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भेड़ाघाट

Saturday, February 27, 2010

बाघों के बाद निशाने पर वन

वनों के संवर्धान और संरक्षण का उत्तरदायित्व राज्यों में वन विभाग के अमलों का होना है। वनों के रखरखाव के लिए तैनात भारी भरकम शासकीय कर्मियों की फौज होते हुए भी जिस पैमाने पर वनों का विकास होना चाहिए, वह नहीं हो पा रहा है। उल्टे, यह हो रहा है कि जंगलों की कटाई और वनोपजों की निरंतर हो रही चोरियों के कारण वनों के क्षेत्रफल घटते चले जा रहे हैं। रसूखदारों द्वारा वनसंपदाओं के अवैधा व्यापार पर न तो कठोरता से नियंत्रण हो पा रहा है और न ही शासकीय स्तर पर क्षतिपूर्ति वनरोपण की दिशा में गंभीरता परिलक्षित हो रही है। परिणाम स्वरूप वनों का सत्यानाश होता जा रहा है।
वन्य प्राणियों को निशाना बनाने के बाद वन माफिया अब जंगल की अवैध कटाई में लग गया है। वनों की सुरक्षा में तैनात वनकर्मी भी उसके टारगेट पर हैं। वनकर्मियों पर हमले की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। बीते अगस्त माह में आठ अलग-अलग स्थानों पर वनकर्मियों पर जानलेवा हमले किए गए हैं। इन घटनाओं ने पूरे वन अमले को हिलाकर रख दिया है। अपने फायदे के लिए माफिया अब भोले-भाले आदिवासियों का इस्तेमाल भी कर रहा है। वन कर्मियों के हत्थे चढने पर वे आदिवासियों की ओर से उनके खिलाफ ही अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम के तहत मुकदमा दर्ज करा देते हैं। छोटे वन कर्मियों को अपने ही अफसरों से अपेक्षित मदद न मिलने के कारण उनका मनोबल भी गिर रहा है। वन विभाग के एक अधिकारी ने बताया कि पुलिस और जिला प्रशासन के समन्वित प्रयास और वन विभाग के अमले को आधुनिक हथियारों से लेस किए बिना माफिया पर काबू पाना कठिन है। वैसे तो जिला स्तर पर टास्क फोर्स बने हुए हैं, लेकिन महीनों उनकी बैठकें ही नहीं हो पाती हैं। इसके विपरीत वन माफिया के खिलाफ कड़ी कार्रवाई न होने से उनके हौसले बुलंद हैं।
हरेक रेंज में एक वाहन हो। रेंजर्स को रिवॉल्वर दी जाए। 1620 डिप्टी रेंजर्स को मोटर साइकल दी जाए। वन अपराध की सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए हरेक वन मंडल का कम्यूनिकेशन प्लान तैयार हो। वनोपज का अवैध परिवहन रोकने और निरीक्षण व्यवस्था दुरुस्त करने 100 अंतरराज्यीय बेरियर को मजबूत बनाया जाए। जिला प्रशासन में बेहतर समन्वय हो। मुखबिर व्यवस्था को मजबूत बनाने अलग से बजट का प्रावधान किया जाए। वाहनों के रखरखाव के लिए पर्याप्त बजट देय हो। 400 चिह्न्ति वन क्षेत्रों की 71 वन चौकियों का शीघ्र निर्माण किया जाए।100 अतिरिक्त वाहन उपलब्ध कराए जाएं। वनों के विनाश के कारण जहां एक तरफ पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ वनों से प्राप्त होने वाले राजस्व का भी घाटा होता जा रहा है। बाजारवाद और भौतिकवाद के इस दौर में वनसंपदाओं के अवैधा दोहन को वनकर्मियों के लाख प्रयत्नों के बावजूद भी रोकयात्रा आसान नहीं है। इसके पीछे वनों के रखरखाव के लिए तैनात वनकर्मियों के पास समुचित सुविधाएं और साधानों की कमी तो है ही, साथ ही उनमें समुचित प्रशिक्षण और तकनीकी ज्ञान का अभाव भी है। केन्द्र शासन ने वनों के बुरी तरह से हो रहे विनाश की ओर गंभीरतापूर्वक तवज्जों दी है और इस स्थिति से निपटने के लिए राज्यों के वनविद्यालयों के उन्नयन का निर्णय लिया है। इस कार्य के लिए राज्यों को अनुदान देने के लिए 206 करोड़ रु. का प्रावधान किया है। केंद्रीय वन मंत्रालय ने दस राज्यों के वन विद्यालयों के उन्नयन करने के लिए राज्यों को प्रोजेक्ट तैयार करने के निर्देश दिए हैं। योजना के तहत इन विद्यालयों में वनकर्मियों को नई तकनीक से प्रशिक्षण देने के साथ ही उन्हें आधुनिक उपकरण मुहैया कराये जायेंगे। जिन दस राज्यों से वन विद्यालयों को कहा गया है, वे हैं-मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, असम, उत्तराखंड, महाराष्ट्र, सिक्किम, पश्चिम बंगाल और केरल। इन राज्यों के वन प्रशिक्षण केंन्द्रों को भारत शासन से अनुदान स्वीकृत किया जायेगा।
केंद्रीय वन मंत्रालय से प्राप्त निर्देशों के आधार पर राज्यों ने तत्काल कार्यवाही शुरू कर दी है क्योंकि निर्देशों में यह स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि जिन राज्यों से जल्द प्रोजेक्ट प्राप्त नहीं होंगे उन्हें इस योजना के तहत अनुदान नहीं मिल सकेगा, उनका नाम इस सूची से हटा दिया जायगा। अनेक राज्यों से जानकारियां मिल रही हैं कि वहां वन विद्यालयों के प्रभारियों की इस मुद्देश् पर बैठकें हो चुकी हैं और बैठकों में विभिन्न मुद्दों पर हुए विचार के आधार पर राज्य स्तर पर परियोजना को अंतिम स्वरूप दिया जाने लगा है।
वन विद्यालयों के उन्नयन के लिए केंन्द्र ने 206 करोड़ रुपये लागत की जो योजना तैयार की है, उसके लिए विदेशी सहायता प्राप्त की जा रही है। वन मंत्रालय के अनुसार इस काम के लिए जापान इंटरनेशनल कारपोरेशन एजेंसी से सहयोग लिया जा रहा है। जापान और भारत के बीच इसके लिए करारनामा हो चुका है। करार के मुताबिक जापान से मिलने वाली इस राशि की अदायगी भारत द्वारा चालीस वर्षों में की जायगी।
उम्मीद की जा रहा है कि वनों में तैनात वनकर्मियों के बेहतर प्रशिक्षण और उनके तकनीकी ज्ञान को बढ़ाने के उद्देश्य से लागू की जा इस योजना से वनकर्मियों की कार्यक्षमता बढ़ेगी और वे आधुनिक उपकरणों से साधान-संपन्न होकर वनों के संरक्षण के दायित्व निर्वहन में कामयाब होंगे।

सरकार की सामाजिक वानिकी योजना और वृक्षारोपण के लिए चल रही विभिन्न योजनाओं में सामाजिक सहयोग की अपेक्षा तो रहती है किंतु समाज के कतिपय लोगों में लोभ, लालच और धान कमाने की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण योजनाएं भी बेहतर परिणाम दे नहीं पा रही है। वन विद्यालयों में समुचित प्रशिक्षण मिलने से वन अमले में दक्षता, योग्यता, कर्मठता के साथ ही उनमें कर्तव्य परायणता की भावना का भी विकास हो सकेगा। प्रशिक्षित अमलों में वनों के विकास में जनभागीदारी के लिए समाज को प्रेरित और प्रोत्साहित करने की सामर्थ्य भी बढ़ सकेगी।

अक्सर यह होता है कि राज्यों और केंद्र में भिन्न-भिन्न राजनैतिक दलों की सत्ता होने के कारण केंद्र और राज्यों के बीच श्रेय लूटने की प्रतिस्पधराएं शुरू हो जाती हैं। इसका दुष्परिणाम यह होता है कि जनहित की अनेक योजनाएं विवादों में उलझकर ही रह जाती हैं। वन विद्यालयों के उन्नयन के लिए जिन दस राज्यों का चयन केन्द्र शासन ने किया है उनमें अधिकांश राज्यों में अलग-अलग राजनैतिक दलों की सरकारें हैं। ये सरकारें वन विकास के नाम पर अपना अपना श्रेय लूटने का दाव खेलेंगी और केन्द्र से मिलने वाली अनुदान राशियों के आवंटन पर भेदभाव और पक्षपात का आरोप लगाकर अपने प्रदेश की जनता के बीच केंद्र की इस अभिनव योजना के बारे में भ्रम फैलाने में कसर नहीं छोड़ेगी। केंद्र और राज्यों के बीच ऐसे अनेकों उदाहरण देखे जा सकते हैं जिनमें राज्यों ने केंद्रीय योजनाओं का धान तो खूब बटोरा है किंतु उसका दुरूपयोग भी किया और केंद्र पर भेदभाव बरतने का आरोप लगाकर आम जनता के बीच केंद्रीय राशि को राज्य की राशि बताकर श्रेय भी लूटा है। आशा है वनों के संरक्षण और संवर्धान की यह योजना राजनीति का शिकार होने से बची होगी।

नहीं रूकेगा बाघों का शिकार

आज कौन मानेगा कि सौ साल पहले अपने देश में लाख की तादात में बाघ जीते थे और अपने होने का दम भरते दहाड रहे होते थे। 6 साल पहले बाघों की ये तादात घटकर 3600 हो गई और 2008 में ये संख्या चैंकाने की हद पर पहुंचते हुए 1411 जा पहुंची। 2005 के सरकारी आंकणों के मुताबिक राजस्थान के सरिस्का टाईगर रिजर्व में मौजूद सभी 26 बाघ विलुप्त हो गये। 6 साल पहले टाईगर स्टेट के नाम से जाने जाने वाले मध्य प्रदेश के पन्ना टाईगर रिजर्व में मौजूद 44 बाघ आज की तारीख में इतिहास हो गये हैं। बाघों को बचाने के लिये बनी नेश्नल टाईगर कन्वेंशन अथोरिटी की एक रिपोर्ट बताती है कि 2007 में 41 और 2008 में 53 बाघ देश भर में मौत की नीद सो गये और 2009 के पहली छमाही में ही 45 बाघ मर गये और साल के जाते जाते ये संख्या 86 पहुंच गई। पयावरणविद दावा कर रहे हैं कि आज देशभर में मुश्किल से 1000 बाघ रह गये हैं। इन 1000 बाघों को बचाया ना गया तो 2015 ज्यादा दूर नहीं लगता। आज सेव टाईगर्स के नारे देशभर में पोस्टरों, बैनरों, अखबारों, रेडियो और टीवी विज्ञापनों में तैर रहे हैं। लोग बाघों के जीवन के लिये चिन्तित नजर आ रहे हैं। 1972 में कार्बेट नेश्नल पार्क से प्रोजेक्ट टाईगर नाम से शुरू की गयी सरकारी योजना आज जबरदस्त रूप से प्रासांगिक हो गई है।
दरअसल बाघों की ये दातात कैसे आश्चर्यजनक तरीके से कमती चली गई। कैसे इन कुछ सौ सालों में देशभर के हजारों बाघ गायब होने की जद पर आ पहुंचे। कैसे हम इतने बेपरवाह शिकारी हो गये कि हमने अपने राश्ट्रीय पशु को मरने के लिये छोड दिया। इन सवालों की परतें अपनी जडों तक बड़ी गहरी हैं। बाघों की तस्करी के अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारत से तिब्बत के जरिये चीन तक उनकी खालों के व्यापार की खबरें पिछले कई सालों से छनती हुई मीडिया में पहुंचती रही हैं। और अब जबकि बाघों की विलुप्ति की खबरों के सच होने के दिन नजदीक आते लग रहे हैं हमें उनकी चिन्ता सता रही है। देशभर में 38 से ज्यादा टागर रिजर्व उनके संरक्षण के नाम पर बने तो सही पर मौजूदा हाल साफ कर देता है कि वो कितने सफल रहे। या कहना बेहतर होगा कि कितने नाकामयाब रहे। खैर हालात जब इतने बिगडे हैं तो कम से कम हमें जागने की सूझी है। हम जो कर सकते हैं वो यही है कि उनके बचाव के लिये काम कर रहे जागरूकता अभ्यिानों से किसी न किसी तरह जुडें। अपनी ओर से जागरूकता लाने का प्रयास करें। हो सके तो कोई पहल करें। अगले कुछ सौ सालों तक बाघ जीते हुए दहाड सके तो पर्यावरण संरक्षण के लिए ये हमारी बडी मदद होगी।

बाघों की लगातार घटती संख्या ने हर आमोखास को चिन्ता में डाल दिया है। कितने आश्चर्य की बात है कि हर साल हजारों करोड रूपए खर्च करने के बाद भी बाघों के अस्तित्व पर दिनों दिन संकट बढ़ता जा रहा। हालांकि 1973 में बाघों को बचाने के लिए कांग्रेस की तात्कालिन केन्द्र सरकार ने टाईगर प्रोजेक्ट शुरू किया था। उस वक्त माना जा रहा था कि बाघों की संख्या तेजी से कम हो सकती है, अत: बाघों के संरक्षण पर विशेष ध्यान दिया गया। विडम्बना देखिए कि उसी कांग्रेस को 37 साल बाद एक बार फिर बाघों के संरक्षण की सुध आई है।
बाघ संरक्षण की दिशा में केन्द्र और राज्य सरकार कितनी संजीदा है उसकी एक बानगी है मध्य प्रदेश के पन्ना जंगल। पन्ना में 2002 में 22 बाघ हुआ करते थे, इसी लिहाज से इस अभ्यरण को सबसे अच्छा माना गया था। 2006 मे वाईल्ड लाईफ इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया (डब्लूआईआई) ने कहा था कि पन्ना में महज आठ ही बाघ बचे हैं। इसके उपरान्त यहां पदस्थ वन संरक्षक एच.एस.पावला का बयान आया कि पन्ना में बाघों की संख्या उस समय 16 से 32 के बीच है। जनवरी 2009 में डब्लूआईआई ने एक बार फिर कहा कि पन्ना में महज एक ही बाघ बचा है। इस तरह अब किस बयान को सच माना जाए यह यक्ष प्रश्न आज भी अनुत्तरित ही है। अपनी खाल बचाने के लिए वनाधिकारी मनमाने वक्तव्य देकर सरकार को गुमराह करने से नहीं चूकते और सरकार है कि अपने इन बिगडैल, आरामपसन्द, भ्रष्ट नौकरशाहों पर एतबार जताती रहतीं हैं।
2007 में हुई गणना के आंकडों के अनुसार बाघ संरक्षित क्षेत्रों में सबसे अधिक 245 बाघ सुन्दरवन में थे, इसके अलावा बान्दीपुर में 82, कॉर्बेंट मेे 137, कान्हा में 127, मानस 65, मेलघाट 73, पलामू 32, रणथंबौर 35, सिमलीपाल में 99 तो पेरियार में 36 बाघ मौजूद थे। सरिक्सा 22, बक्सा 31, इन्द्रावती 29, नागार्जुन सागर में 67 नामधापा 61, दुधवा 76, कलाकड 27, वाल्मीकि 53, पेंच (महाराष्ट्र) 40, पेंच (मध्य प्रदेश) 14, ताडोबा 8, बांधवगढ 56, डम्पा 4, बदरा 35, पाकुल 26, एवं सतपुडा में महज 35 बाघ ही मौजूद थे, इसके अलावा 2007 में सर्वेक्षण वाले अतिरिक्त क्षेत्रों में कुनो श्योपुर में 4, अदबिलाबाद में 19, राजाजी नेशनल पार्क 14, सुहेलवा 6, करीमनगर खम्मन 12, अचानकमार 19, सोनाबेडा उदान्ती 26, ईस्टर्न गोदावरी 11, जबलपुर दमोह 17, डाण्डोली खानपुर में 33 बाघ ििचन्हत किए गए थे।
दूसरे आंकडों पर गौर फरमाया जाए तो 1972 में भारत में 1827 तो मध्य प्रदेश में 457, 1979 में देश में 3017, व एमपी में 529, 1984 में ये आंकडे 3959 / 786 तो 1989 में 3854 / 985 हो गए थे। फिर हुआ बाघों का कम होने का सिलसिला जो अब तक जारी है। 1993 में 3750 / 912, 1997 में 3455 / 927, 2002 में 3642 / 710 तो 2007 में देश में 1411 तो मध्य प्रदेश में महज 300 बाघ ही बचे थे।
दुख का विषय यह है कि देश में 28 राष्ट्रीय उद्यान और 386 से अधिक अभ्यरण होने के बाद भी छत्तीसगढ के इन्द्रावती टाईगर रिजर्व नक्सलियों के कब्जे में बताया जाता है। इसके साथ ही साथ टाईगर स्टेट के नाम से मशहूर देश का हृदय प्रदेश माना जाने वाला मध्य प्रदेश अब धीरे धीरे बाघों को अपने दामन में कम ही स्थान दे पा रहा है, यहां बाघों की तादाद में अप्रत्याशित रूप से कमी दर्ज की गई है।
सरकारी उपेक्षा, वन और पुलिस विभाग की मिलीभगत का ही परिणाम है कि आज भारत में बाघ की चन्द प्रजातियां ही अस्तित्व में हैं। ज्यादा धन कमाने की चाहत के चलते देश में वन्य प्राणियों के अस्तित्व पर संकट के बादल छाए हैं। विश्व में चीन बाघ के अंगों की सबसे बडी मण्डी बनकर उभरा है। अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में बाघ के अंगों की भारी मांग को देखते हुए भारत में शिकारी और तस्कर बहुत ज्यादा सक्रिय हो गए हैं। मरा बाघ 15 से 20 लाख रूपए कीमत दे जाता है। बाघ की खाल चार से आठ लाख रूपए, हड्डियां एक लाख से डेढ लाख रूपए, दान्त 15 से 20 हजार रूपए, नखून दो से पांच हजार रूपए के अलावा रिप्रोडेक्टिव प्रोडक्ट्स की कीमत लगभग एक लाख तक होती है। बाघ के अन्य अंगो को चीन के दवा निर्माता बाजार में बेचा जा रहा है।

ऐसा नहीं है कि वन्य जीवों के संरक्षण के प्रयास पहले नहीं हुए हैं। गुजरात के गीर के जंगलों में सिंह को बचाने के प्रयास जूनागढ के नवाब ने बीसवीं सदी में आरम्भ किए थे। एक प्रसिद्ध फिरंगी शिकारी जिम कार्बेंट को बाघों से बहुत लगाव था। आजादी के बाद जब बाघों का शिकार नहीं रूका तो उन्होंने भारत ही छोड दिया। भारत से जाते जाते उन्होंने एक ही बात कही थी कि बाघ के पास वोट नहीं है अत: बाघ आजाद भारत में उपेक्षित हैं।
हर साल टाईगर प्रोजेक्ट के लिए भारत सरकार द्वारा आवंटन बढ़ा दिया जाता है। इस आवंटन का उपयोग कहां किया जा रहा है, इस बारे में भारत सरकार को कोई लेना देना प्रतीत नहीं होता है। भारत सरकार ने कभी इस बारे में अपनी चिन्ता जाहिर नहीं की है कि इतनी भारी भरकम सरकारी मदद के बावजूद भी आखिर वे कौन सी वजहें हैं जिनके कारण बाघों को जिन्दा नहीं बचाया जा पा रहा है।

बाघों या वन्य जीवों पर संकट इसलिए छा रहा है क्योंकि हमारे देश का कानून बहुत ही लचर और लंबी प्रक्रिया वाला है। वनापराध हों या दूसरे इसमें संलिप्त लोगों को सजा बहुत ही विलम्ब से मिल पाती है। देश में जनजागरूकता की कमी भी इस सबसे लिए बहुत बडा उपजाउ माहौल तैयार करती है। सरकारों के उदासीन रवैए के चलते जंगलों में बाघ दहाडने के बजाए कराह ही रहे हैं।

शिवराज की दूत क्यों बनीं सुषमा स्वराज?

इंदौर यानी अहिल्या नगरी में भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में तीन दिनों तक दिग्गज नेताओं में कुनबे की दिशा, दशा और चरित्र पर जमकर मंथन किया। प्राकृतिक महौल के बीच हुए इस मंथन में अमृत निकला या नहीं अभी तक पता नहीं चल पाया है लेकिन हलाहल जरूर बाहर आ गया है।

इस हलाहल को निकालने का श्रेय (कुचेष्टा) पार्टी की वरिष्ठ नेत्री और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज को जाता है। उनके एक वक्तव्य से दो नेता ही नहीं दो राज्यों की प्रतिष्ठा दांव पर लग गई है। ये राज्य हैं गुजरात और मध्यप्रदेश। तथा दोनों नेता हैं इन राज्यों के मुख्यमंत्री यानी नरेन्द्र मोदी और शिवराज सिंह चौहान। दोनों सुषमा स्वराज को बड़ी दीदी मानते हैं लेकिन दीदी के एक वक्तव्य ने भाइयों के बीच लकीर खींच दी है।

सुषमा स्वराज ने अपने आपको मध्य प्रदेश का ब्रांड एंबेसडर खुद ही बना दिया है। कायदे से तो उन्हें कर्नाटक का ब्रांड एबेसडर होना चाहिए जहां से वे सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव भी लड चुकी है और जहां की भाजपा सरकार सुषमा के मुंह बोले रेड्डी बंधुओं की दम पर चल रही है। सुषमा स्वराज और नरेंद्ग मोदी में कभी नहीं बनी यह तो सभी जानते हैं। इसकी एक बडी वजह यह है कि जब सुषमा बहुत पहले अपने लिए राज्य सभा की सीट तलाश रही थी तो उनके लिए लाल कृष्ण आडवाणी ने नरेंद्ग मोदी से कहा था। मोदी ने गुजराती गौरव का गुब्बारा उछाल दिया था और आखिरकार मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने विदिशा की अपनी सीट लोकसभा चुनाव में सुषमा को सौपी और खुद सुषमा के लिए प्रचार भी किया।
उल्लेखनीय है कि ऐशियाई शेरों को लेकर पहले से ही इन दोनों मुख्यमंत्रियों के बीच शीत युद्ध चल रहा था। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जब कभी गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी से कुनों अभ्यारण्य के लिए ऐशियाई शेरों की मांग करते तो श्री मोदी उन्हें पहले अपने बाघो का ध्यान रखने की सलाह दे डालते। शेरों के हस्तांतरण को लेकर वर्षो से चल रहे इस शीत युद्ध में सुषमा स्वराज की टिप्पणी ने आग में घी डालने जैसा काम किया है।

पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सब कुछ ठीक चल रहा था। पार्टी अध्यक्ष नीतिन गडकरी जहां युवाओं को ज्यादा तरजीह देने की बात कर रहे थे, वहीं आडवाणी भी चौथी पीढ़ी को जिम्मेदारी संभालने को तैयार रहने पर जोर दे रहे थे। इन सबके बीच गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी हीरो थे। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जब तमाम नेता नरेन्द्र मोदी के सुशासन की कसीदे पढ़ रहे थे, तब सुषमा ने ये कहकर सबको चौंका दिया कि मध्यप्रदेश का प्रशासन गुजरात के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील है।

पार्टी के ज्यादातर नेता सिर्फ मोदी मॉडयूल की तारीफ करते नहीं थक रहे थे। तब लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने मोर्चा संभाला और साफ किया कि गुजरात के मुकाबले मध्य प्रदेश किसी मायने में पीछे नहीं है। नरेन्द्र मोदी के बराबर मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को खड़ा करना था कि पार्टी के भीतर एक नई बहस शुरू हो गई। यानी क्या बीजेपी के मोदीकरण से वाकई पार्टी को नुकसान हो रहा है।

हालांकि पार्टी प्रवक्ता इस मामले में स्पष्ट नजरिया तो नहीं रख सके, लेकिन चौहान की तारीफ करने से भी पीछे नहीं रहे। सियासी हलकों में सुषमा के बयान के मायने निकाले जा रहे हैं। दो दिन पहले ही गडकरी ने मंदिर निर्माण के लिए मुसलमानों से सहयोग की अपील की। यानी पार्टी अल्पसंख्यकों के करीब पहुंचना चाहती है। ऐसे में पार्टी को मोदीकरण चेहरे से बाहर निकालना ही होगा।

उम्मीद तो थी कि इंदौर में एसी टेंट में ही सही लेकिन प्रकृति के थोड़े करीब आकर, नए युवा अध्यक्ष की अगुआई में बीजेपी नेता कुछ नया सोचकर एक नई शुरुआत करेंगे पर लोगों को यह जानकर बड़ा अफसोस हुआ कि पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में सुबह शाम चले मंथन के बाद भी ये नेता अपनी पार्टी के लिए अमृत नहीं निकाल पाए।

अलबत्ता बीजेपी में एक नई बहस की शुरुआत हो गई है और जिसका मुख्य सूत्रधार सुषमा स्वराज को माना जाता हैं। पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में जब तमाम नेताओं की उपस्थित में श्रीमती स्वराज के इस कथन ने सबको चौंका दिया कि मध्य प्रदेश का प्रशासन गुजरात के मुकाबले ज्यादा संवेदनशील है।

एक ही परिवार के दो सदस्यों के बीच फूट डालने की कोशिश तथा एक-दूसरे के खिलाफ भड़काने की सुषमा की कोशिश करार देने वाले राजनीतिक विश£ेषक अचरज से भरकर यह कहने में नहीं चूकते कि आखिर ये क्या हो गया है बीजेपी को, लगातार दो लोकसभा चुनावों में मात खाने के बाद बदले बदले से क्यों नजर आ रहे हैं पार्टी के तेवर।

सुषमा लोकसभा की सदस्य भी बनीं और जब आडवाणी के उत्तराधिकारी की बात चल रही थी तो आडवाणी ने बहुत से लोगों की दावेदारी को किनारे करते हुए सुषमा को लोकसभा में प्रतिपक्ष का नेता भी बनाया। सुषमा स्वराज अब लोकसभा में राजनाथ सिंह को भी आदेश देंगी जो हाल तक पार्टी के अध्यक्ष थे और उस नाते सुषमा स्वराज ही नहीं, पार्टी के सभी नेता उनका आदेश माना करते थे।

सुषमा स्वराज ने शिवराज सिंह की सरकार का गुणगान करने के लिए नरेंद्ग मोदी को निशाना क्यों बनाया यह तो अलग सवाल है लेकिन सुषमा ने कहा कि गुजरात सरकार को भाजपा के मुख्यमंत्रियों को मॉडल सरकार करार देने से पहले मध्य प्रदेश की सरकार की संवेदनशीलता देख लेनी चाहिए। मध्य प्रदेश मंे विकास भी हो रहा है और सुषमा की राय में संवेदनशील तरीके से हो रहा है। जाहिर है कि सुषमा ने एक तीर से दो शिकार किए है। शिवराज सिंह की संवेदनशीलता पर मोहर लगाई है और नरेंद्ग मोदी को एक बार फिर से हडका दिया है।

प्रतिपक्ष के नेता का पद लोकतंत्र में प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण पद होता है। ब्रिटिश और अमेरिकी लोकतंत्र में तो प्रतिपक्ष के नेता को छाया प्रधानमंत्री कहा जाता है। अगर भाजपा सरकार में आई तो प्रधानमंत्री पद की स्वाभाविक दावेदार सुषमा स्वराज ही होंगी। ऐसे में नरेंद्ग मोदी जैसे कद के नेता से झंझट मोल लेने का काम कर के सुषमा स्वराज ने बचपने का परिचय दिया।

नरेंद्ग मोदी ने सुषमा स्वराज के इस बयान पर कुछ भी नहीं बोल कर राजनैतिक बडप्पन भी दिखाया और यह संदेश भी दिया कि वे सुषमा स्वराज को कुछ नहीं समझते। वैसे भ जिससे भाजपा दूसरी पीढी कहा जाता था वह अब पहली पीढी बन गई है और नितिन गडकरी के तौर पर पार्टी के पास सबसे युवा अध्यक्ष मौजूद है। रही शिवराज सिंह की बात तो उन्हें सुषमा स्वराज के प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं थी। प्रमाण पत्र तो मध्य प्रदेश के मतदाता ने उन्हें दूसरी बार शान से मुख्यमंत्री बना कर दे दिया है।

Friday, February 26, 2010

पुलिस में बगावत कराने की फिराक में माओवादी

माओवादी प्रभावित राज्यों में सुरक्षा बलों के जवान और माओवाद कैडेट्स के बीच संघर्ष जारी है। इसमें दोनों ही तरफ के लोग मारे जा रहे हैं। इससे देश की शांति और विकास की प्रक्रिया बाधित हो रही है। सरकार माओवाद को एक समस्या मान कर इससे से जुड़े लोगों की सफाया करना चाहती है। वहीं माओवाद से जुड़े लोगों का कहना है कि गरीबों के प्रति सरकार और जमीदारों की नकारात्मक रवैये के कारण हीं हथियार उठाना पड़ा। समर्थन बटोरने माओवादी संगठन समय-समय पर पर्चे जारी कर आदिवासी समुदाय को यह बतना नहीं भूलते कि तुम हमारे हो, हमारे बीच के हो। रिश्ता तुम्हारी रोजी-रोटी से है मगर भाई मेरे, ऐसे जीने का भला क्या मतलब? छत्तीसगढ के अविभाजित बस्तर, राजनांदगांव और महाराष्ट्र के गढ़चिरोली क्षेत्र जिसे दण्डकारण्य के नाम से पुकारा जाता है, में लोगों को अब एक युद्ध लडऩे के लिये प्रेरित किया जा रहा है। अत्याधुनिक हथियारों और ढेर सारा गोलाबारूद। क्षेत्र में तैनात अधिकारी और जंगल महकमे के लोग यहां युद्ध लड़कर देश की सेवा करेंगे या अपनी रक्षा करेंगे। यहां आने पर आप एक सच्चाई को जरूर जाना समझा होगा। वो यह है कि आपके थानों-कैंपों के इर्द-गिर्द मौजूद बस्तियों में जीने वाले आदिवासी जो बेहद गरीबी में, बुनियादी सुविधाओं के अभाव में दशकों से सरकारी जारी लापरवाही का शिकार बनकर जिंदगी के साथ जद्दोजहद खिलाफ आप लोगों को लड़ाई लडऩा है। उन्हीं लोगों के सीने पर ताननी है अपनी रायफलें। क्योंकि सोनिया, मनमोहन सिंह, चिदंबरम, रमण सिंह, ननकीराम, अशोक चव्हान, महेंद्र कर्मा आदि नेताओं ने निर्णायक युद्व या आरपार की लड़ाई का जो हुंकार मार रहे हैं वो यहां के भोले भाले गरीब और मेहनतकश आदिवासी जन समुदाय के खिलाफ हीं है। आखिर यहां के जनता पर इतना गुस्सा क्यों?भोली-भाली व शांति चाहने वाली यहां की आदिवासी जनता का इतिहास देश के अन्य इलाकों के आदिवासी की तरह ही रहा है। इन्होंने 19 वीं सदी की शुरूआत से लेकर आज तक शोषण, लूट, उत्पीडऩ, अन्याय और परायों के शासन के खिलाफ बगावत का परचम हमेशा ऊंचा उठाए रखा है। 1911 में अंग्रेजों के खिलाफ इनलोगों ने जबरदस्त विरोध किया था जो इतिहास के पन्नों में महान भूमकाल के नाम से अंकित है। आने वाले 2011 में इस विद्रोह की 110 वीं सालगिरह मनानी है। और अब एक ऐसा संयोग बना है कि यह सौवां साल यहां के समूचे आदिवासियों को एक बार फिर प्रतिरोध का झंडा बुंलद करने पर मजबूर कर रहा है।बहरहाल यहां के आदिवासियों ने कई बिद्रोह किये। काफी खून बहाया, शहादतें दी। पर आजादी और मुक्ति की उनकी चाहतें पूरी नहीं हुई। पहले गोरें लुटेरों और 1947 के बाद से उनका स्थान लेने वाले काले लुटेरों ने इनके हिस्से में अभाव, अन्याय, अपमान और अत्याचार हीं दिये हैं। अपने हीं मां समान जंगल में वन विभाग के अधिकारियों ने उन्हें चोर बना दिया। जंगल माफिया, मुनाफाखोर व्यापारी, ठेकेदार, पुलिस, फॉरेस्ट अफसर। सभी ने उनका शोषण किया। उनकी मां-बहनों की इज्जत के साथ खिलवाड़ किया। हालांकि इनके खिलाफ उनके दिलो दिमाग में गु्स्सा उबल रहा था, लेकिन उसे सही दिशा देने की राजनैतिक ताकत उनके पास नहीं थी। ऐसी स्थिति में 1980 के दशक में उन्हें एक नई राह मिल गई। मुक्ति की एक वैज्ञानिक सोच और जनयुद्व का संदेश लेकर यहां पर माओवादी पार्टी ने कदम रखा। यहां की दमित-शोषित-उत्पीडि़त आदिवासी जनता में काम करना शुरू किया।सिर्फ यहां की आदिवासियों की नहीं बल्कि देश के तमाम इलाकों के लोगों की या यूं कहें कि देश की 90 प्रतिशत मेहनतकश लोगों की कमोबेश यही बदहाली है। देश के मजदुरों, किसानों, छोटे छोटे मंझोले व्यापारियों तथा आदिवासी, दलित, महिलाएं और अन्य पिछड़े समुदायों पर शोषण उत्पीडऩ का एक व्यापक दुष्चक्र जारी है। इस स्थिति के लिये जिम्मेदार वे लोग हैं जो आबादी के महज 11 फिसदी का प्रतिनिधि होने के बावजूद देश की समूची सम्पदाओं में 90 प्रतिशत पर हिस्सेदारी रखते हैं। गिद्ध माने जाने वाले इस समुदाय को माओवादी सामंती वर्ग, दलाल पूंजीपति वर्ग और साम्राज्यवादियों के वर्ग में बांटते है और इनकी सांठगांठ से निर्मित व्यवस्था को देश की सारी समस्याओं की जड़ बताते है।लोकतांत्रिक व्यवस्था को दुष्ट तिकड़ी की मुठ्ठी में बताते हुए यह प्रचारित किया जाता है कि यही लोग चुनाव लड़ते हैं, यही लोग जीतते हैं, पार्टी का नाम और झंडा का रंग जो भी हो। संसद भी इन्हीं लोगों का है। थाना, कचहरी, जेल सभी पर नियंत्रण इन्ही का है। देश की श्रमशक्ति, संपदाओं और संसाधनों को यही लोग लुटते हैं। इसके खिलाफ लडऩे पर पुलिस और फौजी बलों को उतारकर जनता पर अकथनीय जु्ल्म ढाते हैं। और उल्टा उन्हीं लोगो पर आंतकवादी या उग्रवादी का ठप्पा लगा देते हैं। गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, अकाल, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, किसानों की आत्महत्या, पलायन आदि सभी सम्मस्यायें इन्ही तीन वर्गों र्की निर्मम लूट खसोट के कारण उपजी है। मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण के आधार पर खड़ी इनकी व्यवस्था को ध्वस्त करना निहायत जरूरी बताते हुए माओवादी कार्यकर्ता कहते हैं कि शोषणविहीन, भेदभावरहित तथा हर प्रकार के उत्पीडऩ से मुक्त खुशहाल समाज का निर्माण किया जा सके इसके लिए जनता के पास कोई दूसरा और नजदीकी रास्ता नहीं बचा है। हमारी पार्टी की इसी राजनीतिक सोच के साथ दण्डकारण्य के आदिवासी सचेत हुए हैं और फिर संघर्ष का शंखानाद बज गया। सरकारी गुस्से का कारण यही है।देश के अन्य नागरिक इन बदहाल आदिवासियों से अलग हैं? यह माओंवादी नेता ऐसा भी नहीं मानते हैं। वह पुलिस के जवान और छोटे स्तर के अधिकारी को ( आपके बलों का नाम जिला पुलिस, सीएएएफ, सीपीओ, एसपीओ, एसटीएफ, सीआरपीएफ, बीएसएफ, ग्रे-हाउण्डस, कोबरा, आईटीबीपी, एसएसबी जो भी हों) ऐसे ही शोषित व मेहनतकश माता-पिता की संताने मानते हैं। आदिवासी जनता और उसका नेतृत्व कर रहे नक्सली यह कहने में गुरेज नहीं करते हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों की वफादार सरकार के सेवक मनमोहन सिंह और उनके अन्य मंत्री हमारे दल को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बताते नहीं थकते लेकिन इस बात को सफाई से छुपा जाते हंै कि हमारी पार्टी से देश के मुठ्ठी भर लुटेरों को खतरा है। चूंकि रेडियो, अखबार, और टीवी पर उन्हीं लुटेरों का कब्जा है। इसलिये एक झूठ को सौ बार दोहराकर सच बनाने की उनकी चालें कुछ हद तक चल भी पा रही है।सरकार के सभी प्रयासों के बाद भी आदिवासी अवाम के लिए जायज संघर्ष की अगुवाई करने का दम भरने वाले माओवादी नेता अपने अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को उकसा आदिवासियों का समर्थन पाने के लिए गांवों को जला रहे हैं। लूट रहे हैं। या फिर सलवा जुडूम जैसी व्यवस्था को नाकाम करने के लिए उनके साथ मारपीट कर रहे हैं। या फिर आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं। निहत्थे लोंगों पर गोलियां बरसा रहे हैं। और नरसंहारों को अंजाम दे रहे हैं। यह सब उस संविधान के खिलाफ जाकर कर रहे हैं जिसका पालन करने की शपथ लेकर देश के नेता और अफसर शाही देश सेवा में जुटे हंै। विडम्बना यह है कि जिन लोगों के खिलाफ यह सब कुछ हो रहा हैं वो आज भी गरीबी और भुखमरी से लड़ रही है। मेहनतकश जान बचाने की खातिर जन सेना और पीएलजी जैसे संगठनों के साथ मिलकर अपनी ही सेना और बल के खिलाफ जवाबी हमले कर रहे है जिसमें दर्जनों की संख्या में लोग हताहत हो रहे हैं। इन आदिवासियों से मिले नक्सलियों और माओवादियों को मिले समर्थन को देखते हुए नक्सल प्रभावित इलाकों में तैनात जवान खून-खराबा रोकने के लिए या तो आदिवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर रहे हैं या संघर्ष के इलाके में डयूटी करने से मना कर कर रहे हैं। इसके चलते इलाके में नहीं जाने के कारण कई कर्मचारियों का निलंबन किया गया फिर भी वे अपने फैसले पर कायम पर रहे। इलाके में इन अताताइयों के बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए माना यह जाता है कि फोर्स के जवान ही अब माओवादियों तक हथियार पहुंचा रहे हैं। नक्सली अब आदिवासी समुदाय के बीच ऐसे लोगों की सरहाना करते हैं जिन्होंने किसी न किसी वजह से आदिवासियों के पीछे छिपे नक्सलियों के खिलाफ बंदूक उठाने से मना कर दिया। इलाके में पदस्थ जवान कई परेशानियों और प्रताडनाओं के दौर से गुजर रहे हैं। खास कर उच्च अधिकारियों के बुरे बर्ताव से आहत पुलिस और अर्द्वसैनिक बलों के जवानों खुदकुशी भी कर रहे हैं। यहा अपने अफसरों को गोली मारकर खुद को भी गोली मारी।अपनी योजना को कारगर बनाने के लिए यह माओंवादी नेता आज जवानों के बीच ही फूट डालने की योजना के तहत काम करते हुए जवानों से अपील कर रहे हैं कि आप इस इस तरह निरर्थक मौत को गले न लगायें। आपमें ताकत है और सोच विचार कर फैसला लेने का विवेक भी। अपनी वर्गिय जड़ों को पहाचानिये। उकसाने और जनता पर कहर ढाने का आदेश देने वाले अपने अफसरों की वर्गीय जड़ो को पहचानिये। चिदम्बरम, रमनसिंह, महेंद्र कर्मा जैसों के असली चेहरे को पहचानिये। दोनो बिल्कुल अलग अलग हैं और एक दूसरे के विपरित भी हैं। दोनों हाथ फैला कर स्वागत करने की बात कहते हुए जवानों को अपनी बंदूकें लुटेरों, घोटालेबाजों, रिश्वतखोरों, जमाखोरों, देश की संपदाओं को बेचने वाले दलालों, देश की अस्मिता के साथ सौदा करने वाले देशद्रोहियों के सीने पर तानने की सलाह दे रहे हैं। इनका मानना है कि जिस मेहनत वर्ग में जन्म लिया है उस वर्ग की मुक्ति के लिये जारी महासंग्राम के सैनिक बनना चाहिए। न कि घूसखोरी, गालीगलौज, दलाली, जातिगत भेदभाव, धार्मिक साम्प्रदायिकता आदि सामंती मान्यताओं के ढांचे पर निर्मित पुलिस और अद्र्धसैनिक बलों मेें शामिल होकर देश के सच्चे सेवकों की राह में रोड़ा बनकर उभरना चाहिए।इलाके में तैनात पुलिस के जवानों की माने तो इन दिनों नक्सली अपनी वारदातों को अंजाम देने के बजाय रणनीतिक चाल चलते हुए पुलिस और अद्र्धसैनिक बलों तक यह संदेश पहुंचा रहे है कि वह हमलों में शामिल होने से इंकार कर दें। अपने अफसरों के हुक्म का पालन न करने की समझााइश देते हुए जनता के खिलाफ लाठी-गोलियों का प्रयोग नहीं करने की बात कह रहे हैं। सशस्त्र झड़पों के सूरत में हथियार डाल अपनी जान बचा लेने का संदेश देते हुए यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि संघर्ष कि इतनी व्यापक सरकारी बर्बरता, आतंक और नरसंहारों के बावजूद भी यहां की जनता हमारी पार्टी के साथ क्यों खड़ी है। अपने अधिकारियों और सरकार के खिलाफ झूठे प्रचार का सहारा ले यह बताने की कोशिश की जा रही है कि जिस सरकार ने तुम्हारे हाथों में बंदूके थमाई हैं वो गद्दार हैं मुल्क के दुश्मन हैं। जबकि मत भूलो, कि तुम हमारे हो, हमारे बीचे के हो।

मूर्तियों के प्रदेश में मौत मांगते किसान

उत्तर प्रदेश में एक तरफ मुख्यमंत्री मायावती ने पत्थर की मूर्तियां लगाने में लाखों करोड़ों रुपए पानी की तरह बहा दिया है वहीं प्रदेश के किसान सरकार की बेरुखी से मौत मांगते फिर रहे हैं। वैसे तो प्रदेश में सैकड़ों किसान बेहाल हैं लेकिन यह एक ऐसे किसान की कहानी है जो सोलह साल से भू माफियाओं से अपनी चार एकड़ जमीन को बचाने के लिए सत्ता से संघर्ष कर रहा है और अब वह थक-हार कर आत्महत्या करना चाहता है। लंबे संघर्ष और कोर्ट कचहरी के चक्कर ने न केवल गरीब चंदन सिंह बंजारा की कमर तोड़ दी है बल्कि उसके ऊपर हजारों का कर्ज भी लाद दिया है। 11 लोगों का परिवार चलाना उसके लिए अब मुश्किल हो गया है। उपर से अधिकारियों ने उसे एक लाख रूपये का ट्यूबेल के बिजली का बिल थमा दिया है। लिहाजा, चंदन सिंह अब दरबदर ठोकरें खाने की बजाए अपनी इहलीला ही समाप्त कर देना चाहता है। लेकिन आत्महत्या करना यहां कानूनन जुर्म है। चंदन सिंह बंजारा अधिकारियों के सामने कई बार आत्महत्या का प्रयास कर चुका है। लेकिन हर बार लोगों ने उसे बचा लिया। एक बार जिला मजिस्ट्रेट के सामने आत्महत्या के करने के प्रयास में चंदन सिंह को 14 दिन हवालात में भी बिताने पड़े। जब चंदन ने हवालात से बाहर आने से इनकार कर दिया (चंदन का कहना था कि हवालात में उसे रोटी मिल रही है घर में भूखा रहना पड़ता है) तो पुलिस उसे जबरन गांव छोड़ गई। लिहाजा, इस बार वह राष्ट्रपति से मय परिवार सामूहिक आत्महत्या की इजाजत देने की गुहार लगा रहा है। उधर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव कहते हैं कि 'यह तो एक उदाहरण भर है। दलितों के नाम पर पार्टी बनाने और उन्हीं के वोट से सत्ता सुख भोग रही बहनजी अब दलितों को भूल गई हैं।Ó वैसे देखा जाए तो मुलायम सिंह यादव की भी कथनी-करनी अगर सही रहती तो यह हालात पैदा नहीं होते।पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरपुर जिले के कैराना तहसील याहियापुर गांव के रहने वाले अनुसूचित जनजाति के साठ वर्षीय चंदन सिंह बंजारा के जीवन में 20 साल पहले एक सरकारी घोषणा ने जहर घोल दिया। किसानों के लिए लाभदायी इस घोषणा ने चंदन सिंह को लाभ पहुंचाने की बजाए मौत को गले लगाने के लिए विवश कर दिया है। सरकारी अमले में बैठे भ्रष्ट अधिकारियों ने धोखे से चंदन सिंह बंजारा की जमीन को भूमाफियाओं को बेच दिया। बात सन 1985 की है, ये दिन चंदन सिंह की खुशहाली के दिन थे। तब मेहनतकश इस किसान ने अपने खेतों में ट्यूबेल लगवाने के लिए सरकार से 10 हजार रुपए का कर्ज लिए थे। पांच सालों में उसने कर्ज के करीब 5,700 रुपये वापस कर दिए। इसी दौरान जनता दल की वीपी सिंह सरकार ने किसानों के 10 हजार रुपये तक के कर्ज माफ करने की घोषणा की। इस घोषणा से चंदन सिंह फूले नहीं समाए। चंदन सिंह बंजारा कहते हैं, ''तब एक दिन कुछ सरकारी कर्मचारी मेरे घर आए और बताया कि तुम्हारा कर्जा माफ हो जाएगा, लेकिन इसके लिए तुम्हें हमें दो हजार रुपये देने पड़ेंगे।ÓÓ चंदन सिंह बंजारा के तब इतने पैसे नहीं थे। एक बार उन्होंने सोचा की साहूकार से कर्ज लेकर वह कर्मचारियों को रिश्वत दे दें, लेकिन फिर उन्हें लगा कि जब सरकार ने घोषणा कर दी है तो जब सबका कर्ज माफ होगा तो उनका भी होगा। लेकिन चंदन सिंह ने गलत सोचा था। रिश्वत के भूखे सरकारी बैंक के कारिंदों ने चंदन सिंह का नाम कर्ज माफी की सूची में शामिल नहीं किया। लेकिन इसके बाद जो कुछ हुआ उसने चंदन सिंह की कमर तोड़ दी। फरवरी, 1992 में उन्हें तहसीलदार के यहां से एक नोटिस मिलता है तो उनके पांव के नीचे से जमीन खिसक जाती है। यह कर्ज की रिकबरी का आदेश था। इस रिकबरी आदेश के मुताबिक चंदन सिंह की बकाया कर्ज राशि मय ब्याज सहित 12,384 रूपये हो चुकी थी और इसे फौरन सरकारी खजाने में जमा करने का आदेश था। चंदन सिंह के पास इतने पैसे नहीं थे। लिहाजा, कर्ज अदायगी न कर पाने के बाद पुलिस चंदन सिंह को पकड़ कर थाने ले गई और उन्हें 14 दिन तक हिरासत में रखा। अंगूठाटेक चंदन सिंह बंजारा भोलेपन में कहते हैं कि ''मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं, मुझे लगा कि जब मुझे जेल हो गई तो अब मेरा कर्ज माफ हो गया और पैसा नहीं देना पड़ेगा। इसके बाद मुझे कभी रिकबरी का नोटिस भी नहीं आया।ÓÓ इस घटना के करीब तीन साल बाद एक दिन चंदन सिंह बंजारा की जमीन पर कब्जा करने कुछ लोग आते है और पता चलता है कि सरकार ने कर्ज अदायगी न कर पाने के एवज में उनकी 21 बीघे जमीन को 19 जुलाई, 1994 को हरबीर सिंह को नीलाम कर दिया है। हैरान परेशान चंदन सिंह भारतीय किसान यूनियन के नेताओं से संपर्क करते हैं। यूनियन और गांव के लोगों ने मिल कर फिलहाल तब जमीन पर कब्जा नहीं होने दिया। इसके पीछे किसानों की एक जुटता थी जब जमीन मालिक चंदन से कब्जा लेते आता गांव और यूनियन के लोग एकजुट होकर उसे गांव से भगा देते। यूनियन के नेताओं की तहकीकात से इस बात का खुलासा हुआ की कैसे तहसीलदार और पटवारी की मिलीभगत से चंदन सिंह की जमीन को गुपचुप तरीके बेच दिया गया। इस मामले को लेकर आंदोलन चलाने वाले भारतीय किसान यूनियन के प्रदेश उपाध्यक्ष चौधरी देश पाल सिंह कहते हैं, ''कर्ज अदायगी न कर पाने पर सरकार जब किसी की जमीन नीलाम करती है तो इसके बारे में संबंधित व्यक्ति के दरवाजे पर न केवल नोटिस चिपकाया जाता है बल्कि इस बारे में गांव में मुनादी कराई जाती है और अखबारों में इश्तहार भी दिया जाता है। लेकिन चंदन के मामले में ऐसा कुछ भी नहीं किया गया। चंदन की 21 बीघे यानी करीब चार एकड़ जमीन को महज 90 हजार रूपये में नीलाम कर दिया गया। जबकि उस समय इस जमीन का बाजार भाव 15 लाख रूपये से कहीं ज्यादा था। इस समय तो इस जमीन की कीमत करीब 50 लाख है.ÓÓन्याय की मांग को लेकर चंदन सिंह बंजारा पिछले 10 सालों में दर्जनों बार तहसीलदार से लेकर एसडीएम और डीएम के सामने धरना दे चुके हैं। कई बार तो आत्महत्या का भी प्रयास कर चुके हैं। मामले की जांच भी हुए। सिटी मजिस्ट्रेट ने अपनी जांच में साफ पाया कि तहसील अधिकारियों अधिकारियों ने चंदन सिंह की बिना जानकारी के और नियम-कानूनों की धजिज्यां उड़ाते हुए उसकी जमीन को सस्ते में नीलाम कर दिया। सिटी मजिस्ट्रेट की जांच रिपोर्ट और दूसरे ऐसे कई दस्तावेज मौजूद है जिससे साबित होता है कि है तहसील अधिकारियों और भू माफियाओं की सांठगांठ ने चंदन सिंह के साथ धोखाधड़ी कर जमीन को नीलाम करवा दिया। जांच रिपोर्ट में साफ लिखा है, ''वसूली मांग पत्र में अंतर्निहित धनराशि 12,384.50 रूपये के सापेक्ष निलाम की गई भूमि का सर्किल मूल्य 1,60,080 रूपये है। इतनी छोटी धनराशि के सापेक्ष इतने बड़े भूखंड को नीलाम किया जाना संदेह की स्थित पैदा करता है। इस छोटी धनराशि की वसूली कुर्क शुदा भूमि पर लगी आवर्ती फसलों की नीलामी से भी की जा सकती थी। सिटी मजिस्ट्रेट की जांच के बाद साफ हो गया कि चंदन सिंह के साथ नाइंसाफी हुई है। इस जांच रिपोर्ट के आधार पर कमिश्नर ने एक आदेश जारी किया कि कर्ज की रकम मय ब्याज सहित जितनी बनती है उसका एक माह में भुगतान कर चंदन सिंह अपनी जमीन को वापस पा सकता है। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत कहते हैं, ''तत्कालीन कमिश्नर का यह आदेश भी तर्क संगत नहीं था। होना यह चाहिए था कि दोषी अधिकारियों को सजा दी जाती और चंदन सिहं को उसकी जमीन का मालिकाना हक बिना किसी हर्जाने के वापस कर दिया जाता। लेकिन सरकार ने गरीब और निर्दोष चंदन सिंह से कर्ज की राशि 8,464 रूपये के एवज में करीब 60,000 रूपये वसूले। जबकि कर्ज की यह राशि भी वीपी सिंह सरकार ने माफ कर दिया था।ÓÓ वे सवाल करते हुए कहते हैं, ''उत्तर प्रदेश में दलितों की सरकार है। अगर मायावती के राज में अनुसूचित जनजाति के चंदन सिंह बंजारा को न्याय नहीं मिलेगा तो कब मिलेगा। दोषी अधिकारियों को तो जेल होनी चाहिए लेकिन सजा दिलाने की बजाए अधिकारी उन्हें बचाने में लगे हैं। ÓÓ यह जानते हुए कि कर्ज की मय ब्याज सहित रकम करीब 60 हजार रूपये का फौरन भुगतान करना चंदन सिंह के बस की बात नहीं है। मजबूरन कर्ज लेकर सरकार को अदा करने वाले चंदन सिंह के मित्र और मददगार योगेंद्र सिंह कहते हैं, ''मैने अपनी जमानत पर प्रति माह पांच रूपये सैकडे की दर से शहर के एक व्यापारी से चंदन सिंह को 50,000 रूपये कर्ज दिलवाया है। रकम भरने के बाद भी अधिकारी जमीन चंदन सिंह के नाम करने में हिल्ला हवाली कर रहे हैं। लिहाजा, न्याय की आस छोड़ झुके चंदन अब हुक्करानों के आगे गिड़गिड़ाने की बजाए, अपना जीवन ही समाप्त कर लेना चाहते हैं।

Thursday, February 25, 2010

बे-कार मुख्यमंत्री है शिवराज

मध्य प्रदेश विधान सभा में आज मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को मुख्यमंत्री बने और उसके बाद दोबारा मुख्यमंत्री बने काफी वक्त हो गया और वे अभी तक अपनी कार नहीं खरीद सके। मुख्यमंत्री के नाते उनके पास कारो का काफिला है मगर निजी तौर पर उनकी पत्नी साधना सिंह के पास दस साल पुरानी एक एंबेसडर कार है जिसका बाजार भाव किसी भी हाल में एक लाख रुपए से ज्यादा नहीं होगा।
शिवराज सिंह अकेले मंत्री हैं जिन्होंने विधानसभा में अपनी संपत्ति का ब्यौरा दिया है। यह ब्यौरा चौकाने वाला भी है और उन लोगों को चुप कराने वाला भी जो शिवराज सिंह और उनके परिवार पर मोटी कमाई के इल्जाम लगाते रहे हैं। मुख्यमंत्री द्वारा पेश सम्पत्ति के ब्यौरे के अनुसार उनके नाम पर कोई वाहन नहीं हैं और उनकी पत्नी साधना सिंह के पास वर्ष 2000 माडल की एक एम्बेसडर भर है। चौहान ने आज सदन में अपनी सम्पत्ति का ब्यौरा पटल पर रखा।
सदन में केवल मुख्यमंत्री ने अपनी और अपनी पत्नी की सम्पत्ति का ब्यौरा रखा जबकि मंत्रिमंडल के किसी अन्य सदस्य ने सम्पत्ति का ब्यौरा पेश नहीं किया। सदन में पेश किए गए ब्यौरे के अनुसार मुख्यमंत्री की स्वंय की एलआईसी का वार्षिक प्रीमियम 6617 दोनो पुत्रों की एलआईसी 10610 का वार्षिक प्रीमियम, नेशनल सेविंग सार्टिफिकेट 60000 रुपए तथा 64 ग्राम सोना और जेवरात हैं। साथ ही उनके पास जहां एक रिवाल्वर है वहीं एक लाख 80 हजार का घरेलू सामान भी है जबकि 14 लाख रुपए उन्होंने अपनी पत्नी साधना सिंह को एडवांस के रुप में दिए हैं। इसके अलावा चौहान एवं उनके दोनो पुत्रों के नाम बैंकों में 13 लाख रुपए जमा हैं। इसके अलावा ग्राम जैत में 4.79 एकड़ विदिशा जिले के ग्राम वैश्य में 1.29 हैक्टर, विदिशा के एम।पी।नगर में एक मकान तथा विधायक परिसर में 23 लाख रुपए के बैक ऋण पर एक मकान है जबकि इस ऋण में से 16 लाख रुपए का रिण बकाया है। मुख्यमंत्री ने अपनी पत्नी साधना सिंह की सम्पत्ति का ब्यौरा भी सदन में पेश किया। इसके अनुसार उनके पास एक एम्बेसडर कार 2000 माडल, स्वयं की एलआईसी पालिसी का वार्षिक प्रीमियम 6287 रुपए, नेशनल सेविंग सर्टिफिकेट 20 हजार रुपए सोना एवं जेवरात 470 ग्राम हैं जबकि नगद एवं बैंकों में जमा राशि 4.70 लाख रुपए हैं। इसके अलावा साधना सिंह के पास विदिशा जिले के ग्राम वैश्य में 4.725 हैक्टर कृषि भूमि जिसमें 45 हजार वर्गफुट पर वेयर हाउस बना है, अरेरा कालोनी भोपाल में एक फ्लैट, विदिशा स्थित वेयर हाउस पर 36 लाख का रिण और सर्वधर्म कालोनी में प्लाट के लिए 41 हजार रुपए का अग्रिम जमा है।

मौत यहां अतिथि नहीं

मौत के मामले में देखा जाए तो वह यहां किसी अतिथि की तरह न आकर हमेशा डेरी डाले रहती है। भारत में अधिकत्तर मौतें भोजन के अभाव में होती हैं जबकि अनाज से और खास तौर पर निर्यात होने वाले चावल से भारतीय खाद्य निगम के गोदाम भरे पड़े हैं। बाजारों में महंगी से महंगी शराबे मिलती है। छतों पर डिश एंटिना लगे हुए हैं। होटलों में शाही पनीर और मुर्गे की टांग मिलती है। फिर भी यहां भूख है।
भूख से मौत के लिए वैसे तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश भी कुख्यात हैं लेकिन उड़ीसा को तो जैसे इसका शाप मिला हो। पूरे देश से सूखे और अकाल की आ रही है लेकिन इन खबरों में कालाहांडी का नाम नहीं हैं। कालाहांडी भूख और अकाल से होने वाली मौतों का एक ऐसा मुहावरा बन गया है कि वहां भूख और अकाल अब खबर नहीं बनते। पश्चिमी उड़ीस के बोलांगीर मेें तो इथियोपिया के बाद सबसे ज्यादा मौत की खबरे आती है। वह भी भूख से मौत की खबरे। वैसे भारत में अकाल और आपदाओं के उपकारधर्मी पर्यटन का, कालाहांडी एक तीर्थ भी हैं। यहां आम तौर पर देश, विदेश से चंदा ले कर चलने वाले, और अकाल मिटाने का दावा करने वाले तमाम सामाजिक संगठन है जिन्हें बोलचाल की भाषा में एनजीओ कहा जाता है आते रहते हैं। इस सूखे के मौसम में भी कालाहांडी हरा भरा है। धान के खेतों में पानी भरा है। फसल पिछली बार भी अच्छी हुई थी और इस बार भी अच्छी होने की उम्मीद है। सबसे ज्यादा इस इलाके में धान ही होता है और वह भी इस स्तर का कि आम तौर पर निर्यात किया जाता है। ये धान उगाने वाले किसान भूखे रहते है या अपने ही खेतों पर मजदूरी करते है। इस पूरे इलाके में सूदखोरी का धंधा इतनी निर्लज्जता से चलता है कि बड़े से बड़ा बेशर्म शर्मा जाए। एक रुपए पर अस्सी पैसा ब्याज यानी ब्याज का प्रतिशत 80 फीसदी और वह भी प्रति माह। डागोस और जेनेवा में भारतीय निर्यात और विकास दर की घोषणा करने वाले हमारे सत्ता के सूत्रधार जानते हैं कि 13 प्रतिवर्ष से ज्यादा ब्याज लेना अपराध है लेकिन पश्चिमी उड़ीसा के ज्यादातर जिलों में यह अपराध सामाजिक और सामुदायिक आधार पर चलता रहता है और किसी को ऐतराज नहीं होता। कालाहांडी की ओर सबसे पहले ध्यान दिया था इंदिरा गांधी ने। वे 1980 में कालाहांडी के दौरे पर गई थी और केबीके विकास बोर्ड की घोषणा कर के आई थी। इस कोष में सारा पैसा केंद्र सरकार को देना तय हुआ था। मगर सरकारी माल आ रहा है और उसका बंटवारा होना है तो स्थानीय विधायकों और सांसदों में बोर्ड का सदस्य बनने की होड़ मच गई और वोट बैंक की राजनीति में बोर्ड बन ही नहीं पाया। भारतीय जनतंत्र को भूख तंत्र भी कहा जा सकता है। 1984 में राजीव गांधी यहां आए। उन्होने काफी फिल्मी अंदाज में एक खेत की जमीन से उठा कर कहा कि वे अपनी मां के वायदे को पूरा करेंगे। मगर जल्दी हीे अरुण नेहरू, अरुण सिंह और रोमी छाबड़ा जैसे उनके चमचों ने जो क्लब और कॉरपोरेट संस्कृति के अलावा कुछ नहीं जानते थे, ने राजीव गांधी को कंप्यूटरों की दुनिया में फंसा दिया और फिर बोफोर्स का बवाल आया और राजीव गांधी कालाहांडी भूल गए। सोनिया गांधी 2004 में यूपीए सरकार बनने के बाद यहां आई और विकास का वायदा कर के चली गईं। राहुल गांधी तो अभी 2008 में वहां गए और कहा कि वे सरकार को विकास के लिए मजबूर करेंगे। भारतीय जनता पार्टी का रिकॉर्ड भी कालाहांडी की भूख के मामले में बहुत उज्जवल नहीं हैं। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तो मैं खुद कालाहांडी के कई निवासियों को अपनी पहल पर उनसे मिलवाने ले कर गया था। मेरी गोद में नुआपाड़ा जिले के खरियार ब्लॉक के एक गांव की चार साल की लड़की कुंजबनी भी थी। कुंजबनी जब पैदा हुई थी तो उसके पिता ने अस्पताल के खर्चे के लिए 1600 रुपए का कर्ज लिया था और उन चार सालों में वह अभागा पिता 12 हजार रुपए चुका था मगर सूद के आठ हजार रुपए बाकी थे और मूलधन अलग से। श्री वाजपेयी ने धीरज से सुना था और कुंजबनी के माथे पर हाथ रख कर कहा था कि कालाहांडी के लोगों के साथ न्याय किया जाएगा। कुंजबनी अब 15 साल की हो चुकी है। उसके जन्म के लिए जो कर्ज लिया गया था वह अभी तक चुका नहीं हैं और वह भोली बच्ची अब बंधक मजदूर के तौर पर काम कर रही है। अटल बिहारी वाजपेयी को पोखरण और पाकिस्तान से ही फुरसत नहीं मिली। कालाहांडी हमारे अति विशिष्ट महानुभावों की राजनैतिक रासभूमि हैं और इसीलिए नुआपाड़ा में एक हवाई अड्डा बनाया गया है। कालाहांडी का इतना ही विकास हुआ है। कई वर्ष पहले जब गुजरात के कच्छ इलाके में भयानक चक्रवात आया था तो संयोग से मैं वहीं था। इसे आप मेरी नियति कहें या कोई विधि का विधान कि कई महासंकटों में मैं उसी क्षण उसी जगह मौजूद रहा हूं। एक दिन देर हो जाती तो कांधार ले जाए गए विमान में भी मैं होता। एक दिन पहले काठमांडू से लौटा था। कच्छ और गांधीधाम इलाके में मैं गया था नमक पैदा करने के व्यापार ओैर आयोडाइज्ड नमक के मिथक को ठीक से समझने मगर चक्रवात के बाद वहीं रह गया। जब लाशे गिनी गई तो उनमें से 200 से ज्यादा कालाहांडी और आसपास के जिलों के लोगों की थी। वे बेचारे अपने खेत, घर और खलिहान छोड़ कर गुजरात के समुद्र तट पर मजदूरी करने गए थे और उनमें से ज्यादातर के नाम ठेकेदारों ने रजिस्टरों मे लिखे ही नहीं थे इसलिए उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला। ये उस कालाहांडी के वासी थे जहां भारतीय कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति खाद्यान्न पैदा होता है। लेकिन उनके लिए नही। अपने रायपुर में ज्यादातर रिक्शा चलाने वाले उड़ीसा के इसी इलाके के हैं। उनकी जमीन पर सूदखोरों ने कब्जा कर लिया हैं। कानून के अनुसार दलितों और आदिवासियों की जमीन पर कोई गैरआदिवासी या गेैर दलित स्वामित्व नहीं दिखा सकता इसलिए सूदखोरों के बहुत सारे आदिवासी और दलित नौकर हैं जो कालाहांडी, बोलांगिर और कोरापुट में साइकिलो पर घूमते रहते हैं और उन्हें पता भी नहीं हैं कि वे हजारों एकड़ जमीन के मालिक है। दस्तावेज उनके मालिकों के पास रखे हैं। उन्होंने तो सिर्फ अंगूठा लगाया है। उड़ीसा के लिए भारत सरकार ने एक केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने का ऐलान किया है। 1988 से यह मांग चल रही है कि केबीके जिलों में से किसी में यह विश्वविद्यालय स्थापित किया जाए। लिख कर ले लीजिए कि नवीन पटनायक ऐसा नहीं होने देंगे। उन्हें अपने समुद्र तटीय इलाके से प्रेम हैें। कालाहांडी की जमीन अब खनिज उत्पादन के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लीज पर दे दी गई है और उससे इन किसानों का कोई लाभ नहीं होने वाला।

Wednesday, February 24, 2010

मोहंती पर सरकार ने कसा शिकंजा


सात अरब के घोटाले के आरोपी के खिलाफ विभागीय जांच के आदेश

औद्योगिक विकास निगम में हुए लगभग सात सौ चौदह करोड़ के घोटाले में फंसे तत्कालीन प्रबंधक एसआर मोहंती पर राज्य सरकार ने शिकंजा कसते हुए विभागीय जांच के आदेश दिए हैं। सुप्रीम कोर्ट में मामला लंबित रहने के कारण मंत्रालय में लगभग तीन वर्ष से लंबित इस प्रकरण में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हस्ताक्षर करते हुए विभागीय जांच की अनुंशा कर समयसीमा में रिर्पोट प्रस्तुत करने का आदेश दिया है।
उल्लेखनीय है कि औद्योगिक विकास निगम के तत्कालीन प्रबंध संचालक एसआर मोहंती ने बिना किसी नियम का पालन करते हुए देशभर की लगभग 177 कंपनियों को 714 करोड़ का ऋण बांट दिया था। इस मामले में 30.11.1998 को तत्कालीन प्रबंधक संचालक एमपी राजन ने संचालक मंडल की बैठक में यह प्रस्ताव भी पारित कराया था कि एमपीएसआईडीसी किसी भी संस्थान से 175 करोड़ के स्थान पर 500 करोड़ तक की सहायता राशि प्राप्त करें। शासन द्वारा इस प्रस्ताव के संबंध में आपत्ति भी की गई। लेकिन इन अधिकारियों ने जानबूझकर प्रस्ताव के संबंध में शासन को गुमराह करते हुए किसी तरह का अनुमोदन नहीं लिया और न ही कार्पोरेट डिपाजिट दिए जाने के लिए कोई नियम ही बनाए। इस तरह अल्प अवधि के लिए दिये जाने वाले डिपाजिट (एक वर्ष से कम अवधि के लिए) को प्रबंध संचालक द्वारा तीन वर्ष एवं पांच वर्ष तक की अवधि में तब्दील कर एमपीएसआईडीसी के तात्कालीन प्रबंध संचालक एमपी राजन एवं एसआर मोहंती ने अनाधिकृत रूप से डिपाजिट प्राप्त किया एवं उसे आईसीडी के रूप में वितरित कर दिया। जबकि प्रस्ताव में यह पारित कराया गया था कि एमपीएसआईडीसी के सरप्लस फंड का उपयोग किया जाएगा। प्रबंध संचालकों ने कार्पोरेट डिपाजिट के रूप में वितरित की जाने वाली राशि बिना सिक्योरिटी जमा कराए ही वितरित कर दी। जिसमें इस तथ्य को भी नजर अंदाज किया गया कि उपरोक्त राशि वापस होने की संभावना है या नहीं। घोटाला उजागर होने पर सरकार ने एमपीएसआईडीसी द्वारा जिन 42 कम्पनियों को आईसीडी की राशि वितरित की गई उसका मूल रिकॉर्ड जब्त किया गया एवं 23 अधिकारियों / कर्मचारियों से पूछताछ कर कथन भी लिए गए थे। मामले में तात्कालीक चेयरमैन और दोनों पूर्व प्रबंध संचालकों के अलावा जिन कंपनियों को ऋण वितरित किया गया उनमें से 17 कम्पनियों के संचालकों से पूछताछ की जा चुकी है। तत्कालीन मुख्यमंत्री उमाभारती ने लगभग सात अरब रुपए के घोटाले पर कार्रवाई करने के निर्देश देते हुए आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो में प्रकरण दर्ज कराया। आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो ने प्रकरण क्रमांक 25/04 अंडरसेक्शन 409, 420, 467, 468, 120 बी, 13 (आई) (डी) आरडब्ल्यू 13 (आईआई) पीसी-एसीटी का समावेश कर श्री मोहंती के विरुद्ध एफआईआर दर्ज की। इस मामले में मुख्य सचिव विजय सिंह के दबाब में सामान्य प्रशासन विभाग ने उपसचिव सामान्य प्रशासन विभाग के माध्यम से माननीय उच्च न्यायालय में 18 जनवरी 06 को हलफनामा प्रस्तुत किया। इस मामले में एसआर मोहंती ने हलफनामा प्रस्तुत करने के दिन 18 जनवरी 06 ही माननीय उच्च न्यायालय में आवेदन लगाकर जल्दी सुनवाई करने का निवेदन किया। राज्य सरकार के सामान्य प्रशासन विभाग द्वारा श्री मोहंती के पक्ष में हलफनामा प्रस्तुत करने से उच्च न्यायालय ने भी मोहंती के पक्ष में निर्णय दिया। न्यायालय द्वारा अरबों रुपए के घपले में फसे सुधी रंजन मोहंती को क्लीन चिट देने की जानकारी जब समाचार पत्रों द्वारा प्रमुखता से प्रकाशित हुई तब मुख्यमंत्री ने अपना स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि उन्हें अंधेरे में रखते हुए शपथपत्र तैयार कर न्यायालय में प्रस्तुत किया गया। बताया जाता है कि इस अरबों रुपए के घोटाले में प्रदेश के तत्कालीन मुख्य सचिव ने बिना मुख्यमंत्री को विश्वास में लिए ही उच्च न्यायालय में शपथपत्र प्रस्तुत कराया था। इससे खिन्न होकर मुख्यमंत्री ने तत्कालीन मुख्य सचिव को बुलाकर अप्रसंन्नता व्यक्त करते हुए नाराजगी जाहिर की और मुख्य सचिव बदल दिया। चूंकि मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। इसके चलते हो रही देरी को ध्यान में रखते हुए शासन ने आदेश देकर श्री मोहंती के विरुद्ध पुन: कार्रवाई आरंभ करने कि निर्देश दिए हैं।
कम्पनियों को वितरित ऋण की सूची
1. एस. कुमार पॉवर कार्पोरेशन 4475.00 लाख, 2. मोडक रबर एंड टेक्सरीज 325.00 लाख, 3.प्रोग्रेसिव इक्सटेंशन एंड एक्सपोर्ट 675.00 लाख, 4. सूर्या एग्रो लिमि. 1475 लाख, 5. एलपिन इंडस्ट्रीज लिमि. 2845 लाख, 6. स्नोकम इंडिया लिमि. 2800 लाख, 7. किलिक निक्सोन लिमि. 1500 लाख, 8. स्टील ट्यूब ऑफ इंडिया लिमि. 1700 लाख, 9. एसटीआई प्रोड्क्स 800 लाख, 10. सोम डिस्टलरीज लिमि. 1475 लाख, 11. सोम डिस्टलरीज एंड बेवरीज 700 लाख, 12. सोम पॉवर लिमि. 200 लाख, 13. सिद्धार्थ ट्यूब्स लिमि.1450 लाख, 14. भानू आयरन एंड स्टील कम्पनी 1000 लाख, 15. रिस्टसपिन साइट्रिक्स लिमि. 1100 लाख, 16 आईसर आलोयस एंड स्टील 1050 लाख, 17. आइसर एग्रो लिमि. 200 लाख, 18. हेरीटेज इंवेस्टमेंट 70 लाख, 19. आइसर फाइनेंस प्राइवेट लिमि. 250 लाख, 20. एईसी इंटरप्राइज लिमि. 1010 लाख, 21. एईसी इंडिया लिमि. 150 लाख, 22. राजेंद्र स्टील लिमि. 855 लाख, 23. भास्कर इंडस्ट्रीज लिमि. 669.50 लाख, 24. अर्चना एयरवेज लिमि. 300 लाख, 25. माया स्पिनरर्स 200 लाख, 26. गजरा बेवल गेयर्स 100 लाख, 27. बीएसआई लिमि. 100 लाख, 28. पसुमाई ऐरीगेशन 50 लाख, 29. जीके एक्जिम 2400 लाख, 30. गिल्ट पैक लिमि. 150 लाख। कुल- 30074.50 लाख। 1. एनबी इंडस्ट्रीज लिमि. 3000 लाख, 2. सूर्या एग्रो आइल्स लिमि. 1500 लाख, 3. फ्लोर एंड फूड्स लिमि. 40 लाख, 4. स्टील ट्यूब्स ऑफ इंडिया लिमि. 878.11 लाख, 5. एसटीआई प्रोड्क्स लिमि. 155 लाख, 6. एसटीएल एक्सपोर्ट लिमि. 165.86 लाख, 7. भानू आयरन एंड स्टील कम्पनी 440 लाख, 8. जमुना ऑटो इंडस्ट्रीज 400 लाख, 9. वेस्टर्न टोबेको 350 लाख, 10. सरिता साफ्टवेयर इंडस्ट्रीज 300 लाख, 11. केएन रिसोर्सेज 27.01 लाख, 12. इटारसी ऑयल एंड फ्लोर्स लिमि. 126.13, 13. गजरा बेवल गेयर्स 50 लाख, 14. गरहा यूटीब्रोक्सेस लिमि. 134.55 लाख, 15. बैतूल आयल एंड फ्लोर्स 80 लाख, 16. पोद्दार इंटरनेशनल 72.60 लाख, 17. महामाया स्टील 100 लाख। कुल-7819.26 लाख।

अब कांग्रेस करेगी रथयात्रा की राजनीति

लोकसभा चुनाव में बदली सूरत से उत्साहित कांग्रेस भी अब उत्तर प्रदेश में अपना आधार बढ़ाने के लिए रथयात्रा करेगी। उत्तर प्रदेश में पार्टी की सदस्यता में आश्चर्यजनक इजाफे के मद्देनजर इसका भी सियासी फायदा उठाने के लिए रथयात्रा की यह रणनीति तैयार की गई है। इस रथयात्रा के जरिए कांग्रेस उत्तर प्रदेश में बसपा सुप्रीमो मायावती की सत्ता को चुनौती देते हुए दिखने की कोशिश करेगी। इसमें मायावती के मुकाबले कांग्रेस राहुल गांधी का चेहरा ही दिखाएगी। इसी रणनीति के तहत कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी रथयात्रा के लिए ने दलितों के मसीहा बाबा साहब भीमराव अंबेडकर की जयंती 14 अप्रैल को चुना है। पार्टी की यह रथयात्रा एक साथ सूबे की दस दिशाओं के लिए निकलेगी और उसकी सियासी थीम अतीत की नींव पर भविष्य का निर्माण ही रहेगी। कांग्रेस ने पिछले साल आम चुनाव के दौरान राहुल गांधी का युवा चेहरा और पार्टी की विरासत की तस्वीर पेश करने के लिए इसी जुमले का सहारा लिया था। पार्टी को इस नारे का अच्छा फीडबैक मिला था। इसीलिए उत्तर प्रदेश में फिर इस पुराने आजमाए जुमले को ही चुना गया है। कांग्रेस के दस रथों के इस काफिले में प्रदेश के नेता ही सवार होंगे और राहुल की इसमें सीधी भागीदारी की उम्मीद नहीं है मगर रथ पर मुख्य नायक के रूप में उनकी ही तस्वीर होगी। साथ ही होंगी कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की तस्वीरें, जिनके साथ दिखाया जाएगा संप्रग सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का आईना। 45 दिनों की इस सियासी यात्रा में प्रदेश के सभी ब्लाकों और 403 विधानसभा क्षेत्रों में कांग्रेस की यह रथ पहुंचेगी। इस दौरान प्रदेश नेताओं का जोर कांग्रेस के अतीत और भविष्य के साथ-साथ मायावती सरकार की कथित नाकामियों को उजागर करने पर भी रहेगा। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में 2012 में होने वाले विधानसभा चुनाव में बसपा का विकल्प बनते हुए दिखना चाहती है। इसीलिए पार्टी की सदस्यता अभियान में इजाफे को देख तत्काल यह फैसला किया गया है। गौरतलब है कि कांग्रेस की राष्ट्रीय स्तर पर सदस्यता में इस बार फोटो पहचान पत्र की वजह से कमी आने के पुख्ता संकेत हैं। पिछले संगठन चुनाव से पूर्व फोटो पहचान की अनिवार्यता नहीं थी इसलिए फर्जी सदस्यता के सहारे काफी पार्टी नेता अपनी सियासत चमकाते थे। लेकिन अब इसकी गुंजायश नहीं बची है और इसीलिए देश में कांग्रेस की सदस्यता इस बार चार करोड़ से घटकर तीन करोड़ के आस-पास रहने की उम्मीद है। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश में सदस्यता अभियान में इजाफे को पार्टी उसकी ओर लोगों के बढ़ते रूझान का संकेत मान रही। पिछली बार उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सदस्यता 36 लाख थी जो इस बार डेढ़ गुने से ज्यादा बढ़कर 57 लाख के करीब पहुंच गई है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी ने सदस्यता अभियान में इस इजाफे की पुष्टि भी की।

सेना चाहती है जवान सिर्फ उसके हों

सुरक्षा की बढ़ती चुनौतियों और खराब होते हालात में सरकार सेना के कमांडर से लेकर पुलिस कांस्टेबल तक, हर स्तर पर साझेदारी पर जोर दे रही है। दूसरी ओर, फौज अपने खास दर्जे और अहमियत के साथ किसी समझौते को राजी नहीं है। यहां तक कि उसे तो अ‌र्द्धसैनिक बलों और पुलिस वालों के जवान कहलाने पर भी ऐतराज है। जी हां! फौज ने बाकायदा मीडिया से गुजारिश भी की है कि जवान शब्द का प्रयोग सिर्फ भारतीय सेना के सैनिकों के लिए किया जाए। भावी सेना प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल वी.के. सिंह की अगुवाई वाली पूर्वी कमान से जारी वक्तव्य में मीडिया से आग्रह किया है कि पुलिस या अ‌र्द्धसैनिक बलों में सैन्य जवानों के समकक्ष कर्मचारियों के लिए पुलिस वाले या अ‌र्द्धसैनिक कर्मी या संगठन के अनुरूप शब्दावली का प्रयोग किया जाए। सेना की फिक्र इस बात को लेकर भी है कि जवान शब्द का गलत प्रयोग राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी संगठन की अवांछित छवि बना सकता है। जवान पर कापीराइट कायम करने की कवायद में सेना पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का हवाला देती है। दैनिक जागरण से बातचीत में कोलकाता स्थित रक्षा मंत्रालय के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी विंग कमांडर महेश उपासने कहते हैं कि शास्त्री जी ने सबसे पहले जय जवान, जय किसान का नारा दिया था। उसके बाद से ही जवान शब्द भारतीय फौज के सैनिकों का पर्याय बन चुका है। हालांकि फौज की इस राय से पुलिस और अ‌र्द्धसैनिक बल के आला अधिकारी न केवल असहमति जताते हैं, बल्कि आहत भी नजर आते हैं। सीमा सुरक्षा बल के पूर्व महानिदेशक एम.एल. कुमावत कहते हैं कि जवान शब्द के प्रयोग पर इस तरह का एकाधिकारपूर्ण रवैया ठीक नहीं है। किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि इस देश और लोकतंत्र को बचाने के लिए सैनिकों की शहादत से कहीं ज्यादा बलिदान पुलिस बल के लोगों ने दिया है। वहीं उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक प्रकाश सिंह के अनुसार जवान शब्द का इस्तेमाल हर उस वर्दीधारी जांबाज के लिए किया जा सकता है जो देश के लिए जान न्यौछावर करने को तैयार है। सिंह के अनुसार सेना और पुलिस बलों के बीच अंतर बना रहना जरूरी है, लेकिन आम बोलचाल में पुलिस के जवान या अ‌र्द्धसैनिक बल के जवान कहा जाता है। लिहाजा संदर्भ के साथ यह स्पष्ट हो जाता है कि बात किस बल के जवानों के बारे में हो रही है। बीते दिनों सेना ने फौजी वर्दी के दुरुपयोग को रोकने की कवायद में न केवल वर्दी पहनने के नियम बदले थे, बल्कि उसके कपड़े और डिजाइन का भी पेटेंट करवाया था। अब सेना का नया आग्रह इस दिशा में एक अलग ही पहल है।
.. जवान बोले तो शास्त्री जी ने सबसे पहले जय जवान, जय किसान का नारा दिया था। उसके बाद से ही जवान शब्द भारतीय फौज के सैनिकों का पर्याय बन चुका है।
विंग कमांडर महेश उपासने, कोलकाता
स्थित रक्षा मंत्रालय के मुख्य जनसंपर्क अधिकारी जवान शब्द का इस्तेमाल हर उस वर्दीधारी जांबाज के लिए किया जा सकता है जो देश के लिए जान न्यौछावर करने को तैयार है।
प्रकाश सिंह, उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक
जवान शब्द के प्रयोग पर एकाधिकारपूर्ण रवैया ठीक नहीं है। हीं भूलना चाहिए कि इस देश की खातिर सैनिकों की शहादत से कहीं ज्यादा बलिदान पुलिस बल के लोगों ने दिया है।
एम.एल. कुमावत,

लड़ाकू विमानों को धराशायी होने की बीमारी

भारतीय वायुसेना के लड़ाकू विमानों को धराशायी होने की बीमारी है, जो लगातार बढ़ रही है। इसके चलते बीते तीन महीनों में पहले सुखोई-30 और अब मिग-27 के बेड़े को जमीन पर खड़ा करना पड़ा है। आलम यह है कि पिछले चौदह महीनों में वायुसेना के 15 विमान दुर्घटनाग्रस्त हो चुके हैं। मतलब हर माह एक का औसत। वायुसेना पहले ही निर्धारित से कम स्क्वाड्रन संख्या से काम चला रही है। उस पर से विमानों के लगातार गिरने की इस बीमारी ने उसे परेशान कर डाला है। बीते एक सप्ताह में हुए दो हादसों के बाद वायुसेना ने उच्च स्तर पर घटनाओं को खंगालना शुरु कर दिया है। कोर्ट आफ इंक्वायरी के साथ-साथ वृहद स्तर पर भी दुर्घटनाओं की रफ्तार रोकने की कवायद तेज की गई है। रक्षा मंत्रालय द्वारा संसद में पेश किए गए आंकड़ों पर गौर करें तो बीते दो दशकों में हुए हादसों के कारण वायुसेना करीब 14 स्क्वाड्रन के बराबर विमान खो चुकी है। अप्रैल 1989 से लेकर अब तक 267 मिग विमानों से जुड़े हादसों में 97 सैन्यकर्मी और 44 नागरिकों को भी जान गंवाना पड़ी है। बागडोगरा में हुई दुर्घटना के बाद वायुसेना ने जांच के लिए जिन मिग-27 विमानों को जमीन पर खड़ा रखने का फैसला किया है उनके खाते में जनवरी 2009 से लेकर अब तक चार दुर्घटनाएं दर्ज हैं। लगातार होते हादसों के चलते ही वायुसेना को मजबूरन अपने एचपीटी प्रशिक्षण विमानों के पूरे बेड़े को रिटायर करने का फैसला लेना पड़ा। आला अफसरों के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि तमाम उपायों के बावजूद विमान हादसे रुक क्यों नहीं रहे हैं। हालांकि पूछे जाने पर वे यह बताना नहीं भूलते कि हादसे रोकने के लिए पायलट प्रशिक्षण व दक्षता विकास के नए कार्यक्रम तैयार किए जा रहे हैं। इसके अलावा रूसी मूल के विमानों की खामियां दूर करने के लिए मूल उत्पादक कंपनी के विशेषज्ञों की भी मदद ली जा रही है।

ममता का मिशन 2020

रेलवे मंत्री ममता बनर्जी ने अपना बजट प्रस्तुत करते हुए कहा है कि रेलवे ने अपने लिए मिशन 2020 निर्धारित किया है. मिशन 2020 के बारे में बताते हुए उन्होंने तर्क दिया है कि रेलवे का विकास करना है और इस मिशन को पूरा करने के लिए निजी क्षेत्र से निवेश हासिल किया जाएगा.

अपने पिछले बजट में भी ममता बनर्जी ने निजीकरण का संकेत दिया था. उसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए रेलवे बजट की शुरूआत करते हुए ममता बनर्जी ने साफ कहा कि रेलवे ने तीन तरह की योजनाएं तैयार की हैं जिसमें कम अवधि, मध्यम अवधि और लंबी अवधि की योजनाएं हैं. इन योजनाओं को कुछ रेलवे अपने दम पर पूरा करेगा लेकिन कुछ योजनाओं को पूरा करने के लिए निजी क्षेत्र के निवेश की जरूरत होगी. उन्होंने निजी क्षेत्र के निवेश को आमंत्रित करते हुए पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) मॉडल को भी लागू करने की घोषणा की है. उन्होंने 2020 तक 25000 किलोमीटर नई रेल लाईन बिछाने की घोषणा की है जिसके लिए भी उन्होंने निजी क्षेत्र से निवेश के रास्ते खोलने की वकालत की है. हालांकि ममता ने रेल विभाग में निजीकरण की किसी संभावना से इंकार किया है

बड़े आश्चर्य की बात है कि पिछले पचास सालों में देश में हर साल रेल नेटवर्क में औसतन 180 रूट किलोमीटर ही जुड़ते रहे हैं। 1960 में कुल रूट किलोमीटर करीब 54,000 था, अब 2010 तक 64,015 किलोमीटर है। यह तथ्य खुद रेल मंत्री ममता बनर्जी ने आज लोकसभा में वित्त वर्ष 2010-11 का रेल बजट पेश करते हुए रखा है। नए वित्त वर्ष के लिए ममता बनर्जी ने 1000 रूट किलोमीटर जोड़ने का लक्ष्य रखा है। उन्होंने न तो मालभाड़े में कोई वृद्धि की है और न ही यात्री किराए में। उल्टे, अनाज और केरोसिन पर मालभाड़ा प्रति वैगन 100 रुपए घटा दिया है। साथ ही एसी किराये पर सर्विस चार्ज घटाकर 20 रुपए और स्लीपर किराए पर सर्विस चार्ज घटाकर 10 रुपए कर दिया है।

नए साल में 80,000 नए वैगन खरीदे जाएंगे। निवेश प्रस्तावों पर तेज फैसले के लिए 100 दिनों के भीतर विशेष टास्क फोर्स बनाई जाएगी। निजी क्षेत्र को मालगाड़ियां चलाने की इजाजत दी जाएगी। दस नए ऑटो एंसिलरी हब बनाए जाएंगे। मोडिफाइड वैगन स्कीम शुरू की जाएगी। 5 नई वैगन फैक्ट्रियां लगाई जाएंगी। रायबरेली कोच फैक्ट्री का काम एक साल में शुरू होगा। यात्रियों को साफ पानी मुहैया कराने के लिए छह बोटलिंग प्लांट लगाए जाएंगे। उन्होंने यह भी बताया कि जुलाई 2009 के रेल बजट में जिन 120 नई ट्रेनों को शुरू करने की घोषणा की गई थी, उनमें से मार्च तक 117 शुरू हो जाएंगी। बाकी तीन गेज परिवर्तन की वजह से नहीं शुरू हो पाएंगी। रेल बजट के प्रस्तावों से सीमेंट, स्टील, लौह अयस्क और फर्टिलाइजर उद्योग को खास फायदा होगा। इससे लाभान्वित होनेवाली चुनिंदा कंपनियां हैं – टेक्समैको वैगन, टीटागढ़. भारत अर्थ मूवर्स और कॉनकोर।

ममता बनर्जी ने कुशल राजनीतिज्ञ की तरह स्पष्ट किया कि रेलवे के किसी विभाग का निजीकरण नहीं किया जाएगा। उन्होंने कहा कि अगर रेलवे की किसी परियोजना में जिस किसी की जमीन ली जाएगी, उसके परिवार के एक सदस्य को रेलवे नौकरी देगा। रेलवे की भर्ती परीक्षाएं हिंदी व उर्दू के साथ ही क्षेत्रीय भाषाओं में ली जाएंगी। गौर करने की बात है कि ममता बनर्जी ने अपने अंग्रेजी भाषण में कई बार पैराग्राफ के पैराग्राफ हिंदी में बोले। ऊपर से भले लगे कि ममता ने अवाम को रिझानेवाला बजट पेश किया है। लेकिन उन्होंने उद्योग जगत की जरूरतों का भी पूरा ख्याल रखा है।

उनके कुछ अन्य खास प्रस्ताव हैं – आआईटी, आईआईएम और मेडिकल कॉलेजों में मोबाइल ई टिकटिंग की व्यवस्था, जिला व पंचायत स्तर पर रेलवे के टिकट, यात्री सुविधा के लिए 1300 करोड़ रुपए, गरीब परीक्षार्थियों से कोई फीस नहीं, मुंबई में 101 नई उपनगरीय ट्रेनों की शुरूआत, देश में 381 नए डाइग्नोस्टक सेंटर खोले जाएंगे। ममता ने अपने भाषण की शुरुआत में ही कह दिया था कि उनके लिए व्यावसायिक व्यवहार्यता से ज्यादा सामाजिक उत्तरदायित्व मायने रखता है। उनका एक वाक्य अंत में – अभी तो शुरुआत है, सफर बहुत लंबा है।
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ममता बनर्जी ने बजट प्रस्तुत करते हुए कहा कि एक बिजनेस माडल बनाने की जरूरत है उनकी जिम्मेदारी है कि वे इस दिशा में पहल करें. उन्होंने कहा कि अगर रेलवे की महात्वाकांक्षी योजनाओं को पूरा करना है तो निजी क्षेत्र की मदद लेना जरूरी है. इसके लिए उन्होंने एक टास्क फोर्स बनाने और प्रधानंत्री से बात करने की बात भी कही है. रेल मंत्री ने साफ कहा कि सफर लंबा है, यह तो अभी शुरूआत है.

रेलमंत्री ममता बनर्जी ने सात महीने पहले अपने बजटीय घोषणाओं में सिर्फ डाकघर से आरक्षण की योजना के न पूरा हो पाने की सूचना दी. उन्होंने कहा कि पिछले रेल बजट में उन्होंने 120 नई ट्रेने शुरू करने की घोषणा की थी जिसमें से 117 ट्रेने मार्च 2010 तक शुरू हो जाएंगी. उन्होंने कहा कि ट्रेन यात्रियों को सस्ता और साफ पानी उपलब्ध कराने के लिए छह नये बाटलिंग प्लांट शुरू कर दिये गये हैं. इसके साथ ही उन्होंने कहा कि ट्रेनों में जनता आहार योजना को सुचारू रूप से शुरू कर दिया गया है.

ममता बनर्जी के बजट भाषण के दौरान लगातार उन पर पश्चिम बंगाल का पक्षधर होने का आरोप लगता रहा और वे बीच बीच में इन आरोपों का खण्डन भी करती रहीं.

प्रमुख घोषणाएं-

1. आरपीएफ के नये जवानों की भर्ती
2. 5 खेल अकादमी के गठन की घोषणा- दिल्ली, चेन्नई, सिकंदराबाद, कोलकाता, मुंबई
3. कामनवेल्थ गेम्स के लिए विशेष ट्रेने चलाई जाएंगी
4. 2010-11 रविन्द्र म्यूजियम बनाने की घोषणा
5. शहरी विकास मंत्रालय के साथ मिलकर 10 साल के अंदर रेलवे के सभी 14 लाख कर्मचारियों के िलए घर बनाने की घोषणा.
6. कर्मचारियों के लिए 386 जांच केन्द्र और 101 मध्यम दर्जे के अस्पताल खोले जाएंगे
7. रेलवे की 80 हजार महिला कर्मचारियों के िलए विशेष योजनाओं का ऐलान
8. वेन्डर्स, हॉकर्स के लिए योजनाएं
9. खड़गपुर में लोकोवर्कशाप बनाने की घोषणा
10. जबलपुर, कोटा, खडगपुर में ट्रैक ट्रेनिंग सेन्टर बनाया जाएगा
11. रायबरेली कोच फैक्टरी एक साल में शुरू की जाएगी.
12. मधेपुरा और मरवाना में भी कोच फैक्टरी बनाई जाएगी.
13. इन्टेग्रिट कोच फैक्टरी का नवीनीकरण किया जाएगा और दूसरी यूनिट शुरू होगी
14. अमरावती में कोच रिपेयर फैक्टरी शुरू की जाएगी.
15. बंगलौर में डिजाइन और डेवलपमेन्ट सेन्टर बनाया जाएगा
16. पर्यावरण के प्रति संवेदनशील होते हुए रेलवे 10 इको पार्क बनेंगे. हर ट्रेन में कम से कम 10 बोगी में ग्रीन टायलेट होंगे.
17. वेस्टर्न डेडीकेटेड फ्रेट कारिडोर के लिए अगले महीने समहमति पत्र पर हस्ताक्षर. जमीन का अधिग्रहण शुरू किया जाएगा. इसके लिए आम आदमी की सहमति से सहमति लेकर जमीन ली जाएगी और जिसकी जमीन ली जाएगी उसके परिवार के एक सदस्य को नौकरी दी जाएगी.
18. नार्थ-साउथ, ईस्ट-वेस्ट, साउथ-साउथ कारीडोर बनाने की घोषणा
19. डेडीकेटेड पैसेन्जर रेल कारीडोर बनाने की घोषणा
20. नेशनल हाईस्पीड रेल अथारिटी का गठन
21. माल ढुलाई में आठ मिट्रीक टन की बढ़ोत्तरी
22. टनकपुर से बागेश्वर के बीच नयी रेल लाईन

23. भारत-बांग्लादेश के बीच नयी ट्रेन
24. 1000 किलोमीटर ट्रैक का विद्युतीकरण किया जाएगा.

25. मानवरहित 13 हजार फाटकों पर तैनात होंगे गार्ड

26. मुंबई लोकल में 101 ट्रेनों का इजाफा

27. कैंसर रोगियों को एसी थ्री टीयर में मुफ्त रेल यात्रा की सुविधा

28. जन्मभूमि, कर्मभूमि और मातृभूमि नाम से नयी ट्रेन सेवाओं को शुरू किया जाएगा.

29. ई-टिकट सरचार्ज में कटौती. 40 की बजाय अब 20 रुपये सरचार्ज

30. कोलकाता मेट्रो का विस्तार किया जाएगा

31. आनेवाले वित्तीय वर्ष में कुल 56 नई ट्रेने चलाई जाएंगी.

Tuesday, February 23, 2010

स्वास्थ्य विभाग में करोड़ों का गोलमाल

अशोक शर्मा को बचाने की कवायद ?

स्वास्थ्य विभाग में फिर करोड़ों का गोलमाल हुआ है. और इस बार सभी आरोप वर्त्तमान स्वास्थ्य संचालक डॉ. अशोक शर्मा पर लगाये जा रहे हैं. इन घोटालों की शिकायत लोकायुक्त में भी पहुँच चुकी है. और जांच भी चल रही है. डॉ. अशोक शर्मा पर आरोप है कि उन्होंने विज्ञापन प्रसारण, बैनर मुद्रण, विज्ञापन निर्माण, पल्स पोलियो अभियान, तथा दवा खरीदी में जमकर भ्रष्टाचार किया है. यह भ्रष्टाचार उचित मूल्य से अधिक कीमत पर आवश्यकता से अधिक खरीदी कर किया गया है. साथ ही इस खरीदी में क्रय नियमों की भी अनदेखी की गई है. ताकि उन फर्मो को भी सीधा लाभ पहुंचाया जा सके जिनसे दवा, उपकरण तथा अन्य सामग्री खरीदी जानी थी. हालाकि संयुक्त संचालक एवं प्रभारी संचालक स्वास्थ्य के दो वर्ष के कार्यकाल के भ्रष्टाचार के सम्बन्ध में संचालनालय कोष तथा लेखा के द्वारा अपनी अंकेक्षण रिपोर्ट प्रस्तुत करने के बाद भी डॉ. अशोक शर्मा के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की जा रही है. खबरें तो यह भी हैं कि डॉ. अशोक शर्मा को बचाने के लिए विभाग के अन्य अधिकारीयों ने रिपोर्ट गायब करवा दी है.
आइएएस अरविन्द जोशी और उनकी पत्नी टीनू जोशी के यहाँ आयकर विभाग के छापे के बाद करोड़ों रुपये की बेनामी सम्पत्ती जाप्त की गई थी. छापे की कार्यवाही में ३००० करोड रुपये नकद जाप्त किये गए. आयकर विभाग को इन नोटों को गिनने के लिए मशीन तक लगानी पडी थी. और अभी जहां एक और इस मामले में जांच अभी चल ही रही है. उधर स्वास्थ्य विभाग में एक और घोटाला उजागर हुआ है. और स्वास्थ्य संचालक डॉ. अशोक शर्मा संदेह के घेरे में हैं. इससे पूर्व भी स्वास्थ्य विभाग में करोड़ों का घपला हुआ था. उस वक्त स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा थे. जिन्हें अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त कर दिया था. हालाकिं उनकी बर्ख्स्तागी के बाद कोर्ट से उन्होंने अपनी नियुक्ति वापस ले ली थी. लेकिन तत्कालीन स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा इन दिनों फिर सुर्ख़ियों में है. वह इसीलिये कि पिछले घोटाले की जांच के दौरान उन्हें फिर से निलंबित कर दिया गया है. उनके निलंबन के पीछे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की भ्रष्टाचार के खिलाफ छेड़ी गई मुहिम माना जा रहा है. लेकिन वर्त्तमान स्वास्थ्य संचालक डॉ अशोक शर्मा के मामले में सरकार की चुप्पी पर भी कई सवालिया निशान लग रहे हैं?

कहाँ कहाँ घपला :-

संचालनालय कोष एवम लेखा के अंकेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक ०१.०१.२००४ से २८.०२.२००५ तक राष्ट्रीय पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान के अंतर्गत ४५ जिलों को ३,५३,२२,०४० रूपये आरसीएच के माध्यम से उपलब्ध करवाए गए. जो कि सम्बंधित जिलों के सीएमएचओ द्वारा व्यय की जानी थी. तथा संबधित व्यय का उपयोगिता प्रमाण पत्र लेना चाहिए था. लेकिन ४५ जिलों में कुल ३,५३,२२,०४० रु में से २,६५,८५,६९० रु खर्च हुए तथा ७,४६,६५९ रुपये संचालनालय को वापस प्राप्त हुए लेकिन संचालनालय ने सीएमएचओ से यह नहीं पूछा कि कितनी राशि कहाँ व्यय हुई.

कार्यालय के अभिलेखों के परिक्षण में पाया गया कि पल्स पोलियो अभियान के विज्ञापन प्रसारण आल इंडिया रेडियो में स्मृति फिल्म्स भोपाल से कराये गए. जिसके लिए कोई टेंडर प्रक्रिया नहीं की गई. जबकि स्मृति फिल्म्स भोपाल की दरों को क्रय समिति ने अनुमोदित नहीं किया था. साथ ही विज्ञापन प्रसारण देय राशि का सत्यापन भी नहीं किया गया. अंकेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक विज्ञापन प्रसारण में लगभग २२,८८,२८६ रु अनियमित खर्च होना पाया गया है. इसके अलावा दूरदर्शन पर विज्ञापन प्रसारण के लिए प्रतिदिन ७५ प्रसारण का आदेश दिया गया था लेकिन प्रतिदिन ४५० सेकेण्ड का भुगतान किया गया. साथ ही कुल ८१० सेकेण्ड का प्रसारण किया जाना था लेकिन भुगतान ३३२० सेकेण्ड का किया गया. इस प्रकार १३,२८००० रुपये का भुगतान बिना कार्य के किया गया. ऑडियो केसेट्स निर्माण में २,२०,४०० का ज़्यादा भुगतान करते हुए एडजस्टमेंट कर दिया गया. केबल नेटवर्क पर ८,२०,००० का फर्जी भुगतान किया गया. होर्डिंग की न्यूनतम दरें २८७५ रु प्रतिमाह निर्धारित थीं लेकिन २९१७ रु प्रतिमाह की दर पर होर्डिंग लगाने के आदेश देकर १२,९२००० रुपये के वारे न्यारे कर दिए गए.

राष्ट्रीय पल्स पोलियो टीकाकरण अभियान के बैनर मुद्रण में १,३५,०६,८०० रुपये अनियमित व्यय किये गए. अंकेक्षण रिपोर्ट के मुताबिक ५०००० रुपये के बैनर जिलों में बांटे जाने के आदेश थे. लेकिन ५७६२० रु के बैनर बांटे गए यानि ७६२० रु अधिक काटे गए. इतना ही नहीं बैनर का मुद्रण मेसर्स विनायक क्रियेशन भोपाल से बिना टेंडर जारी किये ही करवा लिया गया.

संचालनालय कोष एवम लेखा के अंकेक्षण रिपोर्ट में दवा एवम अन्य सामग्री खरीदी में १० करोड रुपये बिना अनुमोदन कर सीधे भुगतान किया गया. साथ ही महामारी के नाम पर ४ करोड रु का घोटाला भी किया गया. महामारी के नाम पर लगभग ४ करोड रु की फिनाइल और ब्लीचिंग पाउडर खरीद ली गई. खरीदी में क्रय समिति का अनुमोदन लिया गया और न ही क्रय समिति से आवश्यकता का आंकलन कराया गया. इसके स्थान पर संचालक स्वास्थ्य सेवायें डॉ. अशोक शर्मा ने खुद ही आवश्यकता का आंकलन कर खरीदी कर ली. जो कि नियम विरुद्ध है. फिनाइल खरीदी में जमकर घोटाला किया गया है, इसका सीधा अंदाज़ा इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि डी.जी.एच.एस. भारत शासन द्वारा जारी निर्देशों में महामारी में लगने वाली दवाइयों की सूची में फिनाइल शामिल नहीं है फिर कैसे महामारी के नाम पर फिनाइल खरीद ली ? यह एक अहम सवाल है.

बहरहाल आये दिन स्वास्थ्य विभाग में नए नए घोटाले सामने आते हैं. और सरकार मूक दर्शक बनी देखती रहती हैं. मामला जांच की पेचीदिगियों में उलझ जाता है. और कुछ समय बाद दोषी दोषमुक्त हो जाता है. अपुष्ट सूत्रों की माने तो स्वास्थ्य विभाग के संचालक के पास लगभग २०० करोड रु. की बेनामी संपत्ति है. जो कई सवालों को जन्म देता है. हालाकि स्वास्थ्य विभाग समेत अलग अलग विभागों में हो रहे घोटालों की गूँज विधानसभा में भी समय समय पर उठती रही है. लेकिन मध्यप्रदेश सरकार द्वारा भ्रष्टाचार जैसे संगीन मामलों में बिहार सरकार से सीख लेकर कोई कडा क़ानून बनाकर भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के कोई प्रयास न करना भी कई सवालों को जन्म देता है. समय रहते यदि सख्त से सख्त कार्यवाही नहीं की गई तो पूर्व स्वास्थ्य संचालक डॉ. योगीराज शर्मा की तरह वर्त्तमान स्वास्थ्य संचालक डॉ. अशोक शर्मा का मामला भी काफी बड़े स्तर तक जा सकता है. इस मामले में उनके साथ कई बड़ी मछलियाँ भी इस घोटाले में शामिल होंगी इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता. आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि जांच के बाद दोषी पाए जाने पर स्वास्थ्य संचालक के खिलाफ क्या कार्यवाही होती है ?


क्या सरकार करेगी डॉ अशोक शर्मा का निलंबन ?

सूत्रों कि माने तो आयकर विभाग ने आय ए एस राजेश राजोरा व डॉ अशोक शर्मा के बारे में एक रिपोर्ट राज्य शासन को भेजी है जिसमें छापे के दौरान इन अधिकारीयों से क्या संपत्ति बरामद हुई है इसका खुलासा होगा रिपोर्ट के आधार पर राज्य शासन आगे की कार्यवाही को अंजाम दे सकता है. स्वास्थ्य विभाग में ऐसी कई बड़ी मछलियाँ हैं जिन पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की तलवार लटक रही है ? बड़ा सवाल यह भी है कि किस नेता या अधिकारी की शह पर इन पर कार्यवाही नहीं की जा सकी?

गांधी बनने की जुगत में बाबा

योग गुरू बाबा रामदेव के कदम ताल को देखकर यह माना जा सकता है कि वे आजादी के उपरान्त महात्मा गांधी की छवि को अपने अन्दर सिमटाना चाह रहे हैं। चाहे देश आजाद हुआ हो तब या वर्तमान परिदृश्य हो, राजनीति की धुरी गांधी के इर्द गिर्द ही सिमटी रही है। तब मोहन दास करमचन्द गांधी बिना किसी पद पर रहते हुए राजनीति के केन्द्र थे तो आज कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी के हाथों राजकाज की कमान है। लगता है बाबा रामदेव चाहते हैं कि वे सोनिया गांधी की तरह ही सबसे शक्तिशाली बने रहें और सक्रिय राजनीति में न रहें। बाबा रामदेव यह भूल जाते हैं कि आदि अनादी काल से राजकाज में सहयोग का काम राजगुरूओं का होता रहा है न कि कथित योग गुरू का। न तो बाबा रामदेव राजगुरू हैं और न ही वे धर्म गुरू। रही बात अपने आप को सबसे श्रेष्ठ समझने की तो शंकराचार्य के बारे में टिप्पणी करने के उपरान्त उन्हें माफी भी मांगनी पडी थी यह बात किसी से छिपी नहीं है।

देश में कथित अध्यात्म गुरू, ज्योतिषविद, प्रवचनकर्ताओं आदि की कमी किसी भी दृष्टिकोण से नहीं है। इन सबके बीच धु्रव तारा बनकर उभरे योग गुरू बाबा रामदेव बडे ही सधे कदमों से चल रहे हैं। एक परिपक्व राजनेता के मानिन्द पहले उन्होंने देश के बीमारों को स्वस्थ्य बनाने का बीडा उठाया। देश के प्राचीन अर्वाचीन योग को एक नई पेकिंग में बाजार में लांच किया, फिर समाचार और दूसरे चेनल्स के माध्यम से घरों घर में अपनी आमद दी। अब जबकि उनके अनुयायियों की खासी तादाद हो गई है, तब उन्होंने लोहा गरम देख राजनीति में आने का हथौडा जड दिया है।

पिछले चन्द दिनों से बाबा रामदेव के मुंह से योग के माध्यम से लोगों को स्वस्थ्य बनाने के बजाए राजनीति में आने की महात्वाकांक्षाएं ज्यादा कुलांचे मारती प्रतीत हो रहीं हैं। बाबा के मुंह से निकली यह बात किसी को भी आश्चर्यजनक इसलिए नहीं लग रही होगी क्योंकि बाबा रामदेव ने बहुत ही करीने से सबसे पहले अपने आप को महिमा मण्डित करवाया फिर अपनी इस महात्वाकांक्षा को जनता पर थोपा है।

बाबा रामदेव का कहना है कि अब राजनीति नहीं वरन योग नीति का वक्त आ गया है। स्वयंभू योगाचार्य बाबा रामदेव ने देश में केंसर की तरह फैल चुके भ्रष्टाचार को योगनीति के माध्यम से दुरूस्त करने का मानस बनाया है। बाबा ने बहुत सोच समझकर गरीब और अविकसित भारत देश में भ्रष्टाचार के साथ ही साथ विदेशों में फैले भारत के काले धन को भारत लाने का कौल उठाया है। बाबा का कहना है कि देश में अनेक प्रकार के अपराधों के लिए तरह तरह के कानून बने हैं, लेकिन भ्रष्टाचारियों पर अंकुश लगाने के लिए एक भी कठोर कानून नहीं है। बाबा यह भूल जाते हैं कि भ्रष्टाचार करते पकडे जाने पर न जाने कितने जनसेवक जेल की हवा भी खा चुके हैं।

बाबा का कहना सही है कि जनता की गाढी कमाई पर एश करने वालों के लिए सिर्फ और सिर्फ मृत्युदण्ड का प्रावधान होना चाहिए। बाबा के इस कथन से सत्तर के दशक में आई उस समय के सुपर डुपर स्टार राजेश खन्ना और मुमताज अभिनीत चलचित्र ``रोटी`` का ``यार हमारी बात सुनो, एसा एक इंसान चुनो जिसने पाप न किया हो जो पापी न हो. . . `` की याद ताजा हो जाती है। बाबा रामदेव देश के अनेक शहरों में अपने योग शिविर की दुकानें लगा चुके हैं इस हिसाब से वे भली भान्ति जानते होंगे कि देश में गरीब गुरबे किस तरह रहते हैं। यह बात भी उतनी ही सच है जितना कि दिन और रात कि बाबा के पास वर्तमान में अकूत दौलत का भण्डार है। बाबा अगर चाहें तो गरीब गुरबों के लिए एकदम निशुक्ल योग शिविर और चिकित्सा शिविर लगाकर दवाएं बांट सकते हैं। वस्तुत: बाबा रामदेव एसा नहीं कर रहे हैं, क्योंकि यह भी जानते हैं कि राजनेताओं का काम सिर्फ भाषण देना है, उसे अमली जामा पहनाना नहीं।

बाबा रामदेव के एजेण्डे में तीसरा तथ्य यह उभरकर सामने आया है कि उन्होंने ``हिन्दी की चिन्दी`` पर अफसोस जाहिर किया है। बाबा का कहना है कि आजादी के इतने समय बाद भी हम ब्रितानी मानसिकता के गुलाम हैं। आज भी न्यायालयों में हिन्दी के बजाए अंग्रेजी का ही बोल बाला है। बाबा रामदेव के इस कथन से हम पूरा इत्तेफाक रखते हैं, पर सवाल यह है कि समूची ब्यूरोक्रेसी में ही अंग्रेजी का बोलबाजा है, बाबा रामदेव बहुत चतुर खिलाडी हैं, वे अगर नौकरशाहों पर वार करते तो वे देश पर राज करने का जो रोडमेप तैयार कर रहे हैं उसके मार्ग में शूल ही शूल बिछा दिए जाते, यही कारण है कि बाबा रामदेव नौकरशाहों पर परोक्ष तौर पर निशाना साध रहे हैं।

हमारा अपना मानना है कि बाबा रामदेव पूरी तरह मुगालते में हैं। हमने अपने पिछले आलेखों ``राष्ट्रधर्म की राह पर बाबा रामदेव`` और ``बाबा रामदेव का राष्ट्रधर्म`` में बाबा रामदेव की भविष्य की राजनैतिक बिसात के बारे में इशारा किया था। उस दौरान बाबा रामदेव के अंधे भक्तों ने तरह तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त की थीं। राजनेताओं को कोसना बहुत आसान है। जनसेवकों की मोटी खाल पर इसका कोई असर नहीं होता है। बाबा रामदेव ने भी जनसेवकों को पानी पी पी कर कोसा है। रामदेव यह भूल जाते हैं कि जैसे ही बाबा रामदेव उनकी कुर्सी हथियाने का साक्षात प्रयास करेंगे वैसे ही ये सारे राजनेता एक सुर में तान छेड देंगे और फिर आने वाले समय में बाबा रामदेव को अपनी योग की दुकान भी समेटना पड सकता है।


बाबा रामदेव के पास अकूत दौलत है। यह दौलत उन्होंने पिछले लगभग डेढ दशक में ही एकत्र की है। मीडिया की ताकत से बाबा रामदेव भली भान्ति परिचित हो चुके हैं। मीडिया चाहे तो किसी को फर्श से उठाकर अर्श पर तो किसी को आसमान से जमीन पर उतार सकता है। आने वाले समय में बाबा रामदेव अगर कोई समाचार चेनल खोल लें तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, साथ ही प्रिंट की दुनिया में भी बाबा रामदेव उतर सकते हैं। हमें यह कहने मेें कोई संकोच नहीं कि मीडिया के ग्लेमर को देखकर इस क्षेत्र में उतरे लोग सरेआम अपनी कलम का सौदा कर रहे हैं। मीडिया को प्रजातन्त्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है। प्रजातन्त्र के तीन स्तंभ तो गफलत, भ्रष्टाचार, अनैतिकता के दलदल में समा चुके हैं। लोगों की निगाहें अब मीडिया पर ही हैं, और मीडिया ही अगर अंधकार के रास्ते पर निकल गया तो भारत में प्रजातन्त्र के बजाए हिटलर राज आने में समय नहीं लगेगा।


बहरहाल बाबा के एक के बाद एक सधे हुए कदम से साफ जाहिर होने लगा है कि बाबा रामदेव के मन मस्तिष्क में देश पर राज करने की इच्छा बहुत पहले से ही थी। उन्होंने योग का माध्यम चुना और पहले लोगों को इसका चस्का लगाया। जब लोग योग के आदी हो गए तो योग गुरू ने अपना असली कार्ड खोल दिया। भारत स्वाभिमान ट्रस्ट की स्थापन के पीछे यही उद्देश्य प्रतीत हो रहा है। अब बाबा रामदेव ने इसके कार्यकर्ताओं से ज्यादा से ज्यादा सदस्य बनाने का आव्हान कर डाला है। बाबा के कदमों को देखकर यही कहा जा सकता है कि ``योग तो एक बहाना था, बाबा रामदेव का असल मकसद तो राजनीति में आना था।``

Monday, February 22, 2010

अर्जुन की बैसाखी पर सवार दिग्विजय सिंह

अल्पसंख्यकों की जिस बैशाखी को सहारा बनाकर आधुनिक भारत की राजनीति के चाणक्य अर्जुन सिंह ने कांग्रेस के बड़े से बड़े नेताओं को अपनी सोच और समझ का लोहा मनवा दिया था अब उसी बैशाखी का सहारा उन्हीं के शार्गिद दिग्विजय सिंह ले रहे हैं।
पूर्व केंद्रीय मंत्री अर्जुन सिंह को बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में कांग्रेस का कूटनीतिक चाणक्य माना जाता था। ढलती उमर के चलते उन्हें राजनीतिक बियावान से शून्य की ओर धकेल दिया गया है। अर्जुन खामोश हैं, लोगों को बहुत आश्चर्य है। इक्कीसवीं सदी में कांग्रेस के दूसरे नंबर के ताकतवर महासचिव दिग्विजय सिंह में लोग अर्जुन सिंह का अक्स ढूंढते मिल रहे हैं। माना जा रहा है कि अब अर्जुन सिंह की तर्ज पर ही दिग्विजय सिंह चाणक्य बनने की जुगत में हैं। उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को साधने की महती जवाबदारी दिग्गी के कांधो पर डाली गई। अर्जुन सिंह की राह पर ही चलते हुए उन्होंने बटाला एनकाउंटर और आजमगढ मामले में जमकर सियासत की। इतना ही नहीं भारी विरोध के बावजूद न केवल दिग्गी राजा वहां गए वरन अब तो वे कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को भी आजमगढ ले जाने की तैयारियों में जुट गए हैं। कांग्रेस के वर्तमान गांधी 'राहुल और सोनिया' को साधकर राजा दिग्विजय सिंह ने ''एक साधे सब सधें'' की कहावत को चरितार्थ कर दिया है।
मध्यप्रदेश की औद्योगिक राजधानी इंदौर में भाजपा के छोटे से लेकर बड़े नेता तक ने पार्टी की चाल, चेहरा और चरित्र को लेकर 72 घंटे तक मंथन किया लेकिन सबकी आंखों में दिग्विजय सिंह तैरते दिखे। पूरे अधिवेशन में अगर भाजपा नेताओं ने किसी दूसरी पार्टी के नेता पर चर्चा की तो वह हैं दिग्गी राजा। इंदौर में भाजपा की राष्ट्र्रीय समिति की बैठक के दौरान श्री सिंह अपनी पार्टी के अकेले नेता रहे जिन की भाजपा ने आलोचना की। इस पर चुटकी लेते हुए दिग्विजय सिंह ने कहा है कि भाजपा जब भी मेरी आलोचना करती है तो वे एक किस्म का गौरव महसूस करते हैं। कांग्रेस नेता ने कहा कि वे आजमगढ़ को पर्यटन स्थल बनाने के लिए नहीं गए थे पर अगर ऐसा हो गया तो उन्हें खुशी होगी क्योंकि इसके कारण स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा।
दिग्विजय सिंह आज की तारीख में कांग्रेस के सबसे ताकतवर महासचिव हैं। वे खुद राजनैतिक तौर पर कम प्रतिभाशाली नहीं हैं लेकिन कांग्रेस की कलाकाट राजनीति में उनकी ताकत का राज यह है कि वे राहुल गांधी के साथ मिल कर काम कर रहे हैं और जहां राहुल को जमीनी राजनीति समझानी होती है, समझाते हैं।
दिग्विजय सिंह से आतंकित कांग्रेसियों ने उनके हाल के आजमगढ़ दौरे को ले कर बहुत बवाल मचाया था और कुछ ने तो यह राय भी जाहिर कर दी थी कि दिग्विजय सिंह का यह कदम सांप्रदायिक हैं और इसीलिए उन्हें कम से कम महासचिव पद से हटा दिया जाना चाहिए। दिग्विजय सिंह का कसूर यह बताया जा रहा था कि उन्होंने आजमगढ़ जा कर दिल्ली के बाटला हाउस के अभियुक्तों से गहरी दोस्ती कर ली थी और उनके परिवारों से सहानुभूति जाहिर की थी।
मगर दिग्विजय सिंह की शक्ति का स्रोत सिर्फ राहुल गांधी नहीं है। वे मध्य प्रदेश के लगातार दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं और जूझने की राजनीति उन्हें आती है। अमर सिंह जैसे वाचाल नेता को कई मौको पर उन्होने सिर्फ हंस कर कहे गए एक या दो सारगर्भित वाक्यों के जरिए खामोश कर दिया था। दिग्विजय सिंह की खासियत यह है कि वे मंत्री नहीं हैं इसलिए पार्टी के लिए उनके पास पूरा वक्त है।
भविष्य में यह देखना और भी दिलचस्प होगा कि अल्पसंख्यकों के किन-किन मुद्दों पर दिग्विजय सिंह अपनी राय देते हैं और कांग्रेस उससे अपना पल्ला झाड़ती है या नहीं। लेकिन दिग्विजय सिंह को यह याद रखना चाहिए कि अर्जुन सिंह के जमाने में राजनैतिक फिजा कुछ और थी और अब का राजनैतिक परिदृश्य अलहदा है। अब मुसलमानों को सिर्फ बयानबाजी से बरगलाना मुश्किल है उन्हें कुछ ठोस करके दिखाना होगा।
अर्जुन सिंह ने एक वक्त अपने वक्तव्यों और सहयोगियों के साथ मिलकर ऐसा समां बांध दिया था कि लगने लगा था कि सेक्युलरिज्म के वो सबसे बड़े पैरोकार हैं। अपनी बयानवीरता से उत्साहित अर्जुन सिंह यहीं नहीं रुके थे। उन्होंने एक वक्तव्य में संघ और हिंदू महासभा को भारत के विभाजन का जिम्मेदार भी ठहरा दिया था। अर्जुन सिंह ने संघ पर इतिहास को गलत दिशा देने का आरोप भी जड़ा था। अल्पसंख्यकों को लुभाने के चक्कर में सिंह ने कई बचकाने तर्क दिए और यह भूल गए कि विभाजन के असली जिम्मेदार तो जिन्ना थे जिन्होंने द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत का ना केवल प्रतिपादन किया बल्कि उसको मूर्त रूप भी दिलवाया, जिसको कांग्रेस के नेताओं का भी मूक समर्थन प्राप्त था।
अब अर्जुन सिंह अस्वस्थ हैं और पार्टी में उनकी कोई पूछ नहीं रह गई है। कांग्रेस में कोई बड़ा अल्पसंख्यक नेता भी नहीं है जिस पर पार्टी को ये भरोसा हो कि वो अपने समुदाय का वोट पार्टी को दिला सकता है। मौका माकूल देखकर दिग्विजय सिंह ने अपने गुरु अर्जुन सिंह की राह पर चलने का फैसला कर लिया प्रतीत होता है। दिग्विजय सिंह को इसके दो फायदे हो सकते हैं एक तो पार्टी में उनकी पूछ बढ़ जाएगी और दूसरे अगर खुदा ना खास्ते उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को कोई फायदा होता है तो पार्टी आलाकमान की नजर में उनका ग्राफ भी ऊपर चढ़ जाएगा। कांग्रेस पार्टी में अपने प्रतिद्वंद्वियों की राजनीति से राहुल के नाम के सहारे जूझ रहे दिग्गी राजा को अल्पसंख्यकों की पैरोकारी का ये फॉर्मूला बेहतर लगा और संजरपुर पहुंचकर उन्होंने इसकी शुरुआत कर दी।
बटला हाउस मुठभेड़ को लेकर कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह के बयान के बाद इस मामले पर एक बार फिर सियासत गर्म हो गई है। पार्टी के भीतर ही इस मसले पर मतभेद साफ नजर आ रहे हैं। वहीं भाजपा ने दिग्विजय के बयान को वोटबैंक की राजनीति बताकर घेरना शुरू कर दिया है। कांग्रेस में कई नेता मान रहे हैं कि इस मसले पर दिग्विजय ने जो कुछ कहा उसकी इस समय जरूरत नहीं थी।
पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के मुताबिक जब यह मामला प्रधानमंत्री खुद निपटा चुके थे। उन्होंने सभी तथ्यों को देखने के बाद न्यायिक जांच की संभावनाओं को नकार दिया था तो एक बार फिर इस मुद्दे को उठाना गड़े मुर्दे उखाडऩे जैसा है। हालांकि कांग्रेस के भीतर ही बटला हाउस मुठभेड़ पर सवाल उठाने वाला धड़ा कांग्रेस महासचिव के बयान के साथ खड़ा होता नजर आ रहा है। इस बात के भी कयास लगाए जा रहे हैं कि कांग्रेस महासचिव का बयान पार्टी की एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा भी हो सकता है, जिसके तहत उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों का रुझान अपनी ओर देखते हुए पार्टी ने सोचा-समझा दांव खेला हो। हालांकि पार्टी की ओर से प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने बेहद नपे-तुले अंदाज में कहा कि दिग्विजय सिंह बड़े नेता हैं, यूपी के प्रभारी भी हैं, वे आजमगढ़ सत्य की खोज करने गए थे। वे अच्छी तरह से जानते हैं कि उन्हें क्या कहना है। जहां तक उनके बयान का सवाल है, इस बारे में वे खुद ही बता सकते हैं। जबकि भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि जांच के बाद साफ हो गया था कि बटला एनकाउंटर झूठा नहीं है। उन्होंने कहा कि कोर्ट ने भी इस संबंध में उठाई गई शंकाओं को खारिज कर दिया, ऐसे में दिग्विजय सिंह का बयान वोट बैंक की राजनीति के सिवा कुछ नहीं है। उन्होंने इसे भावनाएं भड़काने की कोशिश भी बताया।
उधर सिंघवी के नपे-तुले अंदाज में दिए गए बयान से कांग्रेस की दुविधा उजागर हुई। पार्टी सूत्रों का कहना है कि दिग्विजय यूपी में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के मिशन यूपी के सूत्रधार के तौर पर काम कर रहे हैं। उनको आजमगढ़ जाकर विवाद कुरेदने की जरूरत क्यों पड़ी, इसके मायने तलाशने में खुद पार्टी के कई नेता जुटे हैं।
आजादी के बाद के चुनावों में उत्तर प्रदेश में अल्पसंख्यकों के वोट कमोबेश कांग्रेस पार्टी को ही मिलते रहे हैं। 92 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद मुसलमानों का कांग्रेस से मोहभंग हुआ और उसका वोट कांग्रेस की झोली से निकलकर मुलायम के पास पहुंच गया। लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव के वक्त मुलायम सिंह यादव ने बाबरी मस्जिद विध्वंस के वक्त उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके पूर्व भाजपा नेता कल्याण सिंह को अपना सहयोगी बना लिया। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यह साफ कर दिया कि मुलायम के लिए कल्याण की यह दोस्ती भारी पड़ी। उत्तर प्रदेश में ढ़ाई साल बाद एक बार फिर से विधानसभा चुनाव होने वाले हैं और लोकसभा चुनावों में पार्टी की सफलता से उत्साहित कांग्रेसियों की नजर एक बार फिर से मुस्लिम मतदाताओं पर है। पार्टी नेताओं को यह लगने लगा है कि अगर मुसलमानों को एक बार फिर से साध लिया गया तो प्रदेश में मरणासन्न पार्टी को नई संजीवनी मिल सकती है।
अपनी इसी योजना को लेकर पार्टी के उत्तर प्रदेश प्रभारी दिग्विजय सिंह आजमगढ़ के संजरपुर पहुंचते हैं। संजरपुर वो कस्बा है जहां के कुछ युवकों पर आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने का आरोप लगता रहा है। वहां पहुंचकर दिग्विजय सिंह को अचानक दिल्ली ब्लास्ट के बाद हुए बटला एनकाउंटर की याद आती है। स्थानीय लोगों का जोरदार विरोध और काले झंडे के बावजूद जब दिग्विजय सिंह को बोलने का मौका मिला तो उन्होंने एक शातिर राजनेता की तरह लोगों की दुखती रग पर हाथ रख दिया। इशारों-इशारों में बटला हाउस एनकांउटर के फर्जी होने की बात कर डाली।
दिग्विजय ने कहा कि उन्होंने बटला हाउस एनकाउंटर के फोटोग्राफ्स देखे हैं जिनमें आतंकवादियों के सिर में गोली लगी है। उनके मुताबिक दहशतगर्दों के खिलाफ एनकाउंटर में इस तरह से गोली लगना नामुमकिन है। इशारा और इरादा दोनों साफ थे। दिग्विजय सिंह को अगर बटला हाउस एनकाउंटर की सत्यता पर संदेह था तो डेढ़ साल से चुप क्यों थे। संजरपुर पहुंचकर ही दिग्गी राजा को बटला हाउस की याद क्यों आई।
आपको याद दिलाते चलें कि 2008 के सितंबर में दिल्ली के बटला हाउस इलाके में हुए एक एनकाउंटर में दिल्ली पुलिस के जांबाज सिपाहियों ने दो आतंकवादियों को ढेर कर दिया था। आतंकवादियों से लड़ते हुए उस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस के जांबाज इंसपेक्टर मोहन चंद्र शर्मा शहीद हो गए थे और एक हेड कांस्टेबल बुरी तरह से जख्मी हो गया था। दो साल पहले जब यह एनकाउंटर हुआ था, उस वक्त भी इस पर सवाल खड़े हुए थे। लेकिन बाद में अदालत और सरकारी जांच में ये साबित हो गया कि मुठभेड़ सही थी।
जब दिग्विजय सिंह संजरपुर में ये बयान दे रहे थे उसके दो दिन पहले यूपी एसटीएफ ने दिल्ली समेत कई शहरों में हुए बम धमाकों के आरोपी आतंकवादी शहजाद को धर दबोचा था। शहजाद ने इस सिलसिले में कई सनसनीखेज खुलासे भी किए और यह भी माना कि दिल्ली पुलिस के इंसपेक्टर मोहनचंद शर्मा उसकी ही गोली का निशाना बने। लेकिन एनकाउंटर के फोटग्राफ्स को ध्यान से देखने वाले कांग्रेस पार्टी के इस वरिष्ठ नेता को शहजाद के बयानों को पढऩे की फुर्सत कहां। इन बातों से बेखबर दिग्विजय ने संजरपुर में बटला हाउस एनकाउंटर को ही संदेहास्पद करार दे दिया। ये इस एनकाउंटर में मारे गए शहीद मोहनचंद शर्मा का अपमान भी है।
जाहिर था दिग्विजय सिंह के इस बयान के बाद सियासी गलियारों में हड़कंप मचा और भारतीय जनता पार्टी ने दिग्विजय सिंह के बहाने कांग्रेस पार्टी पर निशाना साधा। आनन-फानन में कांग्रेस ने दिग्विजय के बयान से खुद को अलग कर लिया। दरअसल कांग्रेस में अल्पसंख्यकों को लुभाने की यह चाल बहुत पुरानी है। एक जमाने में दिग्विजय सिंह के गुरु और उनके ही प्रदेश के कांग्रेसी नेता अर्जुन सिंह भी इस तरह के राजनीतिक दांव चला करते थे। जब सीताराम केसरी कांग्रेस के अध्यक्ष थे उस वक्त अर्जुन सिंह ने अल्पसंख्यकों को खुश करने के लिए आरएसएस पर गांधी की हत्या का आरोप जड़ दिया था। जब आरएसएस ने कानूनी कार्रवाई की धमकी दी तो अर्जुन के तेवर नरम पड़े थे और बयान में संशोधन करते हुए कहा था कि संघ ने जो वातावरण तैयार किया था वही गांधी हत्या की वजह बना। लेकिन उस वक्त बयान देते वक्त अर्जुन सिंह यह भूल गए थे कि जस्टिस कपूर की रिपोर्ट, कांग्रेस के नेता डी पी मिश्रा की आत्मकथा और सरदार पटेल के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पत्रों में भी आरएसएस को गांधी की हत्या के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया गया था।
लेकिन अर्जुन सिंह अपने राजनैतिक लाभ के लिए गांधी की हत्या का इस्तेमाल करते रहे। आरएसएस के तत्कालीन प्रवक्ता राम माधव ने अर्जुन सिंह को आईना भी दिखाया था। राम माधव ने बताया था कि अर्जुन सिंह के परिवार के संबंध संघ के साथ कितने गहरे रहे हैं और उनके भाई राणा बहादुर सिंह एक जमाने में राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के जिला प्रमुख हुआ करते थे। लेकिन इन सबसे बेखबर अर्जुन सिंह ने अल्पसंख्यकों पर डोरे डालना नहीं छोड़ा।
इसके बाद जब अर्जुन सिंह केंद्र में मानव संसाधन विकास मंत्री बने तो पाठ्य पुस्तकों को भगवा रंग से मुक्त करने की मुहिम के नाम पर भी अपनी राजनीति चमकाते रहे। इस पर भी जमकर विवाद हुआ था। जिसमें बाद में प्रधानमंत्री को दखल देना पड़ा था।

नक्सलियों का आदिवासियों से अटूट रिश्ता

नक्सलियों पर निर्णायक कार्रवाई को लेकर सरकार इस बार गंभीर नजर आ रही है, मगर उसकी तैयारी अब भी अधूरी ही दिखाई पड़ रही है। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम के लगातार आ रहे बयानों से ऐसा लगता है कि अब कभी भी नक्सल पीडि़त सात राज्यों में उनके खिलाफ कोई बड़ी कार्रवाई हो सकती है। इस बीच ऐसे विज्ञापनों के दौर भी चल रहे हैं, जिनसे नक्सलवाद के विरोध में जनमत बनाने और आदिवासियों की हमदर्दी बटोरने का इरादा साफ दिखता है। इस सबके बीच एक खुशनुमा खबर यह भी है कि चिदंबरम चाहते हैं कि कोई उनकी नक्सलियों से बातचीत कराए। उधर पश्चिम बंगाल के नक्सली कमांडर किशनजी ने भी बातचीत का रूझान जताया है। बेशक दोनों तरफ से यह समझदार पेशकश है और इसका स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं है कि नक्सलियों पर कार्रवाई और बातचीत साथ-साथ चलेगी या नक्सलियों से हिंसा रोकने की बात कहने वाले गृहमंत्री अपने अर्द्ध सैनिक दस्तों को भी यह हिदायत देंगे कि वे गोली के बदले गोली का चक्त्र रोकें और अगले निर्देश का इंतजार करें। इसी तरह क्या नक्सली भी बेदर्दी से खून बहाने से तौबा करके अपनी बंदूकों और बारूदी सुरंगों को कुछ समय के लिए भूलकर बातचीत की लोकतांत्रिक की राह पर कदम आगे बढ़ाएंगे।

दरअसल, नक्सलवाद की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि जिन जगहों पर इसकी पैठ बनी है, वहां भूख से जूझते, जीवन के लिए संघर्ष कर रहे पुलिस और प्रशासन के अत्याचार से पीडि़त और शोषित करीब पांच करोड़ आदिवासियों का हुजूम है। मुल्क आजाद हो जाने के बावजूद सदियों शासन ने इनकी सुध नहीं ली। इनके दु:ख-दर्द नहीं बांटे। अपने पुरखों के जंगल में देश के आजाद होते ही आदिवासी भी आजादी की सांस लेने के बजाय बेगाने हो गए। जंगल का मालिक वन विभाग और उनके जीवन के मालिक पुलिसकर्मी बन गए। आजाद देश की जनता की सरकारों ने अपने कारकुनों को इन बेजुबान वनवासियों से लूट-खसोट और उन पर जुल्म करने से नहीं रोका, लेकिन नक्सलियों के पैर जमाते ही शासन को इनका खयाल आने लगा। इन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की चिंता सताने लगी और उसके कारिंदे दुबकने लगे, मगर भ्रष्टाचार से बाज नहीं आए। पश्चिम से लेकर पूरब तक एक लंबी पट्टी में महाराष्ट्र, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश और बंगाल के नक्शों पर नजर डालिए। स्पष्ट नजर आ जाएगा कि नक्सल प्रभावित इलाकों में कौन लोग बसे हैं और उनकी आमदनी कितनी है। उन्हें कितना पढ़ाया लिखाया गया है। उनकी जरूरतें पूरी करने के लिए सरकार ने क्या प्रबंध किए हैं। जो प्रबंध हैं, वे कितने कारगर हैं। क्या प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में तैनात डाक्टर की वहां मौजूदगी पर सरकार की तरफ से कभी नजर रखी गई है? बच्चों को मिलने वाले मिड-डे भोजन का किसी ने मुआयना करने की जरूरत समझी? उनकी आवागमन की तकलीफें, बाजार और रोजगार की सरकार को पहले कभी चिंता हुई है। यह चंद ऐसे अकाट्य तथ्य हैं, जिन्होंने इन इलाकों में नक्सलवाद को जड़ें जमाने में मदद की।

नक्सली चाहे जिस स्वार्थ से इन इलाकों में घुसे, पर वे इनके दर्द में हमदर्द हुए। वैसे सरकार भी चाहती तो इन इलाकों में पकड़ बना लेती। पर तब तो सरकारी नुमाइंदों का हाल यह था कि वे नक्सलियों की पकड़ बनने से पहले इन इलाकों में झांकते तक नहीं थे। उनकी नियुक्ति सिर्फ वेतन वसूली की रस्म अदायगी तक सीमित थी। वे शहरों से लगे कस्बों में बैठकर कागजों पर ही विकास योजनाओं को लागू करते और उनका पैसा अपनी जेबों के हवाले करते रहे। पर अफसोस कि सरकार ने इन्हें भी कभी नियंत्रित नहीं किया। उल्टे बंदूकधारी पुलिस को मनगंढ़त मामले दर्ज करने की छूट मिल गई। किसी भी गरीब की बेटी को उठाने का लाइसेंस मिल गया।

वजह सिर्फ इतनी कि वे जानते थे कि इस जंगल में कौन आएगा तस्दीक करने या फिर आज भी हिंदी बोलने या समझने में अक्षम गरीब आदिवासी किससे फरियाद करने जाएगा। और जरा उन सरकारी विज्ञापनों के दूसरे पहलू पर भी नजर डालिए, जिनकी असलियत घने जंगलों से छनकर कभी बाहर ही नहीं आती। जंगल के उस पार का सच विज्ञापन की इन तस्वीरों से भी भयानक है। वजह यही है कि जंगल में या तो पुलिस का शासन चलता है या नक्सलियों का। पुलिस ने भी नक्सलियों के नाम पर आम आदिवासियों के बेहिसाब एनकाउंटर किए हैं। पीयूसीएल की रिपोर्ट में ऐसी अनेक मुठभेड़ों का जिक्त्र है, जिनकी भनक कभी दुनिया को नहीं लगी। मिसाल के तौर पर बस्तर में मद्देड़ के सरपंच बंडे को तो सीआरपीएफ ने सिर्फ चुहलबाजी में मौत के घाट उतार दिया। उसने सीआरपीएफ की जीप के करीब से मोटरसाइकिल आगे निकालने की गुस्ताखी कर दी थी। जवानों द्वारा बस्तर के जंगलों में बलात्कार के दो चश्मदीदों को नदी में मरते दम तक डुबाया गया। इनमें से कोई भी नक्सली नहीं था मगर बस्तर कोई कश्मीर तो है नहीं, जिस पर पूरी दुनिया की निगाह लगी हो और जरा-सी जुंबिश होते ही सरकार को अपनी निष्पक्षता जताने कि लिए जांच बैठानी पड़े। इसलिए रोजमर्रा ऐसे जघन्य अत्याचारों के बावजूद आदिवासी इलाकों में इनका पर्दाफाश करने या विरोध के लिए न तो प्रेस में कोई खबर छपती है और न ही कोई आंदोलन हो पाता है। ये तथा अनेक ऐसे ही और भी तथ्य हैं, जिन्होंने मेहमान बनकर आए नक्सलियों का आदिवासियों से अटूट रिश्ता बना दिया।

शहरों में बैठे लोग यह कल्पना ही नहीं कर सकते कि पुलिस और प्रशासन के छुटभैये अफसर गांव और जंगलों में कैसे बिगड़ैल रईसजादों या शहंशाहों की तरह बर्ताव करते हैं। नक्सलियों ने कभी जंगल से बाहर न झांकने वाले आम आदिवासी को ऐसे ही लोगों के शोषण से निजात दिलाने में मदद की। यही वजह है कि आदिवासी उन्हें अपना सगा, रक्षक और मसीहा मानने लगे। उन्हें तो जो भी सुरक्षित जीवन की गारंटी देगा, उनका अपना हो जाएगा। नक्सली कौन हैं? शायद वे अब भी नहीं जानते। उन्हें यह भी नहीं पता कि वे किसी मकसद या सिद्धांत के लिए जीने-मरने वाले लोग है। आम आदिवासी को तो सिर्फ इतना पता है कि वे मुसीबत में उनके काम आते हैं और उनके डर से पुलिस और फॉरेस्ट विभाग का आतंक कम हुआ है। उनसे मिट्टी के मोल नमक के बदले कीमती चिरौंजी और शहर की छह झाड़ुओं के बराबर एक फूलझाड़ू मिट्टी के मोल खरीदने वाले व्यापारी अब उन्हें घर के दरवाजे पर अच्छी रकम दे जाते हैं। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा के नेतृत्व में सरकार समर्थित सलवा जुड़ूम को आदिवासियों ने इसीलिए पसंद नहीं किया। पूरी दुनिया में सलवा जुड़ूम को ऐसे प्रचारित किया गया, जैसे वह कोई अहिंसक गांधीवादी आंदोलन हो। असलियत यह थी कि सलवा जुड़ूम के नाम पर पुलिस के हाथों आदिवासी प्रताड़ना का जबर्दस्त दौर चला। गांव के गांव खाली हो गए। सिर्फ अपनी नाक बचाने के लिए आदिवासियों को सलवा जुड़ूम के कैंप में ऐसे ठूंस दिया गया, मानो उनका गांव में रह पाना मुश्किल हो गया हो। सलवा जुड़ूम से आदिवासियों का जो हुआ सो हुआ, पर भाजपा और कांग्रेस के छुटभैये नेताओं की दुकानें खुल गई। इस अभियान की लोकप्रियता का सबूत देखिए कि आंदोलन के सिरमौर और छत्तीसगढ़ विधान सभा में विपक्ष यानी कांग्रेस विधायक दल के नेता महेंद्र कर्मा अपने ही गृहक्षेत्र दंतेवाड़ा में 2008 का विधानसभा चुनाव बुरी तरह से हार गए। अब रहा सवाल बातचीत या कार्रवाई का। अगर कार्रवाई हुई तो मरेगा आदिवासी ही।

नक्सलियों के बड़े नेताओं तक सुरक्षा बल शायद ही पहुंच पाएं। वे अब तक आपातकाल में बस्तर के अबूझ माड़ में पनाह लेते थे, पर उनका इतिहास बताता है कि वे अब तक वहां से भी किसी अधिक सुरक्षित स्थान पर पनाह ले चुके होंगे। नक्सल इलाकों में अब सिर्फ चौथे, पांचवें, छठे क्रम के यानी नामालूम किस्म के नेता बचे हैं। इन्हें ही मारकर श्रेय लेना हो तो बात अलग है। इनमें ज्यादातर स्थानीय आदिवासी हैं। ऐसे में आम आदिवासी और छुटभैये नक्सली नेता की पहचान कर पाना आसान नहीं है। सरकार को आदिवासियों की पहचान का भी कोई पक्का फार्मूला निकालना होगा ताकि उस पर निर्दोष लोगों की हत्या का कलंक न लगे।। कहीं ऐसा न हो कि आखिरी पंक्ति की इन नेताओं के चक्कर में सड़क चलते आदिवासी मार दिए जाएं। आदिवासियों की फितरत आम शहरियों से अलग है। वे आम लोगों में घुलने-मिलने से कतराते हैं। सरकारी योजनाओं को शक की नजर से देखते हैं।

इस अविश्र्वास का कारण है 1966 में बस्तर सरकारी गोलीकांड में वहां के शासक महाराजा प्रवीर चंद्र भंजदेव की हत्या। इस कांड के लिए 2003 में कांग्रेस की तरफ से छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने वहां की जनता से माफी मांगी थी और आदिवासी मान भी गए थे। इसके अलावा पिछले कुछ वर्षो में शिक्षा के प्रसार से भी उनमें मेलजोल का जज्बा जागने लगा था, पर यदि अबकी बार केंद्र और राज्य सरकारों ने कोई बड़ी दमनात्मक कार्रवाई की तो आदिवासियों का विश्र्वास फिर टूट जाएगा। और मुख्यधारा में शामिल होने के बजाय डरे-सहमे आदिवासी घने जंगलों में फिर से गरीबी और पिछड़ेपन के अभिशाप से ढक जाएंगे। इसलिए यह जरूरी है कि सरकार आदिवासियों के बीच जो भी कार्रवाई करे, ठोक बजा कर करे। इस बात पर कड़ाई से अमल हो कि मारे गए नक्सलियों के आंकडे़ बढ़ाने के लिए निर्दोष आदिवासियों को विद्रोहियों की वर्दी पहनाकर फर्जी एनकाउंटर न किए जाएं। पहले से पूरी खुफिया जानकारी लेकर चुनींदा ठिकानों पर छापे मारे जाएं और त्वरित कार्रवाई के जरिए अपना लक्ष्य हासिल करें, क्योंकि लंबे अभियानों में जंगली इलाकों में पुलिस या अर्द्ध सैनिक बलों के लिए नक्सलियों के सामने टिक पाना कठिन होगा और रिकार्ड बताता है कि उसमें ज्यादातर अभी तक सरकारी बलों के लोगों की जान गई है।

इसके अलावा केंद्रीय गृहमंत्री सरकारी ईमानदारी जताने और आदिवासियों के नागरिक अधिकारों की रक्षा के लिए निष्पक्ष पर्यवेक्षक भी वहां तैनात कर सकते हैं। इतना ही नहीं, केंद्र और राज्य सरकारों को हथियारबंद कार्रवाई से पूर्व आदिवासियों का विश्र्वास अर्जित करने के लिए आजादी के बाद से उनके विकास के लिए सरकारी खजाने से खर्च हुए अरबों रुपये का समग्र ऑडिट भी करवाना चाहिए। इसके अंतर्गत यह जांच होनी चाहिए कि जिन परियोजनाओं के मद में सरकारी पैसे के खर्च का हिसाब सरकारी खातों में दर्ज है, वे वास्तव में लागू भी की गई या फिर उनके पैसों से जगदलपुर, राजनांदगांव, अंबिकापुर, जशपुर, रायपुर, रांची, जमशेदपुर, नागपुर, गोंदिया, कटक, भुवनेश्र्वर, संबलपुर, जबलपुर, मंडला, बैतूल, वारंगल, महबूब नगर, हैदराबाद और उत्तर बंगाल के नगरों में सरकारी विभागों के कर्मचारियों और अफसरों ने आलीशान बंगले और शॉपिंग सेंटर बना लिए।

नर्मदा पर बांध से पर्यावरण को नुकसान

भारत सरकार द्वारा गठित एक समिति की रिपोर्ट के मुताबिक सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड, गुजरात सरकार व नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र सरकार द्वारा शर्तों के घोर उल्लंघन के चलते पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है।

भारत सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय ने, नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर और इन्दिरा सागर जैसे विवादास्पद बांधों के सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए, भारतीय वन सर्वेक्षण के पूर्व महानिदेशक डाक्टर देवेन्द्र पाण्डेय की अध्यक्षता में 10 सदस्यों की एक विशेष समिति नियुक्त की थी। इस समिति ने अब दोनों बांध परियोजनाओं के सुरक्षा उपायों से जुड़े अपने सर्वेक्षण और अध्ययन की दूसरी अन्तरिम रिपोर्ट मंत्रालय को पेश की है, जिसमें जलग्रहण-क्षेत्र ट्रीटमेंट, लाभ-क्षेत्र विकास, वहन-क्षमता, क्षतिपूरक-वनीकरण, जीव-जन्तुओं और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असरों से संबंधित कई चौंकाने वाले तथ्य उजागर हुए हैं। साथ ही ऐसे कई अहम पर्यावरण पहलुओं को भी प्रकाशित किया गया है, जिनका अनुपालन नहीं हुआ है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड, गुजरात सरकार व नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र सरकार द्वारा शर्तों के घोर उल्लंघन के चलते पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है। सरदार सरोवर और इन्दिरा सागर बांध परियोजनाओं को 1987 में सशर्त पर्यावरणीय मंजूरी मिलने के 23 साल बाद भी इन सबका अनुपालन नहीं हुआ है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक लाभों की प्राप्ति, टिकाऊ प्रवाह, पर्यावरणीय लागत और क्षति का न्यूनीकरण या हानिपूर्ति सम्भव नहीं है।

समिति ने सुझाव दिया है कि इन दोनों परियोजनाओं के जलाश्य को तब तक नहीं भरा जाए जब तक कि इनके जलग्रहण-क्षेत्र का पूरी तरह ट्रीटमेंट न हो जाए, जब तक कि जीव-जन्तुओं के संरक्षण के लिए मास्टर प्लान तैयार करने और वन्य जीवन अभ्यारण्य तैयार करने सहित बची हुई बहुत सारी आवश्यकताएं पूरी न हो जाएं। समिति मानती है कि नहर के नेटवर्क निर्माण का काम और आगे न किया जाए और यहां तक कि मौजूदा नेटवर्क से भी सिंचाई की अनुमति तब तक न दी जाए जब तक कि जल प्रबंध के अलावा लाभ-क्षेत्र के विभिन्न पर्यावरणीय मानदण्डों का पालन साथ-साथ न पाए। यह रिपोर्ट केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा 11,000 करोड़ रुपये (6777 करोड़ रुपये सरदार सरोवर परियोजना की नहरों के लिए और 4,000 करोड़ रुपये सरदार सरोवर के लाभ-क्षेत्र विकास के लिए) दिये जाने के निर्णय पर भी गंभीर सवाल उठाती है, जिसे अभी तक अंतिम रूप से मंजूरी नहीं दी गई है।

गौर करने लायक बात यह है कि गुजरात सरकार सरदार सरोवर बांध में 17 मीटर ऊंचे गेट लगाकर ऊंचाई को 122 मीटर से बढ़ाकर 138.68 मीटर करने की राजनैतिक मांग कर रही है, जबकि रिपोर्ट का सुझाव इसके बिल्कुल विपरीत है। दूसरी तरफ नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने न केवल बहुत सारे पर्यावरणीय उपायों के उल्लंघन को उजागर किया है बल्कि कई पुनर्वास के फर्जीवाड़ों का भी पर्दाफाश किया है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन की रिपोर्ट कहती है कि सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में 2 लाख से ज्यादा लोग रहते हैं, जबकि हजारों आदिवासी परिवारों ने अपनी जमीन और घरों को खो दिया है, फिर भी उनका पुनर्वास नहीं हुआ है।

नर्मदा पर बांध से पर्यावरण को नुकसान

नर्मदा पर बांध से पर्यावरण को नुकसान

भारत सरकार द्वारा गठित एक समिति की रिपोर्ट के मुताबिक सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड, गुजरात सरकार व नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र सरकार द्वारा शर्तों के घोर उल्लंघन के चलते पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है।

भारत सरकार के पर्यावरण व वन मंत्रालय ने, नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर और इन्दिरा सागर जैसे विवादास्पद बांधों के सुरक्षा उपायों को ध्यान में रखते हुए, भारतीय वन सर्वेक्षण के पूर्व महानिदेशक डाक्टर देवेन्द्र पाण्डेय की अध्यक्षता में 10 सदस्यों की एक विशेष समिति नियुक्त की थी। इस समिति ने अब दोनों बांध परियोजनाओं के सुरक्षा उपायों से जुड़े अपने सर्वेक्षण और अध्ययन की दूसरी अन्तरिम रिपोर्ट मंत्रालय को पेश की है, जिसमें जलग्रहण-क्षेत्र ट्रीटमेंट, लाभ-क्षेत्र विकास, वहन-क्षमता, क्षतिपूरक-वनीकरण, जीव-जन्तुओं और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असरों से संबंधित कई चौंकाने वाले तथ्य उजागर हुए हैं। साथ ही ऐसे कई अहम पर्यावरण पहलुओं को भी प्रकाशित किया गया है, जिनका अनुपालन नहीं हुआ है।

इस रिपोर्ट के मुताबिक सरदार सरोवर नर्मदा निगम लिमिटेड, गुजरात सरकार व नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र सरकार द्वारा शर्तों के घोर उल्लंघन के चलते पर्यावरण को भारी नुकसान हो रहा है। सरदार सरोवर और इन्दिरा सागर बांध परियोजनाओं को 1987 में सशर्त पर्यावरणीय मंजूरी मिलने के 23 साल बाद भी इन सबका अनुपालन नहीं हुआ है। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक लाभों की प्राप्ति, टिकाऊ प्रवाह, पर्यावरणीय लागत और क्षति का न्यूनीकरण या हानिपूर्ति सम्भव नहीं है।

समिति ने सुझाव दिया है कि इन दोनों परियोजनाओं के जलाश्य को तब तक नहीं भरा जाए जब तक कि इनके जलग्रहण-क्षेत्र का पूरी तरह ट्रीटमेंट न हो जाए, जब तक कि जीव-जन्तुओं के संरक्षण के लिए मास्टर प्लान तैयार करने और वन्य जीवन अभ्यारण्य तैयार करने सहित बची हुई बहुत सारी आवश्यकताएं पूरी न हो जाएं। समिति मानती है कि नहर के नेटवर्क निर्माण का काम और आगे न किया जाए और यहां तक कि मौजूदा नेटवर्क से भी सिंचाई की अनुमति तब तक न दी जाए जब तक कि जल प्रबंध के अलावा लाभ-क्षेत्र के विभिन्न पर्यावरणीय मानदण्डों का पालन साथ-साथ न पाए। यह रिपोर्ट केन्द्रीय जल संसाधन मंत्रालय द्वारा 11,000 करोड़ रुपये (6777 करोड़ रुपये सरदार सरोवर परियोजना की नहरों के लिए और 4,000 करोड़ रुपये सरदार सरोवर के लाभ-क्षेत्र विकास के लिए) दिये जाने के निर्णय पर भी गंभीर सवाल उठाती है, जिसे अभी तक अंतिम रूप से मंजूरी नहीं दी गई है।

गौर करने लायक बात यह है कि गुजरात सरकार सरदार सरोवर बांध में 17 मीटर ऊंचे गेट लगाकर ऊंचाई को 122 मीटर से बढ़ाकर 138.68 मीटर करने की राजनैतिक मांग कर रही है, जबकि रिपोर्ट का सुझाव इसके बिल्कुल विपरीत है। दूसरी तरफ नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने न केवल बहुत सारे पर्यावरणीय उपायों के उल्लंघन को उजागर किया है बल्कि कई पुनर्वास के फर्जीवाड़ों का भी पर्दाफाश किया है। नर्मदा बचाओ आन्दोलन की रिपोर्ट कहती है कि सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में 2 लाख से ज्यादा लोग रहते हैं, जबकि हजारों आदिवासी परिवारों ने अपनी जमीन और घरों को खो दिया है, फिर भी उनका पुनर्वास नहीं हुआ है।