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भेड़ाघाट

Friday, May 15, 2015

2800 करोड़ स्वाहा न बिजली मिली, न पानी

465 करोड़ की योजना पहुंची 4000 करोड़
कर्ज नहीं मिलने से महेश्वर बिजली परियोजना बंद
भोपाल। मध्यप्रदेश सरकार ने जिन परियोजनाओं के बलबुते वर्ष 2013 से प्रदेश में 24 घंटे विद्युत का प्रदाय की घोषणा की थी उसमें से एक है 400 मेगावॉट की महेश्वर जल विद्युत (हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट) परियोजना। करीब 30 साल में अब तक 4 निर्माण एजेंसियां बदल गई और 2760 करोड़ रूपए खर्च हुए लेकिन अभी तक न तो बिजली का उत्पादन शुरू हो सका और न ही खेतों को पानी मिल रहा। आलम यह है कि परियोजना की लागत बढऩे और इसमें हो रहे घपले-घोटाले की वजह से परियोजना को कर्ज भी नहीं मिल रहा है। इसलिए यह परियोजना अधर में लटकी हुई है। उधर, इस परियोजना के अटकने के लिए राज्य सरकार यूपीए सरकार को दोषी मानती है। मध्यप्रदेश में वर्तमान में, 81.50 लाख हेक्टेयर मीटर औसत सतह पानी उपलब्ध है, जिसमें दस प्रमुख नदी-घाटियां योगदान देती है। इनमें उत्तर घाटियों में चंबल, बेतवा, सिंध, और केन, पूर्व में सोन और टोन्स, दक्षिण में नर्मदा और बेनगंगा और मध्य तथा पश्चिम में माही और ताप्ती नदी की घाटियां शामिल है। इसके अलावा, राज्य में 34.50 लाख हेक्टेयर मीटर भूगर्भ जल उपलब्ध है। इस प्रकार, राज्य में पानी की कुल उपलब्धता 116 लाख हेक्टेयर मीटर है, जो 113 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई अच्छी तरह कर सकती है। लेकिन विसंगति यह है की इन नदियों के पानी से बिजली बनाने की जितनी भी परियोजनाएं सरकार ने शुरू किया है वे विवादों में फंसती रही हैं। महेश्वर जलविद्युत परियोजना भी इसी में से एक है। उल्लेखनीय है कि महेश्वर जलविद्युत परियोजना, ओंकारेश्वर बहुउद्देशीय परियोजना से लगभग 40 किमी दूर खरगोन जिले में मंडलेश्वर के निकट नर्मदा नदी पर स्थित है। इस परियोजना के अन्तर्गत 35 मीटर ऊंचाई एवं 10475 मीटर लम्बा कांक्रीट बांध बनाया जाना है। दांए किनारे पर स्थित तटबंध सहित इसके उत्प्लाव की लम्बाई क्रमश: 1554 मीटर एवं 492 मीटर है एवं दांए तट पर 400 मेगावॉट की विद्युत क्षमता (40 मेगावॉट विद्युत क्षमता की 10 यूनिटें) का जल विद्युत गृह बनाना प्रस्तावित है। परियोजना के लिए जनवरी, 1994 में भारत-सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की स्वीकृति तथा केन्द्रीय विद्युत परियोजना की तकनीकी आर्थिक स्वीकृति प्राप्त कर लिए जाने के पश्चात इस परियोजना को पूर्ण किए जाने के कार्य श्री महेश्वर जलविद्युत निगम लिमिटेड नामक निजी कम्पनी को सौंप दिए गए। इसके लिए नवम्बर, 1994 में मध्य प्रदेश विद्युत मण्डल द्वारा एक विद्युत क्रय समझौते पर हस्ताक्षर किए गए। दिसम्बर, 1996 में परियोजना के पूर्व की प्राक्कलन राशि रू 465.63 करोड़ को संशोधित कर रू 1569 करोड़ आंकी गई है। वर्ष 2006 के मूल्य स्तर पर किए मूल्यांकन पर परियोजना की कुल लागत रू 2760 करोड़ आंकी गई थी, जो अब अब बढ़कर करीब 4,000 करोड़ पहुंच गई है। कंपनियां आती रही और लूट मचाती रहीं मप्र की इस बहुप्रतिक्षित योजना को कंपनियों ने सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर कमाई का जरिया बना लिया है। आलम यह रहा कि बांध को बनाने के लिए कंपनियां आती रही और निमार्ण की आड़ में लुट मचाती रहीं। जिसका परिणाम यह हुआ की 30 साल बाद भी परियोजना तो पूरी नहीं हुई लेकिन उसकी लागत दस गुना बढ़ गई। उल्लेखनीय है कि वर्ष 1997 में निविदा के माध्यम से बांध एवं विद्युत गृह से संबंधित निर्माण कार्य रू 275.62 कऱोड़ की लागत पर मेसर्स एसईड़ब्ल्यू कन्स्ट्रक्शन लिमिटेड को आवंटित किए गए थे। परियोजना के कार्य श्री महेश्वर जलविद्युत निगत लिमिटेड द्वारा लिए जाने के पश्चात बांध एवं विद्युत गृह के निर्माण कार्य आरम्भ कर दिए गए थे। परन्तु अगस्त, 2001 से उक्त कार्य स्थगित कर दिए गए थे। वर्ष 2005 में वित्तीय संस्थान के साथ वित्तीय सहबद्धता पूर्ण कर लेने के पश्चात महेश्वर परियोजना के कार्य नवम्बर, 2005 से पुन: आरम्भ कर दिए गए। पीएफसीआरईसी तथा हुड़को के साथ संयुक्त ऋण समझौता कर हस्ताक्षर कर लिए जाने के पश्चात 29 सितम्बर, 2006 को परियोजना का वित्तीय समापन कर लिया गया था। वित्तीय समापन प्राप्त कर लिए जाने के पश्चात दिनांक 29 सितम्बर, 2006 को परियोजना का वित्तीय समापन कर लिया गया था। वित्तीय समापन प्राप्त कर लिए जाने के पश्चात दिसम्बर, 2006 में 400 करोड़ के पूर्णत: परिवर्तनीय ऋण पत्र लाए गए मार्च, 2009 तक बांध एवं विद्युत गृह खण्ड में 17401 लाख घन मीटर खुदाई के कार्य तथा 7815 लाख घनमीटर कांक्रीटिंग के कार्य पूर्ण कर लिए गए थे । मार्च, 2009 तक उत्प्लाव (स्पिलवे) के सभी 30 खण्डों में भी कांक्रीटिंग में कार्य किए जा रहे थे तथा लगभग 955 प्रतिशत कांक्रीटिंग के कार्य पूर्ण कर लिए गए तथा विद्युत ऊर्जा बांध (पॉवर डेम) के 10 खण्डों में भी कांक्रीटिंग के कार्य आरम्भ कर दिए गए तथा मार्च, 2009 तक 939 प्रतिशत कांक्रीटिंग के कार्य पूर्ण कर लिए गए थे । मार्च, 2009 तक इस परियोजना पर रू 2002.79 कऱोड़ व्यय किए जा चुके हैं, जिनमें से वर्ष 2008-09 के दौरान रू 601.97 कऱोड़ व्यय हुए। आलम यह है कि अभी तक तीन निमार्ण कंपनी बदलने के बाद भी1985 से निर्माणाधीन महेश्वर जल विद्युत बांध परियोजना 30 साल में भी पूरी नहीं हो सकी है। सौ फीसदी पुनर्वास भी अब तक नहीं हुआ है। उधर, बांध की लागत 465 करोड़ रुपए से करीब 9 गुना बढ़कर 4 हजार करोड़ रुपए पर पहुंच गई है। परियोजना पर अब तक लगभग 2760 करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं, लेकिन परियोजना बिजली में कब बिजली उत्पादित होगी किसी को पता नहीं है। निकट भविष्य में विद्युत उत्पादन के आसार भी नहीं हैं। इधर आठ माह से परियोजना में कार्यरत सौ कर्मचारियों को वेतन तक नहीं मिल पाया है। परियोजना के लिए सरकार की दलील के बाद ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 154 मीटर जलभराव के लिए अनुमति दी। गत वर्ष तीन माह के अंदर तीन टरबाइन से 40 मेगावॉट बिजली उत्पादन ट्रायल बेस पर करने की अनुमति भी मिली। बार-बार काम बंद यह परियोजना शुरू से ही विवादों में रही है और अभी भी इसका विवादों से पीछा नहीं छूटा है। यह परियोजना पहले एनवीडीए फिर एमपीईबी उसके बाद एस कुमार्स और अब पॉवर फाइनेंस कार्पोरेशन के हवाले है। 1993 में मप्र सरकार द्वारा निजीकरण लागू किए जाने के बाद यह परियोजना एस कुमार्स के हाथों में पहुंची। 1996-97 में एमओयू साइन होने के बाद काम शुरू हुआ, परंतु 2001 से 2006 और फिर 2011 से अब तक काम बंद है। प्रदेश में बिजली संकट दूर करने के लिए शुरू की गई 400 मेगावॉट की महेश्वर जल विद्युत परियोजना बंद पड़ी है। इसके पीछे कारण 2001 से रूपयों की तंगी बताई जा रही है। कर्ज नहीं मिलने से बंद पड़ी परियोजना को चालू करने के लिए न तो केंद्र सरकार कोई कदम बढ़ा रही न राज्य सरकार। ऋणदाता समूहों द्वारा वित्तीय सहायता रोक देने से जहां परियोजना बंद पड़ी है, वहीं करोड़ों रूपए की मशीनों का मेंटेनेंस भी नहीं हो पा रहा है। सालभर से 250 कर्मचारी अपनी पगार के लिए इधर-उधर भटक रहे हैं। बारिश के चलते मशीनों के जलमग्न होने के साथ जनहानि का अंदेशा अलग बढ़ गया है। परियोजना कार्य में लगे कर्मचारियों का कहना है कि परियोजना बंद होने से जनता का पैसा बर्बाद होगा ही हजारों परिवारों को आर्थिक तंगी झेलनी पड़ेगी। साल 2001 में धनाभाव में परियोजना का निर्माण कार्य पूरी तरह से ठप हो गया। साल 2005 में प्रमुख ऋणदाता पॉवर फाइनेंस कॉर्पोरेशन की अगुवाई में अन्य ऋणदाताओं के समूहों, राज्य सरकार के संयुक्त प्रयासों से निर्माण फिर से शुरू हुआ। साल 2011 तक काम चला। इस दौरान काम लगभग पूर्णता तक पहुंचाने वाला था कि कर्जा नहीं मिलने से काम फिर अटक गया। 2005 से 2011 तक के बीच 10 में से 3 टर्बाइन स्थापित होकर बिजली उत्पादन के लिए तैयार हो गए। वर्तमान में इन तीनों टर्बाइनों से 120 मेगावॉट बिजली उत्पादन किया जा सकता है, लेकिन जिम्मेदार अफसरों का इस ओर ध्यान ही नहीं है। नतीजा, पूरी परियोजना बंद पड़ी है। परियोजना के पॉवर हाउस, सब स्टेशन, स्पील-वे और पॉवर डैम आदि जगहों पर लगी करोड़ों रूपए की मशीनों का मेंटेनेंस नहीं होने से उनके खराब होने की आशंका है। एस कुमार्स ने सबसे अधिक किया नुकसान राहत और पुनर्वास में हुई देरी के साथ-साथ वित्तीय अनियमितताओं से घिरी इस परियोजना को सबसे अधिक एस कुमार्स ने नुकसान पहुंचाया है। इसके पीछे मुख्य वजह है इस परियोजना की निर्मात्री कंपनी एस कुमार्स की नीयत। उल्लेखनीय है कि खरगौन जिले में बन रही महेश्वर जल विद्युत परियोजना निजीकरण के तहत कपड़ा बनाने वाली कम्पनी एस. कुमार्स को दी गई थी। 1986 में केन्द्र एवं राज्य से मंजूर होने वाली महेश्वर परियोजना को शुरू में लाभकारी माना गया था और उसकी लागत महज 465 करोड़ रुपए़ ही थी जो अब बढ़कर 4,000 करोड़ हो गई है। सरकार ने बाद में 1992 में इस परियोजना को एस कुमार्स नामक व्यावसायिक घराने को सौंप दिया। उसी समय से यह कंपनी परियोजना से खिलवाड़ करती रही। बावजूद इसके एस कुमार्स समूह पर राज्य सरकार फिदा रहा। मध्यप्रदेश राज्य औद्योगिक विकास निगम के करोड़ों के कर्ज में डिफाल्टर होने के बावजूद सरकार ने महेश्वर हाइडल पॉवर प्रोजेक्ट के लिए पॉवर फाइनेंस कार्पोरेशन के पक्ष में कंपनी की ओर से सशर्त काउंटर गारंटी दी गई और बाद में इसे शिथिल करवा कर सरकार की गारंटी भी ले ली गई। उसने इंटर कारपोरेट डिपाजिट (आईसीडी) स्कीम का कर्ज भी नहीं चुकाया। यह मामला मप्र विधानसभा में भी उठ चुका है। राज्य शासन ने एस कुमार गु्रप को इंटर कारपोरेट डिपाजिट के तहत दिए गए 84 करोड़ रूपए बकाया होने के बावजूद महेश्वर पॉवर प्रोजेक्ट के लिए 210 करोड़ रूपए की गारंटी क्यों दी थी। महेश्वर पॉवर कार्पोरेशन ने चार सौ करोड़ रूपए के ओएफसीडी बाण्ड्स जारी करने के लिए कंपनी के पक्ष में पीएफसी की डिफाल्ट गारंटी के लिए काउंटर गारंटी देने का अनुरोध सरकार से किया गया था। तीस जून 2005 को सरकार ने कंपनी के प्रस्ताव का सशर्त अनुमोदन कर दिया। इसमें शर्त यह थी कि गारंटी डीड का निष्पादन बकाया राशि के पूर्ण भुगतान का प्रमाण-पत्र प्राप्त होने के पश्चात ही किया जाए। 13 सितम्बर 2005 को इस शर्त को शिथिल करते हुए सरकार ने केवल समझौता आधार पर ही मान्य करने का अनुमोदन कर दिया। इस समझौता योजना के तहत एमपीएसआईडीसी ने 23 सितम्बर 2005 को सूचना दी कि समझौता होने से विवाद का निपटारा हो गया है। बस इसी आधार पर महेश्वर हाईड्रल पॉवर कारपोरेशन ने काउंटर गारंटी का निष्पादन कर दिया। अनुमोदन के बाद एस कुमार्स की एक मुश्त समझौता नीति के अंतर्गत समझौते की शर्र्तो में संशोधन किया गया था, जिनका न पालन और न ही पूर्ण राशि का भुगतान किया गया। एकमुश्त समझौते के उल्लघंन के बाद एस कुमार्स ने दुबारा एकमुश्त समझौते के लिए आवेदन किया गया। उल्लेखनीय है कि आईसीडी के 85 करोड़ के कर्ज के एकमुश्त समझौता योजना के तहत भुगतान के लिए 77 करोड़ 37 लाख रूपए एस कुमार्स को चुकाना थे। इसमें से कंपनी ने 22 करोड़ 9 लाख रुपए चुकाए। शेष राशि के चेक बाउंस हो गए। इसके लिए न्यायालय में प्रकरण चल रहा है। इस संबंध में प्रदेश सरकार द्वारा विधानसभा में जानकारी दी गई है कि एस कुमार्स के साथ एमपीएसआईडीसी के विवाद का निपटारा हो गया है जबकि अभी विवाद बरकरार है। विभागीय अधिकारी बताते हैं कि एमपीएसआईडीसी के साथ एस कुमार्स ने समझौता किया था, जिसके अनुरूप भुगतान नहीं हुआ। साठ करोड़ से अधिक की राशि की वसूली बाकी है। चेक बाउंस का मामला भी कोर्ट में है। नर्मदा बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक अग्रवाल बताते हैं कि 2005 में हमने महेश्वर विद्युत परियोजना को फौरन रद्द करने की मांग की थी। हमने रिजर्व बैंक से कहा था कि वह महेश्वर परियोजना के हालात की जांच सीबीआई से कराए। आंदोलन ने राज्य सरकार द्वारा महेश्वर परियोजना को गारंटी देने और औद्योगिक विकास निगम की बकाया राशि की वसूली में छूट देने को गलत बताया है। आंदोलन का कहना है कि जिस संस्था पर धन बकाया होने की वजह से उसकी संपत्ति कुर्क हुई हो, उसको वसूली में छूट देना गैर कानूनी है। अग्रवाल ने बताया कि राज्य सरकार ने परियोजना कर्ताओं को यह छूट दे दी है कि वे मय ब्याज 2009 तक पैसा वापस करें। परियोजना कर्ताओं द्वारा सार्वजनिक धन की बर्बादी के सबूतों के बाद भी सरकार का यह कदम राज्य को बर्बादी की ओर ढकेलने वाला है। सीएजी सहित कई संस्थाएं इस परियोजना से जुड़ी कम्पनी को कटघरे में खड़ा कर चुकी हैं। आंदोलन का कहना है कि देश के बड़े उद्योगों द्वारा बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के 80 हजार करोड़ से भी अधिक की सार्वजनिक पूंजी डुबा दी गई है। भारतीय रिजर्व बैंक के आदेश के मुताबिक 25 लाख रुपए से अधिक के बकायेदार को कोई भी बैंक या वित्तीय संस्था और धन नहीं दे सकती है। बकाया राशि के एक करोड़ रुपए से अधिक होने पर रिजर्व बैंक इसकी सूचना सीबीआई को देती है और सीबीआई मामला दर्ज कर कार्रवाई करती है। समझौते में खोट ही खोट नर्मदा बचाओ आंदोलन के सदस्य आलोक अग्रवाल बताते हैं कि परियोजना कर्ता के साथ हुए राज्य शासन के समझौते के मुताबिक बिजली बने या न बने, बिके या न बिके लेकिन परियोजना कर्ता को हर साल 400-500 करोड़ रुपए 45 साल तक दिए जाते रहेंगे यानी इस समझौते के मुताबिक आम जनता के लगभग 15 हजार करोड़ रुपए का सौदा किया गया है। साथ ही परियोजना से प्रभावित होने वाले हजारों परिवारों को नीति अनुसार पुनर्वास की आंदोलन ने भारतीय रिजर्व बैंक और केन्द्रीय वित्त मंत्रालय से भी मांग की है कि वे परियोजना से संबंधित गंभीर वित्तीय अनियमितताओं के बारे में सीबीआई से जांच कराए। सार्वजनिक धन के साथ अनियमितताएं उजागर होने के बावजूद किसी संस्था द्वारा परियोजनाकर्ता के लाभ के लिए धन देना भ्रष्टाचार निरोधक कानून के तहत दंडनीय होगा। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने वर्ष 2002 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महेश्वर जल विद्युत परियोजना के लिए परियोजनाकार कंपनी एस. कुमार्स को 330 करोड़ रुपए की गारंटी दिए जाने के मामले में भारी भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए इस गारंटी को तत्काल वापस लेने की मांग की थी। आंदोलन के कार्यकर्ता आलोक अग्रवाल के मुताबिक पहले से ही अनेक वित्तीय अनियमितताओं से घिरी इस परियोजना को यह गारंटी देना प्रदेश की जनता के हित को एक निजी कंपनी के हाथों गिरवी रखने के बराबर था। आरोप है कि एस. कुमार्स कंपनी और महेश्वर परियोजना दोनों ही गंभीर आरोपों के घेरे में हैं। भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक ने अपनी 1998 एवं 2000 की रिपोर्ट में स्पष्ट लिखा है कि परियोजनाकर्ता पर मध्यप्रदेश विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण का करोड़ों रुपया बकाया है। यह पैसा आज तक वापस नहीं किया गया है। यही नहीं मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास निगम ने एस. कुमार्स की एक सहयोगी कंपनी को नियम विरुद्ध दिए गए करोड़ों रुपए के ऋण के लिए संपत्ति कुर्की की कार्रवाई की है। निगम ने एस. कुमार्स की इन्दज इनरटेक लि. को 1997-98 में 8 करोड़ 2 लाख और 1999-2000 में 44 करोड़ 75 लाख रुपए दिए थे। लघु अवधि के होने के बावजूद भी इन ऋणों की अदायगी नहीं की गई। इसके अलावा यह भी स्पष्ट हो चुका है कि महेश्वर परियोजना के लिए मिले धन में से करीब 106 करोड़ 40 लाख रुपए इस कंपनी ने उन कंपनियों को दे दिए हैं , जिनका इस परियोजना से कोई लेना-देना नहीं था। आंदोलन के मुताबिक भारतीय रिजर्व बैंक ने भी स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी कर चेतावनी दी है कि पैसा वापस न करने वाली कंपनियों एवं संस्थाओं को कोई भी नया ऋण नहीं दिया जाए। तत्कालीन वित्त मंत्री यशवंत सिन्हा ने भी यही राय जाहिर की थी। फिर भी मध्य प्रदेश सरकार द्वारा महेश्वर परियोजना के लिए 330 करोड़ की गारंटी देना कई सवाल खड़े करता है। आंदोलन ने सवाल उठाया है कि एक ओर सरकार का एक विभाग अपने रुपए वसूलने के लिए कुर्की का आदेश लिए घूम रहा है, वहीं दूसरी ओर सरकार स्वयं अरबों की गारंटी दे रही है। इस मामले की उच्च स्तरीय जांच की जानी चाहिए और यह तथ्य सार्वजनिक किया जाना चाहिए कि किन कारणों के चलते राज्य सरकार ने यह गारंटी दी थी। सिर्फ 27 फीसदी प्रभावितों का पुनर्वास मध्य प्रदेश के खंडवा में नर्मदा नदी पर मूर्तरूप ले रही महेश्वर परियोजना के प्रभावितों में से सिर्फ 27 फीसदी परिवारों का ही पुनर्वास हो सका है। यह खुलासा मप्र उर्जा प्रबंधन कंपनी लिमिटेड (एमपीपीएमसीएल) द्वारा राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण में दिए गए शपथ पत्र में हुआ है। एमपीपीएमसीएल द्वारा दिए गए शपथ पत्र के हवाले से कहा गया हैं कि राज्य सरकार ने पुनर्वास न कर पाने के लिए श्री महेश्वर हायडल पॉवर कार्पोरेशन लिमिटेड (एसएमएचपीसीएल) जिम्मेदार बताया है। इस शपथ पत्र में यह भी कहा गया है कि राज्य सरकार महज कंपनी के एक एजेंट के तौर पर काम कर रही है। इधर्र्र अग्रवाल आरोप लगाते हैं कि महेश्वर परियोजना से 61 गांव के 60 हजार से अधिक किसान मजदूर प्रभावित हो रहे है। इन परिवारों के पुनर्वास में लगातार गलत आंकड़े पेश किए जा रहे हैं। इसी को लेकर राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण में दायर की गई याचिका पर नौ अगस्त 2012 को राज्य सरकार को तीन माह में संपूर्ण पुनर्वास पूरा करने का आदेश दिया गया था। अग्रवाल ने कहा है कि तीन माह में पुनर्वास में कोई प्रगति न होने पर राज्य सरकार द्वारा राष्ट्रीय ग्रीन न्यायाधिकरण में एक शपथ पत्र देकर कहा गया है कि पुनर्वास न करने के लिए महेश्वर परियोजना की निजी कंपनी जिम्मेदार है। एमपीपीएमसीएल के शपथ पत्र में कहा गया है कि समझौते के मुताबिक परियोजना में पुनर्वास सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक प्रयास व राशि की जिम्मेदारी कंपनी की है, परंतु इस मामले में निजी कंपनी कई अवसरों पर विफल रही है। पुनर्वास पर 740 करोड का खर्च अनुमानित है मगर एसएमएचपीसीएल ने सिर्फ 203.42 करोड रुपए ही दिए गए हैं। अग्रवाल का आरोप है कि शपथ पत्र से एक बात साफ हो जाती है कि अब तक सिर्फ 27 फीसदी परिवारों का ही पुनर्वास हो पाया है, जबकि सरकार हमेशा दावे करती रही है कि वहां 70 फीसदी से ज्यादा परिवारों का पुनर्वास हो चुका है । प्रदेश के तत्कालीन ऊर्जा सचिव मोहम्मद सुलेमान ने एक मार्च 2011 को केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के विशेष सचिव को लिखे पत्र में कहा था कि महेश्वर परियोजना के पुनर्वास का 70 प्रतिशत से ज्यादा काम पूरा हो चुका है, जबकि हाल ही में सरकार ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के समक्ष पेश किए गए शपथ पत्र में कहा है कि निजी कंपनी पुनर्वास के लिए धनराशि उपलब्ध कराने में विफल रही है। कंपनी संग करार के अनुसार पुनर्वास के लिए कंपनी जिम्मेदार है, जिसमें वह विफल हुई है। ग्रीन ट्रिब्यूनल के अगस्त के आदेश के खिलाफ याचिकाकर्ता अंतर सिंह ने ट्रिब्यूनल में पुनर्विचार याचिका दायर की थी। इसकी 22 नवंबर 2012 को हुई सुनवाई में मध्यप्रदेश सरकार ने शपथ पत्र पेश किया था। सरकार के झूठे आंकड़ों की पोल उसके द्वारा पेश किए गए शपथ पत्र से खुल रही है। एनबीए ने आरोप लगाया कि मोहम्मद सुलेमान ने केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय को 70 फीसदी से ज्यादा पुनर्वास का काम पूरा होने की जानकारी भेजी थी। वहीं, सरकार ने शपथ पत्र में कहा है कि पुनर्वास के काम के लिए 740 करोड़ में से कंपनी ने केवल 203 करोड़ मुहैया कराए। यह राशि कुल राशि की 27 फीसदी है। ऐसी स्थिति में 27 फीसदी राशि से 70 फीसदी से ज्यादा लोगों का पुनर्वास किस तरह से संभव हुआ? इस पर सवालिया निशान है। ये भी कहा गया कि अगस्त 2011 से अप्रैल 2012 के बीच वेतन का 1.6 करोड़ का फंड भी कंपनी ने नहीं दिया है और कंपनी पर 51.10 करोड़ की राशि बकाया हो गई है। जिन लोगों के पुनर्वास की बात हो रही है, पुनर्वास नीति की शर्तो के अनुसार उनमें से एक भी व्यक्ति को न्यूनतम 2 हक्टेयर जमीन भी आवंटित नहीं की गई है। एनबीए के आरोपों के जवाब में एस कुमार्स की कंपनी ने बताया था कि कंपनी की जिम्मेदारी पुनर्वास कार्यों के लिए वित्त उपलब्ध कराने की है। कंपनी ने लिखा थौ कि 61 गांव के 60 हजार मजदूर प्रभावित नहीं हो रहे बल्कि पूर्ण-आंशिक आबादी से प्रभावित गांवों की संख्या 20 है और विस्थापितों की 9148 है। इस तरह के गलत और झूठे आंकडें़ परोसकर एस कुमार्स परियोजना को आधा-अधूरा छोड़कर चली गई। परियोजना में देरी के लिए यूपीए सरकार जिम्मेदार महेश्वर नर्मदा जल परियोजना के निमार्ण में हो रही देरी के लिए शिवराज सिंह की सरकार मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार को दोषी मानती है। ज्ञातव्य है कि परियोजना को लेकर केंद्र की पूरवर्ती यूपीए सरकार और मध्य प्रदेश सरकार में तनातनी चलती रही। वर्ष 2010 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने परियोजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वास को लेकर इस पर आगे काम बंद करने के निर्देश दिए तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भड़क उठे थेे। उन्होंने प्रधानमंत्री को मध्य प्रदेश के विकास के प्रति अनुदार और संवेदनहीन बताया था। लेकिन जानकार बताते हैं कि परियोजना की मॉनिटरिंग न कर पाने के कारण राज्य सरकार की शेजना दिन पर दिन फेल होती जा रही है। यह सच्चाई मुख्यमंत्री को भी मालूम है। मध्य प्रदेश में बिजली और पानी का संकट है, इसीलिए राज्य सरकार अपने जल संसाधनों का भरपूर उपयोग करना चाहती है। वह नदी जल का उपयोग सिंचाई और बिजली दोनों के लिए करना चाहती है। फिर नर्मदा जल के उपयोग का भी सवाल है। नर्मदा प्राधिकरण के पंचाट के अनुसार, मध्य प्रदेश अभी तक अपने हिस्से के जल का उपयोग नहीं कर पाया है। सरकार की सुस्ती एवं लापरवाही के चलते अगले दस सालों में भी मध्य प्रदेश अपने हिस्से के नर्मदा जल का उपयोग नहीं कर पाएगा। ऐसे में गुजरात और महाराष्ट्र को नर्मदा के पानी के उपयोग का अधिकार मिल जाएगा। गुजरात ने तो प्राधिकरण के फैसले के दिन से ही नर्मदा जल के अधिकतम उपयोग के लिए तैयारी शुरू कर दी थी और अब वह नर्मदा का पानी कच्छ के मरुस्थल तक ले जाने की स्थिति में आ गया है। फिर भी मध्य प्रदेश की ओर से नर्मदा जल के उपयोग के लिए अच्छी शुरुआत हो रही है, लेकिन जल्दबाज़ी में जो कुछ हो रहा है, उससे सरकार अपने लिए नई-नई समस्याएं पैदा कर रही है। 2010 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह न तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र लिखकर बताया था कि नर्मदा की महेश्वर परियोजना से प्रतिदिन 7.2 लाख यूनिट बिजली पैदा होगी, जबकि राज्य की औसत ख़पत 1,000 लाख यूनिट प्रतिदिन है। इससे स्पष्ट है कि महेश्वर से राज्य की बिजली ख़पत का एक प्रतिशत से भी कम अंश प्राप्त होगा। फिर भी इसे अत्यंत महत्वपूर्ण और उपयोगी बताया जा रहा है। बिजली उत्पादन के लिए राज्य सरकार ने महेश्वर परियोजना से विस्थापित होने वाले 61 गांवों के 70 हज़ार से अधिक परिवारों के पुनर्वास कार्यों को पूरा कराने पर विशेष ध्यान नहीं दिया। यही कारण है कि परियोजना से विस्थापित होने वाले ग्रामीण अपने अस्तित्व की लड़ाई लडऩे के लिए राजनेताओं और राजनीतिक दलों पर कोई भरोसा नहीं कर रहे हैं। वे नर्मदा बचाओ आंदोलन के झंडे तले अपनी आवाज़ उठा रहे हैं। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने चालाकी का परिचय देते हुए सरकार के लिए समर्थन जुटाने का भी प्रयास किया। उन्होंने कहा कि महेश्वर परियोजना से इंदौर शहर को प्रतिदिन 300 मिलियन लीटर पानी मिल सकेगा और 2024 तक की पानी की ज़रूरत इससे पूरी हो सकेगी, लेकिन विस्थापितों के पुनर्वास के बारे में मुख्यमंत्री खुलकर कुछ नहीं बोलते। या यूं कहें कि बोलने से बचना चाहते हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेता आलोक अग्रवाल एवं चितरूपा पालित ने एक नया गले उतरने लायक तकऱ् छोड़ा है कि मुख्यमंत्री परियोजना के निर्माण कार्य में लगे पूंजीपति ठेकेदारों के हितों की ज़्यादा चिंता कर रहे हैं। इसीलिए वह नर्मदा आंदोलन और यहां तक कि अपनी मर्यादा भूलकर देश के प्रधानमंत्री के खि़लाफ़ भी नासमझी भरे बयान खुलकर दे रहे हैं। आलोक एवं चितरूपा ने राज्य सरकार पर आम जनता की अपेक्षा निजी परियोजनकर्ता के हितों की चिंता किए जाने का आरोप लगाते हुए दावा किया कि परियोजनकर्ता को 400 करोड़ रुपये की गारंटी इस शर्त पर दी गई थी कि उसकी होल्डिंग कंपनी द्वारा मध्य प्रदेश औद्योगिक विकास निगम से लिए गए पैसे वापस करने होंगे। जबकि गारंटी मिलने के बाद कंपनी द्वारा दिए गए 55 करोड़ रुपये के 20 चेक बाउंस हो गए। निगम द्वारा कंपनी के खि़लाफ़ 20 आपराधिक प्रकरण भी कायम किए गए। उन्होंने कहा कि इसके बावजूद कंपनी से न तो जनता का पैसा वापस लिया गया और न ही आज तक गारंटी रद्द की गई। चितरूपा पालित ने कहा कि परियोजनकर्ता ने विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की 130 करोड़ रुपये की संपत्तियों का पैसा पिछले 14 सालों में आज तक सरकार को नहीं दिया। परियोजनकर्ता के अनुसार, उक्त संपत्तियां अब उनके नाम पर हो गई हैं। उन्होंने कहा कि राज्य सरकार जवाब दे कि बिना पैसा लिए उक्त संपत्तियां परियोजनकर्ता के नाम कैसे हो गईं? उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय के आदेश का पालन करते हुए प्रभावितों का संपूर्ण पुनर्वास किए जाने, परियोजनकर्ता को दी गई गारंटी रद्द करने, विद्युत मंडल एवं नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण की संपत्तियों का पैसा परियोजनकर्ता से वसूलने और विद्युत क्रय समझौता रद्द करने की मांग की है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान कहते हैं कि यदि महेश्वर परियोजना पर काम होता रहता तो जून 2010 में जल विद्युत परियोजना की पहली इकाई शुरू हो सकती थी, लेकिन रोक लग जाने से प्रदेश में 400 मेगावाट बिजली की कमी हो रही है। इसके लिए यूपीए सरकार ही जि़म्मेदार है। कांग्रेस प्रवक्ता केके मिश्रा मुख्यमंत्री की इन दलीलों को व्यर्थ बताते हुए कहते हैं कि महेश्वर परियोजना का काम वैसे भी धीमी गति से चल रहा है। फिर पुनर्वास कार्य में तो सरकार ने कोई सक्रियता दिखाई नहीं, जबकि परियोजना की शर्त यही थी कि निर्माण कार्य के साथ-साथ विस्थापितों के पुनर्वास का काम भी पूरा कर लिया जाएगा, लेकिन अभी तक केवल एक गांव में पुनर्वास पैकेज लागू हो पाया है। पांच गांवों में पैकेज मान लेने के बाद भी पुनर्वास कार्य शुरू नहीं हुए। यदि मुख्यमंत्री की बात मान ली जाए तो बिना पुनर्वास के महेश्वर की पहली इकाई चालू होती तो बरसात में परियोजना के डूब क्षेत्र में 50 से ज़्यादा गांव बिना पुनर्वास के ही डूब जाते। महेश्वर परियोजना से बिजली 10 रूपए यूनिट नर्मदा बचाओ आंदोलन ने मध्यप्रदेश सरकार से महेश्वर परियोजना की निजी कंपनी के साथ हुए विद्युत क्रय के समझौते को रद्द करने और इस मामले की केन्द्रीय जांच ब्यूरो से जांच कराने की मांग की है। नर्मदा बचाओं आंदोलन के आलोक अग्रवाल कहते हैं कि आंदोलन को हाल ही में केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय में महेश्वर परियोजना के संबंध में पिछले वर्ष हुई तीन बैठकों के दस्तावेज प्राप्त हुए है। इन दस्तावेजों में यह चौकाने वाला तथ्य सामने आया है कि नर्मदा पर बनाई जा रही 400 मेगावाट की महेशवर परियोजना से बनने वाली बिजली की कीमत दस रूपये प्रति यूनिट होगी। उन्होंने बताया कि मध्यप्रदेश विद्युत नियामक आयोग के वर्ष 2011-12 के टेरिफ आदेश के अनुसार बिजली की खरीदी की कीमत 2.44 रूपये प्रति यूनिट है। जबकि प्रदेश में बन रही निजी एस्सार और टोरेंट कंपनी की दो नई परियोजनाओं में बनने वाली बिजली की कीमत क्रमश: 2.45 और 3.31 रूपये प्रति यूनिट है। हिमाचल प्रदेश की इस प्रकार की दो समान परियोजनाओं कंचम वांगअू और बासपा टू से बनने वाली बिजली की कीमत क्रमश: 3.19 और 2.61 रूपये प्रति यूनिट है। जबकि महेश्वर परियोजना में बनने वाली बिजली देश की सबसे महंगी बिजली होगी। अग्रवाल ने बताया कि केन्द्रीय ऊर्जा मंत्रालय की इन बैठकों में मंत्रालय द्वारा मध्यप्रदेश सरकार से महेश्वर परियोजना की बिजली दस रूपये प्रति यूनिट खरीदने का निर्णय लेने की मांग कर रही है। लेकिन राज्य सरकार द्वारा इस कीमत पर बिजली खरीदने की सहमति नही दी है। यदि राज्य सरकार इस पर सहमति प्रदान करती है तो यह प्रदेश के लिए बहुत आत्मघाती होगा। क्योंकि इससे अगले 35 वर्षो में प्रदेश की जनता के 20 हजार करोड़ रूपए से अधिक की राशि इस निजी परियोजनाकर्ता को दिए जायेंगे। परियोजना की शर्तों का पालन नहीं पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा परियोजना को दी गई सशर्त मंजूरी में यह कहा गया है कि बांध का निर्माण और पुनर्वास साथ-साथ होने चाहिए। लेकिन बांध से प्रभावित गांववासी सालों से यह कहते रहे हैं कि उनका पुनर्वास उस गति से नहीं हो पा रहा है जिस गति से बांध का निर्माण हो रहा है। महेश्वर बांध नर्मदा घाटी में बनाये जा रहे बड़े बांधों में से एक है, जिससे क्षेत्र के करीब 50,000 से 70,000 किसानों, मछुआरों, मल्लाहों एवं भूमिहीन कामगारों के 61 गांव के आवास एवं जमीन में डूब जाएंगे। सन 1992 में इस परियोजना का निजीकरण करके एस. कुमार्स समूह को सौंप दिया गया था। इस परियोजना की निर्धारित उत्पादन क्षमता 400 मेगावाट होगी। इस परियोजना को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा पहली बार 1994 में और फिर उसके बाद सन 2001 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 के तहत शर्तों के आधार पर मंजूरी दी गई थी। जिसके तहत राज्य सरकार एवं एस कुमार्स कंपनी गांववासियों के पुनर्वास करने एवं प्रभावित परिवारों को कम से कम दो हेक्टेयर जमीन, पुनर्वास स्थल एवं अन्य लाभ उपलब्ध कराने को बाध्य है। मंजूरी के शर्तों के अनुसार दिसंबर 2001 तक खेती की जमीनों सहित पुनर्वास की पूरी योजना प्रस्तुत हो जानी चाहिए, और पुनर्वास उपायों का क्रियान्वयन उसी गति से होना चाहिए जिस गति से बांध का निर्माण हो रहा हो। जबकि, उन शर्तों का खुला उल्लंघन करते हुए आज तक पुनर्वास की योजना प्रस्तुत ही नहीं की गई है। यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि परियोजनाकारों ने आज तक पुनर्वास नीति के अनुरूप एक भी गांववासी को खेती की जमीन नहीं उपलब्ध करायी है। इसके बजाय परियोजना प्रवर्तक अवैध रूप से डूब क्षेत्र में सीधी जमीन खरीद रहे हैं और विस्थापितों को पुनर्वास नीति के अनुरूप पुनर्वास लाभों से वंचित करने के लिए दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करने को बाध्य कर रहे हैं। यह प्रक्रिया उच्च न्यायालय के आदेश के बाद मई 2009 में रोक दी गई, जिसे अदालत ने असंवैधानिक ठहराया था। यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि परियोजनाकारों द्वारा डूब की वास्तविक स्थिति को भी कम करके बताया जा रहा है। परियोजना के तकनीकी आर्थिकी मंजूरी एवं नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार 1435 हेक्टेयर जमीन डूब में आयेगी, जबकि परियोजनाकर सिर्फ 873 हेक्टेयर जमीन को ही डूब में बता रहे हैं। परियोजनाकार बैक-वाटर सर्वेक्षण भी उपलब्ध कराने से इनकार कर रहे हैं। इस तरह वास्तव में कितनी आबादी प्रभावित हो रही है और उनके लिए कितनी रकम और जमीन की जरूरत है वह भी आज तक मालूम नहीं है। इस तरह, परियोजना की वित्तीय आवश्यकता की पूर्ति एवं करीब 80 फीसदी काम पूर्ण हो गया है। प्रभावित क्षेत्र की वास्तविक स्थिति को देखते हुए 29 अक्तूबर 2009 को तत्कालीन केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को यह कहते हुए पत्र लिखा था कि पुनर्वास का कार्य अभी शुरूआती स्थिति में है, लेकिन बांध का काम करीब 80-90 फीसदी पूरा हो चुका है। इस तरह मंत्रालय को इस बात की चिंता है कि निजी कंपनी श्री महेश्वर हाइडिल पॉवर कॉरपोरेशन विस्थापितों को मझधार में छोड़ते हुए पुनर्वास की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाएगी। इस तरह पर्यावारण मंत्रालय के शर्तों के उल्लंघन के कारण मंत्रालय ने पुनर्वास योजना प्रस्तुत करने एवं पुनर्वास कार्य बांध के निर्माण के गति के अनुरूप होने तक बांध को के निर्माण को रोकने का प्रस्ताव किया। मुख्यमंत्री ने भी मंत्रालय को दिए जवाब में माना था कि पुनर्वास का काम धीमी गति से चल रहा है। यहां यह भी ध्यान देने योग्य है कि महेश्वर परियोजना को तकनीकी-आर्थिकी मंजूरी के अंतर्गत परियोजना की लागत 1673 करोड़ रुपये आंकी गई थी, जो कि अब बढ़कर 2800 करोड़ रुपए हो गई है। इस तरह बिजली की कीमत निश्चित रूप से काफी ज्यादा आयेगी, जिससे मध्य प्रदेश के लोगों को बिल्कुल फायदा नहीं होगा। जबकि एस कुमार्स के साथ किए गए बिजली खरीद समझौते के अनुसार मध्य प्रदेश सरकार अगले 35 सालों तक इस महंगी बिजली खरीदने को बाध्य होगी। नर्मदा बचाओ आंदोलन की मांग है कि राज्य एवं केन्द्र सरकार यह सुनिश्चित करें कि यह परियोजना लागों के हित में हो, और यह भी मांग है कि जब तक पुनर्वास कार्य पूरा न हो जाय तब तक पर्यावरणीय मंजूरी के कानूनी शर्तों का पालन करते हुए महेश्वर बांध के काम को तत्काल रोका जाए। मप्र की प्रमुख परियोजनाएं इंदिरा सागर परियोजना इंदिरा सागर परियोजना मध्यप्रदेश के खंडवा जिले में पुनासा गांव से 10 किमी दूरी पर स्थित है। यह नर्मदा नदी पर स्थित 1000 मेगावाट की अधिष्ठापित क्षमता वाली एक बहुउद्देशीय परियोजना है। वर्ष 2004-05 में इस पनबिजली परियोजना को पूरा किया गया और जनवरी 2004 से यहां बिजली उत्पादन शुरू कर दिया गया। ओंकारेश्वर परियोजना ओंकारेश्वर परियोजना एक बहुउद्देशीय परियोजना है, जो मध्यप्रदेश के खंडवा, खरगांव और धार जिले में नर्मदा नदी के दोनों तटों पर बिजली उत्पादन और सिंचाई के अवसर प्रदान करती है। यह परियोजना इंदौर से 80 किमी की दूरी पर और इंदिरा सागर परियोजना के 40 किलोमीटर नीचे की ओर स्थित है। ओंकारेश्वर परियोजना की कुल अधिष्ठापित क्षमता 520 मेगावाट है। परियोजना की सभी 8 इकाइयों ने मंजूर कार्यक्रम से आगे चलते हुए नवम्बर 2007 से बिजली का निर्माण शुरू कर दिया है। 2224.73 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत के साथ, परियोजना की अपेक्षित ऊर्जा उत्पादन क्षमता 1167 एमयू है। रानी अवंती बाई सागर परियोजना जबलपुर जिले में बरगी गांव के पास स्थित इस परियोजना द्वारा 1,57,000 हेक्टेयर क्षेत्र को सिंचाई के अनुकुल बनाने की परिकल्पना है। परियोजना के तहत नर्मदा नदी पर 69.5 मीटर ऊंची और 5360 मीटर लंबी कंपोजीट ग्राविटी बांध का निर्माण होगा और प्रत्येक 45 मेगावाट संस्थापित क्षमता वाली की दो इकाइयों के एक रिवर बेड विद्युत गृह का निर्माण होगा और 10 मेगावाट स्थापित क्षमतावाली नहर (बाएं) हेड पावर हाउस का निर्माण होगा। बाएं किनारे पर स्थित 137 किमी लंबा मुख्य नहर, जबलपुर और नरसिंहपुर जिलों में 57,000 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई करेगा और इसका निर्माण जारी है। मन परियोजना धार जिलें में जिराबाद गांव के निकट मन नदी पर (नर्मदा की उपनदी) मन परियोजना का काम पूरा हो चुका है। यह धार जिले के कुल 15000 हेक्टेयर आदिवासी क्षेत्रों में सिंचाई प्रदान कर रही है। जोबत (चंद्रशेखर आजाद) परियोजना झाबुआ जिले के कुक्षी तहसील में बस्कल गांव के पास हथनी नदी (नर्मदा नदी की एक उपनदी नदी) पर पर बनी इस परियोजना काम पूरा हो चुका है और यह धार जिले के 27 आदिवासी गांवों की 9848 हेक्टेयर भूमि को सिंचाई प्रदान कर रही है। बरगी विमुख जबलपुर जिले के 55,832 हेक्टेयर और कटनी, सतना रीवा (सोन और टोंस द्रोणी) जिलों के 1,89,187 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई के लिए बरगी बांध से 194 किमी लंबाई की दाहिनी तटीय नहर का (नर्मदा द्रोणी) प्रस्ताव है। इसके तहत नर्मदा का पानी सोन और टोंस द्रोणी में जाना प्रस्तावित है, इसलिए इसे यह बरगी विमुख परियोजना का नाम दिया गया है। इसका कार्य प्रगति पर है। अपर नर्मदा परियोजना नर्मदा नदी के मूल (अमरकंटक) से 77 किमी ऊपरी बहाव के क्षेत्र में रिनातोला गांव के पास इस 'अपर नर्मदा परियोजनाÓ नामक एक प्रमुख सिंचाई परियोजना की परिकल्पना की गई है। परियोजना के तहत 30.64 मीटर ऊंची और 1776 मीटर लंबी कंपोजीट ग्राविटी बांध का निर्माण होगा। इससे बाएँ और दाएँ किनारों पर क्रमश: 86.5 किमी और 65.5 किमी लंबाई की नहरों द्वारा दिंडोरी और अनूपपुर के आदिवासी बहुल जिलों में 18,616 हेक्टेयर क्षेत्र की सिंचाई होगी। योजना आयोग ने इस परियोजना को मंजूरी दे दी है। हेलॉन परियोजना मंडला के आदिवासी जिले में 11736 हेक्टेयर क्षेत्र पर सिंचाई उपलब्ध कराने के लिए नर्मदा नदी की एक उपनदी हेलॉन पर इस परियोजना की परिकल्पना की गई है। योजना आयोग ने इस परियोजना को मंजूरी दे दी है।

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