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भेड़ाघाट

Friday, September 23, 2011

यह भी दलित वह भी दलित

हमारे देश में दलित शब्द ऐसा हथियार बन गया है जो मौके की नजाकत को देखकर इस्तेमाल किया जाता है। मध्यप्रदेश में इनदिनों दो दलित चर्चा का विषय बने हुए हैं। पहला है गुना के विधायक राजिंदर सिंह सलूजा का। जिन्होंने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित गुना सीट से विधानसभा चुनाव लडऩे की खातिर दलित वर्ग का सर्टिफिकेट बनवाया और अब विधायक बन कर शेखी बघार रहे हैं कि समाज में अपमान होने के डर से यह जाहिर नहीं करते थे कि वह दलित हैं। सिर्फ इसीलिए उन्होंने अनुसूचित जाति वर्ग को प्राप्त होने वाले लाभ लेने की चेष्टा भी कभी नहीं की। हालांकि राज्य स्तरीय छानबीन समिति ने इस तर्क को नहीं माना और पूरी पड़ताल करने के बाद पाया कि सलूजा ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित गुना सीट से विधानसभा चुनाव लडऩे की खातिर गलत सर्टिफिकेट दिया था। उनकी जाति अनुसूचित वर्ग में शामिल नहीं है।
वहीं दूसरा उदाहरण है देश के जानेमाने गीतकार और मप्र के 93 बैंच के आईएएस अधिकारी रमेश थेटे का। लोकायुक्त प्रकरण में अभियोजन की अनुमति मांगी जाने के आधार पर पदोन्नति से वंचित किए जाने के आरोप में आईएएस अफसर रमेश थेटे ने आत्महत्या की धमकी दी है। मुख्य सचिव अवनि वैश्य और मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव दीपक खांडेकर को दिए नौ पेज के आवेदन में थेटे ने कहा कि शासन को करोड़ों रुपए की हानि पहुंचाने के आरोपी आठ सवर्ण अफसरों को अभियोजन की मंजूरी लंबित होने के बावजूद पदोन्नति दी गई, लेकिन दलित होने के चलते मुझे पदोन्नति नहीं दी जा रही। वर्तमान में एनवीडीए, इंदौर में संचालक के पद पर पदस्थ थेटे ने आवेदन की प्रति राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग के अध्यक्ष पीएल पूनिया को भी भेजी है। ये दोनों उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि जब अपना हित साधना होता है या फिर संकट की घड़ी आती है तभी लोगों को दलित शब्द याद आता है।
यह पहला मौक़ा नहीं है जब कोई व्यक्ति नाजायज़ तरीक़े से अपनी जाति, धर्म, रंग, इलाके को लेकर अपना बचाव करने लगे। अभी हाल ही में यूपीए सरकार ने डीएमके की ओर से मनोनीत मंत्री ए. राजा पर दूरसंचार नीलामी में भ्रष्टाचार के आरोप लगे और उन्हें तिहाड़ की हवा खानी पड़ी तो डीएमके के मुखिया एम. करूणानिधि ने दिल्ली में राजा का बचाव करते हुए कहा कि राजा पर ये आरोप इसलिए लग रहे हैं क्योंकि वे दलित हैं। बहुत पहले की बात है जब मोहम्मद अजहरूद्दीन पर मैच फि़क्सिंग के आरोप लगे थे और उन्होंने अपने बचाव में कहा थी कि अल्पसंख्यक होने के कारण उन पर यह आरोप लग रहे हैं। बाद में वे आरोप सही साबित हुए और अजहर का क्रिकेट करियर ख़त्म ही हो गया। इसके बाद इस देश में अपने ऊपर सबसे अधिक ख़र्च करने वाली आत्ममुग्धा और महत्वोन्मादी मायावती ने बात-बात में अपने आपको दलित की बेटी कहना शुरू किया और इसके एवज़ में उन्होंने अपनी तमाम करतूतों पर जान बख़्शी चाही जो गऱीबों का पेट काट-काटकर प्रतिमाएँ लगा-लगाकर मायावती कर रही थी और अपने आपको भारतीय राजनीति के इतिहास में प्रतिमायावती बना रही थी।
हम मानते हैं कि दलित समाज शोषण और उपेक्षा का शिकार रहा है जिसके अनेक कारणों में मुख्य कारण हैं उसका अशिक्षित होना। लेकिन इसके साथ ही दलित विमर्श की लिखित एवं वाचिक परंपराओं का भी तीव्र विकास हुआ है। दलित वर्ग सदैव से संघर्षशील समाज का अविभाज्य अंग रहा है। आदिकाल से आज तक दलित दशा पर यदि विचार करें तो, अनेक परिवर्तनों के बावजूद उसका मूल संघर्ष आज भी यथावत है। अगर हम दलित समाज के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले जननायकों के जीवन को देखें तो पाते है कि उन्होंने दलित शब्द को कभी भी हीन नहीं समझा। बल्कि इस शब्द को अपनी ताकत बनाया और समाज के पथ प्रदर्शक बनें। दलित मसीहा डॉ भीम राव अंबेडकर ने किसी नेता का वेश धारण नहीं किया, उनका पाखंड में विश्वास नहीं था। वे स्वयं उदाहरण बनकर अपने समाज के उत्थान में लगे रहे। जननेता के रूप में बाबू जगजीवन राम ने भारतीय राजनीति के शीर्ष पर रह कर दलितों को सामाजिक और राजनीतिक संघर्ष का एहसास कराया। जगजीवन राम ज्यादा ही विश्वसनीय दलित नेता के रूप में राजनीतिक क्षितिज पर चमके। वह राष्ट्रीय नेता थे। दलित समाज के साथ ही उन्होंने समूची भारतीयता को प्रभावित किया। इसी क्रम में सन् 1964 में सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के बाद रिपब्लिकन पार्टी, बामसेफ डीएस 4 और बहुजन समाज पार्टी तक के सफर में कांशीराम ने दलितों को एकताबद्ध कर, अत्याचारों का प्रतिरोध करने तथा उन्हें समाज में न्यायोचित स्थान बनाने के लिये जोरदार ढंग से प्रेरित किया।
सन् 1973 में स्थापित बामसेफ को बाबा साहब अंबेडकर के जन्म दिन 6 दिसम्बर को सन् 1978 में पुन: सशक्त बनाने का प्रयास किया गया। बामसेफ से कांशीराम ने दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में दलित कर्मचारियों का संगठन मजबूत बनाया। सन् 1984 में बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की गई,जो वर्तमान में उत्तर प्रदेश मेंं सत्ता में है। भीमराव अंबेडकर,जगजीवन बाबू और कांशीराम भी दलित थे लेकिन उन्होंने समाज में अपमान होने के डर से इस बात को कभी नहीं छुपाया की वे दलित हैं और ना ही समाज में दोहरी व्यवस्था से तंग आकर कभी मरने-मारने की बात कही।
भारतीय संविधान के रचयिता डॉ. भीमराव आंबेडकर के कई सपने थे। भारत जाति-मुक्त हो, फूड सरप्लस हो, औद्योगिक राष्ट्र बने, पूरी तरह शहरी हो, सदैव लोकतांत्रिक बना रहे। ये सपने जगजाहिर हैं, पर उनका एक और सपना भी था कि दलित धनवान बनें। वे हमेशा नौकरी मांगने वाले ही न बने रहें, नौकरी देने वाले भी बनें।
बात 29 अक्टूबर 1942 की है जब डॉ. आंबेडकर ने तत्कालीन गवर्नर जनरल को दलित समस्याओं से संबंधित एक ज्ञापन सौंपा। डॉ. आंबेडकर गवर्नर जनरल की एग्जेक्यूटिव काउंसिल के सदस्य थे इसलिए यह ज्ञापन पूरी तरह गोपनीय था। डॉ. आंबेडकर के लेखों और भाषणों के संग्रह के दसवें खंड में इसे पृष्ठ संख्या 404-436 पर पढ़ा जा सकता है। उक्त मेमोरेंडम में एक सेक्शन है जिसमें सीपीडब्ल्यूडी में दिए जाने वाले ठेकों का जिक्र है। डॉ. आंबेडकर के अनुसार सीपीडब्ल्यूडी द्वारा दिए गए कुल 1171 ठेकों में मात्र एक ठेका दलित को मिला है। वे दलितों को और ठेके देने की व्यवस्था की मांग करते हैं और इस बात की ओर ध्यान खींचते हैं कि हिंदू, मुसलमान और सिख ठेकेदार प्रॉफिट बना रहे हैं जबकि दलित मजदूर उनके यहां नौकरी कर रहे हैं।
वर्ष 1942 में यानी आज से 69 वर्ष पूर्व डॉ. आंबेडकर सीपीडब्लयूडी के ठेकों में दलितों की भागेदारी की मांग कर रहे थे। तब शायद कुछ ही दलित इतने पैसे वाले रहे होंगे कि ठेकेदार बनने की स्थिति में पहुंच सकें। बावजूद इन सीमाओं के, डॉ. आंबेडकर का एक प्रबल सपना था कि दलितों में मोटा पैसा बनाने वाला एक तबका जरूर पैदा हो। दुर्भाग्यवश डॉ. आंबेडकर को मानने वाले दलित उनके इस सपने को ज्यादा तवज्जो न दे सके। गैर दलित समाज ने तो इस सपने को भूल जाने में ही समझदारी समझी। अलबत्ता सुखद बात यह है कि बगैर किसी आंदोलन, बगैर किसी बड़ी मुहिम और बगैर किसी सरकारी सहयोग के आंबेडकर के सपनों की एक नई दलित पीढ़ी तैयार हो रही है। इसे दलित पूंजीवाद की संज्ञा देना गलत नहीं होगा। इसी पीढ़ी का पहला नाम है-राजेश सरैया। ये नाम टाटा, बिड़ला, अंबानी की तरह भले ही बहुचर्चित ना हो, लेकिन इनकी महत्ता किसी भी मायने में इनसे कम नहीं हैं। ये नाम उस वंचित, शोषित समाज के मेहनतकश बिरादरी के लिए गौरवान्वित करने वाला है, जिनमें हुनर तो है लेकिन उनकी पहचान एक कारीगर या दिहाड़ी मजदूर तक सीमित करके रखा गया है। जिनकी प्रतिभा को जातिगत चश्मे से नाप-तौल कर सफलता-असफलता की मुहर लगा दी गई है। लेकिन 400 मिलीयन डॉलर के मालिक के साथ देश के पहले दलित अरबपति राजेश सरैया की सफलता वर्षो पुराने उस कुंठित मानसिकता को झुठलाने के लिए काफी है।

कर्ज लेकर मौज कर रही शिवराज सरकार




विनोद उपाध्याय

कर्ज लेकर घी पीने की कहावत इनदिनों मध्यप्रदेश की शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व वाली सरकार चरितार्थ कर रही है। मध्यप्रदेश सरकार का न सिर्फ खजाना खाली है, बल्कि वर्तमान में उस पर 69,259.16 करोड़ का कर्ज भी है। इस कर्ज पर सरकार 5051.83 करोड़ रुपए ब्याज चुका रही है यानी बजट से ज्यादा ऋण राशि चुकाने में खर्च किया जा रहा है। विभिन्न संस्थाओं की आउट स्टैंडिंग पर 3,000 करोड़ की गारंटी दे रखी है। कुल जमा सरकार पर 77,990.02 करोड़ का दायित्व है। प्रदेश में आम आदमी की आर्थिक स्थिति बद से बदतर होती जा रही है। उसकी औसत सालाना आय 27,250 रुपए रह गई है जबकि गोवा जैसे छोटे से राज्य की औसत आय 1,32,719 रुपए है। ये आंकड़े शिवराज सिंह के शासनकाल की हकीकत बयां कर रहे हैं,लेकिन इन आंकड़ों से सबक लेने की बजाय सत्कार के नाम पर हर साल करोड़ों रूपए फूंके जा रहे हैं। व्यर्थ के सम्मेलनों और अपनी पार्टी के नेताओं की आवभगत में सरकार का कोष लुटाया जा रहा है। सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में इस तथ्य का खुलासा हुआ है। यह तो सर्व विदित है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान आयोजन प्रिय हैं। लेकिन पिछड़े राज्यों में शुमार होने के बावजूद मध्यप्रदेश के निवासियों की गाढ़ी कमाई से वसूले गए कर को राज्य सरकार बड़े नेताओं की आगवानी, अफसरों की आवभगत एवं अन्य मामलों में नियमों को दरकिनार कर लुटा रही है।

आडवाणी पर बेहिसाब खर्च

सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार 31 मई 2010 को वरिष्ठ भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी,पत्नी कमला और पुत्री प्रतिभा भोपाल आए थे। भोपाल में आडवाणी मुख्यमंत्री निवास में ठहरे थे, जबकि उनके निज सहायक को जहांनुमा पैलेस में ठहराया गया था। आडवाणी के साथ उनकी पत्नी और बेटी भी आई थी। अगले दिन वे पचमढ़ी गए, जहां दो दिन तक ठहरे। उन पर कुल 4.20 लाख रुपए खर्च करना बताया गया,जबकि आडवाणी के सुरक्षाकर्मियों पर 22 हजार रुपए खर्च किए गए। उन्हें शराब परोसी गई और उनके मनोरंजन के लिए नाच-गाना भी कराया गया। नियमानुसार राजकीय अतिथि को सर्किट हाउस या वीआईपी गेस्ट हाउस में ही ठहराया जा सकता है। फिर आडवाणी मुख्यमंत्री निवास में क्यों ठहरे? उनके सुरक्षाकर्मियों को भी उनके साथ होना था, जबकि ऐसा नहीं किया गया और तमाम नियमों को धता बताते हुए निज सहायक को जहांनुमा पैलेस में ठहराया गया। आडवाणी को स्टेट हेंगर में चाय-नाश्ता दिया गया, जो सुरक्षा की दृष्टि से अनुचित था। उसी दौरान आडवाणी की बेटी प्रतिभा की डाक्यूमेंटरी फिल्म दादाÓ का प्रदर्शन भी किया गया था। इसका आयोजन संस्था नवलय ने किया था लेकिन खर्च किसने उठाया, यह अब तक पता नहीं चला है।

नियमों का उल्लंघन

शिवराज सरकार ने अपनों को उपकृत करने के लिए नियमों का उल्लंघन भी किया। प्रोटोकाल अधिनियम 1958, म.प्र. पेड गेस्ट रूल के अनुसार प्रोटोकाल मद में सिर्फ पांच प्रकार का ही खर्च किया जा सकता है, जिसमें राजकीय अतिथि के आने, ठहरने, खाने, घूमने और वापस छोडऩे का प्रावधान है। इसमें यह शर्त भी है कि ये सुविधाएं सिर्फ राजकीय अतिथि को ही उपलब्ध कराई जा सकती है। राज्य सरकार ने 25 जनवरी 2011 को इस अधिनियम में कुछ संशोधन किए और मनमाने खर्च का रास्ता खोल दिया।


भोज की राजनीति

मुख्यमंत्री निवास पर वर्ष 2010 में रोजा अफ्तार, क्रिसमस और मंत्रियों को भोज देने के नाम पर बीस लाख रुपए फूंक डाले गए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने 6 सितंबर 2010 को अपने निवास पर अफ्तार पार्टी आयोजित की थी जिसमें 687 लोगों को खाने पर आमंत्रित किया था। इस का खर्च कुल 5,84,817 रुपए हुआ, यानी प्रत्येक व्यक्ति 850 रुपए। इस पूरे व्यय को मुख्यमंत्री निवास पर आयेाजित होने वाले व्यय के विशेष कोष से आहरित किया गया। इस विशेष कोष से राशि सिर्फ मुख्यमंत्री द्वारा विधानसभा सदस्यों, उनके परिवारजनों के भोजन के लिये ही खर्च की जा सकती है। इसी प्रकार एक अन्य पार्टी 12 मई 2010 की मुख्यमंत्री निवास पर आयोजित की गई जिसमें 491 व्यक्ति शामिल हुए थे जिन पर कुल 5,11,873 रुपए खर्च हुए थे। यानि प्रति व्यक्ति भोजन का खर्च 1042 रुपए आता है। इसी प्रकार 28 जुलाई 2010 को विधयकों एवं उनके परिवारजनों के लिए एक पार्टी आयेाजित की थी जिस पर 4,43,161 रुपये खर्च किये गये थे। क्रिसमस का त्यौहार मनाने के लिए मुख्यमंत्री निवास ने 4,36,720 रुपए खर्च किए।
यही नहीं मुख्यमंत्री द्वारा 16 अगस्त 2008 से 23 जुलाई 2009 की अवधि में कुल छह भोज दिए गए। इसमें 25 जुलाई 2009 को नवनिर्वाचित विधायकों और 4 जुलाई 09 को लोकसभा अध्यक्ष के सम्मान में भोज दिए गए, जिनके लिए मुख्यमंत्री को पात्रता थी। शेष तीन भोज उन्होंने अपनी राजनीति चमकाने के लिए दिए। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह दिए गए भोजों में रक्षाबंधन पर दिए गया भोज उल्लेखनीय है। मुख्यमंत्री निवास में रक्षाबंधन पर राखी बांधने आईं बहनें 2,56,425 रुपए का भोज कर गईं। जन्माष्टमी के अवसर पर सीएम हाउस में फलाहारी भोज का आयोजन किया गया। जिस पर 4,82,662 रुपए खर्च हुए। उपरोक्त पांच भोजों की कैटरिंग होटल पलाश द्वारा की गई। इसी प्रकार होटल रंजीत की कैटरिंग में 4 जुलाई 09 को दिए गए भोज पर 7,19,688 रुपए खर्च आया। इन छह भोजों पर कुल 1 करोड़, 86 लाख, 534 रुपए व्यय हुआ।
सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार अप्रैल 2004 से मार्च 2009 तक मुख्यमंत्री निवास में आगंतुकों के सत्कार पर 32,48,172 रुपए खर्च किए गए। गौरतलब तथ्य यह है कि इस अवधि में सीएम हाउस के हाउसकीपर ने समय-समय पर खरीदी की, इसके बावजूद इंडियन कॉफी हाउस, होटल पलाश, पर्यटन निगम, मनोहर डेरी, होटल द मार्क, सह्याद्रि किराना, होटल रंजीत, अजमेरा स्टोर्स, सांची पार्लर, प्रियदर्शिनी, होटल राजहंस, होटल मानसरोवर, लल्लन डेरी, जहांनुमा पैलेस, मोटल शिराज, छप्पनभोग, ब्रज इंटरप्राइजेस की सेवाएं लेकर उनका भुगतान किया गया। खर्च के ब्यौरे के अनुसार 28 मई 2007 को 16510 रुपए का दूध-घी खरीदा गया। इसी दिन में लल्लन डेरी से 13680 रुपए की खरीदी की गई। एक दिन में 30190 रुपए की डेरी सामाग्री खरीदी जाना क्या संदेहास्पद नहीं लगता? आखिर इस दिन सीएम हाउस में ऐसे कितने अतिथि आए, जिन पर इतनी बड़ी धनराशि सिर्फ डेरी मद में खर्च की गई?

सम्मेलन की नौटंकी

शिवराज सरकार के राज में प्रोटोकाल मद का दुरुपयोग करने का नया रास्ता खोजा गया है और वह है सम्मेलन करना। होली मिलन, रक्षा बंधन, ईद, क्रिसमस आदि पर्वों के नाम पर सम्मेलन किए जाते हैं। इसका पूरा खर्च प्रोटोकाल मद से किया जाता है, उसी दौरान देशभर के लोकायुक्तों का सम्मेलन भी आयोजित किया गया था। खास बात यह है कि लोकायुक्तों को स्टेट गेस्ट का दर्जा नहीं दिया गया फिर भी उन पर प्रोटोकाल मद से सारी खर्च की गई। इतना ही नहीं लोकायुक्त की पत्नी को सिल्क के कपड़े भी खरीद कर दिए गए थे, जो जन-धन का खुला दुरूपयोग है, गत दो साल से राज्य सरकार लोकायुक्त सम्मेलन, चीफ जस्टिस सम्मेलन, विधायक सम्मेलन आदि पर प्रोटोकाल मद का पैसा फूंक रही है।

क्या कहते हैं नियम?

मप्र स्टेट गेस्ट रूल्स 1958 के अनुसार यदि मुख्यमंत्री निवास में कोई राजकीय अतिथि आता है तो उस पर सरकारी मद में सत्कार पर खर्च किया जा सकता है। इसी नियम में यह भी कहा गया है कि किसी भी निजी कारण से मिलने आने वाले पर सरकार सत्कार मद में कोई राशि खर्च नहीं करेगी। इसी नियम में यह भी प्रावधान है कि मुख्यमंत्री निवास में आने वाला व्यक्ति सरकारी टेलीफोन का उपयोग नहीं कर सकेगा और यदि वह ऐसा करता है तो रजिस्टर में इसका पूरा ब्यौरा भी देगा।

नौकरशाह भी पीछे नहीं

जब मुख्यमंत्री निवास अपने आगंतुकों पर धन लुटाने में लगा रहा तो नौकरशाह भला पीछे कैसे रहते। विभागीय अधिकारियों और मंत्रियों की राज्य मंत्रालय में होने वाली बैठकों के खर्च का ब्यौरा देख कर भी आश्चर्य होता कि ये लोग मंत्रालय में बैठ कर सरकारी कामकाज निपटाते हैं या चाय-नाश्ता ही करते रहते हैं। राज्य मंत्रालय में 1 फरवरी 2009 से 31 अगस्त 2009 तक की गई विभिन्न बैठकों में मंत्रियों-अधिकारियों के चाय-नाश्ते पर 3 करोड़, 80 लाख, 716 रुपए खर्च किए गए। मात्र सात माह में हुई बैठकों पर इतनी बड़ी धनराशि खर्च होना अपने आप में आश्चर्य का विषय है।

मुख्य सचिव को मंहगी पड़ी दावत

अपनी ईमानदार छवि के लिए नौकरशाहों के बीच ख्यात प्रदेश के मुख्य सचिव अवनि वैश्य तो एक पार्टी का आयोजन करके ऐसे फंस गए हैं कि उनके खिलाफ लोकायुक्त में जांच शुरू हो गई है।
दरअसल मुख्य सचिव भोपाल में स्थित आईएएस अफसरों के क्लब अरेरा क्लब में 8 अक्टूबर 2010 को प्रदेश भर से आए आईएएस अफसरों के लिए दारु और दावत का आयोजन किया गया था। दावत मुख्य सचिव ने अपनी ओर से दी थी और इसका 1 लाख 43 लाख का बिल भी मुख्य सचिव अवनि वैश्य के व्यक्तिगत नाम से आया था। लेकिन मुख्य सचिव ने निजी बिल का भुगतान मंत्रालय की सामान्य प्रशासन की सत्कार शाखा से करा दिया। इसकी भनक लगते ही आरटीआई कार्यकर्ता अजय दुबे ने सूचना के अधिकार के तहत जानकारी निकलवाई और 18 मई 2011 को लिखित शिकायत लोकायुक्त से कर दी। उन्होंने अपनी शिकायत में आरोप लगाया कि मप्र जैसे राज्य में जहां कुपोषण सबसे ज्यादा है और गरीबों को समय से भोजन नहीं मिल रहा, वहां के मुख्य सचिव सरकारी धन का दुरूपयोग अफसरों के भोज व उनकी दारु पार्टी के लिए कर रहे हैं। उन्होंने मुख्य सचिव व राज्य के शिष्टाचार अधिकारी संजय मिश्रा जिन्होंने गलत तरीके हुए इस भुगतान को किया था के विरुद्ध भ्रष्टाचार अधिनियम के तहत कार्रवाई की मांग की। लोकायुक्त संगठन ने इस शिकायत के आधार पर अजय दुबे को 23 जुलाई 2011 को पत्र भेजकर उक्त शिकायत शपथ पत्र के साथ देने को कहा। दुबे ने शपथ पत्र के साथ दूसरी शिकायत भी भेज दी। इस शपथ पत्र के आधार पर लोकायुक्त संगठन ने मुख्य सचिव के विरुद्ध शिकायत क्रमांक 232/11 दर्ज करते हुए जांच शुरू कर दी है। संगठन ने अजय दुबे को इसकी लिखित सूचना भी भेज दी है।

कर्ज का गणित

मुख्यमंत्री एक तरफ स्वर्णिम मध्यप्रदेश का ख्वाब दिखा रहे हैं वहीं प्रदेश की काया पलटने के नाम पर प्रदेश को विश्व बैंक,एडीबी तथा डीएफआई के हाथों गिरवी रख दिया है। पिछले पांच सालों में बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के नाम पर इन विदेशी संस्थाओं से 11,577करोड़ का कर्ज लिया गया। इसी तरह सड़कों के विकास के लिए एडीबी से 1640 करोड़ का कर्ज लिया गया है, तो शहरी जलप्रदाय एवं पर्यावरण सुधार कार्यक्रम पर पहले चरण में एडीबी से 1269.70 करोड़ तथा दूसरे चरण के लिए 443.75करोड़ रुपए कजऱ् लिया गया है। एमपी अर्बन सर्विसेस फॉर द पुअर प्रोग्राम पर डीएफआईडी से 310 करोड़, ग्रामीण आजीविका परियोजना के लिए डीएफआईडी से 336 करोड़ ऊर्जा क्षेत्र में पुनर्संरचना कार्यक्रम के लिए 44 करोड़, स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधाार के लिए 432 करोड़, शासकीय कार्य प्रबंधान के सुदृढ़ीकरण के लिए 26 करोड़ का कजऱ् लिया गया है।
तेजस्विनी ग्रामीण महिला सशक्तिकरण कार्यक्रम के लिए आईफाड से 41 करोड़ का कर्ज लिया गया है। इसी तरह इंदिरा गांधाी गरीबी हटाओ कार्यक्रम के लिए विश्व बैंक से 550 करोड़ तथा 521 करोड़ का कजऱ् लिया गया। जल क्षेत्र पुनर्संरचना के नाम पर विश्व बैंक से 1919 करोड़ रुपए कजऱ् लिया जा रहा है। इसके अलावा राष्ट्रीय जल विज्ञान परियोजना के लिए विश्व बैंक से 24.67 करोड़ का कर्ज लिया गया।
कर्ज में बाजार कर्जा 21620.30 करोड़ रुपए, क्षतिपूर्ति एवं अन्य बांड 2494.82 करोड़ रुपए, वित्तीय संस्थाओं से कर्जे 3680.43 करोड़ रुपए, केन्द्र सरकार की राष्ट्रीय अल्प बचत निधि को जारी विशेष प्रतिभूतियां 14666.25 करोड़ रुपए, केन्द्र सरकार से कर्जे और पेशगियां 10378.95 करोड़ रुपए तथा अन्य कर्ज 8591.24 करोड़ रुपए हैं।
31 मार्च 2003 की स्थिति में 20,147 करोड़ रुपये का कर्ज था।