायब हो गए हैं. गाड़ियों का धुएं, शोर और मोबाइल फोन के टावरों का रेडिएशन भी उन पर खतरनाक असर डाल रहा है. इसलिए हैरत नहीं कि भारत में 2008 में विलुप्ति के कगार पर खड़ी प्रजातियों की संख्या 148 थी जो अब 152 हो गई है. ढाका में पकड़े गए पक्षियों में 300 पहाड़ी मैनाएं थीं. यह चिड़ियों की एक बहुत लोकप्रिय प्रजाति है जो आदमी की आवाज की नकल कर सकती है. समुद्र तल से 1000 फुट ऊपर, मूलतः पहाड़ी इलाके में पाई जाने वाली यह चिड़िया वनों की कमी के कारण मैदानी इलाके में आने को मजबूर हुई है. पकड़ी गई चिड़ियों में 35 हरी मुनिया भी थीं जिन्हें विलुप्ति की कगार पर माना गया है. इनमें से 20 अपने पिंजड़ों में मर गई थीं. मुनिया काफी महंगी होती है क्योंकि ये दुर्लभ है.

फिलहाल ट्रैफिक की कोशिश है कि ढाका में जब्त की गई चिड़ियों को उनके प्राकृतिक आवास में वापस लाया जाए.सिन्हा कहते हैं, 'हम तो सिर्फ उम्मीद ही कर सकते हैं. मैं इन चिड़ियों को कैद में रखने का हिमायती नहीं हूं. उम्मीद है कि बांग्लादेश भी यह बात महसूस करेगा.’

ब्यूरोक्रेसी का बड़ा हिस्सा अनैतिक और मक्कार

जोगिंदर सिंह

देश कोई सरकार या राजनीतिक पार्टी नहीं चलाती, बल्कि नौकरशाहों का एक समूह चलाता है। नेता अपनी राजनीति में व्यस्त रहते हैं, और तमाम योजनाएं होती हैं नौकरशाहों के जिम्मे। ताजा मामले बताते हैं कि हमारी ब्यूरोक्रेसी का बड़ा हिस्सा अनैतिक और मक्कार है तथा भ्रष्टाचार के पेड़ की जडें मजबूत करने में इसी का हाथ है। क्या यही ब्यूरोक्रेसी देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है? इसे कैसे सुधारा जा सकता है? जैसे सवालों पर इस बार की कवर स्टोरी..

रोमन दार्शनिक काटो ने सदियों पहले कहा था, ‘एक नौकरशाह सबसे घृणित व्यक्ति होता है। हालांकि गिद्धों की तरह उसकी भी जरूरत होती है, पर शायद ही कोई गिद्धों को पसंद करे। गिद्धों और नौकरशाहों में अजीब तरह की समानता है। मैं अभी तक किसी ऐसे नौकरशाह से नहीं मिला हूं, जो क्षुद्र, आलसी, क़रीब-क़रीब पूरा नासमझ, मक्कार या बेवकूफ़, जालिम या चोर न हो। वह ख़ुद को मिले थोड़े-से अधिकार में ही आत्ममुग्ध रहता है, जैसे कोई बच्च गली के कुत्ते को बांधकर ख़ुश हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर कौन भरोसा कर सकता है?’

बेशक, ऐसा कहते हुए उनके दिमाग़ में भारतीय नौकरशाही नहीं रही होगी, क्योंकि वे भारत से परिचित नहीं थे। लेकिन उनकी यह व्याख्या हमारे नौकरशाहों के व्यापक बहुमत पर पूरी तरह सटीक बैठती है, जो केंद्र और राज्य सेवाओं को मिलाकर 1.90 करोड़ के क़रीब होते हैं। यह माना जाता है कि भ्रष्टाचार की जड़ें काफ़ी व्यापक और गहरी हैं। हाल ही में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के तीन आईएएस अफ़सरों के यहां से अथाह संपत्ति बरामद हुई है, जो उनकी आय के ज्ञात स्रोतों के मुक़बले बहुत ज्यादा है। एक जमाने में नौकरशाही को स्टील (इस्पात) का ढांचा माना जाता था, जो अब स्टील (चोरी) का ढांचा बन चुका है।

आजाद होने के 63 साल बाद भी शासन व्यवस्था बद से बदतर ही हुई है। सरकार आईएएस अधिकारियों को प्रशिक्षण के लिए विदेशों में हार्वर्ड, ड्यूक, सिरेकस, एमआईटी, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसे संस्थानों में भेजती है। पर मुद्दे की बात यह है कि हर साल 200 से अधिक अधिकारियों को हार्वर्ड और अन्य विश्वविद्यालयों में भेजे जाने से उनकी समग्र कार्यकुशलता या ईमानदारी कैसे बढ़ाई जा सकती है या भ्रष्टाचार किस तरह कम या ख़त्म किया जा सकता है।

हमारे देश में ढेर सारे कानून, नियम-उपनियम और अधिनियम हैं। 1030 के लगभग केंद्रीय और 6727 राज्यीय अधिनियम हैं, ये नौकरशाहों को नागरिकों के धर्य की परीक्षा लेने का भरपूर अवसर देते हैं। नया कारोबार शुरू करना हो या कोई नया उद्योग स्थापित करना हो, हमारे देश में कुछ भी करने से पहले पता नहीं कितनी सारी अनापत्तियां और अनुमोदन हासिल करने होते हैं। केवल पैसा ही नौकरशाहों को हाथ-पैर तेजी से चलाने के लिए उकसाता है।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 2009 की सूची में भारत लगातार भ्रष्टतम देशों में शामिल किया गया है। 180 देशों की सूची में हमारा देश 84वें स्थान पर है और उसे 100 में से महज 34 अंक मिले हैं। भारत में बिजनेस की परिस्थिति को लेकर विश्व बैंक द्वारा 2009 और 2010 में दिए गए आंकड़े अपनी कहानी ख़ुद कहते नजर आते हैं। देश में कारोबार करने की सहज परिस्थितियों के लिहाज से 180 देशों की सूची में हम 133वें स्थान पर हैं। पिछले साल हम 132 नंबर पर थे। हमारी नौकरशाही सबसे निकृष्ट स्तर पर शासकीय कार्य और संचालन का प्रतीक बन गई है।

भ्रष्टाचार और कुशासन अक्षमता के सहोदर हैं। प्रधानमंत्री लगातार वितरण व्यवस्था की विफलता के बारे में कह रहे हैं, चाहे यह चाहे यह हर्षद मेहता था या तेलगी घोटाला या परियोजनाओं का निर्धारित समय सीमा में निबटारा न होना। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की राह में सबसे बड़ी बाधा असीमित बचाव और अनुमोदन एवं कानूनों की ढेर सारी परते हैं, किसी ब्यूरोक्रेट को छूने से पहले जिनसे पार पाना होता है। यह एक चपरासी से लेकर मुख्य सचिव तक, सब पर लागू होता है।

हाल ही में सीबीआई ने ऐसे प्रकरणों की सूची सार्वजनिक की है, जो मंजूरी के चक्कर में लटके हुए हैं। इस सूची में हरियाणा के एक पूर्व मुख्यमंत्री के पास 2006 में मिली बेहिसाब संपत्ति का प्रकरण भी शामिल है। सीबीआई ने कुल मिलाकर 132 प्रकरण सूचीबद्ध किए हैं, जिनके लिए मंजूरी लटकी हुई है। एक मामले में 15 तक स्वीकृतियां लेनी पड़ती हैं। सीबीआई के अधिकारी जिन लोगों पर कार्रवाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उनमें विभिन्न विभागों के आयुक्त, आईएएस अफ़सर, सीएजी, एमसीडी और सीपीडब्ल्यूए के ऑडिटर भी शामिल हैं।

सैद्धांतिक रूप से सरकार एक अस्पष्ट निकाय है, लेकिन इसका 99 प्रतिशत हिस्सा आईएएस हैं, जो कि वास्तविक सरकार हैं। वे न सिर्फ़ लाखों-करोड़ों रुपए की योजनाएं बनाते और मसौदा मंजूरी देते हैं, बल्कि उन्हें लागू भी करते हैं। वे ही कानूनी बिरादरी की मदद से नियम और कानून बनाते हैं और फाइलों को लटकाने या तेजी से निबटाने का काम करते हैं। यह उनकी बिरादरी ही है, जो उन्हें नियमों की ढाल प्रदान करती है, न सिर्फ़ उन्हें, बल्कि तमाम लोगों को। शायद उन्हें पक्षपात के लिए आरोपित किया जा सकता है।

सभी शीर्ष पद, चाहे वे मंत्रियों के पीए और पीएस हों, मंत्रियों के सलाहकार हों या अंडर सेक्रेटरीज और सेक्रेटरीज हों, वे उनके कैडर जॉब्स की तरह रेखांकित किए गए हैं। सैद्धांतिक तौर पर सभी पद सभी सेवाओं के लिए खुले हैं, लेकिन वास्तविक व्यवहार में आईएएस को छोड़कर बाक़ी सभी सेवाएं अछूत की तरह हैं। राज्यों और केंद्र के ज्यादातर मंत्री पेशेवर हैं और सरकार चलाने के तौर-तरीक़े समझने की बजाय राजनीति में ज्यादा व्यस्त रहते हैं।

वे प्रशासन से संबंधित सारे काम पीए और अपने विभाग में कार्यरत अन्य नौकरशाहों पर छोड़ देते हैं। सो, अगर किसी भ्रष्ट नौकरशाह के खिलाफ़ कार्रवाई करनी होती है, तो इसमें उम्र गुजर जाती है। पहली बात तो यह है कि वह ख़ुद को बचाने की कोई कसर नहीं छोड़ता।

वह ऐसी योजना बनाता है कि पकड़ में ही न आए और पकड़े जाने की सूरत में कानूनी गलियों और कोर्ट के अड़ंगों से बच निकलने की जुगत भिड़ाता है। कुछ समय पहले, कोर्ट में लंबित पड़े मामलों के आंकड़े आए थे। न्याय के दरवाजें सभी के लिए खुले हैं, ठीक उसी तरह जैसे देश के फाइव या सेवन स्टार होटलों में भुगतान करके कोई भी जा सकता है। लेकिन क्या आप भारत में सचमुच न्याय पा सकते हैं और अन्याय से निजात पा सकते हैं?

लंबित सीबीआई प्रकरणों पर दिल्ली सरकार के एक कैबिनेट नोट ने इस स्थिति को ‘ख़तरे की घंटी’ के समान बताते हुए कहा था कि 119 प्रकरणों में तो अभियोग, आरोप ही तय नहीं हुए हैं और तत्काल समुचित कार्रवाई की दरकार है.. प्रकरणों के निबटारे में और देर अपराधियों को अपनी गतिविधियां जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करती है। दिल्ली में प्रकरणों की राह में अवरोध अपनी कहानी ख़ुद बयां कर देते हैं- भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1998 के तहत 1389 सीबीआई प्रकरण आठ साल से Êयादा समय से चल रहे हैं।

51 प्रकरण 15 साल से Êयादा समय से लटके हैं। 172 केसों को लटके 18 साल से अधिक समय हो चुका है। हक़ीक़त में ये आंकड़े तो सिर्फ़ नजीर हैं, पूरी तस्वीर नहीं। देखा जाए, तो नौकरशाही देश के विकास में अड़ंगा ही रही है।

अब इसे धूल-धूसरित करने का व़क्त है। नौकरशाही का निहित स्वार्थ ही भ्रष्टाचार, कदाचार और बड़ी मछलियों के बच निकलने के लिए जिम्मेदार है। हमें दुनिया की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्थाओं को लेकर उन्हें अपने देश में आजमाना चाहिए। सबकुछ एक ही सेवा के लिए संरक्षित नहीं करना चाहिए, बल्कि सभी तरफ़ से सुयोग्य व्यक्ति लिए जाने चाहिए। प्रशासन को एक ही सेवा के लिए सुरक्षित रखने का वर्तमान सिस्टम चौकोर खानों में गोल खूंटे में जबर्दस्ती फिट करने की तरह है।

हालांकि स्व. राजीव गांधी ने ब्यूरोक्रेसी से बाहर के सुयोग्य लोगों को लेने के लिए नियम बदले थे, बावजूद इसके ब्यूरोक्रेसी ने सुनिश्चित कर लिया कि वित्तीय व अन्य क्षेत्रों में विशेषज्ञता की दरकार वाले तमाम जॉब्स रिटायरमेंट के बाद आईएएस के हिस्से में जाएं। राजनीतिक नेतृत्व भी सुरंग की दृष्टि रखता है और सचिवालयीन बाबुओं से परे कुछ देख ही नहीं सकता या देखता ही नहीं है। ये बाबू ऑफिस रूपी अड्डों में नियम-क़ायदे चलाते हैं, बजाय फील्ड में जाकर चीजों का वितरण करने के।

बहरहाल, तमाम आईएएस अफसरों को एक ही पाले में रखना भी अन्याय होगा। मेरे कुछ आईएएस दोस्तों ने अपनी बेहतर साख क़ायम की है। ऐसे लोग हर जगह कारगर होते हैं। राजनेता विकास और वितरण व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए जो भी कहें, इससे औसत नौकरशाह, ख़सतौर से उच्च स्तर पर बैठे लोगों के कान पर जूं भी नहीं रेंगती, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे किसी के प्रति भी जवाबदेह नहीं हैं। इस व्यवस्था में सुधार भले ही मुश्किल हो, पर असंभव तो क़तई नहीं है।

धारा 311 के तहत ‘प्रोविजन ऑफ समरी डिसमिसल’ को बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने की जरूरत है। इसी के साथ, यदि कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार के मामले में पकड़ा जाए और तकनीकी आधार पर छूट जाए, तो प्रशासन में उसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। बहरहाल, यहां यह जोखिम जरूर है कि भ्रष्ट नेता इस ताक़त का दुरुपयोग कर सकते हैं, और इसीलिए बराबर जवाबदेही तय होनी चाहिए। इस सबके अलावा भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अनुशंसित पुनर्गठन को तत्काल स्वीकृति मिलनी चाहिए, ताकि न केवल आम आदमी, बल्कि अपमानित महसूस करने वाले नौकरशाह भी न्याय पा सकें।

नौकरशाही तानाशाह की भूमिका ग्रहण कर लेती है

नौकरशाही शब्द अंग्रेजी भाषा के ब्यूरोक्रेसी शब्द का हिन्दी रूपान्तरण है। ब्यूरोक्रेसी शब्द की उत्पत्ति प्र*ांसीसी भाषा के ब्यूरो नामक शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है डेस्क या लिखने वाली मेज। प्र*ांस में इस शब्द का प्रयोग ड्राअर वाली मेज अथवा लिखने की डेस्क के लिए हुआ करता था। ब्यूरो शब्द सरकारी कार्यों का परिचायक माना जाने लगा। इसका अर्थ था मेल या कार्यालयों द्वारा शासन, प्रबंधन सर्वप्रथम अठारवीं शताब्दि के मध्य में दि गाने नामक एक प्र*ांसीसी विद्वान ने नौकरशाही शब्द का प्रयोग किया। प्रायः नौकरशाही शब्द का प्रयोग व्यंग्यात्मक अर्थों में किया जाता है और लोकसेवकों को नौकरशाह कह कर संबोधित किया जाता है। नौकरशाही पर स्वार्थसिद्धी के लिए अपनी सत्ता के दुरुपयोग का आरोप लगाया जाता है। विद्वान जॉन वींग के शब्दों में विकृति एवं परिहास के कारण नौकरशाही शब्द का अर्थ काम में घपला, मनमानी, अति व्यय कार्यालयों और अति अनुशासन माना है।

नौकरशाही शब्द ही घृणा या तिरस्कार का पात्र है। विद्वानों के अनुसार, नौकरशाही विधि निर्माण एवं क्रियान्वयन का उल्लंघन होने पर दंड देने का अधिकार अपने पास रखकर तानाशाह की भूमिका ग्रहण कर लेती है। राजतंत्र में सुल्तानों, राजा-महाराजाओं एवं बादशाहों के शासन में राज्य (स्टेट) का काम केवल कानून व्यवस्था कायम रखना, राज्य की सुरक्षा तथा अन्य राज्यों पर आक्रमण करना होता था, जिसे राज्य की सेना द्वारा किया जाता था। उस समय कर का स्रोत केवल भूमि का लगान या इसकी वसूली के लिए थोडे से कर्मचारी पटवारी, पटेल आदि के कमीशन के आधार पर नियुत्त* कर दिया जाता था। किन्तु आधुनिक युग में लोक सेवकों द्वारा अनेक प्रकार की सेवाओं का निष्पादन किया जाता है, जन्म से मृत्यु तक जीवन के प्रत्येक चरण और प्रत्येक स्तर पर ये सेवाएं व्याप्त हैं। ये सेवाएं सरकार द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करती हैं और कार्यक्रमों को क्रियान्वित करती हैं। राज्य सेवाओं के सदस्य नीति निर्माण के कार्यों में हिस्सा बंटाते हैं तथा अपने राजनीतिक उत्तराधिकारियों को मंत्रणा देते हैं। उच्च पदों पर आसीन लोकसेवक चार प्रकार के कार्य सम्पन्न करते हैं।

१- वे सरकारी तंत्र के परिचालन की व्यवस्था करते हैं।

२-वे प्रभारी मंत्री के लिए विस्तृत भुजा का कार्य करते हैं वरिष्ठ लोकसेवक मंत्री के सरकारी भाषण का मसौदा तैयार करते हैं तथा किस बैठक में उन्हें क्या कहना है इसके बारे में आवश्यक पथ प्रदर्शन करते हैं।

३- विभिन्न सेवाओं के प्रबंधन का कार्य करते हैं।

४- सरकार की समस्याओं की पहचान करते हैं।

५-मोटे तौर पर इन्हीं लोकसेवकों को समग्र रूप से नौकरशाही या ब्यूरोक्रेसी का नाम दिया जाता है। नौकरशाही अच्छी या बुरी है इस सम्बंध में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत है।

विद्वान मेक्स बेबर के नौकरशाहों को आदर्श प्रकार माना है। उनका तर्क है कि इसके माध्यम से प्रशासन में उच्च कार्य कुशलता को लाया जा सकता है। दूसरा दृष्टिकोण मि हेराल्ड लास्की का है उनके अनुसार नौकरशाही प्रशासन में नियमों के प्रति अत्यधिक लगाव, नियमों के कठोर पालन, निर्णय लेने में विलम्ब तथा नये परीक्षणों के निषेध का नौकरशाही प्रतिनिधित्व करती है। हालांकि विशेषज्ञों द्वारा होना अनिवार्य है किन्तु इन विशेषज्ञों को लोकतांत्रिक नियंत्रण के परे नहीं होना चाहिए।

विभिन्न विद्वानों ने भी नौकरशाही की अलग-अलग परिभाषाएं दी है, इनसाइक्लो पीडिया बिटानिका में लिखा है कि जिस प्रकार तानाशाही का अर्थ तानाशाह का शासन, तथा प्रजातंत्र का अर्थ जनता का शासन है, उसी प्रकार नौकरशाही या ब्यूरोक्रेसी का अर्थ ब्यूरो द्वारा शासन है।

मि. रावर्ट स्टोन ने कहा कि नौकरशाही का शाब्दिक अर्थ कार्यालय या अधिकारियों का शासन है।

मि. कार्ल प्रे*डरिक ने कहा कि नौकरशाही उन लोगों के पद सोपान कार्यों के विशेषीकरण तथा उच्च स्तरीय क्षमता से युत्त* संगठन है जिन्हें उन पदों पर कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है।

उपरोत्त* विद्वानों के विभिन्न मतों के आधार पर सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नौकरशाही शब्द पर्याप्त अस्पष्ट और अनेक अर्थों से युत्त* है। व्यापक दृष्टिकोण नौकरशाही से एक ऐसी व्यवस्था का बोध होता है जहां कर्मचारियों को अनुभाग, प्रभाग, ब्यूरो एवं विभाग आदि श्रेणी में विभत्त* कर दिया गया है। इसमें प्रशासकीय सत्ता का लक्ष्य व्यापक जनहित में होता है। किन्तु संकुचित दृष्टिकोण में जनहित गौण स्थान प्राप्त कर लेता है। तथा नौकरशाही औपचारिकता एकरूपता तथा नियमबद्धता का पर्याय बन जाती है महान विद्वान मि.एप*.एम माक्र्स के अनुसार ’’करोडों लोगों ने नौकरशाही शब्द नही सुना है किंतु जिस किसी से सुना है वह या तो इसके प्रति शंकालू है अथवा वह समझता है कि नौकरशाही शब्द किसी न किसी बुरी बात से सम्बंधित है, यद्यपि पूछे जाने पर वह इसका सही अर्थ बताने से कताराएगा परन्तु वह यह अवश्य कह देगा कि इसका मतलब कोई बुरी बात है।’’

नौकरशाही शब्द की विस्तृत व्याख्या के बाद भारत में नौकरशाही की भूमिका के संबंध में चर्चा अति आवश्यक है भारत वर्ष जब १९४७ में आजाद हुआ तो भारत को अंग्रेजों से विरासत में सुगठित सेना एवं सुगठित नौकरशाही (आई.सी.एस) एवं उसका प्रशासनिक ढांचा प्राप्त हुआ, साथ ही देश को स्वतंत्रता दिलाने वाला महात्मा गांधी के नेतृत्व में सुगठित राजनीतिक दल कांग्रेस प्राप्त हुआ, इन तीन पे*क्टरों के कारण भारत का प्रशासनिक ढांचा कायम रहा और पं. नेहरू के नेतृत्व में प्रशासन की शुरूआत बहुत अच्छी रही पं. नेहरू जो कि एक राजनेता से अधिक एक स्टेटसमेन थे उन्होंने आई.सी.एस. के स्थान पर आई.ए.एस. (इंण्डियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस) को यू.पी.एस.सी के द्वारा चयन के माध्यम से प्रारम्भ कराया, राज्यों में भी स्वतंत्र लोक सेवा आयोगों के गठन कर के राज्य प्रशासनिक सेवाओं को प्रारम्भ कराया एवं देश के सर्वाधिक योग्य एवं बुद्धिमान युवक युवतियों को इन सेवाओं की ओर आकृष्ट किया प्लानिंग कमीशन का गठन कर पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा देश के विकास को प्रारंभ कराया पं. नेहरू के जीवनकाल में भारतीय नौकरशाही ने अच्छे से अच्छा कार्य किया जिसका परिणाम भाखडा नंगल, गाँधी सागर जैसे सैकडों बडे बाँधों का निर्माण एवं भिलाई, राउरकेला जैसे सैकडो कल कारखानों का निर्माण हुआ ओर आजादी के पूर्व सुई भी न बनाने वाला भारत उच्च तकनीकी की ट्रेनें, बसें, ट्रक, वायुयान, शिप आदि बनाने लगा देश में कृषि में भी हरित क्रांति हुई। किन्तु देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में जैसे जैसे चुनाव मंहगे होते गय उसी अनुपात में राजनेताओं और नौकरशाही ने आर्थिक भ्रष्टाचार के लिये नापाक गठबंधन कर लिया केंद्र एवं राज्यों की परियोजनाओं हेतु प्राप्त बजट का घोर दुरूपयोग प्रारंभ हो गया, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने सार्वजनिक वत्त*व्य द्वारा स्वीकार किया कि गरीबों के हित में केंद्र द्वारा जो प*ण्ड दिये जाते हैं उसमें से एक रूपये मे केवल २० बीस पैसे ही हितग्राही को मिलते है शेष अस्सी पैसे पाईप लाइन हजम कर जाती है इसी का परिणाम है कि केंद्र की सी.बी.आई राज्यों के लोक आयुत्त* संगठनों, आर्थिक अपराध अनुसंधान आदि संगठनों के पास लाखों लोकसेवकों के विरूद्ध गंभीर आर्थिक अपराध करने के मुकदमें कायम हुऐ जिनमें हब भी इनवेस्टीगेशन जारी हैं, किंतु इस व्यवस्था से नौकरशाही के गठन का पवित्र उददेश्य ध्वस्त हो गया, भारत में गरीबी उन्मूलन के अधिकांश कार्यक्रम असप*ल हो गये आजादी के साठ वर्ष बाद भी भारत के तीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे दयनीय परिस्थितियों में जीवनयापन कर रहे हैं, विद्वान श्री अर्जुन सेनगुप्त की थीसिस पर यदि विश्वास करें तो भारत के ८० प्रतिशत लोग केवल बीस रूपये रोज कमाकर अपना जीवनयापन करते है।

नौकरशाही (प्रशासनिक कार्यपालिका) एवं मंत्रीगण (राजनीतिक कार्यपालिका) की असप*लता के कारण हजारों सिंचाई योजनाएं अधूरी रह गई हजारों प्राथमिक स्कूलों को या तो प्रारंभ ही नही कराया जा सका या यदि प्रारंभ भी हुऐ तो उनमें ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को शिक्षकों की कमी के कारण पढाया ही नही गया, सैकडों सडके, बाँध, तालाब बजट प्राप्त होने के बावजूद अधूरे रह गये, और उनमें लगा लाखों करोडों रूपये का राष्ट्रीय धन व्यर्थ चला गया है और महंगाई के कारण योजनाएंंे और महंगी हो चली गई। ग्रामीण क्षेत्रों के सैकडों छोटे अस्पताल डॉक्टरों एवं दवाईयों के अभाव में स्वयं ही बीमार हो गये, आम जनता के स्वास्थ्य की चिन्ता कौन करता, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में प्राप्त केरोसिन को जम कर कालाबाजारी की गई जो आज भी जारी है और प्राप्त गेहूँ चावल आदि का गरीबों को आधा अधूरा ही वितरण हो रहा है वन विभाग के अधिकारियों की उदासीनता एवं भ्रष्टाचारी के कारण हरे-भरे जंगल काट दिये गये और वृक्षारोपण के नाम पर लाखों करोडों के धन का बारा न्यारा हो गया, जिसका परिणाम आज पूरा उत्तरी एवं मध्य भारत पिछले पाँच वर्षो से लगातार सूखे की चपेट में है। पानी के अभाव में किसान खेती नहीं कर पा रहे हैं और हजारों की संख्या में आत्म हत्याए कर रहे ह।

आज भी विश्व में भारत सर्वाधिक शिशु मृत्यु दर वाला देश है आज भी अप्र*ीकी देशों के बाद एड्स के सर्वाधिक रोगी भारत में है, आज भी भारत में प्रसूताओं की मृत्यु दर एशिया में सर्वाधिक है, आज भी करोडों लोग टी.बी. से ग्रस्त हैं, आज भी लगभग २५ प्रतिशत बच्चे कुपोषण से ग्रस्त हैं, आज भी हजारों ग्रामों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है, आज भी जंगलों में वर्षा अभाव के कारण लाखों जंगली मूक पशु पक्षी भूख प्यास से दम तोड रहे हैं, आज भी धर्म, जाति एवं प्रांतीयता के नाम पर दंगे करवा कर लोखों बेगुनाहों और मासूमों को या तो मार दिया जाता है या उन्हें दर दर भटकने को मजबूर कर भिखारी बना दिया जाता है आजादी के साठ वर्ष बाद भी कई चुनाव कराने के बाबजूद हम स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव नहीं करा पा रहे हैं न ही चुनाव सुधार कर पा रहें एवं बाहुबलियों एवं पैसे वालों का मापि*या तंत्र कभी जाति, कभी धर्म, कभी क्षेत्रीयता के नाम पर लोकतंत्र को लूट तंत्र में बदलने की कोशिश कर रहा है और लगभग लूटतंत्र में बदल ही चुका है, जिसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड रहा है, आज भी आम आदमी पुलिस पटवारी के चंगुल से मुत्त* नहीं हो पा रहा है और उसे छोटे मोटे काम कराने के लिए भी उनकी मुट्ठी गर्म करनी पडती है। आज भी गरीबी रेखा से नीचे वाले लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली से न तो पूरा चावल तेल मिलता है और न ही पूरा केरोसिन मिलता है, ग्रामीण रोजगार योजना के क्रियान्वयन में गांव में बिना पंचायत सेक्रेटरी की आर्थिक प्रसन्नता के जॉब कार्ड नहीं बनता है और यदि किसी तरह जॉब कार्ड बन भी जाता है तो उसे निर्धारित रोजगार नहीं मिलता है।

आई.ए.एस. से राजनेता, मंत्री एवं राज्यपाल बने अत्यन्त अनुभवी श्री जगमोहन का कहना है कि ’’कभी संसार में सर्वश्रेष्ठ आंकी जाने वाली भारतीय प्रशासनिक सेवा की हालत आज पतली है। आजादी के बाद के वर्षों में नेतृत्व का स्तर अपेक्षाकृत ऊँचा था और एक हद तक गाँधीवादी आचार-विचार से प्रभावित था लेकिन इसके बाद उल्टा चक्र शुरू हो गया और राजनेता और प्रशाासन दोनों की अक्षमता और अन्याय के खड्ड में पि*सलते चले गये उन्हने एक दूसरे के दोषों को ढंकना शुरू कर दिया, आंकडों का प्रदर्शन जमीनी धरातल पर नदारत था चारों ओर छल कपट छा गया प्रशासनिक अधिकारियों और उनके राजनीतिक आकाओं में यथास्थिति बनाए रखने की चाहत रही यद्यपि दोनों ही सुधारों और परिवर्तन की जरूरत की बातें करते रहे प्रशासनिक सुधार के विभिन्न पहलुओं के लिए सरकार करीब छः सौ आयोग या समितियाँ गठित कर चुकी है किन्तु इस कवायद का खास परिणाम नहीं निकला।’’

आज भी गांवों में गरीबों को रोजगार ने मिलने से भूख प्यास से पीडत लोग नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं और शहरों में मास्टर प्लान में छूटी हुई खाली जमीन पर झुग्गियाँ बनाकर अत्यन्त अस्वास्थ्कर वातावरण में रहने लगते हैं, इससे शहरों का मास्टर प्लान तो भंग होता ही है साथ ही शहरों में पूर्व से रहने वाले नागरिकों का जीवन यापन भी अत्यन्त कठिन हो जाता है इन सबके लिये कौन जिम्मेदार है ? राजनीतिक कार्यपालिका के साथ-साथ प्रशासनिक कार्यपालिका (नौकरशाही) इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है अपनी सुख सुविधाओं और वेतन भत्तों में वृद्धि के लिए प्रतिबद्ध नहीं हुई है। अतः ऐसी गंभीर परिस्थितियों में नौकरशाही की भूमिका पर क्या पुर्निविचार का वत्त* नहीं आ गया है ? क्या नौकरशाही के प्रत्येक सदस्य (उच्च अधिकारी से निम्न स्तर बाबुओं तक) को लक्ष्य पूर्ति हेतु बाध्य नहीं किया जाना चाहिए ? क्या नौकरशाहों को परिणाम मूलक नहीं बनाया जाना चाहिए ? नौकरशाहों केा एवं निर्माण ऐजेन्सियों को अच्छी गुणवत्ता सहित कार्य एवं निर्माण हेतु नहीं कहा जाना चाहिए। और क्या नौकरशाही को अपेक्षित परिणाम देने के लिये मजबूर नहीं किया जाना चाहिए ? राष्ट्र के कर्णधारों केा इस पर गंभीर मनन करना चाहिए एवं कर्मचारी/अधिकारियों को उनके विभागों का गहन प्रशिक्षण दे कर, उनकसे सम्बन्धित नियम कायदों की विस्तृत जानकारी दे कर दिये गये लक्ष्यों की पूर्ति हेतु आवश्यक सुख सुविधाएं दे कर अनिवार्य रूप से लक्ष्य प्रापित की जावे, अन्यथा देश के सत्तर प्रतिशत अत्यन्त दुखी एवं व्यथित लोगों के संभावित गुस्से हेतु तैयार हो जाना चाहिये। नौकरशाहों को अपने दृष्टिकोण और सोच में परिवर्तन लाना होगा यथास्थिति का समर्थक होने के स्थान पर नौकरशाही को अब यह पूरी तरह से आत्मसात कर लेना चाहिए कि वेश्वीकरण एवं उदारीकरण के वर्तमान युग में उन्हें परिवर्तन का उत्प्रेरक बनना है।

पूर्वकाल के पुलिस राज्य के स्थान पर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के उदय, इसके परिणामस्वरूप सरकार की गतिविधियों और दायित्वों में अप्रत्याशित वृद्धि तथा सरकार के कार्यों की तकनीकी प्रकृति ने नौकरशाही को विकास प्रशासन का भी अपरिहार्य तत्व बना दिया है। आर्थिक विकास एक सतत् प्रक्रिया है जिसके आधार पर सामाजिक विकास का भी क्रम चलता रहता है यदि नौकरशाही सच्चे हृदय से राष्ट्र के विकास के लिए कार्य करे तो वह कुशल आर्थिक नियोजन द्वारा राष्ट्र एवं सामाज को आर्थिक कठिनाइयों से मुत्त* करा सकती है यद्यपि भारत जैसे देश में समाज के कल्याण हेतु सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा पंचायती राज व्यवस्था का निर्माण किया गया है किन्तु नौकरशाही (जो कि पढे लिखे लोगों का संगठन है) के सक्रिय सहयोग बिना ये संस्थयें भी समाज कल्याण में अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही है।

श्री जगमोहन के अनुसार भारत मे प्रशासनिक सुधारों के प्रति प्रतिबद्धता सतत ही है क्योंकि न तो राजनीतिक नेतृत्व न ही नौकरशाही संकीर्ण हितों से ऊपर उठ पा रही है। वेतन और अन्य खर्चों में भारी वृद्धि हुई है, राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों में एक दूसरे को प*ायदा पहुँचाने का सिलसिला न केवल कायम है बल्कि इसमें तेजी ही आई है, राजनेताओं को राजनीतिक व व्यत्ति*गत लाभ उठाने म नौकरशाह पूरी सहायता करते हैं और बदले में मलाईदार पद पाते हैं, इसी खेल के कारण बडत्री संख्या में भ्रष्टाचार के मामलों में लीपापोती हो जाती है। इसी खेल के कारण शत्ति*शाली औद्योगिक घराने नौकरशाही और राजनीतिक स्तर पर सरकारी पै*सलों को अपने पक्ष में करा लेते हैं, इसी खेल के कारण निहित स्वार्थ उभर आएें हैं जो विभिन्न उच्च स्तरीय आयगों और समितियों सुझाऐ गये सुधारों की भी अवहेलना कर रहे हैं, अतः अब वत्त* आ गया है कि या तो नौकरशाही जिसमे बाबूशाही भी शामिल है प्रतिबद्ध होकर उच्च गुणवत्ता सहित परिणाम प्रस्तुत करे अन्यथा नौकरशाही के विकल्प पर विचार करना होगा। यदि उच्च प्रशासनिक अधिकारी परिणाम मूलक नेतृत्व देने में अक्षम है तो हमें नये विकल्पों पर दृष्टि डालनी होगी, इंगलैड, कनाडा, न्यूजीलैण्ड और ऑस्ट्रलिया की तरह हमें भी मुत्त* अर्ध स्वायत्त एक्जीक्यूटिव निकायों का गठना करना होगा, इन निकायों का प्रमुख अनिवार्य रूप से ऐसा प्रशासनिक अधिकारी नहीं होगा जो सरकारी नौकरी के दौरान अपनी सीनियरटी या प्रदर्शन के बल पर आगे बढा हो, बल्कि सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों की सर्वोत्तम प्रतिभाओं की प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा के बाद इनकी नियुत्ति* हो, यह कार्यकारी एजेन्सी आंतरिक लचीलापन और आधारभूत व्यवसायिक सिद्धान्तों के आधार पर काम करेगी और इन्हें प्रबन्धकीय व्यवहार में कशलता और वांछित सर्वोत्तम परिणाम सुनिश्चित करने हेतु कहा जावेगा, इनके सामने प्रस्तुत लक्ष्य निर्धारित कर दिये जावेंगे और इनके परिणामों को हासिल करने की पूरी जबाबदेही उत्त* स्वायत्त निकायों की होगी, इंगलैण्ड आदि देशों में उत्त* माध्यम से खुले, विविध और पेशेवर प्रशासनिक अधिकारी मिल रहे हैं जो तेज तर्रार और लक्ष्य को साधने में सक्षम हैं। तो क्या आम जनता की व्यथाओं और दुखों को दूर करने के लिये एवं समस्याओं के त्वरित एवं द्रुत समाधान के लिये नौकरशाही के नये विकल्पों पर विचार नहीं किया जाना चाहिये?