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भेड़ाघाट

Friday, May 15, 2015

मप्र में हर साल 7500 करोड़ की वन्य जीव तस्करी

तस्करों का अड्डा बने फार्म हाउस और रिसोर्ट
डेढ़ दशक में मप्र 383 बाघ और 362 तेंदुओ का हुआ शिकार
पीएमओ और एनटीसीए के हस्तक्षेप के बाद सरकार हुई सजग
भोपाल। बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व के कोर एरिया से सटे बासा गांव में मप्र विधानसभा के डिप्टी स्पीकर राजेंद्र सिंह के फार्म हाउस पर जब 29 मार्च को सात-आठ माह के बाघ के शावक का शव मिला तो हर कोई इसे सामान्य घटना मान रहा था। लेकिन प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के दखल के बाद वन विभाग और खुफिया विभाग की जांच में यह बात सामने आई है कि प्रदेश के 10 नेशनल पार्क तथा 25 अभयारण्यों के आसपास स्थित ऐसे फार्म हाउस और रिसोर्ट तस्करों का अड्डा बने हुए हैं। वन विभाग-नेशनल पार्क के अफसरों, सफदपोश लोगों, स्थानीय प्रशासन और तस्करों के गठजोड़ से मप्र में हर साल वन्य जीव तस्करी का अवैध कारोबार करीब 7500 करोड़ रूपए से अधिक का है। वन विभाग के मैदानी कर्मचारियों के अनुसार पिछले डेढ़ दशक में प्रदेश में 383 बाघ और 362 तेंदुए के शिकार का मामला सामने आया है। यही नहीं नेशनल पार्क तथा अभयारण्यों के पास स्थित रिसोर्ट में रोजाना वन्य प्राणियों का मांस पर्यटकों की इच्छानुसार परोसा जा रहा है। वन विभाग के कुछ अधिकारियों का दावा है कि जिस तरह राज्य सरकार ने बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व स्थित विधानसभा उपाध्यक्ष राजेन्द्र सिंह के फार्म हाउस में बाघ (शावक) की हत्या की सीआईडी जांच कराए जाने का निर्णय लिया है। अगर उसी तरह कुछ अन्य मामलों की जांच कराई जाए तो हैरानी करने वाले मामले सामने आएंगे, जिसमें यह खुलाशा हो जाएगा की प्रदेश में किस तरह सुनियोजित तरीके के वन्य प्राणियों की हत्या और उनके अंगों की तस्करी की जा रही है। उल्लेखनीय है कि विश्व में हैकिंग, ड्रग, स्मग्लिंग, घोटाले की साजिश, पैसा गबन करना, वन्यजीव तस्करी, नकली दवाएं, हथियारों की तस्करी, प्राकृतिक संसाधनों की तस्करी और दलाली ये दस ऐसे अवैध धंधे हैं जहां बारिश की तरह पैसा बरसता है। मप्र भी इससे अछूता नहीं है। जहां तक मप्र में होने वाले वन्यजीव तस्करी की बात करें तो पिछले डेढ़ दशक में यहां यह अवैध कारोबार तेजी से पनपा है। आज विश्व में वन्य जीव तस्करी का अवैध कारोबार 30,000 करोड़ डॉलर से अधिक है, जो अब मादक पदार्थों के कारोबार से कुछ ही कम और हथियारों के कारोबार के तो करीब ही पहुंच चुका है। सौंदर्य प्रसाधनों, औषधि निर्माण, तो कहीं घरों की सजावट के लिए वन्य जीव के अंगों की बेतहाशा मांग और अंतरराष्ट्रीय बाजार में मिलता मुंह मांगा दाम इसके प्रमुख कारण हैं। यही कारण है कि पिछले डेढ़ दशक में मप्र में वन्य जीवों की तस्करी बड़े पैमाने पर हो रही है। मध्यप्रदेश में वन्य-जीव संरक्षित क्षेत्र 10989.247 वर्ग किलोमीटर में फैला है, जो देश के दर्जन भर राज्य और केंद्र शासित राज्यों के वन क्षेत्रों से भी बड़ा है। मध्यप्रदेश में 94 हजार 689 वर्ग किलोमीटर में वन क्षेत्र हैं। यहां 10 राष्ट्रीय उद्यान और 25 वन्य-प्राणी अभयारण्य हैं, जो विविधता से भरपूर है। कान्हा, बांधवगढ़, पन्ना, पेंच, सतपुड़ा एवं संजय राष्ट्रीय उद्यान को टाइगर रिजर्व का दर्जा प्राप्त है। वहीं करेरा (गुना) और घाटीगांव (ग्वालियर) विलुप्तप्राय दुर्लभ पक्षी सोनचिडिय़ा के संरक्षण के लिए, सैलाना (रतलाम) और सरदारपुर (धार) एक अन्य विलुप्तप्राय दुर्लभ पक्षी खरमोर के संरक्षण के लिए और 3 अभयारण्य-चंबल, केन एवं सोन घडिय़ाल और अन्य जलीय प्राणियों के संरक्षण के लिए स्थापित किए गए हैं। अपनी स्थापना के समय से ही ये नेशनल पार्क और अभयारण्य रसूखदारों और तस्करों के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए है। यही कारण है की इनके भीतर स्थित गांवों को जहां बाहर किया जा रहा है, वही इनके आसपास फार्म हाउस और रिसार्ट बड़ी तेजी से बने हैं। जानकार बताते हैं कि जब नेशनल पार्क तथा अभयारण्यों के आसपास फार्म हाउस और रिसोर्ट बढऩे लग तब से प्रदेश में वन्य प्राणियों के शिकार के मामले भी बढ़ गए। वर्ष 2006 पहले तक मप्र में बाघों की संख्या सबसे अधिक होने से टाइगर स्टेट का दर्जा बरकरार था। ऐसा भी मौका आया जब मप्र में करीब 700 टाइगर थे। वाइल्ड इंस्टीट्यूट देहरादून ने वर्ष 2006 में टाइगर की संख्या 300 बताई थी, जो 2010 में 257 रह गई। दरअसल वर्ष 2007 से 09 के टाइगर का बड़ी संख्या में शिकार हुआ। पन्ना नेशनल पार्क बाघविहीन हो गया। इसकी गिनती सरिस्का टाइगर रिजर्व के तौर पर की जाने लगी। मामले का खुलासा होने पर बदनामी हुई तो सरकार की आंखें खुलीं। पन्ना के बाघ विहीन होने का शोर इस कदर रहा ,कि केन्द्र को यहां जांच दल भेजना पड़ा। जांच में वन्य प्राणी मुख्यालय के आला अफसरों सहित तत्कालीन प्रमुख सचिव वन अवनि वैश्य को लापरवाही के लिए जिम्मेदार भी ठहराया गया था। मामले की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन वन मंत्री सरताज सिंह ने सीबीआई जांच कराने का लिखा था, लेकिन तत्कालीन प्रमुख सचिव वैश्य मुख्य सचिव बन चुके थे। ऐसे में पूरी फाइल ही ठंडे बस्ते में चली गई थी। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के एआईजी रविकिरण गोवेकर द्वारा वन्य प्राणी मुख्यालय को सौंपी गई रिपोर्ट में मप्र में वन्य प्राणी प्रबंधन को पूरी तरह फेल बताया है। बाघों के घर में रसूखदारों का कब्जा मप्र सरकार माफिया, तस्कारों और सफेदपोशों के सामने कितनी बेबस है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश के छह टाइगर रिजर्व में लगातार बाघ सहित अन्य वन्य प्रणियों का शिकार हो रहा है, उसके बावजुद इनकी गोद में 347 रिसोर्ट और होटल चल रहे हैं। सरकार का कहना है कि टाइगर रिजर्व के जरिए सालाना 400 करोड रूपए का टूरिज्म उद्योग संचालित है, इसलिए होटल और रिसोर्ट जरूरी है। लेकिन सरकार को कौन समझाए की इन्हीं रिसोर्ट और होटलों में बैठक कर शिकार का खाका बनाया जाता है और यहीं से वन्य प्राणियों के अंग और खाल विदेशों तक पहुंचाया जाता है। वन विभाग से मिले आंकड़ों के अनुसार, प्रदेश के कान्हा टाइगर रिजर्व में 60 रिसोर्ट व होटल, बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में 53 रिसोर्ट-लॉज, सतपुड़ा नेशनल पार्क में 200 होटल व रिसोट, पन्ना नेशनल पार्क में 4 होटल और पेंच नेशनल पार्क में 30 होटल, रिसोर्ट चल रहे हैं, जबकि संजय टाइगर रिजर्व में अभी होटल नहीं है। ये सभी होटल और रिसोर्ट अवैध गतिविधियों के केंद्र बने हुए हैं। वन्यजीव विज्ञानी विद्या आत्रेय कहती हैं, वन क्षेत्र वन्य प्राणियों के लिए होता है, लेकिन पर्यटन के नाम पर जिस तरह इनके अंदर निर्माण और अन्स गतिविधियां चल रही हैं उससे वन्य प्राणियों में दहशत नजर आने लगी है। यही कारण है कि अब वे आदमी के निवास क्षेत्र में प्रवेश करने लगे हैं। बांधवगढ़ में अवैध रूप से बने 52 होटल और रिसोर्ट बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान की सीमा में करीब 52 होटल एवं रिसोर्ट अवैध रूप से संचालित किए जा रहे हैं। इसकी जांच के आदेश करीब तीन वर्ष पूर्व दिये गये थे लेकिन यह जांच अब तक चल रही है। ये सभी होटल और रिसोर्ट पार्क के कोर एरिया और आदिवासियों की जमीन पर बनाए गए हैं। उमरिया कलेक्टर कृष्ण गोपाल तिवार ने बताया कि शहडोल के तत्कालीन संभागायुकत हीरालाल त्रिवेदी ने 4 अगस्त 2010 को बांधवगढ़ उद्यान की सीमा में स्थित 52 होटलों, रिसोर्ट के विरुद्ध आदेश पारित कर जांच के आदेश दिये थे जिनकी जांच कलेकटर उमरिया व मानपुर अनुविभागीय अधिकारी राजस्व द्वारा की जा रही है। बांधवगढ़ मानपुर तहसील क्षेत्र में हैं। इन होटलों-रिसोर्ट की जांच का मुख्य कारण वन भूमि और आदिवासी भूमि पर स्थापित होना बताया जा रहा है। इन होटलों, रिसोर्ट में मुख्य रूप से भदुआ कोठी, चुरहट कोठी, तिवारी रिसोर्ट, गोल टाइगर बोट, जीटीबी रिसोर्ट, रायल स्ट्रीट रिसोर्ट, जंगल इन रिसोर्ट, टाइगर डेन, मोगली रिसोर्ट, ग्लोबल होस्ट इंडिया होटल, अरण्य केप रिसोर्ट, बनारस लॉज कलकत्ता कुटीर आदि 52 होटलों लॉज एवं रिसोर्ट के मालिकों के नाम जांच में शामिल है। दिलचस्प पहलू यह है कि तीन चाल से चल रही जांच अब तक बेनतीजा रही है। जंगल महकमे के मैदानी अफसरों का कहना है कि राजस्व विभाग जानबूझकर जांच में कोताही बरत रहा है। रसूखदारों के हैं होटल-रिसोर्ट वन विभाग के आरोप है कि चूंकि होटलों और रिसोर्ट के मालिक रसूखदार है, इसलिए उन्हें बचाने की कोशिश की जा रही है। इनमें नेता, विद्यायक, मंत्री से लेकर रसूखदार तक शामिल है। जिनकी पकड़ ऊपर तक होने से तीन वर्षो में भी जांच की गति पर प्रश्न चिन्ह अंकित है। इसके अलावा इस क्षेत्र के आसपास कई अन्य भवन भी निर्माणाधीन हैं। वन्य प्राणी विशेषज्ञों का मानना है कि जिस गति से अभयारण्यों के समीप भवनों का निर्माण किया जा रहा है वह यहां के वन्य प्राणियों के स्वच्छंद विचरण में बाधक साबित होगा और इस पर रोक लगाई जाना चाहिए। इस सबके बावजूद आज भी राष्ट्रीय उद्यान सीमाओं के समीप की भूमि करोड़ों में बिक रही है ओर उस पर आलीशान होटल निर्मित हो रहे हैं। राजपरिवार के रसूख से वीरान हुआ पन्ना पौराणिक कर्णावती (केन) नदी के दोनों ओर लगभग 545 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले पन्ना नेशनल पार्क की विधिवत स्थापना 1981 में हुई थी जबकि 1994 में भारत सरकार ने यहां प्रोजेक्ट टाइगर रिजर्व की स्थापना की। उस समय यह राष्ट्रीय उद्यान लगभग 50-60 बाघों सहित सैकड़ों चीतल, सांभर, नीलगाय, भालुओं व सियारों से भरा हुआ था, लेकिन व्यवस्था का करिश्मा देखिए कि टाइगर रिजर्व प्रोजेक्ट की स्थापना के बाद से यहां बाघ लगातार घटते चले गए और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की एक टीम ने अचानक यह खुलासा किया कि यहां एक भी बाघ नहीं है। बाद में यहां पदस्थ करोड़ों का बजट उदरस्थ कर चुके अफसरों ने भी माना कि हां सारे बाघ चुक गए। पन्ना बाघ अभयारण्य की यह कहानी देश की भ्रष्ट व्यवस्था और इसके लचीले कानूनों की पोल में पल रहे उस सामंतवाद की कहानी है, जो आजादी के बाद चेहरा बदलकर सामने आया है। जिस पन्ना राष्ट्रीय अभयारण्य के दम पर मप्र को टाइगर स्टेट का दर्जा मिला था, वहां नागौद एवं पन्ना राज परिवारों के संरक्षण में जिस तेजी से बाघों और अन्य वन्य प्राणियों का शिकार हुआ, उससे अभयारण्य वीरान हो गया और मप्र का ताज छिन गया। नागौद एवं पन्ना राज परिवार शिकारी दल के अगुआ बताए जाते हैं। 1989-93 के बीच जब नागौद राजपरिवार से संबंधित नागेन्द्र सिंह उर्र्फ बिटलू हुजूर प्रदेश पर्यटन निगम के अध्यक्ष थे, तब खजुराहो में उन्होंने एक होटल खोला जो, 2003 में उनके गृहमंत्री बनने के साथ ही गुलजार होने लगा। होटल को संचालित करने वाले नागेन्द्र सिंह के पुत्र श्यामेन्द्र सिंह उर्फ बिन्नी राजा ने इंदिरा गांधी गरीबी हटाओ योजना के माध्यम से सबल स्वसहायता समूह बनाया और उसके नाम पर केन नदी के किनारे झिन्ना नामक स्थान पर जंगल के अंदर छोटी-छोटी सर्वसुविधा युक्त झोंपडिय़ा (हट्स) बनवाई, जिनमें चुनिंदा विदेशी पर्यटकों को जंगल में मंगल मनाने के लिए रुकाया जाने लगा। उसी दरम्यान अनेक सालों से मंडला के नजदीक केन नदी में ट्री हाउस बनाकर रहने वाला स्वीडिश नागरिक जील कहीं गायब हो गया। बताया गया कि वह बिन्नी राजा को अपना ट्री हाउस बेचकर अपने देश चला गया है। बिन्नी का ट्री हाउस हो गया तो शीघ्र ही पन्ना के एक समय के बिगड़ैल नवाबजादे युवराज व रिश्ते में ससुर लगने वाले लोकेन्द्र सिंह ने भी वहां ट्री हाउस बनवा लिया और कुछ दिनों के भीतर पन्ना राजलक्ष्मी होटल के मालिक खनिज व्यवसाई प्रदीप सिंह राठौर का भी रिसोर्ट वहां बन गया। पांडव फॉल के पास एक दुर्गम रेंज में बने इन आधुनिक अय्याश गृहों में आने-जाने व रहने वालों का शीघ्र ही पूरे उद्यान में दबदबा हो गया। नागेन्द्र सिंह के पुत्र बिन्नी राजा की कुछ गाडिय़ा हमेशा कभी हिनौता रेंज, कभी मंडला व कभी कल्दा आदि रेंजों में घूमने लगीं, जिनमें डिस्कवरी लिखा हआ था। बताया गया कि इन गाडिय़ों के माध्यम से जंगली जानवरों को शूट कर डिस्कवरी चैनल को भेजा जाता है। वन्य प्राणी संरक्षण के लिए प्रदेश की जो समिति बनी, उसमें बिन्नी राजा एवं लोकेन्द्र सिंह भी सदस्य बन गए। लिहाजा, राष्ट्रीय उद्यान में जहां शाम 5:30 बजे से सुबह तक किसी का भी प्रवेश वर्जित है, पर इन महानुभावों की सशस्त्र गाडिय़ों में लगातार अंजान लोग और ये स्वयं रात में कभी यहां से घुसते, कभी वहां से निकलते सर्वत्र जंगल में देखे जाने लगे। अभी कुछ साल पहले ही बांधवगढ़ में एक शेरनी को जीप द्वारा कुचलकर मारने के प्रसंग में जब बिन्नी राजा का नाम आया तो पन्ना व सतना की आम जनता को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। गोया, बांधवगढ़ में भी बिन्नी राजा का रिसोर्ट है। अनेक लोग यह जानते हैं कि एक अरसे पूर्व परसमनिया (सतना) के जंगल में जो घायल बाघिन मिली थी, जिसका प्राणांत बाद में भोपाल में हो गया; वह पन्ना की कल्दा रेन्ज से भाग कर वहां पहुंची थी और वह भी ठोकरों से घायल थी। इस बाघिन को पार्क की आखिरी बाघिन कहा जाता है। उसके बच्चे भी थे जो आज तक नहीं मिले। इन कांड में तीन आदिवासी तो पकड़े गए पर मंत्री के भाई होने के नाते एक अन्य मुजरिम कन्नू हुजूर बचा ही रह गया। मधुर व्यवहार के लिए मशहूर प्रदेश के पूर्व गृहमंत्री व वर्तमान में लोक निर्माण मंत्री नागेन्द्र सिंह के बड़े चिरंजीव श्यामेन्द्र सिंह उर्फ बिन्नी राजा का नाम वर्तमान में दक्षिणी बुंदेलखंड के सभी प्रचलित राजाओं के नामों में सबसे बड़ा है। आजकल वे इन सब की आंखों के तारे हैं। हर दबदबेदार आदमी एक बार उनके साथ बैठना चाहता है। खजुराहो से जुड़ी ट्रेवल्स कंपनियां व होटल सदैव उनकी कृपा की मोहताज हैंं। जंगली गांवों में पुख्ता धारणा है कि बिन्नी राजा और उनकी शिकारी टोली ने पिछले पांच वर्षों में क्षेत्रीय डांग के एक सैकड़ा से अधिक बाघों व तेंदुओं को मारा है। पुरानी शिकारगाहें आबाद हो गई हैं और अन्य जानवर भी रोजाना मारे व खाए जा रहे हैं। स्थिति यह है कि किसी ग्रामीण के पशु जंगली एरिया में घुस जाने पर उसे अपमानित व दण्डित किया जाता है, परंतु बाघ मारकर ले जाने वाले या बाघ के बच्चों की विदेश तस्करी कर देने वालों और सांभर, हिरण, खरगोश रोजाना खाने वालों पर किसी का नियंत्रण नहीं है। बहुत कम लोग जानते हैं कि नागौद राजपरिवार के बिन्नी राजा की मां तथा स्वयं उनकी धर्मपत्नी नेपाल की हैं। नेपाल के रिश्ते का जिक्र इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि नेपाल के रास्ते चीन हमारे देश के वन्य प्राणियों और उनकी खालों, दांतों, नाखूनों व चमड़ों का बड़ा ग्राहक है। नागौद राज परिवार के आखिरी राजा महेन्द्र सिंह के बारे में कहा जाता है कि सोते शेर को मारना उनका शौक था और उन्होंने अपनी जिंदगी में 157 शेर मारे थे। इस मामले में नाती पूरी तरह बाबा पर गया है। नागेन्द्र सिंह ने भी पिछले वर्ष एक साक्षात्कार में स्वीकार किया कि 1971 के पूर्व अपने युवा काल में मैंने 5 शेर मारे थे। असल में 1948 में परसमनिया का इलाका शिकार खेलने के लिए नागौद राज परिवार को तथा इसी तरह केन का इलाका पन्ना व छतरपुर राज परिवार को दिया गया था। प्रिवीपर्स के साथ शिकार की यह छूट भी शामिल थी। 1971 से प्रिवीपर्स खत्म हो गए, लेकिन शिकार का यह खेल कभी कम कभी ज्यादा चलता ही रहा। नागौद व पन्ना राज परिवार तथा उनसे जुड़े लोग आजकल भी जंगलों में काबिज हैं। यहां के खनिज व वन संसाधनों के उपार्जन में ये लोग खदान मालिकों व ठेकेदारों से पैसा वसूलते हैं। जो पैसा नहीं देगा वह इलाके में काम नहीं कर सकता। यह विडंबना ही है कि देश व प्रदेश सरकार की मदद से यहां खूबसूरत बाघ अभयारण्य बना परंतु इसकी व्यवस्था और इस पर नियंत्रण अघोषित तौर पर उनका हो गया जो खानदानी शिकारी हैं। न केवल पन्ना वल्कि बांधवगढ़ में भी इन्होंने अपने रिसोर्टों और वहां पदस्थ वन विभाग के अधिकारियों व पुलिस के माध्यम से अपना नियंत्रण और दबदबा स्थापित कर लिया है। कान्हा और पेंच में बिना एनओसी 15 रिसोर्ट कान्हा और पेंच नेशनल पार्क के आसपास बने रिसोर्ट के संचालक मोटी कमाई की लालच में पर्यावरण के साथ ही वन्य जीवों को भी नुकसान पहुंचा रहे रहे हैं। मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने नेशनल पार्को के आसपास नियम विरूद्ध संचालित 15 रिसोर्ट संचालकों को नोटिस दिए हैं। जबलपुर संभाग के तीन जिलों में पचास से अधिक रिसोर्ट संचालित हो रहे हैं। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार कान्हा और पेंच नेशनल पार्क की सीमा से लगे तीन जिलों में 64 रिसोर्ट संचालित हो रहे हैं। इनमें मंडला के 22, बालाघाट के 20 तथा सिवनी के 22 रिसोर्ट शामिल हैं। इनमें 15 रिसोर्ट संचालकों ने समय सीमा निकलने के बाद प्रदूषण बोर्ड से अनुमति ली नहीं है। वहीं मार्च 2014 में 11 रिसोर्ट की एनओसी समाप्त हो गई है। अब तक संचालकों नेे आवेदन नहीं किया है। वहीं 10 दस नए रिसोर्ट के लिए संचालकों ने एनओसी के लिए आवेदन दे रखा है। नेशनल पार्क के आस-पास रिसोर्ट खोलने से पहले प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से संचालन की अनुमति लेना अनिवार्य है। प्रदूषण बोर्ड द्वारा रिसोर्ट से निकलने वाले पानी और होने वाले ध्वनि प्रदूषण के लिए अनुमति लेनी होती है। क्षेत्रीय प्रबंधक मप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड एमएल पटेल कहते हैं कि कान्हा और पेंच नेशनल पार्क में 64 रिसोर्ट संचालित हैं। इसमें 15 की एनओसी समाप्त हो चुकी है। कारण बताओ नोटिस जारी किए गए हैं। जांच हुई तो बंद हो जाएंगे आधे से ज्यादा रिसॉर्ट वन्य प्राणी विशेषज्ञों का कहना है कि प्रदेश के अधिकांश पार्कों में जिन रिसोर्ट और होटल का संचालन किया जा रहा है, उनमें से अधिकांश अवैध हैं। इन पार्कों में वन विभाग के नियमों को ताक पर रखकर रिसोर्ट बनाने की परमिशन जारी की गई है। यदि सभी जगहों पर जांच हो तो आधे से ज्यादा रिसोर्ट बंद करने पड़ सकते हैं। बांधवगढ़ पार्क में 53 रिसोर्ट चल रहे हैं। यहां की ताला रेंज पार्क में एंट्री करने वाले गेट के नजदीक ही कई एकड़ों में रिसोर्ट बने हैं। 12 से 15 फीट चौड़ी कच्ची सड़क के एक तरफ पार्क और दूसरी तरफ रिसोर्र्ट को बनाया गया। रात के समय वन्यप्राणियों की चहल कदमी इतनी ज्यादा रहती है कि रिसोर्र्ट से भी देखी जा सकती है। इस सड़क पर दिन के समय तेंदुओं के पगमार्क (पंजों के निशान) रोजाना देखने मिलते हैं। टाइगर रिजर्व और नेशनल पार्क के लिए वन मंत्रालय की गठित कमेटी के नियमानुसार देश के 47 टाइगर रिजर्व की सीमा से 250 मीटर के अंदर कृषि के लिहाज से सिर्फ 12 गुणा 12 का कमरा वो भी सिंगल स्टोरी बनाया जा सकता है। लेकिन मध्य प्रदेश में नेशनल पार्कों की सीमा पर सैकड़ों रिसोर्ट खुले हैं। इन्हें अनुमति भी मिल गई। वन विभाग के सूत्रों ने बताया कि पन्ना को छोड़कर शेष पांच टाइगर रिजर्व में कोर एरिया का सीमांकन तो कर दिया गया लेकिन अभी तक 90 गांव अंदर हैं। इसके अलावा कान्हा में एक लॉज है, जिसे हटाने की कार्रवाई चल रही है। सतपुड़ा के कोर एरिया में पचमढ़ी आता है, जिसमें 200 होटल व 42 गांव हैं। मप्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी दे रखी है कि पचमढ़ी को कोर एरिया से बाहर किया जाए। एक टाइगर पर सालाना साढ़े ग्यारह लाख का खर्च मप्र में एक टाइगर का सालाना खर्च साढ़े ग्यारह लाख रुपए है, जबकि अन्य राज्यों में यह 8 लाख 80 हजार है। प्रति बाघ इतनी बड़ी रकम खर्च किए जाने के बाद भी बाघों का कुनबा बढ़ाने के अपेक्षित परिणाम नहीं मिले। बहरहाल,बदनामी हुई तो नए सिरे से प्रयास शुरु किए गए। नतीजतन, पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क एक बार फिर बाघों का बसेरा बन गया है। यहां साल 2009 तक बाघों की दहाड़ पूरी तरह से खामोश हो गई। 5 साल पहले पन्ना में दोबारा बाघों को बसाने का काम शुरू हुआ, आज वह रंग लाया। 26 दिसंबर 2009 को पेंच से एक बाघ टी-3 और कान्हा से दो बाघिन लाई गईं। आज स्थिति यह है कि पार्क में करीब दो दर्जन बाघों की दहाड़ सुनाई देती है। विश्व का यह पहला टाइगर रिजर्व पार्क है, जहां दोबारा बसाए गए बाघों संख्या में इतनी तेजी से वृद्धि हुई है। पेंच से लाए गए टी-3 बाघ को पन्ना टाइगर रिजर्व पार्क में मिस्टर पन्ना का खिताब दिया गया। पन्ना बाघ पुनस्र्थापना के इन सालों में 32 से अधिक शावकों का जन्म हुआ है। इन जन्में शावकों में 6 की मृत्यु हो गई। सात वयस्क होने के बाद पार्क से बाहर निकल गए। उल्लेखनीय है,कि वर्ष 1991 में पन्ना राष्ट्रीय उद्यान को पन्ना टाइगर रिजर्व घोषित किया गया था। उस समय बाघों की संख्या 40 थी। गांव वाले जंगल से बाहर, रिसॉर्ट वाले अंदर बांधवगढ़ नेशनल पार्क से लेकर प्रदेश के सभी 6 टाइगर रिजर्व के भीतर बसे गांवों के लोगों को जंगल से बाहर किया जा रहा है। यह सही भी है क्योंकि लोगों के रहने से जंगली जानवरों के लिए वातावरण मुफीद नहीं रहता। पर गांव वालों को यह बात समझ नहीं आ रही कि आखिर बड़े-बड़े रिसोर्ट पार्क से सटकर कैसे बनाए जा रहे हैं। इस बारे में आला अधिकारी भी खामोश हैं। बांधवगढ़ की ताला रेंज गेट के ठीक पहले एक रास्ता तमाम रिसोर्ट की तरफ जाता है। इस रास्ते पर अपने मवेशी चरा रहे एक बुजुर्ग ने बताया कि रिसोर्ट के लिए जमीन बहुत महंगी बेची जा रही है। एक एकड़ जमीन की कीमत 15 से 20 लाख रुपए हो चुकी है। गांव वालों के अलावा रिसोर्ट के कुछ कर्मचारी मिले। उनसे पूछा कि टाइगर या तेंदुआ यहां आता है, तो उनका कहना था कि ये रात में तो कई बार रिसोर्ट गेट तक आ जाते हैं। उनकी ये बात सच इसलिए निकली क्योंकि रास्ते में हमें तेंदुए के पगमार्क देखने मिले। वन विभाग के नियमों में यह बात तो साफ की जा चुकी है कि वन सीमा से 300 मीटर के दायरे में किसी तरह का निर्माण नहीं किया जा सकता। यदि निर्माण होगा भी तो सिर्फ झोपड़ी या घास-फूस का उपयोग किया जाएगा। लेकिन बांधवगढ़ पार्क की सीमा से सटे रिसोर्र्ट बमुश्किल 100 मीटर के दायरे में देखे जा सकते हैं। ये तो सामान्य वनों के लिए नियम बना हुआ है। लेकिन टाइगर रिजर्व के लिए अलग से नियम-कायदे बनाए गए हैं। बांधवगढ़ पार्क से बढ़ी उम्मीदें बांधवगढ़ पार्क में बाघों का कुनबा तेजी से बढ़ा रहा है। पिछले चार साल में इनकी संख्या करीब दोगुनी हो गई। जिस रफ्तार से बाघों की संख्या बढ़ी। उससे पार्क प्रबंधन के पास इन्हें रखने की जगह की कमी हो गई। बताया जाता है, कि बाघों की आबादी की तुलना में पार्क में समुचित जगह नहीं होने से क्षेत्ररक्षा को लेकर बाघ आपस में लड़कर घायल हो रहे हैं। गत दिनों डेढ़ साल के बाघ की मौत इसका ही परिणाम है। बढ़ते कुनबे से हालात बुरे हो रहे हैं। आए दिन एक न एक बाघ घायल नजर आ रहा है। क्षेत्ररक्षा और अन्य कारणों से बाघों में हो रही लड़ाई के नजीते गंभीर हैं। हालाकि प्रबंधन भी इस बात को स्वीकार करता हैं। एक्सपर्ट के मुताबिक पिछले कुछ माह में बाघों के घायल होने की संख्या बढ़ी है। कुछ दिन पहले मारे गए बाघ के सिर और पैर पर लगी चोटें भी आपसी द्वंद्व का नजीता है। नतीजतन, पार्क प्रबंधन प्रबंधन के इन्हें अन्य पार्को में शिफ्ट करने पर विचार करना पड़ा। बाघों के बढ़ते कुनबे को देखते हुए पार्क प्रबंधन ने पिछले साल बफर जोन का एरिया बढ़ाया था। इससे पहले पार्क के पास कुल 71 हजार हेक्टेयर एरिया था और तीन रेंज को अपनी सीमा में लेने के बाद उसके पास डेढ़ लाख हेक्टेयर क्षेत्र आ गया है। कोर के अंदर अभी भी 12 गांव हैं, जिनके विस्थापन को लेकर भी प्रयास किए जा रहे हैं। ज्ञात हो,कि बांधवगढ़ पार्क में वर्ष 2010 में बाघों की गिनती में यहां 56 से 70 बाघ होने का अनुमान था। यह संख्या अब 90 तक पहुंच गई है। हालिया रिपोर्ट को लेकर अधिकारियों का दावा है, कि अभी प्रदेश के पांच टाइगर रिजर्व की गिनती में 51 बाघ बढ़े हैं। इधर, रातापानी अभयारण्य में बाघों की संख्या इतनी अधिक हो गई है कि वे अपने लिए जगह खोज रहे हैं। उनके लिए भोजन-पानी भी कम हो गया है। इसीलिए वे कुछ दिनों से राजधानी से करीब 8 किलोमीटर दूर केरवा क्षेत्र में आ जा रहे हैं। लेकिन यह अचानक नहीं है। अभयारण्य का एरिया बढ़ाकर केरवा-कलियासोत तक लाने का प्रस्ताव ठंडे बस्ते में है। दरअसल,रातापानी सेंचुरी को टाइगर रिजर्व में तब्दील करने पर राज्य सरकार सहमत नहीं है। सरकार ने हाईकोर्ट में विचाराधीन याचिका का जवाब देते हुए कहा है कि ऐसा करने में कई गांवों का विस्थापन करना होगा। जबकि राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) पहले ही रातापानी को अभयारण्य में तब्दील करने पर अपनी सैद्धांतिक सहमति दे चुका है। इस पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने जनवरी 2011 में यूपीए सरकार के तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री जयराम रमेश को पत्र लिखकर कड़ी आपत्ति जताई थी। उन्होंने कहा था कि मप्र टाइगर स्टेट है, इसलिए वे बाघों के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध हैं। लेकिन वे रातापानी को टाइगर रिजर्व घोषित कर वहां बसे ग्रामीणों को विस्थापित करने के पक्ष में नहीं हैं। वहीं जानकारों का मानना है, कि एनटीसीए की राय को अमल में लाकर उक्त समस्या से बचा जा सकता है। जबकि, वन्य प्राणी मुख्यालय के तत्कालीन पीसीसीएफ पीबी गंगोपाध्याय ने ही रातापानी को अभयारण्य बनाने का प्रस्तावा एनटीसीए को भेजा था। इसके आधार पर ही एनटीसीए ने उक्त सहमति प्रदान की थी। बताया जाता है, कि गंगोपाध्याय तब एनटीसीए के सदस्य भी थे। रातापानी को अभयारण्य नहीं बनाने के पीछे सरकार का तर्क है, कि गंगोपाध्याय ने राज्य सरकार की सहमति के बगैर अपने स्तर पर निर्णय लिया था। राज्य के सक्षम प्राधिकारी मुख्य सचिव और मुख्यमंत्री की ओर से प्रस्ताव नहीं गया। इसलिए एनटीसीए के इस प्रस्ताव को राज्य सरकार मानने से इंकार कर रही है। वैसे, यह लगभग हर टाइगर रिजर्व की दिक्कत है। रातापानी अभयारण्य 985 वर्ग किलोमीटर में फैला है। यहां बाघों की संख्या 25 से 28 हो गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक, बाघ की टेरेटरी 30 वर्ग किलोमीटर और होम रेंज 50 से 100 वर्ग किलोमीटर की होती है। एक बाघ हफ्ते में औसत दो जानवरों का शिकार करता है। लेकिन यहां उन जानवरों की संख्या कम हो गई है जिनका वे शिकार कर सकते हैं। ऐसे जानवरों की संख्या यहां लगभग 2500 है। इस फॉरेस्ट रिजर्व से निकलने वाली कोलार और एक अन्य नदी का पानी नवंबर माह में सूख जाता है। तब बाघों को पानी के लिए कोसों दूर जाना पड़ता है। रातापानी के दूसरी ओर नर्मदा और खुले मैदान बाघ को जाने से रोकते हैं। वाइल्ड लाइफ नियमों के मुताबिक, जानवरों को हर पांच किलोमीटर पर पानी मिलना चाहिए। यह न मिलने के कारण वे केरवा की तरफ जब-तब आ जा रहे हैं। केरवा और कलियासोत में पानी और भोजन का भरपूर स्रोत है। यहां चार किलोमीटर के अंतर से दो नदियां केरवा और कलियासोत हैं। कठोतिया की ओर से आने वाले नाले में भी पानी रहता है। इस साल बारिश ज्यादा हुई है, इसका फायदा भी जानवरों को हो रहा है। दोनों नदियों की धारा तो टूट गई है लेकिन जहां-तहां पानी भरा है। वहीं वन विभाग ने पांच पोखर तैयार किए हैं जिनमें पानी डाला जा रहा है। यहां शाकाहारी और मांसाहारी जानवरों की संख्या भी पर्याप्त है। एक साल पहले क्षेत्र में लगाए गए नाइट विजन कैमरों में बाघ, तेंदुआ, रीछ, जंगली बिल्ली, लकड़बग्घा, नीलगाय, जंगली कुत्ता, मोर, खरगोश-जैसे जानवर देखे गए हैं। हकीकत यह है कि प्रदेश में न तो स्पेशल टाइगर प्रोटेक्शन फोर्स (एसटीपीएफ) का गठन हो पाया है और न ही बाघ बहुल इलाकों में कोई और सुरक्षा व्यवस्था है। इसी का नतीजा है कि पिछले चार वर्षों में प्रदेश में 14 बाघ शिकारियों का निशाना बने। जंगलों में अतिक्रमण, प्रोटेक्शन फोर्स न होने के बावजूद बाघों की संख्या बढ़ी है तो यह केवल किस्मत है। प्रदेश सरकार या वन महकमा बाघों के प्रति कतई गंभीर नहीं है। टाइगर के बाद अब पैंथर भी गायब प्रदेश में इस साल जनवरी में हुई वन्य प्राणियों की गणना में जो तथ्य सामने आए हैं वह चौकाने वाले हैं। अभयारण्यों में बाघों की संख्या तो बढ़ी है, लेकिन तेंदुए (पैंथर) की संख्या में बेतहाशा कमी दर्ज की गई। इसके पीछे मुख्य वजह इनका शिकार होना बताया जाता है। प्रदेश में पिछले डेढ़ दशक में करीब 362 पैंथर का शिकार किए जाने का संकेत मिला है। वन विभाग के तीन दशक पूर्व के आंकड़ों पर यदि नजर दौड़ाई जाए तो वर्ष 1990 तक प्रदेश में बाघ का राज्य कायम रहा। बाघ की बादशाहत खत्म होने के बाद तेंदुओं की संख्या में जबरदस्त इजाफा हुआ और बाघ के बाद तेंदुओं ने जंगल की कमान सम्हाल ली। वर्ष 2008- 2009 में की गई वन्य प्राणियों की गणना में 912 तेंदुए पाए गए थे। 2011 के आंकड़ों के अनुसार मध्य प्रदेश 1,010 तेंदुए थे। मध्यप्रदेश छहों टाइगर पार्क कान्हा किसली राष्ट्रीय उद्यान, बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान, सतपुड़ा राष्ट्रीय उद्यान, पेंच राष्ट्रीय उद्यान, पन्ना राष्ट्रीय उद्यान एवं संजय राष्ट्रीय उद्यान के अलावा प्रदेश के अन्य वन क्षेत्रों में बाघ, तेंदुआ, चीतल, सांभर, गौर, जंगली सुअर, भालू, काला हिरण, उडऩ गिलहरी, मूषक मृग, नील गाय, चिंकारा, जंगली कुत्ता इत्यादि बहुतायत में पाए जाते थे। लेकिन जनवरी में हुई वन्य प्राणियों की गणना में तेंदुओं के पगमार्क और मल आदि ऐसे कम चिन्ह नहीं मिले हैं जो तेंदुओं की मौजूदगी का अहसास करा रहे हों। संचालक बांधवगढ़ क्षेत्र सुधीर कुमार कहते हैं कि तेंदुओं की असली संख्या वाइल्ड लाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया की रिपोर्ट के बाद ही बताया जा सकता है। हर माह दो तेंदुओं की मौत मध्यप्रदेश के वनों से बाघ की घटती संख्या से चिंतित सरकार को अब तेंदुए की कम होती संख्या ने परेशानी में डाल दिया है। प्रदेश में हर माह औसत दो तेंदुओं की मौत हो रही है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष-2002 से लेकर 2012 तक के दस सालों में मध्यप्रदेश में 155 तेंदुओं की मृत्यु रिकॉर्ड की गई, जिनमें से 98 अवैध शिकार के खाते में गए। केवल 2011 में 43 तेंदुए मरे, जिनमें से 21 तस्कर-शिकार के घाट उतर गए। वन्यजीव विज्ञानी विद्या आत्रेय कहती हैं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तेंदुओं की खाल और हड्डियों की भारी मांग है। चीन में बाघ की हड्डियों का इस्तेमाल पारंपरिक दवाइयों में किया जाता है। इस समय बाघ संरक्षित जीव हैं, इसलिए इसकी हड्डियों को पाना काफी मुश्किल है। दूसरी तरफ, तेंदुआ आसानी से उपलब्ध हो जाता है। तेंदुए और बाघ की हड्डियों में अंतर बता पाना काफी मुश्किल होता है। अंतर सिर्फ इतना है कि तेंदुए की हड्डियां छोटी होती हैं, इसलिए अवैध शिकारी इन्हें बाघ के शावक की हड्डियां कहकर बेचते हैं। डब्ल्यूपीएसआई के मुताबिक वर्ष 2010 में अवैध शिकार के चलते देश में 180 तेंदुओं की मौत हुई थी। डब्ल्यूपीएसआई के मुख्य परिचालन अधिकारी टीटो जोसफ कहते हैं कि इंसान के साथ हुए संघर्ष के बाद हुई मौतों के आंकड़े को भी जोड़ लें तो यह संख्या 328 तक पहुंच जाती है। इस साल के पहले 6 महीनों में अभी तक अवैध शिकार के चलते 79 मौत हो चुकी हैं, जबकि आबादी में घुसने के कारण 90 तेंदुओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। दुर्भाग्य से सरकार को इनकी कोई फिक्र नहीं है। वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 की अनुसूची-1 के तहत तेंदुआ एक संरक्षित प्राणी है। इसके बावजूद बाघों की तुलना में सरकार ने तेंदुओं के संरक्षण के लिए कोई कार्यक्रम तैयार नहीं किया है। डीएसपी मेरिल लिंच के पूर्व चेयरमैन और अब वाइल्डलाइफ कंजरवेशन ट्रस्ट चला रहे हेमेंद्र कोठारी कहते हैं, हम पहले से ही बाघ परियोजना चला रहे हैं। तेंदुओं की सुरक्षा के लिए भी यही सिद्धांत अपनाया जाना चाहिए। एक अलग परियोजना के बजाय हमें जंगलों को संरक्षित करने की जरूरत है। तेंदुओं का लगातार मारा जाना चिंता का विषय है लेकिन सरकार के पास देश में कुल तेंदुओं से संबंधित कोई आंकड़ा नहीं है। बाघों की गणना के लिए राष्ट्रीय स्तर पर हर 4 साल में अभियान चलाया जाता है, लेकिन तेंदुओं की गणना के लिए ऐसा कुछ नहीं किया जाता है। डब्ल्यूपीएसआई के मुताबिक बीते 10 साल में 1 बाघ की तुलना में 6 तेंदुओं का अवैध शिकार हो रहा है। इसके बावजूद तेंदुओं की अनदेखी हो रही है। मप्र सरकार तेंदुओं के संरक्षण को लेकर कितना सतर्क है उसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि मप्र की विभिन्न अदालतों में बाघ के शिकार के 53 मामले और तेंदुए के शिकार के 160 मामले करीब चार दशकों से लंबित हैं। फैसले के लिए लंबित इन मामलों में 20 प्रकरण मप्र के विभिन्न टाइगर रिजर्व में बाघों के अवैध शिकार के हैं। तेंदुए के शिकार का सबसे पुराना प्रकरण 40 वर्ष पूर्व नौ जुलाई 1973 को प्रदेश के शिवपुरी जिले में दर्ज किया गया था, जो अब तक निर्णय के लिए अदालत में लंबित है। प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले में 39 वर्ष पूर्व 14 फरवरी 1975 से एक और तेंदुए के शिकार का मामला अदालत में अब तक चल रहा है। जंगलों से महानगरों तक तस्करी वन विभाग भी स्वीकारता है कि तमाम कोशिशों के बाद भी जानवरों की तस्करी नहीं रूक पा रही है। वन्य जीवों की तस्करी करना अपराध है। इसके लिए 'वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के तहत तीन साल की सजा और 25 हजार रुपए जुर्माने का प्रावधान है। किसी भी तरह के जंगली जानवर जैसे कछुआ, उल्लू, चमगादड़, सांप, शेर, तेंदुआ, भालू आदि को पकडऩा या खरीदना-बेचना गैरकानूनी है। सख्त कानून के बाद भी इनमें से कई को पकड़कर बेचा जा रहा है तो कई को मारकर तस्करी की जा रही है। इसके कारण दोमुंहा सांप, उल्लू और चमगादड़ की कुछ प्रजातियां, पानी के कछुए की प्रजाति विलुप्त होने की स्थिति में है। यूं तो सरकार विलुप्त होते जा रहे प्राणियों को बचाने की बात करती है, लेकिन इस तरह लगातार हो रहे शिकार और प्राणियों की तस्करी को रोकने के लिए कोई सख्त कदम नहीं उठाया जा रहा। अंधविश्वास सबसे बड़ा कारण वन विभाग के मुताबिक कई जानवरों के शिकार और तस्करी के पीछे सबसे बड़ा कारण उनसे जुड़ा अंधविश्वास है। इसके चलते लोग कछुआ, तेंदुए के नाखून, शेर की खाल, बाल और हड्डियां, चमगादड़ की चमड़ी, सांप की कैंचुली, सेही और गोह के बाल आदि की मांग करते हैं। इनकी मांग को पूरा करने के लिए शिकारी जाल बिछाते हैं और निर्दोष प्राणियों को या तो जीवित पकड़ते हैं या मौत के घाट उतार देते हैं। इसके अलावा कुछ प्राणियों के मांस, खून और हड्डियों का उपयोग दवाई बनाने के लिए भी किया जाता है। इस तरह बनाई गई दवाइयों का कितना असर होता है यह कोई नहीं जानता, लेकिन अंधविश्वास के चलते प्रयोग जरूर किया जाता है। इसलिए होता है शिकार शेर, तेंदुआ : कई लोग पैसे के लिए शेर और तेंदुए जैसे खूंखार प्राणियों का शिकार करने को भी तैयार हो जाते हैं। बाल, खाल, आंखें, नाखून आदि के लिए इन्हें मार दिया जाता है। कहा जाता है कि इनकी हड्डियों से पाउडर भी बनाया जाता है। जिससे कई तरह की बीमारियों का इलाज होता है। भालू : भालू का शिकार मूल रूप से खाल, दांत और नाखून के लिए किया जाता है। भालू के नाखून से कई तरह की तंत्रविद्या को अंजाम दिया जाता है। दो मुंहा सांप : इसका शिकार नहीं करते हुए जिंदा पकड़ा जाता है। इसे घर में रखने से खजाने का पता मिलता है और साथ ही एक समय के बाद यह मणि उगलता है, इसलिए शिकारी इसे पकड़कर बेच देते हैं। सेही और गोह : इनका शिकार बालों के लिए होता है। इनके बालों का उपयोग तंत्र क्रिया के लिए किया जाता है। कुछ लोग जिंदा प्राणी के बाल काटकर उन्हें छोड़ देते हैं जबकि कुछ इन्हें मारकर ही यह काम करते हैं। चमगादड़ : इसका शिकार इसे जलाने के लिए किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि चमगादड़ को जलाकर इसकी चमड़ी से काजल बनाया जाता है और उसे आंखों में लगाने से आंखें लंबी उम्र तक सेहतमंद बनी रहती हैं। काला हिरण और चितल : अमूमन ये प्राणी घातक नहीं होने और न ही इनका शरीर बहुंत महंगी कीमत में बिकता है, लेकिन इनके मांस का उपयोग तंत्र क्रिया में किया जाता है। इसलिए इनका शिकार करवाया जाता है। क्षेत्रफल सबसे बड़ा, अमला सबसे छोटा मध्यप्रदेश में 94 हजार वर्ग किमी में वन फैले हुए हैं। इसी क्षेत्रफल के दायरे में 10 नेशनल पार्क तथा 25 अभयारण्य भी आते हैं, लेकिन वन विभाग का सबसे ज्यादा ध्यान टाइगर रिजर्व पार्क कान्हा, पन्ना, पेंच, बांधवगढ़ तथा सतपुड़ा नेशनल पार्क पर रहता है। इसके बाव

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