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भेड़ाघाट

Thursday, December 9, 2010

गांधी के नाम पर मेट्रोपॉलिटन कांग्रेस



कॉग्रेस की स्थापना देश को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के उद्देश्य से हुई थी,लेकिन आजादी मिलते ही इसके नेताओं का सत्ता का ऐसा चस्का लगा की पार्टी अपने मूल से भटक गई और आज इस स्थिति में पहुंच गई है कि देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी केवल एक परिवार की पार्टी बन कर रह गई है। मोहनदास करमचंद गांधी के नाम को आगे कर गठित की गई इस पार्टी ने सियासत के दांवपेच, सत्ता के औजार, उसकी खूबियां और खामियां आजाद हिंदुस्तान को दी हैं जिससे कॉगे्रस मेट्रोपॉलिटन पार्टी बनकर रह गई है। इस मायने में सभी पार्टियां कांग्रेस की ऋणी हैं। अपने चरित्र में पूरी सियासत आज भी अंदर से कांग्रेसी है। इसीलिए उन्हें कांग्रेस का शुक्रगुजार होना चाहिए।
इस साल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को 125 साल हो रहे हैं। सवा सौ साल की इस पार्टी से आज आपको क्या उम्मीदें हैं। शायद कोई नहीं। ज्यादा से ज्यादा आप ये तमन्ना करेंगे कि सत्तालोलुपों और चाटुकारों का ये संगठन जल्द से जल्द सियासत के रंगमंच से विदा हो जाए। और सवा सौ साल की कांग्रेस को खुद से क्या उम्मीदें हैं। यही कि वो उस खोई हुई विरासत को वापस पा ले, जिसके अब कई दावेदार हैं। उस गांधी नाम का करिश्मा फिर हासिल कर सके, जिसमें अब गांधीवादी भी भरोसा नहीं रखते। उस परिवार को फिर प्रतिष्ठित कर पाए, जिसकी नींव नेहरू ने रखी थी और जिसमें आज खुद कांग्रेसियों को भरोसा नहीं। सवा सौ साल की कांग्रेस आज अखिल भारतीय सत्ता के उपभोग का स्वप्न देख रही है, पर वो नहीं जानती कि 21वीं सदी के हिंदुस्तान में 1947 का करिश्मा लौटना आसान नहीं रह गया है।
कांग्रेस का चरित्र शुरू से ही मेट्रोपॉलिटन रहा। उसका सरोकार शहरी मध्यवर्ग था क्योंकि खुद कांग्रेस के पितामह नेहरू विदेशों में पले-बढ़े। हिंदुस्तान की मिट्टी से उनका कोई नाता न था। आजादी के बाद नेहरू का परिचय जिस हिंदुस्तान से हुआ, उसके लिए उनके पास शासन का कोई मॉडल नहीं था। मोहनदास करमचंद गांधी के सत्ताविकेंद्रित और खुदमुख्तारी के मॉडल पर वह देश को ले जाना नहीं चाहते थे। मगर गुलाम देश में गांधी कांग्रेस के लिए मजबूरी थे क्योंकि उनकी पकड़ हिंदुस्तान के ग्रामीण और शहरी समाज दोनों पर थी। लेकिन जैसे-जैसे कांग्रेस आजादी की तरफ बढ़ी, गांधी उसके लिए असंगत होते गए। क्योंकि वो कांग्रेस में पैदा हो रही सत्ताकेंद्रित सोच का समर्थन नहीं करते थे। फलत: आजादी से ऐन पहले पार्टी ने अपने नायक को बिसरा दिया।
गांधी ने 1947 में कहा था कि कांग्रेस का काम पूरा हो चुका है, उसे भंग कर देना चाहिए। इसकी जगह लोकसेवक संघ बनना चाहिए। मगर नेहरू समेत दूसरे कांग्रेसियों को लगा कि गांधीजी सठिया गए हैं। जिस पार्टी ने उन्हें गुलामी के समंदर में नैया बनकर आजादी के तट पर उतारा, उसी को त्याग दें। उधर, गांधी की हत्या हुई और इधर, कांग्रेस गांधी के नाम पर कुंडली मारकर बैठ गई, ताकि उससे संजीवनी हासिल कर सके। पार्टी अब सत्ता सुख भोगना चाहती थी।
गांधी नाम में बड़ा जादू था और कांग्रेस इसे नहीं बिसराना चाहती थी। इसलिए आजाद भारत में कांग्रेस ने गांधी को मंत्र बना लिया। हिंदुस्तानी कांग्रेस को गांधी की पार्टी की बतौर देखते थे। हालांकि ये बात अलग है कि गांधी कांग्रेस पार्टी की सदस्यता से 1934 में ही इस्तीफा दे चुके थे। इसी गांधी नाम के साथ राष्ट्रीयता और धर्मनिरपेक्षता का हवाला देकर कांग्रेस सफाई के साथ क्षेत्रीय आवाजें दबाने में कामयाब रही। इसलिए दशकों तक क्षेत्रीय सियासी पार्टियों का वजूद सिमटा रहा या न के बराबर रहा। कांग्रेस बहुमत एन्ज्वाय करती रही। सो, क्षेत्रीय दल काफी वक्त बाद नई दिल्ली के सियासी गलियारों में पहुंच सके। कांग्रेस की इसी चाल की वजह से क्षेत्रीय राजनीति जब केंद्र और राज्यों में पहुंची तो अपने वीभत्स रूप में, क्योंकि पहले उसका प्रतिनिधित्व नकार दिया गया था। इसीलिए आज क्षेत्रीयता राष्ट्रीयता से बदला चुका रही है, वो भी सिर्फ कांग्रेस की वजह से।
कांग्रेस नामक सत्तालोलुपों के गिरोह ने गांधी नाम का जमकर इस्तेमाल किया। बेशक ओरिजिनल गांधी से इस कांग्रेस का कोई ताल्लुक नहीं, लेकिन सिर्फ नाम का जादू देश को 40 साल तक घसीटता रहा। एक परिवार गांधी का नाम लेकर आगे खड़ा था और उसके पीछे थी पूरी पार्टी। इस परिवार की नींव में थे जवाहरलाल नेहरू जो उसी बरतानिया में पढ़े थे, जिसने देश को गुलाम बना रखा था। फिरंगियों से आजादी की सौदेबाजी में वो आगे रहे थे। इसीलिए जनता उन्हें आजादी के नायक के बतौर देखती आई थी।
अगर कांग्रेस का मकसद सिर्फ जनसेवा होता, तो शायद उसे और 63 साल की जिंदगी हासिल न होती। विभिन्नताओं से भरे इस देश की जनता का ध्रुवीकरण कर उसे आजादी के रास्ते पर लाने वाले गांधी की सोच साफ थी। उनकी दृष्टि साफ थी कि अगर कांग्रेस बची, तो सत्ता उसे गंदे तालाब में बदल देगी। इसीलिए उन्होंने इसका रिप्लेसमेंट सोच लिया था।
कांग्रेस का लक्ष्य तो 1907 में ही तय हो गया था, जब वो नरम और गरम दल में टूटी थी। 1947 में वह वयोवृद्ध थी। इसलिए आज जिसे हम कांग्रेस के नाम से जानते हैं, वो सवा सौ साल का ऐसा संगठन है, जिसकी आत्मा निकल चुकी है और जिसे उसके कर्णधार आज तक ढो रहे हैं। यह वही कांग्रेस नहीं, जिसे एओ ह्यूम ने 1885 में इसलिए जन्म दिया था ताकि वह हिंदुस्तानियों के बीच प्रैशर कुकर का काम करे। उनके अंदर पनपने वाले गुस्से को बाहर निकलने का रास्ता दे। गोखले, तिलक और जिन्ना जैसे नेताओं ने इसका इस्तेमाल ब्रिटिशविरोधी भावनाओं के लिए किया था, जिसमें गांधी और बाद में नेहरू जैसे नेताओं ने अपनी आहुतियां डालीं।
आखिर यह वही पार्टी थी जिसने दो देशों की आजादी में अपनी भूमिका निभाई। अगर आप मौलाना अबुल कलाम आजाद की किताब इंडिया विंस फ्रीडम का हवाला लें, तो पता चलेगा कि आजादी के सेनानी इतने थके, अधीर और मायूस हो चुके थे कि अब वो इसका तुरंत प्रतिफल चाहते थे। उन्हें जल्द से जल्द सत्ता पर काबिज होने के सिवा कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था। चाहे जिस कीमत पर मिले उन्हें फिरंगियों से मुक्ति पानी थी और फिरंगी हुकूमत भी इस बात को समझती थी। सत्ता की बागडोर ज्यादा वक्त तक थामे रखना उसके लिए भारी हो चुका था। इसलिए जब फिरंगी हुकूमत ने अपनी न्यायप्रियता का सबूत दो देशों को बांटकर दिया, तो अधीर कांग्रेसियों ने उसे भी मंजूर कर लिया, 35 करोड़ की आबादी के प्रतिनिधि के बतौर (ये विवाद का विषय है कि क्या कांग्रेस ही आजादी पाने की अकेली उत्तराधिकारी थी?)।
कांग्रेसी मानते थे कि वही सत्ता के असल वारिस हैं। भरमाई जनता ने उस कांग्रेस को जनादेश दिया, जिसने आजादी की लड़ाई में भागीदारी की थी। उसे नहीं, जिसने देश का बंटवारा मंजूर कर लिया था। कोई विकल्प या रास्ता भी नहीं था। पार्टी के कर्णधार अच्छी तरह जानते थे कि वो इस विरासत को अगले कई सालों तक भुनाने में कामयाब रहेंगे और यही हुआ भी।
नेहरू के बाद आननफानन में उनकी बेटी इंदिरा को नायकत्व सौंप दिया गया, क्योंकि नेहरू के बाद वही परिवार की सर्वेसर्वा थीं। उनके पिता ने अपने रहते उन्हें कुछ हद तक सियासत में दीक्षित किया था, लेकिन इंदिरा का भी सीधे जनता से कोई सरोकार नहीं था। उनके कार्यकाल को देखें तो लगता है कि मानो वो शासन के लिए ही पैदा हुई थीं। वही उन्होंने किया भी, इसीलिए 20वीं सदी की 100 सबसे ताकतवर नेताओं में उन्हें भी गिना जाता है। पिता के नाम और निरंकुशता की वजह से पूरी कांग्रेस उनके आगे पलक-पांवड़े बिछाए रही। मगर यही वो वक्त था, जब कांग्रेस की विरासत पर सवाल खड़े होने लगे थे। विकल्पों की मांग उठ रही थी, प्रयोग हो रहे थे, मगर तजुर्बा और रास्ता अब भी किसी के पास नहीं था। कांग्रेस यूं देश पर परिवार के शासन का हक छोडऩे को तैयार न थी और सत्ता छीनने की ताकत किसी में थी नहीं।
इंदिरा के बाद उनके दोनों बेटे गांधी के नाम और इस परिवार के करिश्मे को ज्यादा वक्त तक जिंदा नहीं रख सके। इसकी दो वजहें थीं। न तो वो अपने पूर्वजों की तरह उतने करिश्माई व्यक्तित्व के स्वामी थे और न वो क्षेत्रीयता का उभार रोकने में कामयाब थे। गांधी को गांधीवाद में बदलकर कोने में खिसका दिया गया। अपनी मां की मौत से मिली सहानुभूति लहर पर सवार होकर राजीव सत्ता में आए, मगर उन्हीं की पार्टी में परिवारविरोधी स्वर उठने लगे थे।
कांग्रेस का तिलिस्म बिखर गया था और नई दिल्ली की कुर्सी पर एक के बाद एक गैरकांग्रेसियों की ताजपोशी होने लगी। देश को पहली बार ये अहसास हुआ कि असल में उनके साथ धोखा हुआ था। एक परिवार और पार्टी को माई-बाप मानकर उसने भारी गलती की थी। सियासत की गंदगी गांधी नाम के कालीन के नीचे से बाहर निकल आई थी।
दुर्भाग्य इस परिवार को जकड़ चुका था। पहले नेहरू की बेटी, फिर नेहरू के दोनों पोते, नफरत और साजिशों के शिकार बन गए। पार्टी मातम में थी क्योंकि सत्ता के केंद्रों का विघटन हो चुका था। कोई सैकेंड लाइन नहीं थी। परिवार ने इसकी गुंजाइशें ही खत्म कर दी थीं (हालात आज भी वही हैं)। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की यह भी एक दिलचस्प हकीकत है कि ज्यों राजशाही में मुखिया के बाद उसके परिवार के सबसे बड़े सदस्य को सत्ता सौंपी जाती है, उसी तरह कांग्रेस में सत्ता का हस्तांतरण होता रहा। आखिर इंदिरा की बहू को राजसत्ता मिली, जिनका इस देश की भाषा और हिंदुस्तानी जनजीवन से कोई ताल्लुक नहीं रहा था। चूंकि पार्टी 1947 से लेकर आज तक राजवंशी ढांचे पर चली थी, इसलिए इस च्राजवंशज् से बाहर किसी व्यक्ति पर भी पार्टी को भरोसा नहीं रहा। पार्टी को यहां तक भ्रम हो चुका है कि इस देश में जो कुछ अच्छा है, इस परिवार की बदौलत ही है। इसलिए परिवार और पार्टी एक दूसरे में इतना घुलमिल गए कि कांग्रेस का मतलब ही है गांधी परिवार (इसमें गांधी कितना फीसद है, ये आप जान ही गए होंगे)।
आज कांग्रेस सवा सौ साल की है। आजादी के बाद 63 साल और। तो कांग्रेस की विरासत क्या है? कैसे पहचानेंगे इसे आप? आजादी के बाद इस पार्टी ने देश को क्या दिया है? असल में, इस पार्टी ने देश को वो दिया है, जिसे शायद ही कोई नकार सके। मसलन.. एक नाम, नेता जैसा जैनरिक और घृणित शब्द, सत्तालोलुपों का एक गिरोह, खुशामदपसंदों से घिरा एक परिवार, दो-तीन अदद पवित्र नाम (जिनमें से एक अब माता इंडिया कही जाती हैं) और इन नामों पर खड़ी इमारतें-सड़क-चौराहे, मु_ी में सत्ता दबोचकर रखने की हामी सोच, कुलीन-शहरी और अमीरी से भरपूर सियासत, जुर्म को पनाह देने वाला सियासी काडर, घोटालों से खोखला प्रशासन और इसे छिपाने के लिए नेहरू टोपी, खादी की जैकेट और सफेद कुर्ता-पाजामा।

दागदार हो रहा समाजवाद

समाजवाद एक आर्थिक-सामाजिक दर्शन है। समाजवादी व्यवस्था में धन-सम्पत्ति का स्वामित्व और वितरण समाज के नियन्त्रण के अधीन रहते हैं। समाजवाद अंग्रेजी और फ्रांसीसी शब्द सोशलिज्म का हिंदी रूपांतर है। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस शब्द का प्रयोग व्यक्तिवाद के विरोध में और उन विचारों के समर्थन में किया जाता था जिनका लक्ष्य समाज के आर्थिक और नैतिक आधार को बदलना था और जो जीवन में व्यक्तिगत नियंत्रण की जगह सामाजिक नियंत्रण स्थापित करना चाहते थे। लेकिन आज के दौर में समाजवाद के पहरूओं की कार्यप्रणाली देखकर ऐसा लगता है जैसे व्यक्तिवाद के बिना समाजवाद की कल्पना ही बेमानी है।
उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव समाजवाद के नाम पर राजनीति कर रहे हैं लेकिन उन्होंने और उनके समर्थकों के समाजवाद की एक ऐसी परिभाषा गढ़ दी है कि स्वर्ग में बैठे उनके गुरू
राम मनोहर लोहिया भी आहें भर रहे होंगे। समाजवाद के नाम पर मुलायम ने अपनी महत्वकांक्षाएं पूरी करने के लिए वह सब कुछ किया जिसकी कभी लोहिया ने कल्पना भी नहीं की होगी। आज वही सब मुलायम के लिए परेशानी का सबस बन गया है। समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने आप को स्थापित करके रखना मुश्किल-सा नजर आ रहा है। जो चेहरे कभी समाजवादी पार्टी की पहचान हुआ करते थे, पिछले कुछ समय में एक-एक कर सपा से दूर हो गए. इनमें अमर सिंह भी शामिल हैं जो खुद इनमें से कई की विदाई का सबब बने और अंतत: खुद भी विदा हुए. जमे-जमाए नेताओं के जाने से सपा के लिए मुश्किलें लगातार बढ़ती रही हैं.
'कभी न जिसने झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम थाÓ, दो-ढाई वर्ष पहले जब समाजवादी पार्टी के मुख्यालय के गेट के बाहर यह नारा लगा रहे नौजवानों के एक झुंड को कुछ लोगों ने रोकने की कोशिश की और सही नारा - 'कभी न जिसने झुकना सीखा, उसका नाम मुलायम हैÓ, लगाने को कहा तो नाराज नौजवानों ने जवाब दिया, 'नहीं हम तो यही नारा लगाएंगे. या फिर नेता जी अमर सिंह के आगे अकारण झुकना बंद करें.Ó हालांकि यह घटना बहुत छोटी-सी थी, मगर इससे समाजवादी पार्टी के भीतर अमर सिंह की भूमिका और अमर सिंह के कारण समाजवादी आंदोलन को हो रहे नुकसान का अंदाजा लगाया जा सकता था. हालांकि तब तक कार्यकर्ताओं को तो इस बात का एहसास हो गया था कि अमर सिंह के क्या मायने हैं और उनका नफा-नुकसान क्या हैं, लेकिन जमीनी राजनीति के धुरंधर मुलायम सिंह यादव पर अमर सिंह का जादू कुछ इस तरह चढ़ा हुआ था कि वे सब कुछ जानते हुए भी इस हकीकत से अनजान बन रहे थे कि 'अमर प्रभावÓ का घुन समाजवादी आंदोलन को लगातार खोखला करता जा रहा है.
समाजवादी पार्टी को खोखला करने में 'अमर प्रभावÓ ने दो तरह से काम किया. एक ओर इसने समाजवादी पार्टी को अभिजात्य चेहरा ओढ़ाकर अपना चरित्र बदलने के लिए उकसाया तो दूसरी ओर पार्टी में जमीन से जुड़े नेताओं और जमीनी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा शुरू हो गई. मुलायम के केंद्रीय रक्षा मंत्री रहते हुए जब 1997 में लखनऊ में समाजवादी पार्टी कार्यकारिणी की बैठक एक पांच सितारा होटल में आयोजित की गई तो आलोचना करने वालों में मुलायम के राजनीतिक विरोधियों के साथ-साथ समाजवादी पार्टी के आम नेता और कार्यकर्ता भी थे. मुलायम सिंह के खांटी समाजवाद का यह एक विरोधाभासी चेहरा था. लेकिन इसके बाद तो यही सिलसिला शुरू हो गया. पार्टी समाजवादी सिद्धांतों और जमीनी राजनीति को एक-एक कर ताक पर रखते हुए 'कॉरपोरेट कल्चरÓ के शिकंजे में फंसती चली गई. नेतृत्व में एक ऐसा मध्यक्रम उभरने लगा जिसे न समाजवादी दर्शन की परवाह थी और न समाजवादी आचरण की चिंता.
समाजवादी पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपनी हैसियत बचाए रखना इतना मुश्किल कभी नहीं रहा. सिकुड़ती राजनीतिक ताकत, लगातार साथ छोड़ते पुराने साथी, कुछ अपनी उम्र पूरी कर चुकने की वजह से तो कुछ पार्टी में अपनी उपेक्षा के कारण. एक ओर विधानसभा में मायावती का प्रचंड बहुमत और दूसरी ओर लोकसभा चुनाव परिणामों में कांग्रेसी उलटफेर के चलते राज्य में तीसरे स्थान पर सिमटने का खतरा, एक ओर पिछड़ी जातियों पर कमजोर पड़ती पकड़ और दूसरी ओर मुसलिम वोट बैंक पर नजर गड़ाए प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल, बसपाई चालों के चलते सहकारी संस्थाओं और ग्रामीण लोकतांत्रिक व्यवस्था पर से नियंत्रण खोते जाने का एहसास और छात्रसंघों की राजनीति पर मायावती का अंकुश, केंद्र में महत्वहीन स्थिति और इन सबसे ऊपर, पार्टी पर मुलायम के घर की पार्टी बन जाने की अपमानजनक तोहमत. ऐसी न जाने कितनी वजहें एक साथ समाजवादी पार्टी के हिस्से आई हैं कि कुछ समय पहले तक तो यह भी समझा जाने लगा था कि समाजवादी पार्टी अब उत्तर प्रदेश में तीसरे-चौथे नंबर की पार्टी बन गई है. कुछ राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों ने तो इसे गुजरे जमाने की कहकर इतिहास की किताबों में दर्ज रहने के लिए छोड़ देने की बातें तक कह डाली थीं. राजनीति के बारे में यह कहा जाता है कि यहां कुछ भी स्थायी नहीं होता. उत्तर प्रदेश की राजनीति में भी इन दिनों यह एक बड़ा सवाल है कि क्या सपा अपने दामन के धब्बों को कभी धो पाएगी और क्या उसका ग्रहण काल अब खत्म होने जा रहा है.

उत्तर प्रदेश में नवंबर की शुरुआत के साथ ही जाड़ों के सर्द मौसम की शुरुआत हो जाती है, लेकिन समाजवादी पार्टी के लिए इस बार का नवंबर सर्दियों में गरमी का सा एहसास लाने वाला साबित हो रहा है. इस महीने में हुई तीन बड़ी घटनाओं ने 'एक थी समाजवादी पार्टीÓ में कुछ नई ऊर्जा का संचार किया है. इनमें पहली घटना मोहम्मद आजम खान की घर वापसी की है तो दूसरी उत्तर प्रदेश विधानसभा के दो उपचुनावों के नतीजे. तीसरी घटना बिहार के चुनाव परिणाम के रूप में है. इन तीनों घटनाओं ने सपा में नई जान फूंकने का काम किया है. कम से कम पार्टी से जुड़े लोगों का तो यही मानना है.
मुलायम के पुराने साथी बेनी प्रसाद वर्मा जो कभी समाजवादी पार्टी में मुलायम के बाद सबसे महत्वपूर्ण नेता माने जाते थे, उन्हें तक साइड लाइन करने की कोशिशें इसी दौरान शुरू हो गई थीं. उन दिनों लखनऊ में समाजवादी पार्टी के मुख्यालय में सपा के एक विधायक सीएन सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा पर आए दिन पार्टी हितों और पार्टी कार्यकर्ताओं की उपेक्षा करने का आरोप लगाते हुए टेलीविजन कैमरों के सामने खड़े दिखाई देते थे. तब भी हर कोई यह जानता और मानता था कि इस सबके पीछे सीधे अमर सिंह का हाथ है. समाजवादी लोगों को तब इस सबसे काफी पीड़ा होती थी लेकिन समाजवादी आंदोलन को कमजोर करने वाली इस रस्साकशी पर मुलायम हमेशा खामोश ही रहे. हालांकि आज न सीएन सिंह समाजवादी पार्टी में हैं, न अमर सिंह और न ही बेनी प्रसाद वर्मा, मगर इन तीनों के रहने और तीनों के न रहने के बीच समाजवादी पार्टी ने काफी कुछ खो दिया है. जो ज्यादा चालाक थे, मौका परस्त थे, उन्होंने तो मौके का फायदा उठाते हुए अपने लिए उत्तर प्रदेश में मुलायम की सरकार के अंतिम दौर में ही सुरक्षित नावें ढूढ़ ली थीं. मगर बहुतों को बिना तैयारी असमय पार्टी से किनारा करना पड़ा. 'अमर प्रभावÓ से प्रताडि़त, पीडि़त और उपेक्षित-अपमानित होकर सपा से विदाई लेने वालों में राजबब्बर, बेनी प्रसाद वर्मा और मोहम्मद आजम खान सबसे प्रुमख रहे. गौरतलब है कि ये तीनों ही अलग-अलग कारणों से सपा के लिए महत्वपूर्ण थे. राज बब्बर जहां पार्टी के पहले सिने प्रचारक थे, भीड़ जुटाऊ चेहरे थे, वहीं बेनी जमीनी जोड़-तोड़ के माहिर और उत्तर प्रदेश के एक खास इलाके में कुर्मी वोटरों के जातीय नेता. आजम की तो राजनीतिक पैदाइश ही अयोध्या विवाद से हुई थी और इस लिहाज से वे अल्पसंख्यकों की हिमायती पार्टी के सर्वाधिक प्रभावशाली फायर ब्रांड नेता थे. इन तीनों की रुख्सती समाजवादी पार्टी के लिए जोर का झटका रही जिसका असर भी जोर से ही हुआ.
समाजवादी पार्टी के एक वरिष्ठ विधायक मानते हैं, राजनीति में विचारधारा के आधार पर साथ छूटना एक अलग बात होती है. ऐसा तो होता ही रहता है, लेकिन समाजवादी पार्टी में तो कई बड़े नेताओं को जबरन बेइज्जत करके बाहर किया गया. इसका सीधा-सीधा असर कार्यकर्ताओं के मनोबल पर पड़ा. सितंबर, 2003 में जब मुलायम ने उत्तर प्रदेश विधान सभा में बहुमत साबित किया था तो समाजवादी पार्टी के हौसले सातवें आसमान पर थे. लेकिन साढ़े तीन साल की अपनी लंबी पारी में मुलायम पार्टी के हौसले के इस ग्राफ को ऊपर नहीं ले जा सके. वह नीचे ही गिरता गया और इसकी सबसे बड़ी वजह थी अमर सिंह का प्रभाव. इसके साथ ही इन साढ़े तीन वर्षों में जिस तरह का प्रशासन मुलायम सिंह ने चलाया उसने रही-सही कसर पूरी कर दी.
इस दौर में ऐसी भी स्थितियां हो गई थीं कि समाजवादी पार्टी के थिंक टैंक कहे जाने वाले, मुलायम के भाई रामगोपाल यादव तक राजनीतिक एकांतवास में चले गए थे. पार्टी के वैचारिक तुर्क जनेश्वर मिश्र और मोहन सिंह हाशिए पर थे और लक्ष्मीकांत वर्मा जैसे गैरराजनीतिक समाजवादी चिंतक दूर से तमाशा देखकर अरण्य रोदन करने पर मजबूर हो चुके थे. समाजवादी पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेता यह महसूस करते हैं कि उस दौर का खामियाजा पार्टी आज तक भुगत रही है. जिस सत्ता विरोधी लहर पर सवार होकर मायावती ने उत्तर प्रदेश फतेह कर लिया उसकी जड़ें मजबूत करने में सपा का दबंग राज, कार्यकर्ताओं एवं नेताओं की बेलगाम गुंडागर्दी और सरकार का जनसमस्याओं से हटता ध्यान जैसे कारक तो जिम्मेदार थे ही 'अमर प्रभावÓ भी काफी हद तक जिम्मेदार था. अमर सिंह के खास सौंदर्यबोध की चकाचौंध ने धरतीपुत्र को ऐसा मंत्र मुग्ध कर दिया कि वे जमीनी हकीकत से रूबरू हो ही नहीं सके. जिस मुलायम के जनता दरबार एक दौर में खचाखच भरे रहते थे उन्हीं मुलायम से मिल पाना आम आदमी या आम कार्यकर्ता तो दूर विधायकों अथवा अन्य नेताओं के लिए भी मुश्किल हो गया. अमर सिंह हमेशा छाया की तरह मुलायम के साथ होते, उनके एक-एक कदम की नाप जोख कर अमर के चश्मे से होती. सैफई को बॉलीवुड बना देने की चाहत, जया प्रदा के लिए जिद, कल्याण सिंह से एक बार अलगाव के बाद दूसरी बार उनके घर जाकर उन्हें दोस्त बनाने का नाटक, अनिल अंबानी की दोस्ती और दादरी पावर प्लांट जैसे जो तमाम काम मुलायम ने किए उनका पछतावा मुलायम को अब हो रहा होगा और कल्याण से दोस्ती के मामले में तो मुलायम गलती को सार्वजनिक तौर पर स्वीकार करके माफी भी मांग चुके हैं. हालांकि अमर सिंह अब सपा के लिए 'गुजरा जमानाÓ हो चुके हैं, लेकिन इस गुजरे जमाने ने समाजवादी पार्टी के प्रभा मंडल की ओजोन परत में इतना बड़ा छिद्र कर डाला है कि मायावती सरकार के तीन साल के जनविरोधी शासन के बावजूद उससे होने वाला विकिरण पूरी तरह रुक नहीं सका है.
समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता अशोक वाजपेयी कहते हैं, हमें अब उज्वल संभावनाएं दिख रही हैं. मौजूदा बीएसपी सरकार से जनता में जबर्दस्त असंतोष है. लेकिन यह सरकार इतनी बर्बर है कि जनता अपने असंतोष को अभिव्यक्त नहीं कर पा रही है. सपा ही इस असंतोष को स्वर दे सकती है. उत्तर प्रदेश का संघर्ष अब मायावती सरकार के अंधेर और समाजवादी पार्टी के सिद्धांतों के बीच ही होगा.
इन उज्वल सम्भावनाओं की तह में नवंबर की वही तीन घटनाएं हैं जिन्होने समाजवादी पार्टी को नई उम्मीद दी है. आजम खान की वापसी समाजवादी पार्टी की अपने बिखरे कुनबे को फिर से बटोरने की कोशिश तो है ही, इसने अल्पसंख्यकों के बीच अपनी विश्वसनीयता बहाल करने की उम्मीद भी पार्टी के भीतर जगा दी है. हालांकि कुछ विश्लेषक इसे एक सामान्य घटना ही मान रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि आजम खान अयोध्या मुद्दे की उपज हैं. जब तक वह मुद्दा जिंदा था आजम की आवाज में दम था. अब जब हाईकोर्ट के फैसले ने अयोध्या मुद्दे की ही हवा निकाल दी है तो यह उम्मीद कैसे की जाए कि उस मुद्दे को लेकर चर्चा में रहने वाले आजम मुसलमानों के बीच कोई बड़ा गुल खिला पाएंगे? उत्तर प्रदेश में मुसलिम समुदाय की बात की जाए तो मोटे तौर पर यह माना जाता है कि किन्हीं खास लहरों को छोड़कर सामान्य चुनावों में उनका वोट 1967 में चौधरी चरण सिंह के बीकेडी बनाने के बाद से ही कांग्रेस से अलग होने लगा था. 4 नवंबर, 1992 को जब मुलायम सिंह यादव ने समाजवादी पार्टी बनाकर अपनी अलग राजनीति शुरू की तो बाबरी मस्जिद पर उनके रुख की वजह से यह मुसलिम वोट एक तरह से उन्हें मिल गया. पिछले विधानसभा चुनाव तक मुसलिम मतदाता के पास समाजवादी पार्टी के अलावा दूसरा विकल्प नहीं था, लेकिन लोकसभा चुनाव में सपा की कल्याण से जुगलबंदी के चलते कांग्रेस के रूप में उसे एक विकल्प मिल गया. अब अगर मायावती भी मुसलिम आरक्षण जैसा कोई ब्रह्मास्त्र छोड़ती हैं तो उसकी चुनौती भी सपा के सम्मुख खड़ी हो सकती है. फिर भी इतना तो माना जा सकता है कि आजम खान की घर वापसी के बाद समाजवादी पार्टी के पास एक तीखा और प्रभावशाली वक्ता और बढ़ जाएगा जो अल्पसंख्यक मामलों में खुलकर और प्रभावशाली तरीके से उसका पक्ष रख सकेगा. लेकिन कल्याण सिंह से दोस्ती की कड़वी हकीकत अब भी पार्टी के दामन पर चस्पा है. हालांकि सांप्रदायिक समझे जाने वाले पवन पांडे और साक्षी महाराज जैसों को भी मुलायम अपने साथ ला चुके हैं, लेकिन कल्याण से उनकी दोस्ती मुसलिम मानस पचा नहीं पाया है. मुलायम के इस मुद्दे पर सार्वजनिक रूप से माफी मांग लेने के बाद भी उनके प्रति पैदा हुआ संदेह खत्म नहीं हुआ है. आजम खान इस संदेह को पूरी तरह खत्म कर पाएंगे इसमें शक है. फिर भी आजम की घर वापसी समाजवादी पार्टी के लिए एक उम्मीद की वापसी तो है ही.
उपचुनावों के नतीजे भी निश्चित तौर पर समाजवादी पार्टी के लिए उत्साहवर्धक हैं. बीएसपी के इन उपचुनावों में वाकओवर दे देने के कारण इन उपचुनावों में मुख्यत: कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को एक-दूसरे की तुलना में अपनी हैसियत आंकने का अवसर मिला था और समाजवादी पार्टी ने इसमें अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर दी है. वैसे तो एटा जिले की निधौली कलां और लखीमपुर दोनों की ही सीट समाजवादी पार्टी के विधायकों के निधन से खाली हुई थीं और सहानुभूति लहर का लाभ भी उसे मिलना तय था लेकिन कांग्रेस की इन दोनों ही सीटों पर जिस तरह की दुर्गति हुई उसने समाजवादी पार्टी का सीना चौड़ा कर दिया है. खास तौर पर लखीमपुर सीट पर कांग्रेस सांसद के पुत्र सैफ अली की जमानत भी न बच पाने से समाजवादी पार्टी के लिए यह मानना आसान हो गया है कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा चुनाव के दौरान पैदा हुआ कांग्रेसी खुमार अब उतार पर है.
बिहार चुनाव के नतीजों ने समाजवादी पार्टी की इस धारणा को और भी पुख्ता कर दिया है. जिस तरह से वहां सोनिया और राहुल का जादू बेअसर होने की बात कही जा रही है उसने समाजवादी पार्टी को बेहद उत्साहित कर दिया है. खासकर बिहार में मुसलिम मतदाताओं की कांग्रेस से दूरी ने सपा को जबर्दस्त राहत दी है. जिस तरह बिहार कांग्रेस के अध्यक्ष महबूब अली स्वयं सुरक्षित समझी जाने वाली सिमरी बख्तियारपुर सीट से हार गए, वह भी समाजवादी पार्टी को मुसलिम मतों के अपने पक्ष में बने रहने की आश्वस्ति दे रहा है. इससे सपा को अब फिर से यह लगने लगा है कि उत्तर प्रदेश में वही सत्ता की प्रमुख दावेदार है. समाजवादी पार्टी के एक पुराने नेता यह स्वीकार करते हैं कि पार्टी के अंदर अमर सिंह के दिनों की संस्कृति अब पूरी तरह खत्म हो चुकी है. वे जिस तरह मुलायम सिंह से अपनी हर बात मनवा लेते थे उसका खामियाजा अब तक सभी को भुगतना पड़ रहा है. लेकिन अब अच्छे दिन वापस हो रहे हैं और सबसे अच्छी बात यह है कि अब मुलायम फिर से खुद सारे निर्णय करने लगे हैं.इस बदलाव की एक झलक पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव रामगोपाल यादव के उस पत्र से भी मिलती है जो उन्होंने 30 अक्टूबर को प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश यादव को लिखा है. इस पत्र में कहा गया है कि पार्टी के किसी भी नेता को अगर कोई होर्डिंग लगानी है तो केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष का ही चित्र उस पर होना चाहिए. मुलायम की सरकार के दिनों में हर चौराहे पर मुलायम की तस्वीरों के साथ छुटभय्ये नेताओं की तस्वीरें लगे होर्डिंग दिखाई देते थे और नेता जी के साथ अपनी इस 'निकटताÓ का फायदा उठाने में ये नेता कोई कसर नहीं छोड़ते थे. ऐसे लोगों के कारण पार्टी को तब बहुत बदनामी मिली थी. अब मुलायम ने इसे एकदम बंद करने को कहा है. मतलब साफ है कि वे पार्टी को अब फिर से कड़े अनुशासन में रखना चाहते हैं. समाजवादी पार्टी के लिए हौसला बढ़ाने वाली सबसे बड़ी बात यह है कि मुलायम सिंह यादव अब फिर से सक्रिय प्रतीत होने लगे हैं.
हालांकि मुलायम पहले कई बार यह साबित कर चुके हैं कि वे एक जबर्दस्त फाइटर हैं. अगर ऐसा न होता तो वे 1989 में 'हिंदुओं का हत्याराÓ, 'राम विरोधीÓ और 'मौलाना मुलायमÓ की चिप्पियां लगने के बाद भी सत्ता में वापसी कैसे कर पाते? मगर यह भी सच है कि तब और अब की स्थितियां बिलकुल अलग हैं. बकौल आजम खान, सपा के जहाज को नुकसान पहुंचाने वाले चूहों को बाहर कर मुलायम ने अपने जीवन का नया अध्याय शुरू कर दिया है. लेकिन उत्तर प्रदेश के चुनाव अभी काफी दूर हैं. फिर अभी बीएसपी, कांग्रेस और बीजेपी सभी को अभी अपने-अपने तरकश से तीर निकालने हैं. मायावती के इस बार के अब तक के और मुलायम के पिछले कार्यकाल की तुलना करें तो जनआकांक्षाओं पर खरा उतरने के मामले में दोनों में 19-20 का ही फर्क है. लेकिन मायावती के पास अभी भी काफी समय बाकी है. यह मायावती के लिए लाभ की स्थिति है. जबकि मुलायम को इसी अवधि में अपने सभी पुराने पाप धोकर जनता के सामने नई उम्मीदों के साथ पेश होना होगा. और यह काम भी बहुत आसान नही है प्रो. एचके सिंह के इस विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि सफलताओं के नये अध्याय लिखना मुलायम के लिए काफी मुश्किलों का काम है. ऐसे में मुलायम के लिए अभी भी लखनऊ बहुत दूर है. उनके लिए राहत की बात यह है कि वे भी अब लखनऊ की दौड़ में शामिल हैं.
राज बब्बर
समाजवादी पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह लगातार यह कहते रहे हैं कि भले ही उन पर पार्टी में फिल्मी सितारों को लाने का आरोप लगाया जाता रहा हो लेकिन इसकी शुरुआत खुद मुलायम सिंह ने 1994 में राज बब्बर को पार्टी में लाकर की थी. अमर सिंह की यह बात तथ्य के रूप में भले ही सही हो लेकिन इसके संदर्भ बिलकुल ढीले हैं. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व छात्र राज बब्बर का एक लंबा फिल्मी करियर रहा है, लेकिन इससे यह बात कहीं से नहीं भुलाई जा सकती कि राज बब्बर अगर आज भारतीय राजनीति में टिके हैं तो सिर्फ अपने राजनीतिक दम-खम की बदौलत, न कि अपने सिनेमाई ग्लैमर की वजह से. वे अपने कॉलेज के दिनों से ही समाजवाद और लोहिया में आस्था रखने वाले छात्र नेता के रूप में पहचाने जाते थे और अस्सी के दशक के अंत में उन्होंने पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के समर्थन में जबर्दस्त सभाएं की और संघर्ष किया. सिनेमा से इतर उनकी राजनीतिक पहचान इसी दौर में बन चुकी थी. नब्बे के दशक की शुरुआत होते-होते राज बब्बर वीपी सिंह से दूर होकर समाजवादी पार्टी में आ गए और 1994 में पहली बार राज्यसभा से सांसद बने. यह राज बब्बर पर मुलायम सिंह का भरोसा ही था कि उन्होंने राज बब्बर को 1996 में लखनऊ से पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ लोकसभा चुनावों में उतारा. राज बब्बर लखनऊ से तो हार गए लेकिन अगले दोनों लोक सभा चुनावों में उन्होंने अपने शहर आगरा की सीट समाजवादी पार्टी को दिला दी. इसी दौरान पार्टी में अमर सिंह का दबदबा लगातार बढ़ रहा था और बब्बर पार्टी में असहज हो रहे थे. अंतत: वे ऐसे पहले व्यक्ति बने जिन्होंने अमर सिंह के खिलाफ मोर्चा लेने की हिम्मत दिखाई. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर अमर सिंह के लिए दलाल जैसे शब्दों का प्रयोग किया. इसके बाद तो पार्टी में एक ही रह सकता था. हुआ वही. अमर रहे और राज बब्बर गए. सपा से बाहर जाने के बाद राज बब्बर लगातार पार्टी के लिए मुश्किलें ही पैदा करते रहे. पहले 2007 के विधानसभा चुनावों के ठीक पहले उन्होंने किसानों के मुद्दे पर दादरी परियोजना के विरोध में एक बार फिर वीपी सिंह के साथ मिलकर जन मोर्चा के तले एक जबर्दस्त आंदोलन छेड़ा. दादरी प्रोजेक्ट मुलायम सिंह के तत्कालीन दोस्त अनिल अंबानी का था. राज बब्बर के आंदोलन से मुलायम सिंह के खिलाफ जो माहौल बना उसने बसपा को बहुत फायदा पहुंचाया. इन चुनावों में जन मोर्चा खुद तो कोई सीट नहीं जीत पाया लेकिन उसने कम से कम 50 सीटों पर सपा को नुकसान पहुंचाया. लेकिन बब्बर सपा के लिए इससे बड़ी मुसीबत 2009 के फिरोजाबाद लोकसभा उपचुनाव में साबित हुए. मुलायम सिंह के बेटे अखिलेश यादव के छोडऩे से खाली हुई इस सीट पर कांग्रेस की तरफ से लड़ते हुए उन्होंने मुलायम सिंह की बहू डिंपल यादव को हराकर अपनी राजनीतिक हैसियत सिद्ध कर दी. इस हार को डिंपल की नहीं बल्कि मुलायम सिंह और सपा की हार के रूप में देखा गया क्योंकि फिरोजबाद सीट पर यादव, लोध और मुसलमान वोट बड़ी संख्या में हैं जिसे सपा का परंपरागत वोट बैंक माना जाता था. राज बब्बर के दिए इस घाव को सपा शायद ही कभी भुला पाए.
बेनी प्रसाद वर्मा
तकरीबन दो दशक तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे और पांच बार लोकसभा के लिए चुने गए बेनी प्रसाद वर्मा जब तक समाजवादी पार्टी में थे, उनकी गिनती प्रदेश के सबसे कद्दावर नेताओं में होती थी. राज्य और केंद्र दोनों की सरकारों में वे काबीना मंत्री बन चुके थे. जातियों में उलझी उत्तर प्रदेश की राजनीति में किसी दूसरी पार्टी के पास कुर्मी लीडर के तौर पर वर्मा की काट नहीं थी. बाराबंकी से लेकर बहराइच और लखीमपुर तक के कुर्मी वोटों पर उनकी मजबूत पकड़ थी. मुलायम सिंह यादव और बेनी प्रसाद वर्मा की दोस्ती पुरानी थी लेकिन इतनी गहरी दोस्ती होने के बाद भी बेनी वर्मा के साथ वही हुआ जो सपा के दूसरे वरिष्ठ नेताओं के साथ हुआ. जैसे-जैसे पार्टी में अमर सिंह का कद बढ़ा, बेनी उपेक्षितों की कतार में चले गए. मुलायम सिंह के साथ उनकी निर्णायक लड़ाई 2007 विधानसभा चुनावों के ठीक पहले शुरू हुई. इन चुनावों में समाजवादी पार्टी ने बहराइच सीट से वकार अहमद शाह को टिकट दिया जो सपा की सरकार में श्रम मंत्री रह चुके थे. बेनी ने शाह को टिकट दिए जाने का खुला विरोध किया. क्योंकि बेनी के मुताबिक शाह उनके एक कट्टर समर्थक राम भूलन वर्मा की हत्या में शामिल थे. बेनी इससे पहले भी इसी मुद्दे को लेकर वकार अहमद शाह को मंत्रिमंडल से हटाए जाने की मांग कर चुके थे. लेकिन जब समाजवादी पार्टी ने ऐसा नहीं किया तब बेनी बाबू ने इसे कुर्मी स्वाभिमान का मुद्दा बनाते हुए पार्टी छोड़ दी और समाजवादी क्रांति दल के नाम से एक नई पार्टी बना ली. उनके बेटे राकेश वर्मा, जो सपा की सरकार में जेल मंत्री थे, ने भी समाजवादी पार्टी से इस्तीफा दे दिया और अपने पिता जी की पार्टी से उन्हीं की कर्मभूमि मसौली सीट से चुनाव मैदान में उतरे. इससे बेनी बाबू को कोई फायदा तो नहीं हुआ (चुनाव में समाजवादी क्रांति दल को एक सीट भी नहीं मिली), लेकिन उन्होंने सपा को खासा नुकसान पंहुचाया. बेनी बाबू की वजह से ही बाराबंकी सीट पर लंबे समय बाद कांग्रेस का कब्जा हुआ और पीएल पुनिया जीते. हालांकि इन दिनों बेनी वर्मा का भविष्य कांग्रेस में भी उज्जवल नजर नहीं आ रहा है और सूत्रों की मानें तो बेनी प्रसाद भी आजम खान की तरह सपा में वापस आ सकते हैं.
आजम खान
हालांकि आजम खान की सपा में वापसी तय हो चुकी है लेकिन फिर भी यहां उनका जिक्र जरूरी है. पिछले कुछ समय में पार्टी को आजम खान से भी महरूमी का सामना करना पड़ा है और इससे उसे बड़ी मुश्किल भी हुई है. आजम खान की सपा से विदाई का मुख्य कारण अमर सिंह और उनकी ही वजह से कल्याण सिंह रहे. अमर सिंह के मोह की वजह से समाजवादी पार्टी ने अपने जिन नेताओं को खोया उनमें आजम सबसे अहम थे. इसीलिए शायद हाल में आजम की पार्टी में वापसी से पहले मुलायम सिंह ने कहा कि अगर आजम चाहेंगे तो विरोधी दल के नेता का पद उन्हें दिया जाएगा.
अमर सिंह ने अपने मैनेजमेंट और सितारा संस्कृति से समाजवादी पार्टी में जो जगह और दबदबा कायम किया था उससे पुराने समाजवादी नेता एकदम उपेक्षित हो गए थे. आजम भी इन्हीं में थे. अमर सिंह और आजम के बीच की खाई उस वक्त जग जाहिर हो गयी जब आजम के न चाहते हुए भी सपा ने जया प्रदा को रामपुर से लोकसभा का उम्मीदवार घोषित कर दिया. रामपुर सदर से 7 बार के विधायक आजम का कहना था कि जया प्रदा को रामपुर से कोई सरोकार नहीं है ऐसे में उन्हें टिकट क्यों दिया गया. लेकिन अमर सिंह के दबदबे के आगे उनकी नहीं सुनी गयी. जया चुनाव लड़ी और जीत भी गईं. आजम खान की दूसरी नाराजगी मुलायम सिंह के कल्याण सिंह से हाथ मिलाने को लेकर भी थी. इन्हीं दोनों मुद्दों पर नाराज आजम खान को अंतत: पार्टी से बाहर जाना पड़ा. लेकिन लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद सपा को आजम खान की अहमियत का एहसास हो गया. अमर सिंह के सपा से जाते ही इस बात की अटकलें तेज हो गईं कि आजम की सपा में वापसी हो सकती है. लेकिन आजम खान बराबर यह कहते रहे कि पहले मुलायम कल्याण सिंह से हाथ मिलाने के लिए सार्वजनिक तौर पर मुसलमानों से माफी मांगें तभी वापसी पर कोई विचार किया जा सकता है. चूंकि सपा को आजम खान की अहमियत समझ में आ चुकी थी, इसलिए मुलायम ने खुद मुसलमानों से माफी भी मांग ली. इसके बाद उनका निष्कासन भी वापस ले लिया गया.
अमर सिंह
जिन हालात में अमर सिंह को पार्टी से निकाला गया, ऐसा लगा जैसे वे खुद यही चाहते हों क्योंकि राम गोपाल यादव से उनके शुरुआती विवाद के बाद ही सपा की तरफ से इसे सुलझा लेने का बयान आया लेकिन अमर सिंह की जुबान नहीं रुकी. अमर सिंह गए तो उनके साथ सपा का फिल्मी सितारों वाला ग्लैमर भी चला गया. जया प्रदा को निकाल दिया गया. मनोज तिवारी और संजय दत्त ने खुद ही इस्तीफ़ा दे दिया. जया बच्चन जब सपा में ही बनी रहीं तो अमर सिंह के साथ बच्चन परिवार के रिश्ते भी खट्टे हो गए. समाजवादी पार्टी ने उनके जाते ही उनकी जगह एक और क्षत्रिय नेता मोहन सिंह को महासचिव और प्रवक्ता बनाकर सामने ले आए. मोहन सिंह पुराने समाजवादी हैं. उन्होंने आपातकाल में 20 महीने जेल में भी गुजारे थे, लेकिन इतना सब होने के बाद भी वे सपा में अमर सिंह के चलते हाशिए पर चले गए थे
1995 में पार्टी में आने वाले अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी को एकदम बदल दिया. उन्होंने देश के सबसे चमकदार फिल्मी सितारों और उद्योगपतियों को समाजवादी पार्टी की चौखट पर ला दिया. वे शाहरुख़ खान से अपनी तकरार और कुछ फिल्मी अभिनेत्रियों से अपनी बातचीत को लेकर भी चर्चा में रहे. न्यूक्लियर डील के मुद्दे पर समाजवादी पार्टी के कांग्रेस को समर्थन देने के पीछे अमर सिंह का ही दिमाग था. कल्याण सिंह को सपा में लाने की जमीन भी इन्होंने ही तैयार की थी. पार्टी से निकाले जाने के बाद अमर सिंह लोक मंच बनाकर हर मंच से चिल्लाते रहे है कि मुलायम धोखेबाज हैं और अगर उनमें हिम्मत है तो किसी मुसलमान को मुख्यमंत्री बनाएं.
जनेश्वर मिश्र एवं अन्य
इस साल की शुरुआत में समाजवादी पार्टी को अपने एक और वरिष्ठ नेता जनेश्वर मिश्र को भी खोना पड़ा. हालांकि इसकी वजह सियासी न होकर कुदरती थी. 22 जनवरी को लंबे समय से बीमार चल रहे जनेश्वर मिश्र ने इलाहाबाद के एक अस्पताल में अपनी अंतिम सांस ली. जनेश्वर मिश्र पुराने समाजवादी नेता थे. उन्हें लोहिया के उत्तराधिकारी के तौर पर भी देखा जाता था इसीलिए उनका लोकप्रिय नाम छोटे लोहिया भी था. धुरंधर समाजवादी नेता राज नारायण से उनके करीबी संबंध थे और राज नारायण के निधन के बाद वे समाजवादियों के बीच सबसे सम्मानित नेता की हैसियत रखते थे. चार बार लोकसभा और तीन बार राज्यसभा के सदस्य रहे जनेश्वर मिश्र की राजनीतिक सक्रियता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गंभीर रूप से बीमार होने के बाद भी उन्होंने अपनी मृत्यु से मात्र तीन दिन पहले 19 जनवरी को सपा के महंगाई और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर प्रदेश व्यापी जनांदोलन का इलाहाबाद में नेतृत्व किया था. अमर सिंह की विकसित की गयी सितारा संस्कृति के दौर में समाजवादी पार्टी के अंदर समाजवाद की जो थोड़ी-बहुत महक बाकी रह गई थी उसका केंद्र जनेश्वर मिश्र ही थे. अगर उनकी जगह कोई और होता तो शायद वह भी अमर सिंह की भेंट चढ़ गया होता लेकिन यह जनेश्वर मिश्र का अपना कद और मुलायम सिंह से उनकी नजदीकी ही थी कि सपा में अंत तक उनकी हैसियत पर कोई असर नहीं पड़ा.
इसके अलावा पिछले कुछ समय में समाजवादी पार्टी से आजम खान के अलावा जो मुसलमान नेता बाहर गए उनमें सलीम शेरवानी, शफीकुर्रहमान बर्क और शाहिद सिद्दीकी भी शामिल हैं. भले ही ये नेता पार्टी छोडऩे के लिए कोई वजह बताएं लेकिन इसके लिए उनकी अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं ही ज्यादा जिम्मेदार रहीं.

Tuesday, November 30, 2010

आइएएस बनने के मंसूबे पर फिरा पानी

मध्यप्रदेश में गैर प्रशासनिक सेवा से भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन का ख्वाब देख रहे अधिकारियों के मंसूबों पर इस बार भी पानी फिरता नजर आ रहा है। पहले विभागीय लेतलाली, फिर सामान्य प्रशासन विभाग की कार्यप्रणाली और अब राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के विरोध ने मामले को पेंचिदा बना दिया है।
भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन के मामले को लेकर राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी प्रशासनिक न्यायाधिकरण में मुकदमा करने की तैयारी कर रहे हैं। उनका कहना है कि गैर राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदोन्नति हेतु कोई पृथक से कोटा नहीं हैं। इसे भारत सरकार द्वारा भी पूर्व में अन्य मुकदमों में स्वीकार किया गया है, जबकि प्रदेश में इसे कोटे के रूप में लिया जाने लगा है। उनका आरोप है कि राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारी 22-23 वर्ष की सेवा के उपरांत भी भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदोन्नत नहीं हो पा रहे हैैं, जबकि 8 वर्ष की सेवा के उपरांत ही उन्हें पदोन्नति की पात्रता हो जाती है तथा पदोन्नति के सभी पद प्राथमिक रूप से राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के कोटे के अंतर्गत ही हैं। नियमानुसार गैर राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों में से भारतीय प्रशासनिक सेवा में पदोन्नति की प्रक्रिया तब ही प्रारंभ हो सकती है, जब उस वर्ष विशेष परिस्थिति एवं विशेष प्रकरण मौजूद हों। विशेष परिस्थिति का निर्धारण राज्य शासन एवं संघ लोक सेवा आयोग के परामर्श के उपरांत केन्द्र सरकार को औपचारिक रूप से करना होता है। विशेष परिस्थिति के निर्धारण के समय लोकहित का होना भी आवश्यक है जबकि प्रदेश में यह प्रक्रिया नहीं अपनाई गई है। विशेष परिस्थिति के निर्धारण के उपरांत ही उस वर्ष गैर राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों में से भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन द्वारा भर्ती के लिये रिक्तियों की संख्या का निर्धारण रेग्युलेशन-3 आई.ए.एस. (अपाईटमेंट बाई सिलेक्शन) रेेग्युलेशंस 1997 के अंतर्गत किया जा सकता है। यह विशेष परिस्थिति निर्धारण के पूर्व ही कर ली गई।
इस बार गैर राज्य प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के चयन द्वारा भारतीय प्रशासनिक सेवा में नियुक्ति के लिए गैर पारदर्शी ढंग से नामांकन प्राप्त किये गये। लोक सेवाओं के अंतर्गत सभी पात्र व्यक्तियों से विज्ञापन अथवा राजपत्र में अधिसूचना प्रकाशन के माध्यम से आवेदन आमंत्रित किए जाने चाहिए थे। इसके कारण चयन प्रक्रिया में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चयन समाप्त ही हो गया और विभाग के प्रमुख सचिव/सचिव तथा राजनैतिक प्रभाव के माध्यम से नामांकन किये जाने की परिस्थितियां निर्मित हुई। सभी पात्र गैर राज्य प्रशासनिक सेवा अधिकारियों को आवेदन करने का अवसर ही नहीं दिया गया। यह पिक एण्ड चूज के अंतर्गत है। नियमानुसार नामांकन प्राप्त करने के पूर्व विशेष परिस्थिति का निर्धारण किया जाना रूल-4 (2) ए तथा रूल 8 (2) ए के अंतर्गत अनिवार्य है, क्योंकि विशेष परिस्थिति के निर्धारण के उपरांत ही गैर राज्य प्रशासनिक सेवा अधिकारियों से भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयन द्वारा नियुक्ति प्रक्रिया प्रारंभ हो सकती है, किन्तु विशेष परिस्थिति के निर्धारण किये बिना ही नामांकन प्राप्त करने की प्रक्रिया पूर्ण कर ली गई।
इस मामले को लेकर पूर्व में भी विवाद हुए हैं लेकिन राज्य सरकार ने कभी भी इस ओर ध्यान नहीं दिया। जिससे विगत दो वर्षों की भांति इस बार भी अधिकारी अपनी योग्यता नहीं बल्कि जुगाड़ के बल पर इस सर्वोच्च प्रशासनिक पद को पाने की जुगत भिड़ाए हुए हैं। हालांकि इनमें से कुछ अधिकारी तो ऐसे हैं, जो वर्षों से आईएएस बनने की जुगत भिड़ा रहे हैं, लेकिन दांव नहीं लग पा रहा है। इस बार मप्र से गैर सिविल सेवा से आईएएस चयन के लिए यूपीएससी को भेजी गई सूची में कई ऐसे अधिकारियों के नाम भी शामिल हैं जो पूर्व में भी विवादों में फंसे थे। लेकिन राज्य सरकार के मुखिया और उनके अन्य मंत्री अपने चहेतों को आईएएस बनाने के लिए जिद पर अड़ सा गए है। सूत्र बताते हैं कि आईएएस चयन की इस पूरी प्रक्रिया में एक-एक अधिकारी से लाखों रुपए लिए गए हैं।
विभागीय सूत्रों की माने तो इस बार पांच पदों के लिए 20 अधिकारियों की अंतिम सूची बनाई गई है, लेकिन यह सूची चयन के लिए यूपीएससी को भेजी गई है कि नहीं इस बार भी असमंजस है। अगर यह सूची यूपीएससी को भेज भी दी गई होगी तो भी ऐसा नहीं लगता कि इस बार भी मध्यप्रदेश को पांच आईएएस अधिकारी मिल ही जाएंगे। क्योंकि बताया जाता है कि जो सूची तैयार की गई है उसमें कुछ नाम ऐसे भी है जो पंजाब हाईकोर्ट एवं सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय को दरकिनार कर शामिल किए गए हैं। क्योंकि प्रवीण कुमार विरुद्ध पंजाब राज्य के मामले में अभी हाल ही में पंजाब हाईकोर्ट एवं सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से यह स्पष्ट हो गया हैै कि 01.01.2010 की स्थिति में आयोजित होने वाले सिलेक्शन कमेटी के लिए विचार क्षेत्र में आने वाले अधिकारियों की आयु सीमा का निर्धारण 01.01.2009 की स्थिति में 54 वर्ष किया जाना हैै, जबकि पूर्व में 01.01.2010 की स्थिति में उम्र 54 वर्ष निर्धारित की गई है। गैर राज्य सिविल सेवा अधिकारियों के नामांकन 01.01.2010 की स्थिति में चयन समिति की बैठक हेतु सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के पूर्व की स्थिति के अनुसार 01.01.2009 की स्थिति में 54 वर्ष उम्र का निर्धारण कर मंगाये गये थे। ऐसी स्थिति में प्राप्त सभी नामांकन पंजाब उच्च न्यायालय एवं सर्वोच्च न्यायालय के प्रवीण कुमार के मामले में दिये गये निर्णय के परिप्रेक्ष्य में विधि विरुद्ध हो जाने के कारण शून्यवत हो गए हैं।
उधर केन्द्रीय कानून मंत्री वीरप्पा मोईली का यह कथन भी आड़े आ सकता है जिसमें उन्होंने इस बात के संकेत दे दिए हैं कि आईएएस चयन के लिए डिप्टी कलेक्टर और गैर प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को एक राष्ट्रीय स्तर की परीक्षा देनी पड़ेगी। अगर इस बार सूची में शामिल अधिकारियों के भाग्य का छींका नहीं टूटता है तो मामला अटका ही रह जाएगा। यहां बता दें कि वर्ष 2007 में मप्र केडर में एक पद था, लेकिन डिप्टी कलेक्टरों के हस्तक्षेप के कारण चयन नहीें हो सका। वर्ष 2008 में दो पदों के लिए राज्य सरकार ने दस अधिकारियों के नाम यूपीएससी को भेजे थे। यूपीएससी ने 19 सितम्बर 2008 को साक्षात्कार रद्द कर दिया। बीते साल भी ऐसा ही हुआ है। इस मामले को लगातार तीन वर्षों से पाक्षिक अक्स पत्रिका द्वारा ही उठाया गया था। अब देखना यह है कि यूपीएससी इस मामले को किस तरह लेता है।

भोपाल गैस त्रासदी न्याय व्यवस्था और राजनीति की त्रासदी

भोपाल गैस त्रासदी केवल गैस त्रासदी नहीं बल्कि यह न्याय, कानून, राजनीति और लूट-खसोट की मिली-जुली त्रासदी भी है जो इस देश के लोकतंत्र के लिए ऐसा कलंक है जिसे कभी मिटाया न जा सकेगा। भोपाल के गैस राहत अस्पतालों में काम कर रहे चिकित्सकों की माने तो अब भोपाल में मिथाइल आइसोसाइनेट गैस का कोई प्रभाव बाकी नहीं है, लेकिन जब भी मुआवजे की बात उठती हैै तो अचानक मरीज भी पैदा हो जाते हैं। गैस त्रासदी का रौद्र रूप भले ही 2-3 दिसंबर 1984 की रात को सामने आया था लेकिन इसकी शुरूआत उसी समय हो गई जब नियमों को ताक पर रखकर धरमपुरी की जमीन पर यूनियन कार्बाइड को यहां स्थापित किया गया था। मंत्रियों और अधिकारियों ने जहां अपने सगे-संबंधियों को इस फैक्ट्री में लॉलीपॉप की तरह नौकरियां दिलवाईं, वहीं जहरीली गैस लीक होने की खबरे लगातार मिलते रहने के बाद भी सीबीआई अथवा स्थानीय सीआईडी द्वारा कभी इन तथ्यों की जांच नहीं कराई। जिसका परिणाम यह हुआ की दुनिया की अब तक की सबसे बड़ी दुर्घटना घटी जिसमें 27000 से अधिक लोग (सरकारी अधिकृत आंकड़ा 3000) मारे गये थे और करीब 6 लाख लोग प्रभावित हुए थे, यानी गैस पीडि़त विभिन्न स्तर की विकलांग जिंदगी जीने के लिए मजबूर हो गए।
गैस त्रासदी ने जो जख्म दिए हैं उन्हें तो कभी भी नहीं भरा जा सकेगा, लेकिन जिस प्रकार राजनीतिक दलों, न्यायिक व्यवस्था की खामियों और भ्रष्ट अधिकारियों की लूट-खसोट और चंदाखोर स्वयंसेवी संगठनों ने गैस पीडि़तों के उन घावों को खरोंच-खरोंचकर अब नासूर बना दिया है जिनसे यह त्रासदी इस देश के लोकतंत्र के लिए ऐसा कलंक बन गई है जिसे शायद ही कभी मिटाया जा सके।
गैस पीडि़तों की चिकित्सा, आर्थिक, सामाजिक, पर्यावरणीय एवं विधिक तथा प्रशासनिक समस्याओं के निराकरण के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने 29 अगस्त 1985 को पहले भोपाल गैस त्रासदी राहत एवं पुनर्वास विभाग का गठन किया और उसके बाद 17 अक्टूबर 1995 को भोपाल गैस राहत एवं पुनर्वास संचालनालय स्थापित किया। इन विभागों के माध्यम से राज्य सरकार ने 2009 तक गैस पीडि़तों पर सरकारी आंकड़ों के अनुसार 538.17 करोड़ रुपए खर्च कर दिए हैं, लेकिन समस्याएं जस की तस है।
गैस पीडि़तों की तमाम समस्याओं की तहकीकात करने के लिए जब इस प्रतिनिधि ने राज्य सरकार द्वारा चिकित्सा पुनर्वास के तहत चलाए जा रहे अस्पतालों और डे-केयर यूनिटों की पड़ताल की और डॉक्टरों से विचार-विमर्श किया तो जानकारी में आया कि आज की स्थिति में इन अस्पतालों में एक सैकड़ा मरीज भी मौजूद नहीं है जो मिक गैस के दुष्प्रभाव से पीडि़त हो। गैस राहत अस्पताल के डॉक्टर ने तो यहां तक बताया कि अगर मुआवजे की लालच में चलने वाली कथित आंदोलन की कार्रवाई बंद हो जाए तो भोपाल में एक भी गैस पीडि़त सामने नहीं आएगा। उन्होंने बताया कि जिस तरह अन्य अस्पतालों और शहरों में मरीज इलाज के लिए आते हैं वैसी ही मौसमी बीमारियों से पीडि़त मरीज इन दिनों गैस राहत अस्पतालों में आ रहे हैं।
गैस पीडि़तों के लिए वर्षों से आंदोलनरत एक गैस पीडि़त संगठन के पूर्व पदाधिकारी ने बताया कि राजनीतिक दल वोट बैंक और स्वयंसेवी संगठन अपना हित साधने के लिए गैस त्रासदी का मुद्दा जिंदा रखना चाहते हैं। उन्होंने एक घटना का जिक्र करते हुए बताया कि एक बार दिल्ली से कुछ देशी और विदेशी प्रतिनिधि भोपाल गैस पीडि़त कालोनियों का दौरा करने आए थे तो यहां के स्वयंसेवी संगठन ने राजधानी और इसके आसपास के शहरों से विकलांग लोगों को लाकर बस्ती में हर दूसरे-तीसरे घर में बिठा दिया। जब विदेशी प्रतिनिधि मंडल ने यह नजारा देखा तो वे भी दंग रह गए कि भोपाल में गैस पीडि़तों की स्थिति कितनी बदतर और दयनीय है। इस घटना के बाद उक्त प्रतिनिधियों ने उस गैस संगठन को इनके हित में काम करने के लिए करोड़ों रुपए की राशि चंदे अथवा अनुदान के रूप में दी। उन्होंने दावा किया कि गैस पीडि़तों के लिए काम कर रहे स्वयंसेवी संगठन राज्य सरकार के लिए भी नाक के बाल बने हुए है। जब कभी गैस पीडि़त सरकार के खिलाफ आवाज उठाते हैं सरकार केन्द्र से मिले अनुदान में से लाखों रुपए की सौगात उनको किसी भी नाम पर बांट देती है और उन संगठनों के कर्ताधर्ता अधिकारियों से रिश्वत का हिस्सा पाकर चुप हो जाते हैं।
जन-साधारण के साथ सरकारों के विश्वासघात के हजारों उदाहरण देश-दुनिया में देखने को मिलते रहते हैं परन्तु भोपाल गैस कांड को लेकर जिस तरह का विश्वासघात देश की पिछली तथा वर्तमान केन्द्र सरकारों और मध्यप्रदेश की कांग्रेसी अथवा भाजपा की राज्य सरकारों ने गैस पीडि़तों के साथ किया है, वैसा उदाहरण दुनिया में कहीं भी देखने को नहीं मिलता। भोपाल गैस त्रासदी तो फिर भी विश्व की अन्यतम औद्योगिक दुर्घटनाओं में शामिल है, जिससे हुए शारीरिक आर्थिक नुकसान का दूर बैठकर अन्दाज़ा लगाना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है। अमरीका अथवा पश्चिम के किसी भी देश में किसी छोटी-मोटी औद्योगिक दुर्घटना तक में लापरवाही बरतने एवं श्रमिकों, जनसाधारण के हताहत होने पर सज़ा एवं मुआवज़े के जो कठोर प्रावधान हैं उनके आधार पर भोपाल गैस पीडि़तों के मामले में जिम्मेदार लोगों को सख्त सजा के साथ-साथ कंपनी को जो आर्थिक मुआवजा भुगतना पड़ता उससे यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन को अपने आपको दिवालिया घोषित करना पड़ सकता था। परन्तु गैस कांड के तुरंत बाद तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने गैस पीडि़तों के हितों के नाम पर समस्त कानूनी कार्यवाही का अधिकार अपने हाथ में लेकर गैस पीडि़तों के हाथ तो काट ही दिए बल्कि गैस पीडि़तों की लड़ाई को इतने कमजोर तरीके से लड़ा कि ना इस नरंसहार के लिए यूनियन कार्बाइड कार्पोरेशन की जिम्मेदारी तय हो पाई और ना ही पश्चिमी कानूनों मुताबिक भोपाल गैस पीडि़तों को पर्याप्त मुआवजा ही मिल पाया। यूं कहे कि यदि अमरीकी मुआवजा कानून के तहत मुआवजा दिया जाता तो भोपाल के प्रत्येक गैस पीडि़त के हिस्से में लगभग ढाई-ढाई करोड़ रुपया मिलता। लेकिन अगर ऐसा होता तो राजनीतिक दलों के नेताओं को करोड़पति बनने का मौका कैसे मिलता?
एक पूंजीवादी साम्राज्यवादी षडय़ंत्र के तहत भोपाल में मचाए गए मौत के इस तांडव के विरुद्ध सचेत राजनैतिक आन्दोलन के अभाव में गैस पीडि़तों का जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई की जाना तो आज छब्बीस साल बाद भी संभव नहीं है। लेकिन इन 26 वर्षों में इसे लेकर जो राजनीतिक व न्यायिक प्रक्रिया का रोचक और लोमहर्षक खेल खेला गया, वह और भी अधिक त्रासद और पीड़ादायक है।
दरअसल देखा जाए तो इस दुर्घटना के राजनैतिक सिग्नीफिकेन्स को दरकिनार रखकर गैस पीडि़तों की पूरी जद्दोजहद मुआवज़े के इर्द-गिर्द ही केन्द्रित रही है जिसे लेकर केन्द्र एवं राज्य सरकार के अलावा गैस पीडि़त संगठनों की भूमिका भी बेहद निराशाजनक रही है। मुआवज़े के नाम पर जो भी रकम सरकार के खाते में आई है उसके सही खर्च और गैस पीडि़तों के हित में प्रबंधन करने की जगह उसे फुटकर रूप से गैस पीडि़तों में बांटकर अप्रत्यक्ष रूप से बाज़ार के मुनाफाखोर व्यापारियों की जेब में पहुंचा दिया गया है। गैस पीडि़तों ने अपनी शारीरिक हालत की गंभीरता के प्रति अन्जान रहकर मुआवज़े के रूप में मिले उस पैसे को अपने इलाज पर खर्च करने की जगह टी.वी. फ्रिज, मोटरसाइकिल और दीगर लक्जऱी आयटम्स की खरीदारी पर खर्च कर दिया। कुछ गैस पीडि़तों ने मुआवज़े की रकम से अपने झोपड़ों को पक्के मकानों में तब्दील कर दिया। मगर उनको पहुँचे गंभीर शारीरिक नुकसान के मद्देनजऱ उसका बेहतर से बेहतर इलाज कराया जाना सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा जाना चाहिए था और इसके लिए मुआवज़े की राशि को इस तरह न बाँटकर गैस पीडि़तों के लिए सर्व सुविधा युक्त आधुनिक अस्पतालों का जाल बिछाने के लिए इसका उपयोग किया जाना चाहिए था ताकि उन्हें वैज्ञानिक पद्धति से उपयुक्त एवं सस्ता इलाज मुहैया हो पाता और वे डॉक्टरों की लूटमार से भी बच जाते। भोपाल मेमोरियल हॉस्पिटल अलबत्ता स्थापित किया गया मगर इसमें भी गैस पीडि़तों को इलाज मिलने के बजाय रईसजादों का ही इलाज होता है और गैस पीडि़त अपने हक से वंचित है। मगर अफसोस सरकारों ने इस दिशा में अभी तक कोई कारगर कदम नहीं उठाया। उधर भोपाल गैस पीडि़तों की आवाज बुलंद करने वाले स्वयंसेवी संगठनों को कटघरे में खड़ा करते हुए 62 वर्षीय आसमां बी कहती हैं कि गैस पीडि़तों को ठगने में किसी ने भी कोई कमी नहीं की है। उन्होंने सरकार से मांग की कि वह पहले अब्दुल्ल जब्बार, आलोक प्रताप सिंह, बालकृष्ण नामदेव, सतीनाथ षडंगी, इरफान, रशीदा बी, हमीदा बी, चंपा देवी शुक्ला, साधना कार्णिक आदि की सम्पत्ति की भी जांच कराएं। क्योंकि त्रासदी से पहले इन सभी की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर थी। किसी के पास तो साइकल तक भी नहीं थी, लेकिन आज सभी के सभी लाखों रुपए की लग्जरी गाडिय़ों में घूम रहे हैं आखिर इनके पास इतनी रकम कहां से आई।
इसी बीच राज्य सरकार के गैस राहत मंत्री श्री बाबूलाल गौर ने कारखाने को जनता के लिए खोल देने की घोषणा करके ज़हरीले मलवे के मामले को साधारण बना दिया। गौर ने कहा कि जब लोग यहां आएंगे तो उनकी वह धारणा दूर हो जाएगी कि कारखाने में अभी भी खतरनाक रसायनों का असर मौजूद है। गौर ने एक प्रयोगशाला की जांच का हवाला देकर कहा कि कारखाने में खतरनाक ज़हरीले तत्व नहीं पाए गए। राज्य सरकार यहां पर एक स्मारक बनवाना चाहती है जिसकी अनुमानत लागत करीब 117 करोड़ बताई जा रही है। फिलहाल यह मामला टल गया है।
गैस पीडि़तों के इलाज के नाम पर बने भोपाल मेमोरियल हास्पिटल एवं रिसर्च सेंटर की गैस पीडि़त विरोधी कार्यप्रणाली पर कटाक्ष करते हुए गैस पीडि़तों के हकों की लड़ाई लडऩे वाले आल इंडिया मुस्लिम त्यौहार कमेटी के चेयरमेन डॉ. औसाफ शाहमीरी खुर्रम कहते हैं कि अस्पताल का प्रबंधन और संचालन जस्टिस अहमदी जैसे गैर गैस पीडि़तों के हाथों में होने की वजह से गैस पीडि़तों के दुख-दर्द का उन्हें कोई अहसास नहीं है।
भोपाल गैस कांड के बाद केंद्र सरकार की पहल पर यूनियन कार्बाइड से पीडि़तों को मुआवजा और राहत दिलाने के लिए 470 मिलियन डॉलर यानी लगभग 750 करोड़ रुपये की धनराशि का समझौता हुआ था. कंपनी ने यह राशि केंद्र सरकार को दे दी, लेकिन लगभग दो वर्षों तक मुआवजा वितरण प्रक्रिया तय न होने के कारण यह धन भारतीय रिजर्व बैंक में जमा रहा, जिस पर ब्याज मिलता रहा. 1989 में मुआवजा वितरण किस्तों में तय किया गया और एक बड़ी धनराशि बैंक में जमा रह जाने से सरकार को ब्याज की कमाई होती रही. 750 करोड़ रुपये की मूल राशि ब्याज मिलाकर 3000 करोड़ रुपये हो गई. सरकार ने लगभग 5.74 लाख लोगों को 1.549 करोड़ रुपये का नकद मुआवजा वितरण 15 वर्षों में किया। इसके अलावा लगभग 512 करोड़ रुपया पीडि़तों के इलाज पर खर्च होना बताया गया। आज भी लगभग 1000 करोड़ रुपया मुआवजा मद में बैंक में जमा है और उस पर लगातार ब्याज भी मिल रहा है। खैर, यह तो एक मुद्दा हुआ कि भोपाल गैस त्रासदी के जिम्मेदारी लोगों के बचाव में राजनीतिक नेताओं, सरकारों व अधिकारियों की किस तरह की भूमिका रही। बातें बहुत साफ हैं। सभी लोग खुले ढंग से अपने निष्कर्ष निकाल सकते हैं और राजनीति के वास्तविक चरित्र का अनुभव भी कर सकते हैं। किंतु इस प्रकरण में इस देश के न्यायपालिका की भूमिका भी अत्यंत संदिग्ध रही है। इस देश के न्यायिक इतिहास में संभवत: ऐसा पहली बार हुआ जब किसी निर्णय पर केंद्रीय विधि मंत्री, कई न्यायविदों, सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों सहित पूरे देश के समाचारपत्रों ने अत्यंत तीखी टिप्पणी करते हुए इसे 'शर्मनाकÓ, 'दफन हुआ इंसाफÓ, 'न्याय नहीं सिर्फ फैसलाÓ जैसे विशेषणों के साथ अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं। सामान्यतया निर्णय होने के बाद उसकी आलोचना नहीं की जाती क्योंकि न्यायालय की 'अवमानना कानून, 1971Ó में दी गई परिभाषा के अनुसार यदि कोई प्रकाशन इस तरह का हो जो किसी न्यायालय की या न्यायिक प्रशासन की छवि को धूमिल करने वाला हो, तो उसे न्यायालय की अवमानना माना जाता है। (निर्णीत मामले की सही आलोचना को छोड़कर) पर भोपाल गैस त्रासदी का निर्णय एक अपवाद जैसा है जिसको लेकर न्यायालय, सरकार अभियोजन सभी को एक स्वर से इस बात के लिए दोषी ठहराया गया है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय के लिए इन तीनों की मिली-भगत थी यह एक अभूतपूर्व एवं लोकतंत्र पर कलंक के स्वरूप की प्रतिक्रिया थी और आरोपों के दायरे से देश के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री अहमदी को भी बाहर नहीं रखा जा सकता।
मामले की वैधानिकता पर विचार करें तो कुछ और अत्यंत गंभीर तथा शर्मनाक पहलू सामने आते हैं। वास्तविक तथ्य इस प्रकार है कि प्रारंभ में सत्र न्यायालय में धारा 304 अर्थात् गैर इरादतन हत्या जिसमें आजीवन कारावास या दस साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है, इसका प्रकरण दर्ज हुआ था जिसके विरुद्ध प्रबंधन उच्च न्यायालय गया किंतु उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय की कार्यवाही की पुष्टि की किंतु जब प्रबंधन सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो वहां इस मामले को 'लापरवाही से हुई मौतÓ का दर्जा देकर धारा बदल दी गई। परिवर्तित धारा 304(ए) के अंतर्गत किए गए अपराध में मात्र दो वर्ष तक का कारावास तथा अर्थदंड की सजा दी जा सकती है।
यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त आदेश पारित कर धारा को परिवर्तित किया था और सी.बी.आई. या मध्य प्रदेश सरकार इस आदेश से संतुष्ट नहीं थी तो उनके द्वारा इस आदेश के विरुद्ध पुनर्विलोकन या वृहत्तर खडपीठ के समक्ष याचिका उसी समय प्रस्तुत क्यों नहीं की गई? दूसरी बात यह कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 304 पार्ट 2 को 304(ए) को परिवर्तित कर ही दिया था तब तत्काल उस आदेश को चुनौती न देकर आज केंद्र और म.प्र. सरकारों के द्वारा मंत्री समूह या विधि विशेषज्ञों की समिति बनाने और उनकी राय लेने का क्या अर्थ रह जाता है? इस तरह की कार्यवाहियां केवल राजनैतिक स्टंट ही लगती हैं और पुन: जनसाधारण के समक्ष एक दिखावा मात्र है। इस तरह के मामलो में अक्सर यही होता है कि सरकारें राजनैतिक वक्तव्य देकर अपने 'दागÓ धोने या छुपाने का प्रयत्न करती हैं और नेता, कुछ भी बेसिर पैर के वक्तव्य देकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का प्रयास करता है।

Wednesday, November 24, 2010

भोपाल गैस कांडः न्याय व्यवस्था और राजनीति की त्रासदी

इस देश के न्यायिक इतिहास में संभवतः ऐसा पहली बार हुआ जब किसी निर्णय पर केंद्रीय विधि मंत्री, कई न्यायविदों, सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों सहित पूरे देश के समाचारपत्रों ने अत्यंत तीखी टिप्पणी करते हुए इसे ‘शर्मनाक’, ‘दफन हुआ इंसाफ’, ‘न्याय नहीं सिर्फ फैसला’ जैसे विशेषणों के साथ अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं। सामान्यतया निर्णय होने के बाद उसकी आलोचना नहीं की जाती क्योंकि न्यायालय की ‘अवमानना कानून, 1971’ में दी गई परिभाषा के अनुसार यदि कोई प्रकाशन इस तरह का हो जो किसी न्यायालय की या न्यायिक प्रशासन की छवि को धूमिल करने वाला हो, तो उसे न्यायालय की अवमानना माना जाता है। (निर्णीत मामले की सही आलोचना को छोड़कर) पर भोपाल गैस त्रासदी का निर्णय एक अपवाद जैसा है जिसको लेकर न्यायालय, सरकार अभियोजन सभी को एक स्वर से इस बात के लिए दोषी ठहराया गया है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय के लिए इन तीनों की मिली-भगत थी यह एक अभूतपूर्व एवं लोकतंत्र पर कलंक के स्वरूप की प्रतिक्रिया थी।

क्या थी वास्तविक घटना?
दिनांक 2-3 दिसंबर, 1984 की दरम्यानी रात भोपाल के यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के संयंत्र से निकली जहरीली गैस मिथाइल आइसो साइनेट (मिक) से भोपाल के लगभग 15 हजार लोगो की मृत्यु हो गई तथा लगभग पांच लाख 75 हजार लोग घायल हुए तथा लगभग एक लाख पशु-पक्षी भी मारे गए थे। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त गैस के रिसाव के दो घंटे पूर्व रात्रि साढ़े दस बजे मिक प्लांट पर तैनात श्रमिकों को पता चला कि टंकी में दबाव बढ़ रहा है। रात्रि 12.30 बजे श्रमिकों ने महसूस किया कि टंकी का दबाब और ताप बहुत अधिक बढ़ गया है और थोड़ी ही देर बाद टंकी हिलने लगी और गैस टंकी का सेफ्टी बाल्व तोड़कर आसमान में सफेद बादल के रूप में छा गई और 10-12 किलोमीटर तक फैल गई। इसके प्रभाव से उक्त क्षेत्र के लोग खांसते, उल्टी करते और आंखों पर हाथ रखे दिसंबर की ठंड में सड़कों पर भागते नजर आए। कुछ लोग गाड़ियों में बैठकर निकटवर्ती कस्बों-नगरों की ओर भागे। कुछ ने भागने के दौरान ही दम तोड़ दिया और 2-3 बजे तक चार हजार से अधिक लोग विभिन्न अस्पतालों में पहुंच चुके थे। 10 हजार से अधिक लोग भोपाल छोड़कर अन्य स्थानों पर पहुंच चुके थे। अगले दिन दोपहर दो बजे पुनः भोपाल की सड़कों पर भगदड़ मची और अफवाह फैली की गैस फिर रिसने लगी है, शाम पांच बजे तक 20 हजार लोग अस्पतालों में पहुंच चुके थे। विडंबना यह कि कुछ निकटवर्ती अस्पतालों के डाक्टर भी गैस से प्रभावित होकर बीमार होने लगे।
दरअसल 2-3 दिसंबर, 1984 की विश्व की इस भीषणतम औद्योगिक त्रासदी ‘भोपाल गैस त्रासदी’ का 25 वर्षों की लंबी विधिक प्रक्रिया के बाद आखिरकार निर्णय कर दिया गया। भोपाल के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी (सी.जे.एम.) के द्वारा यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महिंद्रा, प्रबंध निदेशक विजय गोखले, वक्र्स प्रबंधक जे.मुकुंद, प्रोडक्शन मैनेजर एस.पी.चैधरी, प्लांट अधीक्षक के.वी.शेट्टी, उपाध्यक्ष किशोर कामदार एवं प्रोडक्शन सहायक एम.आर.कुरैशी सहित यूसीआईएल को भारतीय दंड संहिता की धारा 304(ए) के अंतर्गत दो-दो वर्ष के कारावास तथा एक-एक लाख रुपयों के अर्थदंड की सजा सुनाई। अन्य धाराओं 336, 337, 338 के अंतर्गत भी सजा और जुर्माना लगाया गया पर सभी सजाएं एक साथ चलेंगी। यूसीआईएल पर पांच लाख सत्रह सौ पचास रुपयों का अर्थदंड लगाया गया। निर्णय का दुर्भाग्यपूर्ण एवं दुखद पक्ष यह है कि मुख्य आरोपी वाॅरेन एंडरसन को फरार घोषित किया जाकर उसके विरुद्ध कोई आदेश नहीं, यहां तक कि निर्णय में उसका नाम तक नहीं। उक्त अपराधियों ने अर्थदंड की राशि जमा कर जमानत करवा ली तथा निर्णय के विरुद्ध सत्र न्यायालय में (हाईकोर्ट में नहीं) अपील प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहे हैं। दरम्यानी रात की अभूतपूर्व त्रासदी को शब्दांे के माध्यम से वर्णन करना आसान नहीं। इस विषय पर एल्फ्रेड द ग्रैजिया की पुस्तक ए क्लाउड ओवर भोपाल का इतना अंश उद्धृत करना पर्याप्त होगा, ”जहरीली हवा शहर की सबसे घनी आबादी वाले इलाकों की ओर बह चली। लोग जानते थे कि यह जहरीली हवा किधर से चली आ रही है। फिर भी यह अविश्वसनीय और चैंकाने वाला था। अब रुकी हुई सांसों से और चीखते-चिल्लाते वे एक-दूसरे से भागने की गुहार लगाने लगे। उनके दम घुट रहे थे और वे अंधों की तरह बेतहाशा भागे जा रहे थे।’’
‘‘कुछ लोग अपनी झोपड़ियों से बाहर निकल आये और इससे पहले की वे पीछे मुड़कर देखते अंधे जन सैलाब में वे भी बहते चले गए। उनमें से अधिकांश ने फिर कभी अपने परिवार को नहीं देखा। चारों तरफ अफरा-तफरी, उथल-पुथल और पागलपन का सैलाब उमड़ा आ रहा था। ऐसे हालात सचमुच सिर्फ एक ही बार पैदा हुए थे। कोई भी उस दिशा में नहीं भागा, जहां से गैस आ रही थी। जबकि उस दिशा में भागना ज्यादा समझदारी होती।
‘‘हड़बड़ी में लोग उस ओर भागे, जहां गैस हवा के साथ बहकर जा रही थी और गैस की चपेट में आ गए। बैलगाड़ी, साइकिल, कार सब लोगों को लेकर भागे जा रहे थे। चारांे ओर मृत, घायल और चीखते-चिल्लाते लोग थे। गाय, बैल, बकरियां, जानवरों की लाशों से रास्ते पट गए थे। पुलिस की गाड़ी लाऊड स्पीकर पर चींख रही थी- ‘अपनी जान बचाने के लिए भागो। जहरीली गैस आ रही है।’ “
पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हुई, पुलिस प्रशासन ने राहत कार्य किया, संयंत्र के पांच प्रबंधकों को गिरफ्तार कर वहीं के गेस्ट हाऊस में नजरबंद रखा गया, दस्तावेज जब्त कर लिए गए, फैक्ट्री सील कर दी गई। न्यायालय में आपराधिक प्रकरण की कार्यवाही शुरू हुई जिसमें 23 वर्ष लगे।

क्या है वैधानिक स्थिति?
मामले की वैधानिकता पर विचार करें तो कुछ और अत्यंत गंभीर तथा शर्मनाक पहलू सामने आते हैं। वास्तविक तथ्य इस प्रकार है कि प्रारंभ में सत्र न्यायालय में धारा 304 अर्थात् गैर इरादतन हत्या जिसमें आजीवन कारावास या दस साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है, प्रकरण दर्ज हुआ था जिसके विरुद्ध प्रबंधन उच्च न्यायालय गया किंतु उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय की कार्यवाही की पुष्टि की किंतु जब प्रबंधन सर्वोच्च न्यायालय पहंुचा तो वहां इस मामले को ‘लापरवाही से हुई मौत’ का दर्जा देकर धारा बदल दी गई। परिवर्तित धारा 304(ए) के अंतर्गत किए गए अपराध में मात्र दो वर्ष तक का कारावास तथा अर्थदंड की सजा दी जा सकती है।
यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त आदेश पारित कर धारा को परिवर्तित किया था और सी.बी.आई. या मध्य प्रदेश सरकार इस आदेश से संतुष्ट नहीं थी तो उनके द्वारा इस आदेश के विरुद्ध पुनर्विलोकन या वृहत्तर खडपीठ के समक्ष याचिका प्रस्तुत क्यों नहीं की? इस प्रश्न का उत्तर अब केंद्र और राज्य सरकार के द्वारा किए गए कृत्यों की जानकारी प्रकाश में आने से प्राप्त होता है। अभी हाल में भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह ने मीडिया को बताया कि वाॅरेन एंडरसन को भोपाल आने पर एयरपोर्ट से गिरफ्तार कर श्यामला हिल्स गेस्ट हाऊस में रखा गया था और पुलिस ने उनके खिलाफ धारा 304 ए का अपराध दर्ज किया था, उसी दिन दोपहर में उन्हें एवं पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी को अपने आफिस में बुलाकर मुख्य सचिव ब्रह्मस्वरूप ने कहा था कि विमान तल पर विमान खड़ा है, जितनी जल्दी हो सके एंडरसन को छोड़ दो और उन्हे दिल्ली भेजने की व्यवस्था करो। तब 25 हजार के मुचलके पर उन्हें छोड़ दिया गया।
म.प्र. सरकार के विमानन संचालक आर.सी.सोढ़ी कह रहे हैं कि 7 दिसंबर, 1984 को राज्य सरकार के उस विमान को भोपाल से दिल्ली भेजने का आदेश मुख्यमंत्री निवास से प्राप्त हुआ था जिसमें एंडरसन सवार हुआ था। उक्त विमान को मुख्य पायलट कैप्टन हसन और सह पायलट एच.एस.अली लेकर गए थे। विमान में एकमात्र यात्री एंडरसन था, तत्कालीन केमिकल फर्टीलाइजर मंत्री बसंत साठे भी कहते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार में बैठे कुछ लोगों की मदद से ही एंडरसन को भारत से बाहर भेजा गया था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह कहते हंै कि एंडरसन को भगाने के लिए अर्जुन सिंह सरकार नहीं बल्कि राजीव गांधी की केंद्र सरकार जिम्मेदार है तो कांग्र्रेस के ही नेता सत्यब्रत चतुर्वेदी कहते हैं कि हादसा भोपाल में, आरोपी भोपाल से बाहर गया, विमान प्रदेश सरकार का तब केंद्र सरकार दोषी कैसे हो सकती है? भाजपा सदैव की तरह अवसर का लाभ उठाते हुए कांग्रेस सरकार से इसका स्पष्टीकरण मांग रही है। 25 वर्षों के दौरान किसी नेता ने इस संबंध में कुछ नहीं कहा और अब सभी इस मुद्दे पर अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने में लगे हंै। पता ही नहीं चलता कि कौन सही है और कौन गलत है? एंडरसन दिल्ली में तत्कालीन राष्ट्रपति से मिलता है और सीना तान कर किसी वी.आई.पी. की तरह अपने निवास पर ऐश करता है।
दूसरी बात यह कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 304 पार्ट 2 को 304(ए) को परिवर्तित कर ही दिया था तब तत्काल उस आदश्ष को चुनौती न देकर आज केंद्र और म.प्र. सरकारों के द्वारा मंत्री समूह या विधि विशेषज्ञों की समिति बनाने और उनकी राय लेने का क्या अर्थ रह जाता है? इस तरह की कार्यवाहियां केवल राजनैतिक स्टंट हैं और पुनः जनसाधारण के समक्ष एक दिखावा मात्र है। इस दिखावे का हास्यास्पद और बचकाना पक्ष यह भी है कि म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने कहा कि वे सी.जे.एम. के निर्णय के विरुद्ध हाईकोर्ट में अपील करेगें। उन्हें विधि की यह प्राथमिक जानकारी तक नही है कि सी.जे.एम. के निर्णय के विरुद्ध अपील हाईकोर्ट में नहीं बल्कि सत्र न्यायालय (डिस्ट्रिक्ट जज) में होती है। जब तक विधि के प्रावधानो को विधायिका द्वारा संशोधित नहीं किया जाता तब तक दो वर्षों की सजा या जुर्माने के आदेश को किसी भी तरह गलत नहीं ठहराया जा सकता। इस संबंध में केवल तभी कुछ हो सकता है (जैसी कि देश के कानूनविदों की राय भी है) जब या तो सुप्रीम कोर्ट स्वयं संज्ञान लेकर अपने आदेश को संशोधित करे अथवा संसद कानून में ऐसा बदलाव करे जो सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय पर प्रभावी हो। पर सही समय पर उदासीन रहने वाली सरकारे और वातानुकूलित कक्षों मंे बैठकर मनमाने ढ़ंग से कानून की धाराआंे का अर्थ निकालकर सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय के आदेशों में परिवर्तन करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधिपति क्या इस संबंध में कोई कदम उठाएंगे?
इस तरह के मामलो में अक्सर यही होता है कि सरकारें राजनैतिक वक्तव्य देकर अपने ‘दाग’ धोने या छुपाने का प्रयत्न करती हैं और नेता, कुछ भी बेसिर पैर के वक्तव्य देकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए बाबा रामदेव (कानून की जानकारी के अभाव में) यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों को ‘फांसी की सजा देने’ की मांग कर रहे हैं। उन्हें भी संभवतः इस विधि के प्रावधान की जानकारी नहीं है कि धारा 304 ए के अपराधी को 2 वर्ष से अधिक की सजा नहीं दी जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण का मानना है कि ‘इस मामले को कमजोर करने के लिए सरकार, कानून और अदालत तीनों बराबर जिम्मेदार हैं, वरना एंडरसन को अमेरिका भागने ही नही दिया जाता। उसे वापस लाने की कोई कोशिश ही नहीं हुई। सरकार डर रही थी कि दोषियों पर सख्ती करने से मल्टीनेशनल कंपनियां भारत नहीं आएंगी। यूनियन कार्बाइड के खिलाफ कड़ी कार्यवाही न करने का अमेरिका का भी स्पष्ट दबाब था इसी वजह से सरकार ने यूनियन कार्बाइड के साथ समझौता कर लिया।’ इस त्रासदी के मुख्य आरोपी एंडरसन को कानून के कटघरे में खड़ा करने के लिए देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सी.बी.आई. ने भी अधूरे मन से काम किया। उसने अदालत से एंडरसन के खिलाफ बार-बार गैरजमानती वारंट जारी कराया और अमेरिका से उसके प्रत्र्यपण के लिए मांग की लेकिन उसके खिलाफ इंटरपोल का रेड कार्नर नोटिस जारी कराने की जरूरत नहीं समझी। अब सी.बी.आई. के पूर्व अधिकारी बी.आर.लाल ने आरोप लगाया है कि विदेश मंत्रालय ने सी.बी.आई को प्रत्यर्पण मामले से दूर रहने को कहा था और इस संबंध में पत्र भेजा गया था। वहीं पूर्व निदेशक के.विजयरामा इस आरोप का खंडन कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता अजय अग्रवाल ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत सी.बी.आई से उस पत्र की प्रतिलिपि मांगी है जिसके बारे में बी.आर.लाल का कहना है कि विदेश मंत्रालय से ऐसा पत्र भेजा गया था। एंडरसन न्यूयार्क के ब्रिज हैम्पटन उपनगर के पाॅश इलाके में अपने 250 करोड़ रुपयांे वाले मकान में अपनी पत्नी के साथ रहता है। यह जानकारी एक निजी चैनल ने प्रसारित की है। इन तमाम तथ्यों से प्रकट होता है कि इस संबंध में सरकार और सी.बी.आई दोनांे उसका प्रत्यर्पण कराने के लिए गंभीर नहीं थे।
गैस पीड़ितों को मुआवजे की त्रासदी-आपराधिक प्रकरण की उक्त गोलमाल कार्यवाही के अलावा गैस पीड़ितों को मिलने वाले मुआवजे की व्यथाकथा भी कम त्रासद नहीं। भारत सरकार मुआवजे की राशि पर किस आधार पर सहमत हुई थी यह आज भी रहस्य बना हुआ है। साथ ही यह पेशकश इस आधार पर स्वीकार की गई थी कि भारत सरकार भविष्य में यूनियन कार्बाइड और उसके अध्यक्ष के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करेगी। मुआवजे की यह राशि पहले दावा की गई राशि से छह गुना कम थी। डोमिनिक लापियरे और जेवियर मोरो की भोपाल गैस त्रासदी पर लिखी पुस्तक फाइव पास्ट मिडनाइट मंे लिखा है कि गैस त्रासदी का शिकार हुए लोगों में मृतकों के परिजनों को बहुत कम राशि प्राप्त हुई। 15-16 हजार मृतको तथा पांच लाख 74 हजार घायलों के द्वारा 10,29,517 दावे मुआवजा प्राप्त करने के लिए प्रस्तुत हुए लगभग 3.3 अरब डालर के हर्जाने का दावा किया गया परंतु मात्र 470 करोड़ डालर पर समझौता कर लिया गया। 1546 करोड़ 47 लाख की राशि मुआवजे के रूप में वितरित हुई।
विभिन्न स्रोतांे से प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रस्तुत किए गए दावों में से 5,74,304 दावों में कुल 1546 करोड़ 47 लाख रूपयों का वितरण हुआ तथा 455213 दावे किसी न किसी कारण निरस्त कर दिए गए। मोटे तौर पर 1984 में 470 करोड़ डालर का मूल्य लगभग 23,500 करोड़ रुपयों के बराबर होता है। इस राशि मंे पहले 715 करोड़ और अब पुनः 982 करोड़ कुल 1,697 करोड़ मुआवजा दिए जाने हेतु प्राप्त हुए अर्थात् किए गए समझौते के अनुसार भी अभी तक पूरी राशि नहीं दी गई है। प्रकाशित समाचारों के अनुसार जो मुआवजा वितरित किया गया वह इस प्रकार है-
1. तीन हजार मृतकांे के आश्रितों को – एक से तीन लाख प्रत्येक
2. तीस हजार स्थाई रूप से अपंगो को - 50 हजार से एक लाख तक
3. दो हजार गंभीर रूप से घायलों को – चार लाख तक
4. बीस हजार अस्थाई रूप से अपंगों को- 25 हजार से एक लाख तक
5. सामान्य रूप से घायलों को- 25 हजार
इस प्रकार 15 हजार मृतकों में से मात्र तीन हजार मृतकों के आश्रितों को तथा पांच लाख 74 हजार स्थायी/अस्थायी/गंभीर/सामान्य रूप से घायलो में से मात्र एक लाख दो हजार लोगों को मुआवजा प्राप्त हो सका है। इसके अलावा कुछ लोगों को मासिक पेंशन के रूप में अतिरिक्त आर्थिक सहायता दी गई है।
म.प्र. के गैस त्रासदी राहत एवं पुर्नवास मंत्री बाबूलाल गौर ने मंत्री समूह की बैठक में यह मांग की है कि भोपाल के सभी 56 वार्डों के गैस पीड़ितो को पांच लाख रुपये तथा मृतकों के आश्रितों को 10 लाख रुपये राहत राशि दी जाये। किंतु विद्यमान परिस्थितियों में क्या यह राहत प्रभावित व्यक्तियों को मिल सकेगी? और मिलेगी भी तो कब?
कई समाचार पत्रों ने संपादकीय या अन्य टिप्पणियों के माध्यम से लिखा है कि यदि ऐसा अमेरिका में हुआ होता तो यूनियन कार्बाइड (जो अब डाऊ केमिकल्स) है, समाप्त हो जाती और इसके साथ कई बीमा कंपनियां भी डूब जातीं। वहां की अर्थव्यवस्था हिल जाती। यह दुनिया का ऐसा बड़ा हादसा था जो मानव निर्मित था जिसके लिए जिम्मेदार व्यक्तियों की पहचान हो चुकी थी, पर इस देश की लचर व्यवस्था में इन वास्तविकताओं के रहते हुए भी कुछ नहीं हो सका। मुख्य अभियुक्त का बाल बांका नहीं हुआ। मुआवजे के समझौते की घोषणा होते ही यूनियन कार्बाइड के शेयरों में दो डालर का उछाल आया था। शेयर धारकों को सूचित किया गया था कि कंपनी को प्रति शेयर केवल 33 सेंट का नुकसान हुआ। क्या यह सब गैस त्रासदी से भी बड़ी त्रसदी नहीं?
इस कांड से मरने वालों के अलावा इससे प्रभावित परिवारों में आज भी विकलांग बच्चे पैदा हो रहे हैं और यूनियन कार्बाइड का जहरीला अवशेष आज भी फैक्ट्री परिसर में ज्यों का त्यों पड़ा हुआ है और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। इसका सीधा अर्थ है कि विगत 25 वर्षों से पर्यावरण के प्रति निरंतर अपराध जारी है। म.प्र. की कांग्रेस और बाद में भाजपा की सरकारें इतने बड़े हादसे के बाद भी ‘मिक’ को मानवीय स्वास्थ्य के लिए शायद घातक नहीं मानती। इन सरकारों की इससे बड़ी बेशर्मी और क्या हो सकती है? दूसरी ओर हमारे सर्वोच्च न्यायाल के माननीय न्यायाधीश इस बड़े नरसंहार मुकदमे में प्रयुक्त होने वाली कानूनी धाराओं को हल्की (लापरवाही वाली) धाराआंे में ंबदल देते हैं। केंद्र सरकार मुआवजे के लिए न्यायालय से बाहर कंपनी से शर्मनाक समझौता कर लेती है और आज तक प्रभावित लोगों को पूरा मुआवजा नहीं मिल सका। ‘जस्टिस डिलेड, इज जस्टिस डिनाइड’ (न्याय में विलंब, न्याय से इंकार करना है) सिद्धांत का इससे बद्दतर उदाहरण और क्या हो सकता है? केंद्रीय विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने इस तरह के मामलों से निपटने के लिए वर्तमान कानूनों पर पुनर्विचार की जरूरत को स्वीकार किया है अर्थात् यह मान लिया गया है कि हमारी न्याय व्यवस्था में खामियां हैं। इसी का परिणाम है कि अभियुक्त कानूनी प्रावधान का इस्तेमाल कर न्यायिक प्रक्रिया को इतना लंबा खींच देता है कि पीड़ित व्यक्ति अपने जीते जी न्याय की उम्मीद ही छोड़ देता है।

आरोप-प्रत्यारोप
एंडरसन को देश के बाहर भेजे जाने को लेकर अब विभिन्न नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं और वाकयुद्ध जैसी स्थिति बन गई है।
प्रधानमंत्री के तत्कालीन सचिव पी.सी.अलेक्जेंडर ने राजीव गांधी की भूमिका की ओर इशारा किया है जबकि वरिष्ठ नेता आर.के.धवन इस मामले में अर्जुन सिंह को दोषी मानते हैं। उनका कहना है कि अलेक्जेंडर अपनी पुरानी रंजिश निकाल रहे हैं क्योंकि उन्हें एक जासूसी मामले का खुलासा होने के कारण अपने पद से हटा दिया गया था।
तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह और पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी के विरुद्ध भोपाल के एक अधिवक्ता परवेज आलम ने सी.जे.एम. आर.जी.सिंह के न्यायालय में आई.पी.सी. की धारा 166, 221, 34 के अंतर्गत विधि की अवज्ञा और गिरफ्तारी संबंधी जानकारी छिपाने के आरोप लगाते हुए शिकायत पत्र प्रस्तुत किया है। आरोपों में कहा गया कि उक्त दोनों अधिकारियों ने एंडरसन को गलत ढंग से जमानत देकर उसे फरार होने में मदद पहुंचाई। इस संबंध में प्राप्त जानकारी के अनुसार हनुमानगंज थाने में जो एफआईआर दर्ज हुई थी और जिसके अंतर्गत एंडरसन को गिरफ्तार किया गया था तब उसमें धारा 304, 304ए, 278, 284, 426 और 429 लगाई गई थी बाद में धारा 304 हटाकर उन्हें जमानत पर छोड़ दिया गया था तथा इसके बाद सीबीआई ने गोखले और महिंद्रा पर धारा 304 लगाई जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने हटा दिया था।
सुब्रह्मनयम् स्वामी का आरोप है कि एंडरसन को छोड़ने के लिए करोड़ों रुपयों का लेन-देन हुआ। एक टी.वी. चैनल के अनुसार यूनियन कार्बाइड के द्वारा चुरहट न्यास को 1.5 लाख रुपये का चंदा दिया गया। जिसकी रसीद की फोटोकापी चैनल के पास है।
इस मामले में एक और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि जैसा अरुण नेहरू का कहना है कि अमेरिका जाने से पहले एंडरसन ने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह तथा गृहमंत्री पी.वी.नरसिंहा राव से मुलाकाल की थी किंतु यदि यह सच है तो यह कैसे संभव है क्योंकि कोई भी विदेशी व्यक्ति केवल विदेष मंत्रालय तथा केंद्र सरकार की अनुमति और पहल के आधार पर ही राष्ट्रपति से मुलाकात कर सकता है।
इस प्रकरण के और भी कई पहलू अब सामने आ रहे है। उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश ए.एम.अहमदी जिन्होंने धारा 304 को हटा कर 304ए में परिवर्तित किया था और जिन्हें भोपाल मेमोरियल हास्पिटल एंड सर्च सेंटर के आजीवन अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया था उन्हें उक्त पद से हटाए जाने की मांग माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव बादल सरोज ने की है। श्री सरोज का कहना है कि अहमदी ने आपराधिक धाराओं को हल्का किया जिसके कारण आरोपियों को बहुत कम सजा हुई और इसके अलावा गैस पीड़ितों की संख्या जाने बिना मामूली सा मुआवजा दिलवा कर प्रकरण को हमेशा के लिए बंद करने का प्रयास किया। उन्होने यह असत्य जानकारी भी दी कि उनके निर्णय के विरुद्ध किसी ने पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत नहीं की थी जबकि वास्तविकता यह है कि उक्त याचिका प्रस्तुत की गई थी जिसे अहमदी ने एक वाक्य के आदेश से एक मिनट के अंदर खारिज कर दिया था। भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार ने भी उपरोक्त आरोप लगाते हुए कहा है कि वह भोपाल स्थित अस्पताल का ठीक ढंग से संचालन नहीं कर पा रहे हैं अतः उन्हें अध्यक्ष पद से तत्काल हटा दिया जाये। (संभवतः जस्टिस अहमदी ने अध्यक्ष पद से अपना त्याग पत्र सर्वोच्च न्यायालय को भेज दिया है।)
तत्कालीन एटार्नी जनरल सोली सोराबजी ने बाजपेयी सरकार को राय दी थी कि एंडरसन के प्रत्यर्पण की कोशिश नहीं की जानी चाहिए क्योंकि इसमें सफल होने की संभावना नहीं है। अब कहा जाता है कि वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए अमरीका पर दबाब बना रहे हैं। जानकारों का मत है कि परिस्थितियों के अंतर्गत यह प्रत्यर्पण आसान नहीं है।
कानून मंत्री जस्टिस अहमदी का नाम लेकर मामले की सुनवाई में बिलंब के लिए न्यायपालिका को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं साथ ही एंडरसन की रिहाई के लिए राजीव गांधी के बजाय उनके तत्कालीन प्रमुख सचिव अलेक्जेंडर को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। लगभग 2 सप्ताह की रहस्यमयी चुप्पी के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने कहा कि एंडरसन को भारत से बाहर भेजने के मामले से उनका कोई लेना-देना नहीं और इस तरह उन्होंने यही संकेत देने का प्रयास किया कि यह निर्णय तत्कालीन केंद्र सरकार का था, उनका नहीं। रहस्य को यह कहकर कुछ और गहरा दिया कि गैस त्रासदी और एंडरसन के मामले की पूरी जानकारी वह अपनी आत्मकथा में देंगे जो शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है। अगर वह अपनी आत्मकथा में संपूर्ण जानकारी देने वाले हैं तो आज देश की जनता को बताने में उन्हें क्या कठिनाई है? जाहिर है कि यह भी एक राजनीतिक दांव-पेंच है जिसके अर्जुन सिंह मंजे खिलाड़ी माने जाते हैं।
कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य सत्यव्रत चतुर्वेदी ने अर्जुन सिंह के 7-8 दिसंबर 1984 तथा 19 जून 2010 के वक्तव्यांे का संदर्भ देते हुए उन पर आरोप लगाया है कि वह या तो 1984 में झूठ बोल रहे थे या आज बोल रहे हैं। इस संबंध में यह उल्लेखनीय है कि 7 दिसंबर, 1984 को उन्होंने कहा था कि ‘इस गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार घटनाओं का रचनात्मक और आपराधिक उत्तरदायित्व वारेन एंडरसन, केशव महेंद्रा और बी.पी.गोखले प्रत्येक पर है। सरकार इस त्रासदी की निःसहाय दर्शक नहीं बनीं रह सकती।’ 8 दिसंबर, 1984 को उनका कहना था कि ‘एंडरसन को रचनात्मक उरदायित्व के लिए गिरफ्तार कर कानून की मंशा और अक्षरशः प्रावधानों का पालन हुआ है। हमने उन्हें इसलिए रिहा किया है कि तफ्तीस में अभी उनकी जरूरत नहीं और हमारी मंशा कभी भी उन्हें तंग करने की नहीं थी। 19 जून, 2010 को वह कहते हैं कि ‘मेरे पास इस मुद्दे पर कहने के लिए कुछ नहीं है। मैं गैस कांड और उसके बाद के घटनाक्रम से जुड़े विवरण अपनी आत्मकथा में दूंगा जिस पर अभी काम कर रहा हूं। इन परस्पर विरोधाभाषी वक्तव्यों के पीछे उनकी क्या मंशा है, इसका उत्तर सिर्फ वह ही दे सकते है। प्रणव मुखर्जी उनके 26 वर्ष पहले के एक बयान का हवाला देते हुए जनता में यह संदेश भेजने का प्रयास कर रहे हैं कि एंडरसन को बाहर भेजने के निर्णय से केंद्र सरकार का कोई संबंध नहीं था और अर्जुन सिंह ने भोपाल की कानून व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से उसे बाहर भेजने का निर्णय लिया था।
भारत पुनरोत्थान अभियान के तहत पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.सी.लाहोटी के नेतृत्व में पूर्व चुनाव आयुक्त जे.एम.लिंगदोह, पूर्व सी.ए.जी. बी.के.सिंगलू, सेवानिवृत्त एयर चीफ मार्शल एस.कृष्णमूर्ति, पूर्व डीजीपी जे.एफ.रेबरो और यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष हरि गौतम जैसे शीर्ष नौकरशाहों ने एंडरसन को न्यायालय की अनुमति के बिना बाहर जाने देने के अपराध में अर्जुन सिंह, तत्कालीन कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार करने की मांग की है।
26 जून कं अंक में अंग्रेजी दैनिक द हिंदू ने अपने अपने 7 व 8 दिसंबर, 1984 के अंकों में छपी रिपोर्ट के हवाले से कहा है कि मंत्रियों के समूह का यह कहना कि एंडरसन के मामले में राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं थी गलत है। 7 दिसंबर, 1984 के अंक में अखबार के दिल्ली स्थिति संवाददाता जी.के रेड्डी की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि प्रिसिपल सेक्रेटरी पीसी एलक्जेंडर ने तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी को पूरी स्थिति से अवगत करवा दिया था। तब तक एंडरसेन भोपाल में ही था और विडंबना यह है कि राजीव गांधी मध्यप्रदेश में ही सागर में थे। वैसे भी यह बात पूरी तरह अतार्किक है कि इतनी बड़ी दुर्घटना हो जाए और देश के प्रधान मंत्री को पता ही न हो कि इस संबंध में क्या हो रहा है, ऐसा संभव ही नहीं है। वैसे भी एंडरसन दुर्घटना के तीन दिन बाद ही भारत आया था।
एंडरसन के मामले में तो भाजपा को अर्जुन सिंह और राजीव गांधी का नाम उछलने के बाद मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई है। भाजपा ऐसा चक्रव्यूह रचना चाहती है जिससे अर्जुन सिंह बाहर न निकल सकें। इसी मुहिम के अंतर्गत प्रदेश व्यापी धरना-प्रर्दशन का आयोजन है किंतु ऐसे कई गंभीर प्रश्न है जिनका उत्तर भाजपा शायद ही दे सके जैसे जब अर्जुन सिंह कथित रूप से एंडरसन को भगाने में मदद कर रहे थे तब भाजपा कहां थी और उसने इसका विरोध क्यों नहीं किया? कौन नही जानता कि राजनैतिक दल ऐसे प्रश्नो पर चुप्पी साधना ही उचित समझते हैं।
जहरीली गैस ‘मिक’ का ‘एंटी डोट’ (निरोधक) फैक्ट्री में उपलब्ध होने के बाबजूद गैस प्रभावितों को क्यों नहीं दिया गया? एक समाचार पत्र में प्रकाशित रिर्पोट के अनुसार उस दिन फैक्ट्री में गैस प्रभावित पांच सौ लोगों को उक्त दवा दी गई और उनकी जान बच गई थी। इसके पूर्व भी फैक्ट्री में कार्यरत गैस प्रभावित श्रमिकों को फैक्ट्री की डिसपेंसरी में इलाज किया जाता था और वे स्वस्थ हो जाते थे। मूल प्रश्न यह है कि उपलब्ध होते हुए भी उपरोक्त एंटी डोट पीड़ितों को क्यों नहीं दिया गया और सरकार ने इसकी कोई व्यवस्था क्यों नहीं की?

एक सच्चाई यह भी
सुप्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता होमी दाजी की पत्नी पेरीन होमी दाजी के माध्यम से यह जानकारी मिली है कि जिस दिन उक्त हादसा हुआ उसी दिन होमी दाजी दिल्ली से भोपाल रेल द्वारा आ रहे थे कि अचानक भोपाल से एक स्टेशन पहले उनकी ट्रेन को रोक दी गई और ट्रेन घंटों रूकी रही। देर तक ट्रेन के रुकने का कारण तलाशने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि भोपाल के स्टेशन मास्टर का फोन आया है कि भोपाल में गंभीर गैस कांड हो गया है अतः यात्रियों की जान की सुरक्षा की दृष्टि से उन्होंने भोपाल आने वाली सभी ट्रेनों को भोपाल के पहले के स्टेशनों पर रुकवा दिया था। स्थिति सामान्य होने पर जब होमी दाजी की ट्रेन भोपाल पहुंची तो स्टेशन मास्टर के कक्ष के बाहर लगी भीड़ को देखकर उन्होंने कारण जानना चाहा तो वह हतप्रभ हो गए और उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने देखा कि अपनी ड्यूटी का समय समाप्त हो जाने के बाद भी लगातार फोन कर ट्रेनों को रुकवाने वाला वह कर्तव्यपरायण और नेक इंसान अपने कक्ष में अपनी टेबिल पर सिर रखे हुए जहरीली गैस से दम घुटने के कारण मर चुका था। विडंबना यह है कि आज उस स्टेशन मास्टर का कोई नाम तक नहीं जानता जबकि होमी दाजी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और कई अन्य मंत्रियों से चर्चा कर तथा पत्र लिखकर यह प्रयास किया था कि उस स्टेशन मास्टर की प्रतिमा स्टेशन के बाहर लगाई जानी चाहिए किंतु उनके अनुरोध पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान चाहे तो आज भी उस स्टेशन मास्टर का नाम पता लगाकर उसकी प्रतिमा भोपाल स्टेशन के बाहर लगवा सकते हैं ताकि उसे सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सके किंतु दुखद स्थिति यह है कि अपने देश में अच्छे कर्म और सेवा का कोई महत्व ही नहीं रह गया है। हां कोई घटना हो जाने पर धारा प्रवाह वक्तव्य जरूर दिए जाते हैं और आरोप-प्रत्यारोप लगने शुरू हो जाते हैं।
राजनीति की शतरंजी चालों के माध्यम से हमारे देश के नेता अपने आप को भले ही पाकसाफ बताने में जुटे हों लेकिन एक अखबार में प्रकाशित समाचार के अनुसार सीआईए की एक खुफिया रिर्पोट में यह सनसनीखेज खुलासा हुआ था कि केंद्र सरकार के आदेश के बाद ही एंडरसन को रिहा किया गया था। उसके 8 दिसंबर, 1984 के एक दस्तावेज के अनुसार तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने म.प्र.सरकार को एंडरसन को रिहा करने का आदेश दिया था। इसी रिर्पोट में यह भी बताया गया है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की सरकार एंडरसन के विरुद्ध कार्यवाही करना चाहती थी क्योंकि उस समय राज्य के चुनाव होने वाले थे और सरकार उसका राजनैतिक लाभ उठाना चाहती थी किंतु केंद्र सरकार ने विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए एंडरसन की रिहाई में रुचि ली थी क्योंकि केंद्र की नजर अमेरीकी मल्टी नेशनल कंपनियों पर थी इसी कारण उसने म.प्र. की सरकार को एंडरसन को छोड़ने का आदेश दिया था।
वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने घोषणा की है कि भोपाल के गैस पीड़ितो ंको न्याय दिलाने के लिए राज्य सरकार हर संभव प्रयास करेगी। इस देश की जनता यह समझने में असमर्थ है कि 25 वर्ष के पश्चात विभिन्न दलों के नेता विभिन्न प्रकार के वक्तव्य देकर आज कहना क्या चाहते हैं? जब समय रहते उन्होंने वांछित वैधानिक कार्यवाही नहीं की तो आज इनके द्वारा की जाने वाली लीपापोती से क्या होने वाला है? भोपाल गैस त्रासदी केवल गैस त्रासदी नहीं बल्कि यह न्याय, कानून, राजनीति की मिली-जुली त्रासदी है जो इस देश के लोकतंत्र के लिए ऐसा कलंक है जो शायद ही कभी मिटाया जा सके

Monday, November 22, 2010

इनका दर्द न जाने कोए...




आश्चर्य,रहस्य,उपहास और उपेक्षा को समेटे हुए मानव का तीसरा रुप यानी किन्नर आज अपने अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए संघर्षरत है। भारत में इनकी संख्या करीब आठ लाख मानी जाती है। जिंदगी और इसकी व्यवस्था की अलग सोच रखने वाली यह धारा भारतीय समाज में एक मजबूत सांस्कृतिक प्रवाह लिए हुए है। मानवीय मूल्यों के इस ऐतिहासिक धरोहर को आज भी दर-दर की ठोकरें खानी पड़ रही हैं और इनके जीवन का एक मात्र सहारा क्षेत्रीय नाच-गान ही है। लोगों को दुआएं देकर अपना पेट भरने वाले देश के लाखों किन्नरों के दुख-दर्द को बांटने की बात तो दूर इन्हें समझने तक की कोशिश नहीं करते हैं हम।
अपनी कमी को ही वरदान मान कर किन्नर समाज आज देश की मुख्यधारा से जुड़ गया है और संवैधानिक पदों पर आसिन है। किन्नरों की दुनिया से लोग आगे निकल रहे हैं और कुछ राज्यों में तो उन्होंने सक्रिय राजनीति में कामयाबी भी पाई है। शबनम मौसी मध्य प्रदेश में विधायक चुनी गईं थी। बावजुद इसके अब भी इस समाज को उपेक्षा की नजर से देखा जाता है। हमारी खुशियों में अपनी अदाओं और दुआओं से अपना पेट भरने में जुटे किन्नरों से शायद ही कोई अपरिचित हों लेकिन इंसानों के इस वर्ग के दुख-दर्दों से बहुत कम लोग ही वाकिफ होंगे। इनसे हास-परिहास करने या शुभ घड़ी में इनकी दुआओं से बेहतरी की कामना करने वाला हमारा समाज बस इनके दुख-दर्द में शरीक होने को तैयार नहीं है। जाहिर है, इन्हें अपने गम अपनी ही जमात में बांटने होते हैं।
किन्नर भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे देशों में एक कौतूहल का विषय हैं। इनके नाजो-नखरे देख अक्सर लोग हंस पडते हैं, तो कई बेचारे घबरा जाते हैं कि कहीं सरे बाजार ये उनकी मिट्टी पलीद ना कर दें। मगर किन्नर बनते कैसे हैं? इनका जन्म कैसे होता है? अगर आप इनकी जिदगी की असलियत जान ले तो शायद न किसी को हंसी आए और न ही उनसे घबराहट हो। यह अगर बुधवार के दिन किसी जातक (स्त्री-पुरुष, बच्चे) को आशीर्वाद दे दें तो उसकी किस्मत खुल जाती है। ज्योतिष के अनुसार संचित,प्रारब्ध और वर्तमान मनुष्य के जीवन का कालचक्र है। संचित कर्मों का नाश प्रायश्चित और औषधि आदि से होता है। आगामी कर्मों का निवारण तपस्या से होता है किन्तु प्रारब्ध कर्मों का फल वर्तमान में भोगने के सिवा अन्य कोई उपाय नहीं है। इसी से प्रारब्ध के फल भोगने के लिए जीव को गर्भ में प्रवेश करना पडता है तथा कर्मों के अनुसार स्त्री-पुरुष या नपुंसक योनि में जन्म लेना पडता है।
प्राचीन ज्योतिष ग्रंथ जातक तत्व के अनुसार किन्नरों के बारे में कहा गया है-
मन्दाच्छौ खेरन्ध्रे वा शुभ दृष्टिराहित्ये षण्ढ:।
षण्ठान्त्ये जलर्क्षे मन्दे शुभदृग्द्यीने षण्ढ:।।
चंद्राकौ वा मन्दज्ञौ वा भौमाकौ।
युग्मौजर्क्षगावन्योन्यंपश्चयत: षण्ढ:।।
ओजर्क्षांगे समर्क्षग भौमेक्षित षण्ढ:।
पुम्भागे सितन्द्वड्गानि षण्ढ:।।
मन्दाच्छौ खेषण्ढ:।
अंशेकेतौमन्द ज्ञदृष्टे षण्ढ:।।
मन्दाच्छौ शुभ दृग्धीनौ रंन्घ्रगो षण्ढ:।
चंद्रज्ञो युग्मौजर्क्षगौ भौमेक्षितौ षण्ढ:।।
अर्थात् पुरुष और स्त्री की संतानोत्पादन शक्ति के अभाव को नपुंसकता अथवा नामर्दी कहते हैं। चंद्रमा, मंगल, सूर्य और लग्न से गर्भाधान का विचार किया जाता है। वीर्य की अधिकता से पुरुष (पुत्र) होता है। रक्त की अधिकता से स्त्री (कन्या) होती है। शुक्र शोणित (रक्त और रज) का साम्य (बराबर) होने से नपुंसक का जन्म होता है।
ग्रहों की कुदृष्टि
1. शनि व शुक्र अष्टम या दशम भाव में शुभ दृष्टि से रहित हों तो किन्नर (नपुंसक) का जन्म होता है।
2. छठे, बारहवें भाव में जलराशिगत शनि को शुभ ग्रह न देखते हों तो हिजडा होता है।
3. चंद्रमा व सूर्य शनि, बुध मंगल कोई एक ग्रह युग्म विषम व सम राशि में बैठकर एक दूसरे को देखते हैं तो नपुंसक जन्म होता है।
4. विषम राशि के लग्न को समराशिगत मंगल देखता हो तो वह न पुरुष होता है और न ही कन्या का जन्म।
5. शुक्र, चंद्रमा व लग्न ये तीनों पुरुष राशि नवांश में हों तो नपुंसक जन्म लेता है।
6. शनि व शुक्र दशम स्थान में होने पर किन्नर होता है।
7. शुक्र से षष्ठ या अष्टम स्थान में शनि होने पर नपुंसक जन्म लेता है।
8. कारकांश कुंडली में केतु पर शनि व बुध की दृष्टि होने पर किन्नर होता है।
9. शनि व शुक्र पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो अथवा वे ग्रह अष्टम स्थान में हों तथा शुभ दृष्टि से रहित हों तो नपुंसक जन्म लेता है।
कमजोर बुध होता बलवान
अगर कोई भी बालक, युवक, स्त्री-पुरुष की कुंडली में बुध ग्रह नीच हो और उसे बलवान करना हो तो बुधवार के दिन किन्नर से आशीर्वाद प्राप्त करने से लाभ मिलता है। बुध ग्रह कमजोर होने पर किन्नरों को हरे रंग की चूडियां व वस्त्र दान करने से भी लाभ होता है। कुछ ग्रंथों में ऐसा भी माना जाता है कि किन्नरों से बुधवार के दिन आशीर्वाद लेना जरूरी है। जिससे अनेक प्रकार के लाभ होते हैं।
तमिलनाडु में एक गांव है कूवगम जिसे किन्नरों का घर कहा जाता है। इसी कूवगम में महाभारत काल के योद्घा अरावान का मंदिर है। हिन्दू मान्यता के अनुसार पांडवों को युद्घ जीतने के लिए अरावान की बलि देनी पडी थी। अरावान ने आखिरी इच्छा जताई कि वो शादी करना चाहता है ताकि मृत्यु की अंतिम रात को वह पत्नी सुख का अनुभव कर सके। कथा के अनुसार अरावान की इच्छा पूरी करने के लिए भगवान कृष्ण ने स्वयं स्त्री का रूप लिया और अगले दिन ही अरावान पति बन गए। इसी मान्यता के तहत कूवगम में हजारों किन्नर हर साल दुल्हन बनकर अपनी शादी रचाते हैं और इस शादी के लिए कूवगम के इस मंदिर के पास जमकर नाच गाना होता है जिसे देखने के लिए लोग जुटते हैं। फिर मंदिर के भीतर पूरी औपचारिकता के साथ अरावान के साथ किन्नरों की शादी होती है। शादी किन्नरों के लिए बड़ी चीज होती है इसलिए मंदिर से बाहर आकर अपनी इस दुल्हन की तस्वीर को वह कैमरों में भी कैद करवाते हैं। किन्नर सभी समाज को लोगों को आदर देते हैं। किसी के बच्चा हुआ या शादी-विवाह सभी को आशीर्वाद एवं बधाई देने जाते हैं। अनेक त्योहारों पर भी यह बाजार से चंदा एकत्रित करते हैं। देश के किसी न किसी कोने में हर साल इनका सम्मेलन होता है जो इनके लिए बेहद महत्वपूर्ण होता है ।
अपनी अलग दुनिया में जीने को मजबूर ये लोग न तो हिंदू देवी-देवताओं को पूजते हैं और न ही अल्लाह की बंदगी करते हैं। इनकी आराध्य होती हैं - बुचरा माता, जिनका मंदिर गुजरात के महसाणो जिले में है। दिल्ली-अहमदाबाद रेल लाइन पर महसाणो जंक्शन से सड़क मार्ग द्वारा 40 किलोमीटर और अहमदाबाद से 100 किलोमीटर की दूरी पर स्थित मंदिर के दूर से चमकने वाले गुंबद मोह लेते हैं। एक प्रसिद्ध किंवदंती के मुताबिक बुचरा माता की तीन अन्य बहनें - नीलिका, मनसा और हंसा थीं। सबसे बड़ी बुचरा हिचड़ा बन गईं तो शेष बहनों को भी उन्होंने अपने जैसा ही बना दिया। इनकी संतानें नहीं थीं तो इन्होंने लड़कों को गोद ले लिया। लेकिन इसी बुचरा माता के मंदिर में आज निस्संतान दंपति संतान मांगने आते हैं। जिनकी मुराद पूरी हो जाती है वे मंदिर में मिट्टी का मुंड चढ़ाते हैं । मंदिर के परिसर ऐसे मुंडों से भरे पड़े हैं।
देश में किन्नरों के 450 से अधिक धाम हैं। जहां उनके गुरु बसते हैं। बुचरा और उनकी तीन बहनों के आधार पर ही किन्नरों की चार शाखाएं हैं। बुचरा की शाखा में पैदाइशी, नीलिका शाखा में जबरन बनाए तो मनसा शाखा में इच्छा से बने किन्नर होते हैं। चौथी और अंतिम शाखा हंसा में उन्हें जगह दी जाती है जो किसी शारीरिक खराबी के कारण किन्नर बनते हैं। एक अन्य विभाजन के तहत नीलिका शाखा के किन्नर गाने और ढफली बजाने का काम करते हैं तो मनसा शाखा का काम किन्नर बनाने वाले व्यक्ति के लिए सामान इक_ा करना है। जब बुचरा किसी को किन्नर बना रहे होते हैं तब हंसा के जिम्मे सफाई का काम आता है। साथ ही कब्र खोदने और उसमें शव डालने का काम भी सिर्फ हंसा शाखा के किन्नर ही करते हैं, हालांकि शवों पर पहली मिट्टी डालने का काम बुचरा शाखा के लोग करते हैं। किन्नर के मरने के बाद उसे खूब गालियां दी जाती हैं, कब्र पर थूका जाता है। पूरे देश में किन्नरों को सात घरों में बांटा गया है। हर घर का एक मुखिया होता है जिसे नायक कहते हैं। नायक के नीचे गुरु होते हैं फिर चेले। इनकी जमात में गुरु का दर्जा मां-बाप से कम नहीं होता। हर किन्नर को अपने गुरु को अपनी कमाई का एक हिस्सा देना होता है। उम्रदराज उस्ताद का काम हिसाब-किताब रखना होता है। इन्होंने अपने कामकाज के तौर-तरीके कुछ इतने दिलचस्प ढंग से बांट रखे हैं कि देखते ही बनता है। मसलन, खुशियां मनाते हुए नाचते-गाते समय किन्नर सिर्फ अपनी उंगलियों का प्रयोग करते हैं। अंगूठे का इस्तेमाल अंग-प्रदर्शन में होता है। इनमें एक समर्थ पुरुष को पति मानने का भी रिवाज है। इसे गिरिया कहते हैं। कई मामलों में रईस पुुरुषों को गिरिया के रूप में खरीदने का भी चलन मिलता है। किन्नर अपने को गिरिया का कोती कहते हैं। पुरुष वेशभूषा में रहने वाले किन्नर को कड़े ताल और स्त्री वेश के रहने वाले किन्नर को सात्रे कहा जाता है। कामुकता से कोई किन्नर को देखता है तो दूसरे किन्नर उस किन्नर को चामना कहकर सतर्क करते हैं। किसी को भगाना हो तो ये पतवाई दास बोलते हैं। किसी जजमान का अपमान करना हो तो वह एक-दूसरे को जजमान के खिलाफ उत्तेजित करने के लिए बीली कूट शब्द का इस्तेमाल करते हैं लेकिन अगर बात मोहब्बत से निपटानी हो तो ये आपस में चिस्सेरेवाल शब्द का प्रयोग करते हैं। अपने इलाके में गाकर कमाने वाले किन्नरों को पनके कहा जाता है लेकिन जो घुसपैठ करते हैं उन्हें खैर गल्ले कहते हैं। बड़े लड़कों को इनकी भाषा में टुलना और लड़कियों को टुलनी कहा जाता है। जबकि नवजात शिशुओं को टेपका और टेपकी बोलते हैं । सौ रुपए के नोट को बड़मा, पचास के नोट को आधा बड़मा, दस रुपए के नोट को एक पान की और बीस रुपए के नोट को दो पान की कहा जाता है।
प्रकृति के अन्याय से पीडि़त किन्नर आपस में भाई-बहन और दोस्ताना संबंध तो बना लेते हैं लेकिन पति-पत्नी के रूप में उनका रिश्ता नहीं बन सकता है इसलिए वे गुरु को ही अपना पति मानते हैं। भोपाल के मंगलवारा क्षेत्र की किन्नर नंदिनी तिवारी ने बताया कि लोग समझते हैं कि किन्नर भी समलैंगिकों की तरह जोड़े के रूप में आपसी संबंध बनाते हैं लेकिन हमारे बीच ऐसा कोई संबंध नहीं होता है। हालांकि, किन्नर समाज में भी पुरुष और स्त्री किन्नर का वर्गीकरण होता है। नंदिनी बताती है कि हम अपने गुरु को ही पति मानते हैं। कई किन्नर इसीलिए मांग में सिंदूर भी भरते हैं और माथे पर बिंदी लगाते हैं। सुहाग के प्रतीक के रूप में पैरों में बिछिया और पायल भी पहनी जाती हैं। यानी पूरा सुहागन वाला रूप धारण किया जाता है।
किन्नर नंदिनी कहती है कि जिस तरह गोपियां भगवान कृष्ण को अपना पति मानती थीं उसी तरह किन्नर गुरु को यह दर्जा देते हैं। उत्सव विशेष पर पति गुरु की पूजा भी होती है और नाच-गाकर उन्हें प्रसन्न किया जाता है। इतना ही नहीं गुरु के निधन पर किन्नर किसी विधवा स्त्री की तरह कुछ दिन तक श्वेत साड़ी पहनकर शोक भी जताते हैं। नए गुरु की नियुक्ति पर उसे पति परमेश्वर का दर्जा दिया जाता है।
मूल रूप से वाराणसी की रहने वाली किन्नर नंदिनी ने बताया कि होश संभालने के बाद जब उसे इस बात का एहसास हुआ कि प्रकृति ने उसे क्या रूप दिया है तो वह बहुत दुखी हुई। जब सात-आठ साल की थी तब माता-पिता को मजबूर होकर उसे किन्नर समुदाय को सौंपना पड़ा। पिछले करीब तीन दशकों से वह भोपाल के किन्नर समुदाय की सदस्य है। बचपन की स्मृतियों में जाते हुए नंदिनी की आंखों में आंसू आ जाते हैं। उसका कहना है कि माता-पिता और भाई-बहनों की बहुत याद आती है। उनसे मिलने को मन व्याकुल रहता है लेकिन एक बार घर छूटा तो फिर छूट ही गया। दीपावली और होली जैसे त्यौहारों पर घर के सदस्यों से फोन पर जरूर बात हो जाती है।
सजल आंखों से नंदिनी कहती है कि कुछ महीने पहले पिता का निधन हो गया और यह खबर मिलने पर मन वहां जाने के लिए बहुत तड़पा लेकिन जाना संभव नहीं था। अगर वह जाती तो उसके परिवार का रिश्तेदारों के सामने मजाक बनता। लरजती आवाज में वह कहती है पिता अपने जीते जी साल में एक बार भोपाल आते थे और उसे साड़ी भेंट कर दुखी मन से वापस लौट जाते थे लेकिन अब यह सिलसिला भी खत्म हो गया।
उत्तर पदेश,बिहार और प.बंगाल में किन्नरों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। गरीबी और बेचारगी का दंश झेलते ये किन्नर, समाज में विभिन्न संगठनों द्वारा नाच गाने के प्रदर्शन के लिए संचालित होते हैं। पारंपरिक गीतों के साथ किसी भी खुशी के अवसर को अपने आशीर्वाद से ये पूर्ण करते हैं। बिहार के बक्सर में एक नाच पार्टी में नाचने वाली सुरैया किन्नर कहती है कि बिहार और उत्तर प्रदेश में नाच का अच्छा खासा प्रचलन है और मैं छह महिने के अंदर इतना कमा लेती हूं कि उससे साल भर आराम से बैठकर खाया जा सकता है। वह बताती है कि नाच पोग्राम के दौरान कई बार ऐसी स्थिति भी बन जाती है की हमें बंदुक की गोलियों के बौछार के बीच नाचना पड़ता है। उतर प्रदेश के बलिया के किन्नर सलमा कहती है कि उनकी जिंदगी आज पूरी तरह से समाज और उनके गुरुजी को समर्पित है। जैसी आज्ञा होती है वे उसका तहे दिल से पालन करते हैं। अपने परिवार,माता-पिता,भाई-बहन किसी की उन्हें याद नहीं है। उनका कहना है कि जब वे काफी छोटे थे तभी उनको इस शारीरिक स्थिति की वजह से काफी तकलीफ उठानी पड़ती थी, अत: भगवान बुद्ध की तरह गृह त्याग दिया और गुरु जी की शरण में आ गए। वे अहसानमंद हैं अपने गुरु के जो स्वयं भी किन्नर ही होते हैं जिनके शरण में जा कर उन्हें समाज में जीने का एक रास्ता मिलता है। एक अन्य किन्नर माधुरी का दर्द भी अमूमन यही है। उन्हें भी अपने परिवार के बारे में चर्चा करना अच्छा नहीं लगता है। परिवार की याद तो उन्हें है लेकिन अपने परिवार के किसी सदस्य को वे याद करना नहीं चाहते। बहुत कुरेदने पर डबडबायी आंखों और भर्राए गले से माधुरी किन्नर बताती हैं कि मेरे और भी भाई-बहन हैं जो सामान्य इंसानों की तरह हैं परन्तु मेरा उनसे मिलना-मिलाना नहीं होता। मैं भी उन लोगों से संपर्क नहीं रखना चाहती, मैं अपनी इसी दुनिया में मस्त हूं। जब ईश्वर ने ही हमारे साथ इंसाफ नहीं किया तो फिर दूसरों से कैसी शिकायत।
अपनी नाच-गानों की परिपाटी और अपने गुरु द्वारा दिए गए परिवार में ही वे मगन हैं। उन्होंने बताया कि महिलाओं के रिश्तों के प्रत्येक बंधन उनके परिवार की श्रृंखलाबद्ध शक्ति है। मसलन एक गुरु के सारे चेलों को प्रत्येक छह लोगो में विभाजित कर दिया जाता है जिसमें सभी जेठानी-देवरानी (गोतनी) के रिश्तों में बंधे होते हैं। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है और पीढिय़ां बदलती जाती है, इनका पद उपर बढ़ता जाता है। बढ़ती उम्र के साथ ये गुरु के पद पर पहुंच जाएंगी तो इनके चेलों दर चेलों के साथ इनका रिश्ता सास-बहू का बन जाएगा। तीसरी पीढ़ी के संबंध स्थापित होते ही ये दादी भी बन जाएंगी। किन्नर होते हुए भी इनका रुप स्त्री का ही होता है। महिलाओं के लिबास,उनकी भाव-भंगिमा और नाज-नखरे इनका आभूषण होते हैं।
पूरे संगठन के प्यार व्यवहार तथा अपनापन को देखकर ऐसा लगा मानों इनसे संबंधित जितनी भी भ्रांतियां लोगो के मन में है उसका कोई औचित्य नहीं है। इनकी शारीरिक बनावट जैसी भी हो उनके सीने में धड़कने वाला दिल एक आम इंसान का ही है। हृदय को छू जाने वाली इनकी कहानी और किसी के दुख में इस्तेमाल किए जाने वाले इनके कोमल शब्द,खुशी (खासतौर से बेटे के जन्म पर) में बड़ी रकम के लिए इनकी नाराजगी तथा रुठने-मनाने का दौर फिर परिस्थितियों के अनुकूल इनका मान जाना एक अलग ही अनुभूति देता है।
इंदौर में रहने वाली चंचल मासूम आंखों में घुली उदासी के साथ जब पूछती है अगर साथ वाले बच्चों को ऐतराज न हो तो मैं भी स्कूल जाना चाहती हूं। 17 साल की किन्नर चंचल का यह सवाल बिना जवाब के ही अधर में टंगा रहता है। वो मानती हैं कि उसकी ङ्क्षजदगी आधी अधूरी है लेकिन फिर भी इस ङ्क्षजदगी से कोई शिकायत नहीं है। चंचल का कहना है कि ऊपर वाले ने उसे जैसा बनाया उसे मंजूर है। लेकिन सखह साल के इस शरीर में छिपा किशोर मन कभी कभी स्कूल जाने के लिए मचल उठता है। पांचवी तक पढी चंचल और पढना चाहती है ् लेकिन उसे डर है कि कहीं स्कूल के दूसरे बच्चे उसके साथ पढने से इंकार न कर दें।फिर भी हौंसला थका नहीं है। कहती है अगर मौका हाथ लगा तो जरूर पढूंगी। चंचल ने कहा कि उसके पिता की मृत्यु करीब दो साल पहले हुई। पिता हभमाल थे। मां लोगों के घरों में बर्तन मांजती है।चंचल जब छोटी थी तब वह भी मां के साथ काम करने जाती थी। उसका एक बर्डा भाई और छोटी बहन है और दोनों सामान्य हैं। बेहद गरीबी के बीच किसी तरह ङ्क्षजदगीगाड़ी चल रही है। इंदौर की निवासी ज्योति किन्नर ने चंचल को अपना लिया है। चंचल ने भी ज्योति किन्नर को अपना गुरू बना लिया है। ज्योति ने उसे किन्नर ं के तौर तरीके मसलन ताली बजाना और नृत्य इत्यादि सिखाना शुरू कर दिया है। अब चंचल ताली बजा-बजाकर दुआएं देना ् लानत भेजना और नृत्य करना सीख चुकी है।

Thursday, November 18, 2010

भ्रष्टाचार में भी हममहाशक्ति

हमारी लोकत्रांत्रिक शक्ति, तरक्की के चर्चे फोब्र्स सूची से लेकर जिनेवा तक अमीरों की दुनिया में भले ही कितने क्यों न हो रहे हों, लेकिन इसके इतर एक बात यह भी सच है कि हम भ्रष्टाचार में भी महाशक्ति हैं। भ्रष्टाचार आज हम भारतीयों का स्वीकृत आचार बन चुका है। क्षमा चाहूंगा, मैं यहां हम भारतीयों पर जोर डालना चाहता हूं। क्योंकि, आज एक-दो आदमी या संस्था नहीं, हम सभी भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे हैं। आज अगर कोई खुद को ईमानदार कहता है तो मुझे लगता है कि या तो उसे घोटाला करने का अवसर नहीं मिला है और अगर मिला है तो वह कर नहीं पाया है। तभी, वह खुद को इमानदार कह रहा है। पूरे देश को महंगाई डायन न केवल खा चुकी है, बल्कि पूरा लील चुकी है। करों के तिहरे बोझ से आदमी तिहरा से चौहरा हो चुका है। ऊपर से भ्रष्टाचार का सावन है कि बरसता ही जा रहा है। (पहले क्या कम बरसा था कि इसकी बाढ़ से हमारा मटियामेट हो चुका है।) हालांकि भ्रष्टाचार मिटाने की सरकारों ने कसमें तो बहुत खाई, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। पिछले 15 साल में 14 बड़े घोटाले हुए, जिनमें 22,376 करोड़ रुपये की हेराफेरी हुई, लेकिन 13 मामलों में कुछ नहीं बरामद हुआ और सिर्फ 10 लोगों को सजा दिलाई गई।
यह कितनी बड़ी विडम्बना है कि विश्व की महाशक्ति अमेरिका द्वारा भारत को महाशक्ति कहने के दूसरे ही दिन देश में भ्रष्टाचारियों पर गाज गिरनी शुरू हो गई है। महाराष्ट्र्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और सुरेश कलमाड़ी के इस्तीफे के बाद सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि क्या भ्रष्टाचारियों की असल पोल खुलेगी या नहीं और भ्रष्टाचार पर अंकुश लग पाएगा। क्योंकि ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ष 2010 के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 87वें स्थान पर पहुँच गया है। जबकि, 2009 में वह 84वें स्थान पर था। सूची में एशिया में भूटान को सबसे कम भ्रष्ट देश बताया गया है। संस्था के सदस्यों का कहना है कि राष्ट्र्रमंडल खेलों में उजागर हुई अनियमितताओं से भारत की छवि खराब हुई है। इस सूचकांक में भ्रष्टाचार को नीचे की ओर गिरता हुआ दिखाया गया है। उस पर कारगिल के शहीदों के नाम पर बन रहे आदर्श कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटी से जुड़े घोटाले ने भारत की नाक कटवाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है।
अनेक ताजा महाघोटालों में नामजद नेताओं, बाबुओं और पूर्व सैन्य अधिकारियों को सबक सिखाने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के सामने महाराष्ट्र के मुख्यमत्री अशोक चव्हाण का इस्तीफा स्वीकार करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं था। मुंबई की आदर्श हाउसिंग सोसाइटी के घोटाले ने महाराष्ट्र सरकार के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और उनकी सरकार के नौकरशाहों ने भ्रष्टाचार के सारे मानदंड तोड़ दिए थे। इस सोसाइटी का निर्माण और इसके फ्लैटों का आवंटन जिस तरह हुआ, वह साधारण भ्रष्टाचार नहीं है। इसमें भ्रष्टाचारियों ने कारगिल के नायकों के परिवार वालों के लिए बने प्रमुख स्थान के फ्लैटों को हथियाने के लिए सभी नियमों की धज्जियां उड़ा दी। इस तरह यह मामला एक व्यवस्थागत सड़ांध को उजागर करता है। ऐसे कुछ और घोटाले भी हैं, जहां पर व्यावसायिक, राजनीतिक और नौकरशाही तबकों के बेहिसाब भूख, भ्रष्टाचार की भयावहता सभी मापदंडों को पार कर गई है। पिछले एक दशक में हमने प्रसिद्ध केतन पारिख घोटाले, मधु कोड़ा घोटाले, चारा घोटाले, आईपीएल घोटाले, सीडब्ल्यूजी, टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाला, खाद्यान्न घोटाला, घोटाले देखे हैं और यह सूची बढ़ती ही जा रही है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह एक ईमानदार और योग्य प्रशासनिक अधिकारी के रूप में भी जाने जाते हैं, इसलिए जब वह प्रधानमंत्री बने थे तो यह उम्मीद की गई थी कि राजनेताओं और नौकरशाही के भ्रष्टाचार पर लगाम लगाकर देश की छवि को सुधारेंगे, लेकिन उनके राज में एक के बाद एक घपलों, घोटालों और भ्रष्टाचार के कांडों ने सरकार की छवि को भारी क्षति पहुंचाई है। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में भ्रष्टाचार के कई मामलों के उजागर होने के बाद अब आदर्श सोसाइटी घोटाले ने सरकार की साख पर ही सवाल खड़ा कर दिया है। इस घोटाले में महाराष्ट्र के कई नेताओं, नौकरशाहों और सेना के बड़े अधिकारियों ने मामूली कीमतों पर जिस तरह से फ्लैट हथिया लिए, उसकी मिसाल खोजनी मुश्किल है। अचरज की बात तो यह है कि जिन नेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों पर इस घोटाले को रोकने की जिम्मेदारी थी, वे भी उसमें शामिल हो गए। किसी को शर्म नहीं आई कि वे कारगिल शहीदों के आश्रितों के लिए बनवाए गए फ्लैट को हड़प रहे हैं। देश के वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी नौ फीसदी विकास दर के दावे के साथ भले ही गर्व का अनुभव कर रहे हों, लेकिन हमारी गिनती आज भी दुनिया के भ्रष्टतम देशों में होती है। पिछले एक साल के दौरान भारत ने भ्रष्टाचार का नया रिकार्ड कायम किया है। यूपीए की सरकार ने जनता से भ्रष्टाचार रोकने और नौकरशाही के सुधार का वादा किया था, लेकिन पिछले छह सालों के दौरान इस दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया। आधे-अधूरे मन से सूचना के अधिकार का कानून लागू किया लेकिन सूचना नहीं देने वालों को दंडित करने का कोई कड़ा प्राविधान नहीं बनाया। फिर सूचना आयुक्तों की नियुक्ति में केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने चहेते अधिकारियों को बैठाकर भी जनता को उसके हक से वंचित करने का प्रयास किया। यही कारण है कि भ्रष्टाचार पर लगाम नहीं लग पा रही है। यह जानने के लिए कि भारत में कितना भ्रष्टाचार है, किसी एजेंसी के सर्वे की जरूरत नहीं है। यहां रहने वाला हर आदमी जानता है कि जब भी किसी सरकारी विभाग से उसका पाला पड़ता है तो उसकी जेब खाली हो जाती है।
केंद्र से लेकर राज्यों तक फैला धुंआधार भ्रष्टाचार हमारे राजनेताओं के राज चलाने की अक्षमता को ही उजागर करता है। भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की जितनी भी कोशिशें अब तक हुई हैं, उनसे भ्रष्टाचार कम होने के बजाय और बढ़ा है। कई मामलों में भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों की साठगांठ उजागर हो चुकी है। कोई योजना और कार्यक्रम ऐसा नहीं बचा है, जिसमें भ्रष्टाचार नहीं हो। लेकिन सबसे बड़ी हैरानी की बात तो यह है कि भ्रष्ट मंत्रियों और अफसरों के खिलाफ कार्रवाई होने के बजाय बड़े-बड़े पदों पर उनकी तैनाती कर दी जाती है। जाहिर है कि सरकारी योजनाओं की धनराशि हड़पने की क्षमता उनकी तरक्की और उन्नति का आधार बन गई है। ऐसा नहीं है कि भ्रष्टाचार दूसरे देशों में नहीं है, लेकिन जहां भी भ्रष्टाचार का मामला सामने आता है तो कार्रवाई होती है। कई देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी जेल गए हैं। चीन में तो भ्रष्टाचारियों को फांसी की सजा दे दी जाती है, लेकिन हमारे यहां भ्रष्टाचार की चर्चा तो बहुत होती है, लेकिन उसे मिटाने की कोशिशें शायद ही कार्रवाई तक पहुंच पाती हैं। देश के बड़े-बड़े महानगरों में हमारे नौकरशाहों, माफिया और राजनेताओं की बनी बड़ी-बड़ी कोठियां और तमाम नामी-बेनामी संपत्तियां किस बात का प्रमाण हैं? यह सब देखकर ऐसा लगता है कि जैसे कानून इन लोगों के लिए बनाए ही नहीं गए हैं। उसकी गिरफ्त में लाचार और कमजोर आदमी ही आता है। नहीं तो काले धन का लगातार संचय शहरों में जमीन और बिल्डिंग माफिया के तेजी से विकास, संगठित अपराध के उभार और सार्वजनिक घोटालों की बरसात की क्या व्याख्या की जा सकती है। भ्रष्टाचार मिटाने की सरकारों ने कसमें तो बहुत खाई, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। पिछले 15 साल में 14 बड़े घोटाले हुए, जिनमें 22,376 करोड़ रुपये की हेराफेरी हुई, लेकिन 13 मामलों में कुछ नहीं बरामद हुआ और सिर्फ 10 लोगों को सजा दिलाई गई। 1200 करोड़ के दूरसंचार घोटाले में सिर्फ 5 करोड़ 36 लाख रुपये ही जब्त किए जा सके। इन घोटालों में देश के 22,371 करोड़ रुपये डूब गए। इनकी जांच पड़ताल करने में करोड़ों रुपये अलग से खर्च हुए। इन घोटालों के सूत्रधार वे लोग हैं, जिनकी शासन सत्ता तक ऊंची पहुंच है। आर्थिक अपराधी अर्थव्यवस्था को खोखला करते रहें और राज्य व्यवस्था असमर्थ बनी रहे तो इसका अर्थ हुआ आर्थिक लोकतंत्र नहीं, आर्थिक शोषण, भ्रष्टाचार और अपराध का अराजक वातावरण है। यह ध्यान रखने की बात है कि राजनीतिक लोकतंत्र का तब तक कोई मतलब नहीं होता, जब तक उसमें आर्थिक लोकतंत्र न हो, लेकिन अब तक घोटालों का यह इतिहास बताता है कि जनता के धन को लूटने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई और इस लूट में राजनेता और नौकरशाह दोनों शामिल रहे हैं। भ्रष्टाचार और लूट-खसोट की होड़ में सभी दलों के नेताओं ने अपनी तिजोरियां भरी, विदेशी बैंकों के खातों में भारी रकम जमा की, घोटाले पर घोटाले किए, अपनी भावी पीढिय़ों का भविष्य सुरक्षित किया और जब देश विदेशी दिवालियेपन के कगार पर आ खड़ा हुआ तो अपने खर्चे और ऐशो आराम कम करने के बजाय राष्ट्र की अस्मत को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, विश्व व्यापार संगठन, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और अमेरिकी आकाओं के हाथों गिरवी रख दिया। अपने विशाल बाजार को ही विदेशी कंपनियों द्वारा उपभोग की सामग्रियां बेचने और शोषण करने के लिए मुक्त कर दिया। देश की संप्रभुता की तिलांजलि दे दी और देश को कर्ज के बोझ के नीचे दबा दिया। जनता की स्वराज्य की मांग के पीछे विदेशी आक्रांताओं द्वारा आर्थिक शोषण के विरोध की बलवती भावना थी, लेकिन देश चलाने वालों ने देश को विदेशी दया पर आश्रित कर दिया। फिर इस दया के रूप में जो धनराशि उधार के रूप में मिलती है, उसमें भी भारी लूट-खसोट हो रही है। सांसद और विधायक निधि भी भ्रष्टाचार का माध्यम बन जाए तो हमारी राज चलाने की क्षमता पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाने चाहिए। कुल मिलाकर माफिया संगठनों का एक तंत्र देश में समानांतर सरकार चला रहा है और उसने राज्य के उपकरणों को अप्रासंगिक बना दिया है। देश के सही सोच के प्रत्येक नागरिक को यह चिंता होने लगी है कि अपार प्राकृतिक संपदा और मानवीय संसाधनों के होते हुए भी आखिरकार हमारे देश की यह दशा कैसे हो गई।
देश के प्रधानमंत्री बहुत सज्जन व्यक्ति भले हों, पर आज देश में अपने गठजोड़ के कलंकित सदस्यों के प्रति उनकी विदेह राजा जनक जैसी उदासीनता (काठ की मिथिला जल भी जाए तो मेरा क्या?) को उनकी दार्शनिक गहराई का प्रमाण मानकर संतुष्ट होने वाले बहुत लोग नहीं मिलेंगे। मजबूत विकल्प के अभाव में कांग्रेस को ठुकराकर देश मध्यावधि चुनाव से नई पार्टी को नहीं चुन सकता और कांग्रेस स्पष्टत: मझधार में अपने गठजोड़ के घोड़े बदलने की इच्छुक नहीं दिखती, अश्वमेध तो दूर की बात है। लोकतांत्रिक राजनीति के दायरे के बाहर हर समय लुआठी लिए अरुंधती राय या गिलानी सरीखे लोगों के घरफूंक विकल्प भी कोई समझदार लोकतंत्र स्वीकार नहीं कर सकता। घूम-फिरकर इस उम्मीद पर भारत की जनता कायम है कि मनमोहन सिंह की सरकार ही कुछ कठोर फैसले लेगी। दलीय प्रवक्ताओं, समीक्षकों को तो पार्टी अध्यक्षा द्वारा सादगी और त्याग के गुणों को कांग्रेस द्वारा अपनाने के ताजा आग्रह में एक किस्म की दृढ़ता के संकेत मिल भी रहे हैं, जो सरकार की चिरपरिचित विनम्रता को कड़े फैसले लेते वक्त सत्ता रीढ़ का सहारा आदि दे सकती है। खैर, यह तो बातें हैं बातों का क्या?

20 लाख करोड़ रुपये चढा भ्रष्टाचार की भेंट !

हमारी लोकत्रांत्रिक शक्ति, तरक्की के चर्चे जहां फोब्र्स सूची से लेकर जिनेवा तक अमीरों की दुनिया में हो रहे हों वहीं भ्रष्टाचार भारतीय सिस्टम में किस हद तक समाया है उसके स्वदेसी रूप तो आपने कई देखें होगे, लेकिन वाशिंगटन में हुए एक अध्ययन के बाद भारत की छवि को अंतर्राष्ट्र्रीय स्तर पर और झटका लगने की आशंका बढ़ गई है। एक अध्ययन में कहा गया है कि भारत ने स्वतंत्रता के बाद से 2008 तक 20,556 अरब रुपए या करीब 20 लाख करोड़ (462 बिलियन डॉलर) भ्रष्टाचार, अपराध और टेक्स चोरी के कारण गंवाई है। वाशिंगटन के एक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ समूह ग्लोबल फाइनेंशियस इंटिग्रिटी(जीएफआई) ने हाल ही में जारी 'द ड्राइवर्स एंड डायनामिक्स ऑफ इलिसिट फाइनेंशियल फ्लो फ्रॉम इंडिया 1948-2008Ó शीर्षक से जारी रिपोर्ट 1991 में भारत की सुधरती अर्थव्यवस्था के बावजूद देश से बाहर अवैध रूप से भेजे जा रहे धन की मात्रा काफी बढ़ी है। इस आंकलन के अनुसार भारत को कुल 462 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ है और इसमें से बड़ी रकम विदेशी बैंको में जमा है। भारतीय मुद्रा में यह रकम कुल 20,556,548,000,000 या करीब 20 लाख करोड़ रुपए होती है। भारत का विदेशों से कर्जा करीब 230 डॉलर का है, लेकिन यह अवैध धन उससे दुगना है। संस्था के संचालक रेमंड्स बेकर ने कहा कि जाहिर है कि इतनी बड़ी रकम देश से बाहर भेजे जाने के कारण ही भारत में गरीब और गरीब हो गया है और अमीर और गरीब के बीच का अंतर काफी बढ़ गया है। यही नहीं ट्रांस्पैरेंसी इंटरनेशनल द्वारा जारी वर्ष 2010 के भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत 87वें स्थान पर पहुँच गया है। जबकि, 2009 में वह 84वें स्थान पर था। सूची में एशिया में भूटान को सबसे कम भ्रष्ट देश बताया गया है।

इस वक्त जबिक भ्रष्टाचार में सरकार के कई मंत्री और मुख्यमंत्री फंसे हैं यह आंकलन सरकार के लिए और मुश्किले खड़ा करेगा। यह भी एक सच्चाई है कि आजादी के बाद देश में सबसे ज्यादा कांग्रेस की सरकार रही है। आज के हिंदुस्तान में राजनीतिक पार्टियों और नौकरशाही से जुड़ाव ने कुछ लोगों को कुछ भी करने का लाइसेंस दे दिया है। ये अकारण नहीं है कि 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद पहले आईपीएल, फिर कॉमनवेल्थ, उसके बाद आदर्श घोटाला और अब टू जी स्पेक्ट्रम पर हंगामा मचा हुआ। हर नया घोटाला पहले से कहीं ज्यादा हैरतअंगेज, ज्यादा लोमहर्षक, ज्यादा खतरनाक। आईपीएल ने जहां ये साबित किया कि एक अकेला शख्स किस तरह से पूरी व्यवस्था का मखौल उड़ाते हुए मनमानी कर सकता है। कॉमनवेल्थ ने बताया कि घोटालेबाजों को देश की इज्जत की जरा भी परवाह नहीं है, बस उनकी जेब भरनी चाहिए। आदर्श इस बात का सबूत है कि पूरा सरकारी तंत्र योजनाबद्ध तरीके से लूट के खेल में लगा है और मंत्री, नौकरशाह और सेना के अफसर अगर चाह लें तो रात को दिन और दिन को रात किया जा सकता है। लेकिन टू जी स्पेक्ट्रम ने सारी सीमाओं को तोड़ दिया है। टू जी घोटाला हमारे संवैधानिक सिस्टम की कमजोरी और गठबंधन सरकार की बेबसी की कहानी है। गठबंधन युग में क्षेत्रीय पार्टी का एक मंत्री कुछ भी कर सकता है। इसलिए नहीं कि वो कानून के ऊपर है बल्कि इसलिए कि उसकी पार्टी के समर्थन से केंद्र की सरकार चलती है और वो दलित है। उसको छूने का मतलब है सरकार का गिरना और राजनीति में इस मिथ को बल देना कि किसी खास जाति के नेता के खिलाफ कार्रवाई करने का अर्थ है उस जाति की नाराजगी मोल लेना। अन्यथा ये कैसे संभव है कि एक अदना सा मंत्री वित्त मंत्रालय, कानून मंत्रालय, प्रधानमंत्री कार्यालय सबकी अवहेलना करे, किसी की न सुने और सरकारी खजाने को एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ का चूना लगा दे? प्रधानमंत्री कार्यालय टुकुर-टुकुर देखता रहे, आम आदमी की बात करने वाली पार्टी की मुखिया हाथ पर हाथ धरे बैठी रहे?
हांलाकि घोटाले के आरोपियों से इस्तीफे लेने के लिए कांग्रेस थोड़ी-सी प्रशंसा की हकदार है। लेकिन इसे किसी भी रूप में सजा नहीं माना जा सकता। इस्तीफे महज एक अच्छा पहला कदम हैं। इन इस्तीफों के साथ नैतिकता और शुचिता के ऊंचे दावे किए जा रहे हैं, जो नितांत झूठे हैं। इस्तीफे इस बात की स्वीकारोक्ति हैं कि वास्तव में कुछ गलत हुआ है।
इस्तीफे लेने का यह मतलब भी है कि सत्तारूढ़ पार्टी मानती है कि अपने भविष्य की खातिर वह मीडिया के दबाव और जनाक्रोश से उदासीन नहीं रह सकती।
भ्रष्टाचार की गंगोत्री में डूबे युपीए सरकार के मंत्री और नेताओं की पोल खुलने के साथ हीप्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का निष्कंटक राज खत्म हो गया है. देश के सबसे बड़े घोटाले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की चुप्पी पर सवाल उठाने के बाद स्पेक्ट्रम घोटाले में अब प्रधानमंत्री खुद घिरते नजर आ रहे हैं. बेदाग राजनीतिक कैरियर के बदौलत छह साल से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान मनमोहन सिंह भ्रष्टाचार के तरंगों से ऐसे घिर रहे हैं कि उन्हें कुर्सी छोडऩी भी पड़ सकती है.

प्रधानमंत्री कार्यालय पर सुप्रीम कोर्ट का रुख सीबीआई के काम काज पर मनमोहन सिंह की चुप्पी है. दरअसल, जिस सीबीआई जांच का तर्क देकर प्रधानमंत्री कार्यालय ने ए.राजा के खिलाफ मुकदमे से इंकार किया था, वही सीबीआई तो खुद अदालत के कठघरे में खड़ी है और स्पेक्ट्रम घोटाले में जांच में देरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट से लताड़ खा रही है. अदालत ने राजा पर मुकदमे की इजाजत दे दी है, लेकिन राजा पर हाथ डालना राजनीतिक मुश्किलों का सबब बनेगा. गठबंधन राजनीति बेदाग छवि वाले प्रधानमंत्री से महंगी कीमत वसूल रही है। यही वजह है कि सरकार के लिए बेहद संवेदनशील हो चुके 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में पीएमओ कुछ भी बोलने से बच रहा है.

प्रधानमंत्री कार्यालय के तहत काम करने वाली सीबीआई ने इस मामले में याचिका के 11 माह बाद एफआईआर दर्ज की और वह भी अनजान लोगों के खिलाफ। जांच के आगे न बढऩे पर सीबीआई ने 29 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस जीएस संघवी और एके गांगुली की पीठ से लताड़ भी खाई थी। सीबीआई जांच के लिए और ज्यादा वक्त मांगने अदालत पहुंची थी। पीएमओ के लिए इस सवाल का जवाब देना मुश्किल होगा कि पिछले साल अक्टूबर में संचार भवन में छापा मारने वाली सीबीआई अब तक अनजान लोगों के खिलाफ ही जांच क्यों कर रही है? मामले की सुनवाई में अदालत ने राजा के खिलाफ मुकदमे की अनुमति दे दी है। सरकारी वकील भी मुकदमा चलाने से सहमत हैं, लेकिन राजा पर हाथ डालने से गठबंधन की सेहत बिगड़ती है। इसलिए दाग धोने के लिए राजा पर मुकदमे चलाने की सुविधा भी प्रधानमंत्री को नहीं है। गत 12 नवंबर को अदालत में दाखिल दूरसंचार विभाग का हलफनामा एक अन्य पेंच है। इसमें पूरी प्रक्रिया को पाक साफ ठहराते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय की सहमति होने का दावा किया गया है। हालांकि हलफनामे के उलट सीएजी ने प्रधानमंत्री को पाक साफ बताया है, लेकिन उसकी रिपोर्ट ने राजा के मामले में प्रधानमंत्री की चुप्पी और निष्क्रियता को और मुखर कर दिया है।?
जाहिर है मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बर्दाश्त न करनेवाले कांग्रेसी धड़े के लिए यह एक सुनहरा मौका साबित होनेवाला है. अगर आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा स्पेक्ट्रम घोटाले की आग को इसी तरह हवा देना जारी रखती है तो संभवत: राजा के बाद दूसरा बड़ा निर्णय खुद प्रधानमंत्री की विदाई हो सकती है. निश्चित ही मनमोहन सिंह के लिए पहली बार इतना बड़ी राजनीतिक संकट पैदा हुआ है जिससे पार पाना फिलहाल तो मुश्किल ही लग रहा है.