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भेड़ाघाट

Tuesday, March 21, 2017

नेता पुत्रों के राज 'तिलकÓ की बिसात

उत्तर प्रदेश में टूटी मोदी की आस, मप्र उल्लास
मप्र के एक दर्जन मंत्रियों के 'लालÓ ठोक रहे ताल
भोपाल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की समझाइस के बाद भी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने टिकटों के वितरण में जिस तरह परिवारवाद और वंशवाद को प्राथमिकता दी है उससे मप्र के नेताओं में उल्लास है। इसके साथ ही एक बार फिर से प्रदेश में नेता पुत्रों के राज 'तिलकÓ की राजनीतिक बिसात बिछने लगी है। आलम यह है कि युवराजों को भारतीय जनता युवा मोर्चा में पद दिलाने के लिए नेताओं ने लॉबिंग तेज कर दी है, वहीं नेता पुत्रों ने अपने पिता की विरासत संभालने के लिए उनके क्षेत्र में सक्रियता बढ़ा दी है। आलम यह है कि प्रदेश के करीब एक दर्जन मंत्रियों के बेटों सहित कई नेताओं के 'लालÓ राजनीति के अखाड़े में ताल ठोक रहे हैं। उल्लेखनीय है की मोदी द्वारा भाजपा नेताओं को परिवार के सदस्यों के टिकट के लिए दबाव न बनाने की नसीहत के बाद 10 और 11 जनवरी को सागर में आयोजित प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में पार्टी ने राजनीतिक प्रस्ताव पारित कर परिवारवाद और वंशवाद में मुक्त रहने का संकल्प लिया है। हालांकि इसको लेकर नेता एकमत नहीं थे। लेकिन प्रस्ताव के बाद ऐसा लगने लगा था कि अब कम से कम मप्र में तो ऐसा नहीं दिखेगा। लेकिन उत्तर प्रदेश में मोदी के मंत्र को तार-तार होता देख यहां भी नेता पुत्रों के लिए बिसात बिछने लगी है। सोशल मीडिया पर छाए युवराज मप्र में लगभग हर मंत्री या नेता के बेटा-बेटी या परिजन राजनीति में अपना मुकाम बनाने में जुटे हुए हैं। कोई नेताजी के क्षेत्र में सक्रिय है तो अधिकांश सोशल मीडिया पर। आलम यह है की फेसबुक, ट्विटर और वाट्सएप पर नेता पुत्र हर मुद्दे पर अपनी राय बढ़-चढ़ कर दे रहे हैं। यही नहीं चौक-चौराहों पर भी नेता पुत्रों की सक्रियता नजर आने लगी है। इनमें से कुछ वे चेहरे हैं जो पिछले कई सालों से सक्रिय हैं और भारतीय जनता युवा मोर्चा के माध्यम से अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने की जुगाड़ में हैं। वहीं कुछ चेहरे ऐसे हैं जिनका नाम पहली बार चर्चा में आया है। मप्र में पहली बार ऐसा दृश्य देखने को मिल रहा है कि विधानसभा चुनाव से सालों पहले हाईप्रोफाइल नेताओं के पुत्र और उनके अन्य रिश्तेदार राजनीतिक परवाज भरने की तैयारी कर रहे हैं। सत्तारुढ़ भाजपा और 13 सालों से सत्ता से दूर खड़ी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के कई नेताओं के पुत्रों की सियासी और सामाजिक गतिविधियों में एकदम इजाफा होने लगा है। पिछले कुछ दिनों से फेसबुक हो या व्हाट्सएप, सभी जगह कद्दावर भाजपा नेताओं के पुत्रों को जन्मदिन की बधाईयों का तांता लगा रहा। नेता पुत्रों के जन्मदिन के बहाने अपनी राजनीति चमकाने वालों में ऐसे लोग काफी आगे रहे जो इनकी ब्रांडिंग की आड़ में भारतीय जनता युवा मोर्चा के पदाधिकारी बनने की दौड़ में शामिल हैं। बता दें कि जल्द युवा मोर्चा की प्रदेश कार्यकारिणी का गठन होना है। इसके अलावा मोर्चा की जिला टीम के भी नए सिरे से गठन किए जाने के आसार हैं। राजनीति की पाठशाला में दस्तक मप्र की राजनीति में नेता पुत्र हमेशा से सक्रिय रहे हैं। लेकिन वर्तमान समय में सबसे अधिक भाजपा नेताओं के पुत्र सक्रिय हैं। इनमें से कुछ राजनीति की पाठशाला के माहिर खिलाड़ी बन गए हैं तो कुछ को राजनीति की बारिकियां सीखाई जा रही हैं। नई पीढ़ी में राजनीतिक दस्तक देने वालों में मुख्यमंत्री के बेटे कातिर्केय के अलावा कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय, राज्य के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव और वित मंत्री जयंत मलैया के बेटे सिद्धार्थ मलैया, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र प्रताप सिंह तोमर उर्फ रामू, राज्यसभा सांसद प्रभात झा के पुत्र तुष्मुल झा और प्रदेश की काबीना मंत्री माया सिंह के बेटे पीतांबर सिंह इस साल सक्रिय राजनीति का हिस्सा बनने वाले हैं। हालांकि, माया सिंह के बेटे पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर एक कमेटी की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं। इनके अलावा प्रदेश सरकार के वरिष्ठ मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा के बेटे सुकर्ण मिश्रा, गौरीशंकर शेजवार के पुत्र मुदित शेजवार, गौरीशंकर बिसेन की पुत्री मौसम बिसेन हिरनखेड़े, पारस जैन के बेटे संदेश जैन, कुसुम मेहदलेे के भतीजे पार्थ मेहदले, पीडब्ल्यूडी मंत्री रामपाल सिंह के बेटे दुर्गेश राजपूत, उद्यानिकी मंत्री सूर्यप्रकाश मीणा के बेटे देवेश राजनीतिक मैदान में उतरने की पूरी तैयारी कर चुके हैं। लगभग ये सभी नेता पुत्र-पुत्री पार्टी के कार्यक्रमों में भाग ले रहे हैं और पिता के करीबियों के साथ रहकर राजनीति सीख रहे हैं। कार्तिकेय चौहान..... भाजपा का अभेद्य गढ़ माने जाने वाले सीहोर जिले खासकर बुदनी विधानसभा क्षेत्र में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय ने क्षेत्र की राजनीतिक गतिविधियां तेज कर दी है। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव के दौरान इन्होंने पिता के चुनाव की कमान संभाली थी। 2016 के अक्टूबर में वे एक बार फिर से चर्चा में आ गए जब उन्होंने अपनी दादी स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में सक्रिय नजर आए। 21 साल उम्र पार कर चुके कार्तिकेय चौहान के राजनीति में पदार्पण की चर्चा जोर पकडऩे लगी है। दरअसल, कार्तिकेय चौहान इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय नजर आ रहे हैं। साथ ही उनकी सक्रियता की चर्चा जोर भी पकड़ रही है और उनके आयोजनों का प्रचार प्रसार भी भाजपा की देख रेख में हो रहा है। इसलिए एक बार फिर सवाल उठ रहे हैं कि शिव के कार्तिकेय कहीं पिता के नक्शे कदम पर चलने की तैयारी में तो नहीं है। कार्तिकेय फिलहाल लॉ की पढ़ाई कर रहे हैं और जल्द ही उनकी डिग्री पूरी होने वाली है। 2013 विधानसभा चुनाव के समय पर कार्तिकेय ने 18 साल उम्र पूरी होने पर मतदाता सूची में अपना नाम जुड़वाया था और अपने मुख्यमंत्री पिता की व्यस्तता के चलते पिता के चुनाव अभियान की कमान संभाली थी और पिता के प्रतिनिधि के तौर पर पूरे बुधनी विधानसभा क्षेत्र में प्रचार किया था। उसी समय उनकी राजनीति में पदार्पण की बात उठी थी, लेकिन तब शिवराज सिंह चौहान ने हंसकर टाल दिया था। हालांकि उन्होंने कहा था कि कार्तिकेय सामाजिक और पारिवारिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर भाग लेता हैं और सक्रिय भी रहता है, लेकिन अभी उसके पढऩे लिखने का समय है। फिलहाल कार्तिकेय 21 साल की उम्र पार कर चुके हैं और उनकी सामाजिक सक्रियता लगातार बढ़ती जा रही है। भाजपा के कार्यक्रमों के अलावा पिता के विधानसभा क्षेत्र बुधनी में उनकी सक्रियता देखने को मिलती है। जहां तक उनके उम्र के लिहाज से आकलन किया जाए तो 2018 का चुनाव उनके लिए राजनीति का पूर्वाभ्यास माना जा सकता है और उसके बाद वो उम्र के उस मुंहाने पर पहुंच जाएंगे कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव के जरिए अपनी राजनीतिक पारी शुरू कर सकेंगे। आकाश विजयवर्गीय....... मध्यप्रदेश भाजपा के कद्दावर नेता व पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का कद पार्टी में लगातर बढ़ते जा रहा है। खासकर अमित शाह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद उनका कद पार्टी में तेजी से बढ़ रहा है। वो राष्ट्रीय राजनीति में अमित शाह के खास रणनीतिकारों में शामिल है। कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय आगामी विधानसभा चुनाव में अपने पिता की महू सीट से उम्मीदवार बन सकते हैं। बताया जा रहा है कि केंद्रीय राजनीति में कद बढ़ जाने के कारण कैलाश विजयवर्गीय अब राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहना ज्यादा पसंद करेंगे। ऐसे में माना जा रहा है कि 2018 विधानसभा चुनाव में महू विधानसभा सीट से कैलाश नहीं आकाश विजयवर्गीय ही प्रत्याशी भी होगें। जहां तक आकाश के राजतिलक के लिए कैलाश विजयवर्गीय के प्लान की बात करें तो 2013 में आकाश के जन्मदिन के मौके पर कैलाश विजयवर्गीय सोशल साइट्स के जरिए आकाश को विरासत सौंपने का एलान कर चुके हैं। हालांकि ये उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों का आंकलन करने के लिए कैलाश विजयवर्गीय ने दांव खेला था, लेकिन इसमें कहीं न कहीं आकाश के भविष्य का संकेत था। हालांकि पिछले साल कैलाश ने कहा था कि आकाश की राजनीति में कोई रुचि नहीं है। वह मेरे कहने पर ही महू जाता है। उसकी आध्यात्मिक क्षेत्र में रुचि बढ़ती जा रही है। बता दें कि पिछले विधानसभा चुनाव से ही आकाश विजयवर्गीय को कैलाश का उत्तराधिकारी माना जा रहा है। कैलाश के समर्थक भी आकाश का स्वागत कर रहे हैं। अनेक अवसरों पर होर्डिंग्स में आकाश के फोटो प्रमुखता से प्रकाशित किए जा रहे हैं। आकाश जिस तरह इंदौर और महू में सामाजिक और धार्मिक कार्यों में सक्रिय रहते हैं उससे कयास लगाए जा रहे हैं कि वे जल्द ही घोषित तौर पर अपने पिता की विरासत संभाल लेंगे। अभिषेक भार्गव....... अभिषेक प्रदेश सरकार के मंत्री गोपाल भार्गव के पुत्र हैं और युवा मोर्चा में प्रदेश उपाध्यक्ष है। प्रदेश की राजनीति में लगातार सात चुनावों से जीत हासिल करते आ रहे सूबे के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने भी अपनी राजनीति के साथ-साथ अपने बेटे के राजनीतिक पदार्पण की तैयारी कर ली है। हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी के नियम के चलते वो अपने बेटे को लोकसभा चुनाव चाह कर भी नहीं लड़वा पाए, क्योंकि पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए नियम बना दिया था कि सीएम और मंत्री के परिवारों के किसी भी सदस्य को टिकट नहीं दिया जाएगा। ऐसे में गोपाल भार्गव चाहकर भी अपने बेटे को टिकट नहीं दिला पाए जबकि वो बुंदेलखंड की तीन लोकसभा सीट सागर, दमोह और खजुराहो में से कही भी चुनाव लडऩे के लिए तैयार थे। जहां तक अभिषेक की राजनीतिक सक्रियता की बात करें तो बुंदेलखंड इलाके में अभिषेक पिता की राजनीतिक विरासत एक तरह से संभाल चुके हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में तो अपने पिता के प्रतिनिधि के तौर पर वोट मांगने के लिए वो ही विधानसभा क्षेत्र रहली में जनसंपर्क में सक्रिय रहे थे क्योंकि गोपाल भार्गव ने फैसला किया था कि वो पिछले 30 सालों से क्षेत्र की जनता की सेवा कर रहे हैं और अब वोट मांगने नहीं जाएंगे, अगर जनता उनकी सेवा और समर्पण से खुश होगी तो खुद वोट देगी। ऐसे में अपने पिता के प्रतिनिधि के तौर पर अभिषेक भार्गव ने ही वोट मांगे थे, लेकिन माना जा रहा है कि गोपाल भार्गव अपने बेटे को लोकसभा पहुंचाना चाहते हैं और मध्यप्रदेश की राजनीति में खुद सक्रिय रहना चाहते हैं। पार्थ मेहदले...... पीएचई मंत्री कुसुम मेहदेले के भतीजे पार्थ मेहदेले पन्ना की राजनीति में खासे सक्रिय हैं। पार्थ अभी पन्ना में युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष हैं। अगले चुनाव तक कुसुम मेहदेले 75 की उम्र पार कर जाएंगी ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि पार्टी उनका टिकट काट सकती है। इसको देखते हुए पार्थ ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। वैसे पार्थ पिछले दो विधानसभा चुनावों से अपनी बुआ के चुनावी मैनेजमेंट को संभाल रहे हैं। पार्थ का परिवार जनसंघ के जमाने से ही पार्टी से जुड़ा हुआ है इसलिए उनकी राजनैतिक हैसियत सब जानते हैं। वैसे पार्थ पन्ना में निरंतर सक्रिय हैं और पार्टी के हर कार्यक्रम में उनकी सक्रियता रहती है। सिद्धार्थ मलैया......... वित्त मंत्री जयंत मलैया के पुत्र सिद्धार्थ मलैया पूर्व में भारतीय जनता युवा मोर्चा में प्रदेश कार्यकारिणी की सदस्य रह चुके हैं। वे इस बार भी पद के दावेदार हैं। वित्तमंत्री जयंत मलैया की बात करें तो इनकी विरासत उनके बेटे सिद्धार्थ को सौंपे जाने की तैयारी चल रही है। क्योंकि 2018 के चुनाव के समय जयंत मलैया करीब 72 साल के हो चुके होंगे। ऐसे में उम्र का फार्मूला लागू हो जाने के कारण जयंत मलैया हो सकता है कि आगामी विधानसभा चुनाव खुद न लड़कर अपने बेटे को अपनी राजनीतिक विरासत सौंप दे। वैसे 2008 के विधानसभा चुनाव में महज 130 वोटों से जीतने के बाद निराश जयंत मलैया ने एलान कर दिया था कि ये चुनाव उनका आखिरी चुनाव होगा, लेकिन पार्टी के दबाब के चलते उन्हें 2013 में फिर चुनाव लडऩा पड़ा था। हालांकि इस चुनाव में उन्होंने 2008 की अपेक्षा अच्छा प्रदर्शन किया था और करीब साढे चार हजार वोटों से जीते थे। लेकिन इस चुनाव के बाद भी उन्होनें आखिरी चुनाव की बात कही थी। वहीं 2013 के विधानसभा चुनाव में जयंत मलैया के चुनाव की पूरी जिम्मेदारी उनके अमेरिका में पढ़े बेटे सिद्धार्थ के कंधों पर थी और 2008 की अपेक्षा 2013 में अच्छा प्रदर्शन सिद्धार्थ के बदौलत ही माना गया था। सिद्धार्थ जहां मिशन ग्रीन दमोह और सामूहिक कन्या विवाह आयोजन के जरिए दमोह विधानसभा क्षेत्र में लोकप्रिय हो रहे हैं तो उन्होंने 2013 के बाद एक तरह से दमोह के विधायक की भूमिका संभाल ली है। वित्तमंत्री पिता भोपाल की राजनीति में सक्रिय रहते हैं और दमोह क्षेत्र में सिद्धार्थ ही सक्रिय रहते हैं। दमोह के स्थानीय लोगों की माने तो इस चुनाव में सिद्धार्थ को जयंत मलैया की राजनीतिक विरासत सौंप दी जाएगी। देवेंद्र प्रताप सिंह तोमर........ केंद्रीय पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर के बेटे देवेन्द्र सिंह तोमर पिता की जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हैं। नरेन्द्र तोमर का मध्यप्रदेश की सत्ता और संगठन में खासा दखल है और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी नरेन्द्र सिंह तोमर और संगठन में उनकी राय का विशेष महत्व है। जब से नरेन्द्र सिंह तोमर केंद्र में मंत्री बने हैं, उनकी मध्यप्रदेश में सक्रियता कम हुई है, हालांकि शिवराज सिंह सरकार और प्रदेश संगठन के लिए वो हमेशा उपलब्ध रहते हैं, लेकिन आम जनता के बीच अब उनकी मौजूदगी उनके बेटे देवेन्द्र सिंह तोमर के रूप में होती है। ग्वालियर चंबल की राजनीति में अहम स्थान रखने वाले नरेन्द्र सिंह तोमर के बेटे के जलवे की चर्चा भी इन दिनों खूब है। बताया जाता है कि ग्वालियर इलाके में मंत्री पुत्र का काफिला किसी मंत्री के काफिले से कम नहीं होता है, वो जहां पहुंचते हैं उनका स्वागत मंत्री की तरह ही होता है और कार्यकर्ता से लेकर अच्छे-अच्छे नेता भी देवेन्द्र सिंह तोमर के इर्द गिर्द नजर आते हैं। इन संकेतों के आधार पर माना जा रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण करने के बाद अब नरेन्द्र सिंह तोमर मध्यप्रदेश की राजनीति की विरासत अपने बेटे को सौंपने वाले हैं। पिता की मंशा के चलते देवेन्द्र ने राजनीतिक सक्रियता बढ़ा दी है। बताया जाता है कि जल्द ही इनकी सक्रिय राजनीति पार्टी के युवा मोर्चा या दूसरे बड़े मोर्चे से शुरू कराई जाएगी ताकि 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ाया जा सके। रामू तोमर पिता व उनके खास साथियों के साथ रहकर ही राजनीति के गुर सीख रहे। पार्टी में किसी पद पर नहीं है और कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई। लेकिन नरेंद्र सिंह के कहने पर पार्टी के युवा से लेकर कई वरिष्ठ नेता रामू को जनता के सामने बतौर नेता पेश करते हैं। रामू कहते हैं कि मैं 2008 से भाजपा का सदस्य हूं और लगातार पार्टी के लिए काम कर रहा हूं। सामाजिक व खेल के क्षेत्र में अपना योगदान देने के साथ समाज सेवा कर रहा हूं। पीतांबर सिंह... ग्वालियर की राजनीति में इनदिनों मप्र की कैबिनेट मंत्री माया सिंह व पूर्व मंत्री ध्यानेंद्र सिंह के पुत्र पीतांबर सिंह की जोरदार चर्चा है। एक सीमेंट कंपनी के सीएंडएफ बनकर बिजनेस कर रहे पीतांबर सिंह भाजपा की टूरिज्म कमेटी में राष्ट्रीय चेयरमैन रह चुके हैं। अब वे ग्वालियर-चंबल संभाग में सोशल एक्टिविटी के माध्यम से राजनीति में पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं। बताया जाता है कि पिता व मां दोनों ही भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और पार्टी नेतृत्व के अलावा आरएसएस में खासी पकड़ का फायदा उन्हें मिलेगा। हालांकि सार्वजनिक तौर पर स्थानीय राजनीति से अभी दूर बने हुए हैं। ग्वालियर में पार्टी के किसी भी आयोजन में नहीं देखा जाता। पितांबर कहते हैं कि मेरा जन्म ही राजनीतिक परिवार में हुआ है। मैं पार्टी के लिए काम करता हूं तथा पार्टी की ओर से मिलने वाली जिम्मेदारी को निभाता हूं। मौसम बिसेन हिरनखेड़े.... किसान कल्याण मंत्री गौरीशंकर बिसेन की बेटी मौसम बिसेन भी राजनीति में सक्रिय हैं। वे पिता की अनुपस्थिति में क्षेत्र भी संभालती है। भाजपा युवा नेत्री एवं युवा जोड़ो अभियान की संयोजिका मौसम हिरनखेड बिसेन की नई सोच पर बालाघाट के युवा कायल हैं। जिले के युवाओं की मांग है कि बालाघाट के विकास में मौसम की नई सोच सफलतम साबित हो सकती है। देखा जाए तो मौसम उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और आज युवाओं को ऐसे नेतृत्व की दरकार है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी राजनीति गलियारों में भाजपा की उम्मीदवारों की दौड़ में मौसम का नाम उछला था। अब एक बार फिर से मौसम सक्रिय नजर आ रही है। युवा मोर्चा में पद की दावेदारी भी कर रही हैं। डा. सुकर्ण मिश्रा...... पिता नरोत्तम मिश्रा की ही तरह मिलनसार और यार दिल डा. सुकर्ण मिश्रा दतिया और आसपास के क्षेत्रों खासे चर्चित हैं। विभिन्न धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों में उनकी सशक्त भागीदारी दतिया में खुब दिखती है। वर्तमान में भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं के तौर पर वे सांगठनिक गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। कभी युवा मोर्चा कार्यकर्ताओं की कर तो कभी खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन कर जनता के बीच अपनी पैठ बना रहे हैं। डॉ. सुकर्ण पिता से अभी राजनीति की बारिकियां सीख रहे हैं साथ ही भारतीय जनता युवा मोर्चा में पद के लिए दावेदारी भी मजबूत कर रहे हैं। अभी हालही में डा. सुकर्ण के जन्म दिन पर दतिया में उनकी लोकप्रियता देखने को मिली। पूरे जिले में उनका जन्म दिन हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। मुदित शेजवार.... अभी हाल ही में वन मंत्री डॉ. गौरीशंकर शेजवार द्वारा अगला चुनाव न लडऩे की घोषणा के बाद उनके पुत्र मुदित शेजवार का 2018 का विधानसभा चुनाव लडऩा लगभग तय माना जा रहा है। इसलिए मुदित इनदिनों सांची में सक्रिय हैं। अपनी राजनीतिक सक्रियता के चलते वे भारतीय जनता युवा मोर्चा मेंं पद के दावेदार हैं। ज्ञातव्य है कि 2013 के चुनाव के दौरान भी डॉ. शेजवार ने घोषणा भी कर दी थी कि यह चुनाव उनका आखिरी चुनाव है। ऐसे में यह संभावना बढ़ गई है कि उनके पुत्र मुदित अपने पिता की विरासत संभालेंगे। मुदित पिछले कुछ साल से सांची के सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में सक्रिय नजर आ रहे हैं। कई बार मंत्री शेजवार सार्वजनिक मंच से घोषणा कर चुके हैं कि उनकी जगह मुदित चुनाव लड़ेंगे। मुदित कहते हैं कि अगर पार्टी चाहेगी तो चुनाव लड़ सकता हूं। यही नहीं क्षेत्र में भाजपा के आयोजित कार्यक्रमों या किसी के स्वागत-सत्कार के लिए लगने वाले पोस्टर-बैनर में डॉ. शेजवार के साथ मुदित का भी फोटो लगाया जा रहा है। दुर्गेश राजपूत..... पीडब्ल्यूडी मंत्री रामपाल सिंह के बेटे दुर्गेश राजपूत पिता के विधानसभा क्षेत्र सिलवानी में अक्सर देखे जा रहे हैं। चर्चा है कि रामपाल बेटे को इसी सीट से चुनाव लड़ा सकते हैं। जिस तरह से रायसेन जिले के दो धुर विरोधी मंत्रियों (शेजवार और रामपाल) के बीच नजदीकियां बढ़ी हैं, उसमें भी बेटों को चुनावी मैदान में स्थापित करने का मोह दिखता है। 34 वर्षीय दुर्गेश कहते हैं पिता के व्यस्त होने पर आयोजनों में मैं ही शिरकत करता हूं। पिता की मुख्यमंत्री से दोस्ती और दुर्गेश सक्रियता से उम्मीद जताई जा रही है कि इस युवा को जल्द की राजनीतिक उड़ान का मौका मिलेगा। देवेश मीणा.... उद्यानिकी मंत्री सूर्यप्रकाश मीणा के बेटे विधायक प्रतिनिधि के तौर पर विदिशा की राजनीति में सक्रिय हैं। विधानसभा क्षेत्र में उनकी सक्रियता हर कहीं देखी जा सकती है। पिछले विधानसभा चुनाव के समय उन्हें पहली बार राजनीतिक गलियारों में देखा गया। कुछ समय तक राजनीति से दूर होने के बाद अब फिर पूरी तरह क्षेत्र में सक्रिय हो गए हैं। 27 साल के देवेश कहते हैं- जिस तरह पिताजी शून्य से शुरूआत कर शिखर तक पहुंचे, उसी तरह मैं भी राजनीति में मुकाम हासिल करना चाहता हूं। चुनाव के बारे में ज्यादा कुछ सोचा नहीं है। राजनीति में समीकरण अहम होते हैं। तुष्मुल झा...... प्रभात झा के पुत्र तुष्मुल झा इनदिनों ग्वालियर में पार्टी के कार्यक्रमों में भी नजर नहीं आते। राज्यसभा सांसद व भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा का संकेत मिलने के बाद से तुष्मुल की सक्रियता बढ़ गई है। फिलहाल उनकी कोशिश भारतीय जनता युवा मोर्चा में पद पाने की है। प्रदेश स्तर या फिर जिला स्तर पर पद पाकर वे आगे की राजनीति का रास्ता तैयार करने में जुटे हुए है। प्रभात समर्थक नेता और संघ के कुछ पदाधिकारी तुष्मुल को गढ रहे हैं। तुष्मुल राजनीति के अलावा सिंगरौली में पेट्रोल पंप, ग्वालियर व दूसरे शहरों में सीमेंट व रियल एस्टेट का कारोबार कर रहे हैं। उनका पार्टी के लिए अभी तक कोई योगदान नहीं। हाल ही में जन्मदिन के मौके पर शहरभर में समर्थकों ने होर्डिंग्स लगाकर तुष्मुल के बढ़ते कदम दिखाए। माना जा रहा है कि आरएसएस और भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व में पिता की अच्छी पकड़ होने का लाभ सीधे तौर पर मिलेगा। तुष्मुल कहते हैं कि राजनीति में मेरी रुचि है और जब पार्टी एवं परिवार का आदेश मिलेगा, राजनीति में प्रवेश करूंगा। संदेश जैन...... ऊर्जा मंत्री पारस जैन के पुत्र संदेश जैन उज्जैन में सक्रिय नजर आ रहे हैं। पिता के विधानसभा क्षेत्र उज्जैन उत्तर के साथ ही वे पूरे जिले में सक्रियता बढ़ा रहे हैं। मंत्री समर्थक जिले के नेता युवा मोर्चा में पद दिलाकर उन्हें सक्रिय राजनीति में लाने में लगे हैं। इसके लिए संदेश के नाम को विभिन्न स्रोतों से आगे बढ़ाया जा रहा है। मंत्री पुत्रों ने अटका दी सूची प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की परिवारवाद को लेकर दी गई सीख के बाद भी प्रदेश के कई मंत्री और नेता अपने पुत्रों को युवा मोर्चा के जरिए राजनीति में आगे लाने की कवायद में लग गए हैं। मंत्री पुत्रों को मोर्चा की प्रदेश कार्यकारिणी में एडजस्ट करने के दबाव के चलते नई टीम का ऐलान लटक गया है। इसके अलावा संगठन के भी कई नेता अपने पुत्रों को नई सूची मे जगह दिलान को लेकर पर्दे के पीछे से सक्रिय हो गए हैं। अभिलाष पांडे को युवा मोर्चा का अध्यक्ष बने दो माह से अधिक का समय हो गया है। इस दौरान वे प्रदेश के अधिकांश हिस्सों का दौरा भी कर चुके हैं। अपनी टीम को लेकर पांडे की प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान, प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत समेत अन्य वरिष्ठ नेताओं से बात हो चुकी है। सूत्रों की माने तो सूची फाइनल होने में नेता पुत्रों को कार्यकारिणी में लेना बड़ी बाधा बन रहा है। बताया जाता है कि संघ भाजपा में परिवारवाद का विरोध कर रहा है। संघ नेता संगठन को साफ कर चुके हैं कि भाजपा संगठन में किसी मोर्चे में परिवारवाद की झलक न दिखाई दे। इससे संगठन नेता फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं। युवा मोर्चा की नई टीम में केवल प्रदेश उपाध्यक्ष, महासचिव और प्रदेश मंत्री जैसे पदों पर 25 लोगों की नियुक्ति होनी है। अधिकांश नेता इन पदों पर अपने समर्थकों को चाह रहे हैं। उधर कार्यकर्ताओं को पार्टी का भगवान बताने वाली भाजपा के कार्यकर्ता, नेताओं की स्वार्थ भरी राजनीति से दुखी है। पिछले कई दशकों से मेहनत कर पार्टी को फर्श से अर्श तक ले जाने वाले कार्यकर्ता आज भी झंडे उठाने व नारे लगाने के काम आ रहे हैं। वहीं इस सवाल पर वरिष्ठ नेता बोलते हैं कि हर कोई ऊंचे पदों तक नहीं पहुंच सकता। जिनकी कार्यशैली सही नहीं, वे कैसे पार्टी की जिम्मेदारी में शामिल हो सकते हैं। वहीं जब नेतापुत्रों की बात आती है तो उनका जवाब सिद्धांतों को नहीं देखता। भाजपा में बढ़ रहा वंशवाद देश में सभी राजनीतिक दल एक दूसरे पर परिवारवाद का आरोप लगाते रहते हैं किन्तु सच तो यह है कि परिवारवाद के दलदल में सभी दल फंसे हुए हैं। चाहे वह एक परिवार की छाया तले पनप रही कांग्रेस हो या कांग्रेस को वंशवाद के नाम पर पानी पी-पी कर कोसने वाली भाजपा ये दोनों राष्ट्रीय दल और तमाम क्षेत्रीय दल परिवारवाद के संक्रमण से ग्रसित हो चुके हैं। जब इन पर राजनीति में वंशवाद और परिवारवाद का आरोप लगता है तो उनका सीधा-सा तर्क होता है कि जब डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और उद्योगपति का बेटा बन सकता है तो राजनेता क्यों नहीं? भाजपा और कांग्रेस के सियासी घराने अपने-अपने वारिसों को तैयार कराने में लगे हैं। प्रदेश में दिग्गज नेताओं, मुख्यमंत्री, मंत्री से लेकर विधायक और पार्षद ही नहीं पूर्व विधायक भी अपने-अपने बेटे-बेटियों और अन्य रिश्तेदारों को राजनीति का पाठ पढ़ा रहे हैं। उनके यह संबंधी प्रभाव वाले क्षेत्रों में तो सक्रिय है ही उनके निर्णयों और प्रशासनिक क्षेत्रों में भी पूरा दखल रखते हैं। जिससे जमीन तक उनकी अपनी पहचान है। जिनकी दम पर वे नेक्स्ट जनरेशन का दावा करते हैं। मप्र में बढ़ रहा वंशवाद ज्योतिरादित्य सिंधिया स्व. माधवराव सिंधिया अजय सिंह राहुल स्व. अर्जुन सिंह अरुण यादव स्व. सुभाष यादव डा. निशिथ पटेल श्रवण पटेल संजय पाठक सत्येंद्र पाठक दीपक जोशी कैलाश जोशी विश्वास सारंग कैलाश सारंग सुंदरलाल तिवारी श्रीनिवास तिवारी के बेटे ध्रुवनारायण सिंह गोविंद नारायण सिंह हर्ष सिंह गोविंद नारायण सिंह शैलेंद्र शर्मा लक्ष्मीनारायण शर्मा राजेंद्र वर्मा पे्रम चंद वर्मा सावन प्रकाश सोनकर ज्योति शाह राघवजी की बेटी रमेश भटेरे दिलीप भटेरे ओमप्रकाश सखलेचा वीरेंद्र कुमार सखलेचा राजवर्धन सिंह दत्तीगांव स्व.प्रेम सिंह सत्यनारायण पटेल रामेश्वर पटेल सत्यपाल सिंह सिकरवार(नीटू)- पूर्व विधायक गजराज सिंह सिकरवार हिना कावरे पूर्व मंत्री स्व लिखीराम कांवरे कमलेश पटेल पूर्व मंत्री इंद्रजीत पटेल उत्तम ठाकुर प्रेमनारायण ठाकुर राजनीति में रिश्तेदार भी............. सुरेंद्र पटवा सुंदरलाल पटवा के भतीजे कृष्णा गौर बाबूलाल गौर की बहू मुकाम सिंह किराड़ रंजना बघेल के पति स्वामी लोधी उमा भारती के भाई भावना शाह विजय शाह की पत्नी मालिनी गौड स्व. लक्ष्मण सिंह गौड की पत्नी रेखा बिसेन गौरीशंकर बिसेन की पत्नी संजय शाह विजय शाह के भाई नीना वर्मा विक्रम वर्मा की पत्नी उमंग सिंघार स्व. जमुना देवी के भतीजे अलका नाथ कमलनाथ की पत्नी अश्विनी जोशी महेश जोशी के भतीजे ———— ये हैं प्रदेश का भविष्य कांग्रेस आदित्य विक्रम सिंह पूर्व सांसद लक्ष्मण सिंह विक्रांत भूरिया प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया नकुल नाथ केंद्रीय मंत्री कमलनाथ अजीत बोरासी सांसद प्रेमचंद गुड्डू पवन वर्मा सांसद सज्जन सिंह वर्मा नितिन चतुर्वेदी सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी पिंटू जोशी पूर्व मंत्री महेश जोशी गिन्नी सिंह पूर्व मंत्री राजेंद्र सिंह सुरेंद्र बघेल पूर्व मंत्री प्रताप सिंह बघेल राज तिवारी सुंदरलाल तिवारी वीरेंद्र तिवारी श्रीनिवास तिवारी का नाती नेवी जैन पूर्व सांसद डाल चंद जैन यशोवर्द्धन चौबे विधायक अरुणोदय चौबे भाजपा........... कातिर्केय चौहान शिवराज सिंह चौहान देवेंद्र सिंह तोमर अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर अक्षय राजे भंसाली यशोधरा राजे सिंधिया मंदार और मिलिंद महाजन सुमित्रा महाजन सिद्धार्थ मलैया जयंत मलैया अभिषेक भार्गव गोपाल भार्गव आकाश विजयवर्गीय कैलाश विजयवर्गीय राजेंद्र कृष्ण रामकृष्ण कुसमारिया मुदित शेजवार गौरीशंकर शैजवार सोनू चावला कैलाश चावला राजकुमार जटिया सत्यनारायण जटिया जितेंद्र गहलोत थावरचंद गहलोत संदीप पटेल कमल पटेल तुष्मुल झा प्रभात झा पीतांबर सिंह माया सिंह डॉ.सुकर्ण मिश्रा डॉ. नरोत्तम मिश्रा मुदित शेजवार गौरीशंकर शेजवार मौसम बिसेन गौरीशंकर बिसेन संदेश जैन पारस जैन पार्थ मेहदल कुसुम मेहदलेे दुर्गेश राजपूत रामपाल सिंह बेटे देवेश सूर्यप्रकाश मीणा ----------

मौत की अवैध खदानें

रोजाना सामने आ रहा खौफनाक मंजर
हर दिन औसतन एक की मौत
भोपाल, रायसेन, बड़वानी। मप्र में एक तरफ सरकार नमामि देवी नर्मदे यात्रा निकालकर अवैध खनन रोकने में लगी हुई है वहीं दूसरी तरफ अवैध खदानें मौत का कारण बनता जा रहा है। आलम यह है कि प्रदेश में हर दिन औसतन एक की मौत अवैध खनन के कारण हो रही है। लेकिन प्रशासन गहरी नींद में सोया हुआ है। अभी हाल ही में गैरतगंज में तीन मासूम एक खदान में डूबकर काल के गाल में समा गए। वहीं शनिवार को बड़वानी में अवैध खदान में रेत खनन कर रहे दो मजदूरों की मिट्टी धसने से दबने पर मौत हो गई। घटना जिला मुख्यालय से लगे डूब प्रभावित ग्राम छोटी कसरावद के देदला फलिया की है। घटना के बाद रेत खनन में लगे अन्य मजदूर वहां से ट्रैक्टर-ट्रॉली लेकर भाग निकले। दावों के बावजुद अवैध खनन रायसेन और बड़वानी सहित अन्य जिला प्रशासन लगातार दावा करते हैं कि उनके जिले में अवैध खनन नहीं हो रहा है। प्रशासन भले ही सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और एनजीटी के सामने लाख दावे कर रहा है कि प्रदेश में अवैध रेत खनन नहीं हो रहा है। इन दावों की पोल तब खुलती है जब अवैध खदानों में मौत होती है। बड़वानी में पुनिया फलिया सजवानी निवासी बाला पिता नानूराम (25) और सुनील पिता बनिया (20) की अवैध खनन के दौरान खदान धसने से हुई मौत के बाद प्रशासन सांसत में है। डूब क्षेत्र में चल रहा खनन जहां पर अवैध रेत खदान चल रहा है वो जगह सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में आ रही है। जिस जमीन पर अवैध खदान है वो जगह सुरपाल पिता बुधिया की पड़त जमीन है। सुरपाल को इस जमीन का मुआवजा भी मिल चुका है। एनबीए के देवराम कनेरा, मुकेश भगोरिया ने बताया कि जिले में पेंड्रा, नंदगांव, पिपलूद, पिछोड़ी, बडग़ांव, छोटी कसरावद सहित नर्मदा पट्टी के गांवों में धड़ल्ले से अवैध रेत खनन चल रहा है। अवैध रेत खनन पर रोक लगाने में प्रशासन पूरी तरह से असमर्थ दिख रहा है। हम प्रशासन को लंबे समय से अवैध रेत खनन के सबूत देते आ रहे है। प्रशासन सुप्रीम कोर्ट, एनजीटी के आदेशों को पालन कराने के बजाए हम पर दबाव बनाने के लिए अवैध खनन वालों के साथ मिलकर आंदोलन कार्यकर्ताओं पर केस दर्ज करा रहा है। अब सरकार बताए खदान दबने से हुई दो मौत का जिम्मेदार प्रशासन है या खनन माफिया। ये वे घटनाएं हैं जो पिछले चार दिनों में मीडिया के माध्यम से आमजन तक पहुंचीं। इसके अलावा खनन क्षेत्र में अन्य सैकड़ों मौतें होती हैं जिनका पता मीडिया प्रतिनिधियों को नहीं हो पाता है। कुछ का पता हो भी पाता है तो पुलिस इन मौतों का अन्य कारण बताकर मामले को रफादफा कर देती है। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे प्रशासन की उदासीनता और जनप्रतिनिधियों की वादाखिलाफी ने मजदूरों में भय पैदा कर दिया है। एक के बाद एक हो रही आदिवासियों समेत मजलूमों की मौतों की सच्चाई कोई भी बताने को तैयार नहीं है। दरअसल, प्रदेश में जिस तरह शहर, गांव, स्कूल, कॉलेज या अन्य सार्वजनिक स्थल के पास प्रशासन की निगरानी में वैध-अवैध खनन हो रहा है उससे बनने वाले गड्ढे जानलेवा हो रहे है। प्रदेश में आए दिन किसी न किसी जगह इन कुंआनुमा गड्ढ़ों में कोई न कोई मौत के मुंह में जा रहा है। स्थिति विकट यह है कि मृतकों के परिजनों की कोई गुहार भी नहीं सुनता है। प्रदेश में खनन क्षेत्र में हो रही मजदूरों की मौत के लिए प्रशासन की भूमिका संतोषजनक नहीं है। खोखली हो रही धरती पत्थर, गिट्टी, मुरम, मिट्टी आदि निकालने की लालसा में माफिया धरती को खोखला तो कर रहा है लेकिन खदानों को भरने की सुध कभी किसी ने नहीं ली। पंचायत से लेकर जिला प्रशासन इसके बराबर के दोषी हैं। कानून का प्रावधान है कि खनन करने वाला उसे भरेगा, बावजूद इसके खदानों को भरने के प्रति किसी ने अपनी जि मेदारी नहीं निभाई। इसके लिए लीजधारक से भी अपेक्षित रकम नहीं ली जा रही है। शायद यही वजह रही कि लीजधारक या फिर अवैध खनन करने वाले जमकर चांदी कूट रहे हैं। दूरदृष्टि रखने वाले प्रशासन के काबिल अफसरों ने इस मामले को लेकर जैसे आंखों पर पट्टी बांधी रखी। एक दशक से ज्यादा समय तक यह खेल चला। बहरहाल, ङील बन चुकी इन खदानों में बेगुनाह लोगों की जान जा रही है। मरने वालों में देश के भविष्य युवाओं की इनमें तादाद ज्यादा है। नियमों का पालन नहीं खदानों को लेकर कागजों पर की गई कसरत वास्तव में होती तो प्रदेश में कभी ङील नहीं बनती। खनन से जो गड्ढे हुए, वो भी भर जाते। लीज देने के निर्धारित नियमों में बाकायदा इसका प्रावधान है। सुरक्षा की दृष्टि से सीढ़ीनुमा (बेंच) तकनीकी पर खनन करने के निर्देश दिए हुए हैं। गहरी खाई बनी खदानों की दशा बयां करतीं है कि नियमों पर कभी अमल नहीं करवाया गया। देखा यह जा रहा है कि जहां दो से चार फुट खुदाई का परमिशन है वहां खदानें 40-50 फुट गहरी खाई बन चुकी हैं। जिन्होंने ङील का रूप धारण किया हुआ है। जो मौत का कुआं बन चुकी हैं। एक अनुमान के तहत प्रदेशभर में ऐसी खदानें 1300 सौ से ज्यादा हैं। उदाहरण देने के लिए एक भी खदान ऐसी नहीं है, जिसको पूरी तरह भरा गया हो। बुंदेलखंड में सबसे अधिक मौत की खदानें खनिज संपदा से परिपूर्ण मप्र के हिस्से वाले बुंदेलखंड के जिलों में सबसे अधिक मौत की खदाने हैं। इस क्षेत्र में मुरम खोदकर जो अवैध खदानें बनी है वे अब मौत का कुंआ बन गई है। टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर, दमोह जिले के ग्रामीण अंचलों में सड़क निर्माण और व्यापार के लिए मुरम खोदकर बनाई गई अवैध खदानें अब मौत के कुएं बन गए हैं। दबंगों और ठेकेदारों का खौफ इतना है कि ग्रामीण शिकायत करने से भी डरते हैं। वहीं खनिज विभाग शिकायत के बाद भी कार्रवाई नहीं कर रहा है। अधिकांश गांव में सड़क किनारे शासकीय भूमि पर मुरम खोदकर इन्हें छोड़ दिया गया है जिससे यहां बने कुएं हादसे को न्योता दे रही हैं। टीकमगढ़ के पास मऊघाट रोड पर सरकारी भूमि पर अवैध खनन किया जा रहा है। अवैध खनन की खदान सड़क के नजदीक होने से आए दिन हादसे होते रहते हैं। जिससें ग्रामीणों को हमेशा डर बना रहता है। ऐसे ही सुनवाहा गांव के पास भी अवैध मुरम की खदानें है। बिना अनुमति के रसूखदार ठेकेदारों द्वारा रात में मुरम खोदकर अवैध खनन किया जा रहा है और मोटे दामों पर बेचने के कारण शाासन को राजस्व हानि हो रही है। पिछले साल अक्टूबर में नगर के ढोंगा क्षेत्र में पंचमुखी हनुमान मंदिर के पास तीन वर्ष पहले इसी तरह की मुरम खदान में डूबने के कारण 4 बच्चों की मौत हो गई थी। इसके साथ ही कृषि उपज मंडी के पास बीड़ी कॉलोनी, सुनवाहा गांव में मुरम खनन किए जाने के कारण इन खदानों में कई हादसे हो चुके है। सरकारी भूमियों को खोद कर बड़ी खदानें बनाई गई हैं। इन खदानों में पानी भरने से हमेशा बच्चों का डूबने का डर बना रहता है। खनन को रोकने के लिए जिला प्रशासन से शिकायत की गई थी। फिर भी कोई कार्रवाई नही की गई। मजदूरों की मौत पर भी मौन प्रदेश में अवैध खनन के दौरान भी मजदूरों की मौतें होती हैं, लेकिन प्रशासन और माफिया की मिलीभगत से मामला सामने नहीं आ पाता है। अब तक हुई मौतों की रोशनी में विचार करें तो इस दिशा में कई बातें सामने आती हैं। प्रदेश की इन पत्थर, मोरम, मिट्टी, बालू और कोयला आदि की अवैध खदानों में काम करने वाले अधिकतर मजदूर विस्फोटक पदार्थों के इस्तेमाल से अनभिज्ञ होते हैं और उन्हें खनन के लिए प्रशिक्षित भी नहीं किया जाता। परिणामस्वरूप जरा सी चूक होने पर वे अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं। यहां की पत्थर खदानें 50 मीटर से लेकर 200 मीटर तक गहरी हो चुकी हैं। इन खदानों में काम करना अप्रशिक्षित मजदूरों के लिए शेर की मांद में घुसने के बराबर है। दूसरी वजह यह कि प्रदेश में डोलो स्टोन, सैंड स्टोन, लाइम स्टोन, कोयला, बालू और मोरम आदि का अकूत भंडार है। इन खनिज पदार्थों के दोहन के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के माफिया और सफेदपोश ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। सत्ताधारी पार्टियों के नुमाइंदों और मलाईदार मंत्रालयों की कुर्सी संभाल रहे कुछ सफेदपोशों ने खनन क्षेत्र में धन उगाही के लिए बाकायदा अपने एजेंट तैनात कर रखे हैं और कानून की धज्जियां उड़ाकर अवैध खनन एवं परिवहन को बढ़ावा दे रहे हैं। माफिया ने तो पूरे प्रदेश में अराजकता का माहौल पैदा कर रखा है। वे प्रदेश की पहाडिय़ों पर खुलेआम अवैध खनन करा रहे हैं। साथ ही खनन विभाग द्वारा जारी एमएम-11 परमिट के बिना मिट्टी, मोरम, बालू और बोल्डर आदि का परिवहन करा रहे हैं। शासन द्वारा निर्धारित मानकों को खनन क्षेत्र का कोई भी खदान संचालक पूरा नहीं कर रहा है। खदानों में सुरक्षा के कोई भी इंतजाम नहीं हैं। इस कारण खदानें मौत का घर बन गई हैं। इनका कहना है - मामला गंभीर है। मामले की जांच कराई जा रही है। दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होगी। जिले में अवैध पूरी तरह प्रतिबंधित है। अवैध खनन करने वालों पर बराबर कार्रवाई की जा रही है। तेजस्वी नायक कलेक्टर बड़वानी -अवैध खनन के खिलाफ निरंतर कार्रवाई हो रही है। इस मामले में ट्रैक्टर-ट्रॉली क्रमांक एमपी-10-एए-7302 के मालिक महेंद्र दरबार पिता मुकेश दरबार निवासी सेगांव के खिलाफ आईपीसी की धारा 304 के तहत केस दर्ज कर लिया गया है। अवैध खनन में लगा ट्रैक्टर भी जब्त कर लिया गया है। दोषियों के खिलाफ शख्त कार्रवाई होगी। महेश बड़ोले एसडीएम, बड़वानी -----------

जनता बेहाल, नेता मालामाल

राजनीतिक सुधार की यह कैसी राह...
3 साल में मंत्रियों की संपति में 436 प्रतिशत की उछाल
भोपाल। जिस राज्य में जन्म लेते ही बच्चे कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं, उस राज्य में समाजसेवा के नाम पर राजनीति में आने वाले माननीयों की संपत्ति तेज रफ्तार से बढ़ती जा रही है। है न हैरानी की बात। लेकिन मध्य प्रदेश में ऐसा हो रहा है। यहां जनता दिन पर दिन भले ही बेहाल होती जा रही है, लेकिन माननीय मालामाल होते जा रहे हैं। आलम यह है कि 2013 में जो विधायक लखपति थे वे करोड़पति बन गए हैं। यही नहीं मंत्रियों की संपत्ति की औसत वृद्धि लगभग 436 फीसदी रही है। यह खुलासा हुआ है इलेक्शन वाच व एसोसिएशन फॉर डेमॉक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर)की रिपोर्ट, सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट, नेताओं के आयकर रिटर्न, पार्टी को दी गई खातों की जानकारी और नामी-बेनामी संपत्तियों के आकलन से। प्रदेश के 30 में से 26 मंत्री करोड़पति तीन साल में एक आम शख्स की संपत्ति कितने गुना बढ़ सकती है 10, 20 या अधिक से अधिक 30 प्रतिशत। लेकिन हमारे नेताओं और मंत्रियों के मामले में तीन साल के दौरान उनकी संपत्ति में 60 प्रतिशत से लेकर करीब 700 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो गई है। मप्र सरकार में मंत्री पद पर काबिज रहे नेता इसकी मिसाल हैं। मप्र के मंत्रियों की संपत्ति में उछाल से यह सिद्ध हो गया है कि इच्छाओं की तरह ही अधिक पैसे की कोई सीमा नहीं है। चुनावी राजनीति में आज-कल धनबल पैसा पावर ले आता है। पावर मिलने के बाद उनका पैसा और तेज रफ्तार से बढऩे लगता है। मप्र सरकार के वर्तमान मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित 30 मंत्री हैं। चुनाव जीतने यानि पावर में आने के बाद इनकी संपत्ति में बेहिसाब बढ़ोतरी हुई है। पिछले दो विधानसभा चुनाव 2008 और 2013 के आंकड़ों को ही देखें तो हम पाते हैं कि इस दौरान इनका पावर और रुतबा तो बढ़ा ही। इस दैरान इन्होंने कुछ किया हो या नहीं किया हो, अपनी संपत्ति बढ़ाने में दिल खोलकर काम किया है। कम से कम प्रदेश के सांख्यिकी आंकड़े तो यही कहते हैं। प्रदेश के 30 मंत्रियों में से 26 करोड़पति (87 फीसदी)हैं। करोड़पति मंत्रियों के मामले में प्रदेश का स्थान देशभर में 10वां है। 30 मंत्रियों में से 3 ने इस साल इनकम टैक्स रिटर्न (आईटीआर) नहीं भरा है। प्रदेश में जन्म लेते ही बच्चों के सिर पर हजारों रुपए का कर्ज हो जाता है। यह कर्ज का ग्राफ हर साल बढ़ता जा रहा है। मगर यहां के मंत्रियों-विधायकों के साथ ऐसा नहीं है। राजनीति में आने वाला हर नेता इससे जुडऩे का कारण समाज सेवा बताता है। कोई राजनेता राजनीति को व्यवसाय नहीं बताता। राजनीति व्यवसाय नहीं होने के बावजूद नेताओं का धनबल का पारा तेजी से ऊपर जाता है। इतनी तरक्की करना व्यवसाय के अलावा किसी अन्य क्षेत्र में संभव नहीं है, लेकिन आज की तारीख में राजनीति से ज्यादा आर्थिक तरक्की वाला क्षेत्र कोई दूसरा नजर नहीं आता। कांग्रेसियों की संपत्ति बढ़ोतरी की रफ्तार धीमी तीन साल के कार्यकाल में करीब 72 फीसदी विधायकों की संपत्ति की औसत वृद्धि 200 फीसदी रही। प्रदेश में पिछले 13 साल से भाजपा की सरकार है इस कारण जहां भाजपा विधायकों की संपत्ति में बेतहासा बढ़ोतरी हुई है वहीं कांग्रेसी विधायकों के संपत्ति में वह वृद्धि नहीं देखी गई जो भाजपा विधायकों में रही। इस दौरान कांग्रेस विधायकों की संपत्ति 82 फीसदी की दर से बढ़ी। जबकि भाजपा विधायकों की वृद्धि कांग्रेस नेताओं की तुलना में पांच गुणा से भी ज्यादा रही। भाजपा विधायकों की संपत्ति 177 और मत्रियों की 436 फीसदी की दर से बढ़ी। चुनाव में बढ़त दिलाने के कई माप हैं। कभी जाति एवं धर्म का एक्सीलेरेटर विरोधियों पर बढ़त दिला देता है तो कभी बाहुबल। धनबल का टॉनिक भी चुनाव में खूब काम करता है। चुनाव आयोग के डंडे का डर भी इन्हें हिला नहीं पाता। तभी तो भ्रष्टाचार को रोकने की कसम खाने वाले तमाम दलों के माननीय पांच साल में ही समाज सेवा करते-करते लखपति से करोड़पति बन जाते हैं। आयकर विभाग भी नहीं सुलझा पाया गणित माननीय समाजसेवा करते-करते कैसे करोड़पति बन गए, इसका गणित आयकर विभाग भी अभी नहीं सुलझा पाया है। तभी तो धनबल की रफ्तार बिना ब्रेक लगाए चलती जा रही है। चुनाव आयोग में नामांकन पत्र के साथ दिया गया हलफनामा इस रफ्तार की तेजी को दर्शाता है। उससे उपलब्ध आंकड़े पर एडीआर ने 2013 में निर्वाचित विधायकों की संपत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जो 2008 में भी चुने गए थे। एडीआर के अध्ययन के आंकड़ों पर गौर करें तो उन विधायकों की सम्पत्ति में बेतहासा वृद्धि हुई है जो पिछली बार करोड़पतियों की लिस्ट में शामिल थे। प्रदेश में राजनीतिक पार्टियों और उनके उम्मीदवारों पर नजर रख रही इलेक्शन वॉच और एआरडी की टीम ने मिलकर प्रदेश की तीनों प्रमुख पार्टियों कांग्रेस, भाजपा और बसपा के विधायकों की सम्पत्ति का कच्चा चि_ा खोला है। जिसके मुताबित विधानसभा चुनाव 2008 और 2013 में विधायक 8 विधायक ऐसे है जिनकी कुल सम्पत्ति में 1000 प्रतिशत की वृद्धि हुई है तो 16 विधायक ऐसे भी है जिनकी सम्पत्ति 500 प्रतिशत बढ़ी और 113 ऐसे विधायक है जिनकी सम्पत्ति में 1 प्रतिशत से 500 फीसदी की बढ़त हुई है। लेकिन आयकर विभाग में माननीयों ने अपनी कमाई का जो विवरण दिया है उससे विभाग भी अचंभित है, क्योंकि आयकर रिटर्न में माननीयों ने अपनी आय कमतर बताई है। सबसे तेजी से बढ़ रही राजेंद्र शुक्ल की संपत्ति मप्र में वैसे तो सभी मंत्रियों की संपत्ति में बेतहासा वृद्धि हो रही है। रिपोटर््स के अनुसार प्रदेश में सबसे तेजी से खनिज साधन, वाणिज्य, उद्योग और रोजगार, प्रवासी भारतीय मंत्री राजेंद्र शुक्ल की संपत्ति बढ़ी है। वर्ष 2008 में शुक्ल की कुल संपत्ति 1,99,11,978 रूपए थी जो 2013 में 16,87,26,600 रूपए हो गई। उसके बाद उनकी संपत्ति में 700 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है। अगर प्रदेश के करोड़पति मंत्रियों और विधायकों पर निगाह डाले तो सबसे पहला नाम सूक्ष्म एवं लघु उद्योग राज्यमंत्री संजय पाठक का आता है। जिन्होंने 2008 में अपनी कुल सम्पत्ति 34 करोड़ दर्शाई थी लेकिन 2013 चुनाव के शपथ पत्र में उन्होंने अपनी संपत्ति 121 करोड़ बताई है। अब उनकी संपत्ति 200 करोड़ के पार पहुंच गई है। इसमें 83 करोड़ चल और 58 करोड़ की अचल संपत्ति है। चौंकाने वाली बात ये भी है कि वे देश के दूसरे सबसे बड़े कर्जदार मंत्री भी हैं। पाठक के ऊपर 58 करोड़ से अधिक की देनदारियां हैं। संजय पाठक मूल रूप से खनन कारोबारी हैं। ये विदेशों में आयरन ओर सप्लाई करते हैं। इनका कारोबार इंडोनेशिया, चीन, कोरिया समेत एशिया के करीब 12 देशों में फैला हुआ है। वही संस्कृति, पर्यटन, किसान कल्याण तथा कृषि विकास सुरेन्द्र पटवा के पास 2008 में 6,69,25,537 थी जो 2013 में बढ़ कर 38,02,24,232 रूपए हो गई। अब पिछले 3 साल में उनकी संपत्ति में 450 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई है। वित्त एवं वाणिज्यिक कर मंत्री जयंत मलैया के पास 2008 में 1,67,51,015 रूपए की संपत्ति थी जो 2013 में 13,65, 70,862 रूपए पहुंच गई। अब उनकी संपत्ति 600 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। शिवराज सिंह चौहान के पास 2008 में 1,23,31,600 रूपए की संपत्ति थी जो 2013 में 6,27,54,114 रूपए पहुंच गई। अब उनकी संपत्ति 350 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक सफल प्रशासक के साथ ही बेहद विनम्र और मिलनसार राजनेता के रूप में पहचाना जाता है। वहीं देश के चुनावी इतिहास में अब तक 14 नेता ऐसे हुए हैं, जिन्हें लगातार तीन या उससे अधिक बार किसी राज्य का मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। इस सूची में शिवराज सिंह चौहान का नाम भी है। आदिम जाति कल्याण, अनुसूचित जाति कल्याण ज्ञान सिंह के पास 2008 में 18,63,542 रूपए की संपत्ति थी जो 2013 में 51,59,739 रूपए पहुंच गई। पिछले तीन सालों में उनका बैंक बैलेंस बढ़ गया है। इन तीन सालों में उनके नाम से चार नए बैंक खाते भी खुल गए। मंत्री ज्ञान सिंह ने शहडोल उपचुनाव में घोषणा पत्र में अपनी सम्पत्ति एक करोड़ आठ लाख रूपए से अधिक बताई है। हालांकि सियासी दलों के नेता इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते की नेताओं की सम्पत्ति जीतने के बाद बढ़ती है बल्कि यह दर्शाते है कि मेरी कमीज उसकी कमीज से सफेद है। तीन साल में प्रदेश के अन्य मंत्रियों की संपत्ति में बढ़ोतरी मंत्री 2013 अब बढ़ोतरी प्रतिशत में गोपाल भार्गव- 1,01,29,044 65 प्रतिशत गौरीशंकर बिसेन- 7,41,82,316 61 प्रतिशत नरोत्तम मिश्रा- 2,96,06,762 60 प्रतिशत यशोधरा राजे- 5,95,09,664 262 प्रतिशत उमाशंकर गुप्ता- 4,47,62,820 1 64 प्रतिशत अर्चना चिटनिस- 4,07,67,595 65 प्रतिशत गौरीशंकर शैजवार- 3,69,36,262 63 प्रतिशत कुसुम मेहदेले- 2,07,69,113 71 प्रतिशत ओमप्रकाश धुर्वे- 1,20,02,881 91 प्रतिशत रूस्मत सिंह- 5,45,00,000 225 प्रतिशत विजय शाह- 6,83,91,215 178 प्रतिशत माया सिंह- 8,88,99,100 108 प्रतिशत रामपाल सिंह- 4,63,39,241 178 प्रतिशत भूपेंद्र सिंह- 7,39,86,313 278 प्रतिशत सूर्यप्रकाश मीणा- 9,76,88,419 544 प्रतिशत विश्वास सारंग- 5,64,25,784 180 प्रतिशत ललिता यादव- 1,06,36,128 243 प्रतिशत दीपक जोशी- 36,82,118 78 प्रतिशत पारसचंद्र जैन- 5,40,67,474 105 प्रतिशत शरद जैन- 1,60,00,440 95 प्रतिशत हर्ष सिंह- 4,65,69,017 205 प्रतिशत प्रति व्यक्ति आय बढऩे की रफ्तार सुस्त करीब सवा सौ लाख करोड़ के कर्ज में डूबे प्रदेश में महंगाई से तंग आदमी भले ही फटे हाल हुआ हो, लेकिन हमारे माननीय पिछले तीन सालों में मालामाल हुए हैं। प्रदेश सरकार भले ही मध्यप्रदेश को तेजी से विकसित होने वाले राज्यों की श्रेणी में शुमार करती हो, पर हकीकत ये है कि प्रति व्यक्ति आय बढऩे की रफ्तार इतनी सुस्त है कि पिछले दो साल में मप्र में प्रति व्यक्ति आय 4877 रुपए बढ़कर 56 हजार 516 तक पहुंची है, जबकि राष्ट्रीय औसत एक लाख रुपए ऊपर है। इधर पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में इसी दौरान यह दोगुनी बढ़ी। यह खुलासा सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट में हुआ है, जिसमें वर्ष 2012 से 15 तक प्रति व्यक्ति आय में हुई बढ़ोत्तरी को लेकर देशभर के राज्यों की जानकारी दी गई है। मप्र में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से 44 फीसदी पीछे है। पिछले तीन सालों के आंकड़ें देखें तो राष्ट्रीय औसत तक पहुंचने में भी करीब दस साल और लग जाएंगे, जबकि छत्तीसगढ़ पांच सालों से कम समय में इसे पूरा कर लेगा। वर्तमान में 13 राज्य ऐसे है जहां प्रति व्यक्ति औसत आय एक लाख रुपए से भी ज्यादा है। पिछले दो सालों में जिन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय सबसे कम बढ़ोतरी हुई उनमें मध्यप्रदेश भी शामिल है। देखा जाए तो औसतन अन्य राज्यों में जहां यह आय दस से 12 हजार रुपए बढ़ी, वहीं मप्र में पांच हजार रुपए का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। प्रति व्यक्ति आय वह पैमाना है जिसके जरिए यह पता चलता है कि किसी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति की कमाई कितनी है। इससे किसी शहर, क्षेत्र या देश में रहने वाले लोगों के रहन-सहन का स्तर और जीवन की गुणवत्ता का पता चलता है। देश की आमदनी में कुल आबादी को भाग देकर प्रति व्यक्ति आय निकाली जाती है। अर्थशास्त्री आरएस तिवारी के अनुसार प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय नहीं बढऩे के पीछे तीन मुख्य वजह है। प्रदेश कृषि पर निर्भर है, उद्योग चौपट है। औद्योगिक विकास आज भी नहीं है, जिसकी मुख्य वजह है कि उद्योगों के लिए अधोसंरचना आज भी वैसी नहीं है जिसकी मांग है। प्रदेश मुख्यत: कृषि आधारित है, लेकिन वो उद्योग में नहीं आता। दूसरा हमारे यहां एजुकेशन का स्तर काफी गिरा हुआ है जिसके चलते काबिल व्यक्तियों की कमी रहती है जिसके चलते कंपनियां यहां नहीं आना चाहती। इंफ्रास्ट्रचर के मामले में भी दूसरे राज्यों ने जिस रफ्तार से आगे बढ़े है उसमें भी हम पीछे है। हालांकि तुलनात्मक रूप से मप्र में प्रति व्यक्ति आय उतनी ज्यादा नहीं बढ़ी लेकिन देखा जाए तो धीरे-धीरे यह बढ़ रही है। कृषि की आमदनी से जितनी आमदनी बढ़ती है उतनी ग्रोथ रेट बढ़ती है। नेताओं के अच्छे दिन आ गए! नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर कहती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंशानुसार जन के तो नहीं, लेकिन जन-प्रतिनिधियों के अच्छे दिन आ गए हैं। मध्य प्रदेश में विधायकों और मंत्रियों की तनख्वाह दोगुनी-चौगुनी हो रही है। महंगाई के इस दौर में इन्हें तो भरपूर राहत मिल रही है। मध्य प्रदेश में विधायकों का वेतन 45-55 प्रतिशत बढ़ गया है। विधायकों को अब 1 लाख 10 हजार रुपये, मिलेंगे। मुख्यमंत्री का वेतन 2 लाख रुपये महीना और मंत्रियों का वेतन एक लाख 70 हजार रुपये हो गया है। लेकिन जनता की सेवा के नाम पर राजनीति करने वाले ये नेता जनता की फिक्र तनिक नहीं करते हैं। उधर, एडीआर के जगदीप छोकर कहते हैं की मप्र विधानसभा में करीब 70 प्रतिशत सदस्य करोड़पति हैं, 230 में से 161। आपराधिक मामलों वाले 32 प्रतिशत सदस्य हैं यानी 230 में से 173। यह वो राज्य है, जिस पर 1,17,000 करोड़ का कर्ज है। 2003 में कांग्रेस की दिग्विजय सिंह की सरकार के समय यह आंकड़ा 3,300 करोड़ का था, लेकिन 2017 तक आते-आते शिवराज सिंह चौहान की सराकर में ये 1,17,000 करोड़ का हो गया। शिवराज सरकार का दावा है कि उसने राज्य पर लगे बीमारू का तमगा हटा दिया है, जो उसके साथ 1956 से लगा हुआ था। लेकिन अब वो फिर आईसीयू जैसे हालात में पहुंच गया है। 2001 में छत्तीसगढ़ राज्य बना, तब मध्य प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 18,000 रुपये थी, अब 59,000 रुपये है, जबकि छत्तीसगढ़ में 69,000 रुपये है। ये वो राज्य हैं जहां हमारे किसानों की आत्महत्या लगातार खराब बनी हुई है। एनसीआरबी की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार देश में 5650 किसानों ने आत्महत्या की, जिनमें 2568 किसान महाराष्ट्र के थे। तेलंगाना में 898 किसानों ने और मध्य प्रदेश में 826 किसानों ने खुदकुशी की। दो साल से मंत्रियों ने नहीं दिया संपत्ति का ब्यौरा प्रदेश के मंत्रियों की संपत्ति का मामला हमेशा विवादों में रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने करीब छह साल पहले घोषणा की थी कि राज्य के उनके समेत सभी मंत्री और अधिकारी हर साल अपनी संपत्ति सार्वजनिक करेंगे। मंत्रीगण जहां विधानसभा में अपनी संपत्ति का ब्यौरा देंगे, जबकि अधिकारी सरकार के समक्ष, लेकिन गत दो वर्षों से इस घोषणा पर अमल नहीं हो पाया है। राज्य शासन के केवल एक मंत्री जयंत मलैया को छोड़ दें, तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत किसी भी मंत्री ने दो साल से अपनी संपत्ति का ब्यौरा विधानसभा के पटल पर नहीं रखा है, जबकि चुनाव लड़ते समय शपथ पत्र में घोषित संपत्ति और दो साल पूर्व विधानसभा में प्रस्तुत ब्यौरे में काफी विसंगतियां देखने को मिली थीं। इसके बावजूद अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने में किसी भी मंत्री, यहां तक कि मुख्यमंत्री ने भी रुचि नहीं दिखाई। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अगस्त 2010 में घोषणा की थी कि उनकी सरकार के सभी मंत्री और वे स्वयं भी हर साल विधानसभा के पटल पर अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करेंगे। इसके साथ ही अधिकारियों को भी अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने की बात उन्होंने कही थी। शुरुआत दो-तीन साल तक तो मंत्रियों ने इस घोषणा को गंभीरता से लिया। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव कहते हैं कि लगता है कि मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं भी अपनी घोषणा को भूल चुके हैं, शायद इसीलिए यह स्थिति बनी है और यह हालात तब हैं, जब पिछले विधानसभा निर्वाचन के दौरान चुनाव लड़ते समय शपथ-पत्र में दिए जाने वाले संपत्ति के ब्यौरे और विधानसभा में प्रस्तुत ब्यौरे में काफी अंतर पाया गया था। मंत्री दें आय का आय का ब्यौरा शुचिता की बात करने वाली प्रदेश भाजपा सरकार के मंत्रियों द्वारा अपनी संपत्ति का ब्यौरा नहीं देने पर एसोसिएशन आफ डेमोके्रटिक रिफार्मस (एडीआर) की राज्य शाखा मप्र इलेक्शन वॉच ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखा है। मप्र इलेक्शन वॉच की ओर से लिखे पत्र में कहा गया है कि आज देश को स्वच्छ राजनीति की अत्यंत आवश्यकता है। हमारे जनप्रतिनिधियों द्वारा चुनाव के दौरान संपत्ति एवं देनदारियों की जानकारी दी जाती है। यह व्यवस्था लोकसभा एवं विधानसभा दोनों के लिए हैं। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 75 (अ) के अनुसार लोकसभा एवं राज्यसभा के प्रतिनिधि को अपनी संपत्ति और देनदारियों की जानकारी हर वर्ष लोकसभा एवं राज्यसभा के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। परंतु विधानसभाओं के सदस्यों के लिए इस प्रकार का कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ऐसी पहल की है। मध्यप्रदेश में केवल मंत्रियों को ही यह जानकारी विधानसभा के सामने रखनी होती है। परंतु ऐसा करना भी स्वेच्छिक है। मध्यप्रदेश विधानसभा की बेवसाइट देखने पर पता चला कि पिछले (त्रयोदश) विधानसभा के मंत्रियों में से केवल 16 ने ही उक्त जानकारी सार्वजनिक की है। वर्ष 2015-16 में किसी भी मंत्री या विधायक ने अपनी जानकारी सार्वजनिक नहीं की। संगठन ने शिवराज से आग्रह किया है कि अपने दूसरे नीतिगत फैसलों की तरह वे अपने शासन में पारदर्शिता लाने के लिए जनप्रतिनिधियों की संपत्ति एवं देनदारियों की जानकारी हर वर्ष सार्वजनिक करने की पहल भी करें। इस प्रकार की पहल नेताओं के सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता एवं पारदर्शिता सुनिश्चित करने में सहायक हो सकती है। मंत्रियों की संपत्ति की जांच होनी चाहिए कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश के मंत्रियों के पास जमा की गई संपत्ति की जांच की मांग की है। कांग्रेस महासचिव का कहना है कि प्रदेश में भाजपा 2003 से सत्ता में है। इस दौरान प्रदेश में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि अधिकारियों-कर्मचारियों के पास से करोड़ों की संपत्ति मिली है, तो यह अनुमान लगाना आसान होगा कि मंत्रियों के पास कितनी संपत्ति होगी। सिंह ने कहा कि इस बात की जांच की जानी चाहिए कि मंत्रियों के पास 2003 में कितनी संपत्ति थी और अब कतनी है। सिंह ने आरोप लगाया कि इस समय भ्रष्टाचार मध्यप्रदेश में चरम सीमा पर है और अब कोई भी काम बिना कमीशन के नहीं होता है। उधर, मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरूण यादव ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार चौहान को चि_ी लिख कहा है कि सांसदों और विधायकों से मांगे गए ब्योरे को भाजपा सार्वजनिक करे। अरूण यादव की भेजी गई चि_ी में लिखा है कि भाजपा का कैशलेस ट्रांसजेक्शन पर जोर देना बहुत अच्छा कदम है। अरूण यादव ने लिखा है कि मैं मानता हूं, मप्र में एकत्र होनेवाली जानकारियां आपके माध्यम से ही दिल्ली भेजी जा रही होंगी। यादव ने कहा है कि मेरा खुला अभिमत है कि मप्र के बेहद ईमानदार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, उनके कैबिनेट मंत्री और भाजपा के सांसद-विधायक सहित पार्टी के अन्य जिम्मेदार पदाधिकारी अपनी संपत्ति का ब्योरा देने का साहस कभी नहीं जुटा सकते। मेरा आपसे अनुरोध है कि पार्टी के निर्देशों के बाद मंत्रियों के भेजे गए ब्योरों को भाजपा की अधिकारिक बेबसाइट पर अपलोड किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए जरूरी है कि प्रदेश की जनता जान सके कि भाजपा के नेताओं ने 13 साल में अपना कितना आर्थिक विकास किया है। अरूण यादव ने अंत में लिखा है कि मुझे पूरा भरोसा है और बेसब्री से इंतजार है कि आप मेरे निवेदन और मांग पर विचार करेंगे। सांसदों की संपत्ति भी भर रही उड़ान विधायकों और प्रदेश सरकार के मंत्रियों की तरह ही सांसदों की संपत्ति में भी उड़ान जारी है। यह इस बात का संकेत है कि अब चुनाव ईमानदार और गरीब उम्मीदवारों के बस की बात नहीं रह गया है। मप्र की गिनती अब तक भले ही गरीब प्रदेशों में होती हो, लेकिन यहां के सांसद कमोबेश गरीब तो नहीं रहे। 2014 में चुनाव के दौरान सांसदों ने चुनाव आयोग को दिए अपने संपत्ति ब्यौरे में जो जानकारी दी है उसमें करीब दो साल में 200 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। आंकड़ों पर गौर करें तो सूबे की मौजूदा 29 लोकसभा सीटों में से 25 सीटों में करोड़पति उम्मीदवार चुनाव जीतकर आए थे। मात्र चार सांसद ही जनता की नजर में गरीब थे, जिनके पास वार्षिक संपत्ति का आंकड़ा करोड़ में नहीं, बल्कि लाख रुपए में था। लेकिन दो साल में ये भी करोड़पति हो गए हैं। मजेदार बात यह है कि हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा के 85 प्रतिशत करोड़पति सांसद चुनाव जीतकर आए थे वहीं कांगे्रस के 100 प्रतिशत यानि दो में से दोनों सांसद करोड़पति थे। लेकिन आज सभी यानी 100 फीसदी सांसद करोड़पति हो गए हैं। सांसदों की संपत्ति मंत्री 2014 कमलनाथ-छिंदवाड़ा 206.90 करोड़ ज्योतिरादित्य सिंधिया -गुना 33.08 करोड़ सुषमा स्वराज - विदिशा 17.55 करोड़ उदय प्रताप सिंह - होशंगाबाद 13.33 करोड़ अनूप मिश्रा - मुरैना 11.05 करोड़ सुधीर गुप्ता -मंदसौर 05.74 करोड़ नागेंद्र सिंह - खजुराहो 04.45 करोड़ नंदकुमार चौहान -खंडवा 04.01 करोड़ प्रहलाद पटेल -दमोह 03.95 करोड़ गणेश सिंह - सतना 03.78 करोड़ सुभाष पटेल - खरगौन 03.61 करोड़ रीति पाठक - सीधी 03.34 करोड़ रोडमल नागर - राजगढ़ 02.85 करोड़ राकेश सिंह - जबलपुर 02.78 करोड़ ज्योति धुर्वे -बैतूल 02.62 करोड़ फग्गन सिंह कुलस्ते -मंडला 02.57 करोड़ बोध सिंह भगत -बालाघाट 02.49 करोड़ लक्ष्मीनारायण यादव -सागर 02.39 करोड़ भागीरथ प्रसाद - भिंड 02.12 करोड़ चिंतामणि मालवीय - उज्जैन 01.88 करोड़ सुमित्रा महाजन - इंदौर 01.87 करोड़ आलोक संजर -भोपाल 01.45 करोड़ कांतिलाल भूरिया - रतलाम 02.22 करोड़ नरेंद्र सिंह तोमर -ग्वालियर 01.14 करोड़ जनार्दन मिश्रा - रीवा 01.01 करोड़ डॉ. वीरेंद्र कुमार- टीकमगढ़ 01.07 करोड ज्ञान सिंह- शहडोल 01.80 करोड़ मनोहर ऊंटवाल- देवास 01.30 करोड सावित्री ठाकुर- धार 01.01 करोड

60 फीसदी सीटों पर नए चेहरे की जुगाड़

- संघ की रिपोर्ट के बाद अब सरकारी सर्वे में सामने आया हाल
भोपाल। मप्र में लगातार चौथी बार सरकार बनाने के सपने देख रही भाजपा के विधायक ही नहीं, मंत्रियों के लिए भी आगामी विधानसभा चुनाव आसान नहीं रहने वाला है। यह संकेत मिला है पिछले छह माह में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा संगठन और सरकार द्वारा कराई गई सर्वे रिपोट्र्स में। सरकार की एक हालिया सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भाजपा की करीब 60 फीसदी सीटों पर हालत खराब है। यही कारण है कि संघ ने प्रदेश में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। साथ ही संगठन व सत्ता की ओर से विधायकों के साथ मंत्रियों को भी समय रहते हालात काबू में करने की हिदायतें दी जा रही हैं। उधर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-सपा गठबंधन ने भाजपा की हवाई उड़ा दी है। अगर मप्र में भी गठबंधन होता है तो यह भाजपा के लिए भारी पड़ेगा। इतिहास गवाह है कि राजशाही हो या राजनीति चौथी पीढ़ी और चौथी पारी दोनों के पतन का कारण बनती है। कहा जाता है कि विजेता तैमूर लंग ने मशहूर इतिहासकार और समाजशास्त्री इब्न खुल्दुन से अपने वंश की किस्मत पर बात की। खुल्दुन ने कहा कि किसी वंश की ख्याति चार पुश्तों से ज्यादा शायद ही टिकती है। पहली पीढ़ी जीत पर ध्यान केंद्रित करती है। दूसरी पीढ़ी प्रशासन पर। तीसरी पीढ़ी, जो विजय अभियानों या प्रशासनिक जरूरतों से मुक्त होती है, उसके पास अपने पूर्वजों के जमा धन को सांस्कृतिक कार्यों पर खर्च करने के सिवा कोई काम नहीं रह जाता। अंतत: चौथी पीढ़ी तक वह एक ऐसा वंश रह जाता है जिसने अपना सारा पैसा और उसके साथ ही इंसानी ऊर्जा भी खर्च कर दी है। यह प्राकृतिक अवधारणा है और इससे बचा नहीं जा सकता। तो क्या यही प्राकृतिक अवधारणा भाजपा को चौथी पारी में बाधा बनेगी? 40 फीसदी विधायकों पर आंच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा संगठन के बाद अब प्रदेश सरकार की खुफिया रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि शिव 'राजÓ की रिपोर्ट खराब है। इस रिपोर्ट के अनुसार, अगर स्थिति नहीं सुधरी तो 2018 का विधानसभा चुनाव भाजपा को मझधार में डाल सकता है। इसको देखते हुए पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव में अपने करीब 40 फीसदी विधायकों को बाहर का रास्ता दिखा सकती है। ज्ञातव्य है कि पिछले साल संघ ने सरकार को चेताया था कि जनता के बीच सरकार और विधायकों की छवि खराब है। उस समय प्रदेश की राजनीति में कोहराम-सा मच गया था। अब पचमढ़ी में आयोजित प्रशिक्षण शिविर के दौरान सामने आई ग्राउंड रिपोर्ट ने भाजपा की हवाई उड़ा दी है। सरकार और संगठन द्वारा द्वारा तैयार रिपोर्ट के अनुसार 165 विधायकों वाली भाजपा की प्रदेश के करीब 24 जिलों में स्थिति चिंता जनक है। जबकि 10 जिलों में विपक्ष से बराबरी का मुकाबला है। वहीं 21 जिलों में पार्टी की स्थिति विपक्ष से अच्छी है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 8 मंत्रियों और 58 विधायकों की स्थिति उनके विधानसभा क्षेत्र में खराब है। यानी अभी चुनाव हुए तो यहां भाजपा की हार तय है। इस रिपोर्ट के आने के बाद संगठन और सरकार अचंभित है। वहीं संघ की नजर में भाजपा की तीसरी पारी की सरकार जनता की नजर में पूरी तरह फ्लाप है। संघ ने तो नए चेहरों को मौका देने की सलाह तक दे डाली है। 140 सीटों के लिए नए चेहरों की तलाश उल्लेखनीय है की वर्तमान में भाजपा के पास 165 विधायक हैं। यानी 230 विधानसभा क्षेत्र वाले मप्र में भाजपा पहले से ही 65 सीटों पर कमजोर है। इनमें से वर्तमान समय में कांग्रेस 56, बसपा 4, निर्दलीय तीन सीटों पर काबिज है, जबकि दो खाली हैं। सरकार की वर्तमान रिपोर्ट में 66 सीटों (8 मंत्रियों और 58 विधायकों) पर जनाधार कमजोर हुआ है। अनुमानत: यह आंकड़ा अभी और बढ़ सकता है। भाजपा के सूत्रों की माने तो यह संख्या 75 तक पहुंच सकती है। इस तरह कम से कम आगामी चुनाव में भाजपा को 140 सीटों (60 फीसदी)पर नए चेहरे उतारने पड़ सकते हैं। इन सीटों पर भाजपा डावांडोल संघ, संगठन, सरकार की रिपोट्र्स और विधानसभा सीट की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भाजपा की 140 सीटों पर स्थिति डावांडोल है। 24 जिलों में तो भाजपा की स्थिति पस्त है। दरअसल, इन 140 सीटों में से कुछ वह विधानसभा क्षेत्र हैं जहां पिछले चुनाव में भाजपा कम मार्जिन से जीती थी, वहीं कुछ सीटें वे हैं जहां कांग्रस-सपा गठबंधन भाजपा पर भारी पड़ेगा, कुछ सीटों पर उम्रदाराज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा और कुछ सीटें वह हैं जहां मंत्रियों और विधायकों का जनाधार कम हो रहा है। श्योपुर: विजयपुर। मुरैना : जौरा, मुरैना, दिमनी और अम्बाह। भिंड: अटेर, भिंड, लहार और मेहगांव। ग्वालियर: ग्वालियर ग्रामीण, ग्वालियर ईस्ट, भितरवार और डबरा। दतिया: सेवढ़ा और भांडेर। शिवपुरी: करेरा, पोहरी, पिछोर और कोलारस। गुना: बमोरी और राघौगढ़। अशोक नगर: अशोक नगर, चंदेरी और मुंगावली। सागर: खुरई, सुरखी, सागर, देवरी और बंडा। टीकमगढ़: टीकमगढ़, जतारा, पृथ्वीपुर और खरगापुर। छतरपुर : चांदला, राजनगर, छतरपुर और मलहेरा। दमोह: दमोह, जबेरा और हटा। पन्ना : पवई, गुन्नौर और पन्ना। सतना: चित्रकूट, रैगांव, अमरपाटन और रामपुर बघेलान। रीवा : सिरमौर, सेमरिया, मउगंज, देवतालाब, मनगवां और गुढ़। सीधी: चुरहट, सीधी और सिंहावल। सिंगरौली: चितरंगी। शहडोल: ब्यौहारी। अनूपपुर: कौतमा और अनूपपुर। उमरिया: बांधवगढ़। कटनी: बड़वारा और विजयराघवगढ़। जबलपुर: पाटन, बरगी, जबलपुर ईस्ट, जबलपुर वेस्ट और सिहोरा। डिण्डोरी: डिण्डोरी। मण्डला : मण्डला। बालाघाट: बैहर, लांजी, परसवाड़ा और बालाघाट। सिवनी : बरघाट, सिवनी, केवलारी और लखनादौन। छिन्दवाड़ा: अमरवाड़ा, सौंसर, परासिया और पाण्डुर्ना। बैतूल: घोड़ाडोंगरी। हरदा: टिमरनी और हरदा। होशंगाबाद: सिवनी मालवा। रायसेन: सांची (अजा)। विदिशा: बासौदा, कुरवाई (अजा), सिरोंज और शमशाबाद। भोपाल: गोविंदपुरा, भोपाल उत्तर और भोपाल मध्य। सिहोर : आष्टा, इछावर और सीहोर। राजगढ़ : नरसिंहगढ़, व्यावरा और खिलचीपुर। आगर: सुसनेर। शाजापुर: शाजापुर और शुजालपुर। देवास: सोनकच्छ और मंधाता। खंडवा: मंधाता। खरगोन: भीकनगांव, बड़वाह, महेश्वर, कसरावद, खरगोन और भगवानपुरा। बड़वानी: राजपुर, पानसेमल और बड़वानी। अलीराजपुर: अलीराजपुर और जोबट। झाबुआ: थांदला और पेटलावाद। धार: सरदारपुर, धार, गंधवानी, कुक्षी, मनावर, धरमपुरी और बदनावर। इंदौर: राउ। उज्जैन: उज्जैन नार्थ और उज्जैन साउथ। रतलाम: सैलाना और आलोट। मंदसौर: मल्हारगढ़ और सुवासरा। नीमच: मनासा, नीमच और जावद। नरसिंहपुर: गोटेगांव और नरसिंहपुर। इन मंत्रियों के क्षेत्र में साख दांव पर प्रदेश में भाजपा विधायकों के साथ ही करीब पंद्रह मंत्रियों के क्षेत्र में पार्टी की साख दांव पर है। जहां कुछ मंत्रियों की साख गिरी है, वहीं कुछ विवादों में घिरे हैं। जबकि कई मंत्रियों के उम्रदराज होने के कारण संगठन उन्हें टिकट देने के मूड में नहीं है। ऐसे में इन मंत्रियों के क्षेत्र में भाजपा को मुश्किलों का सामना कर पड़ सकता है। पार्टी को कांग्रेस के साथ ही अपनों से भी जुझना पड़ेगा। जयंत मलैया: प्रदेश के वित्त एवं वाणिज्यिक कर मंत्री जयंत मलैया सरकार के सबसे सुलझे हुए मंत्री है। इनके कामकाज से सरकार और संगठन दोनों संतुष्ट हैं। लेकिन उनके विधानसभा क्षेत्र दमोह में उनका जनाधार निरंतर कम हो रहा है। पिछले दो चुनावों में उनकी जीत का अंतर बेहद कम रहा। पिछले चुनाव में कांग्रेस के चंद्रभान सिंह को उन्होंने मात्र 4953 मतों से परास्त किया था। इसलिए दमोह सीट इस बार भी भाजपा के लिए रेड जोन में है। वैसे मलैया के प्रभार वाले जिला इंदौर की जनता भी उनसे खुश नहीं है। खासकर व्यापारी और उद्योग वर्ग। उधर, मलैया के पुत्र अपने पिता की विरासत संभालने के लिए तैयार हैं। डॉ. गौरीशंकर शेजवार: वन, योजना, आर्थिक एवं सांख्यिकी मंत्री शेजवार ने अगला चुनाव न लडऩे की घोषणा की है। इस कारण भाजपा को सांची (अजा)के लिए एक जीताऊ नेता की दरकार है। पिछले चुनाव में कांग्रेस के डॉ. प्रभुराम चौधरी को 20936 मतों से हरा कर शेजवार विधायक बने। वैसे वन मंत्री के रूप में उनकी परफार्मेंस संतोषप्रद नहीं है। वे अपने प्रभार वाले जिला जबलपुर में भी अपनी छाप नहीं छोड़ पाए। हालांकि शेजवार के पुत्र मुदित शेजवार विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय हैं। कुसुम मेहदेल: प्रदेश की लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी एवं जेल मंत्री कुसुम मेहदेल एक मंत्री के रूप में सफल नहीं हो पाई हैं। उनके विधानसभा क्षेत्र पन्ना में उनकी स्थिति संतोषजनक है। पिछले चुनाव में उन्होंने बसपा के लोधी महेन्द्र पाल वर्मा को 29036 वोट से हराया था। लेकिन भाजपा संगठन द्वारा तय उम्र की सीमा के कारण आगामी चुनाव में उनका टिकट कटना तय है। ऐसे में भाजपा के लिए पन्ना सीट चिंता का कारण बनी हुई है। जहां तक मेहदेले का सवाल है तो वे अपने प्रभार वाले जिलों दमोह और छतरपुर में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई हैं। हालांकि कुसुम मेहदेले के भतीजे पार्थ बुआ की विरासत संभालने के लिए पहले से ही सक्रिय हैं। गौरीशंकर बिसेन: अपने बड़बोलेपन के कारण हमेशा चर्चा में रहने वाल किसान कल्याण एवं कृषि विकास मंत्री बिसेन पिछला चुनाव मात्र 2500 वोट से जीत पाए। बालाघाट सीट पर सपा की अनुभा मुंजार ने उन्हें कड़ी टक्कर दी। इस बार बिसेन का जनाधार और कम हुआ है। संघ के बात संगठन ने भी बिसेन को लेकर चिंता जाहिर की है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-सपा गठबंधन बिसेन ही नहीं भाजपा के लिए भी खतरे की घंटी है। बिसेन की परफार्मेंस उनके प्रभार वाले जिलों ग्वालियर और छिन्दवाड़ा में भी ठीक नहीं है। वैसे बिसेन की बेटी मौसम बिसेन पिता की विरासत संभालने की तैयारी कर रही हैं। रुस्तम सिंह: प्रदेश के लोक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री रूस्तम सिंह भाजपा के सबसे कमजोर मंत्री के तौर पर सामने आए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, न अपने विधानसभा क्षेत्र मुरैना और न ही सरकार में वे अच्छा परफार्मेंस कर पाए हैं। वैसे भी पिछले चुनाव में वे बसपा के रामप्रकाश से मात्र 1704 वाट से ही जीत पाए थे। ऐसे में मुरैना में हार से बचने के लिए भाजपा कोई नया दांव खेल सकती है। यशोधरा राजे सिंधिया: खेल और युवा कल्याण, धार्मिक न्यास और धर्मस्व मंत्री यशोधरा के खिलाफ भाजपा में ही माहौल बनाया जा रहा है। संघ की रिपोर्ट में बताया गया है कि उनके राजसी व्यवहार के कारण शिवपुरी की जनता का अब उनसे मोहभंग होने लगा है। ज्ञातव्य है कि पिछले चुनाव में वे कांग्रेस प्रत्याशी वीरेंद्र रघुवंशी से 11145 मतों से जीती थीं। लेकिन इस बार सरकार ने उनसे उद्योग विभाग लेकर यह जता दिया है कि उनसे सरकार भी खुश नहीं है। वर्तमान में यशोधरा के पास जो विभाग हैं वे केवल शोभा के लिए हैं। पारसचंद्र जैन: विवादों में रहने वाले पारस जैन के पास ऊर्जा विभाग है, लेकिन वे अभी तक इस विभाग को समझ नहीं पाए हैं। वैसे भी यह विभाग अफसर चला रहे हैं। पारस जैने ने पिछले चुनाव में भले ही उज्जैन नार्थ विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के विवेक जगदीश यादव को 24849 वोटों से हराया है, लेकिन विवादों के कारण उनके क्षेत्र की जनता खफा है। हालांकि कहा जाता है कि यहां पारस जैन नहीं बल्कि संघ चुनाव लड़ता है। सो पारस जैन का भाग्य संघ के हाथ में है। वैसे वे अपने प्रभार के जिलों खण्डवा और बुरहानपुर में भी उपेक्षित हैं। ज्ञान सिंह: यह विडम्बना है की सांसद बनने के बाद भी ज्ञान सिंह मंत्री के पद पर आसिन हैं। वैसे आदिम जाति कल्याण, अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री वे केवल नाम के लिए ही हैं। एक मंत्री के तौर पर उनकी उपलब्धि नगण्य है। वर्तमान में बांधवगढ़ भाजपा के लिए रेड जोन में है। आलम यह है कि इस सीट पर होने वाले उपचुनाव के लिए पार्टी के पास जीताऊ उम्मीदवार तक नहीं है। 2018 तक तो स्थिति और खराब हो सकती है। माया सिंह: ग्वालियर ईस्ट विधानसभा सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी मुन्नालाल गोयल से 1147 वोटों से जीती माया सिंह नगरीय विकास एवं आवास मंत्री के तौर पर खुब सक्रिय हैं। वे अपने प्रभार वाले जिलों दतिया और मुरैना में काफी चर्चित हैं। लेकिन खुद के विधानसभा क्षेत्र में उनकी स्थिति चिंताजनक है। इसको लेकर संघ, संगठन और सरकार भी चिंतित है। उधर क्षेत्र में महल विरोधी लोग भी इनके खिलाफ लगातार मुहिम चला रहे हैं। भूपेन्द्र सिंह: मंत्री के तौर पर भूपेंद्र सिंह काफी सक्रिय हैं। वे शिव 'राजÓ के नौ रत्नों में से एक हैं। इसलिए मुख्यमंत्री ने उन्हें गृह और परिवहन जैसे महत्वपूर्ण विभाग सौंपे हैं। लेकिन अपने विधानसभा क्षेत्र खुरई में वे लगातार जनाधार खो रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार जनता के बीच उनकी छवि ठीक नहीं है। यही नहीं पिछले चुनाव में जिस तरह कांग्रेस के अरूणोदय चौबे से उनको कड़ी टक्कर मिली थी और वे 6084 वोट से जीते थे वह भी चिंता का विषय है। खबर है कि आगामी चुनाव आते-आते उन्हें संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप कर खुरई से मुक्त किया जा सकता है। वैसे अपने प्रभार वाले जिले उज्जैन में सिंहस्थ के सफल समापन ने इनकी हैसियत बढ़ा दी है। दीपक जोशी: राज्य मंत्री रहते हुए प्रदेश के सबसे सक्रिय मंत्रियों में दीपक जोशी का नाम आता है। जोशी के पास तकनीकी शिक्षा, श्रम, स्कूल शिक्षा आदि विभाग हैं। लेकिन संघ और संगठन की नजर में पिछले चुनाव में उनकी जीत संतोषप्रद नहीं थी। हाटपिपल्या विधानसभा सीट पर वे कांग्रेस के ठा. राजेन्द्र सिंह बघेल 6175 वोट से जीते थे। यही नहीं पिछले तीन साल में कांग्रेस ने अपनी स्थिति और मजबूत की है। इसलिए भाजपा ने इस सीट को रेड जोन में रखा है। हर्ष सिंह: आयुष, नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा, जल संसाधन राज्य मंत्री हर्ष सिंह ने रामपुर बघेलान सीट पर बसपा के रामलखन सिंह 24255 मतों से मात दी थी। लेकिन वे मंत्री के तौर पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाए। संघ, सरकार और संगठन उनके परफार्मेंस से खुश नहीं है। वहीं उनके खराब स्वास्थ्य के कारण भी पार्टी रामपुर बघेलान को लेकर सतर्क है। ललिता यादव: पिछले चुनाव में छतरपुर विधानसभा सीट पर कांग्रेस के आलोक चतुर्वेदी को 2217 मतों से हराकर विधायक बनी ललिता यादव को लेकर भी पार्टी असमंजस में है। वे पिछड़ा वर्ग तथा महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री हैं, लेकिन उनकी साख नहीं जम पाई है। पार्टी को इस सीट को लेकर चिंता है, क्योंकि ललिता यादव अपने विधानसभा क्षेत्र भाजपा का किला मजबूत नहीं कर पाई हैं। संजय पाठक: विजयराघवगढ़ सीट पहले कांग्रेस फिर भाजपा और आगे भी भाजपा के कब्जे में रहेगी इसको लेकर न तो संघ और न ही पार्टी आश्वस्त है। जिस तरह कटनी हवाला कांड में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम राज्य मंत्री पाठक का नाम उछला और उनके खिलाफ माहौल बना है उससे कम ही उम्मीद है की यहां पाठक की साख बरकरार रह पाएगी। इसकी वजह यह भी है कि संघ भी पाठक के विरोध में है। सूर्यप्रकाश मीना: कहा जाता है कि विदिशा जिले में भाई राघव जी की क्षतिपूर्ति के लिए भाजपा सूर्यप्रकाश मीना को आगे बढ़ा रही है। इसी के लिए उन्हें उद्यानिकी तथा खाद्य प्रसंस्करण, वन राज्य मंत्री बनाया गया है। लेकिन शमशाबाद विधानसभा सीट पर उनकी 3158 वोटों की जीत राह में रोड़ा बनकर खड़ी है। दरअसल, वे अभी तक सफल मंत्री के तौर पर अपने को सिद्ध नहीं कर पाए हैं। उधर संघ और भाजपा उनको लेकर आश्वस्त नहीं है। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उनकी नैया को पार लगा सकते हैं। ऐसी स्थिति क्यों बनी सत्ता अच्छे से अच्छे सतपुरूष को पथभ्रष्ट कर देती है। कुछ ऐसा ही रोग भाजपाईयों को लग गया है। रिपोर्ट के अनुसार, भ्रष्टाचार, अहंकार, जनता के कटाव, मंत्रियों-विधायकों और अफसरों में टकराव, कार्यकर्ताओं से दुव्र्यवहार और सरकार की योजनाओं का बंटाढार होने के कारण यह स्थिति बनी है। निष्क्रिय विधायकों को लेकर आलाकमान लगातार टिप्पणी करता रहा है। ठेकदारी और व्यापार में दिलचस्पी लेने वाले इन विधायकों पर जनता के बीच सक्रिय न रहने का आरोप लगता रहा है। इनके खिलाफ पार्टी नेताओं खास कर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को शिकायतें मिलती रहती हैं। ऐसे में इन विधायकों का टिकट कटना लगभग तय माना जा रहा है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि 2003 में जो रोग दिग्विजय सिंह की सरकार को लगा था वही रोग वर्तमान सरकार को लग गया है। यानी भाजपा में परिवारवाद से ले कर दलबदल की नीतियों तक को अपना लिया है। इस से भाजपा को अपने अंदर से ही चुनौती मिलने लगी। ज्ञातव्य है कि मध्य प्रदेश में 2003 में दिग्विजय सिंह की सरकार सत्ता से बेदखल हुई थी। तब उसके खिलाफ हवा बनाने में चार-पांच मुद्दों ने अहम भूमिका निभाई थी। इनमें सबसे बुनियादी मुद्दा राज्य की आर्थिक स्थिति थी। तब राज्य का अर्थतंत्र इस कदर गड़बड़ाया कि वह बीमारू की श्रेणी में शुमार होने लगा। निवेश आना रुक गया और बेरोजगारी तेजी से बढ़ती जा रही थी। फिर सड़कों की दुर्दशा और बिजली की किल्लत कोढ़ में खाज बन गई। इससे तंगहाल प्रदेश की जनता ने दिग्विजय सिंह के तमाम 'चुनावी प्रबंधनÓ (जिसका वे दावा किया करते थे) को धता बताते हुए भाजपा को तीन-चौथाई बहुमत के साथ सत्ता सौंप दी। ऐसी ही स्थिति प्रदेश में वर्तमान समय में दिख रही है। सरकार केवल दावे और आंकड़े बाजी करके विकास की तस्वीर परोस रही है। जबकि हकीकत में सड़क, पानी, बेरोजगारी, महंगाई ने जनता को बेहाल कर दिया है। रोजगार के संबंध में 2014-15 का मध्य प्रदेश का आर्थिक सर्वेक्षण ही सरकार की चुगली करता है। यह बताता है कि प्रदेश में नवंबर, 2014 तक शिक्षित बेरोजगारों की संख्या करीब 16.5 लाख थी। यह आंकड़ा वह है जो रोजगार कार्यालयों में दर्ज है। इसमें अशिक्षित बेरोजगार जुड़े ही नहीं हैं। निवेश, कारोबार, रोजगार के बाद बात करें राज्य की आर्थिक स्थिति की तो राज्य पर कर्ज का बोझ इस वक्त करीब 1.5 लाख करोड़ रुपए हो चुका है। इस पर 6,000 करोड़ रुपए का सालाना ब्याज लग रहा है। लगातार तीन बार से सत्ता सुख भोग रही भाजपा को मालुम है कि आगामी चुनाव में उसके सामने चुनौतियां अपार है। इसलिए अब वह अपने सारे सिद्धांतों से समझौता करने के मूड में भी नजर आ रही है। हालांकि पार्टी अभी से 2018 के लिए पार्टी अब फंूक-फूंक कर कदम आगे बढ़ाएगी। विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण संघ, संगठन, सरकार और कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट के आधार पर होगा। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के सामने केवल कांग्रेस पार्टी ही थी। लेकिन इस बार कांग्रेस, सपा बसपा के साथ ही एंटीइंकंवेसी भी रहेगी। तैयार होगा विधायकों का रिपोर्ट कार्ड जपा मध्यप्रदेश में अपनी चौथी पारी को सुनिश्चित करने के लिए कोई भी कोर कसर नहीं छोडऩा चाहती है। इसलिए मैदानी जमावट के साथ ही पार्टी अब अपनों की हैसियत का भी आंकलन कर रही है। इसी कड़ी में पार्टी अब अपने विधायकों का रिपोर्ट कार्ड तैयार करेगी। इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा कार्यकर्ता, और स्थानीय लोगों का मंतव्य लिया जाएगा। उधर, शिवराज सरकार भी अब पूरी तरह से चुनावी मोड में आ गई है। चुनाव कैसे जीतना है? अभी जनता के बीच विधायकों की क्या स्थिति है? इस स्थिति को कैसे सुधारा जाए? वोट की राजनीति क्या हो? ये सब आकलन पचमढ़ी प्रशिक्षण वर्ग में खुलकर हुआ। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विधायकों को जीत के लिए मंत्र देने के साथ ही नसीहत भी दी। उन्होंने विधायकों से कह दिया है कि मई तक विधायकों के कामकाज का सर्वे हो जाएगा। विधायकों की उनके विधानसभा क्षेत्र में स्थिति क्या है, इसे लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मार्च से सर्वे प्रारंभ करने जा रहे हैं। निजी संस्था के साथ इस बार इंटेलीजेंस की रिपोर्ट को भी जोड़ा जाएगा, ताकि वास्तविक स्थिति का पता चल सके। मई के दूसरे पखवाड़े में मुख्यमंत्री विधायकों से वन-टू-वन चर्चा के दौरान यह रिपोर्ट बताएंगे। इसे चुनाव से पहले की रिपोर्ट माना जाएगा, जिसमें वो कमियां बताई जाएंगी, जिसे विधायक को अगले डेढ़ साल में सुधारना होगा। इस बार के सर्वे में खास तौर पर यह भी पूछा जाएगा कि एक या दो बार के विधायकों की संपत्ति सामान्य रही है या अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। यह सवाल केंद्रीय स्तर से आया है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए वित्तीय वर्ष में ऐसे लोगों के खिलाफ मुहिम शुरू करेंगे, जिनकी अचल संपत्तियां कई गुना है। विधायकों के साथ इस बार मंत्रियों की परफॉर्मेंस का आंकलन किए जाने की तैयारी है। दूसरी तरफ भाजपा ने विधायकों व मंत्रियों का संगठन स्तर से फीडबैक लेना प्रारंभ कर दिया है। तीन तरह से बनेगा रिपोर्ट कार्ड भाजपा ने सर्वे का आधार तय कर लिया है। इसका तीन तरह का पैमाना होगा। विधानसभा में इंटेलीजेंस के आधार पर रिपोर्ट बन रही है। एक सर्वे निजी एजेंसी से कराया जाएगा, जिसमें 30 से 40 सवाल होंगे। इसके अलावा संभागीय संगठन मंत्री अपनी संघ और अनुषांगिक टीम के कार्यकर्ताओं की बदौलत मैदानी आकलन करेंगे। ये सब कवायद अभी से इसलिए की जा रही है, ताकि विधायकों को सुधरने का मौका दिया जा सके। इसलिए अभी तीन महीने दिए गए हैं। भाजपा मौजूदा सीटों पर उम्मीदवारों का चयन करते समय सीटिंग विधायकों की जनता के बीच छवि, विधायक के रूप में उनके कामकाज के साथ ही चुनाव जीतने की संभावना को भी जांच-परख करेगी। जो विधायक इन कसौटियों पर खरे नहीं उतरेंगे, उनके टिकट काट दिए जाएंगे। शिवराज की छवि नहीं लगेगी दांव पर भाजपा में मप्र के मुख्यमंत्री की छवि विजेता की है। लेकिन सरकार की ही रिपोर्ट ने अब उनकी छवि दांव पर लग गई है। दरअसल, संघ और संगठन नहीं चाहता है की शिवराज पर इतना भार डाला जाए की वे हर बार की तरह इस बार भी खराब रिपोर्ट वालों की नैय्या को पार लगा दें। इसलिए पार्टी इस बार खराब रिपोर्ट वालों को बर्दास्त करने के मूड में नहीं है। पचमढ़ी बैठक में मुख्यमंत्री ने भले ही कह दिया है की मई में एक बार फिर से मंत्रियों-विधायकों की रिपोर्ट का आंकलन किया जाएगा, लेकिन इस बार किसी के साथ सहानुभूति नहीं दिखाई जाएगी। यानी जिसकी परफार्मेंस खराब होगी उसे घर बैठना ही पड़ेगा। संघ और संगठन भी जता चुके हैं चिंता प्रदेश सरकार के मंत्रियों और विधायकों की परफार्मेंस को लेकर संघ और भाजपा भी चिंता जता चुके हैं। दिसंबर में इंदौर में हुए चार दिवसीय प्रशिक्षण वर्ग में भी विधायकों को ये बता दिया गया था कि 2018 में आधे से ज्यादा विधायकों को टिकट नहीं मिलेगा। संगठन ने साफ कर दिया है कि उन विधायकों को ही दोबारा चुनाव लड़वाया जाएगा जिनके नाम उनके सर्वे में आएंगे। अगले चुनाव में भाजपा के लिए कांग्रेस से ज्यादा मुश्किलें पार्टी के अंदर से आने वाली हैं, उम्मीदवारों की संख्या बहुत ज्यादा है और कई सिटिंग विधायकों के परफार्मेंस से पार्टी खुश नहीं है। सिटिंग विधायकों में मंत्रियों को भी गिना जा रहा है। 2013 में एक दर्जन मंत्रियों की चुनाव में हार हुई थी। इसलिए इस बार पार्टी कोई चुक नहीं करने वाली है। चुनावी बिसात पर मोहरें तैयार विधानसभा चुनाव को अभी लंबा वक्त है, लेकिन भाजपा चुनावी बिसात पर मोहरें तैयार कर रही है। विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा प्रत्येक विधानसभाओं में सीटिंग विधायक के अलावा 3-3 दावेदार तय कर रही है। यह बात अलग है कि किसके हाथ टिकट लगता है पर इस बार पार्टी उम्र सीमा के आधार पर भी लोगों को अलग कर सकती है साथ ही साथ उन दावेदारों जिनका ग्राफ नीचे गया है को नकार भी सकती है। हालांकि कोई भी अपने को विजयी उम्मीदवार से कम नहीं मानता, लेकिन भाजपा द्वारा कराए गए सर्वेक्षण से इन प्रत्याशियों का भाग्य तय होगा। भाजपा के आंतरिक सर्वेक्षण में विधायकों, नए चेहरों और कांग्रेस से भाजपा में आए पूर्व विधायकों के लिए कुछ मानक तय किए गए हैं। इन मानकों के अनुसार भी कुछ को टिकट मिलेंगे कुछ के कटेंगे। भाजपा सूत्रों की माने तो भाजपा केवल जिताऊ उम्मीदवारों पर दांव लगाएगी जो बिकाऊ न हों, इसके लिए भाजपा ने कुछ मानक तय किए हैं। इन मानकों में विधानसभा के कार्यकाल के साथ-साथ लोकसभा चुनाव और उपचुनाव की भूमिका भी देखी जाएगी। जिसके आधार पर उन्हें टिकट दिया या छिना जाएगा। इसी प्रकार पुराने जीत या हार के मानक भी आंकड़े के रूप में प्रत्याशियों की छवि को प्रभावित करेंगे इसमें कोई दो राय नहीं है। संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ-साथ प्रदेश प्रभारी, प्रदेश अध्यक्ष की रिपोर्टों पर भी आलाकमान निर्णय करेगा। कटेंगे बहुतों के टिकट मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में चौथी बार सत्ता में काबिज होने जनता का जहां मन मोहने में लगे हुए हैं। वहीं भाजपा के विधायकों की कराई गई मैदानी सर्वे रिपोर्ट तथा रायशुमारी में आए प्रतिकूल परिणामों को लेकर भाजपा के सत्ता और संगठन में हड़कंप मच गया है। ग्वालियर चंबल संभाग, विंध्य क्षेत्र तथा बुंदेलखंड अंचल के भाजपा विधायकों की रिपोर्ट बहुत कमजोर उजागर हुई है। जिस कारण भाजपा हाईकमान ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि बहुत से वर्तमान विधायकों और मंत्रियों के टिकट काटे जायेंगे। जीतने की संभावना और परफारमेंस के आधार पर विधायकों को टिकट देने का भाजपा का यह फैसला कहीं पार्टी का खेल ही न बिगाड़ दे, इन विधायकों की परफारमेंस भले न अच्छी रही हो, लेकिन ये विधायक बागी बन कर या किसी अन्य दल से टिकट लेकर भाजपा के खेल को बिगाड़ सकते हैं।

स्वच्छ भारत के सपने का मलिन सच

1260 करोड़ रुपए स्वाहा, फिर भी 50 फीसदी घरों में शौचालय नहीं
2019 तक प्रदेश में बनाने हैं 90,03,900 शौचालय
18 वर्षों से 5 राज्यों में अटका हुआ है स्वच्छ भारत का सपना
भोपाल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की योजनाओं को हाथों-हाथ लेने वाले मप्र में उनकी स्वच्छ भारत योजना दम तोड़ रही है। आलम यह है कि 1260 करोड़ रूपए फूंकने के बाद भी मप्र की आधी से अधिक आबादी खुले में शौच कर रही है। यानी प्रदेश के आधे घरों में शौचालय नहीं है। इसके बावजुद आंकड़ों का खेल ऐसा चल रहा है कि अधिकारी कागजी घोड़े दौड़ाकर खुले में शौचमुक्त जिला घोषित कराने में जुटे हुए हैं। जबकि स्वच्छ भारत अभियान के तहत जिन राज्यों ने सबसे खराब प्रदर्शन किया है, मप्र नीचे से तीसरे स्थान पर है। मप्र से खराब प्रदर्शन बिहार और झारखंड का है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 15 अगस्त 2014 को लाल किले की प्राचीर से दिए गए अपने पहले भाषण में स्वच्छता को एक व्यापक एजेंडे के रूप में देश के सामने रखा। उन्होंने स्वच्छता के महत्व को कुछ इस तरह बयां किया था- पहले शौचालय, फिर देवालय। इस भावना को अमली जामा पहनाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा 2 अक्टूबर 2014 को स्वच्छ भारत मिशन की शुरुआत की गई। केंद्र सरकार ने 2019 तक भारत को खुले में शौचमुक्त बनाने के लिए योजना भी बना ली। मप्र सरकार ने भी 2019 तक प्रदेश में लक्षित 90,03,900 शौचालय बनाने की कार्ययोजना बना ली है। लेकिन दो सालों में करीब 11.25 लाख ही शौचालय बन पाए। इनमें से भी अधिकांश शौचालय कागजों पर ही बने हैं। 58 फीसदी घरों में शौचालय नहीं 18 वर्ष पहले जब पहली बार राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए-1) सत्ता में आया था तो 'संपूर्ण स्वच्छता अभियानÓ शुरू हुआ था। इस अभियान के दौरान मप्र के 86 प्रतिशत परिवार खुले में शौच करते थे। बाद में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने इसका नाम बदल कर निर्मल भारत अभियान रखा। अब वर्तमान मोदी सरकार ने स्वच्छ भारत अभियान नाम दिया है, लेकिन इन 18 साल में मप्र के गांवों में मात्र 42 फीसदी घरों में ही शौचालय बन सके हैं। यानी प्रदेश में आज भी 58 फीसदी ग्रामीण आबादी खुले में शौच कर रही है। दरअसल, केंद्र और राज्य सरकार ने इन अभियानों के लिए जो फंड दिया वह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ता गया। देश में सबसे पहले पंचायती राज व्यवस्था लागू करने वाले मप्र की पंचायतों में जितना भ्रष्टाचार हुआ है, शायद ही किसी अन्य प्रदेश में हुआ हो। यहां आलम यह है कि निर्माण बड़ा हो या छोटा हर जगह भ्रष्टाचार हो रहा है। इसका खलासा समेकित ऑडिट रिपोर्ट में हुआ है। रिपोर्ट के अनुसार मप्र में आंगनबाड़ी केंद्र व शौचालय निर्माण में जमकर भ्रष्टाचार किया गया है। सरकार ने घर-घर शौचालय बनाने के लिए प्रदेश की 23 हजार पंचायतों को करीब 1260 करोड़ रुपए दिया था। लेकिन सात साल बाद भी 50 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र में शौचालय नहीं हैं। जबकि पंचायतों ने कागजों पर रकम खर्च कर दी है। स्वच्छता की कागजी हकीकत 2 अक्टूबर 2014 से प्रदेश को खुले में शौच से मुक्त करने के लिए प्रदेश में शौचालय निर्माण का अभियान सरकारी आंकड़ों में तो सरपट दौड़ रहा है, लेकिन हकीकत इसके विपरीत है। प्रदेश में अभियान कहीं भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है, तो कहीं इच्छाशक्ति और जागरुकता के अभाव में दम तोड़ रहा है। शौचालय में कंडे-लकड़ी भरे हैं। न सीट है न छत। रतलाम में 2015-16 में 33,010 शौचालय निर्माण का लक्ष्य था, जबकि सिर्फ 6,452 ही बन सके है। नीमच में लक्ष्य की तुलना में 40 फीसदी शौचालय अधूरे हैं। 18 हजार शौचालय के स्थान पर केवल 5400 ही बन पाए हैं। मंदसौर में सवा लाख से ज्यादा लोगों के घरों में अब भी शौचालय नहीं हैं। करीब एक लाख 13 हजार शौचालय नहीं बने। लक्ष्य की तुलना में 30 फीसदी ही बन पाए। खंडवा में पिछले वर्ष 36 हजार शौचालय का लक्ष्य था, लेकिन 10 हजार भी नहीं बन पाए। इस साल 1.18 लाख शौचालयों का लक्ष्य है। बड़वानी में खुले में शौच से मुक्त करने का सपना कोसों दूर है। डेढ़ लाख से ज्यादा घर ऐसे हैं, जिनमें शौचालय नहीं हैं। बुरहानपुर में 28,134 शौचालय बनाने का लक्ष्य था, लेकिन केवल 7 हजार ही बनाए जा सके हैं। खरगोन में स्थिति गंभीर है। शौचालय की आड़ में 1300 रुपए की वसूली हो रही है। शहर के 17 सौ घरों में शौचालय नहीं हैं। झाबुआ में शौचमुक्त गांवों को कागजों में समेट दिया है। 34 हजार 52 शौचालय बनाने का लक्ष्य था जिसमें से 20342 ही बन पाए हैं। धार जिले के पौने दो लाख परिवार खुले में शौच को मजबूर हैं। इस वर्ष 78 हजार शौचालय का लक्ष्य है जबकि 6376 बन पाए हैं। देवास में वर्ष 2015-16 में 30,358 शौचालय बनाने का लक्ष्य था, जिसमें से 17001 बन सके। 2016-17 में 36 हजार के लक्ष्य में से 6755 शौचालय बने हैं। राजगढ़ जिले में 1.40 लाख के लक्ष्य के मुकाबले 22,716 शौचालय बन सके हैं। आधे से अधिक शौचालयों की राशि नहीं मिल पाई। सीहोर में एक लाख 17 हजार 884 शौचालय बनाने के लक्ष्य में से 81 हजार 431 बन पाए। 155 पंचायत ओडीएफ हो चुकी है। सीहोर जिले का बुधनी मुख्यमंत्री का गृह विकासखंड है। वर्ष 2013-14 से यहां गांव को खुले में शौचमुक्त करने के प्रयास चल रहे हैं। 2 साल में यहां बहुत धनराशि खर्च की गई है। कुछ काम भी हुए हैं, पर कामयाबी कोसों दूर है। 2015 तक बुधनी विकासखंड में लगभग 16,000 शौचालय बनाए गए थे। इनमें से अनेक तो फर्जी या लापता हैं। लगभग 1965 शौचालय जर्जर और अनुपयोगी पाए गए हैं। इसी तरह राज्य के प्राय: सभी जिलों में 2012 के पहले रिपोर्ट किए गए 15 लाख में से अधिकतर शौचालय फर्जी और जर्जर पाए गए हैं। इस तरह के जर्जर शौचालयों को सुधारने के लिए सरकार के पास न तो धनराशि की व्यवस्था है और न ही मरम्मत की अलग से कोई रणनीति। गुना में 30 हजार शौचालय के लक्ष्य के मुकाबले 2120 का निर्माण हो चुका है। पानी नहीं होने से उपयोग नहीं हो रहा है। अशोकनगर में 19742 शौचालय बनाने का लक्ष्य था, जिसमें से 2300 बन सके हंै। खुले में शौच मुक्त ग्राम पंचायतों का लक्ष्य 47 है। कटनी में दो वर्ष के दौरान 36 हजार शौचालय बनाने के लक्ष्य का 35 प्रतिशत कार्य यानी 12448 शौचालय बन पाए हैं। शहडोल में 30 हजार शौचालय के लक्ष्य के मुकाबले केवल 3082 ही बन सके। 2015-16 में भी 30 हजार में से 17325 शौचालय बने थे। अनूपपुर में 2015-16 में 25,290 के लक्ष्य में से 15715 शौचालय बन पाए। इस वर्ष 24000 में से अब तक 4984 ही बने हैं। मंडला में 2016-17 में 54000 शौचालय निर्माण का लक्ष्य रखा गया। अब तक 15,600 का निर्माण हो चुका है। छिंदवाड़़ा में दो साल में 72 हजार शौचालय बने, 170 पंचायतों को ओडीएफ घोषित किया, लेकिन गुणवत्ता के अभाव में टूट-फूट गईं। बालाघाट की 690 पंचायतों में से 76 खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) घोषित हो चुकी हैं। दतिया में 4820 शौचालय निर्माण का लक्ष्य निर्धारित किया, जिसमें से 495 का ही निर्माण हुआ। शिवपुरी में 25 हजार टॉयलेट बनाने का लक्ष्य था, जिसमें 50 फीसदी भी नहीं बन पाया है। इनमें से 80 फीसदी उपयोगविहीन हैं। भिण्ड में 1.76 हजार शौचालय का निर्माण होना था लेकिन 61 हजार ही बन पाए हैं। आदत न होने से 80 फीसदी उपयोग नहीं कर रहे। श्योपुर में पानी की कमी के चलते 1.12 लाख शौचालय बनाने के लक्ष्य के मुकाबले 20 हजार बन पाए हैं। इस वर्ष 42000 के लक्ष्य में से 2600 शौचालय ही बने हैं। मुरैना में इस वर्ष 42000 शौचालय निर्माण का लक्ष्य है, जिसमें से सिर्फ 2600 बने हैं। यहां 10500 शौचालय बन जाना था। डबरा में 6000 शौचालय बनाने का लक्ष्य है, जिसमें से अब तक 815 बने हैं, जबकि 2015-15 में 6000 का लक्ष्य था, जिसमें से सिर्फ 3800 बन सके। सागर में 2,34,931 शौचालय का लक्ष्य है, जिसमें से दो साल में मात्र 48 हजार बन सके हैं। 17 पंचायतें ओएफडी हो सकी हैं। छतरपुर में 2016-17 में मात्र 2426 शौचालयों का निर्माण हुआ, जबकि तीन वर्ष में 25213 बन पाए हैं, जबकि लक्ष्य 2. 50 लाख शौचालय बनाने का है। टीकमगढ़ में 36 हजार शौचालय के लक्ष्य में से केवल 3800 ही बने हैं। जिले में सबसे बड़ी समस्या निर्माण के बाद भुगतान की है। सिवनी की 645 पंचायतों में शौचालय निर्माण पूर्ण हो चुका है। अब तक 75 हजार से ज्यादा शौचालय के निर्माण किए गए हैं। 31 मार्च 2017 तक सिवनी जिले को पूर्णत: खुले में शौच से मुक्त बनाने का लक्ष्य है। विदिशा में इस वर्ष 4200 शौचालय के लक्ष्य के मुकाबले तीन माह में ही 3954 बन चुके हैं। हालांकि 2015-16 में 38,884 के लक्ष्य के मुकाबले 13,900 ही बन पाए थे। ऐसे में स्वच्छ मप्र का सपना कैसे पूरा होगा। फिर भी नहीं छूटा लोटा भारत सरकार के स्वच्छता मिशन की सफलता में अहम कड़ी है हर घर में शौचालय निर्माण ताकि गांव से लेकर महानगर तक को खुले में शौच से मुक्त घोषित किया जा सके। इसके लिए देशभर के निकायों को अंतिम तिथि 30 दिसम्बर 2016 दी गई थी। इस अवधि में प्रदेश की कई नगर निगमों ने करीब तीन माह तक चले घालमेल और घटिया शौचालय निर्माण के बाद निर्धारित तिथि पर अपने क्षेत्र के सभी वार्डों को ओडीएफ यानि खुले में शौच से मुक्त करा दिया है, लेकिन आज भी वहां की आबादी खुले में शौच के लिए जा रही है। चाहे प्रदेश की राजधानी भोपाल हो, या व्यावसायिक राजधानी इंदौर या फिर छिंदवाड़ा नगर निगम ही क्यों न हो। दरअसल अफसरों और निगमों के पदाधिकारियों ने कागजों पर हर घर में शौचालय दिखाकर ओडीएफ का तमगा तो ले लिया है। इस हायतौबा में बने शौचालय घटिया किस्म के हैं। इस कारण शौचालयों का शतप्रतिशत उपयोग नहीं हो रहा है। शहडोल में ही 60 फीसदी शौचालयों का ताला नहीं खुल सका है। जागरूकता के अभाव में यही स्थिति प्रदेश के लगभग सभी जिलों की है। मंडला में 35 प्रतिशत लोग ही शौचालयों का उपयोग कर रहे हैं। राजगढ़ में 50 प्रतिशत लोग ही उपयोग कर रहे हैं। विदिशा जिपं सदस्य सुभाषिनी बोहत के मुताबिक क्षेत्र में कई घरों में शौचालय नहीं होने से महिलाएं खेतों, मेड़ों पर शौच के लिए जाती हैं तो लोग पत्थर मारते हैं। करीब 80 प्रतिशत अनुसूचित जाति के लोगों के घरों में शौचालय नहीं। आदिवासी और पिछड़े क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। दतिया के एक गांव में 84 शौचालय बनाने का दावा किया जा रहा है, लेकिन 24 शौचालय भी नहीं बन पाए हैं। इसके साथ प्रदेश के कई हिस्सों में शौचालय आर्थिक अनियमितता की भेंट चढ़ चुका है। बालाघाट जिले में 57 हजार शौचालय बनाने के दावे की जांच में 6805 शौचालय ही मिले। शिवपुरी के दिनारा में तो टॉयलेट घोटाला के चलते प्रभारी सीईओ एके श्रीवास्तव को जेल जाना पड़ा और सरपंच-सचिव ने फरारी काटकर अग्रिम जमानत करानी पड़ी। 15 दिन में 50 करोड़ खर्च डाले मप्र की राजधानी भोपाल को करीब 12 साल तक पेरिस बनाने का ख्वाब दिखाने वाले पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर शहर को बुचडख़ाने के तमगे से निजात तो नहीं दिला सके, लेकिन वर्तमान नगर निगम प्रशासन ने शहर को खुले में शौच मुक्त (ओडीएफ) शहरों की रैकिंग दिलाने में कामयाबी जरूर पा ली है। भले ही इसके लिए करीब 50 करोड़ रूपए पानी की तरह बहा दिए गए। आज नगर निगम अपनी कामयाबी पर स्वयं अपनी पीठ थपथपा रहा है, लेकिन आने वाले दिनों में इसका भार शहर की जनता पर पडऩे वाला है। उल्लेखनीय है की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान को साकार करने के लिए सरकारों ने एड़ी चोटी का जोर लगा रखा है। इसके लिए मप्र सरकार भी जमकर पैसा खर्च कर रही है। प्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर के खुले में शौच मुक्त बनने के बाद राजधानी के सामने चुनौती थी कि वह भी खुले में शौच मुक्त जिला बने। फिर क्या था स्वच्छ भारत मिशन के तहत खुले में शौच से मुक्त बनने के लिए नगर निगम ने तैयार शुरू कर दी। इसके प्रचार-प्रसार और जमीनी हालात बदलने के लिए करीब 50 करोड़ रूपए खर्च किए गए। कांग्रेस का अरोप है की निगम ने इस अभियान में जमकर फिजूलखर्ची और गड़बड़ी की है। इसकी जांच होनी चाहिए, क्योंकि भोपाल की 22 लाख की आबादी में अभी भी करीब 5 लाख लोग खुले में शौच कर रहे हैं। 31 लाख शौचालय पर स्वाहा खुले में शौच मुक्त जिला का तमगा हासिल करने के लिए नगर निगम ने किस तरह फिजूलखर्ची की है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसने शौचालय के नाम पर करीब 31 लाख रूपए पानी की तरह बहा दिए। स्वच्छ भारत मिशन में पहले से ही पिछड़े शहर को खुले में शौच मुक्त का तमगा दिलाने के लिए नगर निगम ने शहर में 12 हजार रुपए प्रति शौचालय की दर पर 21 हजार स्थाई शौचालय बनाए हैं। लेकिन आनन-फानन में बने ये शौचालय किसी काम के नहीं हैं। इस काम में नगर निगम ने 25,20,00,000 रूपए खर्च किए हैं। लेकिन अधिकांश शौचालय उपयोगी नहीं है। यही नहीं निगम जिन स्थानों पर शौचालय नहीं बना सका उस जगह के लिए उसने 1800 माड्यूलर टायलेट्स(प्लास्टिक की फेब्रिकेटेड बॉडी) की खरीदी की। इसके लिए 5,87,92,500 खर्च किए गए। यानी एक माड्यूलर टायलेट 32,000 रूपए की लागत से खरीदा गया। जानकार बताते हैं कि माड्यूलर टायलेट की बाजार में कीमत 25,000 रूपए है, उसे निगम ने 32,000 रूपए में खरीदा है। सबसे बड़ी बात यह है कि निगम ने इस खरीदी के लिए एमआईसी से मंजूरी नहीं ली। दरअसल, निगम ने इसमें भी खेल किया है। बताया जाता है कि निगम ने एमआईसी की मंजूरी से बचने के लिए टुकड़ों में खरीदी की। निगम द्वारा माड्यूलर टायलेट की खरीदी के लिए 22 दिसंबर 2016 को 5,87,92,500 रूपए के टेंडर किए थे। लेकिन इस प्रस्ताव को एमआईसी में भी नहीं रखा गया। बाद में 6 जनवरी को 13 से 19 जोन के लिए दूसरी बार टेंडर निकाले गए। नियमों को ताक पर रखकर की गई इस खरीदी पर कांग्रेसी पार्षद आपत्ति दर्ज करा रहे हैं। कांग्रेसी पार्षदों का कहना है कि वे आगमी एमआईसी और नगर निगम की बैठक में इस मामले को उठाएंगे। इतनी हड़बड़ी क्यों? सवाल यह उठ रहा है कि खुले में शौच मुक्त भोपाल को लेकर इतनी हड़बड़ी क्यों? स्वच्छता सर्वेक्षण 2017 और ओडीएफ का प्रस्ताव पहले से ही तय था, फिर जगह चिन्हित करके शौच वाले स्थानों पर स्थाई टायलेट क्यों नहीं बनाए गए। निगम के सूत्रों का कहना है कि एमआईसी के प्रस्ताव में तो माड्यूलर टायलेट की खरीदी नहीं था, लेकिन अफसर ने प्रस्ताव बनाकर सदस्यों से चर्चा के बाद मंजूरी दे दी। निगम में नेता प्रतिपक्ष मो. सगीर कहते हैं कि एक स्थाई टायलेट का खर्च 12 हजार है फिर 32 हजार में अस्थाई टायलेट खरीदने का क्या औचित्य? बाजार में 25 हजार में माड्यूलर टायलेट उपलब्ध हैं, फिर 32 हजार के टायलेट क्यों? वह कहते हैं कि इसमें जमकर भ्रष्टाचार हुआ है। इस मामले की जांच होनी चाहिए। शौचालयों की हकीकत ओडीएफ का तमगा लेने के लिए निगम ने दिल्ली से आई क्वालिटी काउंसिल ऑफ इंडिया (क्यूसीआई) की टीम को तय स्थानों का ही दौरा कराया। क्यूसीआई ने 85 वार्डों के शहर में महज 17 स्थानों का निरीक्षण किया और पूरे शहर में खुले में शौच की स्थिति का आंकलन किया। लेकिन क्यूसीआई ने जिन स्थानों का निरीक्षण किया वहां भी खामियों की भरमार है, जो टीम को नजर नहीं आई। कहीं शौचालय के दरवाजे टूटे हैं तो कहीं कुंड़ी बंद नहीं हो रही है। कहीं खुले में मल बह रहा है तो कहीं पानी की व्यवस्था ही नहीं है। चेतक ब्रिज से अन्ना नगर की ओर जाने वाली रेल लाइन के किनारे रखे मॉड्यूलर टॉयलेट्स का मल खुले में बह रहा है। मोती नगर क्षेत्र में सोखते गड्ढा बनाने के बजाय सीधे जमीन पर तीन ईंट की दीवार बनाकर उस पर पटिए रखे हैं। टॉयेलट्स का मल इन गड्ढों में और इसका पानी आस-पास जमा हो रहा है। मानसरोवर कॉम्प्लेक्स के पास रखे गए मॉड्यूलर टॉयलेट्स के पास पानी की टंकी तक नहीं थी। मल निकासी के नाम पर महज डेढ़-दो फीट का गड्ढा खोदा गया है। इसी तरह के नजारे अन्य क्षेत्रों में भी हैं। 5 लाख आज भी कर रहे खुले में शौच नगर निगम ने जैसे-तैसे ओडीएफ का तमगा तो ले लिया है, लेकिन आज भी 5 लाख से अधिक लोग खुले में शौच कर रहे हैं। यह कहना है वार्ड 27 के पार्षद प्रदीप मोनू सक्सेना का। वह कहते हैं की महापौर आलोक शर्मा, निगम आयुक्त छवि भारद्वाज ने जनता के साथ धोखा किया है। शहर में चारों तरफ गंदगी है और इस दुर्दशा को देखने के बाद भी शहर ओडीएफ घोषित हो गया, इससे संपूर्ण प्रक्रिया ही संदेहास्पद है। इस तरह से दिया गया ओडीएफ का तमगा आने वाले दिनों शहर के स्वास्थ्य के साथ खुला खिलवाड़ करने वाला साबित होगा। वाटर एक्ट 1974 के मुताबिक किसी भी वाटर बॉडीज चाहे वो नाला ही क्यों ना हो, उसमें गंदगी नहीं छोड़ी जा सकती। शहर के साथ ही जिले में गांवों में भी स्थिति बदहाल है। आलम यह है कि राजधानी भोपाल के 478 गांवों में सिर्फ 117 गांवों के लोग खुले में शौच के लिए नहीं जाते। जबकि 361 गांवों के अधिकांश लोग खुले में शौच करते हैं। 117 स्थानों पर बैठाया पहरा ओडीएफ के तमगे को सफल बनाने के लिए नगर निगम ने उन चिन्हित 114 स्थानों पर पहरा बैठा रखा है जहां लगातार खुले में शौच की समस्या है। वहां अस्थाई शौचालय तो रखवाए गए हैं लेकिन पानी, बिजली, साफ सफाई की उचित व्यवस्था नहीं है। इस कारण लोग निगम अमले के पहुंचने से पहले ही शौच कर आते हैं। इसके अलावा शहर की कई कॉलोनियां नगर निगम के हैंडओवर नहीं हुई हैं। वहां अभी लोग खुले में शौच कर रहे हैं। नगर निगम के नेता प्रतिपक्ष मो. सगीर कहते हैं कि समझ में नहीं आ रहा है कि ओडीएफ को लेकर इतनी हड़बड़ी क्यों? निगम ने बिना प्लानिंग के 12-15 दिन में कागजी तैयारी की, सिटियां बजाई, महिलाओं की बेईज्जती की और शहर को खुले में शौच मुक्त घोषित करवा दिया। इसमें बहुत बड़ा घोटाला हुआ है। साथ ही माड्यूलर टायलेट्स लगाकर शहर में और गंदगी फैली दी गई है। इतना खर्च होने के बाद भी भोपाल 131 वे नंबर पर है यह शर्म की बात है। इस पूरे मामले की जांच होनी चाहिए। वार्ड 27 के पार्षद प्रदीप मोनू सक्सेना कहते हैं कि भोपाल को खुले में शौच मुक्त करने में भारी फर्जीवाड़ा हुआ है। आज भी कम से कम पांच लाख लोग खुले में शौच कर रहे हैं। शौचालय निर्माण, खरीदी और प्रचार-प्रसार में भ्रष्टाचार हुआ है। फिर भी स्थिति यह है कि पूरे शहर में गंदगी का अंबार है। नालियां चोक हैं, सीवेज का पानी सड़कों पर बह रहा है, लेकिन निगम ने कागजों पर आंकड़ों की बाजीगरी करके स्वच्छ भारत अभियान को पलीता लगाया है। शौचालय के अंदर ही बना दिया शौचालय सागर जिले में तो स्वच्छ भारत मिशन के तहत मकरोनिया नगर पालिका क्षेत्र में शौचालय बनाने में फर्जीवाड़ा का खुलासा नगर पालिका की एजेंसी द्वारा की गई जांच में हुआ। कुछ हितग्राहियों ने शासन से मिलने वाली 12 हजार रुपए की राशि हड़पने के लिए शौचालय के अंदर ही शौचालय बना डाला तो किसी ने घर की पानी की टंकी अथवा टैंक पर ही ईटें रखकर शौचालय बनाना बता दिया। महात्मां गांधी वार्ड क्रमांक 17 में रचना पिता शिवदयाल अहिरवार ने घर में पहले से बने शौचालय के अंदर ही एक शीट रखकर नया शौचालय निर्माण करना बताया। इन्होंने भी फर्जीवाड़ा करके शासन की राशि हड़पने का प्रयास किया। लेकिन जांच में यह भी पकड़े गए। इसी वार्ड में रविकांत पिता देवेन्द्र अहिरवार ने 16 जनवरी को रसीद क्रमांक 13/38 के तहत शौचालय निर्माण के लिए अंशदान पूंजी की रूप में 1360 रुपए जमा कराए थे। जांच में टैंक पर ईटों को रखकर उसे ही सैप्टिक टैंक बता दिया। वार्ड 17 में करोड़ी पिता लच्छू अहिरवार ने भी पानी के टैंक को सैप्टिक टैंक बताकर शासन की राशि हड़पने का प्रयास किया। इन्होंने पहले अंशदान की रसीद ही नहीं कटवाई थी। गंभीरिया वार्ड क्रमांक 4 में हितग्राही बहादुर पिता मनमोहन अहिरवार ने 25 फरवरी 2016 को रसीद क्रमांक 09/21 के द्वारा अंशदान के रूप में 1360 रुपए जमा किए थे। 7 अक्टूबर 2016 को जब इनके प्रथम चरण के निर्माण की जांच की गई तो इन्होंने गिट्टी के ऊपर ही शीट रखकर इसे ही शौचालय निर्माण बताने का प्रयास किया। जब इनकी यह कारगुजारी पकड़ी गई तो आवेदन निरस्त कर दिया गया। इसके बाद हितग्राही ने अपनी गलती स्वीकार करते हुए फिर से सही निर्माण कराया तब राशि का भुगतान हो सका। ऐसे और हितग्राही भी जांच में मिले जिन्होंने शासन की राशि हड़पने के लिए शौचालय बनाने तरह-तरह के फर्जीवाड़े किए हैं। पंचायतों में जमकर हुआ भ्रष्टाचार प्रदेश में शौचालय निर्माण के लिए जितनी भी योजनाएं आई सभी में भ्रष्टाचार हुआ है। मध्य प्रदेश में ग्राम पंचायतों और ग्राम कोषों का ऑडिट सीएजी के पर्यवेक्षण में स्वतंत्र एजेंसी के जरिए होने लगा तो गड़बड़ी मिलने का सिलसिला भी शुरू हो गया। हालांकि गड़बड़ी सामने आने के बाद सरकार ने अब नए सरपंचों को निर्माण कार्य पूरा करने की जिम्मेदारी सौंप दी है। देश को निर्मल बनाने के लिए सरकार ने हर घर में शौचालय बनाने के लिए निर्मल भारत अभियान शुरू किया था, लेकिन मप्र में यह अभियान भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया है। प्रदेश की कई पंचायतों ने तो शौचालय बनाने का बजट ही हजम कर लिया और वहां के लोग आज भी खुले में शौचालय जाने को मजबूर हैं। अगर प्रदेश में हाल ही में पंचायत चुनाव नहीं होते तो शौचालय बनाने के नाम पर भ्रष्टाचार चलता रहता और निर्मल भारत की तस्वीर कागजों पर संवरती रहती। लेकिन पंचायत चुनाव के दौरान तत्कालीन सरपंचों की पोल खोलने के लिए प्रदेशभर में जिस तरह भंडाफोड़ अभियान चला उससे सारी हकीकत सामने आ गई। सबसे पहले निर्मल भारत अभियान में भ्रष्टाचार का बड़ा मामला सतना जिले की आदिवासी बहुल्य मझगवां जनपद की 76 ग्राम पंचायतों में सामने आया। यहां विभिन्न वित्तीय वर्षों के दौरान 18 हजार 316 शौचालयों के निर्माण के लिए बतौर अनुदान दी गई 6 करोड़ 96 लाख 56 हजार रुपए की भारी-भरकम रकम में से 1 करोड़ 66 लाख 60 हजार रुपए की राशि का डंके की चोट पर दुरुपयोग हुआ। गबन की शिकार यह वह रकम है जो सरंपच और सचिवों ने काम स्वीकृत नहीं होने के बाद भी बैंक खातों से निकाल ली गई। अब इस रकम की भरपाई के लिए प्रशासन को पसीना आ रहा है। हालांकि देर से ही सही भ्रष्टाचार की खबर सामने आने के ग्रामीण विकास विभाग ने प्रदेश की 23 हजार पंचायतों में निर्मल भारत अभियान के तहत भेजी गई करीब 475 करोड़ की राशि वापस बुला ली है। इस अभियान के तहत गांवों में शौचालय और अन्य विकास कार्य होने थे पर चुनाव के दौरान इस राशि में भ्रष्टाचार होने की शिकायतों के चलते यह कदम उठाया गया है। उल्लेखनीय है कि 7 साल के अंदर पूरे देश में खुले में शौच की परंपरा के सफाए के केंद्र सरकार के संकल्प के साथ शुरू किया गया निर्मल भारत अभियान मप्र में जमीनी स्तर पर भारी भ्रष्टाचार के दलदल में फंस कर रह गया है। गबन की ऐसे खुली पोल निर्मल भारत अभियान में सतना जिले में करोड़ों के घोटाले की पोल तब खुली जब जिला पंचायत के तत्कालीन मुख्य कार्यपालन अधिकारी (सीईओ) अभिजीत अग्रवाल (वर्तमान में श्योपुर कलेक्टर) ने जिले के सभी जनपदों के सीईओ को निर्देश देकर इस आशय के ब्यौरे तलब किए कि निर्मल भारत अभियान (एनबीए) के तहत शौचालय निर्माण में राशि आहरण (व्यय), मूल्यांकन उपियोगिता और कार्यपूर्णता की अपडेट स्थिति क्या है? जब रिपोर्ट सामने आई तो पता चला कि निर्मल भारत मद में केंद्र से आए अनुदान में करोड़ों का गोलमाल हुआ है। मझगवां जनपद की 76 पंचायतों में बगैर काम के 1.66 करोड़ रुपए की राशि निकाल ली गई। जिला पंचायत के सीईओ को कमोबेश सभी जनपद सीईओ की ओर से भेजे गए प्रतिवेदनों में भी इस तथ्य को स्वीकार किया गया है कि निरंतर फोन पर, भ्रमण के दौरान, लिखित-मौखिक और बैठकों में भी सरपंच-सचिवों से अद्यतन रिपोर्ट मांगी गर्इं लेकिन प्रतिवेदन नहीं मिले। ज्यादातर जनपद सीईओ ने भी अपनी रिपोर्ट में माना है कि अनुदान राशि का निजी मद में दुरुपयोग करते हुए ऐसी गंभीर अनियमितताएं की गर्इं जो गबन की श्रेणी में आती हैं। भ्रष्टाचार की आ गई बाढ़ निर्मल भारत अभियान के तहत केंद्रीय अनुदान के भुगतान के तहत रकम जिला पंचायत द्वारा आरटीजीएस के माध्यम से जनपदों के जरिए सीधे पंचायतों के खाते में भेजी जाती है। पंचायतों के इन बैंक खातों का संचालन साझा तौर पर सरपंच और सचिव करते हैं। सरपंच और सचिवों की साठगांठ के कारण ही जिले में भारी पैमाने पर गफलत हुई। सतना जिले के मझगवां जनपद में निर्मल भारत अभियान के तहत भ्रष्टाचार का मामला सामने के बाद से तो जैसे भ्रष्टाचार की बाढ़ आ गई। एक-एक कर कई जिलों की रिपोर्ट सामने आते ही पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग ने जब प्रदेशभर के पंचायतों की प्रोग्रेस रिपोर्ट का जायजा लिया और उससे मैदानी रिपोर्ट का मिलान किया तो उसमें अरबों रुपए के भ्रष्टाचार का मामला सामने आया है। राशि की गई बंदरबाट ग्राम पंचायत स्तर पर प्रत्येक शौचालय हेतु अकुशल श्रम के तौर पर 2460 रुपए के फर्जी मस्टर भरे गए हैं और मिस्त्री, प्लंबर के नाम से भी 1760 रुपए के फर्जी बिल लगाकर राशि का आहरण किया गया हैं। ग्राम पंचायतों को मानकों से हटकर प्रदाय किए गए शौचालय की बाजार कीमत एवं दर अनुसूची से भी प्राकलन बनवाया जाए तो इस शौचालय पर 5400 रुपए से ज्यादा खर्च नहीं होगा। इस तरह मनरेगा के सिद्घांतों से हटकर राशि की बंदरबांट जनपद स्तर पर सीईओ सौरभसिंह राठौर द्वारा की गई है। भ्रष्टाचार से जुडे इस गंभीर मामले मेंं शिकायतकर्ता गोपाल राठौर द्वारा बताया गया कि इस सारे मामले की शिकायत संभागायुक्त इंदौर, अपर सचिव पंचायत एवं ग्रामीण विकास विभाग, जिला पंचायत के सीईओ से भी की गई हैं। जिसमें जिला पंचायत सीईओ द्वारा इस संबंध में कलेक्टर द्वारा दल गठित कर जांच करने की बात कही गई। कैसे होगा 2019 तक स्वच्छ मध्यप्रदेश? मप्र सरकार ने 2019 तक प्रदेश में लक्षित 90,03,900 हजार शौचालय बनाने की कार्ययोजना बनाई है। बहुत जतन करने पर अक्टूबर 2014 से दिसंबर 2016 के बीच सरकार ने लगभग 11.25 लाख शौचालय बनवाए हैं जबकि 5 साल की कार्ययोजना के अनुसार कुल लक्ष्य 90,03,900 का है। इस तरह इन दो सालों में कम से कम 36 लाख शौचालय बनने चाहिए थे। यदि इसी गति से प्रदेश सरकार ने स्वच्छता मिशन को लागू करने का काम किया तो 2019 तक लगभग 28।50 लाख शौचालय ही बन सकेंगे। इसका मतलब ये होगा कि निर्धारित लक्ष्य के बाकी 61,58,900 शौचालय बनाने के लिए 2019 के बाद 11 साल और लगेंगे। यानी लक्ष्य 2030 तक या इसके बाद ही हासिल हो सकेगा। शौचालय निर्माण के लिए दी गई राशि जिला राशि(करोड़ में) आगर मालवा 20.26 अनूपपुर 23.46 अलीराजपुर 10.40 अशोकनगर 22.64 बालाघाट 25.66 बड़वानी 20.24 बैतूल 24.72 भिंड 30.11 भोपाल 22.07 बुरहानपुर 13.97 छत्तरपुर 19.96 छिंदवाड़ा 37.07 दमोह 11.07 दतिया 16.99 देवास 14.22 धार 44.73 डिंडौरी 15.79 गुना 22.74 ग्वालियर 23.56 हरदा 10.58 होशंगाबाद 19.26 इंदौर 46.22 जबलपुर 18.10 झाबुआ 29.70 कटनी 19.08 खंडवा 45.57 खरगौन 58.93 मंडला 17.91 मंदसौर 33.76 मुरैना 19.10 नरसिंहपुर 13.93 नीमच 25.66 पन्ना 27.76 रायसेन 18.95 राजगढ़ 22.99 रतलाम 24.91 रीवा 21.98 सागर 48.56 सतना 31.80 सीहोर 18.01 सिवनी 21.02 शहडोल 22.11 शाजापुर 17.12 श्योपुर 10.01 शिवपुरी 48.70 सीधी 17.70 सिंगरौली 19.05 टीकमगढ़ 31.59 उज्जैन 27.01 उमरिया 12.97 विदिशा 40.30 कुल 1260 करोड़

दूध की कमी से मांसाहारी बन रहा मप्र

12,50,00,00,000 की चरनोई भूमि की बंदरबांट
भोपाल। जिस प्रदेश का भौगालिक क्षेत्रफल 308 हजार वर्ग किमी हो, जहां 8.71 लाख हेक्टेयर पड़त भूमि हो, कृषि भूमि 239.13 लाख हेक्टेयर हो, वन भूमि 8592.5 हजार हेक्टेयर हो और करीब 1.22 लाख हेक्टेयर चरनोई भूमि हो वहां दूध और दुधारू पशुओं की कमी चिंता का विषय है। लेकिन तमाम प्राकृतिक संपदाओं से परिपूर्ण मध्यप्रदेश में सिकुड़ती चरनोई भूमि के कारण दूध की कमी हो रही है वहीं मांस का उत्पादन बढ़ रहा है। दरअसल, विकास ने नाम पर प्रदेश में जमीनों की ऐसी बंदरबांट की गई है कि अफसरों ने रसूखदारों को पड़त और चरनोई भूमि बांट दी है। पिछले एक दशक में प्रदेश में करीब 25,000 एकड़ चरनोई भूमि पर या तो अतिक्रमण हो गया है या फिर रसूखदारों को आवंटित कर दी गई है। आलम यह है कि राजस्व रिकार्ड में तो करीब 12,50,00,00,000 रूपए की 25,000 एकड़ चरनोई भूमि दर्ज है लेकिन मौके पर वह गायब है। मप्र विधानसभा के बजट सत्र में पेश आर्थिक सर्वेक्षण ने प्रदेश में असंतुलित विकास की पोल खोल दी है। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, सोया स्टेट कहे जाने वाले मप्र में मांस और अंडे का उत्पादन बढ़ रहा है और दूध के उत्पादन में लगातार गिरावट आ रही है। इसकी मुख्य वजह है पशुपालन का महंगा होना। प्रदेश भर में चरनोई भूमि विकास की भेंट चढ़ रही है। इससे दुधारू पशुओं के लिए चारे की कमी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। अगर हम 3.63 करोड़ (29.9 करोड़ देशभर में) मवेशियों के लिए चारे की आपूर्ति में वृद्धि नहीं कर पाए तो संभवत: 4 साल बाद यानी 2021 में हमें दूध का आयात करना पड़ सकता है। 22,000 गांवों में नहीं बची चरनोई भूमि मार्च 2010 में विधानसभा में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यह आश्वासन दिया था कि प्रदेश में यदि किसी कलेक्टर ने किसी व्यक्ति के लिए चरनोई भूमि की अदला बदली की है तो ऐसे मामलो की जांच कर उसे निरस्त किया जाएगा। लेकिन आज 7 साल बाद स्थिति यह है कि प्रदेश के 54,903 गांवों में से करीब 22,000 गांवों में चरनोई भूमि ही नहीं बची है। मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा 237 (1) के तहत चरनोई भूमि को प्रथक रखा जाना है और इसपर शासन का अधिकार रहता है। लेकिन मुख्यमंत्री के आश्वासन को राजस्व अमले ने गंभीरता से नहीं लिया था क्योंकि प्रदेश में चरनोई भूमि की इस कदर बंदरबांट हुई है कि दुधारू पशु पालने की जगह अब लोग मुर्गी, बकरी, सुअर आदि पालने लगे हैं। इससे प्रदेश में अंडों और मांस का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2015-16 के दौरान मांस का उत्पादन 18.64 प्रतिशत जबकि अंडे के उत्पादन में 22 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। दूसरी ओर, दूध का उत्पादन घटा है। सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2014-15 के दौरान मांस उत्पादन 59 हजार मीट्रिक टन था जो 2015-16 में बढ़कर 70 हजार मीट्रिक टन हो गया। इसी तरह 144.14 करोड़ अंडों का उत्पादन हुआ। यह पिछले वर्ष की तुलना में 22.40 फीसदी ज्यादा है। हैरानी की बात यह है कि मांस और अंडे के उत्पादन में वृद्धि, दूध उत्पादन से अधिक है। इस दौरान प्रदेश में दूध उत्पादन में मात्र 12.70 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई है। चरनोई भूमि पूंजीपतियों के नाम प्रदेश में विकास और औद्योगिक करण के नाम पर जमीनों की सबसे अधिक बंदरबांट हुई है। इसमें अधिकांश चरनोई भूमि पूंजीपतियों के नाम कर दी गई है। ज्ञातव्य है कि 2010 में चरनोई भूमि की बंदरबांट के कारण सरकार ने सभी कलेक्टरों से भूमि की अदला बदली के आदेश वापस ले लिए थे और तत्कालीन कटनी कलेक्टर अंजू सिंह बघेल चरनोई भूमि की अदला बदली के चलते सस्पेंड कर दिया गया था। लेकिन उसके बाद भी चरनोई भूमि की बंदरबांट इस कदर जारी है कि आज 22000 गांवों की चरनोई भूमि ही गायब हो गई है। दरअसल प्रदेश में भू-माफिया, दलाल, पूंजीपतियों और राजस्व अधिकारियों की मिलीभगत से चरनोई भूमि का लूटा जा रहा है। प्रदेश में सर्वाधिक चरनोई भूमि की बंदरबांट उन जिलों में हुई है जहां तेजी से विकास हुआ है। कटनी, सतना, रीवा, शहडोल, छतरपुर, ग्वालियर, भिंड सहित करीब दो दर्जन जिलों में करोड़ों रुपए की चरनोई भूमि पर प्रशासन की ढुलमुल नीति और लचर व्यवस्था के चलते असरदार भू माफिया के कब्जे में चली गई है। सरकारी जमीन को अतिक्रमणकारियों के कब्जे से मुक्त कराने के नाम पर अधिकारी कागजी कार्रवाई में उलझे रहते हैं। चौतरफा हो रहे सरकारी जमीन पर अतिक्रमण को रोक पाने में प्रशासन बौना साबित हो रहा है। शासकीय संपत्ति का किस प्रकार दोहन किया जा रहा है और इसकी देखभाल करने के लिए रखे गए जिम्मेदार अधिकारी, कर्मचारी किस प्रकार अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरेआम भू स्वामित्व और राजस्व रिकार्ड की बेशकीमती सरकारी भूमि भू-माफिया के कब्जे जा रही है, किंतु शासन और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा है। पट्टे की भूमि को हड़पने का खेल राजस्व रिकार्ड में अहस्तांतरणीय के 'अÓ पर सफेदा लगाकर कई एकड़ भूमि को खुर्दबुर्द करने का खेल अधिकारियों व कर्मचारियों ने किया था। अधिकारियों व कर्मचारियों ने अहस्तांतरणीय का 'अÓ विलोपित कर उसे हस्तांतरणीय बना दिया जिससे पट्टा व चरनोई की हजारों एकड़ भूमि निजी फैक्ट्रियों के कब्जे में चली गई हैं और वहां बेजा निर्माण कार्य भी करा लिए गए। आलम यह है कि तहसीलदारों और पटवारियों की मिलीभगत से कब्जे की जमीन पर निर्माण करा दिए गए हैं। यही नहीं राजस्व रिकार्ड में जो भूमि वृक्षारोपण के लिए आरक्षित की गई थी, उन्हें भी दस्तावेजों में हेराफेरी कर कूटरचना कर कब्जाई गई है। जिन क्षेत्रों में चरनोई की भूमि कब्जाई गई है वहां दुधारू पशुओं की चराई की समस्या बनी हुई है। दरअसल देश में पशुधन के बेहतर उपयोग के लिए नेशनल लाइव स्टॉक पॉलिसी 2013 में कुछ चुनौतियों जिक्र किया गया है। पशुधन होने के बावजूद उनका संपूर्ण दोहन न हो पाना चिंताजनक है। सबसे पहली समस्या नष्ट होते चरागाह और पशुओं के चारे की कमी है। कुछ समय पहले जहां हरे भरे चरागाह थे या खेती थी, आज वहां वैध-अवैध कब्जा करके कंक्रीट के जंगल खड़े दिए गए हैं। जंगल काटे जा रहे हैं। खेती की भूमि निरंतर कम हो रही है। यहां तक नदियों और तालाबों तक पर अवैध कब्जा कर लिया गया है। पशुओं के पास चरने के लिए जगह नहीं है। बड़ी संख्या में आवासीय कालोनियों की जगह खेती की जगह अधिगृहीत कर ली गई। बढ़ते शहरीकरण की सबसे पहली गाज जानवरों पर गिरी है। दूसरी चुनौती उत्तम नस्लों की कमी है। पशुधन के स्वास्थ्य को लेकर सरकारें संवेदनशील नहीं है। चिकित्सा का जो ढांचा है, वह नहीं है। गांवों में आज भी कोई जानवर बीमार पड़ता है तो उसे मरने के लिए छोड़ देने के अलावा कोई चारा नहीं है। पशुपालकों में ज्ञान और जागरूकता की कमी भी बड़ी समस्या है। नई तकनीकी से दूरी और समुचति ढांचे की कमी भी समस्या से जुड़ी है। जाहिर सी बात है कि अगर इन सभी समस्याओं का बेहतर निदान ढूंढ़ लिया जाए तो पशुधन हमारी अर्थव्यवस्था और आम आदमी के जीवन स्तर को सुधारने की दिशा में और ज्यादा उपयोगी हो सकता है। पशुधन का बेहतर इस्तेमाल किसी सूबे या किसी देश को किस तरह से सफलता के ऊंचे पायदान पर ले जा सकता है, इसका ताजा उदाहरण पंजाब है। पंजाब सरकार के मुताबिक 2015 में पंजाब से 10,351 टन दूध, 426.4 करोड़ अंडे, 236.87 टन मांस का उत्पादन हुआ, जो अर्थव्यवस्था के लिए उत्साहवर्धक है। इस कामयाबी के बाद पंजाब सरकार अपने किसानों को कृषि के साथ दुग्ध उत्पादन, सुअर पालन, मुर्गी पालन और भेंड़ पालन जैसे वैकल्पिक पेशे अपनाने की भी सलाह दे रही है। ऐसा भी नहीं है कि पंजाब की तर्ज पर अन्य राज्यों में कोशिशें नहीं चल रही। अपने-अपने स्तर पर विभिन्न राज्य पशुधन के बेहतर इस्तेमाल की कोशिश में लगे हुए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर पशुधन में 3.33 फीसदी की कमी दर्ज की गई है, मगर कुछ राज्य ऐसे हैं जहां पर लगातार पशु संवर्धन हुआ है। इस मामले में सबसे अव्वल गुजरात है जहां पशुधन में 15.36 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। उत्तर प्रदेश में 14.1 फीसदी, असम में 10.77 फीसदी, पंजाब में 9.57 फीसदी, बिहार में 8.56 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। जाहिर सी बात है कि पशुधन की उपयोगिता को इन राज्यों ने बेहतर समझा है और उसका असर यहां के निवासियों के जीवन स्तर पर दिख रहा है। 2021 से शुरू हो जाएगी दूध की किल्लत सरकार के अनुमान के अनुसार, देश में जिस तेजी से चरनोई भूमि कब्जाई जा रही है उससे आगामी दिनों में दूध की किल्लत होने की संभावना है। बढ़ती आय, बढ़ती जनसंख्या और बदलते खान-पान की पसंद को बढ़ावा मिलने से देश में वर्ष 2021-22 तक दूध और दूध के उत्पादों की मांग कम से कम 21 करोड़ टन देश में तक बढ़ेगी। यानी पांच वर्षों में 36 फीसदी का इजाफा होगा। भारत में आजीविका की स्थिति के लिए तैयार स्टेट ऑफ इंडियाज लाइव्लीहुड रिपोर्ट के अनुसार, इस मांग को पूरा करने के लिए, प्रति वर्ष उत्पादन में 5.5 फीसदी की वृद्धि होनी चाहिए। वर्ष 2014-15 और 2015-16 में, दूध उत्पादन में 6.2 फीसदी और 6.3 फीसदी की वृद्धि हुई है। लेकिन मप्र में जैसी स्थिति बन रही है उससे नहीं लगता है कि यह लक्ष्य पाया जा सकता है। केंद्रीय पशुपालन सचिव देवेंद्र चौधरी का कहना है कि नस्ल सुधार और दूध उत्पादन को लेकर मध्यप्रदेश करीब 26 फीसदी लक्ष्य पूरा नहीं कर पाया है। जहां चराई क्षेत्र ज्यादा वहां उत्पादन ज्यादा इंडियाज लाइव्लीहुड रिपोर्ट के अनुसार, देश में जिन राज्यों में चराई क्षेत्र ज्यादा है वहां दूध का उत्पादन भी ज्यादा है। भारत का दूध के वैश्विक उत्पादन में लगभग 17 फीसदी का योगदान है। भारत के पशुओं की दूध उत्पादकता वैश्विक औसत से आधी (48 फीसदी) है। प्रति स्तनपायी 2,038 किलो के वैश्विक औसत की तुलना में प्रति स्तनपायी 987 किलो है। आंकड़ों के अनुसार, चारे की उपलब्धता और गुणवत्ता का सीधा असर दूध उत्पादकता की गुणवत्ता और मात्रा पर पड़ता है। वर्ष 2015 एसओआईएल रिपोर्ट के अनुसार, प्रति दिन तीन राज्य जो दूध उत्पादकता के संबंध में सबसे ऊपर हैं, उन राज्यों में 10 फीसदी से अधिक कृषि योग्य भूमि चराई के लिए निश्चित रखे गए हैं। ये तीन राज्य हैं, राजस्थान (704 ग्राम/दिन), हरियाणा (877 ग्राम /दिन) और पंजाब (1,032 ग्राम /दिन)। जबकि मध्यप्रदेश (428 ग्राम प्रतिदिन) है। वहीं राष्ट्रीय औसत 337 ग्राम /दिन है। भारत में कुल कृषि योग्य भूमि का केवल 4 फीसदी चारा उत्पादन के लिए प्रयोग किया जाता है। यह अनुपात पिछले चार दशकों से स्थिर बना हुआ है। दूध उत्पादन में मप्र देश में सातवें नंबर पर है। प्रदेश में चरनोई भूमि के लगातार कम होने का असर, दुधारू पशुओं की संख्या और दूध उत्पादन पर भी पड़ रहा है। देश में सर्वाधिक चरनोई भूमि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, आध्र प्रदेश, गुजरात, पंजाब, हरियाणा में होती है। चरनोई भूमि के मामले में मप्र सातवें स्थान पर है और दूध उत्पादन के मामले में भी सातवे स्थान पर है। देश में दुध उत्पादन (2015-16) उत्तर प्रदेश- 17.6 प्रतिशत राजस्थान- 10.5 प्रतिशत आंध्रप्रदेश- 9.61 प्रतिशत गुजरात- 7.71 प्रतिशत पंजाब- 7.31 प्रतिशत महाराष्ट 6.6 प्रतिशत मप्र- 6.5 प्रतिशत हरियाणा- 5.3 प्रतिशत तमिलनाडू- 5.2 प्रतिशत बिहार- 5.1 प्रतिशत शेष राज्य- 18.6 प्रतिशत मांग और चारे की आपूर्ति में अंतर कृषि संबंधी संसदीय समिति के दिसम्बर 2016 की इस रिपोर्ट के अनुसार, दूध की मांग को देखते हुए, चारा उत्पादन की जरूरत के लिए भूमि दोगुनी करने की आवश्यकता है। चारे की कमी अब राज्यों को कहीं बाहर से चारा मंगाने पर लिए मजबूर कर रही है। जबलपुर में एक डेयरी फॉर्म चलाने वाले सुधीर मिश्रा कहते हैं, चारे की गुणवत्ता चिंता का विषय है। अब हम चारे के लिए उत्तर प्रदेश से कोई स्रोत तलाश रहे हैं। लेकिन चारागाहों का प्रमुख हिस्सा या तो खत्म किया गया है या अतिक्रमण किया गया है, जैसा कि संसदीय समिति की रिपोर्ट में बताया गया है। भोजन और नकदी फसलों के महत्व को देखते हुए, यह संभावना बहुत कम है कि चारे के लिए जमीन में काफी वृद्धि होगी, जैसा कि संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया है वर्ष 2015 की एसओआईएल रिपोर्ट कहती है, यदि भारत पर्याप्त उत्पादन विकास दर हासिल करने में विफल रहता है, तो भारत को दुनिया के बाजार से महत्वपूर्ण आयात का सहारा लेने की आवश्यकता होगी। और क्योंकि भारत एक बड़ा उपभोक्ता है, इसलिए दूध की कीमतों में उछाल होने की भी संभावना है। डेयरी फॉर्म पर परिचालन व्यय में 60 से 70 फीसदी भोजन की लागत की हिस्सेदारी रहती है। भारत में करीब 70 फीसदी दूध का उत्पादन छोटे और सीमांत किसानों से आता है, जो देसी चारे पर निर्भर होते हैं। मिश्रा जैसे बड़े उत्पादकों की तरह वे अन्य राज्यों से चारा खरीदने में सक्षम नहीं हैं। ग्वालियर के एक डेरी संचालक अनुपम धाकड़ कहते हैं, मैंने महसूस किया कि सिर्फ एक अच्छी भैंस खरीदना पर्याप्त नहीं है, चारे की गुणवत्ता और मात्रा भी अच्छी होनी चाहिए। आपको चारे के स्रोत पर काफी समय और पैसा खर्च करना पड़ता है। धाकड़ और अन्य ग्रामीण, गांव से 5 किमी की दूरी पर एक पहाड़ी पर एक आम चारागाह का उपयोग कर रहे थे। वह कहते हैं, लेकिन वह मौसमी है और गांव के सभी मवेशियों के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए उन्होंने चारा खरीदने की कोशिश की, लेकिन ऐसा करना व्यावसायिक रूप से व्यावाहरिक नहीं लग रहा था। भूमिहीन और छोटे किसानों की आय में पशुधन का योगदान 20 से 50 फीसदी है। और परिवार जितना गरीब होता है, उतना ही आजीविका के लिए डेयरी फार्मिंग पर आश्रित होते हैं, जैसा कि एसओईएल की रिपोर्ट में बताया गया है। कृषि का काम तो मौसमी होता है। इसके विपरीत, डेयरी फार्मिंग साल भर रिटर्न प्रदान करता है। यह कृषि परिवारों में नकदी की कमी के जोखिम को कम करता है। अगर देश दूध के मामले में आत्मनिर्भर बने रहना चाहता है तो दूध और डेयरी फार्मिंग को सफल करना ही होगा। चारे की समस्या का हल निकालना ही होगा। गौवंशीय पशुओं की संख्या हो रही कम मध्य प्रदेश में गौवंशीय पशुओं (गाय-भैंस) की संख्या कम हो गई है। केन्द्रीय पशुपालन एवं मछलीपालन मंत्रालय की 19वीं पशु गणना के आंकड़े बताते हैं कि 2007 में हुई 18वीं पशु गणना के मुकाबले प्रदेश में गौवंशीय पशुधन 4 करोड़ 7 लाख से घटकर 3 करोड़ 63 लाख रह गया है। इसके साथ ही देशी पशुधन को बढ़ाकर उसे स्वदेशी अर्थव्यवस्था का आधार बनाने और राज्य सरकार के दूध उत्पादन में गुजरात को पीछे छोडऩे के दावों का सच सामने आ गया है। पशु गणना की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में गायें 10.35, भैंसे 10.35 और बकरी 11.09 प्रतिशत कम हुई हैं। गौवंश में कमी आना सरकार के लिए बेहद चिंताजनक इसलिए भी है क्योंकि ग्रामीण आबादी के 80 फीसदी लोग किसी न किसी रूप में पशुधन आधारित अर्थव्यवसथा से जुड़े हैं। देश की कुल गाय प्रजाति का सबसे अधिक 10.27 प्रतिशत मध्यप्रदेश में है। इसके बाद उत्तरप्रदेश है जहां 10.24 प्रतिशत गाय प्रजाति हंै। राजस्थान में यह 6.98 प्रतिशत व छत्तीसगढ़ में 5.14 प्रतिशत है। आंकड़ों से सरकार के गर्भाधान कार्यक्रम और देसी नस्ल के पशु बचाने के दावों की पोल खुल गई है। पशुपालन से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि पशुधन में कमी आने का सीधा मतलब यह है कि खेती के बोझ से लदे किसानों की पशुधन में रुचि नहीं रही। प्रति किसान खेती की जमीन कम होने से पशुपालन भी कठिन हो गया है। खेती में मशीनरी का उपयोग बढऩा भी इसका एक कारण माना जा रहा है। पशु चिकित्सा के लिए उपलब्ध व्यवस्थाएं भी मात्र दिखावा ही साबित हुई हैं। जैविक खेती पर भी पड़ेगा असर पशुधन में कमी आने का सीधा असर जैविक खेती बढ़ाने के प्रयासों पर पड़ेगा। प्रदेश में कितनी मात्रा में जैविक या गोबर खाद का उत्पादन हो रहा है और कितने किसान इसका उपयोग कर रहे हैं, इसका कोई लेखा-जोखा पशु संचालनालय के पास नहीं है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि गाय और भैंस की संख्या में कमी आने के बावजूद सरकार दुग्ध उत्पादन और दुग्ध उत्पादक समितियों की संख्या में बढ़ोतरी का दावा कर रही है। गौवंशीय पशुओं के अलावा बकरे-बकरियों की संख्या में भी कमी आई है। पिछली गणना में 90 लाख 14 हजार बकरे-बकरियां थे, जो घटकर 75 लाख 20 हजार रह गए हैं। इससे प्रदेश में गरीब परिवारों को बकरी पालन का लाभ देने के दावों की भी पोल खुल गई है। मांस का बढ़ता कारोबार पशुधन के लिए मुसीबत मप्र सहित देशभर में घाटे का सौदा साबित हो रही खेती और घटते चरागाह की वजह से हर साल पशुधन में तेजी से कमी हो रही है, जबकि इंसानी आबादी बढ़ रही है। मांग के बनिस्बत दूध की कमी फिलहाल देश के सामने बड़ी समस्या है। मांस का बढ़ता कारोबार भी पशुधन के लिए मुसीबत का संकेत है। ऐसे दौर में जब भारत को दुनिया के सबसे तेज विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में एक माना जा रहा है, तब सर्वाधिक चिंतित करने वाली खबर यह है कि कृषि प्रधान देश में पशुधन में तेजी से गिरावट हो रही है। देश भर में पशुधन की गणना करने वाली एजेंसी लाइव स्टाक सेंसस के मुताबिक हर साल औसतन 3.38 लाख पशुओं की कमी हो रही है। पांच साल में करीब सत्तरह लाख पशुओं की कमी दर्ज की गई है। समझने वाली बात यह है कि पशुधन न केवल खेती, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। भारत की तरक्की और खुशहाली में बुनियादी जरूरतें उपलब्ध कराने के मामले में कृषि के साथ पशुधन की भी गहरी भूमिका रही है। अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने और आम आदमी का जीवन-स्तर उठाने के लिए लिए जो क्रातिंया हुईं, उनका सीधा संबंध कृषि से है। कृषि क्षेत्र सकल घरेलू उत्पाद में करीब चौदह फीसदी का योगदान करता है। श्वेत क्रांति, नीली क्रांति या गुलाबी क्रांति का सीधा संबंध पशुधन से है। कृषि व्यवस्था में पशुधन का योगदान करीब पच्चीस फीसदी है। 25 करोड़ 226 लाख टन खाद्यान्न , 28.31 करोड़ टन फलोत्पादन, 14.1 करोड़ टन दुग्ध, 24 लाख टन मीट और अंडा उत्पादन भारत में हर साल होता है। इन्हीं आंकड़ों ने न केवल हरित, श्वेत, नील और गुलाबी क्रांति को सफल बनाया बल्कि दुनिया के सामने भारत को मजबूती के साथ खड़ा किया। भारतीय जनजीवन और अर्थव्यस्था में पशुधन कितना महत्वपूर्ण है, इसकी तस्वीर उन्नीसवीं पशुधन गणना में पूरी तरह से उभर कर सामने आती है। हमारा देश पशुधन के मामले में अपने ही आंकड़ों से पीछे जा रहा है। नवीनतम पशुधन गणना में पाया गया कि पांच साल में 3.3 फीसदी यानी 16.89 लाख पशुधन में कमी आई है। हालांकि, नवीतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 51 करोड़ 20 लाख हैं। इनमें मोटे तौर पर गाय, बैल, भैंस, बकरी, सुअर, भेंड़, घोड़े, गधे, खच्चर, ऊंट, याक और मिथुन जैसे पशु शामिल हैं। लाइवस्टॉक सेंसस के मुताबिक देश में मौजूद पशुधन में 37.28 फीसदी गोवंश, 26.40 फीसदी बकरियां, 21.23 फीसदी भैंस, 12.71 फीसदी भेंड़ और 0.37 फीसदी में मिथुन, याक, घोड़ा, खच्चर, गधा और ऊंट आदि शामिल हैं। पशुधन को संजोकर रखने की परंपरा हुई कमजोर दरअसल, देश में पशुधन को संजोकर रखने वाली परंपरा कमजोर हुई है। पशुओं के प्रति संवेदनशीलता का भाव भी कम हुआ है। हालांकि, इनकी उपयोगिता बनी हुई है। खासकर, गांव के किसान और गरीब वर्ग के लिए पशुधन संजीवनी होता है। यह हालत क्यों हुई है, इस पर गौर करना जरूरी है। पशुधन गणना के मुताबिक 2007 से 2012 के बीच दुधारू पशुओं की संख्या में थोड़ा इजाफा हुआ है। गायों की संख्या 6.25 फीसदी बढ़कर लगभग तेरह करोड़ हो गई है जबकि भैंसों की संख्या में 3.19 फीसदी का इजाफा हुआ है और इनकी संख्या अब दस करोड़ अस्सी लाख पहुंच गई है। इसके साथ ही साथ संकरित दुधारू पशुओं की संख्या में भी लगभग चार करोड़ का इजाफा हुआ है। दुधारू पशुओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई तो दुग्ध उत्पादन में 14.1 करोड़ टन उत्पादन पहुंच गया। लेकिन, देश में दूध की कमी बनी हुई है। इसी वजह से सिंथेटिक दूध का चलन भी बढ़ा है। बढ़ती मांग के हिसाब से दूध की आपूर्ति न होने के कारण नकली दूध बड़े पैमाने पर तैयार किया जा रहा है। मांस उद्योग के हवाले पशु लाइवस्टॉक सेंसस के मुताबिक मप्र सहित देश में गैरदुधारू पशुओं की संख्या में जबर्दस्त घटोतरी हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, बैल और भैंसों की संख्या में 19.32 और 17.85 फीसदी की कमी आई है। यह चिंताजनक है। बैल कभी खेती की रीढ़ हुआ करते थे। मांसाहार की बढ़ती मांग की वजह से बकरियों की संख्या में भी 3.82 फीसदी की कमी दर्ज की गई। मतलब साफ है कि इन पशुओं को मांस उद्योग के हवाले किया गया, जिससे इनकी संख्या में भारी कमी आई। भारत 24 लाख टन मांस सालाना निर्यात करके दुनिया में नंबर एक पायदान पर पहुंच गया है। इसमें मप्र का योगदान 18.69 प्रतिशत है। दरअसल, अब लोग पशुओं का पालन मांस के लिए भी कर रहे है। मप्र में छोटे जानवरों के लिए 192 स्लाटर हाउस है जबकि 34 कत्लगाह बड़े जानवरों के हैं। प्रदेश में बड़े जानवरों के लिए स्लाटर हाउस भोपाल, इंदौर, जबलपुर, बुरहानपुर, सिरोंज, सीहोर, रायसेन, हाटपिपलिया, सैलाना, खंडवा, बागली, देवास, नीमच, बैरसिया, आष्टा, इछावर, सिलवानी, नरसिंहगढ़, महिदपुर, तराना, कन्नौद में है। यहां रोजाना हजारों की संख्या में पशुओं का कत्ल होता है। दुधारू पशुओं को छोड़ दें तो भारत में लगभग हर पशुओं की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है। मसलन, भेंड़ों की संख्या 9.07 फीसदी घटोतरी हुई, उनकी संख्या इस समय छह करोड़ रह गई है। सुअरों की संख्या में 7.54 फीसदी कमी आई है। फिलहाल, इनकी तादाद एक करोड़ है। घोड़े और खच्चरों की संख्या 2.08 फीसदी घटकर साठ हजार रह गई है। रेगिस्तान का जहाज कहे जाने वाले ऊंटों की संख्या में 24.48 फीसदी की भारी गिरावट हुई है। इन सबके बीच, मुर्गीपालन में जरूर इजाफा हुआ है। इनकी संख्या सत्तर करोड़ तक पहुंच गई है। यही वजह है कि देश का मुर्गीपालन उद्योग दहाई के आंकड़े के साथ वृद्धि कर रहा है। पशुधन के मामले में भारत के शहरी और ग्रामीण आबादी का जीवन स्तर पशुपालन से किस तरह जुड़ा है, यह जानना जरूरी है। ऑल इंडिया लाइवस्टॉक सेंसस के मुताबिक भारत के लगभग छब्बीस करोड़ परिवार गाय, भैंस, बकरी, भेंड़, सुअर और मुर्गीपालन के धंधे से जुड़े हैं। यही उनकी जीविका और कमाई का बड़ा आधार है। इसमें से लगभग 19 करोड़ 56 लाख परिवार ग्रामीण अंचल के हैं और छह करोड़ 73 लाख परिवार शहरी हैं। मतलब साफ है कि पशुधन ग्रामीण अर्थव्यवस्था और जीवन के लिए आज भी जीविकोपार्जन का सबसे बड़ा और सुगम साधन हैं। शहरी और ग्रामीण इलाकों में पशुधन का पारिवारिक तौर पर जीविका के लिए जो इस्तेमाल हो रहा है, उसका वर्गीकरण लाइव स्टॉक सेंसस में कुछ इस तरह से नजर आता है। भारत में लगभग छह करोड़ तिरसठ परिवार गाय, 3.91 करोड़ परिवार भैंस, 3.3 करोड़ परिवार बकरी, 3.31 करोड़ परिवार मुर्गीपालन, दो करोड़ परिवार बड़े पैमाने पर मुर्गीपालन और मत्स्य पालन, पैंतालीस लाख परिवार भेंड़ और पच्चीस लाख लाख परिवार सुअर पालन के जरिए अपनी आजीविका चला रहे हैं। ग्रामीण परिवेश में पशुधन की उपलब्धता उन छोटे किसानों के लिए संजीवनी है, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है। ऐसे छोटे किसानों के आय का साधन गाय, भैंस और बकरियां ही हैं। पशुधन का उपयोग जिस तरह से होना चाहिए, वह आज भी नहीं हो पा रहा है। यह बात नीतिकार भी मानते हैं। पशुओं की संख्या घटी दुग्ध उत्पादन बढ़ा मप्र में अन्य क्षेत्रों की ही तरह पशुपालन और दुध उत्पादन में अफसरों की आंकड़बाजी कमाल कर रही है। प्रदेश दूध क्रांति और हरित क्रांति लाने की दावा तो सरकार खूब कर रही है, परन्तु दुधारू पशुओं की संख्या में लगातार कमी आती जा रही है। इसके विपरीत दूध उत्पादन के मामले में हम पंजाब को पीछे छोडऩे के दावे कर रहे हैं, यह कैसे संभव है जहां गाय, भैंस तथा बकरियों की संख्या में 23 लाख से अधिक कमी दर्ज की गई हो, वहां दूध उत्पादन लगातार बढ़ता जा रहा हो। विशेषज्ञों का कहना है कि दूध की पैदावारी में लगी सहकारी समितियां, विभिन्न उत्पादन कंपनियां दुग्ध की मात्रा बढ़ाने के लिए पाउडर तथा सोयाबीन से दूध बनाने में लगे हुए हैं, जबकि चरनोई भूमि बची नहीं है और चारागाह समाप्त होते जा रहे हैं। कुछ माह पहले राज्य सरकार ने दावा किया था कि हमने दुग्ध के उत्पादन में पंजाब को भी पीछे छोड़ दिया है। वर्तमान में प्रदेश में 6 हजार 506 कार्यशील दुग्ध समितियां संचालित हैं और इनमें सदस्यों की संख्या 2 लाख 37 हजार 965 है। मप्र में सांची, अमूल, सौरभ सहित कई प्रकार के दुग्ध का विक्रय किया जाता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में वर्ष 2005 में दुग्ध का उत्पादन 5.50 मिलियन टन था जो वर्ष 2015 में बढ़कर 10.78 मिलियन टन हो गया है। वहीं प्रदेश में दुधारू पशुओं की 18वीं गणना के दौरान इनकी संख्या 2,19,15000 थी, जो कि 19वीं गणना में घटकर 1,96,02000 रह गई है। यानी दुधारू पशुओं की संख्या में 23,13000 की कमी आई है। लेकिन प्रदेश में दूध उत्पादन बढ़ा है। सरकार का दावा है कि प्रदेश में दूध उत्पादन इसलिए बढ़ा है कि नस्ल सुधार के लिए प्रदेश में पशु प्रजनन कार्यक्रम शुरू किया है। 2005 में 4 लाख 73 हजार कृृत्रिम गर्भाधान होता था, अब 2015 में बढ़कर 23 लाख 87 हजार हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में गोवंशीय नस्ल सुधार के लिए नंदीशाला योजना की शुरुआत 2005-06 में हुई। पशुपालकों को डेयरी एवं बकरी इकाई प्रदाय करने के लिए विभागीय डेयरी एवं बकरी पालन योजना 2008-09 से शुरू की गई। देशी गोवंश को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से गोपाल पुरस्कार योजना 2011-12 में एवं वत्स पालन प्रोत्साहन योजना 2012-13 में शुरू की गई। इस कारण दूध उत्पादन में मप्र समृद्ध हो रहा है। मध्यप्रदेश की पशुधन संख्या गौवंशीय पशु 2,19,15,438 भैंसवंशीय पशु 91,29,152 भेड़ा/भेड़ी 3,89,863 बकरे/बकरियां 90,13,687 घोड़े/घोडिय़ां/टट्टू 27,191 खच्चर संख्या 2,617 गधे 20,199 ऊंट 4,456 सुअर 1,92,941 कुकुुल पशुधन 4,06,95,544 कुत्तों की संख्या 7,91,356 खरगोश की संख्या 10,712 कुल कुक्कुट 73,84,318