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भेड़ाघाट

Friday, May 15, 2015

2000 करोड़ के घोटाले का मास्टर माइंड कौन...?

10 मामलों में अब तक 250 से अधिक आरोपी गिरफ्तार
-150 से अधिक छात्र और उनके परिजन अभी भी पकड़ से दूर
राज्यपाल से आरोपी बेटे की मौत के बाद फिर गर्माया मामला
भोपाल। परीक्षा और नौकरी के नाम पर व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं )और उसमें सक्रिय दलालों ने पिछले 10 साल में सवा करोड़ बेरोजगारों को करीब 2000 करोड़ का चूना लगाया है। इस फर्जीवाड़े में अभी तक 250 सं अधिक लोगों की गिरफ्तारी हो चुकी है, लेकिन इस महाघोटाले का असली मास्टर माइंड कौन है इसका पता आज तक नहीं चल सका है? इससे अब जांच एजेंसी एसटीएफ और एसआईटी भी सवालों के घेरे में है। ऐसे में राज्यपाल रामनरेश यादव के पुत्र की संदिग्ध मौत ने एक बार फिर से मामले को गर्मा दिया है। उल्लेखनीय है कि व्यापमं घोटाले का खुलासा 7 जून 2013 को उस समय हुआ जब पीएमटी की फर्जी तरीके से परीक्षा दे रहे करीब एक दर्जन मुन्नाभाईयों को इंदौर पुलिस ने गिरफ्तार किया था। इसके बाद तो एक के बाद इस घोटाले के उलझे तार सुलझते चले गए। सबसे पहले पकड़ में आया डॉ जगदीश सागर। जगदीश सागर की गिरफ्तारी और उससे हुई पूछताछ के बाद पता चला कि, मामला उतना छोटा नहीं जितना समझा जा रहा था। लिहाजा मामले की जांच एसटीएफ को सौंप दी गई। यहां से शुरू हुआ व्यापमं फर्जीवाड़े की परत दर परत खुलने का सिलसिला। व्यापमं के पूर्व कंट्रोलर पंकज त्रिवेदी, सिस्टम एनालिस्ट नितिन महिंद्रा की गिरफ्तारी के बाद तो खुलासा हुआ कि, पूरा व्यापमं ही फर्जी परीक्षाओं का अड्डा बन चुका था। इस एक साल में एसटीएफ ने कई अधिकारियों, नेताओं, छात्रों और उनके परिजनों को गिरफ्तार किया है। इसके बाद एसटीएफ ने बाकी परीक्षाओं में हुई धांधलियों की भी पड़ताल की। व्यापमं द्वारा कराई गई-पीएमटी 2012-13, प्रीपीजी, आरक्षक भर्ती परीक्षा, एसआई भर्ती परीक्षा, संविदा शिक्षक वर्ग 2 और 3, दुग्ध संघ परीक्षा, वन रक्षक भर्ती परीक्षा, बीडीएस परीक्षा, संस्कृत बोर्ड परीक्षा और राज्य ओपन टायपिंग परीक्षा में फर्जीवाड़े का खुलासा हुआ। एसटीएफ ने फर्जीवाड़े में शामिल दो सैकड़ा से अधिक लोगों को गिरफ्तार कर लिया है। लेकिन एसटीएफ अब तक भी उन बड़े नामों पर शिकंजा नहीं कस सकी है। जिनकी छत्रछाया में ही छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने का ये पूरा खेल चल रहा था। बैकफुट पर शिवराज सरकार मध्यप्रदेश व्यावसायिक परीक्षा मंडल भर्ती मामले को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनकी सरकार बैकफुट पर नजऱ आने लगी है। दिन-ब-दिन यह मामला बड़ा होता जा रहा है। व्यापमं मामले की वजह से विधानसभा के बजट सत्र को समय से एक महीने पहले ही सरकार को खत्म करना पड़ा। इस मामले की आंच राजभवन तक पहुंचने से यह बात तो साबित हो गई है कि इस घोटाले को ऊंचे स्तर पर निर्देशित किया गया है। जब प्रदेश के पूर्व शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा को इस मामले में गिरफ्तार किया गया था, तब उन्होंने कहा था कि मेरे ऊपर भी लोग हैं और उनकी तरफ से अनुशंसायें आईं थीं। अब इस मामले में प्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव के खिलाफ एफआईआर दर्ज हुई है। उनपर आरोप है कि उन्होंने तीन उम्मीदवारों को फर्जी तरीके से वन रक्षक भर्ती परीक्षा में अपने पद का दुरुपयोग कर पास करवाया। हालांकि उन्होंने अपने खिलाफ एफआईआर दर्ज करने को अदालत में इस आधार पर चुनौती दी है कि वह संवैधानिक पद पर हैं और उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज नहीं की जा सकती है, लेकिन इससे पहले राज्यपाल के ओएसडी और उनके बेटे शैलेश यादव का नाम इस घोटाले में आ चुका है। इस घोटाले के प्रमुख आरोपी पंकज त्रिवेदी डेढ़ साल में करीब छह बार राजभवन गया था। इस बात का खुलासा राजभवन की विजिटर्स लॉगबुक से हुआ है। इस लॉगबुक को एसटीएफ एफआईआर दर्ज करने से पहले ही जब्त कर चुकी है। यह राज्यपाल और उनके बेटे के खिलाफ सबसे अहम सबूत साबित हो सकता है। न्यायालय में प्रस्तुत आरोप पत्र में मुख्य आरोपी पंकज त्रिवेदी ने बयान दिया था कि परीक्षा के पूर्व से समय-समय पर प्रभावशाली व्यक्तियों के दबाव आते रहे तथा पीएमटी 2012 में उन लोगों को चयनित कराने के लिए दबाव बनाया, जिनके अत्यधिक दबाव के कारण मैंने कंप्यूटर शाखा के प्रभारी नितिन महिंद्रा एवं चंद्रकांत मिश्रा से चर्चा करके अभ्यार्थियों को पास कराने के लिए योजना तैयार की। अन्य परीक्षाओं के संबंध में मुझे वरिष्ठ लोगों से, जिनमें अधिकारी नेता शामिल हैं, अलग अलग समय में लिस्ट दी थी। इसी तरह के घोटाले की वजह से हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला अपने बेटे के साथ सजा काट रहे हैं। शिवराज सिंह चौैहान पिछले साल विधानसभा में यह स्वीकार कर चुके हैं कि 1000 से ज्यादा अपात्र लोग इस घोटाले की वजह से प्रदेश में नौकरियां पा चुके हैं। कुल मिलाकर व्यापमं द्वारा आयोजित 13 परीक्षायें जांच के दायरे में आ चुकी हैं। 14 महीने की एसआईटी जांच के बाद लगभग 1500 लोगों को गिरफ्तार किया जा चुका है। यह मुद्दा केवल राजनीतिक नहीं रह गया है। यदि किसी मुख्यमंत्री को देश के ईमानदार नेताओं में से एक माना जाता है तो उसके 10 साल के शासन काल में लंबे समय तक इस तरह की धांधली हो तो यहां बात नैतिकता की आ जाती है। भले ही अभी सबूूत मुख्यमंत्री के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन उनके कार्यकाल में इतने बड़े स्तर पर घोटाले को अंजाम दिया गया, तो इसे सीधे-सीधे उनके कर्तव्य निर्वहन में उनकी विफलता माना जाएगा। यह शिवराज के राज में सबसे बड़ा दाग है। इससे न जाने कितने युवाओं का भविष्य खराब हो गया। इसकी सीधी-सीधी जिम्मेदारी प्रदेश के मुख्यमंत्री की है, क्योंकि इतना बड़ा घोटाला यदि किसी मुख्यमंत्री के कार्यकाल में हो तो वह जवाबदेही से नहीं बच सकता है। इसी वजह से प्रदेश में विपक्ष आक्रामक है और प्रदेश की आम जनता के मन में राज्यपाल जैसे बड़े लोगों के इस मामले में फंसने से सवाल खड़े हो रहे हैं। इसलिए सरकार के लिए बेहतर होगा कि वह इस मामले से सभी लोगों के नाम सार्वजनिक करें और उन दस्तावेजों का खुलासा करें, जिस आधार पर मुख्यमंत्री ने प्रदेश में 1000 लोगों के फर्जी तरीके से भर्ती होने की बात स्वीकार की थी। यदि सरकार ऐसा नहीं करती है तो आमजन का प्रदेश सरकार से विश्वास उठ जाएगा। हालांकि कांग्रेस पार्टी काफी पहले से इस मामले की जांच कई बार सीबीआई से कराने की मांग कर चुकी है। राज्यपाल का नाम मामले में आने के बाद कांग्रेस पार्टी एक बार फिर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को घेरने की कोशिश कर रही है। कांग्रेस ने मामले की जांच कर रही एसआईटी को एक केंद्रीय मंत्री, राज्य सरकार के एक केंद्रीय मंत्री और राज्य के कुछ आला अधिकारियों के खिलाफ दस्तावेज सौंपे हैं और एसआईटी से मांग की है कि वह इन दस्तावेजों की जांच कर उन लोगों के खिलाफ भी कार्रवाई करे। दस्तावेज प्रस्तुत करते समय कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह, पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया और वकील केटीएस तुलसी मौजूद थे। इस दौरान उन्होंने आरोप लगाया कि व्यापमं घोटाले में शिवराज सिंह और उनका परिवार शामिल है। कांग्रेस ने जांच में मुख्यमंत्री और उनके परिवार को बचाने एवं एसटीएफ के सीएम के इशारे पर काम करने का भी आरोप लगाया है और कहा कि आरोपियों से सीज किए गए कंप्यूटर से प्राप्त दस्तावेजों से छेड़छाड़ की गई है। हालांकि कांग्रेस एक बार फिर इस मुद्दे के बल पर प्रदेश में अपनी खोई जमीन वापस पाना चाहती है। व्यापमं घोटाला संघर्ष समिति के सदस्य मनीष काले ने बताया कि समिति ने 2 मार्च को दिल्ली के जंतर मंतर में प्रदर्शन किया था। वे लोगों से लगातार मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर उनसे अपने बच्चों के भविष्य के साथ हुए खिलवाड़ के लिए जिम्मेदार कौन, जैसे सवाल पूछ रहे हैं। लोग चाहते हैं कि इस घोटाले की जवाबदेही तय हो। वेटिंग लिस्ट के छात्रों को सभी आयामों में रिक्तस्थानों पर प्रवेश दिया जाए। सभी प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए पारदर्शी और निष्पक्ष व्यवस्था निर्मित की जाए। फिलहाल इस मामले की जांच हाई कोर्ट की देखरेख में हो रही है। इसलिए अपेक्षा की जानी चाहिए कि इस मामले में सारा सच सामने आएगा। बावजूद इसके, इस कांड ने राज्य की भाजपा सरकार को सवालों के घेरे में खड़ा किया है। इससे उसकी छवि प्रभावित हुई है। इसे लेकर विधानसभा में जो हंगामा हुआ है, उसके बाद शिवराज की दिल्ली यात्रा को लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे थे कि व्यापमं मामले के संबंध में ही आलाकमान ने उन्हें दिल्ली बुलाया था, लेकिन सवाल यहां यह उठता है कि आखिरकार सरकार व्यापमं के मुद्दे पर इस तरह का रवैया क्यों अपना रही है। यदि प्रदेश सरकार को मालूूूम है कि एक हजार नियुक्तियां गलत तरीके से हुई हैं तो उन्हें अब तक उन्हें रद्द क्यों नहीं किया गया? उन रिक्तियों में भर्ती के लिए जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई? ये सारे सवाल सरकार के लिए लगातार परेशानी का सबब बने हुए हैं। सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह इन सवालों के जवाब दे। अन्यथा शिवराज के राज को इतिहास में जंगलराज के नाम से जाना जाएगा। जिस घोटाले को देश का अब तक का सबसे बड़ा शिक्षा घोटाला बताकर प्रचारित किया जा रहा हो, उसके बारे में उठ रही हर शंका का जवाब सरकार को प्रदेश की जनता को देना चाहिए था। सरकार के पास प्रदेश के 6 करोड़ लोगों के बीच अपनी बात रखने का विधानसभा से बड़ा कोई स्टेज नहीं हो सकता है। सरकार का व्यापमं मामले में विधानसभा सत्र को समय से पहले खत्म कर देने से यही जाहिर होता है कि सरकार बैकफुट पर है और अपने बचाव की राह तलाश रही है। करीब 2000 करोड़ रुपये के बताए जा रहे इस घोटाले की जांच को दो साल होने को आया, कई मछलियां जांच के इस जाल में फंस चुकी हैं, लेकिन अब भी कहना मुश्किल है कि भ्रष्टाचार के इस नेटवर्क का ओर-छोर कहां तक है। 2004 से चल रहे इस गोरखधंधे के तहत फर्जी नियुक्तियां करवाने के लिए कई सरकारी नियमों को ढीला किया गया, कई नियम बदले गए तो कइयों को हटा ही दिया गया। इस पूरे मुद्दे को जोर-शोर से उठाने वाले भोपाल के एडवोकेट आनंद कहते हैं, 'प्रदेश में अकेले संविदा शिक्षकों की ही 80 हजार भर्तियां हुई हैं। यहां 53 विभाग हैं, सबकी भर्ती परीक्षाएं व्यापम ही कराता है। अब तक उसने 81 परीक्षाएं आयोजित की हैं। इनमें एक करोड़ चार लाख विद्यार्थियों ने भाग लिया और कुल चार लाख भर्ती हुईं।Ó आनंद आरोप लगाते हैं कि इनमें से 80 फीसदी भर्तियां फर्जी हैं, 'अब तो खुद मुख्यमंत्री विधानसभा में मान चुके हैं कि एक हजार भर्तियां फर्जी हैं। भले ही वे आंकड़ा कम बता रहे हैं, लेकिन यह तो मान रहे हैं कि फर्जी भर्तियां हुई हैं। सच्चाई से पर्दा उठाने के लिए इतना ही काफी है।Ó आर्थिक पहलू के अलावा इस घोटाले के इससे भी अहम कई पहलू और भी हैं: इसके चलते कई योग्य युवा मौकों से वंचित रह गए। यह घोटाला कई सालों से चल रहा था। इस दौरान पैसे और सिफारिश के जरिये चुने गए उम्मीदवारों ने अपनी जिम्मेदारियों का किस तरह निर्वाह किया होगा, इस व्यवस्था को कैसे घुन की तरह खोखला किया होगा, यह भी गंभीर सवाल हैं। डॉक्टरी जैसे पेशे में तो यह लाखों लोगों की जानों से खेलने वाला खतरनाक खेल भी बन जाता है। इन सड़ी मछलियों की वजह से प्रतियोगी परीक्षाओं में अपने बूते सफल रहीं वास्तविक प्रतिभाओं पर भी शक का दाग लग गया है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के सदस्य डॉक्टर सीसी चौबल कहते भी हैं कि एमपी के पीएमटी घोटाले की वजह से उन डॉक्टरों को भी संदेह की नजर से देखा जाने लगा है जिन्होंने अपनी प्रतिभा और मेहनत से एमबीबीएस की डिग्री ली होगी। इसके अलावा व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण कवायद तो बेकार हुई ही, वह समय भी व्यर्थ हुआ जिसकी भरपाई किसी भी तरह से नहीं हो सकती। कांग्रेस का आरोप है कि दोषियों को सख्त कार्रवाई से बचाने की कोशिश हो रही है। उसके मुताबिक प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट 1998 के बजाय एसटीएफ ने आईपीसी की धारा 420 और 409 के तहत केस दर्ज कर दिए हैं। पार्टी का कहना है कि यदि एंटी करप्शन एक्ट की धारा 13 (आई) (डी) के तहत मामला दर्ज होता तो यह स्पेशल कोर्ट में चला जाता और इसमें आरोपियों को जमानत भी नहीं मिलती। पार्टी का यह भी आरोप है कि व्यापम के पास वर्ष 2008 तक का कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है जबकि लोक सेवा आयोग में 10 वर्ष तक उत्तर पुस्तिकाएं और 20 वर्ष तक रिजल्ट सुरक्षित रखने का नियम है। सवाल उठ रहा है कि व्यापमं पर भी यही नियम लागू होता है, तो इसका पालन क्यों नहीं किया गया। कांग्रेस का यह भी आरोप है कि पूर्व मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा की गिरफ्तारी एफआईआर दर्ज करने के 189 दिनों बाद इसलिए की गई क्योंकि जांच की आंच में मुख्यमंत्री निवास भी आने लगा था। सूत्रों के मुताबिक गिरफ्तारी के बाद शर्मा का कहना था कि वे बड़े लोगों के लिए कुर्बानी दे रहे हैं। 16 माह से नहीं हुई प्रदेश में सिपाही भर्ती व्यापमं घोटाला उजागर होने के बाद प्रदेश में पिछले 16 महीने से सिपाही की भर्ती नहीं हुई है। सिपाही बनने के लिए कोचिंग में पैसा व ग्राउंड में पसीना बह रहे युवाओं की उम्मीद अब टूटने लगी है, क्योंकि कई युवा ओवरएज होने की कगार पर खड़े हैं। अगर इस साल भी सिपाही भर्ती नहीं हुई तो प्रदेश में 1 लाख के लगभग युवा सिपाही की दावेदारी की दौड़ से बाहर हो जाएंगे। प्रदेश में 5 हजार से अधिक पद रिक्त होने के बाद भर्ती नहीं होने से अंचल के कुछ युवा न्यायालय की शरण में जाने की तैयारी कर रहे हैं। व्यापमं घोटाले में जिला पुलिस बल, एसएएफ, परिवहन विभाग, जेल प्रहरी की भर्ती प्रक्रिया में काफी धांधली हुई है। प्रदेश में पिछले 10 साल में हुई सिपाही भर्ती पर सवालिया निशान लग गया है। सिपाही भर्ती कांड में कई बड़े नाम सामने आए हैं। कई जेल में हैं। व्यापमं घोटाले के बाद से राज्य सरकार पिछले 16 महीने में सिपाही भर्ती करा सकी है। 5000 के अधिक पद रिक्त तीसरी बार सरकार में आने के बाद सीएम शिवराज सिंह चौहान व गृहमंत्री बाबू लाल गौर कई बार घोषणा कर चुके हैं। प्रदेश में 5000 से अधिक सिपाहियों की भर्ती की जाएगी। प्रदेश में पुलिस बल आवश्यकता से काफी कम है। क्रम पदोन्नति के कारण पिछले सिपाही से प्रधान आरक्षक, प्रधान आरक्षक से एएसआई पद पर काफी संख्या जवान पदोन्नत हुए हैं, लेकिन उस अनुपात में सिपाही की भर्ती नहीं हो पाई है। जिससे प्रदेश के थानों में प्रधान आरक्षक व एएसआई अधिक सिपाही कम हैं। जिसके कारण थानों का कामकाज भी काफी हद तक प्रभावित हो रहा है। 16 महीने पहले हुई आरक्षक भर्ती में ग्वालियर-चंबल अंचल में यूपी व राजस्थान का रैकेट पकड़ में आया था। इस रैकेट से खुलासा हुआ था कि 100 अधिक सॉल्वर ग्वालियर-चंबल अंचल में सॉल्वर परीक्षा देने के लिए आए थे। 4 लाख युवा कर रहे हैं तैयारी सिपाही के लिए प्रदेश में 4 लाख से अधिक युवा सिपाही भर्ती की तैयारी कर रहे हैं। भर्ती होने की उम्मीद में यह लोग कोचिंगों में पैसा व ग्राउंड में पसीना बहा रहे हैं। इनमें से 1 लाख के लगभग युवा ओवरएज होने की कगार पर खड़े हैं। अगर इस साल भी भर्ती नहीं होती है तो यह युवा सिपाही की दौड़ से ही बाहर हो जाएंगे। एसएएफ ग्राउंड पर दौड़ का अभ्यास कर रहे शैलेंद्र सिंह ने बताया कि 16 महीने पहले सिपाही की भर्ती हुई थी। उसने भी आरक्षक बनने के लिए परीक्षा दी थी, लेकिन किसी कारण से उसका सिलेक्शन नहीं हो सका। उसके बाद से भर्ती नहीं होने से सिपाही व एसआई की तैयारी कर रहा है। उसके बाद से अब तक सिपाही की भर्ती नहीं हुई है। सिपाही बनने के लिए प्रतिभागी महीनों से तैयारी कर रहे हैं, लेकिन भर्ती नहीं होने के कारण निराश हैं। कुछ ओवरएज होने की कगार पर हैं। व्यापमं घोटाले के बाद सिपाही की भर्ती नहीं होने के कारण कुुछ प्रतिभागी कोर्ट की शरण में भी जाने का मन बना रहे हैं। 15 सिंतबर 2013 में हुई थी भर्ती- - सिपाही के लिए 15 सितंबर 2013 में व्यापमं के माध्यम से परीक्षा हुई थी। 8 जनवरी को रिजल्ट आया था। 1से 10 फरवरी को फिजिकल टेस्ट हुआ था। 7 फरवरी को रिजेल्ट फाइनल सूची चस्पा हुई थी। यह है प्रक्रिया- - पहले रिटर्न परीक्षा पास करनी पड़ती है। 800 मीटर की दौड़ 2:45 मिनट में क्लियर करनी पड़ती है। मेडिकल टेस्ट होता है।

2800 करोड़ स्वाहा न बिजली मिली, न पानी

465 करोड़ की योजना पहुंची 4000 करोड़
कर्ज नहीं मिलने से महेश्वर बिजली परियोजना बंद
भोपाल। मध्यप्रदेश सरकार ने जिन परियोजनाओं के बलबुते वर्ष 2013 से प्रदेश में 24 घंटे विद्युत का प्रदाय की घोषणा की थी उसमें से एक है 400 मेगावॉट की महेश्वर जल विद्युत (हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट) परियोजना। करीब 30 साल में अब तक 4 निर्माण एजेंसियां बदल गई और 2760 करोड़ रूपए खर्च हुए लेकिन अभी तक न तो बिजली का उत्पादन शुरू हो सका और न ही खेतों को पानी मिल रहा। आलम यह है कि परियोजना की लागत बढऩे और इसमें हो रहे घपले-घोटाले की वजह से परियोजना को कर्ज भी नहीं मिल रहा है। इसलिए यह परियोजना अधर में लटकी हुई है। उधर, इस परियोजना के अटकने के लिए राज्य सरकार यूपीए सरकार को दोषी मानती है। मध्यप्रदेश में वर्तमान में, 81.50 लाख हेक्टेयर मीटर औसत सतह पानी उपलब्ध है, जिसमें दस प्रमुख नदी-घाटियां योगदान देती है। इनमें उत्तर घाटियों में चंबल, बेतवा, सिंध, और केन, पूर्व में सोन और टोन्स, दक्षिण में नर्मदा और बेनगंगा और मध्य तथा पश्चिम में माही और ताप्ती नदी की घाटियां शामिल है। इसके अलावा, राज्य में 34.50 लाख हेक्टेयर मीटर भूगर्भ जल उपलब्ध है। इस प्रकार, राज्य में पानी की कुल उपलब्धता 116 लाख हेक्टेयर मीटर है, जो 113 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई अच्छी तरह कर सकती है। लेकिन विसंगति यह है की इन नदियों के पानी से बिजली बनाने की जितनी भी परियोजनाएं सरकार ने शुरू किया है वे विवादों में फंसती रही हैं। महेश्वर जलविद्युत परियोजना भी इसी में से एक है। उल्लेखनीय है कि महेश्वर जलविद्युत परियोजना, ओंकारेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना से लगभग 40 किमी दूर खरगोन जिले में मंडलेश्वर के निकट नर्मदा नदी पर स्थित है। इस परियोजना के अन्तर्गत 35 मीटर ऊंचाई एवं 10475 मीटर लम्बा कांक्रीट बांध बनाया जाना है। दांए किनारे पर स्थित तटबंध सहित इसके उत्प्लाव की लम्बाई क्रमश: 1554 मीटर एवं 492 मीटर है एवं दांए तट पर 400 मेगावॉट की विद्युत क्षमता (40 मेगावॉट विद्युत क्षमता की 10 यूनिटें) का जल विद्युत गृह बनाना प्रस्तावित है। परियोजना के लिए जनवरी, 1994 में भारत-सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृति तथा केन्द्रीय विद्युत परियोजना की तकनीकी आर्थिक स्वीकृति प्राप्त कर लिए जाने के पश्चात इस परियोजना को पूर्ण किए जाने के कार्य श्री महेश्वर जलविद्युत निगम लिमिटेड नामक निजी कम्पनी को सौंप दिए गए। इसके लिए नवम्बर, 1994 में मध्य प्रदेश विद्युत मण्डल द्वारा एक विद्युत क्रय समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। दिसम्बर, 1996 में परियोजना के पूर्व की प्राक्कलन राशि रू 465.63 करोड़ को संशोधित कर रू 1569 करोड़ आंकी गई है। वर्ष 2006 के मूल्य स्तर पर किए मूल्यांकन पर परियोजना की कुल लागत रू 2760 करोड़ आंकी गई थी, जो अब अब बढ़कर करीब 4,000 करोड़ पहुंच गई है। कंपनियां आती रही और लूट मचाती रहीं मप्र की इस बहुप्रतिक्षित योजना को कंपनियों ने सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर कमाई का जरिया बना लिया है। आलम यह रहा कि बांध को बनाने के लिए कंपनियां आती रही और निमार्ण की आड़ में लुट मचाती रहीं। जिसका परिणाम यह हुआ की 30 साल बाद भी परियोजना तो पूरी नहीं हुई लेकिन उसकी लागत दस गुना बढ़ गई। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1997 में निविदा के माध्यम से बांध एवं विद्युत गृह से संबंधित निर्माण कार्य रू 275.62 कऱोड़ की लागत पर मेसर्स एसईड़ब्ल्यू कन्स्ट्रक्शन लिमिटेड को आवंटित किए गए थे। परियोजना के कार्य श्री महेश्वर जलविद्युत निगत लिमिटेड द्वारा लिए जाने के पश्चात बांध एवं विद्युत गृह के निर्माण कार्य आरम्भ कर दिए गए थे। परन्तु अगस्त, 2001 से उक्त कार्य स्थगित कर दिए गए थे। वर्ष 2005 में वित्तीय संस्थान के साथ वित्तीय सहबद्धता पूर्ण कर लेने के पश्चात महेश्वर परियोजना के कार्य नवम्बर, 2005 से पुन: आरम्भ कर दिए गए। पीएफसीआरईसी तथा हुड़को के साथ संयुक्त ऋण समझौता कर हस्ताक्षर कर लिए जाने के पश्चात 29 सितम्बर, 2006 को परियोजना का वित्तीय समापन कर लिया गया था। वित्तीय समापन प्राप्त कर लिए जाने के पश्चात दिनांक 29 सितम्बर, 2006 को परियोजना का वित्तीय समापन कर लिया गया था। वित्तीय समापन प्राप्त कर लिए जाने के पश्चात दिसम्बर, 2006 में 400 करोड़ के पूर्णत: परिवर्तनीय ऋण पत्र लाए गए मार्च, 2009 तक बांध एवं विद्युत गृह खण्ड में 17401 लाख घन मीटर खुदाई के कार्य तथा 7815 लाख घनमीटर कांक्रीटिंग के कार्य पूर्ण कर लिए गए थे । मार्च, 2009 तक उत्प्लाव (स्पिलवे) के सभी 30 खण्डों में भी कांक्रीटिंग में कार्य किए जा रहे थे तथा लगभग 955 प्रतिशत कांक्रीटिंग के कार्य पूर्ण कर लिए गए तथा विद्युत ऊर्जा बांध (पॉवर डेम) के 10 खण्डों में भी कांक्रीटिंग के कार्य आरम्भ कर दिए गए तथा मार्च, 2009 तक 939 प्रतिशत कांक्रीटिंग के कार्य पूर्ण कर लिए गए थे । मार्च, 2009 तक इस परियोजना पर रू 2002.79 कऱोड़ व्यय किए जा चुके हैं, जिनमें से वर्ष 2008-09 के दौरान रू 601.97 कऱोड़ व्यय हुए। आलम यह है कि अभी तक तीन निमार्ण कंपनी बदलने के बाद भी1985 से निर्माणाधीन महेश्वर जल विद्युत बांध परियोजना 30 साल में भी पूरी नहीं हो सकी है। सौ फीसदी पुनर्वास भी अब तक नहीं हुआ है। उधर, बांध की लागत 465 करोड़ रुपए से करीब 9 गुना बढ़कर 4 हजार करोड़ रुपए पर पहुंच गई है। परियोजना पर अब तक लगभग 2760 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं, लेकिन परियोजना बिजली में कब बिजली उत्पादित होगी किसी को पता नहीं है। निकट भविष्य में विद्युत उत्पादन के आसार भी नहीं हैं। इधर आठ माह से परियोजना में कार्यरत सौ कर्मचारियों को वेतन तक नहीं मिल पाया है। परियोजना के लिए सरकार की दलील के बाद ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 154 मीटर जलभराव के लिए अनुमति दी। गत वर्ष तीन माह के अंदर तीन टरबाइन से 40 मेगावॉट बिजली उत्पादन ट्रायल बेस पर करने की अनुमति भी मिली। बार-बार काम बंद यह परियोजना शुरू से ही विवादों में रही है और अभी भी इसका विवादों से पीछा नहीं छूटा है। यह परियोजना पहले एनवीडीए फिर एमपीईबी उसके बाद एस कुमार्स और अब पॉवर फाइनेंस कार्पोरेशन के हवाले है। 1993 में मप्र सरकार द्वारा निजीकरण लागू किए जाने के बाद यह परियोजना एस कुमार्स के हाथों में पहुंची। 1996-97 में एमओयू साइन होने के बाद काम शुरू हुआ, परंतु 2001 से 2006 और फिर 2011 से अब तक काम बंद है। प्रदेश में बिजली संकट दूर करने के लिए शुरू की गई 400 मेगावॉट की महेश्वर जल विद्युत परियोजना बंद पड़ी है। इसके पीछे कारण 2001 से रूपयों की तंगी बताई जा रही है। कर्ज नहीं मिलने से बंद पड़ी परियोजना को चालू करने के लिए न तो केंद्र सरकार कोई कदम बढ़ा रही न राज्य सरकार। ऋणदाता समूहों द्वारा वित्तीय सहायता रोक देने से जहां परियोजना बंद पड़ी है, वहीं करोड़ों रूपए की मशीनों का मेंटेनेंस भी नहीं हो पा रहा है। सालभर से 250 कर्मचारी अपनी पगार के लिए इधर-उधर भटक रहे हैं। बारिश के चलते मशीनों के जलमग्न होने के साथ जनहानि का अंदेशा अलग बढ़ गया है। परियोजना कार्य में लगे कर्मचारियों का कहना है कि परियोजना बंद होने से जनता का पैसा बर्बाद होगा ही हजारों परिवारों को आर्थिक तंगी झेलनी पड़ेगी। साल 2001 में धनाभाव में परियोजना का निर्माण कार्य पूरी तरह से ठप हो गया। साल 2005 में प्रमुख ऋणदाता पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन की अगुवाई में अन्य ऋणदाताओं के समूहों, राज्य सरकार के संयुक्त प्रयासों से निर्माण फिर से शुरू हुआ। साल 2011 तक काम चला। इस दौरान काम लगभग पूर्णता तक पहुंचाने वाला था कि कर्जा नहीं मिलने से काम फिर अटक गया। 2005 से 2011 तक के बीच 10 में से 3 टर्बाइन स्थापित होकर बिजली उत्पादन के लिए तैयार हो गए। वर्तमान में इन तीनों टर्बाइनों से 120 मेगावॉट बिजली उत्पादन किया जा सकता है, लेकिन जिम्मेदार अफसरों का इस ओर ध्यान ही नहीं है। नतीजा, पूरी परियोजना बंद पड़ी है। परियोजना के पॉवर हाउस, सब स्टेशन, स्पील-वे और पॉवर डैम आदि जगहों पर लगी करोड़ों रूपए की मशीनों का मेंटेनेंस नहीं होने से उनके खराब होने की आशंका है। एस कुमार्स ने सबसे अधिक किया नुकसान राहत और पुनर्वास में हुई देरी के साथ-साथ वित्तीय अनियमितताओं से घिरी इस परियोजना को सबसे अधिक एस कुमार्स ने नुकसान पहुंचाया है। इसके पीछे मुख्य वजह है इस परियोजना की निर्मात्री कंपनी एस कुमार्स की नीयत। उल्लेखनीय है कि खरगौन जिले में बन रही महेश्वर जल विद्युत परियोजना निजीकरण के तहत कपड़ा बनाने वाली कम्पनी एस. कुमार्स को दी गई थी। 1986 में केन्द्र एवं राज्य से मंजूर होने वाली महेश्वर परियोजना को शुरू में लाभकारी माना गया था और उसकी लागत महज 465 करोड़ रुपए़ ही थी जो अब बढ़कर 4,000 करोड़ हो गई है। सरकार ने बाद में 1992 में इस परियोजना को एस कुमार्स नामक व्यावसायिक घराने को सौंप दिया। उसी समय से यह कंपनी परियोजना से खिलवाड़ करती रही। बावजूद इसके एस कुमार्स समूह पर राज्य सरकार फिदा रहा। मध्यप्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम के करोड़ों के कर्ज में डिफाल्टर होने के बावजूद सरकार ने महेश्वर हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट के लिए पॉवर फाइनेंस कार्पोरेशन के पक्ष में कंपनी की ओर से सशर्त काउंटर गारंटी दी गई और बाद में इसे शिथिल करवा कर सरकार की गारंटी भी ले ली गई। उसने इंटर कारपोरेट डिपाजिट (आईसीडी) स्कीम का कर्ज भी नहीं चुकाया। यह मामला मप्र विधानसभा में भी उठ चुका है। राज्य शासन ने एस कुमार गु्रप को इंटर कारपोरेट डिपाजिट के तहत दिए गए 84 करोड़ रूपए बकाया होने के बावजूद महेश्वर पॉवर प्रोजेक्ट के लिए 210 करोड़ रूपए की गारंटी क्यों दी थी। महेश्वर पॉवर कार्पोरेशन ने चार सौ करोड़ रूपए के ओएफसीडी बाण्ड्स जारी करने के लिए कंपनी के पक्ष में पीएफसी की डिफाल्ट गारंटी के लिए काउंटर गारंटी देने का अनुरोध सरकार से किया गया था। तीस जून 2005 को सरकार ने कंपनी के प्रस्ताव का सशर्त अनुमोदन कर दिया। इसमें शर्त यह थी कि गारंटी डीड का निष्पादन बकाया राशि के पूर्ण भुगतान का प्रमाण-पत्र प्राप्त होने के पश्चात ही किया जाए। 13 सितम्बर 2005 को इस शर्त को शिथिल करते हुए सरकार ने केवल समझौता आधार पर ही मान्य करने का अनुमोदन कर दिया। इस समझौता योजना के तहत एमपीएसआईडीसी ने 23 सितम्बर 2005 को सूचना दी कि समझौता होने से विवाद का निपटारा हो गया है। बस इसी आधार पर महेश्वर हाईड्रल पॉवर कारपोरेशन ने काउंटर गारंटी का निष्पादन कर दिया। अनुमोदन के बाद एस कुमार्स की एक मुश्त समझौता नीति के अंतर्गत समझौते की शर्र्तो में संशोधन किया गया था, जिनका न पालन और न ही पूर्ण राशि का भुगतान किया गया। एकमुश्त समझौते के उल्लघंन के बाद एस कुमार्स ने दुबारा एकमुश्त समझौते के लिए आवेदन किया गया। उल्लेखनीय है कि आईसीडी के 85 करोड़ के कर्ज के एकमुश्त समझौता योजना के तहत भुगतान के लिए 77 करोड़ 37 लाख रूपए एस कुमार्स को चुकाना थे। इसमें से कंपनी ने 22 करोड़ 9 लाख रुपए चुकाए। शेष राशि के चेक बाउंस हो गए। इसके लिए न्यायालय में प्रकरण चल रहा है। इस संबंध में प्रदेश सरकार द्वारा विधानसभा में जानकारी दी गई है कि एस कुमार्स के साथ एमपीएसआईडीसी के विवाद का निपटारा हो गया है जबकि अभी विवाद बरकरार है। विभागीय अधिकारी बताते हैं कि एमपीएसआईडीसी के साथ एस कुमार्स ने समझौता किया था, जिसके अनुरूप भुगतान नहीं हुआ। साठ करोड़ से अधिक की राशि की वसूली बाकी है। चेक बाउंस का मामला भी कोर्ट में है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक अग्रवाल बताते हैं कि 2005 में हमने महेश्वर विद्युत परियोजना को फौरन रद्द करने की मांग की थी। हमने रिजर्व बैंक से कहा था कि वह महेश्वर परियोजना के हालात की जांच सीबीआई से कराए। आंदोलन ने राज्य सरकार द्वारा महेश्वर परियोजना को गारंटी देने और औद्योगिक विकास निगम की बकाया राशि की वसूली में छूट देने को गलत बताया है। आंदोलन का कहना है कि जिस संस्था पर धन बकाया होने की वजह से उसकी संपत्ति कुर्क हुई हो, उसको वसूली में छूट देना गैर कानूनी है। अग्रवाल ने बताया कि राज्य सरकार ने परियोजना कर्ताओं को यह छूट दे दी है कि वे मय ब्याज 2009 तक पैसा वापस करें। परियोजना कर्ताओं द्वारा सार्वजनिक धन की बर्बादी के सबूतों के बाद भी सरकार का यह कदम राज्य को बर्बादी की ओर ढकेलने वाला है। सीएजी सहित कई संस्थाएं इस परियोजना से जुड़ी कम्पनी को कटघरे में खड़ा कर चुकी हैं। आंदोलन का कहना है कि देश के बड़े उद्योगों द्वारा बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के 80 हजार करोड़ से भी अधिक की सार्वजनिक पूंजी डुबा दी गई है। भारतीय रिजर्व बैंक के आदेश के मुताबिक 25 लाख रुपए से अधिक के बकायेदार को कोई भी बैंक या वित्तीय संस्था और धन नहीं दे सकती है। बकाया राशि के एक करोड़ रुपए से अधिक होने पर रिजर्व बैंक इसकी सूचना सीबीआई को देती है और सीबीआई मामला दर्ज कर कार्रवाई करती है। समझौते में खोट ही खोट नर्मदा बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक अग्रवाल बताते हैं कि परियोजना कर्ता के साथ हुए राज्य शासन के समझौते के मुताबिक बिजली बने या न बने, बिके या न बिके लेकिन परियोजना कर्ता को हर साल 400-500 करोड़ रुपए 45 साल तक दिए जाते रहेंगे यानी इस समझौते के मुताबिक आम जनता के लगभग 15 हजार करोड़ रुपए का सौदा किया गया है। साथ ही परियोजना से प्रभावित होने वाले हजारों परिवारों को नीति अनुसार पुनर्वास की आंदोलन ने भारतीय रिजर्व बैंक और केन्द्रीय वित्त मंत्रालय से भी मांग की है कि वे परियोजना से संबंधित गंभीर वित्तीय अनियमितताओं के बारे में सीबीआई से जांच कराए। सार्वजनिक धन के साथ अनियमितताएं उजागर होने के बावजूद किसी संस्था द्वारा परियोजनाकर्ता के लाभ के लिए धन देना भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत दंडनीय होगा। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने वर्ष 2002 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महेश्वर जल विद्युत परियोजना के लिए परियोजनाकार कंपनी एस. कुमार्स को 330 करोड़ रुपए की गारंटी दिए जाने के मामले में भारी भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए इस गारंटी को तत्काल वापस लेने की मांग की थी। आंदोलन के कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल के मुताबिक पहले से ही अनेक वित्तीय अनियमितताओं से घिरी इस परियोजना को यह गारंटी देना प्रदेश की जनता के हित को एक निजी कंपनी के हाथों गिरवी रखने के बराबर था। आरोप है कि एस. कुमार्स कंपनी और महेश्वर परियोजना दोनों ही गंभीर आरोपों के घेरे में हैं। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने अपनी 1998 एवं 2000 की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि परियोजनाकर्ता पर मध्यप्रदेश विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण का करोड़ों रुपया बकाया है। यह पैसा आज तक वापस नहीं किया गया है। यही नहीं मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास निगम ने एस. कुमार्स की एक सहयोगी कंपनी को नियम विरुद्ध दिए गए करोड़ों रुपए के ऋण के लिए संपत्ति कुर्की की कार्रवाई की है। निगम ने एस. कुमार्स की इन्दज इनरटेक लि. को 1997-98 में 8 करोड़ 2 लाख और 1999-2000 में 44 करोड़ 75 लाख रुपए दिए थे। लघु अवधि के होने के बावजूद भी इन ऋणों की अदायगी नहीं की गई। इसके अलावा यह भी स्पष्ट हो चुका है कि महेश्वर परियोजना के लिए मिले धन में से करीब 106 करोड़ 40 लाख रुपए इस कंपनी ने उन कंपनियों को दे दिए हैं , जिनका इस परियोजना से कोई लेना-देना नहीं था। आंदोलन के मुताबिक भारतीय रिजर्व बैंक ने भी स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी कर चेतावनी दी है कि पैसा वापस न करने वाली कंपनियों एवं संस्थाओं को कोई भी नया ऋण नहीं दिया जाए। तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने भी यही राय जाहिर की थी। फिर भी मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महेश्वर परियोजना के लिए 330 करोड़ की गारंटी देना कई सवाल खड़े करता है। आंदोलन ने सवाल उठाया है कि एक ओर सरकार का एक विभाग अपने रुपए वसूलने के लिए कुर्की का आदेश लिए घूम रहा है, वहीं दूसरी ओर सरकार स्वयं अरबों की गारंटी दे रही है। इस मामले की उच्च स्तरीय जांच की जानी चाहिए और यह तथ्य सार्वजनिक किया जाना चाहिए कि किन कारणों के चलते राज्य सरकार ने यह गारंटी दी थी। सिर्फ 27 फीसदी प्रभावितों का पुनर्वास मध्य प्रदेश के खंडवा में नर्मदा नदी पर मूर्तरूप ले रही महेश्वर परियोजना के प्रभावितों में से सिर्फ 27 फीसदी परिवारों का ही पुनर्वास हो सका है। यह खुलासा मप्र उर्जा प्रबंधन कंपनी लिमिटेड (एमपीपीएमसीएल) द्वारा राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण में दिए गए शपथ पत्र में हुआ है। एमपीपीएमसीएल द्वारा दिए गए शपथ पत्र के हवाले से कहा गया हैं कि राज्य सरकार ने पुनर्वास न कर पाने के लिए श्री महेश्वर हायडल पॉवर कार्पोरेशन लिमिटेड (एसएमएचपीसीएल) जिम्मेदार बताया है। इस शपथ पत्र में यह भी कहा गया है कि राज्य सरकार महज कंपनी के एक एजेंट के तौर पर काम कर रही है। इधर्र्र अग्रवाल आरोप लगाते हैं कि महेश्वर परियोजना से 61 गांव के 60 हजार से अधिक किसान मजदूर प्रभावित हो रहे है। इन परिवारों के पुनर्वास में लगातार गलत आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। इसी को लेकर राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण में दायर की गई याचिका पर नौ अगस्त 2012 को राज्य सरकार को तीन माह में संपूर्ण पुनर्वास पूरा करने का आदेश दिया गया था। अग्रवाल ने कहा है कि तीन माह में पुनर्वास में कोई प्रगति न होने पर राज्य सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण में एक शपथ पत्र देकर कहा गया है कि पुनर्वास न करने के लिए महेश्वर परियोजना की निजी कंपनी जिम्मेदार है। एमपीपीएमसीएल के शपथ पत्र में कहा गया है कि समझौते के मुताबिक परियोजना में पुनर्वास सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक प्रयास व राशि की जिम्मेदारी कंपनी की है, परंतु इस मामले में निजी कंपनी कई अवसरों पर विफल रही है। पुनर्वास पर 740 करोड का खर्च अनुमानित है मगर एसएमएचपीसीएल ने सिर्फ 203.42 करोड रुपए ही दिए गए हैं। अग्रवाल का आरोप है कि शपथ पत्र से एक बात साफ हो जाती है कि अब तक सिर्फ 27 फीसदी परिवारों का ही पुनर्वास हो पाया है, जबकि सरकार हमेशा दावे करती रही है कि वहां 70 फीसदी से ज्यादा परिवारों का पुनर्वास हो चुका है । प्रदेश के तत्कालीन ऊर्जा सचिव मोहम्मद सुलेमान ने एक मार्च 2011 को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के विशेष सचिव को लिखे पत्र में कहा था कि महेश्वर परियोजना के पुनर्वास का 70 प्रतिशत से ज्यादा काम पूरा हो चुका है, जबकि हाल ही में सरकार ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश किए गए शपथ पत्र में कहा है कि निजी कंपनी पुनर्वास के लिए धनराशि उपलब्ध कराने में विफल रही है। कंपनी संग करार के अनुसार पुनर्वास के लिए कंपनी जिम्मेदार है, जिसमें वह विफल हुई है। ग्रीन ट्रिब्यूनल के अगस्त के आदेश के खिलाफ याचिकाकर्ता अंतर सिंह ने ट्रिब्यूनल में पुनर्विचार याचिका दायर की थी। इसकी 22 नवंबर 2012 को हुई सुनवाई में मध्यप्रदेश सरकार ने शपथ पत्र पेश किया था। सरकार के झूठे आंकड़ों की पोल उसके द्वारा पेश किए गए शपथ पत्र से खुल रही है। एनबीए ने आरोप लगाया कि मोहम्मद सुलेमान ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को 70 फीसदी से ज्यादा पुनर्वास का काम पूरा होने की जानकारी भेजी थी। वहीं, सरकार ने शपथ पत्र में कहा है कि पुनर्वास के काम के लिए 740 करोड़ में से कंपनी ने केवल 203 करोड़ मुहैया कराए। यह राशि कुल राशि की 27 फीसदी है। ऐसी स्थिति में 27 फीसदी राशि से 70 फीसदी से ज्यादा लोगों का पुनर्वास किस तरह से संभव हुआ? इस पर सवालिया निशान है। ये भी कहा गया कि अगस्त 2011 से अप्रैल 2012 के बीच वेतन का 1.6 करोड़ का फंड भी कंपनी ने नहीं दिया है और कंपनी पर 51.10 करोड़ की राशि बकाया हो गई है। जिन लोगों के पुनर्वास की बात हो रही है, पुनर्वास नीति की शर्तो के अनुसार उनमें से एक भी व्यक्ति को न्यूनतम 2 हक्टेयर जमीन भी आवंटित नहीं की गई है। एनबीए के आरोपों के जवाब में एस कुमार्स की कंपनी ने बताया था कि कंपनी की जिम्मेदारी पुनर्वास कार्यों के लिए वित्त उपलब्ध कराने की है। कंपनी ने लिखा थौ कि 61 गांव के 60 हजार मजदूर प्रभावित नहीं हो रहे बल्कि पूर्ण-आंशिक आबादी से प्रभावित गांवों की संख्या 20 है और विस्थापितों की 9148 है। इस तरह के गलत और झूठे आंकडें़ परोसकर एस कुमार्स परियोजना को आधा-अधूरा छोड़कर चली गई। परियोजना में देरी के लिए यूपीए सरकार जिम्मेदार महेश्वर नर्मदा जल परियोजना के निमार्ण में हो रही देरी के लिए शिवराज सिंह की सरकार मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को दोषी मानती है। ज्ञातव्य है कि परियोजना को लेकर केंद्र की पूरवर्ती यूपीए सरकार और मध्य प्रदेश सरकार में तनातनी चलती रही। वर्ष 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने परियोजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वास को लेकर इस पर आगे काम बंद करने के निर्देश दिए तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भड़क उठे थेे। उन्होंने प्रधानमंत्री को मध्य प्रदेश के विकास के प्रति अनुदार और संवेदनहीन बताया था। लेकिन जानकार बताते हैं कि परियोजना की मॉनिटरिंग न कर पाने के कारण राज्य सरकार की शेजना दिन पर दिन फेल होती जा रही है। यह सच्चाई मुख्यमंत्री को भी मालूम है। मध्य प्रदेश में बिजली और पानी का संकट है, इसीलिए राज्य सरकार अपने जल संसाधनों का भरपूर उपयोग करना चाहती है। वह नदी जल का उपयोग सिंचाई और बिजली दोनों के लिए करना चाहती है। फिर नर्मदा जल के उपयोग का भी सवाल है। नर्मदा प्राधिकरण के पंचाट के अनुसार, मध्य प्रदेश अभी तक अपने हिस्से के जल का उपयोग नहीं कर पाया है। सरकार की सुस्ती एवं लापरवाही के चलते अगले दस सालों में भी मध्य प्रदेश अपने हिस्से के नर्मदा जल का उपयोग नहीं कर पाएगा। ऐसे में गुजरात और महाराष्ट्र को नर्मदा के पानी के उपयोग का अधिकार मिल जाएगा। गुजरात ने तो प्राधिकरण के फैसले के दिन से ही नर्मदा जल के अधिकतम उपयोग के लिए तैयारी शुरू कर दी थी और अब वह नर्मदा का पानी कच्छ के मरुस्थल तक ले जाने की स्थिति में आ गया है। फिर भी मध्य प्रदेश की ओर से नर्मदा जल के उपयोग के लिए अच्छी शुरुआत हो रही है, लेकिन जल्दबाज़ी में जो कुछ हो रहा है, उससे सरकार अपने लिए नई-नई समस्याएं पैदा कर रही है। 2010 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह न तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर बताया था कि नर्मदा की महेश्वर परियोजना से प्रतिदिन 7.2 लाख यूनिट बिजली पैदा होगी, जबकि राज्य की औसत ख़पत 1,000 लाख यूनिट प्रतिदिन है। इससे स्पष्ट है कि महेश्वर से राज्य की बिजली ख़पत का एक प्रतिशत से भी कम अंश प्राप्त होगा। फिर भी इसे अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी बताया जा रहा है। बिजली उत्पादन के लिए राज्य सरकार ने महेश्वर परियोजना से विस्थापित होने वाले 61 गांवों के 70 हज़ार से अधिक परिवारों के पुनर्वास कार्यों को पूरा कराने पर विशेष ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि परियोजना से विस्थापित होने वाले ग्रामीण अपने अस्तित्व की लड़ाई लडऩे के लिए राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर कोई भरोसा नहीं कर रहे हैं। वे नर्मदा बचाओ आंदोलन के झंडे तले अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने चालाकी का परिचय देते हुए सरकार के लिए समर्थन जुटाने का भी प्रयास किया। उन्होंने कहा कि महेश्वर परियोजना से इंदौर शहर को प्रतिदिन 300 मिलियन लीटर पानी मिल सकेगा और 2024 तक की पानी की ज़रूरत इससे पूरी हो सकेगी, लेकिन विस्थापितों के पुनर्वास के बारे में मुख्यमंत्री खुलकर कुछ नहीं बोलते। या यूं कहें कि बोलने से बचना चाहते हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेता आलोक अग्रवाल एवं चितरूपा पालित ने एक नया गले उतरने लायक तकऱ् छोड़ा है कि मुख्यमंत्री परियोजना के निर्माण कार्य में लगे पूंजीपति ठेकेदारों के हितों की ज़्यादा चिंता कर रहे हैं। इसीलिए वह नर्मदा आंदोलन और यहां तक कि अपनी मर्यादा भूलकर देश के प्रधानमंत्री के खि़लाफ़ भी नासमझी भरे बयान खुलकर दे रहे हैं। आलोक एवं चितरूपा ने राज्य सरकार पर आम जनता की अपेक्षा निजी परियोजनकर्ता के हितों की चिंता किए जाने का आरोप लगाते हुए दावा किया कि परियोजनकर्ता को 400 करोड़ रुपये की गारंटी इस शर्त पर दी गई थी कि उसकी होल्डिंग कंपनी द्वारा मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास निगम से लिए गए पैसे वापस करने होंगे। जबकि गारंटी मिलने के बाद कंपनी द्वारा दिए गए 55 करोड़ रुपये के 20 चेक बाउंस हो गए। निगम द्वारा कंपनी के खि़लाफ़ 20 आपराधिक प्रकरण भी कायम किए गए। उन्होंने कहा कि इसके बावजूद कंपनी से न तो जनता का पैसा वापस लिया गया और न ही आज तक गारंटी रद्द की गई। चितरूपा पालित ने कहा कि परियोजनकर्ता ने विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की 130 करोड़ रुपये की संपत्तियों का पैसा पिछले 14 सालों में आज तक सरकार को नहीं दिया। परियोजनकर्ता के अनुसार, उक्त संपत्तियां अब उनके नाम पर हो गई हैं। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार जवाब दे कि बिना पैसा लिए उक्त संपत्तियां परियोजनकर्ता के नाम कैसे हो गईं? उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय के आदेश का पालन करते हुए प्रभावितों का संपूर्ण पुनर्वास किए जाने, परियोजनकर्ता को दी गई गारंटी रद्द करने, विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की संपत्तियों का पैसा परियोजनकर्ता से वसूलने और विद्युत क्रय समझौता रद्द करने की मांग की है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहते हैं कि यदि महेश्वर परियोजना पर काम होता रहता तो जून 2010 में जल विद्युत परियोजना की पहली इकाई शुरू हो सकती थी, लेकिन रोक लग जाने से प्रदेश में 400 मेगावाट बिजली की कमी हो रही है। इसके लिए यूपीए सरकार ही जि़म्मेदार है। कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा मुख्यमंत्री की इन दलीलों को व्यर्थ बताते हुए कहते हैं कि महेश्वर परियोजना का काम वैसे भी धीमी गति से चल रहा है। फिर पुनर्वास कार्य में तो सरकार ने कोई सक्रियता दिखाई नहीं, जबकि परियोजना की शर्त यही थी कि निर्माण कार्य के साथ-साथ विस्थापितों के पुनर्वास का काम भी पूरा कर लिया जाएगा, लेकिन अभी तक केवल एक गांव में पुनर्वास पैकेज लागू हो पाया है। पांच गांवों में पैकेज मान लेने के बाद भी पुनर्वास कार्य शुरू नहीं हुए। यदि मुख्यमंत्री की बात मान ली जाए तो बिना पुनर्वास के महेश्वर की पहली इकाई चालू होती तो बरसात में परियोजना के डूब क्षेत्र में 50 से ज़्यादा गांव बिना पुनर्वास के ही डूब जाते। महेश्वर परियोजना से बिजली 10 रूपए यूनिट नर्मदा बचाओ आंदोलन ने मध्यप्रदेश सरकार से महेश्वर परियोजना की निजी कंपनी के साथ हुए विद्युत क्रय के समझौते को रद्द करने और इस मामले की केन्द्रीय जांच ब्यूरो से जांच कराने की मांग की है। नर्मदा बचाओं आंदोलन के आलोक अग्रवाल कहते हैं कि आंदोलन को हाल ही में केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय में महेश्वर परियोजना के संबंध में पिछले वर्ष हुई तीन बैठकों के दस्तावेज प्राप्त हुए है। इन दस्तावेजों में यह चौकाने वाला तथ्य सामने आया है कि नर्मदा पर बनाई जा रही 400 मेगावाट की महेशवर परियोजना से बनने वाली बिजली की कीमत दस रूपये प्रति यूनिट होगी। उन्होंने बताया कि मध्यप्रदेश विद्युत नियामक आयोग के वर्ष 2011-12 के टेरिफ आदेश के अनुसार बिजली की खरीदी की कीमत 2.44 रूपये प्रति यूनिट है। जबकि प्रदेश में बन रही निजी एस्सार और टोरेंट कंपनी की दो नई परियोजनाओं में बनने वाली बिजली की कीमत क्रमश: 2.45 और 3.31 रूपये प्रति यूनिट है। हिमाचल प्रदेश की इस प्रकार की दो समान परियोजनाओं कंचम वांगअू और बासपा टू से बनने वाली बिजली की कीमत क्रमश: 3.19 और 2.61 रूपये प्रति यूनिट है। जबकि महेश्वर परियोजना में बनने वाली बिजली देश की सबसे महंगी बिजली होगी। अग्रवाल ने बताया कि केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय की इन बैठकों में मंत्रालय द्वारा मध्यप्रदेश सरकार से महेश्वर परियोजना की बिजली दस रूपये प्रति यूनिट खरीदने का निर्णय लेने की मांग कर रही है। लेकिन राज्य सरकार द्वारा इस कीमत पर बिजली खरीदने की सहमति नही दी है। यदि राज्य सरकार इस पर सहमति प्रदान करती है तो यह प्रदेश के लिए बहुत आत्मघाती होगा। क्योंकि इससे अगले 35 वर्षो में प्रदेश की जनता के 20 हजार करोड़ रूपए से अधिक की राशि इस निजी परियोजनाकर्ता को दिए जायेंगे। परियोजना की शर्तों का पालन नहीं पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा परियोजना को दी गई सशर्त मंजूरी में यह कहा गया है कि बांध का निर्माण और पुनर्वास साथ-साथ होने चाहिए। लेकिन बांध से प्रभावित गांववासी सालों से यह कहते रहे हैं कि उनका पुनर्वास उस गति से नहीं हो पा रहा है जिस गति से बांध का निर्माण हो रहा है। महेश्वर बांध नर्मदा घाटी में बनाये जा रहे बड़े बांधों में से एक है, जिससे क्षेत्र के करीब 50,000 से 70,000 किसानों, मछुआरों, मल्लाहों एवं भूमिहीन कामगारों के 61 गांव के आवास एवं जमीन में डूब जाएंगे। सन 1992 में इस परियोजना का निजीकरण करके एस. कुमार्स समूह को सौंप दिया गया था। इस परियोजना की निर्धारित उत्पादन क्षमता 400 मेगावाट होगी। इस परियोजना को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा पहली बार 1994 में और फिर उसके बाद सन 2001 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत शर्तों के आधार पर मंजूरी दी गई थी। जिसके तहत राज्य सरकार एवं एस कुमार्स कंपनी गांववासियों के पुनर्वास करने एवं प्रभावित परिवारों को कम से कम दो हेक्टेयर जमीन, पुनर्वास स्थल एवं अन्य लाभ उपलब्ध कराने को बाध्य है। मंजूरी के शर्तों के अनुसार दिसंबर 2001 तक खेती की जमीनों सहित पुनर्वास की पूरी योजना प्रस्तुत हो जानी चाहिए, और पुनर्वास उपायों का क्रियान्वयन उसी गति से होना चाहिए जिस गति से बांध का निर्माण हो रहा हो। जबकि, उन शर्तों का खुला उल्लंघन करते हुए आज तक पुनर्वास की योजना प्रस्तुत ही नहीं की गई है। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि परियोजनाकारों ने आज तक पुनर्वास नीति के अनुरूप एक भी गांववासी को खेती की जमीन नहीं उपलब्ध करायी है। इसके बजाय परियोजना प्रवर्तक अवैध रूप से डूब क्षेत्र में सीधी जमीन खरीद रहे हैं और विस्थापितों को पुनर्वास नीति के अनुरूप पुनर्वास लाभों से वंचित करने के लिए दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने को बाध्य कर रहे हैं। यह प्रक्रिया उच्च न्यायालय के आदेश के बाद मई 2009 में रोक दी गई, जिसे अदालत ने असंवैधानिक ठहराया था। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि परियोजनाकारों द्वारा डूब की वास्तविक स्थिति को भी कम करके बताया जा रहा है। परियोजना के तकनीकी आर्थिकी मंजूरी एवं नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 1435 हेक्टेयर जमीन डूब में आयेगी, जबकि परियोजनाकर सिर्फ 873 हेक्टेयर जमीन को ही डूब में बता रहे हैं। परियोजनाकार बैक-वाटर सर्वेक्षण भी उपलब्ध कराने से इनकार कर रहे हैं। इस तरह वास्तव में कितनी आबादी प्रभावित हो रही है और उनके लिए कितनी रकम और जमीन की जरूरत है वह भी आज तक मालूम नहीं है। इस तरह, परियोजना की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति एवं करीब 80 फीसदी काम पूर्ण हो गया है। प्रभावित क्षेत्र की वास्तविक स्थिति को देखते हुए 29 अक्तूबर 2009 को तत्कालीन केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को यह कहते हुए पत्र लिखा था कि पुनर्वास का कार्य अभी शुरूआती स्थिति में है, लेकिन बांध का काम करीब 80-90 फीसदी पूरा हो चुका है। इस तरह मंत्रालय को इस बात की चिंता है कि निजी कंपनी श्री महेश्वर हाइडिल पॉवर कॉरपोरेशन विस्थापितों को मझधार में छोड़ते हुए पुनर्वास की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएगी। इस तरह पर्यावारण मंत्रालय के शर्तों के उल्लंघन के कारण मंत्रालय ने पुनर्वास योजना प्रस्तुत करने एवं पुनर्वास कार्य बांध के निर्माण के गति के अनुरूप होने तक बांध को के निर्माण को रोकने का प्रस्ताव किया। मुख्यमंत्री ने भी मंत्रालय को दिए जवाब में माना था कि पुनर्वास का काम धीमी गति से चल रहा है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि महेश्वर परियोजना को तकनीकी-आर्थिकी मंजूरी के अंतर्गत परियोजना की लागत 1673 करोड़ रुपये आंकी गई थी, जो कि अब बढ़कर 2800 करोड़ रुपए हो गई है। इस तरह बिजली की कीमत निश्चित रूप से काफी ज्यादा आयेगी, जिससे मध्य प्रदेश के लोगों को बिल्कुल फायदा नहीं होगा। जबकि एस कुमार्स के साथ किए गए बिजली खरीद समझौते के अनुसार मध्य प्रदेश सरकार अगले 35 सालों तक इस महंगी बिजली खरीदने को बाध्य होगी। नर्मदा बचाओ आंदोलन की मांग है कि राज्य एवं केन्द्र सरकार यह सुनिश्चित करें कि यह परियोजना लागों के हित में हो, और यह भी मांग है कि जब तक पुनर्वास कार्य पूरा न हो जाय तब तक पर्यावरणीय मंजूरी के कानूनी शर्तों का पालन करते हुए महेश्वर बांध के काम को तत्काल रोका जाए। मप्र की प्रमुख परियोजनाएं इंदिरा सागर परियोजना इंदिरा सागर परियोजना मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में पुनासा गांव से 10 किमी दूरी पर स्थित है। यह नर्मदा नदी पर स्थित 1000 मेगावाट की अधिष्ठापित क्षमता वाली एक बहुउद्देशीय परियोजना है। वर्ष 2004-05 में इस पनबिजली परियोजना को पूरा किया गया और जनवरी 2004 से यहां बिजली उत्पादन शुरू कर दिया गया। ओंकारेश्वर परियोजना ओंकारेश्वर परियोजना एक बहुउद्देशीय परियोजना है, जो मध्यप्रदेश के खंडवा, खरगांव और धार जिले में नर्मदा नदी के दोनों तटों पर बिजली उत्पादन और सिंचाई के अवसर प्रदान करती है। यह परियोजना इंदौर से 80 किमी की दूरी पर और इंदिरा सागर परियोजना के 40 किलोमीटर नीचे की ओर स्थित है। ओंकारेश्वर परियोजना की कुल अधिष्ठापित क्षमता 520 मेगावाट है। परियोजना की सभी 8 इकाइयों ने मंजूर कार्यक्रम से आगे चलते हुए नवम्बर 2007 से बिजली का निर्माण शुरू कर दिया है। 2224.73 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत के साथ, परियोजना की अपेक्षित ऊर्जा उत्पादन क्षमता 1167 एमयू है। रानी अवंती बाई सागर परियोजना जबलपुर जिले में बरगी गांव के पास स्थित इस परियोजना द्वारा 1,57,000 हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचाई के अनुकुल बनाने की परिकल्पना है। परियोजना के तहत नर्मदा नदी पर 69.5 मीटर ऊंची और 5360 मीटर लंबी कंपोजीट ग्राविटी बांध का निर्माण होगा और प्रत्येक 45 मेगावाट संस्थापित क्षमता वाली की दो इकाइयों के एक रिवर बेड विद्युत गृह का निर्माण होगा और 10 मेगावाट स्थापित क्षमतावाली नहर (बाएं) हेड पावर हाउस का निर्माण होगा। बाएं किनारे पर स्थित 137 किमी लंबा मुख्य नहर, जबलपुर और नरसिंहपुर जिलों में 57,000 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई करेगा और इसका निर्माण जारी है। मन परियोजना धार जिलें में जिराबाद गांव के निकट मन नदी पर (नर्मदा की उपनदी) मन परियोजना का काम पूरा हो चुका है। यह धार जिले के कुल 15000 हेक्टेयर आदिवासी क्षेत्रों में सिंचाई प्रदान कर रही है। जोबत (चंद्रशेखर आजाद) परियोजना झाबुआ जिले के कुक्षी तहसील में बस्कल गांव के पास हथनी नदी (नर्मदा नदी की एक उपनदी नदी) पर पर बनी इस परियोजना काम पूरा हो चुका है और यह धार जिले के 27 आदिवासी गांवों की 9848 हेक्टेयर भूमि को सिंचाई प्रदान कर रही है। बरगी विमुख जबलपुर जिले के 55,832 हेक्टेयर और कटनी, सतना रीवा (सोन और टोंस द्रोणी) जिलों के 1,89,187 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई के लिए बरगी बांध से 194 किमी लंबाई की दाहिनी तटीय नहर का (नर्मदा द्रोणी) प्रस्ताव है। इसके तहत नर्मदा का पानी सोन और टोंस द्रोणी में जाना प्रस्तावित है, इसलिए इसे यह बरगी विमुख परियोजना का नाम दिया गया है। इसका कार्य प्रगति पर है। अपर नर्मदा परियोजना नर्मदा नदी के मूल (अमरकंटक) से 77 किमी ऊपरी बहाव के क्षेत्र में रिनातोला गांव के पास इस 'अपर नर्मदा परियोजनाÓ नामक एक प्रमुख सिंचाई परियोजना की परिकल्पना की गई है। परियोजना के तहत 30.64 मीटर ऊंची और 1776 मीटर लंबी कंपोजीट ग्राविटी बांध का निर्माण होगा। इससे बाएँ और दाएँ किनारों पर क्रमश: 86.5 किमी और 65.5 किमी लंबाई की नहरों द्वारा दिंडोरी और अनूपपुर के आदिवासी बहुल जिलों में 18,616 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई होगी। योजना आयोग ने इस परियोजना को मंजूरी दे दी है। हेलॉन परियोजना मंडला के आदिवासी जिले में 11736 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई उपलब्ध कराने के लिए नर्मदा नदी की एक उपनदी हेलॉन पर इस परियोजना की परिकल्पना की गई है। योजना आयोग ने इस परियोजना को मंजूरी दे दी है।

मप्र में हर साल 7500 करोड़ की वन्य जीव तस्करी

तस्करों का अड्डा बने फार्म हाउस और रिसोर्ट
डेढ़ दशक में मप्र 383 बाघ और 362 तेंदुओ का हुआ शिकार
पीएमओ और एनटीसीए के हस्तक्षेप के बाद सरकार हुई सजग
भोपाल। बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के कोर एरिया से सटे बासा गांव में मप्र विधानसभा के डिप्टी स्पीकर राजेंद्र सिंह के फार्म हाउस पर जब 29 मार्च को सात-आठ माह के बाघ के शावक का शव मिला तो हर कोई इसे सामान्य घटना मान रहा था। लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के दखल के बाद वन विभाग और खुफिया विभाग की जांच में यह बात सामने आई है कि प्रदेश के 10 नेशनल पार्क तथा 25 अभयारण्यों के आसपास स्थित ऐसे फार्म हाउस और रिसोर्ट तस्करों का अड्डा बने हुए हैं। वन विभाग-नेशनल पार्क के अफसरों, सफदपोश लोगों, स्थानीय प्रशासन और तस्करों के गठजोड़ से मप्र में हर साल वन्य जीव तस्करी का अवैध कारोबार करीब 7500 करोड़ रूपए से अधिक का है। वन विभाग के मैदानी कर्मचारियों के अनुसार पिछले डेढ़ दशक में प्रदेश में 383 बाघ और 362 तेंदुए के शिकार का मामला सामने आया है। यही नहीं नेशनल पार्क तथा अभयारण्यों के पास स्थित रिसोर्ट में रोजाना वन्य प्राणियों का मांस पर्यटकों की इच्छानुसार परोसा जा रहा है। वन विभाग के कुछ अधिकारियों का दावा है कि जिस तरह राज्य सरकार ने बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व स्थित विधानसभा उपाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह के फार्म हाउस में बाघ (शावक) की हत्या की सीआईडी जांच कराए जाने का निर्णय लिया है। अगर उसी तरह कुछ अन्य मामलों की जांच कराई जाए तो हैरानी करने वाले मामले सामने आएंगे, जिसमें यह खुलाशा हो जाएगा की प्रदेश में किस तरह सुनियोजित तरीके के वन्य प्राणियों की हत्या और उनके अंगों की तस्करी की जा रही है। उल्लेखनीय है कि विश्व में हैकिंग, ड्रग, स्मग्लिंग, घोटाले की साजिश, पैसा गबन करना, वन्यजीव तस्करी, नकली दवाएं, हथियारों की तस्करी, प्राकृतिक संसाधनों की तस्करी और दलाली ये दस ऐसे अवैध धंधे हैं जहां बारिश की तरह पैसा बरसता है। मप्र भी इससे अछूता नहीं है। जहां तक मप्र में होने वाले वन्यजीव तस्करी की बात करें तो पिछले डेढ़ दशक में यहां यह अवैध कारोबार तेजी से पनपा है। आज विश्व में वन्य जीव तस्करी का अवैध कारोबार 30,000 करोड़ डॉलर से अधिक है, जो अब मादक पदार्थों के कारोबार से कुछ ही कम और हथियारों के कारोबार के तो करीब ही पहुंच चुका है। सौंदर्य प्रसाधनों, औषधि निर्माण, तो कहीं घरों की सजावट के लिए वन्य जीव के अंगों की बेतहाशा मांग और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मिलता मुंह मांगा दाम इसके प्रमुख कारण हैं। यही कारण है कि पिछले डेढ़ दशक में मप्र में वन्य जीवों की तस्करी बड़े पैमाने पर हो रही है। मध्यप्रदेश में वन्य-जीव संरक्षित क्षेत्र 10989.247 वर्ग किलोमीटर में फैला है, जो देश के दर्जन भर राज्य और केंद्र शासित राज्यों के वन क्षेत्रों से भी बड़ा है। मध्यप्रदेश में 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर में वन क्षेत्र हैं। यहां 10 राष्ट्रीय उद्यान और 25 वन्य-प्राणी अभयारण्य हैं, जो विविधता से भरपूर है। कान्हा, बांधवगढ़, पन्ना, पेंच, सतपुड़ा एवं संजय राष्ट्रीय उद्यान को टाइगर रिजर्व का दर्जा प्राप्त है। वहीं करेरा (गुना) और घाटीगांव (ग्वालियर) विलुप्तप्राय दुर्लभ पक्षी सोनचिडिय़ा के संरक्षण के लिए, सैलाना (रतलाम) और सरदारपुर (धार) एक अन्य विलुप्तप्राय दुर्लभ पक्षी खरमोर के संरक्षण के लिए और 3 अभयारण्य-चंबल, केन एवं सोन घडिय़ाल और अन्य जलीय प्राणियों के संरक्षण के लिए स्थापित किए गए हैं। अपनी स्थापना के समय से ही ये नेशनल पार्क और अभयारण्य रसूखदारों और तस्करों के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए है। यही कारण है की इनके भीतर स्थित गांवों को जहां बाहर किया जा रहा है, वही इनके आसपास फार्म हाउस और रिसार्ट बड़ी तेजी से बने हैं। जानकार बताते हैं कि जब नेशनल पार्क तथा अभयारण्यों के आसपास फार्म हाउस और रिसोर्ट बढऩे लग तब से प्रदेश में वन्य प्राणियों के शिकार के मामले भी बढ़ गए। वर्ष 2006 पहले तक मप्र में बाघों की संख्या सबसे अधिक होने से टाइगर स्टेट का दर्जा बरकरार था। ऐसा भी मौका आया जब मप्र में करीब 700 टाइगर थे। वाइल्ड इंस्टीट्यूट देहरादून ने वर्ष 2006 में टाइगर की संख्या 300 बताई थी, जो 2010 में 257 रह गई। दरअसल वर्ष 2007 से 09 के टाइगर का बड़ी संख्या में शिकार हुआ। पन्ना नेशनल पार्क बाघविहीन हो गया। इसकी गिनती सरिस्का टाइगर रिजर्व के तौर पर की जाने लगी। मामले का खुलासा होने पर बदनामी हुई तो सरकार की आंखें खुलीं। पन्ना के बाघ विहीन होने का शोर इस कदर रहा ,कि केन्द्र को यहां जांच दल भेजना पड़ा। जांच में वन्य प्राणी मुख्यालय के आला अफसरों सहित तत्कालीन प्रमुख सचिव वन अवनि वैश्य को लापरवाही के लिए जिम्मेदार भी ठहराया गया था। मामले की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन वन मंत्री सरताज सिंह ने सीबीआई जांच कराने का लिखा था, लेकिन तत्कालीन प्रमुख सचिव वैश्य मुख्य सचिव बन चुके थे। ऐसे में पूरी फाइल ही ठंडे बस्ते में चली गई थी। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के एआईजी रविकिरण गोवेकर द्वारा वन्य प्राणी मुख्यालय को सौंपी गई रिपोर्ट में मप्र में वन्य प्राणी प्रबंधन को पूरी तरह फेल बताया है। बाघों के घर में रसूखदारों का कब्जा मप्र सरकार माफिया, तस्कारों और सफेदपोशों के सामने कितनी बेबस है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश के छह टाइगर रिजर्व में लगातार बाघ सहित अन्य वन्य प्रणियों का शिकार हो रहा है, उसके बावजुद इनकी गोद में 347 रिसोर्ट और होटल चल रहे हैं। सरकार का कहना है कि टाइगर रिजर्व के जरिए सालाना 400 करोड रूपए का टूरिज्म उद्योग संचालित है, इसलिए होटल और रिसोर्ट जरूरी है। लेकिन सरकार को कौन समझाए की इन्हीं रिसोर्ट और होटलों में बैठक कर शिकार का खाका बनाया जाता है और यहीं से वन्य प्राणियों के अंग और खाल विदेशों तक पहुंचाया जाता है। वन विभाग से मिले आंकड़ों के अनुसार, प्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व में 60 रिसोर्ट व होटल, बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में 53 रिसोर्ट-लॉज, सतपुड़ा नेशनल पार्क में 200 होटल व रिसोट, पन्ना नेशनल पार्क में 4 होटल और पेंच नेशनल पार्क में 30 होटल, रिसोर्ट चल रहे हैं, जबकि संजय टाइगर रिजर्व में अभी होटल नहीं है। ये सभी होटल और रिसोर्ट अवैध गतिविधियों के केंद्र बने हुए हैं। वन्यजीव विज्ञानी विद्या आत्रेय कहती हैं, वन क्षेत्र वन्य प्राणियों के लिए होता है, लेकिन पर्यटन के नाम पर जिस तरह इनके अंदर निर्माण और अन्स गतिविधियां चल रही हैं उससे वन्य प्राणियों में दहशत नजर आने लगी है। यही कारण है कि अब वे आदमी के निवास क्षेत्र में प्रवेश करने लगे हैं। बांधवगढ़ में अवैध रूप से बने 52 होटल और रिसोर्ट बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान की सीमा में करीब 52 होटल एवं रिसोर्ट अवैध रूप से संचालित किए जा रहे हैं। इसकी जांच के आदेश करीब तीन वर्ष पूर्व दिये गये थे लेकिन यह जांच अब तक चल रही है। ये सभी होटल और रिसोर्ट पार्क के कोर एरिया और आदिवासियों की जमीन पर बनाए गए हैं। उमरिया कलेक्टर कृष्ण गोपाल तिवार ने बताया कि शहडोल के तत्कालीन संभागायुकत हीरालाल त्रिवेदी ने 4 अगस्त 2010 को बांधवगढ़ उद्यान की सीमा में स्थित 52 होटलों, रिसोर्ट के विरुद्ध आदेश पारित कर जांच के आदेश दिये थे जिनकी जांच कलेकटर उमरिया व मानपुर अनुविभागीय अधिकारी राजस्व द्वारा की जा रही है। बांधवगढ़ मानपुर तहसील क्षेत्र में हैं। इन होटलों-रिसोर्ट की जांच का मुख्य कारण वन भूमि और आदिवासी भूमि पर स्थापित होना बताया जा रहा है। इन होटलों, रिसोर्ट में मुख्य रूप से भदुआ कोठी, चुरहट कोठी, तिवारी रिसोर्ट, गोल टाइगर बोट, जीटीबी रिसोर्ट, रायल स्ट्रीट रिसोर्ट, जंगल इन रिसोर्ट, टाइगर डेन, मोगली रिसोर्ट, ग्लोबल होस्ट इंडिया होटल, अरण्य केप रिसोर्ट, बनारस लॉज कलकत्ता कुटीर आदि 52 होटलों लॉज एवं रिसोर्ट के मालिकों के नाम जांच में शामिल है। दिलचस्प पहलू यह है कि तीन चाल से चल रही जांच अब तक बेनतीजा रही है। जंगल महकमे के मैदानी अफसरों का कहना है कि राजस्व विभाग जानबूझकर जांच में कोताही बरत रहा है। रसूखदारों के हैं होटल-रिसोर्ट वन विभाग के आरोप है कि चूंकि होटलों और रिसोर्ट के मालिक रसूखदार है, इसलिए उन्हें बचाने की कोशिश की जा रही है। इनमें नेता, विद्यायक, मंत्री से लेकर रसूखदार तक शामिल है। जिनकी पकड़ ऊपर तक होने से तीन वर्षो में भी जांच की गति पर प्रश्न चिन्ह अंकित है। इसके अलावा इस क्षेत्र के आसपास कई अन्य भवन भी निर्माणाधीन हैं। वन्य प्राणी विशेषज्ञों का मानना है कि जिस गति से अभयारण्यों के समीप भवनों का निर्माण किया जा रहा है वह यहां के वन्य प्राणियों के स्वच्छंद विचरण में बाधक साबित होगा और इस पर रोक लगाई जाना चाहिए। इस सबके बावजूद आज भी राष्ट्रीय उद्यान सीमाओं के समीप की भूमि करोड़ों में बिक रही है ओर उस पर आलीशान होटल निर्मित हो रहे हैं। राजपरिवार के रसूख से वीरान हुआ पन्ना पौराणिक कर्णावती (केन) नदी के दोनों ओर लगभग 545 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले पन्ना नेशनल पार्क की विधिवत स्थापना 1981 में हुई थी जबकि 1994 में भारत सरकार ने यहां प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व की स्थापना की। उस समय यह राष्ट्रीय उद्यान लगभग 50-60 बाघों सहित सैकड़ों चीतल, सांभर, नीलगाय, भालुओं व सियारों से भरा हुआ था, लेकिन व्यवस्था का करिश्मा देखिए कि टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट की स्थापना के बाद से यहां बाघ लगातार घटते चले गए और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की एक टीम ने अचानक यह खुलासा किया कि यहां एक भी बाघ नहीं है। बाद में यहां पदस्थ करोड़ों का बजट उदरस्थ कर चुके अफसरों ने भी माना कि हां सारे बाघ चुक गए। पन्ना बाघ अभयारण्य की यह कहानी देश की भ्रष्ट व्यवस्था और इसके लचीले कानूनों की पोल में पल रहे उस सामंतवाद की कहानी है, जो आजादी के बाद चेहरा बदलकर सामने आया है। जिस पन्ना राष्ट्रीय अभयारण्य के दम पर मप्र को टाइगर स्टेट का दर्जा मिला था, वहां नागौद एवं पन्ना राज परिवारों के संरक्षण में जिस तेजी से बाघों और अन्य वन्य प्राणियों का शिकार हुआ, उससे अभयारण्य वीरान हो गया और मप्र का ताज छिन गया। नागौद एवं पन्ना राज परिवार शिकारी दल के अगुआ बताए जाते हैं। 1989-93 के बीच जब नागौद राजपरिवार से संबंधित नागेन्द्र सिंह उर्र्फ बिटलू हुजूर प्रदेश पर्यटन निगम के अध्यक्ष थे, तब खजुराहो में उन्होंने एक होटल खोला जो, 2003 में उनके गृहमंत्री बनने के साथ ही गुलजार होने लगा। होटल को संचालित करने वाले नागेन्द्र सिंह के पुत्र श्यामेन्द्र सिंह उर्फ बिन्नी राजा ने इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ योजना के माध्यम से सबल स्वसहायता समूह बनाया और उसके नाम पर केन नदी के किनारे झिन्ना नामक स्थान पर जंगल के अंदर छोटी-छोटी सर्वसुविधा युक्त झोंपडिय़ा (हट्स) बनवाई, जिनमें चुनिंदा विदेशी पर्यटकों को जंगल में मंगल मनाने के लिए रुकाया जाने लगा। उसी दरम्यान अनेक सालों से मंडला के नजदीक केन नदी में ट्री हाउस बनाकर रहने वाला स्वीडिश नागरिक जील कहीं गायब हो गया। बताया गया कि वह बिन्नी राजा को अपना ट्री हाउस बेचकर अपने देश चला गया है। बिन्नी का ट्री हाउस हो गया तो शीघ्र ही पन्ना के एक समय के बिगड़ैल नवाबजादे युवराज व रिश्ते में ससुर लगने वाले लोकेन्द्र सिंह ने भी वहां ट्री हाउस बनवा लिया और कुछ दिनों के भीतर पन्ना राजलक्ष्मी होटल के मालिक खनिज व्यवसाई प्रदीप सिंह राठौर का भी रिसोर्ट वहां बन गया। पांडव फॉल के पास एक दुर्गम रेंज में बने इन आधुनिक अय्याश गृहों में आने-जाने व रहने वालों का शीघ्र ही पूरे उद्यान में दबदबा हो गया। नागेन्द्र सिंह के पुत्र बिन्नी राजा की कुछ गाडिय़ा हमेशा कभी हिनौता रेंज, कभी मंडला व कभी कल्दा आदि रेंजों में घूमने लगीं, जिनमें डिस्कवरी लिखा हआ था। बताया गया कि इन गाडिय़ों के माध्यम से जंगली जानवरों को शूट कर डिस्कवरी चैनल को भेजा जाता है। वन्य प्राणी संरक्षण के लिए प्रदेश की जो समिति बनी, उसमें बिन्नी राजा एवं लोकेन्द्र सिंह भी सदस्य बन गए। लिहाजा, राष्ट्रीय उद्यान में जहां शाम 5:30 बजे से सुबह तक किसी का भी प्रवेश वर्जित है, पर इन महानुभावों की सशस्त्र गाडिय़ों में लगातार अंजान लोग और ये स्वयं रात में कभी यहां से घुसते, कभी वहां से निकलते सर्वत्र जंगल में देखे जाने लगे। अभी कुछ साल पहले ही बांधवगढ़ में एक शेरनी को जीप द्वारा कुचलकर मारने के प्रसंग में जब बिन्नी राजा का नाम आया तो पन्ना व सतना की आम जनता को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। गोया, बांधवगढ़ में भी बिन्नी राजा का रिसोर्ट है। अनेक लोग यह जानते हैं कि एक अरसे पूर्व परसमनिया (सतना) के जंगल में जो घायल बाघिन मिली थी, जिसका प्राणांत बाद में भोपाल में हो गया; वह पन्ना की कल्दा रेन्ज से भाग कर वहां पहुंची थी और वह भी ठोकरों से घायल थी। इस बाघिन को पार्क की आखिरी बाघिन कहा जाता है। उसके बच्चे भी थे जो आज तक नहीं मिले। इन कांड में तीन आदिवासी तो पकड़े गए पर मंत्री के भाई होने के नाते एक अन्य मुजरिम कन्नू हुजूर बचा ही रह गया। मधुर व्यवहार के लिए मशहूर प्रदेश के पूर्व गृहमंत्री व वर्तमान में लोक निर्माण मंत्री नागेन्द्र सिंह के बड़े चिरंजीव श्यामेन्द्र सिंह उर्फ बिन्नी राजा का नाम वर्तमान में दक्षिणी बुंदेलखंड के सभी प्रचलित राजाओं के नामों में सबसे बड़ा है। आजकल वे इन सब की आंखों के तारे हैं। हर दबदबेदार आदमी एक बार उनके साथ बैठना चाहता है। खजुराहो से जुड़ी ट्रेवल्स कंपनियां व होटल सदैव उनकी कृपा की मोहताज हैंं। जंगली गांवों में पुख्ता धारणा है कि बिन्नी राजा और उनकी शिकारी टोली ने पिछले पांच वर्षों में क्षेत्रीय डांग के एक सैकड़ा से अधिक बाघों व तेंदुओं को मारा है। पुरानी शिकारगाहें आबाद हो गई हैं और अन्य जानवर भी रोजाना मारे व खाए जा रहे हैं। स्थिति यह है कि किसी ग्रामीण के पशु जंगली एरिया में घुस जाने पर उसे अपमानित व दण्डित किया जाता है, परंतु बाघ मारकर ले जाने वाले या बाघ के बच्चों की विदेश तस्करी कर देने वालों और सांभर, हिरण, खरगोश रोजाना खाने वालों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। बहुत कम लोग जानते हैं कि नागौद राजपरिवार के बिन्नी राजा की मां तथा स्वयं उनकी धर्मपत्नी नेपाल की हैं। नेपाल के रिश्ते का जिक्र इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि नेपाल के रास्ते चीन हमारे देश के वन्य प्राणियों और उनकी खालों, दांतों, नाखूनों व चमड़ों का बड़ा ग्राहक है। नागौद राज परिवार के आखिरी राजा महेन्द्र सिंह के बारे में कहा जाता है कि सोते शेर को मारना उनका शौक था और उन्होंने अपनी जिंदगी में 157 शेर मारे थे। इस मामले में नाती पूरी तरह बाबा पर गया है। नागेन्द्र सिंह ने भी पिछले वर्ष एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि 1971 के पूर्व अपने युवा काल में मैंने 5 शेर मारे थे। असल में 1948 में परसमनिया का इलाका शिकार खेलने के लिए नागौद राज परिवार को तथा इसी तरह केन का इलाका पन्ना व छतरपुर राज परिवार को दिया गया था। प्रिवीपर्स के साथ शिकार की यह छूट भी शामिल थी। 1971 से प्रिवीपर्स खत्म हो गए, लेकिन शिकार का यह खेल कभी कम कभी ज्यादा चलता ही रहा। नागौद व पन्ना राज परिवार तथा उनसे जुड़े लोग आजकल भी जंगलों में काबिज हैं। यहां के खनिज व वन संसाधनों के उपार्जन में ये लोग खदान मालिकों व ठेकेदारों से पैसा वसूलते हैं। जो पैसा नहीं देगा वह इलाके में काम नहीं कर सकता। यह विडंबना ही है कि देश व प्रदेश सरकार की मदद से यहां खूबसूरत बाघ अभयारण्य बना परंतु इसकी व्यवस्था और इस पर नियंत्रण अघोषित तौर पर उनका हो गया जो खानदानी शिकारी हैं। न केवल पन्ना वल्कि बांधवगढ़ में भी इन्होंने अपने रिसोर्टों और वहां पदस्थ वन विभाग के अधिकारियों व पुलिस के माध्यम से अपना नियंत्रण और दबदबा स्थापित कर लिया है। कान्हा और पेंच में बिना एनओसी 15 रिसोर्ट कान्हा और पेंच नेशनल पार्क के आसपास बने रिसोर्ट के संचालक मोटी कमाई की लालच में पर्यावरण के साथ ही वन्य जीवों को भी नुकसान पहुंचा रहे रहे हैं। मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नेशनल पार्को के आसपास नियम विरूद्ध संचालित 15 रिसोर्ट संचालकों को नोटिस दिए हैं। जबलपुर संभाग के तीन जिलों में पचास से अधिक रिसोर्ट संचालित हो रहे हैं। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार कान्हा और पेंच नेशनल पार्क की सीमा से लगे तीन जिलों में 64 रिसोर्ट संचालित हो रहे हैं। इनमें मंडला के 22, बालाघाट के 20 तथा सिवनी के 22 रिसोर्ट शामिल हैं। इनमें 15 रिसोर्ट संचालकों ने समय सीमा निकलने के बाद प्रदूषण बोर्ड से अनुमति ली नहीं है। वहीं मार्च 2014 में 11 रिसोर्ट की एनओसी समाप्त हो गई है। अब तक संचालकों नेे आवेदन नहीं किया है। वहीं 10 दस नए रिसोर्ट के लिए संचालकों ने एनओसी के लिए आवेदन दे रखा है। नेशनल पार्क के आस-पास रिसोर्ट खोलने से पहले प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से संचालन की अनुमति लेना अनिवार्य है। प्रदूषण बोर्ड द्वारा रिसोर्ट से निकलने वाले पानी और होने वाले ध्वनि प्रदूषण के लिए अनुमति लेनी होती है। क्षेत्रीय प्रबंधक मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एमएल पटेल कहते हैं कि कान्हा और पेंच नेशनल पार्क में 64 रिसोर्ट संचालित हैं। इसमें 15 की एनओसी समाप्त हो चुकी है। कारण बताओ नोटिस जारी किए गए हैं। जांच हुई तो बंद हो जाएंगे आधे से ज्यादा रिसॉर्ट वन्य प्राणी विशेषज्ञों का कहना है कि प्रदेश के अधिकांश पार्कों में जिन रिसोर्ट और होटल का संचालन किया जा रहा है, उनमें से अधिकांश अवैध हैं। इन पार्कों में वन विभाग के नियमों को ताक पर रखकर रिसोर्ट बनाने की परमिशन जारी की गई है। यदि सभी जगहों पर जांच हो तो आधे से ज्यादा रिसोर्ट बंद करने पड़ सकते हैं। बांधवगढ़ पार्क में 53 रिसोर्ट चल रहे हैं। यहां की ताला रेंज पार्क में एंट्री करने वाले गेट के नजदीक ही कई एकड़ों में रिसोर्ट बने हैं। 12 से 15 फीट चौड़ी कच्ची सड़क के एक तरफ पार्क और दूसरी तरफ रिसोर्र्ट को बनाया गया। रात के समय वन्यप्राणियों की चहल कदमी इतनी ज्यादा रहती है कि रिसोर्र्ट से भी देखी जा सकती है। इस सड़क पर दिन के समय तेंदुओं के पगमार्क (पंजों के निशान) रोजाना देखने मिलते हैं। टाइगर रिजर्व और नेशनल पार्क के लिए वन मंत्रालय की गठित कमेटी के नियमानुसार देश के 47 टाइगर रिजर्व की सीमा से 250 मीटर के अंदर कृषि के लिहाज से सिर्फ 12 गुणा 12 का कमरा वो भी सिंगल स्टोरी बनाया जा सकता है। लेकिन मध्य प्रदेश में नेशनल पार्कों की सीमा पर सैकड़ों रिसोर्ट खुले हैं। इन्हें अनुमति भी मिल गई। वन विभाग के सूत्रों ने बताया कि पन्ना को छोड़कर शेष पांच टाइगर रिजर्व में कोर एरिया का सीमांकन तो कर दिया गया लेकिन अभी तक 90 गांव अंदर हैं। इसके अलावा कान्हा में एक लॉज है, जिसे हटाने की कार्रवाई चल रही है। सतपुड़ा के कोर एरिया में पचमढ़ी आता है, जिसमें 200 होटल व 42 गांव हैं। मप्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दे रखी है कि पचमढ़ी को कोर एरिया से बाहर किया जाए। एक टाइगर पर सालाना साढ़े ग्यारह लाख का खर्च मप्र में एक टाइगर का सालाना खर्च साढ़े ग्यारह लाख रुपए है, जबकि अन्य राज्यों में यह 8 लाख 80 हजार है। प्रति बाघ इतनी बड़ी रकम खर्च किए जाने के बाद भी बाघों का कुनबा बढ़ाने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। बहरहाल,बदनामी हुई तो नए सिरे से प्रयास शुरु किए गए। नतीजतन, पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क एक बार फिर बाघों का बसेरा बन गया है। यहां साल 2009 तक बाघों की दहाड़ पूरी तरह से खामोश हो गई। 5 साल पहले पन्ना में दोबारा बाघों को बसाने का काम शुरू हुआ, आज वह रंग लाया। 26 दिसंबर 2009 को पेंच से एक बाघ टी-3 और कान्हा से दो बाघिन लाई गईं। आज स्थिति यह है कि पार्क में करीब दो दर्जन बाघों की दहाड़ सुनाई देती है। विश्व का यह पहला टाइगर रिजर्व पार्क है, जहां दोबारा बसाए गए बाघों संख्या में इतनी तेजी से वृद्धि हुई है। पेंच से लाए गए टी-3 बाघ को पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क में मिस्टर पन्ना का खिताब दिया गया। पन्ना बाघ पुनस्र्थापना के इन सालों में 32 से अधिक शावकों का जन्म हुआ है। इन जन्में शावकों में 6 की मृत्यु हो गई। सात वयस्क होने के बाद पार्क से बाहर निकल गए। उल्लेखनीय है,कि वर्ष 1991 में पन्ना राष्ट्रीय उद्यान को पन्ना टाइगर रिजर्व घोषित किया गया था। उस समय बाघों की संख्या 40 थी। गांव वाले जंगल से बाहर, रिसॉर्ट वाले अंदर बांधवगढ़ नेशनल पार्क से लेकर प्रदेश के सभी 6 टाइगर रिजर्व के भीतर बसे गांवों के लोगों को जंगल से बाहर किया जा रहा है। यह सही भी है क्योंकि लोगों के रहने से जंगली जानवरों के लिए वातावरण मुफीद नहीं रहता। पर गांव वालों को यह बात समझ नहीं आ रही कि आखिर बड़े-बड़े रिसोर्ट पार्क से सटकर कैसे बनाए जा रहे हैं। इस बारे में आला अधिकारी भी खामोश हैं। बांधवगढ़ की ताला रेंज गेट के ठीक पहले एक रास्ता तमाम रिसोर्ट की तरफ जाता है। इस रास्ते पर अपने मवेशी चरा रहे एक बुजुर्ग ने बताया कि रिसोर्ट के लिए जमीन बहुत महंगी बेची जा रही है। एक एकड़ जमीन की कीमत 15 से 20 लाख रुपए हो चुकी है। गांव वालों के अलावा रिसोर्ट के कुछ कर्मचारी मिले। उनसे पूछा कि टाइगर या तेंदुआ यहां आता है, तो उनका कहना था कि ये रात में तो कई बार रिसोर्ट गेट तक आ जाते हैं। उनकी ये बात सच इसलिए निकली क्योंकि रास्ते में हमें तेंदुए के पगमार्क देखने मिले। वन विभाग के नियमों में यह बात तो साफ की जा चुकी है कि वन सीमा से 300 मीटर के दायरे में किसी तरह का निर्माण नहीं किया जा सकता। यदि निर्माण होगा भी तो सिर्फ झोपड़ी या घास-फूस का उपयोग किया जाएगा। लेकिन बांधवगढ़ पार्क की सीमा से सटे रिसोर्र्ट बमुश्किल 100 मीटर के दायरे में देखे जा सकते हैं। ये तो सामान्य वनों के लिए नियम बना हुआ है। लेकिन टाइगर रिजर्व के लिए अलग से नियम-कायदे बनाए गए हैं। बांधवगढ़ पार्क से बढ़ी उम्मीदें बांधवगढ़ पार्क में बाघों का कुनबा तेजी से बढ़ा रहा है। पिछले चार साल में इनकी संख्या करीब दोगुनी हो गई। जिस रफ्तार से बाघों की संख्या बढ़ी। उससे पार्क प्रबंधन के पास इन्हें रखने की जगह की कमी हो गई। बताया जाता है, कि बाघों की आबादी की तुलना में पार्क में समुचित जगह नहीं होने से क्षेत्ररक्षा को लेकर बाघ आपस में लड़कर घायल हो रहे हैं। गत दिनों डेढ़ साल के बाघ की मौत इसका ही परिणाम है। बढ़ते कुनबे से हालात बुरे हो रहे हैं। आए दिन एक न एक बाघ घायल नजर आ रहा है। क्षेत्ररक्षा और अन्य कारणों से बाघों में हो रही लड़ाई के नजीते गंभीर हैं। हालाकि प्रबंधन भी इस बात को स्वीकार करता हैं। एक्सपर्ट के मुताबिक पिछले कुछ माह में बाघों के घायल होने की संख्या बढ़ी है। कुछ दिन पहले मारे गए बाघ के सिर और पैर पर लगी चोटें भी आपसी द्वंद्व का नजीता है। नतीजतन, पार्क प्रबंधन प्रबंधन के इन्हें अन्य पार्को में शिफ्ट करने पर विचार करना पड़ा। बाघों के बढ़ते कुनबे को देखते हुए पार्क प्रबंधन ने पिछले साल बफर जोन का एरिया बढ़ाया था। इससे पहले पार्क के पास कुल 71 हजार हेक्टेयर एरिया था और तीन रेंज को अपनी सीमा में लेने के बाद उसके पास डेढ़ लाख हेक्टेयर क्षेत्र आ गया है। कोर के अंदर अभी भी 12 गांव हैं, जिनके विस्थापन को लेकर भी प्रयास किए जा रहे हैं। ज्ञात हो,कि बांधवगढ़ पार्क में वर्ष 2010 में बाघों की गिनती में यहां 56 से 70 बाघ होने का अनुमान था। यह संख्या अब 90 तक पहुंच गई है। हालिया रिपोर्ट को लेकर अधिकारियों का दावा है, कि अभी प्रदेश के पांच टाइगर रिजर्व की गिनती में 51 बाघ बढ़े हैं। इधर, रातापानी अभयारण्य में बाघों की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि वे अपने लिए जगह खोज रहे हैं। उनके लिए भोजन-पानी भी कम हो गया है। इसीलिए वे कुछ दिनों से राजधानी से करीब 8 किलोमीटर दूर केरवा क्षेत्र में आ जा रहे हैं। लेकिन यह अचानक नहीं है। अभयारण्य का एरिया बढ़ाकर केरवा-कलियासोत तक लाने का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में है। दरअसल,रातापानी सेंचुरी को टाइगर रिजर्व में तब्दील करने पर राज्य सरकार सहमत नहीं है। सरकार ने हाईकोर्ट में विचाराधीन याचिका का जवाब देते हुए कहा है कि ऐसा करने में कई गांवों का विस्थापन करना होगा। जबकि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) पहले ही रातापानी को अभयारण्य में तब्दील करने पर अपनी सैद्धांतिक सहमति दे चुका है। इस पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जनवरी 2011 में यूपीए सरकार के तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश को पत्र लिखकर कड़ी आपत्ति जताई थी। उन्होंने कहा था कि मप्र टाइगर स्टेट है, इसलिए वे बाघों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन वे रातापानी को टाइगर रिजर्व घोषित कर वहां बसे ग्रामीणों को विस्थापित करने के पक्ष में नहीं हैं। वहीं जानकारों का मानना है, कि एनटीसीए की राय को अमल में लाकर उक्त समस्या से बचा जा सकता है। जबकि, वन्य प्राणी मुख्यालय के तत्कालीन पीसीसीएफ पीबी गंगोपाध्याय ने ही रातापानी को अभयारण्य बनाने का प्रस्तावा एनटीसीए को भेजा था। इसके आधार पर ही एनटीसीए ने उक्त सहमति प्रदान की थी। बताया जाता है, कि गंगोपाध्याय तब एनटीसीए के सदस्य भी थे। रातापानी को अभयारण्य नहीं बनाने के पीछे सरकार का तर्क है, कि गंगोपाध्याय ने राज्य सरकार की सहमति के बगैर अपने स्तर पर निर्णय लिया था। राज्य के सक्षम प्राधिकारी मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री की ओर से प्रस्ताव नहीं गया। इसलिए एनटीसीए के इस प्रस्ताव को राज्य सरकार मानने से इंकार कर रही है। वैसे, यह लगभग हर टाइगर रिजर्व की दिक्कत है। रातापानी अभयारण्य 985 वर्ग किलोमीटर में फैला है। यहां बाघों की संख्या 25 से 28 हो गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक, बाघ की टेरेटरी 30 वर्ग किलोमीटर और होम रेंज 50 से 100 वर्ग किलोमीटर की होती है। एक बाघ हफ्ते में औसत दो जानवरों का शिकार करता है। लेकिन यहां उन जानवरों की संख्या कम हो गई है जिनका वे शिकार कर सकते हैं। ऐसे जानवरों की संख्या यहां लगभग 2500 है। इस फॉरेस्ट रिजर्व से निकलने वाली कोलार और एक अन्य नदी का पानी नवंबर माह में सूख जाता है। तब बाघों को पानी के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है। रातापानी के दूसरी ओर नर्मदा और खुले मैदान बाघ को जाने से रोकते हैं। वाइल्ड लाइफ नियमों के मुताबिक, जानवरों को हर पांच किलोमीटर पर पानी मिलना चाहिए। यह न मिलने के कारण वे केरवा की तरफ जब-तब आ जा रहे हैं। केरवा और कलियासोत में पानी और भोजन का भरपूर स्रोत है। यहां चार किलोमीटर के अंतर से दो नदियां केरवा और कलियासोत हैं। कठोतिया की ओर से आने वाले नाले में भी पानी रहता है। इस साल बारिश ज्यादा हुई है, इसका फायदा भी जानवरों को हो रहा है। दोनों नदियों की धारा तो टूट गई है लेकिन जहां-तहां पानी भरा है। वहीं वन विभाग ने पांच पोखर तैयार किए हैं जिनमें पानी डाला जा रहा है। यहां शाकाहारी और मांसाहारी जानवरों की संख्या भी पर्याप्त है। एक साल पहले क्षेत्र में लगाए गए नाइट विजन कैमरों में बाघ, तेंदुआ, रीछ, जंगली बिल्ली, लकड़बग्घा, नीलगाय, जंगली कुत्ता, मोर, खरगोश-जैसे जानवर देखे गए हैं। हकीकत यह है कि प्रदेश में न तो स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स (एसटीपीएफ) का गठन हो पाया है और न ही बाघ बहुल इलाकों में कोई और सुरक्षा व्यवस्था है। इसी का नतीजा है कि पिछले चार वर्षों में प्रदेश में 14 बाघ शिकारियों का निशाना बने। जंगलों में अतिक्रमण, प्रोटेक्शन फोर्स न होने के बावजूद बाघों की संख्या बढ़ी है तो यह केवल किस्मत है। प्रदेश सरकार या वन महकमा बाघों के प्रति कतई गंभीर नहीं है। टाइगर के बाद अब पैंथर भी गायब प्रदेश में इस साल जनवरी में हुई वन्य प्राणियों की गणना में जो तथ्य सामने आए हैं वह चौकाने वाले हैं। अभयारण्यों में बाघों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन तेंदुए (पैंथर) की संख्या में बेतहाशा कमी दर्ज की गई। इसके पीछे मुख्य वजह इनका शिकार होना बताया जाता है। प्रदेश में पिछले डेढ़ दशक में करीब 362 पैंथर का शिकार किए जाने का संकेत मिला है। वन विभाग के तीन दशक पूर्व के आंकड़ों पर यदि नजर दौड़ाई जाए तो वर्ष 1990 तक प्रदेश में बाघ का राज्य कायम रहा। बाघ की बादशाहत खत्म होने के बाद तेंदुओं की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ और बाघ के बाद तेंदुओं ने जंगल की कमान सम्हाल ली। वर्ष 2008- 2009 में की गई वन्य प्राणियों की गणना में 912 तेंदुए पाए गए थे। 2011 के आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश 1,010 तेंदुए थे। मध्यप्रदेश छहों टाइगर पार्क कान्हा किसली राष्ट्रीय उद्यान, बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान एवं संजय राष्ट्रीय उद्यान के अलावा प्रदेश के अन्य वन क्षेत्रों में बाघ, तेंदुआ, चीतल, सांभर, गौर, जंगली सुअर, भालू, काला हिरण, उडऩ गिलहरी, मूषक मृग, नील गाय, चिंकारा, जंगली कुत्ता इत्यादि बहुतायत में पाए जाते थे। लेकिन जनवरी में हुई वन्य प्राणियों की गणना में तेंदुओं के पगमार्क और मल आदि ऐसे कम चिन्ह नहीं मिले हैं जो तेंदुओं की मौजूदगी का अहसास करा रहे हों। संचालक बांधवगढ़ क्षेत्र सुधीर कुमार कहते हैं कि तेंदुओं की असली संख्या वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के बाद ही बताया जा सकता है। हर माह दो तेंदुओं की मौत मध्यप्रदेश के वनों से बाघ की घटती संख्या से चिंतित सरकार को अब तेंदुए की कम होती संख्या ने परेशानी में डाल दिया है। प्रदेश में हर माह औसत दो तेंदुओं की मौत हो रही है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष-2002 से लेकर 2012 तक के दस सालों में मध्यप्रदेश में 155 तेंदुओं की मृत्यु रिकॉर्ड की गई, जिनमें से 98 अवैध शिकार के खाते में गए। केवल 2011 में 43 तेंदुए मरे, जिनमें से 21 तस्कर-शिकार के घाट उतर गए। वन्यजीव विज्ञानी विद्या आत्रेय कहती हैं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेंदुओं की खाल और हड्डियों की भारी मांग है। चीन में बाघ की हड्डियों का इस्तेमाल पारंपरिक दवाइयों में किया जाता है। इस समय बाघ संरक्षित जीव हैं, इसलिए इसकी हड्डियों को पाना काफी मुश्किल है। दूसरी तरफ, तेंदुआ आसानी से उपलब्ध हो जाता है। तेंदुए और बाघ की हड्डियों में अंतर बता पाना काफी मुश्किल होता है। अंतर सिर्फ इतना है कि तेंदुए की हड्डियां छोटी होती हैं, इसलिए अवैध शिकारी इन्हें बाघ के शावक की हड्डियां कहकर बेचते हैं। डब्ल्यूपीएसआई के मुताबिक वर्ष 2010 में अवैध शिकार के चलते देश में 180 तेंदुओं की मौत हुई थी। डब्ल्यूपीएसआई के मुख्य परिचालन अधिकारी टीटो जोसफ कहते हैं कि इंसान के साथ हुए संघर्ष के बाद हुई मौतों के आंकड़े को भी जोड़ लें तो यह संख्या 328 तक पहुंच जाती है। इस साल के पहले 6 महीनों में अभी तक अवैध शिकार के चलते 79 मौत हो चुकी हैं, जबकि आबादी में घुसने के कारण 90 तेंदुओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। दुर्भाग्य से सरकार को इनकी कोई फिक्र नहीं है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 के तहत तेंदुआ एक संरक्षित प्राणी है। इसके बावजूद बाघों की तुलना में सरकार ने तेंदुओं के संरक्षण के लिए कोई कार्यक्रम तैयार नहीं किया है। डीएसपी मेरिल लिंच के पूर्व चेयरमैन और अब वाइल्डलाइफ कंजरवेशन ट्रस्ट चला रहे हेमेंद्र कोठारी कहते हैं, हम पहले से ही बाघ परियोजना चला रहे हैं। तेंदुओं की सुरक्षा के लिए भी यही सिद्धांत अपनाया जाना चाहिए। एक अलग परियोजना के बजाय हमें जंगलों को संरक्षित करने की जरूरत है। तेंदुओं का लगातार मारा जाना चिंता का विषय है लेकिन सरकार के पास देश में कुल तेंदुओं से संबंधित कोई आंकड़ा नहीं है। बाघों की गणना के लिए राष्ट्रीय स्तर पर हर 4 साल में अभियान चलाया जाता है, लेकिन तेंदुओं की गणना के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जाता है। डब्ल्यूपीएसआई के मुताबिक बीते 10 साल में 1 बाघ की तुलना में 6 तेंदुओं का अवैध शिकार हो रहा है। इसके बावजूद तेंदुओं की अनदेखी हो रही है। मप्र सरकार तेंदुओं के संरक्षण को लेकर कितना सतर्क है उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मप्र की विभिन्न अदालतों में बाघ के शिकार के 53 मामले और तेंदुए के शिकार के 160 मामले करीब चार दशकों से लंबित हैं। फैसले के लिए लंबित इन मामलों में 20 प्रकरण मप्र के विभिन्न टाइगर रिजर्व में बाघों के अवैध शिकार के हैं। तेंदुए के शिकार का सबसे पुराना प्रकरण 40 वर्ष पूर्व नौ जुलाई 1973 को प्रदेश के शिवपुरी जिले में दर्ज किया गया था, जो अब तक निर्णय के लिए अदालत में लंबित है। प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में 39 वर्ष पूर्व 14 फरवरी 1975 से एक और तेंदुए के शिकार का मामला अदालत में अब तक चल रहा है। जंगलों से महानगरों तक तस्करी वन विभाग भी स्वीकारता है कि तमाम कोशिशों के बाद भी जानवरों की तस्करी नहीं रूक पा रही है। वन्य जीवों की तस्करी करना अपराध है। इसके लिए 'वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत तीन साल की सजा और 25 हजार रुपए जुर्माने का प्रावधान है। किसी भी तरह के जंगली जानवर जैसे कछुआ, उल्लू, चमगादड़, सांप, शेर, तेंदुआ, भालू आदि को पकडऩा या खरीदना-बेचना गैरकानूनी है। सख्त कानून के बाद भी इनमें से कई को पकड़कर बेचा जा रहा है तो कई को मारकर तस्करी की जा रही है। इसके कारण दोमुंहा सांप, उल्लू और चमगादड़ की कुछ प्रजातियां, पानी के कछुए की प्रजाति विलुप्त होने की स्थिति में है। यूं तो सरकार विलुप्त होते जा रहे प्राणियों को बचाने की बात करती है, लेकिन इस तरह लगातार हो रहे शिकार और प्राणियों की तस्करी को रोकने के लिए कोई सख्त कदम नहीं उठाया जा रहा। अंधविश्वास सबसे बड़ा कारण वन विभाग के मुताबिक कई जानवरों के शिकार और तस्करी के पीछे सबसे बड़ा कारण उनसे जुड़ा अंधविश्वास है। इसके चलते लोग कछुआ, तेंदुए के नाखून, शेर की खाल, बाल और हड्डियां, चमगादड़ की चमड़ी, सांप की कैंचुली, सेही और गोह के बाल आदि की मांग करते हैं। इनकी मांग को पूरा करने के लिए शिकारी जाल बिछाते हैं और निर्दोष प्राणियों को या तो जीवित पकड़ते हैं या मौत के घाट उतार देते हैं। इसके अलावा कुछ प्राणियों के मांस, खून और हड्डियों का उपयोग दवाई बनाने के लिए भी किया जाता है। इस तरह बनाई गई दवाइयों का कितना असर होता है यह कोई नहीं जानता, लेकिन अंधविश्वास के चलते प्रयोग जरूर किया जाता है। इसलिए होता है शिकार शेर, तेंदुआ : कई लोग पैसे के लिए शेर और तेंदुए जैसे खूंखार प्राणियों का शिकार करने को भी तैयार हो जाते हैं। बाल, खाल, आंखें, नाखून आदि के लिए इन्हें मार दिया जाता है। कहा जाता है कि इनकी हड्डियों से पाउडर भी बनाया जाता है। जिससे कई तरह की बीमारियों का इलाज होता है। भालू : भालू का शिकार मूल रूप से खाल, दांत और नाखून के लिए किया जाता है। भालू के नाखून से कई तरह की तंत्रविद्या को अंजाम दिया जाता है। दो मुंहा सांप : इसका शिकार नहीं करते हुए जिंदा पकड़ा जाता है। इसे घर में रखने से खजाने का पता मिलता है और साथ ही एक समय के बाद यह मणि उगलता है, इसलिए शिकारी इसे पकड़कर बेच देते हैं। सेही और गोह : इनका शिकार बालों के लिए होता है। इनके बालों का उपयोग तंत्र क्रिया के लिए किया जाता है। कुछ लोग जिंदा प्राणी के बाल काटकर उन्हें छोड़ देते हैं जबकि कुछ इन्हें मारकर ही यह काम करते हैं। चमगादड़ : इसका शिकार इसे जलाने के लिए किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि चमगादड़ को जलाकर इसकी चमड़ी से काजल बनाया जाता है और उसे आंखों में लगाने से आंखें लंबी उम्र तक सेहतमंद बनी रहती हैं। काला हिरण और चितल : अमूमन ये प्राणी घातक नहीं होने और न ही इनका शरीर बहुंत महंगी कीमत में बिकता है, लेकिन इनके मांस का उपयोग तंत्र क्रिया में किया जाता है। इसलिए इनका शिकार करवाया जाता है। क्षेत्रफल सबसे बड़ा, अमला सबसे छोटा मध्यप्रदेश में 94 हजार वर्ग किमी में वन फैले हुए हैं। इसी क्षेत्रफल के दायरे में 10 नेशनल पार्क तथा 25 अभयारण्य भी आते हैं, लेकिन वन विभाग का सबसे ज्यादा ध्यान टाइगर रिजर्व पार्क कान्हा, पन्ना, पेंच, बांधवगढ़ तथा सतपुड़ा नेशनल पार्क पर रहता है। इसके बाव

मप्र में हर साल 7500 करोड़ की वन्य जीव तस्करी

तस्करों का अड्डा बने फार्म हाउस और रिसोर्ट
डेढ़ दशक में मप्र 383 बाघ और 362 तेंदुओ का हुआ शिकार
पीएमओ और एनटीसीए के हस्तक्षेप के बाद सरकार हुई सजग
भोपाल। बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के कोर एरिया से सटे बासा गांव में मप्र विधानसभा के डिप्टी स्पीकर राजेंद्र सिंह के फार्म हाउस पर जब 29 मार्च को सात-आठ माह के बाघ के शावक का शव मिला तो हर कोई इसे सामान्य घटना मान रहा था। लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के दखल के बाद वन विभाग और खुफिया विभाग की जांच में यह बात सामने आई है कि प्रदेश के 10 नेशनल पार्क तथा 25 अभयारण्यों के आसपास स्थित ऐसे फार्म हाउस और रिसोर्ट तस्करों का अड्डा बने हुए हैं। वन विभाग-नेशनल पार्क के अफसरों, सफदपोश लोगों, स्थानीय प्रशासन और तस्करों के गठजोड़ से मप्र में हर साल वन्य जीव तस्करी का अवैध कारोबार करीब 7500 करोड़ रूपए से अधिक का है। वन विभाग के मैदानी कर्मचारियों के अनुसार पिछले डेढ़ दशक में प्रदेश में 383 बाघ और 362 तेंदुए के शिकार का मामला सामने आया है। यही नहीं नेशनल पार्क तथा अभयारण्यों के पास स्थित रिसोर्ट में रोजाना वन्य प्राणियों का मांस पर्यटकों की इच्छानुसार परोसा जा रहा है। वन विभाग के कुछ अधिकारियों का दावा है कि जिस तरह राज्य सरकार ने बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व स्थित विधानसभा उपाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह के फार्म हाउस में बाघ (शावक) की हत्या की सीआईडी जांच कराए जाने का निर्णय लिया है। अगर उसी तरह कुछ अन्य मामलों की जांच कराई जाए तो हैरानी करने वाले मामले सामने आएंगे, जिसमें यह खुलाशा हो जाएगा की प्रदेश में किस तरह सुनियोजित तरीके के वन्य प्राणियों की हत्या और उनके अंगों की तस्करी की जा रही है। उल्लेखनीय है कि विश्व में हैकिंग, ड्रग, स्मग्लिंग, घोटाले की साजिश, पैसा गबन करना, वन्यजीव तस्करी, नकली दवाएं, हथियारों की तस्करी, प्राकृतिक संसाधनों की तस्करी और दलाली ये दस ऐसे अवैध धंधे हैं जहां बारिश की तरह पैसा बरसता है। मप्र भी इससे अछूता नहीं है। जहां तक मप्र में होने वाले वन्यजीव तस्करी की बात करें तो पिछले डेढ़ दशक में यहां यह अवैध कारोबार तेजी से पनपा है। आज विश्व में वन्य जीव तस्करी का अवैध कारोबार 30,000 करोड़ डॉलर से अधिक है, जो अब मादक पदार्थों के कारोबार से कुछ ही कम और हथियारों के कारोबार के तो करीब ही पहुंच चुका है। सौंदर्य प्रसाधनों, औषधि निर्माण, तो कहीं घरों की सजावट के लिए वन्य जीव के अंगों की बेतहाशा मांग और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मिलता मुंह मांगा दाम इसके प्रमुख कारण हैं। यही कारण है कि पिछले डेढ़ दशक में मप्र में वन्य जीवों की तस्करी बड़े पैमाने पर हो रही है। मध्यप्रदेश में वन्य-जीव संरक्षित क्षेत्र 10989.247 वर्ग किलोमीटर में फैला है, जो देश के दर्जन भर राज्य और केंद्र शासित राज्यों के वन क्षेत्रों से भी बड़ा है। मध्यप्रदेश में 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर में वन क्षेत्र हैं। यहां 10 राष्ट्रीय उद्यान और 25 वन्य-प्राणी अभयारण्य हैं, जो विविधता से भरपूर है। कान्हा, बांधवगढ़, पन्ना, पेंच, सतपुड़ा एवं संजय राष्ट्रीय उद्यान को टाइगर रिजर्व का दर्जा प्राप्त है। वहीं करेरा (गुना) और घाटीगांव (ग्वालियर) विलुप्तप्राय दुर्लभ पक्षी सोनचिडिय़ा के संरक्षण के लिए, सैलाना (रतलाम) और सरदारपुर (धार) एक अन्य विलुप्तप्राय दुर्लभ पक्षी खरमोर के संरक्षण के लिए और 3 अभयारण्य-चंबल, केन एवं सोन घडिय़ाल और अन्य जलीय प्राणियों के संरक्षण के लिए स्थापित किए गए हैं। अपनी स्थापना के समय से ही ये नेशनल पार्क और अभयारण्य रसूखदारों और तस्करों के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए है। यही कारण है की इनके भीतर स्थित गांवों को जहां बाहर किया जा रहा है, वही इनके आसपास फार्म हाउस और रिसार्ट बड़ी तेजी से बने हैं। जानकार बताते हैं कि जब नेशनल पार्क तथा अभयारण्यों के आसपास फार्म हाउस और रिसोर्ट बढऩे लग तब से प्रदेश में वन्य प्राणियों के शिकार के मामले भी बढ़ गए। वर्ष 2006 पहले तक मप्र में बाघों की संख्या सबसे अधिक होने से टाइगर स्टेट का दर्जा बरकरार था। ऐसा भी मौका आया जब मप्र में करीब 700 टाइगर थे। वाइल्ड इंस्टीट्यूट देहरादून ने वर्ष 2006 में टाइगर की संख्या 300 बताई थी, जो 2010 में 257 रह गई। दरअसल वर्ष 2007 से 09 के टाइगर का बड़ी संख्या में शिकार हुआ। पन्ना नेशनल पार्क बाघविहीन हो गया। इसकी गिनती सरिस्का टाइगर रिजर्व के तौर पर की जाने लगी। मामले का खुलासा होने पर बदनामी हुई तो सरकार की आंखें खुलीं। पन्ना के बाघ विहीन होने का शोर इस कदर रहा ,कि केन्द्र को यहां जांच दल भेजना पड़ा। जांच में वन्य प्राणी मुख्यालय के आला अफसरों सहित तत्कालीन प्रमुख सचिव वन अवनि वैश्य को लापरवाही के लिए जिम्मेदार भी ठहराया गया था। मामले की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन वन मंत्री सरताज सिंह ने सीबीआई जांच कराने का लिखा था, लेकिन तत्कालीन प्रमुख सचिव वैश्य मुख्य सचिव बन चुके थे। ऐसे में पूरी फाइल ही ठंडे बस्ते में चली गई थी। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के एआईजी रविकिरण गोवेकर द्वारा वन्य प्राणी मुख्यालय को सौंपी गई रिपोर्ट में मप्र में वन्य प्राणी प्रबंधन को पूरी तरह फेल बताया है। बाघों के घर में रसूखदारों का कब्जा मप्र सरकार माफिया, तस्कारों और सफेदपोशों के सामने कितनी बेबस है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश के छह टाइगर रिजर्व में लगातार बाघ सहित अन्य वन्य प्रणियों का शिकार हो रहा है, उसके बावजुद इनकी गोद में 347 रिसोर्ट और होटल चल रहे हैं। सरकार का कहना है कि टाइगर रिजर्व के जरिए सालाना 400 करोड रूपए का टूरिज्म उद्योग संचालित है, इसलिए होटल और रिसोर्ट जरूरी है। लेकिन सरकार को कौन समझाए की इन्हीं रिसोर्ट और होटलों में बैठक कर शिकार का खाका बनाया जाता है और यहीं से वन्य प्राणियों के अंग और खाल विदेशों तक पहुंचाया जाता है। वन विभाग से मिले आंकड़ों के अनुसार, प्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व में 60 रिसोर्ट व होटल, बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में 53 रिसोर्ट-लॉज, सतपुड़ा नेशनल पार्क में 200 होटल व रिसोट, पन्ना नेशनल पार्क में 4 होटल और पेंच नेशनल पार्क में 30 होटल, रिसोर्ट चल रहे हैं, जबकि संजय टाइगर रिजर्व में अभी होटल नहीं है। ये सभी होटल और रिसोर्ट अवैध गतिविधियों के केंद्र बने हुए हैं। वन्यजीव विज्ञानी विद्या आत्रेय कहती हैं, वन क्षेत्र वन्य प्राणियों के लिए होता है, लेकिन पर्यटन के नाम पर जिस तरह इनके अंदर निर्माण और अन्स गतिविधियां चल रही हैं उससे वन्य प्राणियों में दहशत नजर आने लगी है। यही कारण है कि अब वे आदमी के निवास क्षेत्र में प्रवेश करने लगे हैं। बांधवगढ़ में अवैध रूप से बने 52 होटल और रिसोर्ट बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान की सीमा में करीब 52 होटल एवं रिसोर्ट अवैध रूप से संचालित किए जा रहे हैं। इसकी जांच के आदेश करीब तीन वर्ष पूर्व दिये गये थे लेकिन यह जांच अब तक चल रही है। ये सभी होटल और रिसोर्ट पार्क के कोर एरिया और आदिवासियों की जमीन पर बनाए गए हैं। उमरिया कलेक्टर कृष्ण गोपाल तिवार ने बताया कि शहडोल के तत्कालीन संभागायुकत हीरालाल त्रिवेदी ने 4 अगस्त 2010 को बांधवगढ़ उद्यान की सीमा में स्थित 52 होटलों, रिसोर्ट के विरुद्ध आदेश पारित कर जांच के आदेश दिये थे जिनकी जांच कलेकटर उमरिया व मानपुर अनुविभागीय अधिकारी राजस्व द्वारा की जा रही है। बांधवगढ़ मानपुर तहसील क्षेत्र में हैं। इन होटलों-रिसोर्ट की जांच का मुख्य कारण वन भूमि और आदिवासी भूमि पर स्थापित होना बताया जा रहा है। इन होटलों, रिसोर्ट में मुख्य रूप से भदुआ कोठी, चुरहट कोठी, तिवारी रिसोर्ट, गोल टाइगर बोट, जीटीबी रिसोर्ट, रायल स्ट्रीट रिसोर्ट, जंगल इन रिसोर्ट, टाइगर डेन, मोगली रिसोर्ट, ग्लोबल होस्ट इंडिया होटल, अरण्य केप रिसोर्ट, बनारस लॉज कलकत्ता कुटीर आदि 52 होटलों लॉज एवं रिसोर्ट के मालिकों के नाम जांच में शामिल है। दिलचस्प पहलू यह है कि तीन चाल से चल रही जांच अब तक बेनतीजा रही है। जंगल महकमे के मैदानी अफसरों का कहना है कि राजस्व विभाग जानबूझकर जांच में कोताही बरत रहा है। रसूखदारों के हैं होटल-रिसोर्ट वन विभाग के आरोप है कि चूंकि होटलों और रिसोर्ट के मालिक रसूखदार है, इसलिए उन्हें बचाने की कोशिश की जा रही है। इनमें नेता, विद्यायक, मंत्री से लेकर रसूखदार तक शामिल है। जिनकी पकड़ ऊपर तक होने से तीन वर्षो में भी जांच की गति पर प्रश्न चिन्ह अंकित है। इसके अलावा इस क्षेत्र के आसपास कई अन्य भवन भी निर्माणाधीन हैं। वन्य प्राणी विशेषज्ञों का मानना है कि जिस गति से अभयारण्यों के समीप भवनों का निर्माण किया जा रहा है वह यहां के वन्य प्राणियों के स्वच्छंद विचरण में बाधक साबित होगा और इस पर रोक लगाई जाना चाहिए। इस सबके बावजूद आज भी राष्ट्रीय उद्यान सीमाओं के समीप की भूमि करोड़ों में बिक रही है ओर उस पर आलीशान होटल निर्मित हो रहे हैं। राजपरिवार के रसूख से वीरान हुआ पन्ना पौराणिक कर्णावती (केन) नदी के दोनों ओर लगभग 545 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले पन्ना नेशनल पार्क की विधिवत स्थापना 1981 में हुई थी जबकि 1994 में भारत सरकार ने यहां प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व की स्थापना की। उस समय यह राष्ट्रीय उद्यान लगभग 50-60 बाघों सहित सैकड़ों चीतल, सांभर, नीलगाय, भालुओं व सियारों से भरा हुआ था, लेकिन व्यवस्था का करिश्मा देखिए कि टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट की स्थापना के बाद से यहां बाघ लगातार घटते चले गए और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की एक टीम ने अचानक यह खुलासा किया कि यहां एक भी बाघ नहीं है। बाद में यहां पदस्थ करोड़ों का बजट उदरस्थ कर चुके अफसरों ने भी माना कि हां सारे बाघ चुक गए। पन्ना बाघ अभयारण्य की यह कहानी देश की भ्रष्ट व्यवस्था और इसके लचीले कानूनों की पोल में पल रहे उस सामंतवाद की कहानी है, जो आजादी के बाद चेहरा बदलकर सामने आया है। जिस पन्ना राष्ट्रीय अभयारण्य के दम पर मप्र को टाइगर स्टेट का दर्जा मिला था, वहां नागौद एवं पन्ना राज परिवारों के संरक्षण में जिस तेजी से बाघों और अन्य वन्य प्राणियों का शिकार हुआ, उससे अभयारण्य वीरान हो गया और मप्र का ताज छिन गया। नागौद एवं पन्ना राज परिवार शिकारी दल के अगुआ बताए जाते हैं। 1989-93 के बीच जब नागौद राजपरिवार से संबंधित नागेन्द्र सिंह उर्र्फ बिटलू हुजूर प्रदेश पर्यटन निगम के अध्यक्ष थे, तब खजुराहो में उन्होंने एक होटल खोला जो, 2003 में उनके गृहमंत्री बनने के साथ ही गुलजार होने लगा। होटल को संचालित करने वाले नागेन्द्र सिंह के पुत्र श्यामेन्द्र सिंह उर्फ बिन्नी राजा ने इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ योजना के माध्यम से सबल स्वसहायता समूह बनाया और उसके नाम पर केन नदी के किनारे झिन्ना नामक स्थान पर जंगल के अंदर छोटी-छोटी सर्वसुविधा युक्त झोंपडिय़ा (हट्स) बनवाई, जिनमें चुनिंदा विदेशी पर्यटकों को जंगल में मंगल मनाने के लिए रुकाया जाने लगा। उसी दरम्यान अनेक सालों से मंडला के नजदीक केन नदी में ट्री हाउस बनाकर रहने वाला स्वीडिश नागरिक जील कहीं गायब हो गया। बताया गया कि वह बिन्नी राजा को अपना ट्री हाउस बेचकर अपने देश चला गया है। बिन्नी का ट्री हाउस हो गया तो शीघ्र ही पन्ना के एक समय के बिगड़ैल नवाबजादे युवराज व रिश्ते में ससुर लगने वाले लोकेन्द्र सिंह ने भी वहां ट्री हाउस बनवा लिया और कुछ दिनों के भीतर पन्ना राजलक्ष्मी होटल के मालिक खनिज व्यवसाई प्रदीप सिंह राठौर का भी रिसोर्ट वहां बन गया। पांडव फॉल के पास एक दुर्गम रेंज में बने इन आधुनिक अय्याश गृहों में आने-जाने व रहने वालों का शीघ्र ही पूरे उद्यान में दबदबा हो गया। नागेन्द्र सिंह के पुत्र बिन्नी राजा की कुछ गाडिय़ा हमेशा कभी हिनौता रेंज, कभी मंडला व कभी कल्दा आदि रेंजों में घूमने लगीं, जिनमें डिस्कवरी लिखा हआ था। बताया गया कि इन गाडिय़ों के माध्यम से जंगली जानवरों को शूट कर डिस्कवरी चैनल को भेजा जाता है। वन्य प्राणी संरक्षण के लिए प्रदेश की जो समिति बनी, उसमें बिन्नी राजा एवं लोकेन्द्र सिंह भी सदस्य बन गए। लिहाजा, राष्ट्रीय उद्यान में जहां शाम 5:30 बजे से सुबह तक किसी का भी प्रवेश वर्जित है, पर इन महानुभावों की सशस्त्र गाडिय़ों में लगातार अंजान लोग और ये स्वयं रात में कभी यहां से घुसते, कभी वहां से निकलते सर्वत्र जंगल में देखे जाने लगे। अभी कुछ साल पहले ही बांधवगढ़ में एक शेरनी को जीप द्वारा कुचलकर मारने के प्रसंग में जब बिन्नी राजा का नाम आया तो पन्ना व सतना की आम जनता को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। गोया, बांधवगढ़ में भी बिन्नी राजा का रिसोर्ट है। अनेक लोग यह जानते हैं कि एक अरसे पूर्व परसमनिया (सतना) के जंगल में जो घायल बाघिन मिली थी, जिसका प्राणांत बाद में भोपाल में हो गया; वह पन्ना की कल्दा रेन्ज से भाग कर वहां पहुंची थी और वह भी ठोकरों से घायल थी। इस बाघिन को पार्क की आखिरी बाघिन कहा जाता है। उसके बच्चे भी थे जो आज तक नहीं मिले। इन कांड में तीन आदिवासी तो पकड़े गए पर मंत्री के भाई होने के नाते एक अन्य मुजरिम कन्नू हुजूर बचा ही रह गया। मधुर व्यवहार के लिए मशहूर प्रदेश के पूर्व गृहमंत्री व वर्तमान में लोक निर्माण मंत्री नागेन्द्र सिंह के बड़े चिरंजीव श्यामेन्द्र सिंह उर्फ बिन्नी राजा का नाम वर्तमान में दक्षिणी बुंदेलखंड के सभी प्रचलित राजाओं के नामों में सबसे बड़ा है। आजकल वे इन सब की आंखों के तारे हैं। हर दबदबेदार आदमी एक बार उनके साथ बैठना चाहता है। खजुराहो से जुड़ी ट्रेवल्स कंपनियां व होटल सदैव उनकी कृपा की मोहताज हैंं। जंगली गांवों में पुख्ता धारणा है कि बिन्नी राजा और उनकी शिकारी टोली ने पिछले पांच वर्षों में क्षेत्रीय डांग के एक सैकड़ा से अधिक बाघों व तेंदुओं को मारा है। पुरानी शिकारगाहें आबाद हो गई हैं और अन्य जानवर भी रोजाना मारे व खाए जा रहे हैं। स्थिति यह है कि किसी ग्रामीण के पशु जंगली एरिया में घुस जाने पर उसे अपमानित व दण्डित किया जाता है, परंतु बाघ मारकर ले जाने वाले या बाघ के बच्चों की विदेश तस्करी कर देने वालों और सांभर, हिरण, खरगोश रोजाना खाने वालों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। बहुत कम लोग जानते हैं कि नागौद राजपरिवार के बिन्नी राजा की मां तथा स्वयं उनकी धर्मपत्नी नेपाल की हैं। नेपाल के रिश्ते का जिक्र इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि नेपाल के रास्ते चीन हमारे देश के वन्य प्राणियों और उनकी खालों, दांतों, नाखूनों व चमड़ों का बड़ा ग्राहक है। नागौद राज परिवार के आखिरी राजा महेन्द्र सिंह के बारे में कहा जाता है कि सोते शेर को मारना उनका शौक था और उन्होंने अपनी जिंदगी में 157 शेर मारे थे। इस मामले में नाती पूरी तरह बाबा पर गया है। नागेन्द्र सिंह ने भी पिछले वर्ष एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि 1971 के पूर्व अपने युवा काल में मैंने 5 शेर मारे थे। असल में 1948 में परसमनिया का इलाका शिकार खेलने के लिए नागौद राज परिवार को तथा इसी तरह केन का इलाका पन्ना व छतरपुर राज परिवार को दिया गया था। प्रिवीपर्स के साथ शिकार की यह छूट भी शामिल थी। 1971 से प्रिवीपर्स खत्म हो गए, लेकिन शिकार का यह खेल कभी कम कभी ज्यादा चलता ही रहा। नागौद व पन्ना राज परिवार तथा उनसे जुड़े लोग आजकल भी जंगलों में काबिज हैं। यहां के खनिज व वन संसाधनों के उपार्जन में ये लोग खदान मालिकों व ठेकेदारों से पैसा वसूलते हैं। जो पैसा नहीं देगा वह इलाके में काम नहीं कर सकता। यह विडंबना ही है कि देश व प्रदेश सरकार की मदद से यहां खूबसूरत बाघ अभयारण्य बना परंतु इसकी व्यवस्था और इस पर नियंत्रण अघोषित तौर पर उनका हो गया जो खानदानी शिकारी हैं। न केवल पन्ना वल्कि बांधवगढ़ में भी इन्होंने अपने रिसोर्टों और वहां पदस्थ वन विभाग के अधिकारियों व पुलिस के माध्यम से अपना नियंत्रण और दबदबा स्थापित कर लिया है। कान्हा और पेंच में बिना एनओसी 15 रिसोर्ट कान्हा और पेंच नेशनल पार्क के आसपास बने रिसोर्ट के संचालक मोटी कमाई की लालच में पर्यावरण के साथ ही वन्य जीवों को भी नुकसान पहुंचा रहे रहे हैं। मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नेशनल पार्को के आसपास नियम विरूद्ध संचालित 15 रिसोर्ट संचालकों को नोटिस दिए हैं। जबलपुर संभाग के तीन जिलों में पचास से अधिक रिसोर्ट संचालित हो रहे हैं। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार कान्हा और पेंच नेशनल पार्क की सीमा से लगे तीन जिलों में 64 रिसोर्ट संचालित हो रहे हैं। इनमें मंडला के 22, बालाघाट के 20 तथा सिवनी के 22 रिसोर्ट शामिल हैं। इनमें 15 रिसोर्ट संचालकों ने समय सीमा निकलने के बाद प्रदूषण बोर्ड से अनुमति ली नहीं है। वहीं मार्च 2014 में 11 रिसोर्ट की एनओसी समाप्त हो गई है। अब तक संचालकों नेे आवेदन नहीं किया है। वहीं 10 दस नए रिसोर्ट के लिए संचालकों ने एनओसी के लिए आवेदन दे रखा है। नेशनल पार्क के आस-पास रिसोर्ट खोलने से पहले प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से संचालन की अनुमति लेना अनिवार्य है। प्रदूषण बोर्ड द्वारा रिसोर्ट से निकलने वाले पानी और होने वाले ध्वनि प्रदूषण के लिए अनुमति लेनी होती है। क्षेत्रीय प्रबंधक मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एमएल पटेल कहते हैं कि कान्हा और पेंच नेशनल पार्क में 64 रिसोर्ट संचालित हैं। इसमें 15 की एनओसी समाप्त हो चुकी है। कारण बताओ नोटिस जारी किए गए हैं। जांच हुई तो बंद हो जाएंगे आधे से ज्यादा रिसॉर्ट वन्य प्राणी विशेषज्ञों का कहना है कि प्रदेश के अधिकांश पार्कों में जिन रिसोर्ट और होटल का संचालन किया जा रहा है, उनमें से अधिकांश अवैध हैं। इन पार्कों में वन विभाग के नियमों को ताक पर रखकर रिसोर्ट बनाने की परमिशन जारी की गई है। यदि सभी जगहों पर जांच हो तो आधे से ज्यादा रिसोर्ट बंद करने पड़ सकते हैं। बांधवगढ़ पार्क में 53 रिसोर्ट चल रहे हैं। यहां की ताला रेंज पार्क में एंट्री करने वाले गेट के नजदीक ही कई एकड़ों में रिसोर्ट बने हैं। 12 से 15 फीट चौड़ी कच्ची सड़क के एक तरफ पार्क और दूसरी तरफ रिसोर्र्ट को बनाया गया। रात के समय वन्यप्राणियों की चहल कदमी इतनी ज्यादा रहती है कि रिसोर्र्ट से भी देखी जा सकती है। इस सड़क पर दिन के समय तेंदुओं के पगमार्क (पंजों के निशान) रोजाना देखने मिलते हैं। टाइगर रिजर्व और नेशनल पार्क के लिए वन मंत्रालय की गठित कमेटी के नियमानुसार देश के 47 टाइगर रिजर्व की सीमा से 250 मीटर के अंदर कृषि के लिहाज से सिर्फ 12 गुणा 12 का कमरा वो भी सिंगल स्टोरी बनाया जा सकता है। लेकिन मध्य प्रदेश में नेशनल पार्कों की सीमा पर सैकड़ों रिसोर्ट खुले हैं। इन्हें अनुमति भी मिल गई। वन विभाग के सूत्रों ने बताया कि पन्ना को छोड़कर शेष पांच टाइगर रिजर्व में कोर एरिया का सीमांकन तो कर दिया गया लेकिन अभी तक 90 गांव अंदर हैं। इसके अलावा कान्हा में एक लॉज है, जिसे हटाने की कार्रवाई चल रही है। सतपुड़ा के कोर एरिया में पचमढ़ी आता है, जिसमें 200 होटल व 42 गांव हैं। मप्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दे रखी है कि पचमढ़ी को कोर एरिया से बाहर किया जाए। एक टाइगर पर सालाना साढ़े ग्यारह लाख का खर्च मप्र में एक टाइगर का सालाना खर्च साढ़े ग्यारह लाख रुपए है, जबकि अन्य राज्यों में यह 8 लाख 80 हजार है। प्रति बाघ इतनी बड़ी रकम खर्च किए जाने के बाद भी बाघों का कुनबा बढ़ाने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। बहरहाल,बदनामी हुई तो नए सिरे से प्रयास शुरु किए गए। नतीजतन, पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क एक बार फिर बाघों का बसेरा बन गया है। यहां साल 2009 तक बाघों की दहाड़ पूरी तरह से खामोश हो गई। 5 साल पहले पन्ना में दोबारा बाघों को बसाने का काम शुरू हुआ, आज वह रंग लाया। 26 दिसंबर 2009 को पेंच से एक बाघ टी-3 और कान्हा से दो बाघिन लाई गईं। आज स्थिति यह है कि पार्क में करीब दो दर्जन बाघों की दहाड़ सुनाई देती है। विश्व का यह पहला टाइगर रिजर्व पार्क है, जहां दोबारा बसाए गए बाघों संख्या में इतनी तेजी से वृद्धि हुई है। पेंच से लाए गए टी-3 बाघ को पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क में मिस्टर पन्ना का खिताब दिया गया। पन्ना बाघ पुनस्र्थापना के इन सालों में 32 से अधिक शावकों का जन्म हुआ है। इन जन्में शावकों में 6 की मृत्यु हो गई। सात वयस्क होने के बाद पार्क से बाहर निकल गए। उल्लेखनीय है,कि वर्ष 1991 में पन्ना राष्ट्रीय उद्यान को पन्ना टाइगर रिजर्व घोषित किया गया था। उस समय बाघों की संख्या 40 थी। गांव वाले जंगल से बाहर, रिसॉर्ट वाले अंदर बांधवगढ़ नेशनल पार्क से लेकर प्रदेश के सभी 6 टाइगर रिजर्व के भीतर बसे गांवों के लोगों को जंगल से बाहर किया जा रहा है। यह सही भी है क्योंकि लोगों के रहने से जंगली जानवरों के लिए वातावरण मुफीद नहीं रहता। पर गांव वालों को यह बात समझ नहीं आ रही कि आखिर बड़े-बड़े रिसोर्ट पार्क से सटकर कैसे बनाए जा रहे हैं। इस बारे में आला अधिकारी भी खामोश हैं। बांधवगढ़ की ताला रेंज गेट के ठीक पहले एक रास्ता तमाम रिसोर्ट की तरफ जाता है। इस रास्ते पर अपने मवेशी चरा रहे एक बुजुर्ग ने बताया कि रिसोर्ट के लिए जमीन बहुत महंगी बेची जा रही है। एक एकड़ जमीन की कीमत 15 से 20 लाख रुपए हो चुकी है। गांव वालों के अलावा रिसोर्ट के कुछ कर्मचारी मिले। उनसे पूछा कि टाइगर या तेंदुआ यहां आता है, तो उनका कहना था कि ये रात में तो कई बार रिसोर्ट गेट तक आ जाते हैं। उनकी ये बात सच इसलिए निकली क्योंकि रास्ते में हमें तेंदुए के पगमार्क देखने मिले। वन विभाग के नियमों में यह बात तो साफ की जा चुकी है कि वन सीमा से 300 मीटर के दायरे में किसी तरह का निर्माण नहीं किया जा सकता। यदि निर्माण होगा भी तो सिर्फ झोपड़ी या घास-फूस का उपयोग किया जाएगा। लेकिन बांधवगढ़ पार्क की सीमा से सटे रिसोर्र्ट बमुश्किल 100 मीटर के दायरे में देखे जा सकते हैं। ये तो सामान्य वनों के लिए नियम बना हुआ है। लेकिन टाइगर रिजर्व के लिए अलग से नियम-कायदे बनाए गए हैं। बांधवगढ़ पार्क से बढ़ी उम्मीदें बांधवगढ़ पार्क में बाघों का कुनबा तेजी से बढ़ा रहा है। पिछले चार साल में इनकी संख्या करीब दोगुनी हो गई। जिस रफ्तार से बाघों की संख्या बढ़ी। उससे पार्क प्रबंधन के पास इन्हें रखने की जगह की कमी हो गई। बताया जाता है, कि बाघों की आबादी की तुलना में पार्क में समुचित जगह नहीं होने से क्षेत्ररक्षा को लेकर बाघ आपस में लड़कर घायल हो रहे हैं। गत दिनों डेढ़ साल के बाघ की मौत इसका ही परिणाम है। बढ़ते कुनबे से हालात बुरे हो रहे हैं। आए दिन एक न एक बाघ घायल नजर आ रहा है। क्षेत्ररक्षा और अन्य कारणों से बाघों में हो रही लड़ाई के नजीते गंभीर हैं। हालाकि प्रबंधन भी इस बात को स्वीकार करता हैं। एक्सपर्ट के मुताबिक पिछले कुछ माह में बाघों के घायल होने की संख्या बढ़ी है। कुछ दिन पहले मारे गए बाघ के सिर और पैर पर लगी चोटें भी आपसी द्वंद्व का नजीता है। नतीजतन, पार्क प्रबंधन प्रबंधन के इन्हें अन्य पार्को में शिफ्ट करने पर विचार करना पड़ा। बाघों के बढ़ते कुनबे को देखते हुए पार्क प्रबंधन ने पिछले साल बफर जोन का एरिया बढ़ाया था। इससे पहले पार्क के पास कुल 71 हजार हेक्टेयर एरिया था और तीन रेंज को अपनी सीमा में लेने के बाद उसके पास डेढ़ लाख हेक्टेयर क्षेत्र आ गया है। कोर के अंदर अभी भी 12 गांव हैं, जिनके विस्थापन को लेकर भी प्रयास किए जा रहे हैं। ज्ञात हो,कि बांधवगढ़ पार्क में वर्ष 2010 में बाघों की गिनती में यहां 56 से 70 बाघ होने का अनुमान था। यह संख्या अब 90 तक पहुंच गई है। हालिया रिपोर्ट को लेकर अधिकारियों का दावा है, कि अभी प्रदेश के पांच टाइगर रिजर्व की गिनती में 51 बाघ बढ़े हैं। इधर, रातापानी अभयारण्य में बाघों की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि वे अपने लिए जगह खोज रहे हैं। उनके लिए भोजन-पानी भी कम हो गया है। इसीलिए वे कुछ दिनों से राजधानी से करीब 8 किलोमीटर दूर केरवा क्षेत्र में आ जा रहे हैं। लेकिन यह अचानक नहीं है। अभयारण्य का एरिया बढ़ाकर केरवा-कलियासोत तक लाने का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में है। दरअसल,रातापानी सेंचुरी को टाइगर रिजर्व में तब्दील करने पर राज्य सरकार सहमत नहीं है। सरकार ने हाईकोर्ट में विचाराधीन याचिका का जवाब देते हुए कहा है कि ऐसा करने में कई गांवों का विस्थापन करना होगा। जबकि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) पहले ही रातापानी को अभयारण्य में तब्दील करने पर अपनी सैद्धांतिक सहमति दे चुका है। इस पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जनवरी 2011 में यूपीए सरकार के तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश को पत्र लिखकर कड़ी आपत्ति जताई थी। उन्होंने कहा था कि मप्र टाइगर स्टेट है, इसलिए वे बाघों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन वे रातापानी को टाइगर रिजर्व घोषित कर वहां बसे ग्रामीणों को विस्थापित करने के पक्ष में नहीं हैं। वहीं जानकारों का मानना है, कि एनटीसीए की राय को अमल में लाकर उक्त समस्या से बचा जा सकता है। जबकि, वन्य प्राणी मुख्यालय के तत्कालीन पीसीसीएफ पीबी गंगोपाध्याय ने ही रातापानी को अभयारण्य बनाने का प्रस्तावा एनटीसीए को भेजा था। इसके आधार पर ही एनटीसीए ने उक्त सहमति प्रदान की थी। बताया जाता है, कि गंगोपाध्याय तब एनटीसीए के सदस्य भी थे। रातापानी को अभयारण्य नहीं बनाने के पीछे सरकार का तर्क है, कि गंगोपाध्याय ने राज्य सरकार की सहमति के बगैर अपने स्तर पर निर्णय लिया था। राज्य के सक्षम प्राधिकारी मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री की ओर से प्रस्ताव नहीं गया। इसलिए एनटीसीए के इस प्रस्ताव को राज्य सरकार मानने से इंकार कर रही है। वैसे, यह लगभग हर टाइगर रिजर्व की दिक्कत है। रातापानी अभयारण्य 985 वर्ग किलोमीटर में फैला है। यहां बाघों की संख्या 25 से 28 हो गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक, बाघ की टेरेटरी 30 वर्ग किलोमीटर और होम रेंज 50 से 100 वर्ग किलोमीटर की होती है। एक बाघ हफ्ते में औसत दो जानवरों का शिकार करता है। लेकिन यहां उन जानवरों की संख्या कम हो गई है जिनका वे शिकार कर सकते हैं। ऐसे जानवरों की संख्या यहां लगभग 2500 है। इस फॉरेस्ट रिजर्व से निकलने वाली कोलार और एक अन्य नदी का पानी नवंबर माह में सूख जाता है। तब बाघों को पानी के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है। रातापानी के दूसरी ओर नर्मदा और खुले मैदान बाघ को जाने से रोकते हैं। वाइल्ड लाइफ नियमों के मुताबिक, जानवरों को हर पांच किलोमीटर पर पानी मिलना चाहिए। यह न मिलने के कारण वे केरवा की तरफ जब-तब आ जा रहे हैं। केरवा और कलियासोत में पानी और भोजन का भरपूर स्रोत है। यहां चार किलोमीटर के अंतर से दो नदियां केरवा और कलियासोत हैं। कठोतिया की ओर से आने वाले नाले में भी पानी रहता है। इस साल बारिश ज्यादा हुई है, इसका फायदा भी जानवरों को हो रहा है। दोनों नदियों की धारा तो टूट गई है लेकिन जहां-तहां पानी भरा है। वहीं वन विभाग ने पांच पोखर तैयार किए हैं जिनमें पानी डाला जा रहा है। यहां शाकाहारी और मांसाहारी जानवरों की संख्या भी पर्याप्त है। एक साल पहले क्षेत्र में लगाए गए नाइट विजन कैमरों में बाघ, तेंदुआ, रीछ, जंगली बिल्ली, लकड़बग्घा, नीलगाय, जंगली कुत्ता, मोर, खरगोश-जैसे जानवर देखे गए हैं। हकीकत यह है कि प्रदेश में न तो स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स (एसटीपीएफ) का गठन हो पाया है और न ही बाघ बहुल इलाकों में कोई और सुरक्षा व्यवस्था है। इसी का नतीजा है कि पिछले चार वर्षों में प्रदेश में 14 बाघ शिकारियों का निशाना बने। जंगलों में अतिक्रमण, प्रोटेक्शन फोर्स न होने के बावजूद बाघों की संख्या बढ़ी है तो यह केवल किस्मत है। प्रदेश सरकार या वन महकमा बाघों के प्रति कतई गंभीर नहीं है। टाइगर के बाद अब पैंथर भी गायब प्रदेश में इस साल जनवरी में हुई वन्य प्राणियों की गणना में जो तथ्य सामने आए हैं वह चौकाने वाले हैं। अभयारण्यों में बाघों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन तेंदुए (पैंथर) की संख्या में बेतहाशा कमी दर्ज की गई। इसके पीछे मुख्य वजह इनका शिकार होना बताया जाता है। प्रदेश में पिछले डेढ़ दशक में करीब 362 पैंथर का शिकार किए जाने का संकेत मिला है। वन विभाग के तीन दशक पूर्व के आंकड़ों पर यदि नजर दौड़ाई जाए तो वर्ष 1990 तक प्रदेश में बाघ का राज्य कायम रहा। बाघ की बादशाहत खत्म होने के बाद तेंदुओं की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ और बाघ के बाद तेंदुओं ने जंगल की कमान सम्हाल ली। वर्ष 2008- 2009 में की गई वन्य प्राणियों की गणना में 912 तेंदुए पाए गए थे। 2011 के आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश 1,010 तेंदुए थे। मध्यप्रदेश छहों टाइगर पार्क कान्हा किसली राष्ट्रीय उद्यान, बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान एवं संजय राष्ट्रीय उद्यान के अलावा प्रदेश के अन्य वन क्षेत्रों में बाघ, तेंदुआ, चीतल, सांभर, गौर, जंगली सुअर, भालू, काला हिरण, उडऩ गिलहरी, मूषक मृग, नील गाय, चिंकारा, जंगली कुत्ता इत्यादि बहुतायत में पाए जाते थे। लेकिन जनवरी में हुई वन्य प्राणियों की गणना में तेंदुओं के पगमार्क और मल आदि ऐसे कम चिन्ह नहीं मिले हैं जो तेंदुओं की मौजूदगी का अहसास करा रहे हों। संचालक बांधवगढ़ क्षेत्र सुधीर कुमार कहते हैं कि तेंदुओं की असली संख्या वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के बाद ही बताया जा सकता है। हर माह दो तेंदुओं की मौत मध्यप्रदेश के वनों से बाघ की घटती संख्या से चिंतित सरकार को अब तेंदुए की कम होती संख्या ने परेशानी में डाल दिया है। प्रदेश में हर माह औसत दो तेंदुओं की मौत हो रही है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष-2002 से लेकर 2012 तक के दस सालों में मध्यप्रदेश में 155 तेंदुओं की मृत्यु रिकॉर्ड की गई, जिनमें से 98 अवैध शिकार के खाते में गए। केवल 2011 में 43 तेंदुए मरे, जिनमें से 21 तस्कर-शिकार के घाट उतर गए। वन्यजीव विज्ञानी विद्या आत्रेय कहती हैं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेंदुओं की खाल और हड्डियों की भारी मांग है। चीन में बाघ की हड्डियों का इस्तेमाल पारंपरिक दवाइयों में किया जाता है। इस समय बाघ संरक्षित जीव हैं, इसलिए इसकी हड्डियों को पाना काफी मुश्किल है। दूसरी तरफ, तेंदुआ आसानी से उपलब्ध हो जाता है। तेंदुए और बाघ की हड्डियों में अंतर बता पाना काफी मुश्किल होता है। अंतर सिर्फ इतना है कि तेंदुए की हड्डियां छोटी होती हैं, इसलिए अवैध शिकारी इन्हें बाघ के शावक की हड्डियां कहकर बेचते हैं। डब्ल्यूपीएसआई के मुताबिक वर्ष 2010 में अवैध शिकार के चलते देश में 180 तेंदुओं की मौत हुई थी। डब्ल्यूपीएसआई के मुख्य परिचालन अधिकारी टीटो जोसफ कहते हैं कि इंसान के साथ हुए संघर्ष के बाद हुई मौतों के आंकड़े को भी जोड़ लें तो यह संख्या 328 तक पहुंच जाती है। इस साल के पहले 6 महीनों में अभी तक अवैध शिकार के चलते 79 मौत हो चुकी हैं, जबकि आबादी में घुसने के कारण 90 तेंदुओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। दुर्भाग्य से सरकार को इनकी कोई फिक्र नहीं है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 के तहत तेंदुआ एक संरक्षित प्राणी है। इसके बावजूद बाघों की तुलना में सरकार ने तेंदुओं के संरक्षण के लिए कोई कार्यक्रम तैयार नहीं किया है। डीएसपी मेरिल लिंच के पूर्व चेयरमैन और अब वाइल्डलाइफ कंजरवेशन ट्रस्ट चला रहे हेमेंद्र कोठारी कहते हैं, हम पहले से ही बाघ परियोजना चला रहे हैं। तेंदुओं की सुरक्षा के लिए भी यही सिद्धांत अपनाया जाना चाहिए। एक अलग परियोजना के बजाय हमें जंगलों को संरक्षित करने की जरूरत है। तेंदुओं का लगातार मारा जाना चिंता का विषय है लेकिन सरकार के पास देश में कुल तेंदुओं से संबंधित कोई आंकड़ा नहीं है। बाघों की गणना के लिए राष्ट्रीय स्तर पर हर 4 साल में अभियान चलाया जाता है, लेकिन तेंदुओं की गणना के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जाता है। डब्ल्यूपीएसआई के मुताबिक बीते 10 साल में 1 बाघ की तुलना में 6 तेंदुओं का अवैध शिकार हो रहा है। इसके बावजूद तेंदुओं की अनदेखी हो रही है। मप्र सरकार तेंदुओं के संरक्षण को लेकर कितना सतर्क है उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मप्र की विभिन्न अदालतों में बाघ के शिकार के 53 मामले और तेंदुए के शिकार के 160 मामले करीब चार दशकों से लंबित हैं। फैसले के लिए लंबित इन मामलों में 20 प्रकरण मप्र के विभिन्न टाइगर रिजर्व में बाघों के अवैध शिकार के हैं। तेंदुए के शिकार का सबसे पुराना प्रकरण 40 वर्ष पूर्व नौ जुलाई 1973 को प्रदेश के शिवपुरी जिले में दर्ज किया गया था, जो अब तक निर्णय के लिए अदालत में लंबित है। प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में 39 वर्ष पूर्व 14 फरवरी 1975 से एक और तेंदुए के शिकार का मामला अदालत में अब तक चल रहा है। जंगलों से महानगरों तक तस्करी वन विभाग भी स्वीकारता है कि तमाम कोशिशों के बाद भी जानवरों की तस्करी नहीं रूक पा रही है। वन्य जीवों की तस्करी करना अपराध है। इसके लिए 'वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत तीन साल की सजा और 25 हजार रुपए जुर्माने का प्रावधान है। किसी भी तरह के जंगली जानवर जैसे कछुआ, उल्लू, चमगादड़, सांप, शेर, तेंदुआ, भालू आदि को पकडऩा या खरीदना-बेचना गैरकानूनी है। सख्त कानून के बाद भी इनमें से कई को पकड़कर बेचा जा रहा है तो कई को मारकर तस्करी की जा रही है। इसके कारण दोमुंहा सांप, उल्लू और चमगादड़ की कुछ प्रजातियां, पानी के कछुए की प्रजाति विलुप्त होने की स्थिति में है। यूं तो सरकार विलुप्त होते जा रहे प्राणियों को बचाने की बात करती है, लेकिन इस तरह लगातार हो रहे शिकार और प्राणियों की तस्करी को रोकने के लिए कोई सख्त कदम नहीं उठाया जा रहा। अंधविश्वास सबसे बड़ा कारण वन विभाग के मुताबिक कई जानवरों के शिकार और तस्करी के पीछे सबसे बड़ा कारण उनसे जुड़ा अंधविश्वास है। इसके चलते लोग कछुआ, तेंदुए के नाखून, शेर की खाल, बाल और हड्डियां, चमगादड़ की चमड़ी, सांप की कैंचुली, सेही और गोह के बाल आदि की मांग करते हैं। इनकी मांग को पूरा करने के लिए शिकारी जाल बिछाते हैं और निर्दोष प्राणियों को या तो जीवित पकड़ते हैं या मौत के घाट उतार देते हैं। इसके अलावा कुछ प्राणियों के मांस, खून और हड्डियों का उपयोग दवाई बनाने के लिए भी किया जाता है। इस तरह बनाई गई दवाइयों का कितना असर होता है यह कोई नहीं जानता, लेकिन अंधविश्वास के चलते प्रयोग जरूर किया जाता है। इसलिए होता है शिकार शेर, तेंदुआ : कई लोग पैसे के लिए शेर और तेंदुए जैसे खूंखार प्राणियों का शिकार करने को भी तैयार हो जाते हैं। बाल, खाल, आंखें, नाखून आदि के लिए इन्हें मार दिया जाता है। कहा जाता है कि इनकी हड्डियों से पाउडर भी बनाया जाता है। जिससे कई तरह की बीमारियों का इलाज होता है। भालू : भालू का शिकार मूल रूप से खाल, दांत और नाखून के लिए किया जाता है। भालू के नाखून से कई तरह की तंत्रविद्या को अंजाम दिया जाता है। दो मुंहा सांप : इसका शिकार नहीं करते हुए जिंदा पकड़ा जाता है। इसे घर में रखने से खजाने का पता मिलता है और साथ ही एक समय के बाद यह मणि उगलता है, इसलिए शिकारी इसे पकड़कर बेच देते हैं। सेही और गोह : इनका शिकार बालों के लिए होता है। इनके बालों का उपयोग तंत्र क्रिया के लिए किया जाता है। कुछ लोग जिंदा प्राणी के बाल काटकर उन्हें छोड़ देते हैं जबकि कुछ इन्हें मारकर ही यह काम करते हैं। चमगादड़ : इसका शिकार इसे जलाने के लिए किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि चमगादड़ को जलाकर इसकी चमड़ी से काजल बनाया जाता है और उसे आंखों में लगाने से आंखें लंबी उम्र तक सेहतमंद बनी रहती हैं। काला हिरण और चितल : अमूमन ये प्राणी घातक नहीं होने और न ही इनका शरीर बहुंत महंगी कीमत में बिकता है, लेकिन इनके मांस का उपयोग तंत्र क्रिया में किया जाता है। इसलिए इनका शिकार करवाया जाता है। क्षेत्रफल सबसे बड़ा, अमला सबसे छोटा मध्यप्रदेश में 94 हजार वर्ग किमी में वन फैले हुए हैं। इसी क्षेत्रफल के दायरे में 10 नेशनल पार्क तथा 25 अभयारण्य भी आते हैं, लेकिन वन विभाग का सबसे ज्यादा ध्यान टाइगर रिजर्व पार्क कान्हा, पन्ना, पेंच, बांधवगढ़ तथा सतपुड़ा नेशनल पार्क पर रहता है। इसके बाव