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भेड़ाघाट

Friday, July 21, 2017

2,75,00,00,000 का हरा सोना लूट ले गए माफिया

नक्सली और डकैत भी हुए मालामाल
1200 करोड़ से अधिक की आय होगी सरकार को
भोपाल। प्रदेश में इस बार हरा सोना यानी तेंदूपत्ता की लक्ष्य से अधिक तोड़ाई हुई है। राज्य लघु वनोपज संघ के अनुसार इस बार प्रदेश में निर्धारित लक्ष्य से एक लाख मानक बोरा से भी अधिक तेंदूपत्ता का संग्रहण किया जा चुका है। इस वर्ष संग्रहण लक्ष्य 22 लाख बोरे का था, लेकिन 23 लाख 12 हजार 639 मानक बोरा तेंदूपत्ता संग्रहित किया गया है। इससे सरकार को इस वर्ष लगभग 1200 से 1300 करोड़ रूपए विक्रय मूल्य मिलने की संभावना है। यह आंकड़ा और बढ़ सकता था, लेकिन माफिया, नक्सली और डकैत 2,75,00,00,000 रूपए का हरा सोना लूट ले गए। उल्लेखनीय है कि प्रदेश में महुआ के फूल और तेंदूपत्ता के तैयार होते ही वन क्षेत्रों में माफिया, नक्सली और डकैत सक्रिय हो जाते हैं। इस बार उनकी उपस्थिति सिंगरौली, सीधी, उत्तर शहडोल, उमरिया, सतना, छतरपुर, पश्चिम मण्डला, उत्तर बालाघाट, दक्षिण शहडोल, पूर्व मण्डला, दक्षिण बालाघाट एवं डिण्डौरी में रही। ये वे क्षेत्र हैं जहां इस बार महुंआ और तेंदूपत्ता का रिकार्ड संग्रह हुआ है। हैरानी की बात है कि वन विभाग पूर्व में यह आकलन नहीं कर पाया था कि किस क्षेत्र में तेंदूपत्ता अधिक संग्रहित होगा, लेकिन नक्सलियों और डकैतों को इसका अनुमान पहले ही हो गया। यानी प्रदेश के वन क्षेत्रों में वन विभाग से अधिक नक्सलियों और डकैतों की पकड़ है। पुलिस विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, इस बार प्रदेश में डकैतों और नक्सलियों की सक्रियता कुछ कम रही, लेकिन वन विभाग के अधिकारियों, ठेकेदारों और समितियों से मिलकर माफिया ने सरकार को जमकर चपत लगाई है। जमकर हुई धन वर्षा प्रदेश के वनांचल में तेंदूपत्ता संग्रहण लोगों के लिए रोजगार का एक मुख्य साधन है। कुछ वर्षों से तेंदूपत्ता संग्रहण कार्य में बहुत कमी आई है, लेकिन इस साल इसकी भरपाई होने की उम्मीद है। इसी तेंदूपत्ता के संग्रहण से मिलने वाली रकम से वन क्षेत्र के आस पास रहने वाले लोग कृषि हेतू आवश्यक बीज, खाद और कीटनाशक दवाई जैसे सामान खरीदते हैं। लोगों के लिए यह आय का एक बेहतर स्रोत है। इस वर्ष बंपर तेंदूपत्ता उत्पादन होने तथा अग्रिम निविदा में रिकार्ड विक्रय मूल्य प्राप्त होने से लगभग 33 लाख संग्राहक को संग्रहण पारिश्रमिक एवं लाभांश के रूप में काफी लाभ होने की उम्मीद है। शासन ने तेन्दूपत्ता संग्राहकों को पारिश्रमिक के रूप में 1250 रुपए प्रति मानक बोरा देने का ऐलान किया है। उधर, राज्य लघु वनोपज संघ को भी रिकार्ड आमदनी होने वाली है। राज्य लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष महेश कोरी ने बताया कि प्रदेश में निर्धारित लक्ष्य से एक लाख मानक से भी अधिक तेंदूपत्ता का संग्रहण किया जा चुका है। सर्वाधिक मात्रा में जिला वनोपज यूनियन सिंगरौली 253256, सीधी 154651, उत्तर शहडोल 137465, उमरिया 120064, सतना 91756, छतरपुर 90767, पश्चिम मण्डला 77447, उत्तर बालाघाट 71397, दक्षिण शहडोल 70601, पूर्व मण्डला 63647, देवास 59756, रायसेन 59482, दक्षिण बालाघाट 54652 एवं डिण्डौरी 53769 मानक बोरा तेन्दूपत्ता का संग्रहण किया गया है। वह कहते हैं की इस बार संग्राहकों को भी हर साल की अपेक्षा अधिक आमदनी होगी। वन विभाग के अधिकारी भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस बार प्रदेश के जंगलों में विभिन्न वनोपज खुब हुई है। अगर इसे माफिया से बचा लिया गया तो सरकार को भरपूर राजस्व मिलेगा। विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी दावा करते हैं कि मप्र में माफिया राज पूरी व्यवस्था में घुन की तरह समाया हुआ है। आलम यह है कि प्रदेश में जल, जंगल और जमीन पूरी तरह माफिया के कब्जे में है। मप्र में सफेदपोशों, माफिया और अफसरशाही का एक ऐसा गठजोड़ बन गया है जो प्रदेश के वनों से हर साल अरबों रुपए अवैध तरीके से कमा रहे हैं। लेकिन सरकारी संरक्षण के कारण कोई इनका बाल भी बांका नहीं कर पा रहा है। स्थिति यह है कि प्रदेश के जंगलों में उत्पादित होने वाला हरा सोना यानी तेंदूपत्ते को भी सफेदपोशों, माफिया और अफसरशाही ने अपने कब्जे में ले लिया है। इस कारण सरकार ही नहीं बल्कि लघु वनोपज संघ को भी मालूम नहीं है कि हर साल करीब तीन अरब का तेंदूपता कहां गायब हो जाता है। अंतरराज्यीय माफिया की हनक वन विभाग के सूत्रों के अनुसार 94668 वर्ग किलोमीटर में फैले प्रदेश के वन क्षेत्र में हर साल अच्छी गुणवता वाले करीब 35 लाख बोरा तेंदूपत्ता उत्पादित होता है। लेकिन इस बार यह आंकड़ा 40 से 42 लाख बोरा से अधिक का है। लेकिन राज्य लघु वनोपज संघ ने लक्ष्य 22 लाख बोरे का रखा था। ऐसे में माफिया की नजर उस 18-20 लाख बोरे तेंदूपत्ते पर टिक गई जो सरकार की गणना में नहीं था। प्रदेश के माफिया ने इतनी बड़ी मात्रा में तेंदूपत्ते की तस्कारी के लिए अंतरराज्यीय माफिया का सहयोग लिया। आलम यह था कि एक तरफ सहकारी समितियां, ठेकेदार सरकार के लिए तेंदूपत्ता तोड़वा रहे थे वहीं उसके समांतर माफिया के मजदूर भी पत्ते की तोड़ाई में लगे हुए थे। यह पूरा कार्य इतने सुनियोजित तरीके से चल रहा था किसी को कानोंकान खबर तक नहीं लगी। जब भी उडऩदस्ता पत्ते तोड़ाई वाले क्षेत्र में जाता उसे माफिया के मजदूरों को भी सहकारी समितियों या ठेकेदारों का मजदूर बता दिया जाता था। सूत्र बताते हैं कि अंतरराज्यीय माफिया ने अपनी हनक से ऊपर से लेकर मैदानी स्तर तक सबको मैनेज कर लिया था। उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश देश का सर्वाधिक तेंदूपत्ता उत्पादक राज्य है। राज्य शासन ने 1964 में एक अधिनियम लागू कर तेंदूपत्ते के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित किया। वनवासियों को तेंदूपत्ते के संग्रहण एवं व्यापार से और अधिक लाभ दिलाने के उद्देश्य से वर्ष 1984 में मध्यप्रदेश राज्य लघु वनोपज (व्यापार एवं विकास) सहकारी संघ मर्यादित का गठन किया गया। वर्ष 1988 में राज्य शासन ने तेंदूपत्ता के व्यापार में सहकारी समितियों को सम्मिलित करने का निर्णय लिया। इस उद्देश्य से एक त्रि-स्तरीय सहकारी संरचना की परिकल्पना की गई। मध्यप्रदेश राज्य लघु वनोपज (व्यापार एवं विकास) सहकारी संघ मर्यादित को इस संरचना के शीर्ष पर स्थापित किया गया। प्राथमिक स्तर पर प्राथमिक वनोपज सहकारी समितियां गठित की गई। द्वितीय स्तर पर जिला वनोपज सहकारी संघ गठित किए गए। वास्तविक संग्राहकों की प्राथमिक वनोपज सहकारी समितियों द्वारा तेंदूपत्ता का संग्रहण किया जाता है। इसके लिए संपूर्ण राज्य में इस बार 16 हजार से अधिक संग्रहण केन्द्र स्थापित किए गए थे। लेकिन प्रदेश के वन क्षेत्रों में इस बार करीब 18 हजार से अधिक फड़ों पर पत्ते की तोड़ाई हुई। यानी 2000 फड़ों पर माफिया ने तेंदूपत्ते का संग्रह करवाकर सरकार को करीब 3 अरब रूपए की चपत लगाई है। यूपी, छग, राजस्थान, महाराष्ट्र और तमिलनाडु में बिक्री वन विभाग के सूत्रों के अनुसार, प्रदेश में उत्पादित तेंदूपत्ता की गुणवत्ता सबसे अच्छी होती है। इसलिए देशभर के बीड़ी उद्योगों में इसकी मांग होती है। इस कारण हर साल प्रदेश में तेंदूपत्ते की तस्करी होती है। इस बार माफिया ने यहां के तेंदूपत्तों को उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के व्यावसायियों को बेचकर बड़ा मुनाफा कमाया है। तेंदूपत्ता तोड़ाई के दौरान पुलिस की चौकसी से शिवपुरी, श्योपुर, बालाघाट, कटनी, सागर, सोहागपुर, रीवा, सतना, छतरपुर, टीकमगढ़ में प्रदेश से बाहर तेंदूपत्ता ले जाते वाहनों को पकड़ा गया है। जब मामले की पड़ताल की गई तो पता चला की अंतरराज्यीय माफिया तेंदूपत्ता की तस्करी में लगा हुआ है। वह यहां के विभिन्न क्षेत्रों से अवैध रूप से तेंदूपत्ते की तोड़ाई करवाकर उसे उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, महाराष्ट्र और तमिलनाडु पहुंचा रहा है। प्रदेश में तेंदूपत्ते को अवैध रूप से ले जाने का पहला मामला शिवपुरी के करैरा में पकड़ाया। जानकारी के अनुसार करैरा एसडीओपी अनुराग सुजानिया को मुखबिरों से सूचना प्राप्त हुई थी कि 2 ट्रैक्टर तेंदूपत्ता के करैरा भितवार रोड से निकल रहे हैं। इस सूचना पर उन्होंने तत्काल ही करैरा टीआई संजीव तिवारी को कार्रवाई करने के निर्देश दिए। सूचना पर पुलिस की टीम मौके पर पहुंची और रोड पर चैकिंग को और दुरुस्त कर दिया। वाहनों की गहनता के साथ चैकिंग की गई। इसी दौरान सूचना मिली कि पुलिस के चैकिंग पॉइंट के कारण 2 ट्रैक्टर जेल के पास खड़े हुए है। पुलिस बताये स्थान पर पहुंची तो दोनों ट्रैक्टर तेंदूपत्ते से भरे मिले। पुलिस ने तेंदुपत्ता जब्त कर लिया है। इन तेंदुपत्तों की कीमत करीब 14 लाख से ज्यादा बताई गई। उसके बाद प्रदेशभर में पुलिस चौकस हुई और करीब 5 करोड़ रूपए से अधिक का अवैध तेंदूपत्ता पकड़ा। निजी गोदामों और घरों में भरा है तेंदूपत्ता प्रदेश में तेंदूपत्ते की तस्करी जोरों पर है। जानकारी के अनुसार इस बार यहां के जंगलों में वन विभाग की मिलीभगत से अवैध तरीके के पत्ते की तुड़ाई करवाकर उसे निजी गोदामों या घरों में भरकर रखा गया है। साथ ही माफिया समितियों से पत्ते अवैध तरीके से खरीद कर उसकी तस्करी कर रहा है। तेंदूपत्ता की चोरी प्रदेश के कई हिस्सों में तेजी से हो रही है और वन विभाग के अधिकारी निगरानी में असफल साबित हो रहे हैं। अभी हाल ही में रीवा के हनुमना के समीप ग्रामीणों ने तेंदूपत्ता से लदा एक ट्रक पकड़ा, जिसे पंचनामा बनाकर वन विभाग के अधिकारियों के हवाले कर दिया, लेकिन कुछ समय बाद ही वाहन को कर्मचारियों ने छोड़ दिया। जिसके चलते वह पत्ता लेकर चला गया। विभाग की इस कार्यप्रणाली को लेकर सवाल उठाए जा रहे हैं। प्रदेश में अभी तक एक दर्जन से अधिक मामले तेंदूपत्ता तस्करी के सामने आ चुके हैं। पुलिस को मिली खुफिया जानकारी के अनुसार, सिंगरौली, सीधी, शहडोल, उमरिया, सतना, छतरपुर, मण्डला, बालाघाट, डिण्डौरी, रीवा, शिवपुरी आदि जिलों में माफिया ने लोगों को प्रलाभन देकर उनके गोदामों या फिर घरों में अरबों रूपए का हरा सोना छुपाया है। लघु वनोपज संघ के अध्यक्ष महेश कोरी कहते हैं की संग्राहकों से अपील की गई है कि वे बिचौलियों के बहकावे में न आएं। निर्धारित खरीदी केन्द्र पर पहुंचकर ही वनोपज का उचित विक्रय मूल्य प्राप्त करें। वह कहते हैं की तेंदूपत्ते को सरकारी गोदामों में रखा जा रहा है। इसके लिए सतर्कता भी बरती जा रही है। 10 करोड़ वसूल ले गए नक्सली नोटबंदी के बाद नक्सलियों की आर्थिक हालत खस्ता है। नुकसान की भरपाई के लिए नक्सलियों की सेंट्रल कमेटी ने इस बार मप्र, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में तेंदूपत्ता ठेकेदारों से करोड़ों रुपए की वसूली का टारगेट दिया था। कमेटी ने मप्र में सक्रिय नक्सलियों को 8 करोड़ रुपए वसूली का टारगेट दिया था लेकिन नक्सली 10 करोड़ से अधिक वसूल ले गए। हांलाकि खुफिया जानकारी मिलने के बाद मप्र पुलिस उन तेंदूपत्ता ठेकेदारों पर पैनी नजर रखे हुई थी जो बैंक से ज्यादा कैश की निकासी कर रहे थे। पुलिस की सतर्कता से मप्र और महाराष्ट्र के नक्सलियों को पहुंचाई जा रही वसूली की बड़ी रकम पिछले महीने जब्त हुई थी। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में एक तेंदूपत्ता ठेकेदार के दो मैनेजरों को करीब 75 लाख रुपए के साथ गिरफ्तार किया गया है। वहीं, बालाघाट जिले में दो कार्रवाई में करीब 3 लाख 40 हजार रुपए जब्त किए गए हैं। दो ग्रामीण व एक ठेकेदार गिरफ्तार भी किया गया है। उनसे मिली जानकारी से यह बात सामने आई की किस तरह नक्सली तेंदूपत्ता संग्राहकों से लेवी वसूलते हैं। बालाघाट एसपी अमित सांघी का कहना है कि तेंदूपत्ता ठेकेदारों से वसूली के लिए नक्सलियों का मूवमेंट बढऩे की खबर मिलते ही चौकसी बढ़ा दी गई। पुलिस की सतर्कता के चलते दो मददगार और एक तेंदूपत्ता ठेकेदार को गिरफ्तार भी किया गया है। महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ पुलिस के साथ ज्वाइंट ऑपरेशन लगातार जारी है। ज्ञातव्य है कि मध्य प्रदेश में तेंदूपत्ता का उत्पादन बालाघाट, छिंदवाड़ा, सिवनी, मंडला, डिंडोरी, बैतूल, खंडवा, होशंगाबाद, खरगौन, झाबुआ व जबलपुर में मुख्य रूप से होता है। हर साल तेंदूपत्ते की तुड़ाई और संग्रह की तैयारी होता देख नक्सली और माफिया जंगलों में सक्रिय हो जाते हैं। जंगलों में तेंदूपता तोडऩे वाले आदिवासियों, समितियों, वन अधिकारियों के पास इनकी धमकी पहुंचने लगती है। देश में मप्र के अलावा छत्तीसगढ़, राजस्थान, आंध्रप्रदेश, गुजरात, महाराष्ट्र और झारखंड में तेंदूपत्ते का अच्छा उत्पादन होता है। पिछले एक दशक से तेंदूपत्ता माफिया, नक्सली, डकैतों के लिए कमाई का सबसे बड़ा और आसान संसाधन बन गया है। इस कारण जैसे ही मार्च का महीना शुरू होता है इनकी सक्रियता वन क्षेत्र में बढ़ जाती है। तस्करों पर कार्यवाही करने से डरते हैं वनकर्मी वन माफिया की नजर वनोपज के साथ ही पूरे जंगल पर है। जहां माफिया तेंदूपत्ता, महुआ आदि की तस्करी में जुटा हुआ है वहीं हरे-भरे जंगलों को नष्ट करने का कार्य बड़ी तेजी चल रहा हैं। धड़ल्ले से बेखौफ होकर वृक्षों पर कुल्हाडिय़ां चलाई जा रही हैं। खुलेआम वनों से हरे वृक्षों की काटाई कर बड़े शहरों मे बेंचा जा रहा है। दशकों पहले जंगल तस्करों पर वन विभाग पर खासा नियंत्रण हुआ करता था लेकिन आज स्थिति यह बन चुकी है कि आज वन माफिया निडर होकर वनों को तेजी से नेस्तनाबूत करने मे जुटे हुये हैं। जंगलों कि यदि हकीकत देखी जाय तो घने जंगल मैदान मे तब्दील हो रहे हैं। लेकिन न जाने क्या कारण है कि वन विभाग इन चोरों पर कार्यवाही नहीं कर रहा है। सूत्रों की मानें तो डकैतों के भय के चलते वन विभाग वन तस्करों पर कार्यवाही करने से भय खा रहा है। सतना से मानिकपुर तक आने वाली पैंसेंजर ट्रेन(51765) मे सूखा तेंदूपत्ता लादकर बड़े शहरों में ले जाया जा रहा है। कई महीनों से तेंदूपत्ता तस्करी का खेल चल रहा है लेकिन जानते हुए भी वनकर्मी एसे लोगों पर कार्यवाही नहीं कर रहे हैं। खुनखराबे पर उतरे डकैत प्रदेश में डकैत पिछले एक दशक से भी अधिक समय से लेवी वसूल रहे हैं। इस साल तेंदूपत्ता और महुंए की फसल अच्छी आने के साथ ही डकैत तेंदूपत्ता तुड़ाई का ठेका लेने वाले ठेकेदारों से रंगदारी वसूलने के लिए सक्रिय हो गए। डकैतों रीवा जिले के जवा एवं त्योंथर तहसील सेमरिया के जंगल, सतना जिले के मझगवां, नागौद, ऊंचेहरा, यूपी के चित्रकूट, मानिकपुर, बांदा, कर्वी एवं हड़हाई के जंगलों में सक्रिय रहेै। वन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी की मानें तो पत्ता खरीदने वाले व्यापारी मप्र में लाखों रुपए लेवी के रूप में देते रहे हैं। यह लेवी उन्हें डकैतों, माओवादियों, माफिया और सुरक्षा बलों को देनी पड़ती थी। इससे उनके जान-माल के नुकसान की आशंका न के बराबर रहती है। पिछले एक दशक का इतिहास देखें तो डकैत बिना शोर शराबे और मारपीट के तेंदूपत्ता ठेकेदारों से लेवी वसूलते थे। लेकिन इस बार डकैत मारपीट और खुन खराबे पर उतर आए। चूल्ही और सरहट इकाई में तेंदूपत्ता तोडऩे गए मजदूरों को डकैतों ने यह कह कर भगा दिया कि बिना चौथ दिए पत्ता की तुड़ान नहीं होगी। वहीं रीवा, सतना, चित्रकूट के जंगलों में मारपीट की घटनाएं भी समाने आई हैं। दरअसल, इस क्षेत्र में डकैतों को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त है। कहा तो यहां तक जाता है कि इस क्षेत्र में राजनेता डकैतों को और डकैत राजनेताओं को पालते हैं। इस समय इस क्षेत्र में ललित पटेल, बबुली कोल, गौरी यादव और गोप्पा यादव के गिरोह सक्रिय हैं। बबुली आदिवासी है और उसके सिर पर हुकूमत ने पांच लाख रुपये का इनाम घोषित कर रखा है। दो प्रदेशों के दुर्गम जंगलों से घिरी सीमाएं और राजनेताओं की कमजोर इच्छाशक्ति इन डकैतों के फलने-फूलने का कारण बनती है। वे तेंदूपत्ता, सड़क और सरकारी ठेकेदारों से चौथ वसूलते हैं। इसके बदले में वे उनकी दमन और शोषण की नीतियों का पोषण करते हैं। लेवी को लेकर गैंगवार तेंदूपत्ता से एक माह के अंदर डकैतों की इतनी कमाई हो जाती है की वे सालभर उससे अपना खर्चा चलाते हैं। यही कारण है की उत्तर प्रदेश के डकैतों का भी रूझान इनदिनों में मप्र की ओर बढ़ जाता है। दस्यु ददुआ, ठोकिया, रागिया और बलखडिय़ा ने मप्र के जंगलों में ठेकेदारों से खुब लेवी बटोरी। लेकिन अब तो लेवी के लिए गैंगवार होने लगा है। पिछले महिने दस्यु गोप्पा यादव और दस्यु ललित पटेल के बीच गैंगवार हुई थी। बताया जाता है की दोनों के बीच वसूली क्षेत्र को लेकर झगड़ा था और यह इतना बढ़ गया की गैंगवार हो गया। अब यह गैंगवार हत्या आगजनी में बदल गया है। बताया जाता है कि गैंगवार के बाद डकैत ललित ने गोप्पा यादव के मददगार थर पहाड़ निवासी मुन्ना यादव, टेढ़ी गांव निवासी रामप्रसाद और पालदेव गांव निवासी इन्द्रपाल यादव का अपहरण कर उन्हें जंगल ले और उन्हें जिंदा जला दिया। ललित पटेल का नाम 6 महीने पहले जनवरी में उस समय सुर्खियों में आया जब ललित ने अपना नया गिरोह तैयार कर मोहकमगढ़ के एक आदिवासी युवक का अपहरण कर लिया। तब पुलिस ने 10 हजार का इनाम घोषित किया। इसके बाद ललित ने लूट, डकैती, मारपीट और रंगदारी वसूलने की इतनी वारदातों को अंजाम दिया कि तीन महीने के भीतर ही उसका इनाम बढ़ाकर 30 हजार कर दिया गया। दरअसल ललित पटेल नयागांव थाना निवासी जोकर पटेल का मझला बेटा है। ललित के कई रिश्तेदार इनामी डकैत रहे हैं, ललित भी डकैतों की मदद करने लगा। कुछ दिन राहजनी और लूट भी की। इस दौरान उसने अपना गैंग बनाने का ठान लिया और दिसंबर 2016 के महीने में ललित ने नया गिरोह खड़ा कर लिया। लूट, डकैती, अपहरण जैसी घटनाओं को तो ललित करता ही रहता था। लेकिन एक साथ तीन युवकों का अपहरण करके उन्हें जिंदा जला देने की खौफनाक वारदात को उसने पहली बार अंजाम दिया है। इस घटना के बाद से लोग भारी दहशत में हैं। 500 जवान जुटे सर्चिंग में मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश में आंतक का पर्याय बने डकैत ललित और उसके गिरोह का खात्मा करने पुलिस सक्रिय हो गई है। एके-47 से लेकर इंसास जैसे हथियारों से लैस होकर 500 पुलिस के जवान जंगल में उतर गए है। सुरक्षा व्यवस्था के मददेनजर एसपी ने पुलिस मुख्यालय से एसएएफ की एक कंपनी की मांग की थी। जहां से 100 आरक्षकों का बल पहुंच चुका है। पहले से तय चौकियों पर एसएएफ के जवान डेरा जमाए हुए है। जो हर एक स्थिति से गुजरनेे को तैयार है। इसमें कई प्रकार की फोर्स शामिल है। जिसमें पेट्रोलिंग पार्टी, मोबाइल टीम, मोबाइल सर्बिलांस, थाना टीम, जिला पुलिस बल को मिलाया गया है। पुलिस को अनुमान है की दस्यु टीम एके-47 से लैस होगी। इसलिए दस्यु अभियान में लगी टीम के प्रभारियों को एके-47 जैसे अत्याधुनिक असलहा दिए गए है। वहीं टीम के अन्य 6 सदस्यों को इंसास हथियार दिया गया है। दस्यु उन्नमूलन टीम में एक थाना प्रभारी के साथ थाने के 2 आरक्षक और एसएएफ कंपनी के चार-चार जवान दिए गए है। जंगल में घुसने से एक दिन पहले ही सर्चिंग टीम को टास्क दिया जाएगा। जिससे पुलिस की गोपनीयता न भंग हो। आईजी रीवा रेंज आशुतोष राय ने बताया कि ललित गिरोह ने एक साथ तीन लोगों को जिंदा लगाकर पुलिस-प्रशासन को चुनौती दी है। जिसका खात्मा अब तय है। गिरोह के सफाए के लिए 500 जवानों को तैनात किया जा रहा है। त्यौहारों के बाद और पुलिस फोर्स बढ़ाई जाएगी। पड़ोंसी राज्य से भी समय-समय पर सहयोग लिया जाएगा। तेंदूपत्ते की कहानी आंकड़ों की जुबानी वर्ष संग्रहण दर (प्रति मा.बो.) संग्रहण मजदूरी(करोड़) 1989 43.61 150 65.42 1990 61.15 250 152.88 1991 46.16 250 115.40 1992 45.06 250 112.65 1993 41.31 300 123.93 1994 42.38 300 127.14 1995 39.56 300 118.68 1996 44.60 350 156.10 1997 40.14 350 140.49 1998 45.47 400 181.84 1999 49.37 400 194.20 2000 29.59 400 114.78 2001 21.28 400 83.09 2002 22.74 400 89.04 2003 22.25 400 87.56 2004 25.77 400 101.61 2005 16.83 400 66.37 2006 17.97 400 71.88 2007 24.21 450 108.94 2008 18.25 550 100.35 2009 20.49 550 112.67 2010 23.74 650 154.32 2011 17.06 650 110.89 2012 26.06 750 195.45 2013 26.06 950 256.32 2014 22.07 950 223.14 2015 20.34 950 203.00 2016 21.00 1250 345.17 —————-

क्या ऐसे होगी भ्रष्ट नौकरशाहों की विदाई...

8 साल, 776 दागदार, मात्र 10 निकले गुनाहगार
भोपाल। देश में भ्रष्टाचार का मूल नेता, अफसरशाही और माफिया के गठबंधन को माना जाता है। मई 2014 में नरेंद मोदी प्रधानमंत्री बने तो पूरे देश में संदेश गया कि अब भ्रष्टाचार पर प्रहार होगा। मोदी ने भी नौकरशाहों के साथ हुई पहली बैठक में साफ संकेत दे दिया की अब न तो भ्रष्टाचार और न ही भ्रष्ट बर्दास्त होंगे। आनन-फानन में प्रधानमंत्री कार्यालय(पीएमओ) और डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग (डीओपीटी) ने उन 776 दागदार नौकरशाहों की फाइल तलब की जिनके खिलाफ पिछले 5 साल से जांच चल रही थी। लेकिन वर्तमान सरकार ने 776 नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की 3 साल की जांच-पड़ताल के बाद मात्र 5 आईएएस पर विभागीय कार्रवाई की अनुमति दी है। पीएमओ और डीओपीटी की जांच को लेकर कई सवाल उठने लगे हैं, क्योंकि पिछले 8 साल(5 साल यूपीए और 3 साल एनडीए) चली जांच में वे मात्र 10 भ्रष्ट अफसरों के भ्रष्टाचार की तह तक पहुंच सके। जबकि 776 आईएएस अफसरों पर 2.72 लाख करोड़ के भ्रष्टाचार के आरोप हैं, जिनमें मप्र के 32 आईएएस भी हैं। डीओपीटी के सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, केंद्र के साथ ही विभिन्न राज्यों में पदस्थ आईएएस अफसरों में से 1476 किसी न किसी भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं। प्रधानमंत्री के निर्देश के बाद पीएमओ और डीओपीटी ने इनमें से उन 776 नौकरशाहों को चिंहित किया जिनके खिलाफ यूपीए टू के शासनकाल से जांच चल रही थी। यह खबर आते ही देश की नौकरशाही में हड़कंप मच गया था। लेकिन अब जब वह जांच रिपोर्ट आई है तो सब हैरान हैं।
जांच रिपोर्ट के आंकड़े चौकाने वाले
जानकारी के अनुसार, यूपीए शासनकाल के दौरान केंद्र और राज्यों में विभिन्न योजनाओं में करीब 2.72 लाख करोड़ रूपए के भ्रष्टाचार के लिए 776 नौकरशाहों पर आरोप लगे थे। इन नौकरशाहों के खिलाफ पीएमओ, डीओपीटी, सीबीआई, राज्यों के लोकायुक्त, इओडब्ल्यू और अन्य जांच एजेंसियों में शिकायत हुई थी। यूपीए शासनकाल के दौरान ही इनके खिलाफ हुई शिकायतों की जांच शुरू हुई थी। लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने नौकरशाही पर नकेल कसने का फैसला किया और भ्रष्टों की जांच फिर से नए सिरे से शुरू करवाई। इनमें प्रशासन चलाने वाले महत्वपूर्ण पद पर बैठे आईएएस अधिकारियों के नाम भी शामिल हैं, लेकिन इनसे जुड़ी दंडात्मक कार्रवाई के बेहद चौकाने वाले आकड़ें सामने आए हैं। एक आरटीआई के मुताबिक पिछले 8 सालों में पूरे देश में महज 10 आईएएस अफसरों पर ही कार्रवाई हुई है। कार्मिक तथा प्रशिक्षण विभाग, भारत सरकार के जन सूचना अधिकारी के. श्रीनिवासन द्वारा आरटीआई एक्टिविस्ट डॉ. नूतन ठाकुर को दी गयी सूचना में यह तथ्य सामने आया है कि पिछले 8 सालों में पूरे देश में मात्र 8 आईएएस अफसरों पर वृहत दंड और 2 आईएएस अफसर पर लघु दंड, मतलब कुल 10 अफसरों पर विभिन्न दंड हेतु विभागीय कार्यवाही की गई है। आरटीआई के मुताबिक वर्ष 2010 में वृहत दंड हेतु 01, 2011 में वृहत दंड हेतु 02 और लघु दंड हेतु 01, 2012 में वृहत दंड हेतु 01, 2013 तथा 2014 में कोई नहीं, 2015 में वृहत दंड हेतु 03, 2016 में वृहत दंड हेतु 01 और 2017 में लघु दंड हेतु 01 विभागीय कार्यवाही सम्मिलित हैं। इस संबंध में एक्टिविस्ट डा.ॅ नूतन का कहना है कि इतनी कम संख्या में कार्यवाही से यह साफ हो जाता है कि आईएएस अफसर अपनी सेवा में कितने अधिक सुरक्षित हैं। उन पर तमाम गंभीर आरोपों के बाद भी उनके खिलाफ कितनी कम कार्यवाही होती है।
राज्य सरकारों ने लगाया पलीता
जानकारी के अनुसार, केंद्र सरकार की मंशा पर राज्यों ने पलीता लगाया है। केंद्र ने राज्यों से उनके कैडर के भ्रष्ट अफसरों से फाइल तलब की थी, लेकिन राज्यों ने आधी-अधूरी जानकारियां भेंज दी। पीएमओ और डीओपीटी के अधिकारियों ने फाइलें खंगाली तो उसमें ऐसा कुछ नहीं मिला जिससे दोषियों को दंडित किया जा सके। दिल्ली में पदस्थ मप्र कैडर के एक वरिष्ठ आईएएस अफसर कहते हैं कि नौकरशाही का चरित्र किसी भी सरकार का आईना होता है। भ्रष्टाचार भले ही पूर्व सरकार में हुआ हो, अगर छापा या कार्रवाई वर्तमान सरकार में होगी तो दाग भी इसी पर लगेंगे। इसलिए सरकारों की भी कोशिश होती है की वह गड़े मुर्दे न उखाड़े। इसलिए हर सरकार अपनी नौकरशाही की साफ-सुथरी तस्वीर पेश करती है। अगर उक्त अधिकारी की बातों पर गौर करें तो निश्चित रूप से राज्यों की सरकारों ने अपने दामन पर दाग लगने की बजाए केंद्र को अंधेरे में रखना मुनासिब समझा। पीएमओ और डीओपीटी द्वारा 1476 भ्रष्ट अधिकारियों में से जिन 776 अधिकारियों को दोबारा जांच के लिए जो सूची बनाई गई है उसमें सबसे अधिक उत्तर प्रदेश के अधिकारी हैं, जबकि दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र के और तीसरे स्थान पर मप्र के अफसर हैं। उल्लेखनीय है कि भ्रष्टाचार के मामले में मप्र के 160 आईएएस अधिकारियों की फाइल को जांच के लिए पीएमओ और डीओपीटी द्वारा तलब की गई थी। प्रारंभिक जांच में प्रदेश के 32 अफसरों के मामलों को दूसरी जांच के लिए लिया गया। लेकिन हैरानी की बात यह है कि अपने 3 साल के शासनकाल में मोदी सरकार ने केवल 5 भ्रष्ट आईएएस अफसरों को ही दोषी पाया है।
अब अफसरों पर आयकर का पहरा
पीएमओ और डीओपीटी की जांच में बचे अफसरों की अब बेनामी संपत्ति की पड़ताल होगी। केंद्र सरकार ने इसके लिए आयकर विभाग को ताकीद किया है। यानी इन 776 अफसरों के साथ ही अन्य बेनामी संपत्ति वाले अफसरों पर अब पर आयकर का डंडा चलेगा। जानकारी के अनुसार, मप्र के 187 आईएएस की नामी-बेनामी संपत्ति की आयकर विभाग पड़ताल कर रहा है। मप्र के अलावा यूपी के 188 आईएएस व 250 आईपीएस अफसरों के साथ ही छत्तीसगढ़ के 50 आईएएस हैं। आयकर विभाग इन अफसरों से संबंध रखने वाले नेताओं और कारोबारियों पर भी नजर रखी है। आयकर विभाग की सेंट्रल टीम ने अफसरों, रियल इस्टेट कारोबारी, शराब माफिया, पावर प्लांट संचालकों की सूची तैयार की है, जो अपनी बेनामी संपत्ति और पैसों को किसी दूसरे के नाम पर रखकर कारोबार चला रहे हैं। आयकर विभाग के आला अधिकारियों के अनुसार किसी कंपनी में पैसा 'एÓ व्यक्ति का है और उसने प्रॉपर्टी 'बीÓ व्यक्ति के नाम से ले रखी है। जबकि 'बीÓ के पास कोई सोर्स भी नहीं है, सिर्फ नाम के लिए ही उसके नाम से रजिस्ट्रेशन करा रखा है। ऐसी प्रॉपर्टी या खातों की जानकारी लेकर आयकर विभाग बेनामी एक्ट के तहत कार्रवाई करेगा।
यह है बेनामी संपत्ति
आयकर विभाग ने एक नवंबर 2016 से नए बेनामी सौदे प्रतिबंध संशोधन कानून 2016 के तहत कार्रवाई करनी शुरू की थी। इस कानून में सात साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। आयकर विभाग के अधिकारियों ने बताया कि चल और अचल, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष और मूर्त और अमूर्त संपत्ति यदि उसके वास्तविक लाभ प्राप्तकर्ता स्वामी के बजाय किसी अन्य के नाम पर हों, तो उसे बेनामी संपत्ति कहा जाता है। पिछले साल 13 मई को बेनामी लेनदेन (निषेध) संशोधित बिल-2015 लोकसभा में पेश किया था। लोकसभा ने 27 जुलाई राज्यसभा ने दो अगस्त को संशोधित बिल को पास कर दिया। बेनामी संपत्ति को जब्त करने तथा प्रबंधन के लिए प्रशासक की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है। आयकर विभाग ने बेनामी संपत्ति मामले में देश में बड़ी कार्रवाई की है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की बेटी पर कार्रवाई से पहले आयकर विभाग ने कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश में 40 से अधिक मामलों में अचल संपत्तियों को कुर्क किया। मूल्य के हिसाब से ये संपत्तियां 530 करोड़ रुपए से ज्यादा की हैं। इसके साथ ही भ्रष्ट अफसरों की बेनामी संपत्ति के मामले में 10 सरकारी अधिकारियों के परिसरों पर छापेमारी भी की।
बेनामी संपत्ति का रिकार्ड हो रहा तैयार
जानकारी के अनुसार मप्र सहित देशभर में बेनामी संपत्ति रखने वाले नौकरशाहों का आयकर विभाग रिकार्ड तैयार कर रहा है। आयकर विभाग के अधिकारियों ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कर दिया कि वर्तमान मुहिम के बाद उनके निशाने पर बेनामी संपत्ति रखने वाले लोग होंगे। इसके बाद प्रदेश में बेनामी संपत्ति और करोड़ों रुपए दान लेने वालों की सूची को एक बार फिर तैयार किया जा रहा है।
काली कमाई छिपाने में माहिर नौकरशाही
नौकरशाहों की काली कमाई की पड़ताल सरकार दशकों से करा रही है, लेकिन कुछ ही मामलों में सरकार को सफलता मिली है। दरअसल, भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी कर्मचारी और अधिकारी काली कमाई छिपाने में माहिर हैं। भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाली एजेंसियां भी इस कमाई को उजागर करने में खास कामयाब नहीं हो पाई। यही कारण है कि रंगे हाथ रिश्वत लेने व पद के दुरुपयोग के कई मामले दर्ज करने वाली सीबीआई अधिक सम्पत्ति के मामले तलाशने में कमजोर रही। इसके विपरीत जगजाहिर है कि भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र में किस कदर छाया हुआ है। आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज करने से पहले एसीबी संबंधित अधिकारी की सम्पत्ति की जानकारी जुटाती है। यह भी जुटाया जाता है कि सम्पत्ति कब और किसके नाम से खरीदी गई। इसके बाद उसके वेतन से तुलना की जाती है। इसमें वर्षों लग जाता है और अधिकारी सेटिंग का फायदा उठाकर बरी हो जाते हैं। जहां तक मप्र की नौकरशाही की काली कमाई की बात है तो अरविंद जोशी और टीनू जोशी इसके उदाहरण हैं। मप्र में ऐसे कई अफसर हैं जिनकी काली कमाई अरविंद जोशी और टीनू जोशी से कम नहीं है, लेकिन इस बेनामी संपत्ति की जानकारी जांच एजेंसियों को शायद नहीं है। अगर आयकर विभाग के सूत्रों की माने तो पिछले एक दशक में प्रदेश के नौकरशाहों ने ही करीब 27,000 करोड़ रुपए की काली कमाई को निवेश किया है। इसके अलावा मध्यप्रदेश में पिछले एक दशक में आईएएस अफसरों सहित कई अन्य सरकारी मुलाजिमों के ठिकानों पर आयकर विभाग के छापों में अब तक करीब 1117 करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता चला है, जबकि कई हजार करोड़ की संपति आज भी जांच एजेंसियों के राडार से बाहर है। प्रशासनिक पारदर्शिता और नियम कायदों से कामकाज का ढोल पीटने वाली सरकार की नाक के नीचे नौकरशाह किस तरह सरकारी योजनाओं को पलीता लगा रहे हैं, ये छापे इसका खुलासा कर रहे हैं। आयकर विभाग, लोकायुक्त, ईओडब्ल्यू को मिली शिकायतों के अनुसार प्रदेश में पिछले एक दशक में जितने संस्थान तेजी से खुले या बढ़े हैं, उनमें नौकरशाहों की अवैध कमाई लगी हुई है। आयकर सर्वे की जद में आए निजी संस्थानों के ठिकानों से मिले दस्तावेजों और डायरी से खुलासा हुआ है कि किस तरह प्रदेश की नौकरशाहों ने औद्योगिक घरानों में अपना पैसा लगा रखा है। आयकर विभाग के सूत्रों का कहना है कि पिछले कुछ साल में विभाग ने प्रदेश में जितनी जगह छापामार कार्रवाई की है, उनमें से कुछ को छोड़कर लगभग सभी में नौकरशाहों की कमाई लगने के सुराग मिले हैं, लेकिन पुख्ता सबुत नहीं मिलने के कारण आयकर विभाग उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पा रहा है। मंत्रालयीन सूत्रों का कहना है कि प्रदेश में ऐसी कोई योजना नहीं है जिसका दोहन अफसरों द्वारा नहीं किया जा रहा है। मप्र के 400 से अधिक अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ लोकायुक्त में मामला दर्ज है, वहीं 104 लोग ऐसे हैं जिन्हें न्यायालय से भ्रष्टाचार सहित अन्य मामलों में सजा हो चुकी है, लेकिन वे जमानत लेकर नौकरी कर रहे हैं। ऐसे अफसरों की सूची पीएमओ को भेजने की बजाय प्रदेश सरकार चहेते अफसरों को क्लीनचिट देने में जुट गई है। यही नहीं करीब 207 नौकरशाहों के पैसों से प्रदेश के रीयल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन, शिक्षा, चिकित्सा और औद्योगिक संस्थान आबाद हो रहे हैं।
व्यापारी नहीें नौकरशाही कर रही व्यापार
मप्र सहित देशभर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान व्यावसायियों और अफसरों के यहां पड़े आयकर छापे में मिले दस्तावेजों में यह तथ्य सामने आया है कि आज व्यापारी व्यापार नहीं कर रहे। सारा व्यापार अधिकारियों और नेताओं ने अपनी मु_ी में कर रखा है जिससे कानून के राज पर हथौड़ा दर हथौड़ा चलाने की श्रंखला निर्मित हो गई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि नौकरशाही इन दिनों कार्य कुशलता के लिए नहीं भ्रष्टाचार के एक के बाद एक उजागर हो रहे सनसनीखेज मामलों की वजह से सुर्खियों में है। पहले किसी आईएएस अधिकारी के भ्रष्टाचार के मामले में जेल पहुंचने की कल्पना तक नहीं की जाती थी लेकिन हाल के वर्षों में मप्र कैडर के अरविंद जोशी और टीनू जोशी के अलावा उत्तर प्रदेश के स्व. अखंड प्रताप सिंह, नीरा यादव, प्रदीप शुक्ला, राजीव कुमार जैसे कई आईएएस अफसर एक के बाद एक जेल पहुंचे। ये सारे दिग्गज अफसर थे। जब इनका सिलेक्शन हुआ था तो ये अफसर अपने बैच के टॉपर थे। इसलिए अनुमान यह था कि ऐसे अफसरों के जेल जाने से आईएएस संवर्ग के अन्य सभी अफसरों में खौफ पैदा होगा। आईएएस संवर्ग प्रशासनिक क्षेत्र में अपने आप में ब्रांड सेवा है, जिसके दैदीप्यमान गौरव से बढ़कर कोई पूंजी इस सेवा में शामिल होने वाले अधिकारियों के लिए नहीं हो सकती। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ऊपर गिनाए गए नामी अफसरों के हश्र को देखने के बावजूद इस सेवा के अधिकारियों में अपने संवर्ग की प्रतिष्ठा और गरिमा की बेशकीमती पूंजी को बचाने की कोई चिंता नजर नहीं आ रही है। आईएएस सेवा अब एक ऐसे वर्ग के रूप में पहचान बना चुकी है जो विदेशियों की तरह औपनिवेशिक मानसिकता के तहत काम करती है। इस बीच कई सुझाव आए जिनमें आईएएस संवर्ग खत्म कर नए प्रशासनिक सेट-अप का खाका खींचा गया है। केंंद्र और राज्य सरकार हददर्जे की अकर्मण्यता के कारण किसी भी क्षेत्र में नवीकरण की ओर अग्रसर नहीं होना चाहती जो बहुत बड़ा अभिशाप बन चुका है। अगर आईएएस संवर्ग का विकल्प लाया जाता है तो वर्गीय गिरोहबंदी के कारण लाभ उठाने वाले भ्रष्ट अफसर काफी हद तक निरस्त हो जाएंगे और इससे व्यवस्था बदलने में बहुत सहूलियत मिलेगी। सरकार में बैठे लोगों को यह समझना चाहिए कि अगर आईएएस अधिकारी सुधर जाएं तो प्रशासन अपने आप काफी हद तक जवाबदेह हो जाएगा। क्योंकि बाकी सभी विभागों की नकेल इस संवर्ग के अधिकारियों की मु_ी में है जो छोटे मियां तो छोटे मियां बड़े मियां सुभानअल्लाह की कहावत को प्रशासनिक अराजकता के मामले में चरितार्थ कर रहे हैं। इस संवर्ग की कल्पना सुशासन के लौहकवच के रूप में की गई थी लेकिन आज इन्होंने शासन व्यवस्था में घुन का रूप ले लिया है। पहले आईएएस अधिकारी कम से कम 10-12 वर्षों तक जब कि वे छोटे जिलों में कलेक्टर तैनात होते थे, पूरी तरह ईमानदार बने रहते थे लेकिन अब दूसरे संवर्ग के अधिकारी करें तो करें, आईएएस अधिकारी भी प्रोवेशन के समय से ही कमाने का फंडा जानने में लग जाते हैं। यह भयानक स्थिति है।
करोड़ों के मालिक हैं ये भी
ऐसा नहीं है की मप्र में केवल आईएएस और आईपीएस ही करोड़ों की काली कमाई के मालिक हैं। संपत्ति के मामले में मप्र राज्य पुलिस सेवा के अफसर आईपीएस अफसरों से कहीं पीछे नहीं हैं। फॉर्म हाउस, दुकानें, बंगले, जमीनें सब कुछ है अफसरों के पास। यह खुलासा राज्य पुलिस सेवा अधिकारियों के वर्ष 2016 में भरे गए संपत्ति के विवरण की रिपोर्ट से हुआ है, जिसे मप्र पुलिस की वेबसाइट पर हाल ही में अपलोड किया गया है। राज्य पुलिस सेवा के 288 अधिकारियों ने संपत्ति का ब्योरा दिया है, जबकि कुल 1040 अफसर हैं। हालांकि जिन्होंने जानकारी दी है, उसमें खानापूर्ति ज्यादा नजर आ रही है। इस ब्योरे के लिए नया फॉर्मेट आने के बाद भी कई ने पुराने फॉर्म ही भर दिए, जबकि उसमें न विस्तृत जानकारी के कॉलम थे और न ही आज के परिपेक्ष्य के हिसाब से वो सही थे। एसडीओपी पाटन अरविंद सिंह ठाकुर ने अपनी संपत्ति को जा ब्यौरा दिया है उसके अनुसार उनके पास 5 करोड़ 80 लाख रूपए की संपत्ति है। ब्यौरे के अनुसार ग्राम कुरचरा जिला दतिया में 50 बीघा पैतृक जमीन, दतिया और भोपाल में घर। तीनों की वर्तमान कीमत पांच करोड़ 80 लाख है। उन्होंने सिर्फ शहर और गांव का नाम बताया पूरा पता नहीं। संपत्ति से कमाई साढ़े सात लाख रुपए बताई। डीएसपी लोकायुक्त रीवा देवेश पाठक की कुल संपत्ति तीन करोड़ पांच लाख है। उनके पास तीन संपत्ति हैं, तीनों ही विरासत में मिलना बताया। रीवा पांडेन टोला में 3000 वर्ग फीट का डबल स्टोरी मकान है, जिसकी कीमत डेढ़ करोड़ रुपए बताई लेकिन इससे मिलने वाला किराया सिर्फ 72 हजार रुपए सालाना बताया। डेढ़ करोड़ रुपए की कृषि भूमि है जिससे 1 लाख 81 हजार रुपए की वार्षिक आमदनी होना बताया। डीएसपी रेडियो भोपाल हरीश मोटवानी के पास एक करोड़ पांच लाख की संपत्ति है। मोटवानी के पास करीब पांच संपत्ति है, लेकिन एक भी उनके नाम पर नहीं है। सारी उनकी पत्नी नेहा मोटवानी ने अपनी सेविंग और लोन लेकर खरीदी। इसमें इंदौर में एक घर, गोडाउन, मेट्रो टॉवर में शॉप, स्कीम ई 8 में एक और शॉप और इंदौर के ही शालीमार टाउनशिप में मकान होना बताया है। कटनी में पदस्थ डीएसपी भरत सोनी ने ब्योरे में बताया कि उनके पास चार घर है। तीन सागर में और एक सीहोर में। हालांकि उनका दावा है कि किसी भी मकान से किराया नहीं मिल रहा। संपत्ति का ब्यौरा देने में अफसरों ने किस तरह की गफलत की है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कई अफसरों ने उनकी संपत्ति दान में मिलना भी बताई है। पुलिस मुख्यालय में पदस्थ डीएसपी रिसर्च एंड डेवलपमेंट के प्रतिपाल सिंह महोबिया ने अपने पास 0.24 एकड़ जमीन होना बताया है। इसकी कीमत 25 लाख रुपए है। प्रतिपाल के अनुसार यह जमीन उन्हें उनके भाई (मामा के लड़के) ने दान की है। ऐसे ही एसडीओपी मंदसौर हरिसिंह परमार के अनुसार 2 बीघा जमीन उनके ससुर ने उन्हें दान में दी। यानी अफसर अपनी संपत्ति और कमाई के स्रोत की जानकारी छुपा रहे हैं लेकिन जांच एजेंसियां उसकी पड़ताल नहीं कर पा रही हैं।
ऐसे में कैसे कम होगा भ्रष्टाचार
देश की नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए केंद्र सरकार पिछले तीन साल से कई प्रयोग कर चुकी है, लेकिन नौकरशाही का भ्रष्टाचार से मोह कम नहीं हो रहा है। जहां तक मप्र का सवाल है यहां तो लगता है जैसे भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया है। मप्र में कई अफसर रिश्वतखोरी में फंस चुके हैं लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई के नाम पर जांच चल रही है। अभी हालही में सतना नगर निगम में कमीश्रर के पद पर पदस्थ रहे सुरेंद्र कुमार कथूरिया 50 लाख रूपए की रिश्वत लेते लोकायुक्त द्वारा धरे गए। मप्र में अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों समेत कई अफसर हैं, जिन पर घूस लेने के आरोप लगे हैं। हैरानी की बात है कि ये भ्रष्ट अफसर अपने रसूख और सरकारी जांच की धीमी व्यवस्था को ढाल बनाकर बचते जा रहे हैं। चौंकाने वाला तथ्या यह है कि 1 जनवरी 2016 से 22 दिसंबर 2016 के बीच 97 अफसर ट्रेप हुए हैं, जिन्होंने 10 हजार रुपए से अधिक की रिश्वत मांगी। नौ मामलों में छापे की कार्रवाई की गई, जिसमें 1 करोड़ रुपए से अधिक अघोषित आय सामने आई। इन आंकड़ों से यह भी साफ है कि मध्यप्रदेश में पूरे साल के दौरान हर तीसरे-चौथे दिन एक भ्रष्ट अफसर को पकड़ा गया। लेकिन कार्रवाई के नाम पर खानापूर्ति की जा रही है। लोकायुक्त की कार्रवाई के बाद आईपीएस अफसर मयंक जैन तीन साल से निलंबित हैं, लेकिन अभी तक न जांच पूरी हुई और न चालान पेश किया गया। आईपीएस मयंक जैन के यहां 2014 में पड़ा था छापा, तब लोकायुक्त ने सौ करोड़ से भी अधिक की संपत्ति होने की बात कही गई। खरगौन में 45 एकड़ जमीन और उज्जैन में प्लॉट व इंदौर में तीन फ्लैट भी बताए गए। भोपाल में भी संपत्ति मिली। जैन तभी से निलंबित चल रहे हैं। उन्हें पीएचक्यू में अटैच किया गया है। लेकिन अभी भी चालान पेश होने का इंतजार है। 2015 में आईएएस अफसर जेएन मालपानी का घूस मांगता ऑडियो रिटायरमेंट से ठीक पहले आया था। आदिवासी कल्याण विभाग बड़वानी में पदस्थ संयुक्त आयुक्त आरके श्रोती और मालपानी के बीच रिश्वत मांगने का ऑडियो वायरल हुआ। इसकी पुष्टि होने के बाद मालपानी को रिटायरमेंट से ठीक पहले सस्पेंड कर दिया गया। मामला अभी विचाराधीन है। आईएफएस अफसर अजीत कुमार श्रीवास्तव के मामले में तो सर्वाधिक राशि 55 लाख रुपए इनवॉल्व थी। उन पर टिंबर व्यापारी अशोक रंगा से 55 लाख रुपए की रिश्वत मांगने का आरोप लगा। बातचीत का ऑडियो जारी हुआ। श्रीावास्तव मुख्यालय अटैच हुए। रिश्वत की जांच के बाद लोकायुक्त ने कहा, बातचीत में इसकी पुष्टि नहीं हो रही। अभी इनके खिलाफ मामला शासन स्तर पर पेंडिंग है। इनके अलावा कई अन्य अधिकारियों के यहां छापे में नामी-बेनामी संपत्ति मिली लेकिन उनके खिलाफ बड़ी कार्रवाई नहीं हो सकी। इनमें सीपी शर्मा, ईई, भोपाल, नन्हेंलाल वर्मा, तहसीलदार, रीवा, विनोद पांडे, जिपं सीईओ, सागर, ब्रजेंद्र कुमार माथुर, ईई, इंदौर, प्रवेश सोनी, ईई, इंदौर, योगेश परयानी, ब्रांच मैनेजर, कैनरा बैंक, रवींद्र मथूरिया, अधीक्षक, उज्जैन, संजय जायसवाल, सचिव, पंचायत, बुद्धुलाल पटेल, सचिव, पंचायत, भंवरलाल मकवाना, सचिव पंचायत आदि शामिल हैं। यही नहीं इंदौर में नियम के विपरीत आश्रय निधि भरवाकर एक निजी टाउनशिप को फायदा पहुंचाने के मामले में फंसे तीन अफसर सरकार में अभी अहम पदों पर हैं। आश्रय निधि का विकल्प नहीं होने पर भी शुल्क लेने के घोटाले की जांच ईओडब्ल्यू में लंबे समय से अटकी है। इसमें फंसे अफसर उमाशंकर भार्गव अभी मुख्यमंत्री कार्यालय में उपसचिव हैं। दूसरे अफसर मनोज पुष्प इंदौर बिजली कंपनी में सीईओ हैं, जबकि तत्कालीन टीएंडसीपी के डायरेक्टर विजय सावलकर अभी ट्राइफेड में संयुक्त निदेशक हैं। भार्गव और पुष्प ने जिला प्रशासन में एसडीओ रहते गलत तरीके से आश्रय निधि भरवाकर जमीन छुड़वा दी थी। लेकिन आज ये महत्वपूर्ण पद संभाल रहे हैं।
केंद्र के रडार पर 67 हजार अधिकारी-कर्मचारी
मप्र सहित अन्य राज्यों की सरकारों ने केंद्र सरकार के निर्देश के बाद भी अपने नकारा अफसरों की परफार्मेंस रिपोर्ट बेहतर बताकर उन्हें अनिवार्य सेवानिवृति से बचा लिया है, लेकिन केंद्र सरकार ने आईएएस, आईपीएस जैसे सीनियर अधिकारियों से लेकर जिम्मेदार पदों पर आसीन बाबुओं तक 67 हजार सरकारी कर्मचारियों के कामकाज की समीक्षा शुरू की है। मकसद है अच्छा और खराब प्रदर्शन करने वाले कर्मचारियों की पहचान। सेवा से जुड़े कोड ऑफ कंडक्ट का पालन नहीं करने वाले कर्मचारियों को दंडित भी किया जा सकता है। नियम के अनुसार सरकारी कर्मचारियों के कामकाज का आकलन उनकी सेवाकाल में दो बार किया जाता है। इनमें से पहला सर्विस के लिए चुने जाने के 15 साल पर और दूसरा इसके 25 वर्ष के बाद। पिछले एक वर्ष में केन्द्र सरकार ने काम नहीं करने वाले 129 कर्मचारियों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी है। इनमें आईएएस और आईपीएस अधिकारी भी शामिल हैं। दरअसल, आज भारतीय नौकरशाही लापरवाही, सुस्ती और भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई है। समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों में उसके बारे में जो निष्कर्ष आते हैं, उससे देश को शर्मसार होना पड़ता है। समाज में आम धारणा बन गई है कि कोई भी सरकारी काम समय पर नहीं होता। निचले स्तर की सरकारी नौकरी के बारे में तो पक्की राय यही है कि इसमें लोग आराम फरमाते हैं और बिना रिश्वत के कोई काम नहीं करते। जाहिर है, सरकारी तंत्र के इस रवैये ने ही विकास कार्यों की गति बढऩे नहीं दी है। अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत अगर भूमंडलीकरण का लाभ ढंग से नहीं उठा पाया है, तो इसकी मुख्य जवाबदेह यहां की नौकरशाही पर आती है। अनेक पूंजी निवेशकों ने नौकरशाही के ढीले-ढाले रवैये की वजह से ही भारत से मुंह मोड़ लिया है। इसलिए नौकरशाही को चुस्त-दुरुस्त बनाना बेहद जरूरी है। बकौल कार्मिक राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह, सरकार करप्शन को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाना चाहती है, साथ ही ईमानदारी से काम करने वालों के लिए अनुकूल माहौल भी बनाना चाहती है। तंत्र को दुरुस्त करने का सरकार का यह प्रयास सराहनीय है, बशर्ते इसे निष्पक्षता और सख्ती के साथ किया जाए और इसका कोई ठोस नतीजा निकले। और यह काम सख्ती से ही होगा। सच्चाई यह भी है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने प्रशासनिक अमले को एक वोट बैंक की तरह देखा और इसे अनेक तरह से संतुष्ट रखने की कोशिश की। उन्होंने इसका प्रदर्शन सुधारने के बजाय इसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक फायदे के लिए किया। मोदी सरकार को इस प्रलोभन से बचना होगा। उसे यह भी समझना होगा कि नौकरशाही तभी बेहतर परफॉर्म कर पाएगी, जब राजनीतिक तंत्र खुद भी स्वच्छ हो, क्योंकि दोनों का गहरा संबंध है।
भ्रष्ट अधिकारियों की अब खैर नहीं
भले ही अपने तीन साल के कार्यकाल में केंद्र सरकार भ्रष्ट नौकरशाहों पर अधिक सख्त नजर नहीं आई लेकिन भ्रष्टाचार कि खिलाफ उसकी सख्ती से नौकरशही में भय का माहौल है। भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार जीरो टॉलरेंस की नीति पर अब तेजी से आगे बढ़ रही है। मोदी सरकार ने भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ डिपार्टमेंटल प्रोसिडिंग को तेज करने के लिए नया सिस्टम लागू कर दिया है। जिसे ऑनलाइन डिपार्टमेंटल प्रोसिडिंग प्रोसेसिंग सिस्टम नाम दिया गया है। डीओपीटी के अधिकारियों का कहना है कि भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आए सरकारी अधिकारी की जांच में पहले 8 से 10 साल लग जाता था। लेकिन अब सरकार ने ऑनलाइन डिपार्टमेंटल प्रोसिडिंग प्रोसेसिंग सिस्टम लागू कर दिया है। इस सिस्टम के तहत 2 साल के अंदर ही अधिकारियों के खिलाफ जांच पूरी करनी होगी। जांच में लंबा समय लगने के कारण बेकसूर अधिकारी बेवजह शर्मिंदगी की जिंदगी जीने पर मजबूर रहते थे और कभी-कभी ये शर्मिंदगी आत्महत्या का कारण भी बन जाती थी। लेकिन इस नये सिस्टम से दोषी अधिकारियों पर तुरंत कार्रवाई हो सकेगी और बेकसूर अधिकारियों को जल्द इंसाफ मिलेगा। जानकारी के मुताबिक इस समय 39 आईएएस अधिकारियों के खिलाफ डिपार्टमेंटल जांच चल रही है। साथ ही केंद्रीय सचिवालय सर्विस के 29 अधिकारी की भूमिका जांच के दायरे में हैं। और ये भी जानकारी मिली है कि क्लास 'एÓ के 3000 से ज्यादा अधिकारियों अधिकारियों की एक लिस्ट बनाई गई है जो इस समय भ्रष्टाचार के मामलों में जांच का सामना कर रहे है।
65 पूर्व आईएएस ने चिट्ठी लिख जताई चिंता
भारत में सरकारी दफ्तरों के राजनीतिकरण से अब पूर्व अधिकारी भी परेशान होने लगे हैं। 65 पूर्व आईएएस अफसरों ने एक खुली चि_ी में लोकतांत्रिक मूल्यों पर हो रहे हमलों पर चिंता जताई है। इन रिटायर्ड अधिकारियों ने अपने साथी अफसरों को आगाह किया है कि ये वक्त, संवैधानिक दायित्वों के कड़े इम्तहान का भी है। विघटनकारी शक्तियों के खिलाफ एकजुट होने की अपील करते हुए, ये चि_ी प्रशासकीय बिरादरी को भी झंझोड़ती है। अति राष्ट्रवाद के उभार के खतरों को रेखांकित करते हुए चि_ी में सरकारी अधिकारियों, संस्थानों और संवैधानिक संस्थाओं से अपील की गई है कि वे उन्मादी प्रवृत्तियों पर लगाम लगाने की कोशिश करें क्योंकि संविधान की मूल भावना की हिफाजत उनका मौलिक दायित्व है। इस चि_ी के बहाने अफसरशाही पर नजर डालने का भी अवसर मिलता है। सवाल यही है कि आखिर वो कौन सी नींद है जिसमें इस देश का नौकरशाह सोया हुआ है। शांति और भाईचारा ही नहीं, अन्य बदहालियों का भी सवाल है। शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य और तमाम वे सूचकांक देखिए जिनका संबंध ओवरऑल मानव विकास और नागरिक कल्याण से है। संविधान में दर्ज ये जिम्मेदारियां आखिर हैं तो उस अफसरशाही की जो यूं तो संख्या में कम है लेकिन जिसका प्रभामंडल विराट है।
प्रशासन का गिरता स्तर
चिट्ठी में सिविल सेवा अधिकारियों की गुणवत्ता की परख के लिए विश्व बैंक द्वारा जारी 2014 के सूचकांक का भी जिक्र किया है जिसमें भारत को 100 में से 45 अंक ही मिले। जबकि 1996 में विश्व बैंक ने जब पहली बार इस तरह का सर्वेक्षण किया था तो ये दर 10 फीसदी ज्यादा थी। 1950-2015 की अवधि में आईएएस परीक्षा में सफलता की दर का आंकड़ा यूपीएससी ने खुद जारी किया है। इसके अनुसार 1950 में ये दर 11.26 फीसदी थी। 1990 में ये 0.75 फीसदी हुई, 2010 में 0.26 फीसदी रह गई और 2015 में तो ये 0.18 फीसदी पर सिमट गई। 2016 में करीब चार लाख सत्तर हजार अभ्यर्थियों में से सिर्फ 180 आईएएस चुने गये। इससे कई सवाल उठते हैं। परीक्षा के बुनियादी ढांचे में गड़बड़ी है? सीटों की संख्या कम है? सवाल गुणवत्ता का भी है। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार इन चयनित अधिकारियों में यही पाया गया कि वे बस न्यूनतम शैक्षिक योग्यता को ही पूरा करते हैं यानी सिर्फ स्नातक हैं। उनमें से भी अधिकांश तीन चार कोशिशों के बाद सफल हुए हैं और कई ऐसे हैं जो दूसरे पेशों से आए हैं और उनकी उम्र अधिकतम है। दूसरी ओर कॉरपोरेट जगत के पैकेज और काम की बेहतर परिस्थितियों की वजह से प्रतिभाशाली युवाओं को प्रशासनिक सेवाओं की ओर आकर्षित करना कठिन चुनौती है। अफसरों की ट्रेनिंग का भी सवाल है। मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी अपनी संरचना में जितनी भव्य दिखती है, उतना ही औपनिवेशिक भी। बेशक यहां राष्ट्रपति, राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ और विशेषज्ञ आदि व्याख्यान देने आते हैं लेकिन लगता है, प्रशिक्षु अफसरों की ट्रेनिंग का मूल मंत्र जी मंत्रीजी की बाबू मानसिकता और यथास्थिति को बनाए रखना है। राजनैतिक दखल की यही पीड़ा उपरोक्त चि_ी में अपने ढंग से अभिव्यक्त हुई है। 2010 के एक सर्वे के मुताबिक सिर्फ 24 फीसदी अधिकारी मानते हैं कि अपनी पसंद की जगहों पर पोस्टिंग, मेरिट के आधार पर होती है। हर दूसरे अधिकारी का मानना है कि राजनैतिक हस्तक्षेप एक प्रमुख समस्या है। प्रमोशन, तबादले, पोस्टिंग आदि भी नियमों को ठेंगा दिखाकर नेता-मंत्री-अफसर के गठजोड़ की दया पर निर्भर हैं। इस गठजोड़ में अब कॉरपोरेट-ठेकेदार-दलाल भी शामिल हो गये हैं।
बढ़ता राजनीतिक हस्तक्षेप
चिट्ठी में जिक्र है कि राजनीतिक संपर्कों के आधार पर अधिकारियों को मलाईदार ओहदे दिए जाते हैं और रिटायरमेंट के बाद किसी निगम या आयोग की अध्यक्षता-सदस्यता देकर उनका पुनर्वास भी कर दिया जाता है। इस व्यवस्था में जो अफसर स्वतंत्र ढंग से काम करना चाहता है तो उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि प्रशासनिक सुधारों की कोशिश नहीं की गई। इसके लिये 1966 में पहला प्रशासनिक सुधार आयोग बनाया गया था। इसी आयोग ने पहले पहल लोकपाल के गठन की सिफारिश की थी। लेकिन सुधारों को लेकर कितनी गंभीरता है इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि दूसरा सुधार आयोग 2005 में जाकर बना। वीरप्पा मोइली इसके अध्यक्ष थे। लेकिन इसकी सिफारिशें लागू करने का दम किसी सरकार ने नहीं दिखाया। न खाऊंगा न खाने दूंगा वाली ललकार भी इस मामले पर दुबकी हुई सी दिखती है। पूर्व आईएएस अधिकारियों की चि_ी, प्रशासकीय कुशलता में गिरावट पर क्षोभ की अभिव्यक्ति है। यही वो पतन है जो फिर अलग अलग ढंग से दिखता है।
साफ-सुथरी नौकरशाही
दिल्ली में पदस्थ मप्र कैडर के एक वरिष्ठ आईएएस अफसर कहते हैं कि देश में एक बार फिर नौकरशाही की सोच और व्यवहार में तब्दीली की बात उठ रही है। लेकिन नौकरशाही से पार पाना मुश्किल है। दरअसल, नौकरशाही घोड़े की तरह होती है जो अपने सवार की गर्मी को महसूस करने के बाद ही अपनी चाल का फैसला लेती है। घोड़े को यदि भान हो जाये कि उसके सवार में दम नहीं है तो घोड़ा उस पर हावी हो जाता है। इसी तरह नौकरशाह को यदि पता चल जाता है कि जिसके मातहत में वह काम कर रहा है, उसमें आवश्यक जानकारी का अभाव है तो वह मनमानी शुरू कर देता है। वह कहते हैं कि वर्तमान सरकार के रूख को भांपकर नौकरशाही ने भी पैतरा बदल लिया है। भारतीय नौकरशाही के बारे में एक शिकायत यह भी है कि उसके पास न तो काम करने की दिशा और इच्छाशक्ति है और न ही वैसा कोई नजरिया, जिसे प्रगतिगामी और लीक से हट कर(आउट ऑफ द बॉक्स) कहा जा सके। इसका कुछ तो दोष सिविल सेवा की परीक्षा प्रणाली और प्रशिक्षण के हिस्से में जाता है लेकिन ज्यादा बड़ी वजह यह है कि अपने स्वार्थ के लिए हमारी नौकरशाही राजनीतिक नेतृत्व के हाथों का खिलौना बनी हुई है। इसी का नतीजा है कि सरकारी प्रशासन और आम जनता में दूरी बनी हुई है और योजनाओं का फायदा जनता को मिलने के बजाय सत्ता के दलालों को मिल रहा है। चूंकि प्रशासन में समाज की कोई भागीदारी नहीं होती, लिहाजा अधिकारी जनता की जरूरतों को भी नहीं समझ पाते हैं। इन समस्याओं की जड़ में नौकरशाही में मौजूद भ्रष्टाचार की लिप्सा भी है। नौकरशाहों के व्यवहार में अराजकता, कामकाज में लापरवाही-सुस्ती और जन सरोकारों को लेकर अनिच्छा का एकमात्र कारण यह नहीं है कि उनके शिक्षण-प्रशिक्षण में कोई कमी है, बल्कि यह भी है कि नौकरशाह (कुछ अपवादों को छोड़ कर) व्यवस्था का फायदा अपने हित में उठाना चाहते हैं। असल में जिस तरह राजनीतिक नेतृत्व ऊंचे पदों पर बैठे नौकरशाहों का अपने लिए इस्तेमाल करता है, उसी तरह नौकरशाही भी अपने लाभ के लिए राजनीतिक संरक्षण हासिल करती है। यह बात इससे साबित होती है कि यदि हमारी नौकरशाही ने पूरी ईमानदारी से और तटस्थ होकर भ्रष्टाचार का विरोध किया होता, तो देश में भ्रष्टाचार का यह रूप नहीं दिखता, जैसा कि आज है। यह नौकरशाही के ही भ्रष्टाचार का नतीजा है कि आज हर योजना में भ्रष्टाचार मौजूद है।

Tuesday, March 21, 2017

नेता पुत्रों के राज 'तिलकÓ की बिसात

उत्तर प्रदेश में टूटी मोदी की आस, मप्र उल्लास
मप्र के एक दर्जन मंत्रियों के 'लालÓ ठोक रहे ताल
भोपाल। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की समझाइस के बाद भी उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने टिकटों के वितरण में जिस तरह परिवारवाद और वंशवाद को प्राथमिकता दी है उससे मप्र के नेताओं में उल्लास है। इसके साथ ही एक बार फिर से प्रदेश में नेता पुत्रों के राज 'तिलकÓ की राजनीतिक बिसात बिछने लगी है। आलम यह है कि युवराजों को भारतीय जनता युवा मोर्चा में पद दिलाने के लिए नेताओं ने लॉबिंग तेज कर दी है, वहीं नेता पुत्रों ने अपने पिता की विरासत संभालने के लिए उनके क्षेत्र में सक्रियता बढ़ा दी है। आलम यह है कि प्रदेश के करीब एक दर्जन मंत्रियों के बेटों सहित कई नेताओं के 'लालÓ राजनीति के अखाड़े में ताल ठोक रहे हैं। उल्लेखनीय है की मोदी द्वारा भाजपा नेताओं को परिवार के सदस्यों के टिकट के लिए दबाव न बनाने की नसीहत के बाद 10 और 11 जनवरी को सागर में आयोजित प्रदेश कार्यसमिति की बैठक में पार्टी ने राजनीतिक प्रस्ताव पारित कर परिवारवाद और वंशवाद में मुक्त रहने का संकल्प लिया है। हालांकि इसको लेकर नेता एकमत नहीं थे। लेकिन प्रस्ताव के बाद ऐसा लगने लगा था कि अब कम से कम मप्र में तो ऐसा नहीं दिखेगा। लेकिन उत्तर प्रदेश में मोदी के मंत्र को तार-तार होता देख यहां भी नेता पुत्रों के लिए बिसात बिछने लगी है। सोशल मीडिया पर छाए युवराज मप्र में लगभग हर मंत्री या नेता के बेटा-बेटी या परिजन राजनीति में अपना मुकाम बनाने में जुटे हुए हैं। कोई नेताजी के क्षेत्र में सक्रिय है तो अधिकांश सोशल मीडिया पर। आलम यह है की फेसबुक, ट्विटर और वाट्सएप पर नेता पुत्र हर मुद्दे पर अपनी राय बढ़-चढ़ कर दे रहे हैं। यही नहीं चौक-चौराहों पर भी नेता पुत्रों की सक्रियता नजर आने लगी है। इनमें से कुछ वे चेहरे हैं जो पिछले कई सालों से सक्रिय हैं और भारतीय जनता युवा मोर्चा के माध्यम से अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूरी करने की जुगाड़ में हैं। वहीं कुछ चेहरे ऐसे हैं जिनका नाम पहली बार चर्चा में आया है। मप्र में पहली बार ऐसा दृश्य देखने को मिल रहा है कि विधानसभा चुनाव से सालों पहले हाईप्रोफाइल नेताओं के पुत्र और उनके अन्य रिश्तेदार राजनीतिक परवाज भरने की तैयारी कर रहे हैं। सत्तारुढ़ भाजपा और 13 सालों से सत्ता से दूर खड़ी मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के कई नेताओं के पुत्रों की सियासी और सामाजिक गतिविधियों में एकदम इजाफा होने लगा है। पिछले कुछ दिनों से फेसबुक हो या व्हाट्सएप, सभी जगह कद्दावर भाजपा नेताओं के पुत्रों को जन्मदिन की बधाईयों का तांता लगा रहा। नेता पुत्रों के जन्मदिन के बहाने अपनी राजनीति चमकाने वालों में ऐसे लोग काफी आगे रहे जो इनकी ब्रांडिंग की आड़ में भारतीय जनता युवा मोर्चा के पदाधिकारी बनने की दौड़ में शामिल हैं। बता दें कि जल्द युवा मोर्चा की प्रदेश कार्यकारिणी का गठन होना है। इसके अलावा मोर्चा की जिला टीम के भी नए सिरे से गठन किए जाने के आसार हैं। राजनीति की पाठशाला में दस्तक मप्र की राजनीति में नेता पुत्र हमेशा से सक्रिय रहे हैं। लेकिन वर्तमान समय में सबसे अधिक भाजपा नेताओं के पुत्र सक्रिय हैं। इनमें से कुछ राजनीति की पाठशाला के माहिर खिलाड़ी बन गए हैं तो कुछ को राजनीति की बारिकियां सीखाई जा रही हैं। नई पीढ़ी में राजनीतिक दस्तक देने वालों में मुख्यमंत्री के बेटे कातिर्केय के अलावा कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय, राज्य के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव के बेटे अभिषेक भार्गव और वित मंत्री जयंत मलैया के बेटे सिद्धार्थ मलैया, केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के बेटे देवेंद्र प्रताप सिंह तोमर उर्फ रामू, राज्यसभा सांसद प्रभात झा के पुत्र तुष्मुल झा और प्रदेश की काबीना मंत्री माया सिंह के बेटे पीतांबर सिंह इस साल सक्रिय राजनीति का हिस्सा बनने वाले हैं। हालांकि, माया सिंह के बेटे पार्टी में राष्ट्रीय स्तर पर एक कमेटी की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं। इनके अलावा प्रदेश सरकार के वरिष्ठ मंत्री डॉ. नरोत्तम मिश्रा के बेटे सुकर्ण मिश्रा, गौरीशंकर शेजवार के पुत्र मुदित शेजवार, गौरीशंकर बिसेन की पुत्री मौसम बिसेन हिरनखेड़े, पारस जैन के बेटे संदेश जैन, कुसुम मेहदलेे के भतीजे पार्थ मेहदले, पीडब्ल्यूडी मंत्री रामपाल सिंह के बेटे दुर्गेश राजपूत, उद्यानिकी मंत्री सूर्यप्रकाश मीणा के बेटे देवेश राजनीतिक मैदान में उतरने की पूरी तैयारी कर चुके हैं। लगभग ये सभी नेता पुत्र-पुत्री पार्टी के कार्यक्रमों में भाग ले रहे हैं और पिता के करीबियों के साथ रहकर राजनीति सीख रहे हैं। कार्तिकेय चौहान..... भाजपा का अभेद्य गढ़ माने जाने वाले सीहोर जिले खासकर बुदनी विधानसभा क्षेत्र में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के ज्येष्ठ पुत्र कार्तिकेय ने क्षेत्र की राजनीतिक गतिविधियां तेज कर दी है। वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव के दौरान इन्होंने पिता के चुनाव की कमान संभाली थी। 2016 के अक्टूबर में वे एक बार फिर से चर्चा में आ गए जब उन्होंने अपनी दादी स्मृति में आयोजित कार्यक्रम में सक्रिय नजर आए। 21 साल उम्र पार कर चुके कार्तिकेय चौहान के राजनीति में पदार्पण की चर्चा जोर पकडऩे लगी है। दरअसल, कार्तिकेय चौहान इन दिनों राजनीतिक और सामाजिक कार्यक्रमों में सक्रिय नजर आ रहे हैं। साथ ही उनकी सक्रियता की चर्चा जोर भी पकड़ रही है और उनके आयोजनों का प्रचार प्रसार भी भाजपा की देख रेख में हो रहा है। इसलिए एक बार फिर सवाल उठ रहे हैं कि शिव के कार्तिकेय कहीं पिता के नक्शे कदम पर चलने की तैयारी में तो नहीं है। कार्तिकेय फिलहाल लॉ की पढ़ाई कर रहे हैं और जल्द ही उनकी डिग्री पूरी होने वाली है। 2013 विधानसभा चुनाव के समय पर कार्तिकेय ने 18 साल उम्र पूरी होने पर मतदाता सूची में अपना नाम जुड़वाया था और अपने मुख्यमंत्री पिता की व्यस्तता के चलते पिता के चुनाव अभियान की कमान संभाली थी और पिता के प्रतिनिधि के तौर पर पूरे बुधनी विधानसभा क्षेत्र में प्रचार किया था। उसी समय उनकी राजनीति में पदार्पण की बात उठी थी, लेकिन तब शिवराज सिंह चौहान ने हंसकर टाल दिया था। हालांकि उन्होंने कहा था कि कार्तिकेय सामाजिक और पारिवारिक कार्यक्रमों में बढ़ चढ़कर भाग लेता हैं और सक्रिय भी रहता है, लेकिन अभी उसके पढऩे लिखने का समय है। फिलहाल कार्तिकेय 21 साल की उम्र पार कर चुके हैं और उनकी सामाजिक सक्रियता लगातार बढ़ती जा रही है। भाजपा के कार्यक्रमों के अलावा पिता के विधानसभा क्षेत्र बुधनी में उनकी सक्रियता देखने को मिलती है। जहां तक उनके उम्र के लिहाज से आकलन किया जाए तो 2018 का चुनाव उनके लिए राजनीति का पूर्वाभ्यास माना जा सकता है और उसके बाद वो उम्र के उस मुंहाने पर पहुंच जाएंगे कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव के जरिए अपनी राजनीतिक पारी शुरू कर सकेंगे। आकाश विजयवर्गीय....... मध्यप्रदेश भाजपा के कद्दावर नेता व पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का कद पार्टी में लगातर बढ़ते जा रहा है। खासकर अमित शाह के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद उनका कद पार्टी में तेजी से बढ़ रहा है। वो राष्ट्रीय राजनीति में अमित शाह के खास रणनीतिकारों में शामिल है। कैलाश विजयवर्गीय के बेटे आकाश विजयवर्गीय आगामी विधानसभा चुनाव में अपने पिता की महू सीट से उम्मीदवार बन सकते हैं। बताया जा रहा है कि केंद्रीय राजनीति में कद बढ़ जाने के कारण कैलाश विजयवर्गीय अब राष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय रहना ज्यादा पसंद करेंगे। ऐसे में माना जा रहा है कि 2018 विधानसभा चुनाव में महू विधानसभा सीट से कैलाश नहीं आकाश विजयवर्गीय ही प्रत्याशी भी होगें। जहां तक आकाश के राजतिलक के लिए कैलाश विजयवर्गीय के प्लान की बात करें तो 2013 में आकाश के जन्मदिन के मौके पर कैलाश विजयवर्गीय सोशल साइट्स के जरिए आकाश को विरासत सौंपने का एलान कर चुके हैं। हालांकि ये उस समय की राजनीतिक परिस्थितियों का आंकलन करने के लिए कैलाश विजयवर्गीय ने दांव खेला था, लेकिन इसमें कहीं न कहीं आकाश के भविष्य का संकेत था। हालांकि पिछले साल कैलाश ने कहा था कि आकाश की राजनीति में कोई रुचि नहीं है। वह मेरे कहने पर ही महू जाता है। उसकी आध्यात्मिक क्षेत्र में रुचि बढ़ती जा रही है। बता दें कि पिछले विधानसभा चुनाव से ही आकाश विजयवर्गीय को कैलाश का उत्तराधिकारी माना जा रहा है। कैलाश के समर्थक भी आकाश का स्वागत कर रहे हैं। अनेक अवसरों पर होर्डिंग्स में आकाश के फोटो प्रमुखता से प्रकाशित किए जा रहे हैं। आकाश जिस तरह इंदौर और महू में सामाजिक और धार्मिक कार्यों में सक्रिय रहते हैं उससे कयास लगाए जा रहे हैं कि वे जल्द ही घोषित तौर पर अपने पिता की विरासत संभाल लेंगे। अभिषेक भार्गव....... अभिषेक प्रदेश सरकार के मंत्री गोपाल भार्गव के पुत्र हैं और युवा मोर्चा में प्रदेश उपाध्यक्ष है। प्रदेश की राजनीति में लगातार सात चुनावों से जीत हासिल करते आ रहे सूबे के पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री गोपाल भार्गव ने भी अपनी राजनीति के साथ-साथ अपने बेटे के राजनीतिक पदार्पण की तैयारी कर ली है। हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी के नियम के चलते वो अपने बेटे को लोकसभा चुनाव चाह कर भी नहीं लड़वा पाए, क्योंकि पार्टी ने लोकसभा चुनाव के लिए नियम बना दिया था कि सीएम और मंत्री के परिवारों के किसी भी सदस्य को टिकट नहीं दिया जाएगा। ऐसे में गोपाल भार्गव चाहकर भी अपने बेटे को टिकट नहीं दिला पाए जबकि वो बुंदेलखंड की तीन लोकसभा सीट सागर, दमोह और खजुराहो में से कही भी चुनाव लडऩे के लिए तैयार थे। जहां तक अभिषेक की राजनीतिक सक्रियता की बात करें तो बुंदेलखंड इलाके में अभिषेक पिता की राजनीतिक विरासत एक तरह से संभाल चुके हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में तो अपने पिता के प्रतिनिधि के तौर पर वोट मांगने के लिए वो ही विधानसभा क्षेत्र रहली में जनसंपर्क में सक्रिय रहे थे क्योंकि गोपाल भार्गव ने फैसला किया था कि वो पिछले 30 सालों से क्षेत्र की जनता की सेवा कर रहे हैं और अब वोट मांगने नहीं जाएंगे, अगर जनता उनकी सेवा और समर्पण से खुश होगी तो खुद वोट देगी। ऐसे में अपने पिता के प्रतिनिधि के तौर पर अभिषेक भार्गव ने ही वोट मांगे थे, लेकिन माना जा रहा है कि गोपाल भार्गव अपने बेटे को लोकसभा पहुंचाना चाहते हैं और मध्यप्रदेश की राजनीति में खुद सक्रिय रहना चाहते हैं। पार्थ मेहदले...... पीएचई मंत्री कुसुम मेहदेले के भतीजे पार्थ मेहदेले पन्ना की राजनीति में खासे सक्रिय हैं। पार्थ अभी पन्ना में युवा मोर्चा के जिलाध्यक्ष हैं। अगले चुनाव तक कुसुम मेहदेले 75 की उम्र पार कर जाएंगी ऐसे में उम्मीद की जा रही है कि पार्टी उनका टिकट काट सकती है। इसको देखते हुए पार्थ ने अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। वैसे पार्थ पिछले दो विधानसभा चुनावों से अपनी बुआ के चुनावी मैनेजमेंट को संभाल रहे हैं। पार्थ का परिवार जनसंघ के जमाने से ही पार्टी से जुड़ा हुआ है इसलिए उनकी राजनैतिक हैसियत सब जानते हैं। वैसे पार्थ पन्ना में निरंतर सक्रिय हैं और पार्टी के हर कार्यक्रम में उनकी सक्रियता रहती है। सिद्धार्थ मलैया......... वित्त मंत्री जयंत मलैया के पुत्र सिद्धार्थ मलैया पूर्व में भारतीय जनता युवा मोर्चा में प्रदेश कार्यकारिणी की सदस्य रह चुके हैं। वे इस बार भी पद के दावेदार हैं। वित्तमंत्री जयंत मलैया की बात करें तो इनकी विरासत उनके बेटे सिद्धार्थ को सौंपे जाने की तैयारी चल रही है। क्योंकि 2018 के चुनाव के समय जयंत मलैया करीब 72 साल के हो चुके होंगे। ऐसे में उम्र का फार्मूला लागू हो जाने के कारण जयंत मलैया हो सकता है कि आगामी विधानसभा चुनाव खुद न लड़कर अपने बेटे को अपनी राजनीतिक विरासत सौंप दे। वैसे 2008 के विधानसभा चुनाव में महज 130 वोटों से जीतने के बाद निराश जयंत मलैया ने एलान कर दिया था कि ये चुनाव उनका आखिरी चुनाव होगा, लेकिन पार्टी के दबाब के चलते उन्हें 2013 में फिर चुनाव लडऩा पड़ा था। हालांकि इस चुनाव में उन्होंने 2008 की अपेक्षा अच्छा प्रदर्शन किया था और करीब साढे चार हजार वोटों से जीते थे। लेकिन इस चुनाव के बाद भी उन्होनें आखिरी चुनाव की बात कही थी। वहीं 2013 के विधानसभा चुनाव में जयंत मलैया के चुनाव की पूरी जिम्मेदारी उनके अमेरिका में पढ़े बेटे सिद्धार्थ के कंधों पर थी और 2008 की अपेक्षा 2013 में अच्छा प्रदर्शन सिद्धार्थ के बदौलत ही माना गया था। सिद्धार्थ जहां मिशन ग्रीन दमोह और सामूहिक कन्या विवाह आयोजन के जरिए दमोह विधानसभा क्षेत्र में लोकप्रिय हो रहे हैं तो उन्होंने 2013 के बाद एक तरह से दमोह के विधायक की भूमिका संभाल ली है। वित्तमंत्री पिता भोपाल की राजनीति में सक्रिय रहते हैं और दमोह क्षेत्र में सिद्धार्थ ही सक्रिय रहते हैं। दमोह के स्थानीय लोगों की माने तो इस चुनाव में सिद्धार्थ को जयंत मलैया की राजनीतिक विरासत सौंप दी जाएगी। देवेंद्र प्रताप सिंह तोमर........ केंद्रीय पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर के बेटे देवेन्द्र सिंह तोमर पिता की जिम्मेदारी संभालने के लिए तैयार हैं। नरेन्द्र तोमर का मध्यप्रदेश की सत्ता और संगठन में खासा दखल है और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान भी नरेन्द्र सिंह तोमर और संगठन में उनकी राय का विशेष महत्व है। जब से नरेन्द्र सिंह तोमर केंद्र में मंत्री बने हैं, उनकी मध्यप्रदेश में सक्रियता कम हुई है, हालांकि शिवराज सिंह सरकार और प्रदेश संगठन के लिए वो हमेशा उपलब्ध रहते हैं, लेकिन आम जनता के बीच अब उनकी मौजूदगी उनके बेटे देवेन्द्र सिंह तोमर के रूप में होती है। ग्वालियर चंबल की राजनीति में अहम स्थान रखने वाले नरेन्द्र सिंह तोमर के बेटे के जलवे की चर्चा भी इन दिनों खूब है। बताया जाता है कि ग्वालियर इलाके में मंत्री पुत्र का काफिला किसी मंत्री के काफिले से कम नहीं होता है, वो जहां पहुंचते हैं उनका स्वागत मंत्री की तरह ही होता है और कार्यकर्ता से लेकर अच्छे-अच्छे नेता भी देवेन्द्र सिंह तोमर के इर्द गिर्द नजर आते हैं। इन संकेतों के आधार पर माना जा रहा है कि राष्ट्रीय राजनीति में पदार्पण करने के बाद अब नरेन्द्र सिंह तोमर मध्यप्रदेश की राजनीति की विरासत अपने बेटे को सौंपने वाले हैं। पिता की मंशा के चलते देवेन्द्र ने राजनीतिक सक्रियता बढ़ा दी है। बताया जाता है कि जल्द ही इनकी सक्रिय राजनीति पार्टी के युवा मोर्चा या दूसरे बड़े मोर्चे से शुरू कराई जाएगी ताकि 2018 में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ाया जा सके। रामू तोमर पिता व उनके खास साथियों के साथ रहकर ही राजनीति के गुर सीख रहे। पार्टी में किसी पद पर नहीं है और कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई। लेकिन नरेंद्र सिंह के कहने पर पार्टी के युवा से लेकर कई वरिष्ठ नेता रामू को जनता के सामने बतौर नेता पेश करते हैं। रामू कहते हैं कि मैं 2008 से भाजपा का सदस्य हूं और लगातार पार्टी के लिए काम कर रहा हूं। सामाजिक व खेल के क्षेत्र में अपना योगदान देने के साथ समाज सेवा कर रहा हूं। पीतांबर सिंह... ग्वालियर की राजनीति में इनदिनों मप्र की कैबिनेट मंत्री माया सिंह व पूर्व मंत्री ध्यानेंद्र सिंह के पुत्र पीतांबर सिंह की जोरदार चर्चा है। एक सीमेंट कंपनी के सीएंडएफ बनकर बिजनेस कर रहे पीतांबर सिंह भाजपा की टूरिज्म कमेटी में राष्ट्रीय चेयरमैन रह चुके हैं। अब वे ग्वालियर-चंबल संभाग में सोशल एक्टिविटी के माध्यम से राजनीति में पैर जमाने की कोशिश कर रहे हैं। बताया जाता है कि पिता व मां दोनों ही भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं और पार्टी नेतृत्व के अलावा आरएसएस में खासी पकड़ का फायदा उन्हें मिलेगा। हालांकि सार्वजनिक तौर पर स्थानीय राजनीति से अभी दूर बने हुए हैं। ग्वालियर में पार्टी के किसी भी आयोजन में नहीं देखा जाता। पितांबर कहते हैं कि मेरा जन्म ही राजनीतिक परिवार में हुआ है। मैं पार्टी के लिए काम करता हूं तथा पार्टी की ओर से मिलने वाली जिम्मेदारी को निभाता हूं। मौसम बिसेन हिरनखेड़े.... किसान कल्याण मंत्री गौरीशंकर बिसेन की बेटी मौसम बिसेन भी राजनीति में सक्रिय हैं। वे पिता की अनुपस्थिति में क्षेत्र भी संभालती है। भाजपा युवा नेत्री एवं युवा जोड़ो अभियान की संयोजिका मौसम हिरनखेड बिसेन की नई सोच पर बालाघाट के युवा कायल हैं। जिले के युवाओं की मांग है कि बालाघाट के विकास में मौसम की नई सोच सफलतम साबित हो सकती है। देखा जाए तो मौसम उच्च शिक्षा प्राप्त हैं और आज युवाओं को ऐसे नेतृत्व की दरकार है। पिछले लोकसभा चुनाव में भी राजनीति गलियारों में भाजपा की उम्मीदवारों की दौड़ में मौसम का नाम उछला था। अब एक बार फिर से मौसम सक्रिय नजर आ रही है। युवा मोर्चा में पद की दावेदारी भी कर रही हैं। डा. सुकर्ण मिश्रा...... पिता नरोत्तम मिश्रा की ही तरह मिलनसार और यार दिल डा. सुकर्ण मिश्रा दतिया और आसपास के क्षेत्रों खासे चर्चित हैं। विभिन्न धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक गतिविधियों में उनकी सशक्त भागीदारी दतिया में खुब दिखती है। वर्तमान में भारतीय जनता युवा मोर्चा के कार्यकर्ताओं के तौर पर वे सांगठनिक गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं। कभी युवा मोर्चा कार्यकर्ताओं की कर तो कभी खेल प्रतियोगिताओं का आयोजन कर जनता के बीच अपनी पैठ बना रहे हैं। डॉ. सुकर्ण पिता से अभी राजनीति की बारिकियां सीख रहे हैं साथ ही भारतीय जनता युवा मोर्चा में पद के लिए दावेदारी भी मजबूत कर रहे हैं। अभी हालही में डा. सुकर्ण के जन्म दिन पर दतिया में उनकी लोकप्रियता देखने को मिली। पूरे जिले में उनका जन्म दिन हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। मुदित शेजवार.... अभी हाल ही में वन मंत्री डॉ. गौरीशंकर शेजवार द्वारा अगला चुनाव न लडऩे की घोषणा के बाद उनके पुत्र मुदित शेजवार का 2018 का विधानसभा चुनाव लडऩा लगभग तय माना जा रहा है। इसलिए मुदित इनदिनों सांची में सक्रिय हैं। अपनी राजनीतिक सक्रियता के चलते वे भारतीय जनता युवा मोर्चा मेंं पद के दावेदार हैं। ज्ञातव्य है कि 2013 के चुनाव के दौरान भी डॉ. शेजवार ने घोषणा भी कर दी थी कि यह चुनाव उनका आखिरी चुनाव है। ऐसे में यह संभावना बढ़ गई है कि उनके पुत्र मुदित अपने पिता की विरासत संभालेंगे। मुदित पिछले कुछ साल से सांची के सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक कार्यक्रमों में सक्रिय नजर आ रहे हैं। कई बार मंत्री शेजवार सार्वजनिक मंच से घोषणा कर चुके हैं कि उनकी जगह मुदित चुनाव लड़ेंगे। मुदित कहते हैं कि अगर पार्टी चाहेगी तो चुनाव लड़ सकता हूं। यही नहीं क्षेत्र में भाजपा के आयोजित कार्यक्रमों या किसी के स्वागत-सत्कार के लिए लगने वाले पोस्टर-बैनर में डॉ. शेजवार के साथ मुदित का भी फोटो लगाया जा रहा है। दुर्गेश राजपूत..... पीडब्ल्यूडी मंत्री रामपाल सिंह के बेटे दुर्गेश राजपूत पिता के विधानसभा क्षेत्र सिलवानी में अक्सर देखे जा रहे हैं। चर्चा है कि रामपाल बेटे को इसी सीट से चुनाव लड़ा सकते हैं। जिस तरह से रायसेन जिले के दो धुर विरोधी मंत्रियों (शेजवार और रामपाल) के बीच नजदीकियां बढ़ी हैं, उसमें भी बेटों को चुनावी मैदान में स्थापित करने का मोह दिखता है। 34 वर्षीय दुर्गेश कहते हैं पिता के व्यस्त होने पर आयोजनों में मैं ही शिरकत करता हूं। पिता की मुख्यमंत्री से दोस्ती और दुर्गेश सक्रियता से उम्मीद जताई जा रही है कि इस युवा को जल्द की राजनीतिक उड़ान का मौका मिलेगा। देवेश मीणा.... उद्यानिकी मंत्री सूर्यप्रकाश मीणा के बेटे विधायक प्रतिनिधि के तौर पर विदिशा की राजनीति में सक्रिय हैं। विधानसभा क्षेत्र में उनकी सक्रियता हर कहीं देखी जा सकती है। पिछले विधानसभा चुनाव के समय उन्हें पहली बार राजनीतिक गलियारों में देखा गया। कुछ समय तक राजनीति से दूर होने के बाद अब फिर पूरी तरह क्षेत्र में सक्रिय हो गए हैं। 27 साल के देवेश कहते हैं- जिस तरह पिताजी शून्य से शुरूआत कर शिखर तक पहुंचे, उसी तरह मैं भी राजनीति में मुकाम हासिल करना चाहता हूं। चुनाव के बारे में ज्यादा कुछ सोचा नहीं है। राजनीति में समीकरण अहम होते हैं। तुष्मुल झा...... प्रभात झा के पुत्र तुष्मुल झा इनदिनों ग्वालियर में पार्टी के कार्यक्रमों में भी नजर नहीं आते। राज्यसभा सांसद व भाजपा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रभात झा का संकेत मिलने के बाद से तुष्मुल की सक्रियता बढ़ गई है। फिलहाल उनकी कोशिश भारतीय जनता युवा मोर्चा में पद पाने की है। प्रदेश स्तर या फिर जिला स्तर पर पद पाकर वे आगे की राजनीति का रास्ता तैयार करने में जुटे हुए है। प्रभात समर्थक नेता और संघ के कुछ पदाधिकारी तुष्मुल को गढ रहे हैं। तुष्मुल राजनीति के अलावा सिंगरौली में पेट्रोल पंप, ग्वालियर व दूसरे शहरों में सीमेंट व रियल एस्टेट का कारोबार कर रहे हैं। उनका पार्टी के लिए अभी तक कोई योगदान नहीं। हाल ही में जन्मदिन के मौके पर शहरभर में समर्थकों ने होर्डिंग्स लगाकर तुष्मुल के बढ़ते कदम दिखाए। माना जा रहा है कि आरएसएस और भाजपा के राष्ट्रीय नेतृत्व में पिता की अच्छी पकड़ होने का लाभ सीधे तौर पर मिलेगा। तुष्मुल कहते हैं कि राजनीति में मेरी रुचि है और जब पार्टी एवं परिवार का आदेश मिलेगा, राजनीति में प्रवेश करूंगा। संदेश जैन...... ऊर्जा मंत्री पारस जैन के पुत्र संदेश जैन उज्जैन में सक्रिय नजर आ रहे हैं। पिता के विधानसभा क्षेत्र उज्जैन उत्तर के साथ ही वे पूरे जिले में सक्रियता बढ़ा रहे हैं। मंत्री समर्थक जिले के नेता युवा मोर्चा में पद दिलाकर उन्हें सक्रिय राजनीति में लाने में लगे हैं। इसके लिए संदेश के नाम को विभिन्न स्रोतों से आगे बढ़ाया जा रहा है। मंत्री पुत्रों ने अटका दी सूची प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की परिवारवाद को लेकर दी गई सीख के बाद भी प्रदेश के कई मंत्री और नेता अपने पुत्रों को युवा मोर्चा के जरिए राजनीति में आगे लाने की कवायद में लग गए हैं। मंत्री पुत्रों को मोर्चा की प्रदेश कार्यकारिणी में एडजस्ट करने के दबाव के चलते नई टीम का ऐलान लटक गया है। इसके अलावा संगठन के भी कई नेता अपने पुत्रों को नई सूची मे जगह दिलान को लेकर पर्दे के पीछे से सक्रिय हो गए हैं। अभिलाष पांडे को युवा मोर्चा का अध्यक्ष बने दो माह से अधिक का समय हो गया है। इस दौरान वे प्रदेश के अधिकांश हिस्सों का दौरा भी कर चुके हैं। अपनी टीम को लेकर पांडे की प्रदेशाध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान, प्रदेश संगठन महामंत्री सुहास भगत समेत अन्य वरिष्ठ नेताओं से बात हो चुकी है। सूत्रों की माने तो सूची फाइनल होने में नेता पुत्रों को कार्यकारिणी में लेना बड़ी बाधा बन रहा है। बताया जाता है कि संघ भाजपा में परिवारवाद का विरोध कर रहा है। संघ नेता संगठन को साफ कर चुके हैं कि भाजपा संगठन में किसी मोर्चे में परिवारवाद की झलक न दिखाई दे। इससे संगठन नेता फूंक-फूंक कर कदम रख रहे हैं। युवा मोर्चा की नई टीम में केवल प्रदेश उपाध्यक्ष, महासचिव और प्रदेश मंत्री जैसे पदों पर 25 लोगों की नियुक्ति होनी है। अधिकांश नेता इन पदों पर अपने समर्थकों को चाह रहे हैं। उधर कार्यकर्ताओं को पार्टी का भगवान बताने वाली भाजपा के कार्यकर्ता, नेताओं की स्वार्थ भरी राजनीति से दुखी है। पिछले कई दशकों से मेहनत कर पार्टी को फर्श से अर्श तक ले जाने वाले कार्यकर्ता आज भी झंडे उठाने व नारे लगाने के काम आ रहे हैं। वहीं इस सवाल पर वरिष्ठ नेता बोलते हैं कि हर कोई ऊंचे पदों तक नहीं पहुंच सकता। जिनकी कार्यशैली सही नहीं, वे कैसे पार्टी की जिम्मेदारी में शामिल हो सकते हैं। वहीं जब नेतापुत्रों की बात आती है तो उनका जवाब सिद्धांतों को नहीं देखता। भाजपा में बढ़ रहा वंशवाद देश में सभी राजनीतिक दल एक दूसरे पर परिवारवाद का आरोप लगाते रहते हैं किन्तु सच तो यह है कि परिवारवाद के दलदल में सभी दल फंसे हुए हैं। चाहे वह एक परिवार की छाया तले पनप रही कांग्रेस हो या कांग्रेस को वंशवाद के नाम पर पानी पी-पी कर कोसने वाली भाजपा ये दोनों राष्ट्रीय दल और तमाम क्षेत्रीय दल परिवारवाद के संक्रमण से ग्रसित हो चुके हैं। जब इन पर राजनीति में वंशवाद और परिवारवाद का आरोप लगता है तो उनका सीधा-सा तर्क होता है कि जब डॉक्टर का बेटा डॉक्टर और उद्योगपति का बेटा बन सकता है तो राजनेता क्यों नहीं? भाजपा और कांग्रेस के सियासी घराने अपने-अपने वारिसों को तैयार कराने में लगे हैं। प्रदेश में दिग्गज नेताओं, मुख्यमंत्री, मंत्री से लेकर विधायक और पार्षद ही नहीं पूर्व विधायक भी अपने-अपने बेटे-बेटियों और अन्य रिश्तेदारों को राजनीति का पाठ पढ़ा रहे हैं। उनके यह संबंधी प्रभाव वाले क्षेत्रों में तो सक्रिय है ही उनके निर्णयों और प्रशासनिक क्षेत्रों में भी पूरा दखल रखते हैं। जिससे जमीन तक उनकी अपनी पहचान है। जिनकी दम पर वे नेक्स्ट जनरेशन का दावा करते हैं। मप्र में बढ़ रहा वंशवाद ज्योतिरादित्य सिंधिया स्व. माधवराव सिंधिया अजय सिंह राहुल स्व. अर्जुन सिंह अरुण यादव स्व. सुभाष यादव डा. निशिथ पटेल श्रवण पटेल संजय पाठक सत्येंद्र पाठक दीपक जोशी कैलाश जोशी विश्वास सारंग कैलाश सारंग सुंदरलाल तिवारी श्रीनिवास तिवारी के बेटे ध्रुवनारायण सिंह गोविंद नारायण सिंह हर्ष सिंह गोविंद नारायण सिंह शैलेंद्र शर्मा लक्ष्मीनारायण शर्मा राजेंद्र वर्मा पे्रम चंद वर्मा सावन प्रकाश सोनकर ज्योति शाह राघवजी की बेटी रमेश भटेरे दिलीप भटेरे ओमप्रकाश सखलेचा वीरेंद्र कुमार सखलेचा राजवर्धन सिंह दत्तीगांव स्व.प्रेम सिंह सत्यनारायण पटेल रामेश्वर पटेल सत्यपाल सिंह सिकरवार(नीटू)- पूर्व विधायक गजराज सिंह सिकरवार हिना कावरे पूर्व मंत्री स्व लिखीराम कांवरे कमलेश पटेल पूर्व मंत्री इंद्रजीत पटेल उत्तम ठाकुर प्रेमनारायण ठाकुर राजनीति में रिश्तेदार भी............. सुरेंद्र पटवा सुंदरलाल पटवा के भतीजे कृष्णा गौर बाबूलाल गौर की बहू मुकाम सिंह किराड़ रंजना बघेल के पति स्वामी लोधी उमा भारती के भाई भावना शाह विजय शाह की पत्नी मालिनी गौड स्व. लक्ष्मण सिंह गौड की पत्नी रेखा बिसेन गौरीशंकर बिसेन की पत्नी संजय शाह विजय शाह के भाई नीना वर्मा विक्रम वर्मा की पत्नी उमंग सिंघार स्व. जमुना देवी के भतीजे अलका नाथ कमलनाथ की पत्नी अश्विनी जोशी महेश जोशी के भतीजे ———— ये हैं प्रदेश का भविष्य कांग्रेस आदित्य विक्रम सिंह पूर्व सांसद लक्ष्मण सिंह विक्रांत भूरिया प्रदेश अध्यक्ष कांतिलाल भूरिया नकुल नाथ केंद्रीय मंत्री कमलनाथ अजीत बोरासी सांसद प्रेमचंद गुड्डू पवन वर्मा सांसद सज्जन सिंह वर्मा नितिन चतुर्वेदी सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी पिंटू जोशी पूर्व मंत्री महेश जोशी गिन्नी सिंह पूर्व मंत्री राजेंद्र सिंह सुरेंद्र बघेल पूर्व मंत्री प्रताप सिंह बघेल राज तिवारी सुंदरलाल तिवारी वीरेंद्र तिवारी श्रीनिवास तिवारी का नाती नेवी जैन पूर्व सांसद डाल चंद जैन यशोवर्द्धन चौबे विधायक अरुणोदय चौबे भाजपा........... कातिर्केय चौहान शिवराज सिंह चौहान देवेंद्र सिंह तोमर अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर अक्षय राजे भंसाली यशोधरा राजे सिंधिया मंदार और मिलिंद महाजन सुमित्रा महाजन सिद्धार्थ मलैया जयंत मलैया अभिषेक भार्गव गोपाल भार्गव आकाश विजयवर्गीय कैलाश विजयवर्गीय राजेंद्र कृष्ण रामकृष्ण कुसमारिया मुदित शेजवार गौरीशंकर शैजवार सोनू चावला कैलाश चावला राजकुमार जटिया सत्यनारायण जटिया जितेंद्र गहलोत थावरचंद गहलोत संदीप पटेल कमल पटेल तुष्मुल झा प्रभात झा पीतांबर सिंह माया सिंह डॉ.सुकर्ण मिश्रा डॉ. नरोत्तम मिश्रा मुदित शेजवार गौरीशंकर शेजवार मौसम बिसेन गौरीशंकर बिसेन संदेश जैन पारस जैन पार्थ मेहदल कुसुम मेहदलेे दुर्गेश राजपूत रामपाल सिंह बेटे देवेश सूर्यप्रकाश मीणा ----------

मौत की अवैध खदानें

रोजाना सामने आ रहा खौफनाक मंजर
हर दिन औसतन एक की मौत
भोपाल, रायसेन, बड़वानी। मप्र में एक तरफ सरकार नमामि देवी नर्मदे यात्रा निकालकर अवैध खनन रोकने में लगी हुई है वहीं दूसरी तरफ अवैध खदानें मौत का कारण बनता जा रहा है। आलम यह है कि प्रदेश में हर दिन औसतन एक की मौत अवैध खनन के कारण हो रही है। लेकिन प्रशासन गहरी नींद में सोया हुआ है। अभी हाल ही में गैरतगंज में तीन मासूम एक खदान में डूबकर काल के गाल में समा गए। वहीं शनिवार को बड़वानी में अवैध खदान में रेत खनन कर रहे दो मजदूरों की मिट्टी धसने से दबने पर मौत हो गई। घटना जिला मुख्यालय से लगे डूब प्रभावित ग्राम छोटी कसरावद के देदला फलिया की है। घटना के बाद रेत खनन में लगे अन्य मजदूर वहां से ट्रैक्टर-ट्रॉली लेकर भाग निकले। दावों के बावजुद अवैध खनन रायसेन और बड़वानी सहित अन्य जिला प्रशासन लगातार दावा करते हैं कि उनके जिले में अवैध खनन नहीं हो रहा है। प्रशासन भले ही सुप्रीम कोर्ट, हाईकोर्ट और एनजीटी के सामने लाख दावे कर रहा है कि प्रदेश में अवैध रेत खनन नहीं हो रहा है। इन दावों की पोल तब खुलती है जब अवैध खदानों में मौत होती है। बड़वानी में पुनिया फलिया सजवानी निवासी बाला पिता नानूराम (25) और सुनील पिता बनिया (20) की अवैध खनन के दौरान खदान धसने से हुई मौत के बाद प्रशासन सांसत में है। डूब क्षेत्र में चल रहा खनन जहां पर अवैध रेत खदान चल रहा है वो जगह सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में आ रही है। जिस जमीन पर अवैध खदान है वो जगह सुरपाल पिता बुधिया की पड़त जमीन है। सुरपाल को इस जमीन का मुआवजा भी मिल चुका है। एनबीए के देवराम कनेरा, मुकेश भगोरिया ने बताया कि जिले में पेंड्रा, नंदगांव, पिपलूद, पिछोड़ी, बडग़ांव, छोटी कसरावद सहित नर्मदा पट्टी के गांवों में धड़ल्ले से अवैध रेत खनन चल रहा है। अवैध रेत खनन पर रोक लगाने में प्रशासन पूरी तरह से असमर्थ दिख रहा है। हम प्रशासन को लंबे समय से अवैध रेत खनन के सबूत देते आ रहे है। प्रशासन सुप्रीम कोर्ट, एनजीटी के आदेशों को पालन कराने के बजाए हम पर दबाव बनाने के लिए अवैध खनन वालों के साथ मिलकर आंदोलन कार्यकर्ताओं पर केस दर्ज करा रहा है। अब सरकार बताए खदान दबने से हुई दो मौत का जिम्मेदार प्रशासन है या खनन माफिया। ये वे घटनाएं हैं जो पिछले चार दिनों में मीडिया के माध्यम से आमजन तक पहुंचीं। इसके अलावा खनन क्षेत्र में अन्य सैकड़ों मौतें होती हैं जिनका पता मीडिया प्रतिनिधियों को नहीं हो पाता है। कुछ का पता हो भी पाता है तो पुलिस इन मौतों का अन्य कारण बताकर मामले को रफादफा कर देती है। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे प्रशासन की उदासीनता और जनप्रतिनिधियों की वादाखिलाफी ने मजदूरों में भय पैदा कर दिया है। एक के बाद एक हो रही आदिवासियों समेत मजलूमों की मौतों की सच्चाई कोई भी बताने को तैयार नहीं है। दरअसल, प्रदेश में जिस तरह शहर, गांव, स्कूल, कॉलेज या अन्य सार्वजनिक स्थल के पास प्रशासन की निगरानी में वैध-अवैध खनन हो रहा है उससे बनने वाले गड्ढे जानलेवा हो रहे है। प्रदेश में आए दिन किसी न किसी जगह इन कुंआनुमा गड्ढ़ों में कोई न कोई मौत के मुंह में जा रहा है। स्थिति विकट यह है कि मृतकों के परिजनों की कोई गुहार भी नहीं सुनता है। प्रदेश में खनन क्षेत्र में हो रही मजदूरों की मौत के लिए प्रशासन की भूमिका संतोषजनक नहीं है। खोखली हो रही धरती पत्थर, गिट्टी, मुरम, मिट्टी आदि निकालने की लालसा में माफिया धरती को खोखला तो कर रहा है लेकिन खदानों को भरने की सुध कभी किसी ने नहीं ली। पंचायत से लेकर जिला प्रशासन इसके बराबर के दोषी हैं। कानून का प्रावधान है कि खनन करने वाला उसे भरेगा, बावजूद इसके खदानों को भरने के प्रति किसी ने अपनी जि मेदारी नहीं निभाई। इसके लिए लीजधारक से भी अपेक्षित रकम नहीं ली जा रही है। शायद यही वजह रही कि लीजधारक या फिर अवैध खनन करने वाले जमकर चांदी कूट रहे हैं। दूरदृष्टि रखने वाले प्रशासन के काबिल अफसरों ने इस मामले को लेकर जैसे आंखों पर पट्टी बांधी रखी। एक दशक से ज्यादा समय तक यह खेल चला। बहरहाल, ङील बन चुकी इन खदानों में बेगुनाह लोगों की जान जा रही है। मरने वालों में देश के भविष्य युवाओं की इनमें तादाद ज्यादा है। नियमों का पालन नहीं खदानों को लेकर कागजों पर की गई कसरत वास्तव में होती तो प्रदेश में कभी ङील नहीं बनती। खनन से जो गड्ढे हुए, वो भी भर जाते। लीज देने के निर्धारित नियमों में बाकायदा इसका प्रावधान है। सुरक्षा की दृष्टि से सीढ़ीनुमा (बेंच) तकनीकी पर खनन करने के निर्देश दिए हुए हैं। गहरी खाई बनी खदानों की दशा बयां करतीं है कि नियमों पर कभी अमल नहीं करवाया गया। देखा यह जा रहा है कि जहां दो से चार फुट खुदाई का परमिशन है वहां खदानें 40-50 फुट गहरी खाई बन चुकी हैं। जिन्होंने ङील का रूप धारण किया हुआ है। जो मौत का कुआं बन चुकी हैं। एक अनुमान के तहत प्रदेशभर में ऐसी खदानें 1300 सौ से ज्यादा हैं। उदाहरण देने के लिए एक भी खदान ऐसी नहीं है, जिसको पूरी तरह भरा गया हो। बुंदेलखंड में सबसे अधिक मौत की खदानें खनिज संपदा से परिपूर्ण मप्र के हिस्से वाले बुंदेलखंड के जिलों में सबसे अधिक मौत की खदाने हैं। इस क्षेत्र में मुरम खोदकर जो अवैध खदानें बनी है वे अब मौत का कुंआ बन गई है। टीकमगढ़, छतरपुर, पन्ना, सागर, दमोह जिले के ग्रामीण अंचलों में सड़क निर्माण और व्यापार के लिए मुरम खोदकर बनाई गई अवैध खदानें अब मौत के कुएं बन गए हैं। दबंगों और ठेकेदारों का खौफ इतना है कि ग्रामीण शिकायत करने से भी डरते हैं। वहीं खनिज विभाग शिकायत के बाद भी कार्रवाई नहीं कर रहा है। अधिकांश गांव में सड़क किनारे शासकीय भूमि पर मुरम खोदकर इन्हें छोड़ दिया गया है जिससे यहां बने कुएं हादसे को न्योता दे रही हैं। टीकमगढ़ के पास मऊघाट रोड पर सरकारी भूमि पर अवैध खनन किया जा रहा है। अवैध खनन की खदान सड़क के नजदीक होने से आए दिन हादसे होते रहते हैं। जिससें ग्रामीणों को हमेशा डर बना रहता है। ऐसे ही सुनवाहा गांव के पास भी अवैध मुरम की खदानें है। बिना अनुमति के रसूखदार ठेकेदारों द्वारा रात में मुरम खोदकर अवैध खनन किया जा रहा है और मोटे दामों पर बेचने के कारण शाासन को राजस्व हानि हो रही है। पिछले साल अक्टूबर में नगर के ढोंगा क्षेत्र में पंचमुखी हनुमान मंदिर के पास तीन वर्ष पहले इसी तरह की मुरम खदान में डूबने के कारण 4 बच्चों की मौत हो गई थी। इसके साथ ही कृषि उपज मंडी के पास बीड़ी कॉलोनी, सुनवाहा गांव में मुरम खनन किए जाने के कारण इन खदानों में कई हादसे हो चुके है। सरकारी भूमियों को खोद कर बड़ी खदानें बनाई गई हैं। इन खदानों में पानी भरने से हमेशा बच्चों का डूबने का डर बना रहता है। खनन को रोकने के लिए जिला प्रशासन से शिकायत की गई थी। फिर भी कोई कार्रवाई नही की गई। मजदूरों की मौत पर भी मौन प्रदेश में अवैध खनन के दौरान भी मजदूरों की मौतें होती हैं, लेकिन प्रशासन और माफिया की मिलीभगत से मामला सामने नहीं आ पाता है। अब तक हुई मौतों की रोशनी में विचार करें तो इस दिशा में कई बातें सामने आती हैं। प्रदेश की इन पत्थर, मोरम, मिट्टी, बालू और कोयला आदि की अवैध खदानों में काम करने वाले अधिकतर मजदूर विस्फोटक पदार्थों के इस्तेमाल से अनभिज्ञ होते हैं और उन्हें खनन के लिए प्रशिक्षित भी नहीं किया जाता। परिणामस्वरूप जरा सी चूक होने पर वे अपनी जिंदगी से हाथ धो बैठते हैं। यहां की पत्थर खदानें 50 मीटर से लेकर 200 मीटर तक गहरी हो चुकी हैं। इन खदानों में काम करना अप्रशिक्षित मजदूरों के लिए शेर की मांद में घुसने के बराबर है। दूसरी वजह यह कि प्रदेश में डोलो स्टोन, सैंड स्टोन, लाइम स्टोन, कोयला, बालू और मोरम आदि का अकूत भंडार है। इन खनिज पदार्थों के दोहन के लिए उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के माफिया और सफेदपोश ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। सत्ताधारी पार्टियों के नुमाइंदों और मलाईदार मंत्रालयों की कुर्सी संभाल रहे कुछ सफेदपोशों ने खनन क्षेत्र में धन उगाही के लिए बाकायदा अपने एजेंट तैनात कर रखे हैं और कानून की धज्जियां उड़ाकर अवैध खनन एवं परिवहन को बढ़ावा दे रहे हैं। माफिया ने तो पूरे प्रदेश में अराजकता का माहौल पैदा कर रखा है। वे प्रदेश की पहाडिय़ों पर खुलेआम अवैध खनन करा रहे हैं। साथ ही खनन विभाग द्वारा जारी एमएम-11 परमिट के बिना मिट्टी, मोरम, बालू और बोल्डर आदि का परिवहन करा रहे हैं। शासन द्वारा निर्धारित मानकों को खनन क्षेत्र का कोई भी खदान संचालक पूरा नहीं कर रहा है। खदानों में सुरक्षा के कोई भी इंतजाम नहीं हैं। इस कारण खदानें मौत का घर बन गई हैं। इनका कहना है - मामला गंभीर है। मामले की जांच कराई जा रही है। दोषियों के खिलाफ कार्रवाई होगी। जिले में अवैध पूरी तरह प्रतिबंधित है। अवैध खनन करने वालों पर बराबर कार्रवाई की जा रही है। तेजस्वी नायक कलेक्टर बड़वानी -अवैध खनन के खिलाफ निरंतर कार्रवाई हो रही है। इस मामले में ट्रैक्टर-ट्रॉली क्रमांक एमपी-10-एए-7302 के मालिक महेंद्र दरबार पिता मुकेश दरबार निवासी सेगांव के खिलाफ आईपीसी की धारा 304 के तहत केस दर्ज कर लिया गया है। अवैध खनन में लगा ट्रैक्टर भी जब्त कर लिया गया है। दोषियों के खिलाफ शख्त कार्रवाई होगी। महेश बड़ोले एसडीएम, बड़वानी -----------

जनता बेहाल, नेता मालामाल

राजनीतिक सुधार की यह कैसी राह...
3 साल में मंत्रियों की संपति में 436 प्रतिशत की उछाल
भोपाल। जिस राज्य में जन्म लेते ही बच्चे कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं, उस राज्य में समाजसेवा के नाम पर राजनीति में आने वाले माननीयों की संपत्ति तेज रफ्तार से बढ़ती जा रही है। है न हैरानी की बात। लेकिन मध्य प्रदेश में ऐसा हो रहा है। यहां जनता दिन पर दिन भले ही बेहाल होती जा रही है, लेकिन माननीय मालामाल होते जा रहे हैं। आलम यह है कि 2013 में जो विधायक लखपति थे वे करोड़पति बन गए हैं। यही नहीं मंत्रियों की संपत्ति की औसत वृद्धि लगभग 436 फीसदी रही है। यह खुलासा हुआ है इलेक्शन वाच व एसोसिएशन फॉर डेमॉक्रेटिक रिफॉर्म (एडीआर)की रिपोर्ट, सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट, नेताओं के आयकर रिटर्न, पार्टी को दी गई खातों की जानकारी और नामी-बेनामी संपत्तियों के आकलन से। प्रदेश के 30 में से 26 मंत्री करोड़पति तीन साल में एक आम शख्स की संपत्ति कितने गुना बढ़ सकती है 10, 20 या अधिक से अधिक 30 प्रतिशत। लेकिन हमारे नेताओं और मंत्रियों के मामले में तीन साल के दौरान उनकी संपत्ति में 60 प्रतिशत से लेकर करीब 700 प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो गई है। मप्र सरकार में मंत्री पद पर काबिज रहे नेता इसकी मिसाल हैं। मप्र के मंत्रियों की संपत्ति में उछाल से यह सिद्ध हो गया है कि इच्छाओं की तरह ही अधिक पैसे की कोई सीमा नहीं है। चुनावी राजनीति में आज-कल धनबल पैसा पावर ले आता है। पावर मिलने के बाद उनका पैसा और तेज रफ्तार से बढऩे लगता है। मप्र सरकार के वर्तमान मंत्रिमंडल में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान सहित 30 मंत्री हैं। चुनाव जीतने यानि पावर में आने के बाद इनकी संपत्ति में बेहिसाब बढ़ोतरी हुई है। पिछले दो विधानसभा चुनाव 2008 और 2013 के आंकड़ों को ही देखें तो हम पाते हैं कि इस दौरान इनका पावर और रुतबा तो बढ़ा ही। इस दैरान इन्होंने कुछ किया हो या नहीं किया हो, अपनी संपत्ति बढ़ाने में दिल खोलकर काम किया है। कम से कम प्रदेश के सांख्यिकी आंकड़े तो यही कहते हैं। प्रदेश के 30 मंत्रियों में से 26 करोड़पति (87 फीसदी)हैं। करोड़पति मंत्रियों के मामले में प्रदेश का स्थान देशभर में 10वां है। 30 मंत्रियों में से 3 ने इस साल इनकम टैक्स रिटर्न (आईटीआर) नहीं भरा है। प्रदेश में जन्म लेते ही बच्चों के सिर पर हजारों रुपए का कर्ज हो जाता है। यह कर्ज का ग्राफ हर साल बढ़ता जा रहा है। मगर यहां के मंत्रियों-विधायकों के साथ ऐसा नहीं है। राजनीति में आने वाला हर नेता इससे जुडऩे का कारण समाज सेवा बताता है। कोई राजनेता राजनीति को व्यवसाय नहीं बताता। राजनीति व्यवसाय नहीं होने के बावजूद नेताओं का धनबल का पारा तेजी से ऊपर जाता है। इतनी तरक्की करना व्यवसाय के अलावा किसी अन्य क्षेत्र में संभव नहीं है, लेकिन आज की तारीख में राजनीति से ज्यादा आर्थिक तरक्की वाला क्षेत्र कोई दूसरा नजर नहीं आता। कांग्रेसियों की संपत्ति बढ़ोतरी की रफ्तार धीमी तीन साल के कार्यकाल में करीब 72 फीसदी विधायकों की संपत्ति की औसत वृद्धि 200 फीसदी रही। प्रदेश में पिछले 13 साल से भाजपा की सरकार है इस कारण जहां भाजपा विधायकों की संपत्ति में बेतहासा बढ़ोतरी हुई है वहीं कांग्रेसी विधायकों के संपत्ति में वह वृद्धि नहीं देखी गई जो भाजपा विधायकों में रही। इस दौरान कांग्रेस विधायकों की संपत्ति 82 फीसदी की दर से बढ़ी। जबकि भाजपा विधायकों की वृद्धि कांग्रेस नेताओं की तुलना में पांच गुणा से भी ज्यादा रही। भाजपा विधायकों की संपत्ति 177 और मत्रियों की 436 फीसदी की दर से बढ़ी। चुनाव में बढ़त दिलाने के कई माप हैं। कभी जाति एवं धर्म का एक्सीलेरेटर विरोधियों पर बढ़त दिला देता है तो कभी बाहुबल। धनबल का टॉनिक भी चुनाव में खूब काम करता है। चुनाव आयोग के डंडे का डर भी इन्हें हिला नहीं पाता। तभी तो भ्रष्टाचार को रोकने की कसम खाने वाले तमाम दलों के माननीय पांच साल में ही समाज सेवा करते-करते लखपति से करोड़पति बन जाते हैं। आयकर विभाग भी नहीं सुलझा पाया गणित माननीय समाजसेवा करते-करते कैसे करोड़पति बन गए, इसका गणित आयकर विभाग भी अभी नहीं सुलझा पाया है। तभी तो धनबल की रफ्तार बिना ब्रेक लगाए चलती जा रही है। चुनाव आयोग में नामांकन पत्र के साथ दिया गया हलफनामा इस रफ्तार की तेजी को दर्शाता है। उससे उपलब्ध आंकड़े पर एडीआर ने 2013 में निर्वाचित विधायकों की संपत्तियों का तुलनात्मक अध्ययन किया जो 2008 में भी चुने गए थे। एडीआर के अध्ययन के आंकड़ों पर गौर करें तो उन विधायकों की सम्पत्ति में बेतहासा वृद्धि हुई है जो पिछली बार करोड़पतियों की लिस्ट में शामिल थे। प्रदेश में राजनीतिक पार्टियों और उनके उम्मीदवारों पर नजर रख रही इलेक्शन वॉच और एआरडी की टीम ने मिलकर प्रदेश की तीनों प्रमुख पार्टियों कांग्रेस, भाजपा और बसपा के विधायकों की सम्पत्ति का कच्चा चि_ा खोला है। जिसके मुताबित विधानसभा चुनाव 2008 और 2013 में विधायक 8 विधायक ऐसे है जिनकी कुल सम्पत्ति में 1000 प्रतिशत की वृद्धि हुई है तो 16 विधायक ऐसे भी है जिनकी सम्पत्ति 500 प्रतिशत बढ़ी और 113 ऐसे विधायक है जिनकी सम्पत्ति में 1 प्रतिशत से 500 फीसदी की बढ़त हुई है। लेकिन आयकर विभाग में माननीयों ने अपनी कमाई का जो विवरण दिया है उससे विभाग भी अचंभित है, क्योंकि आयकर रिटर्न में माननीयों ने अपनी आय कमतर बताई है। सबसे तेजी से बढ़ रही राजेंद्र शुक्ल की संपत्ति मप्र में वैसे तो सभी मंत्रियों की संपत्ति में बेतहासा वृद्धि हो रही है। रिपोटर््स के अनुसार प्रदेश में सबसे तेजी से खनिज साधन, वाणिज्य, उद्योग और रोजगार, प्रवासी भारतीय मंत्री राजेंद्र शुक्ल की संपत्ति बढ़ी है। वर्ष 2008 में शुक्ल की कुल संपत्ति 1,99,11,978 रूपए थी जो 2013 में 16,87,26,600 रूपए हो गई। उसके बाद उनकी संपत्ति में 700 प्रतिशत की दर से वृद्धि हुई है। अगर प्रदेश के करोड़पति मंत्रियों और विधायकों पर निगाह डाले तो सबसे पहला नाम सूक्ष्म एवं लघु उद्योग राज्यमंत्री संजय पाठक का आता है। जिन्होंने 2008 में अपनी कुल सम्पत्ति 34 करोड़ दर्शाई थी लेकिन 2013 चुनाव के शपथ पत्र में उन्होंने अपनी संपत्ति 121 करोड़ बताई है। अब उनकी संपत्ति 200 करोड़ के पार पहुंच गई है। इसमें 83 करोड़ चल और 58 करोड़ की अचल संपत्ति है। चौंकाने वाली बात ये भी है कि वे देश के दूसरे सबसे बड़े कर्जदार मंत्री भी हैं। पाठक के ऊपर 58 करोड़ से अधिक की देनदारियां हैं। संजय पाठक मूल रूप से खनन कारोबारी हैं। ये विदेशों में आयरन ओर सप्लाई करते हैं। इनका कारोबार इंडोनेशिया, चीन, कोरिया समेत एशिया के करीब 12 देशों में फैला हुआ है। वही संस्कृति, पर्यटन, किसान कल्याण तथा कृषि विकास सुरेन्द्र पटवा के पास 2008 में 6,69,25,537 थी जो 2013 में बढ़ कर 38,02,24,232 रूपए हो गई। अब पिछले 3 साल में उनकी संपत्ति में 450 प्रतिशत की दर से बढ़ोतरी हुई है। वित्त एवं वाणिज्यिक कर मंत्री जयंत मलैया के पास 2008 में 1,67,51,015 रूपए की संपत्ति थी जो 2013 में 13,65, 70,862 रूपए पहुंच गई। अब उनकी संपत्ति 600 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। शिवराज सिंह चौहान के पास 2008 में 1,23,31,600 रूपए की संपत्ति थी जो 2013 में 6,27,54,114 रूपए पहुंच गई। अब उनकी संपत्ति 350 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक सफल प्रशासक के साथ ही बेहद विनम्र और मिलनसार राजनेता के रूप में पहचाना जाता है। वहीं देश के चुनावी इतिहास में अब तक 14 नेता ऐसे हुए हैं, जिन्हें लगातार तीन या उससे अधिक बार किसी राज्य का मुख्यमंत्री बनने का अवसर मिला। इस सूची में शिवराज सिंह चौहान का नाम भी है। आदिम जाति कल्याण, अनुसूचित जाति कल्याण ज्ञान सिंह के पास 2008 में 18,63,542 रूपए की संपत्ति थी जो 2013 में 51,59,739 रूपए पहुंच गई। पिछले तीन सालों में उनका बैंक बैलेंस बढ़ गया है। इन तीन सालों में उनके नाम से चार नए बैंक खाते भी खुल गए। मंत्री ज्ञान सिंह ने शहडोल उपचुनाव में घोषणा पत्र में अपनी सम्पत्ति एक करोड़ आठ लाख रूपए से अधिक बताई है। हालांकि सियासी दलों के नेता इस बात से इत्तेफाक नहीं रखते की नेताओं की सम्पत्ति जीतने के बाद बढ़ती है बल्कि यह दर्शाते है कि मेरी कमीज उसकी कमीज से सफेद है। तीन साल में प्रदेश के अन्य मंत्रियों की संपत्ति में बढ़ोतरी मंत्री 2013 अब बढ़ोतरी प्रतिशत में गोपाल भार्गव- 1,01,29,044 65 प्रतिशत गौरीशंकर बिसेन- 7,41,82,316 61 प्रतिशत नरोत्तम मिश्रा- 2,96,06,762 60 प्रतिशत यशोधरा राजे- 5,95,09,664 262 प्रतिशत उमाशंकर गुप्ता- 4,47,62,820 1 64 प्रतिशत अर्चना चिटनिस- 4,07,67,595 65 प्रतिशत गौरीशंकर शैजवार- 3,69,36,262 63 प्रतिशत कुसुम मेहदेले- 2,07,69,113 71 प्रतिशत ओमप्रकाश धुर्वे- 1,20,02,881 91 प्रतिशत रूस्मत सिंह- 5,45,00,000 225 प्रतिशत विजय शाह- 6,83,91,215 178 प्रतिशत माया सिंह- 8,88,99,100 108 प्रतिशत रामपाल सिंह- 4,63,39,241 178 प्रतिशत भूपेंद्र सिंह- 7,39,86,313 278 प्रतिशत सूर्यप्रकाश मीणा- 9,76,88,419 544 प्रतिशत विश्वास सारंग- 5,64,25,784 180 प्रतिशत ललिता यादव- 1,06,36,128 243 प्रतिशत दीपक जोशी- 36,82,118 78 प्रतिशत पारसचंद्र जैन- 5,40,67,474 105 प्रतिशत शरद जैन- 1,60,00,440 95 प्रतिशत हर्ष सिंह- 4,65,69,017 205 प्रतिशत प्रति व्यक्ति आय बढऩे की रफ्तार सुस्त करीब सवा सौ लाख करोड़ के कर्ज में डूबे प्रदेश में महंगाई से तंग आदमी भले ही फटे हाल हुआ हो, लेकिन हमारे माननीय पिछले तीन सालों में मालामाल हुए हैं। प्रदेश सरकार भले ही मध्यप्रदेश को तेजी से विकसित होने वाले राज्यों की श्रेणी में शुमार करती हो, पर हकीकत ये है कि प्रति व्यक्ति आय बढऩे की रफ्तार इतनी सुस्त है कि पिछले दो साल में मप्र में प्रति व्यक्ति आय 4877 रुपए बढ़कर 56 हजार 516 तक पहुंची है, जबकि राष्ट्रीय औसत एक लाख रुपए ऊपर है। इधर पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में इसी दौरान यह दोगुनी बढ़ी। यह खुलासा सांख्यिकी मंत्रालय की रिपोर्ट में हुआ है, जिसमें वर्ष 2012 से 15 तक प्रति व्यक्ति आय में हुई बढ़ोत्तरी को लेकर देशभर के राज्यों की जानकारी दी गई है। मप्र में प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से 44 फीसदी पीछे है। पिछले तीन सालों के आंकड़ें देखें तो राष्ट्रीय औसत तक पहुंचने में भी करीब दस साल और लग जाएंगे, जबकि छत्तीसगढ़ पांच सालों से कम समय में इसे पूरा कर लेगा। वर्तमान में 13 राज्य ऐसे है जहां प्रति व्यक्ति औसत आय एक लाख रुपए से भी ज्यादा है। पिछले दो सालों में जिन राज्यों में प्रति व्यक्ति आय सबसे कम बढ़ोतरी हुई उनमें मध्यप्रदेश भी शामिल है। देखा जाए तो औसतन अन्य राज्यों में जहां यह आय दस से 12 हजार रुपए बढ़ी, वहीं मप्र में पांच हजार रुपए का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई। प्रति व्यक्ति आय वह पैमाना है जिसके जरिए यह पता चलता है कि किसी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति की कमाई कितनी है। इससे किसी शहर, क्षेत्र या देश में रहने वाले लोगों के रहन-सहन का स्तर और जीवन की गुणवत्ता का पता चलता है। देश की आमदनी में कुल आबादी को भाग देकर प्रति व्यक्ति आय निकाली जाती है। अर्थशास्त्री आरएस तिवारी के अनुसार प्रदेश में प्रति व्यक्ति आय नहीं बढऩे के पीछे तीन मुख्य वजह है। प्रदेश कृषि पर निर्भर है, उद्योग चौपट है। औद्योगिक विकास आज भी नहीं है, जिसकी मुख्य वजह है कि उद्योगों के लिए अधोसंरचना आज भी वैसी नहीं है जिसकी मांग है। प्रदेश मुख्यत: कृषि आधारित है, लेकिन वो उद्योग में नहीं आता। दूसरा हमारे यहां एजुकेशन का स्तर काफी गिरा हुआ है जिसके चलते काबिल व्यक्तियों की कमी रहती है जिसके चलते कंपनियां यहां नहीं आना चाहती। इंफ्रास्ट्रचर के मामले में भी दूसरे राज्यों ने जिस रफ्तार से आगे बढ़े है उसमें भी हम पीछे है। हालांकि तुलनात्मक रूप से मप्र में प्रति व्यक्ति आय उतनी ज्यादा नहीं बढ़ी लेकिन देखा जाए तो धीरे-धीरे यह बढ़ रही है। कृषि की आमदनी से जितनी आमदनी बढ़ती है उतनी ग्रोथ रेट बढ़ती है। नेताओं के अच्छे दिन आ गए! नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर कहती हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की मंशानुसार जन के तो नहीं, लेकिन जन-प्रतिनिधियों के अच्छे दिन आ गए हैं। मध्य प्रदेश में विधायकों और मंत्रियों की तनख्वाह दोगुनी-चौगुनी हो रही है। महंगाई के इस दौर में इन्हें तो भरपूर राहत मिल रही है। मध्य प्रदेश में विधायकों का वेतन 45-55 प्रतिशत बढ़ गया है। विधायकों को अब 1 लाख 10 हजार रुपये, मिलेंगे। मुख्यमंत्री का वेतन 2 लाख रुपये महीना और मंत्रियों का वेतन एक लाख 70 हजार रुपये हो गया है। लेकिन जनता की सेवा के नाम पर राजनीति करने वाले ये नेता जनता की फिक्र तनिक नहीं करते हैं। उधर, एडीआर के जगदीप छोकर कहते हैं की मप्र विधानसभा में करीब 70 प्रतिशत सदस्य करोड़पति हैं, 230 में से 161। आपराधिक मामलों वाले 32 प्रतिशत सदस्य हैं यानी 230 में से 173। यह वो राज्य है, जिस पर 1,17,000 करोड़ का कर्ज है। 2003 में कांग्रेस की दिग्विजय सिंह की सरकार के समय यह आंकड़ा 3,300 करोड़ का था, लेकिन 2017 तक आते-आते शिवराज सिंह चौहान की सराकर में ये 1,17,000 करोड़ का हो गया। शिवराज सरकार का दावा है कि उसने राज्य पर लगे बीमारू का तमगा हटा दिया है, जो उसके साथ 1956 से लगा हुआ था। लेकिन अब वो फिर आईसीयू जैसे हालात में पहुंच गया है। 2001 में छत्तीसगढ़ राज्य बना, तब मध्य प्रदेश की प्रति व्यक्ति आय 18,000 रुपये थी, अब 59,000 रुपये है, जबकि छत्तीसगढ़ में 69,000 रुपये है। ये वो राज्य हैं जहां हमारे किसानों की आत्महत्या लगातार खराब बनी हुई है। एनसीआरबी की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार देश में 5650 किसानों ने आत्महत्या की, जिनमें 2568 किसान महाराष्ट्र के थे। तेलंगाना में 898 किसानों ने और मध्य प्रदेश में 826 किसानों ने खुदकुशी की। दो साल से मंत्रियों ने नहीं दिया संपत्ति का ब्यौरा प्रदेश के मंत्रियों की संपत्ति का मामला हमेशा विवादों में रहा है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने करीब छह साल पहले घोषणा की थी कि राज्य के उनके समेत सभी मंत्री और अधिकारी हर साल अपनी संपत्ति सार्वजनिक करेंगे। मंत्रीगण जहां विधानसभा में अपनी संपत्ति का ब्यौरा देंगे, जबकि अधिकारी सरकार के समक्ष, लेकिन गत दो वर्षों से इस घोषणा पर अमल नहीं हो पाया है। राज्य शासन के केवल एक मंत्री जयंत मलैया को छोड़ दें, तो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान समेत किसी भी मंत्री ने दो साल से अपनी संपत्ति का ब्यौरा विधानसभा के पटल पर नहीं रखा है, जबकि चुनाव लड़ते समय शपथ पत्र में घोषित संपत्ति और दो साल पूर्व विधानसभा में प्रस्तुत ब्यौरे में काफी विसंगतियां देखने को मिली थीं। इसके बावजूद अपनी संपत्ति सार्वजनिक करने में किसी भी मंत्री, यहां तक कि मुख्यमंत्री ने भी रुचि नहीं दिखाई। उल्लेखनीय है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने अगस्त 2010 में घोषणा की थी कि उनकी सरकार के सभी मंत्री और वे स्वयं भी हर साल विधानसभा के पटल पर अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करेंगे। इसके साथ ही अधिकारियों को भी अपनी संपत्ति का ब्यौरा सार्वजनिक करने की बात उन्होंने कही थी। शुरुआत दो-तीन साल तक तो मंत्रियों ने इस घोषणा को गंभीरता से लिया। कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष अरूण यादव कहते हैं कि लगता है कि मंत्रियों के साथ मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं भी अपनी घोषणा को भूल चुके हैं, शायद इसीलिए यह स्थिति बनी है और यह हालात तब हैं, जब पिछले विधानसभा निर्वाचन के दौरान चुनाव लड़ते समय शपथ-पत्र में दिए जाने वाले संपत्ति के ब्यौरे और विधानसभा में प्रस्तुत ब्यौरे में काफी अंतर पाया गया था। मंत्री दें आय का आय का ब्यौरा शुचिता की बात करने वाली प्रदेश भाजपा सरकार के मंत्रियों द्वारा अपनी संपत्ति का ब्यौरा नहीं देने पर एसोसिएशन आफ डेमोके्रटिक रिफार्मस (एडीआर) की राज्य शाखा मप्र इलेक्शन वॉच ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को पत्र लिखा है। मप्र इलेक्शन वॉच की ओर से लिखे पत्र में कहा गया है कि आज देश को स्वच्छ राजनीति की अत्यंत आवश्यकता है। हमारे जनप्रतिनिधियों द्वारा चुनाव के दौरान संपत्ति एवं देनदारियों की जानकारी दी जाती है। यह व्यवस्था लोकसभा एवं विधानसभा दोनों के लिए हैं। जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 75 (अ) के अनुसार लोकसभा एवं राज्यसभा के प्रतिनिधि को अपनी संपत्ति और देनदारियों की जानकारी हर वर्ष लोकसभा एवं राज्यसभा के समक्ष प्रस्तुत करना होता है। परंतु विधानसभाओं के सदस्यों के लिए इस प्रकार का कोई कानूनी प्रावधान नहीं है। बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने ऐसी पहल की है। मध्यप्रदेश में केवल मंत्रियों को ही यह जानकारी विधानसभा के सामने रखनी होती है। परंतु ऐसा करना भी स्वेच्छिक है। मध्यप्रदेश विधानसभा की बेवसाइट देखने पर पता चला कि पिछले (त्रयोदश) विधानसभा के मंत्रियों में से केवल 16 ने ही उक्त जानकारी सार्वजनिक की है। वर्ष 2015-16 में किसी भी मंत्री या विधायक ने अपनी जानकारी सार्वजनिक नहीं की। संगठन ने शिवराज से आग्रह किया है कि अपने दूसरे नीतिगत फैसलों की तरह वे अपने शासन में पारदर्शिता लाने के लिए जनप्रतिनिधियों की संपत्ति एवं देनदारियों की जानकारी हर वर्ष सार्वजनिक करने की पहल भी करें। इस प्रकार की पहल नेताओं के सार्वजनिक जीवन में स्वच्छता एवं पारदर्शिता सुनिश्चित करने में सहायक हो सकती है। मंत्रियों की संपत्ति की जांच होनी चाहिए कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने मध्यप्रदेश के मंत्रियों के पास जमा की गई संपत्ति की जांच की मांग की है। कांग्रेस महासचिव का कहना है कि प्रदेश में भाजपा 2003 से सत्ता में है। इस दौरान प्रदेश में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि अधिकारियों-कर्मचारियों के पास से करोड़ों की संपत्ति मिली है, तो यह अनुमान लगाना आसान होगा कि मंत्रियों के पास कितनी संपत्ति होगी। सिंह ने कहा कि इस बात की जांच की जानी चाहिए कि मंत्रियों के पास 2003 में कितनी संपत्ति थी और अब कतनी है। सिंह ने आरोप लगाया कि इस समय भ्रष्टाचार मध्यप्रदेश में चरम सीमा पर है और अब कोई भी काम बिना कमीशन के नहीं होता है। उधर, मध्यप्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष अरूण यादव ने प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार चौहान को चि_ी लिख कहा है कि सांसदों और विधायकों से मांगे गए ब्योरे को भाजपा सार्वजनिक करे। अरूण यादव की भेजी गई चि_ी में लिखा है कि भाजपा का कैशलेस ट्रांसजेक्शन पर जोर देना बहुत अच्छा कदम है। अरूण यादव ने लिखा है कि मैं मानता हूं, मप्र में एकत्र होनेवाली जानकारियां आपके माध्यम से ही दिल्ली भेजी जा रही होंगी। यादव ने कहा है कि मेरा खुला अभिमत है कि मप्र के बेहद ईमानदार मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, उनके कैबिनेट मंत्री और भाजपा के सांसद-विधायक सहित पार्टी के अन्य जिम्मेदार पदाधिकारी अपनी संपत्ति का ब्योरा देने का साहस कभी नहीं जुटा सकते। मेरा आपसे अनुरोध है कि पार्टी के निर्देशों के बाद मंत्रियों के भेजे गए ब्योरों को भाजपा की अधिकारिक बेबसाइट पर अपलोड किया जाना चाहिए। ऐसा इसलिए जरूरी है कि प्रदेश की जनता जान सके कि भाजपा के नेताओं ने 13 साल में अपना कितना आर्थिक विकास किया है। अरूण यादव ने अंत में लिखा है कि मुझे पूरा भरोसा है और बेसब्री से इंतजार है कि आप मेरे निवेदन और मांग पर विचार करेंगे। सांसदों की संपत्ति भी भर रही उड़ान विधायकों और प्रदेश सरकार के मंत्रियों की तरह ही सांसदों की संपत्ति में भी उड़ान जारी है। यह इस बात का संकेत है कि अब चुनाव ईमानदार और गरीब उम्मीदवारों के बस की बात नहीं रह गया है। मप्र की गिनती अब तक भले ही गरीब प्रदेशों में होती हो, लेकिन यहां के सांसद कमोबेश गरीब तो नहीं रहे। 2014 में चुनाव के दौरान सांसदों ने चुनाव आयोग को दिए अपने संपत्ति ब्यौरे में जो जानकारी दी है उसमें करीब दो साल में 200 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है। आंकड़ों पर गौर करें तो सूबे की मौजूदा 29 लोकसभा सीटों में से 25 सीटों में करोड़पति उम्मीदवार चुनाव जीतकर आए थे। मात्र चार सांसद ही जनता की नजर में गरीब थे, जिनके पास वार्षिक संपत्ति का आंकड़ा करोड़ में नहीं, बल्कि लाख रुपए में था। लेकिन दो साल में ये भी करोड़पति हो गए हैं। मजेदार बात यह है कि हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा के 85 प्रतिशत करोड़पति सांसद चुनाव जीतकर आए थे वहीं कांगे्रस के 100 प्रतिशत यानि दो में से दोनों सांसद करोड़पति थे। लेकिन आज सभी यानी 100 फीसदी सांसद करोड़पति हो गए हैं। सांसदों की संपत्ति मंत्री 2014 कमलनाथ-छिंदवाड़ा 206.90 करोड़ ज्योतिरादित्य सिंधिया -गुना 33.08 करोड़ सुषमा स्वराज - विदिशा 17.55 करोड़ उदय प्रताप सिंह - होशंगाबाद 13.33 करोड़ अनूप मिश्रा - मुरैना 11.05 करोड़ सुधीर गुप्ता -मंदसौर 05.74 करोड़ नागेंद्र सिंह - खजुराहो 04.45 करोड़ नंदकुमार चौहान -खंडवा 04.01 करोड़ प्रहलाद पटेल -दमोह 03.95 करोड़ गणेश सिंह - सतना 03.78 करोड़ सुभाष पटेल - खरगौन 03.61 करोड़ रीति पाठक - सीधी 03.34 करोड़ रोडमल नागर - राजगढ़ 02.85 करोड़ राकेश सिंह - जबलपुर 02.78 करोड़ ज्योति धुर्वे -बैतूल 02.62 करोड़ फग्गन सिंह कुलस्ते -मंडला 02.57 करोड़ बोध सिंह भगत -बालाघाट 02.49 करोड़ लक्ष्मीनारायण यादव -सागर 02.39 करोड़ भागीरथ प्रसाद - भिंड 02.12 करोड़ चिंतामणि मालवीय - उज्जैन 01.88 करोड़ सुमित्रा महाजन - इंदौर 01.87 करोड़ आलोक संजर -भोपाल 01.45 करोड़ कांतिलाल भूरिया - रतलाम 02.22 करोड़ नरेंद्र सिंह तोमर -ग्वालियर 01.14 करोड़ जनार्दन मिश्रा - रीवा 01.01 करोड़ डॉ. वीरेंद्र कुमार- टीकमगढ़ 01.07 करोड ज्ञान सिंह- शहडोल 01.80 करोड़ मनोहर ऊंटवाल- देवास 01.30 करोड सावित्री ठाकुर- धार 01.01 करोड

60 फीसदी सीटों पर नए चेहरे की जुगाड़

- संघ की रिपोर्ट के बाद अब सरकारी सर्वे में सामने आया हाल
भोपाल। मप्र में लगातार चौथी बार सरकार बनाने के सपने देख रही भाजपा के विधायक ही नहीं, मंत्रियों के लिए भी आगामी विधानसभा चुनाव आसान नहीं रहने वाला है। यह संकेत मिला है पिछले छह माह में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ, भाजपा संगठन और सरकार द्वारा कराई गई सर्वे रिपोट्र्स में। सरकार की एक हालिया सर्वे रिपोर्ट के अनुसार भाजपा की करीब 60 फीसदी सीटों पर हालत खराब है। यही कारण है कि संघ ने प्रदेश में अपनी सक्रियता बढ़ा दी है। साथ ही संगठन व सत्ता की ओर से विधायकों के साथ मंत्रियों को भी समय रहते हालात काबू में करने की हिदायतें दी जा रही हैं। उधर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-सपा गठबंधन ने भाजपा की हवाई उड़ा दी है। अगर मप्र में भी गठबंधन होता है तो यह भाजपा के लिए भारी पड़ेगा। इतिहास गवाह है कि राजशाही हो या राजनीति चौथी पीढ़ी और चौथी पारी दोनों के पतन का कारण बनती है। कहा जाता है कि विजेता तैमूर लंग ने मशहूर इतिहासकार और समाजशास्त्री इब्न खुल्दुन से अपने वंश की किस्मत पर बात की। खुल्दुन ने कहा कि किसी वंश की ख्याति चार पुश्तों से ज्यादा शायद ही टिकती है। पहली पीढ़ी जीत पर ध्यान केंद्रित करती है। दूसरी पीढ़ी प्रशासन पर। तीसरी पीढ़ी, जो विजय अभियानों या प्रशासनिक जरूरतों से मुक्त होती है, उसके पास अपने पूर्वजों के जमा धन को सांस्कृतिक कार्यों पर खर्च करने के सिवा कोई काम नहीं रह जाता। अंतत: चौथी पीढ़ी तक वह एक ऐसा वंश रह जाता है जिसने अपना सारा पैसा और उसके साथ ही इंसानी ऊर्जा भी खर्च कर दी है। यह प्राकृतिक अवधारणा है और इससे बचा नहीं जा सकता। तो क्या यही प्राकृतिक अवधारणा भाजपा को चौथी पारी में बाधा बनेगी? 40 फीसदी विधायकों पर आंच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा संगठन के बाद अब प्रदेश सरकार की खुफिया रिपोर्ट में यह तथ्य सामने आया है कि शिव 'राजÓ की रिपोर्ट खराब है। इस रिपोर्ट के अनुसार, अगर स्थिति नहीं सुधरी तो 2018 का विधानसभा चुनाव भाजपा को मझधार में डाल सकता है। इसको देखते हुए पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव में अपने करीब 40 फीसदी विधायकों को बाहर का रास्ता दिखा सकती है। ज्ञातव्य है कि पिछले साल संघ ने सरकार को चेताया था कि जनता के बीच सरकार और विधायकों की छवि खराब है। उस समय प्रदेश की राजनीति में कोहराम-सा मच गया था। अब पचमढ़ी में आयोजित प्रशिक्षण शिविर के दौरान सामने आई ग्राउंड रिपोर्ट ने भाजपा की हवाई उड़ा दी है। सरकार और संगठन द्वारा द्वारा तैयार रिपोर्ट के अनुसार 165 विधायकों वाली भाजपा की प्रदेश के करीब 24 जिलों में स्थिति चिंता जनक है। जबकि 10 जिलों में विपक्ष से बराबरी का मुकाबला है। वहीं 21 जिलों में पार्टी की स्थिति विपक्ष से अच्छी है। रिपोर्ट में बताया गया है कि 8 मंत्रियों और 58 विधायकों की स्थिति उनके विधानसभा क्षेत्र में खराब है। यानी अभी चुनाव हुए तो यहां भाजपा की हार तय है। इस रिपोर्ट के आने के बाद संगठन और सरकार अचंभित है। वहीं संघ की नजर में भाजपा की तीसरी पारी की सरकार जनता की नजर में पूरी तरह फ्लाप है। संघ ने तो नए चेहरों को मौका देने की सलाह तक दे डाली है। 140 सीटों के लिए नए चेहरों की तलाश उल्लेखनीय है की वर्तमान में भाजपा के पास 165 विधायक हैं। यानी 230 विधानसभा क्षेत्र वाले मप्र में भाजपा पहले से ही 65 सीटों पर कमजोर है। इनमें से वर्तमान समय में कांग्रेस 56, बसपा 4, निर्दलीय तीन सीटों पर काबिज है, जबकि दो खाली हैं। सरकार की वर्तमान रिपोर्ट में 66 सीटों (8 मंत्रियों और 58 विधायकों) पर जनाधार कमजोर हुआ है। अनुमानत: यह आंकड़ा अभी और बढ़ सकता है। भाजपा के सूत्रों की माने तो यह संख्या 75 तक पहुंच सकती है। इस तरह कम से कम आगामी चुनाव में भाजपा को 140 सीटों (60 फीसदी)पर नए चेहरे उतारने पड़ सकते हैं। इन सीटों पर भाजपा डावांडोल संघ, संगठन, सरकार की रिपोट्र्स और विधानसभा सीट की वर्तमान स्थिति को देखते हुए भाजपा की 140 सीटों पर स्थिति डावांडोल है। 24 जिलों में तो भाजपा की स्थिति पस्त है। दरअसल, इन 140 सीटों में से कुछ वह विधानसभा क्षेत्र हैं जहां पिछले चुनाव में भाजपा कम मार्जिन से जीती थी, वहीं कुछ सीटें वे हैं जहां कांग्रस-सपा गठबंधन भाजपा पर भारी पड़ेगा, कुछ सीटों पर उम्रदाराज नेताओं को बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा और कुछ सीटें वह हैं जहां मंत्रियों और विधायकों का जनाधार कम हो रहा है। श्योपुर: विजयपुर। मुरैना : जौरा, मुरैना, दिमनी और अम्बाह। भिंड: अटेर, भिंड, लहार और मेहगांव। ग्वालियर: ग्वालियर ग्रामीण, ग्वालियर ईस्ट, भितरवार और डबरा। दतिया: सेवढ़ा और भांडेर। शिवपुरी: करेरा, पोहरी, पिछोर और कोलारस। गुना: बमोरी और राघौगढ़। अशोक नगर: अशोक नगर, चंदेरी और मुंगावली। सागर: खुरई, सुरखी, सागर, देवरी और बंडा। टीकमगढ़: टीकमगढ़, जतारा, पृथ्वीपुर और खरगापुर। छतरपुर : चांदला, राजनगर, छतरपुर और मलहेरा। दमोह: दमोह, जबेरा और हटा। पन्ना : पवई, गुन्नौर और पन्ना। सतना: चित्रकूट, रैगांव, अमरपाटन और रामपुर बघेलान। रीवा : सिरमौर, सेमरिया, मउगंज, देवतालाब, मनगवां और गुढ़। सीधी: चुरहट, सीधी और सिंहावल। सिंगरौली: चितरंगी। शहडोल: ब्यौहारी। अनूपपुर: कौतमा और अनूपपुर। उमरिया: बांधवगढ़। कटनी: बड़वारा और विजयराघवगढ़। जबलपुर: पाटन, बरगी, जबलपुर ईस्ट, जबलपुर वेस्ट और सिहोरा। डिण्डोरी: डिण्डोरी। मण्डला : मण्डला। बालाघाट: बैहर, लांजी, परसवाड़ा और बालाघाट। सिवनी : बरघाट, सिवनी, केवलारी और लखनादौन। छिन्दवाड़ा: अमरवाड़ा, सौंसर, परासिया और पाण्डुर्ना। बैतूल: घोड़ाडोंगरी। हरदा: टिमरनी और हरदा। होशंगाबाद: सिवनी मालवा। रायसेन: सांची (अजा)। विदिशा: बासौदा, कुरवाई (अजा), सिरोंज और शमशाबाद। भोपाल: गोविंदपुरा, भोपाल उत्तर और भोपाल मध्य। सिहोर : आष्टा, इछावर और सीहोर। राजगढ़ : नरसिंहगढ़, व्यावरा और खिलचीपुर। आगर: सुसनेर। शाजापुर: शाजापुर और शुजालपुर। देवास: सोनकच्छ और मंधाता। खंडवा: मंधाता। खरगोन: भीकनगांव, बड़वाह, महेश्वर, कसरावद, खरगोन और भगवानपुरा। बड़वानी: राजपुर, पानसेमल और बड़वानी। अलीराजपुर: अलीराजपुर और जोबट। झाबुआ: थांदला और पेटलावाद। धार: सरदारपुर, धार, गंधवानी, कुक्षी, मनावर, धरमपुरी और बदनावर। इंदौर: राउ। उज्जैन: उज्जैन नार्थ और उज्जैन साउथ। रतलाम: सैलाना और आलोट। मंदसौर: मल्हारगढ़ और सुवासरा। नीमच: मनासा, नीमच और जावद। नरसिंहपुर: गोटेगांव और नरसिंहपुर। इन मंत्रियों के क्षेत्र में साख दांव पर प्रदेश में भाजपा विधायकों के साथ ही करीब पंद्रह मंत्रियों के क्षेत्र में पार्टी की साख दांव पर है। जहां कुछ मंत्रियों की साख गिरी है, वहीं कुछ विवादों में घिरे हैं। जबकि कई मंत्रियों के उम्रदराज होने के कारण संगठन उन्हें टिकट देने के मूड में नहीं है। ऐसे में इन मंत्रियों के क्षेत्र में भाजपा को मुश्किलों का सामना कर पड़ सकता है। पार्टी को कांग्रेस के साथ ही अपनों से भी जुझना पड़ेगा। जयंत मलैया: प्रदेश के वित्त एवं वाणिज्यिक कर मंत्री जयंत मलैया सरकार के सबसे सुलझे हुए मंत्री है। इनके कामकाज से सरकार और संगठन दोनों संतुष्ट हैं। लेकिन उनके विधानसभा क्षेत्र दमोह में उनका जनाधार निरंतर कम हो रहा है। पिछले दो चुनावों में उनकी जीत का अंतर बेहद कम रहा। पिछले चुनाव में कांग्रेस के चंद्रभान सिंह को उन्होंने मात्र 4953 मतों से परास्त किया था। इसलिए दमोह सीट इस बार भी भाजपा के लिए रेड जोन में है। वैसे मलैया के प्रभार वाले जिला इंदौर की जनता भी उनसे खुश नहीं है। खासकर व्यापारी और उद्योग वर्ग। उधर, मलैया के पुत्र अपने पिता की विरासत संभालने के लिए तैयार हैं। डॉ. गौरीशंकर शेजवार: वन, योजना, आर्थिक एवं सांख्यिकी मंत्री शेजवार ने अगला चुनाव न लडऩे की घोषणा की है। इस कारण भाजपा को सांची (अजा)के लिए एक जीताऊ नेता की दरकार है। पिछले चुनाव में कांग्रेस के डॉ. प्रभुराम चौधरी को 20936 मतों से हरा कर शेजवार विधायक बने। वैसे वन मंत्री के रूप में उनकी परफार्मेंस संतोषप्रद नहीं है। वे अपने प्रभार वाले जिला जबलपुर में भी अपनी छाप नहीं छोड़ पाए। हालांकि शेजवार के पुत्र मुदित शेजवार विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय हैं। कुसुम मेहदेल: प्रदेश की लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी एवं जेल मंत्री कुसुम मेहदेल एक मंत्री के रूप में सफल नहीं हो पाई हैं। उनके विधानसभा क्षेत्र पन्ना में उनकी स्थिति संतोषजनक है। पिछले चुनाव में उन्होंने बसपा के लोधी महेन्द्र पाल वर्मा को 29036 वोट से हराया था। लेकिन भाजपा संगठन द्वारा तय उम्र की सीमा के कारण आगामी चुनाव में उनका टिकट कटना तय है। ऐसे में भाजपा के लिए पन्ना सीट चिंता का कारण बनी हुई है। जहां तक मेहदेले का सवाल है तो वे अपने प्रभार वाले जिलों दमोह और छतरपुर में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई हैं। हालांकि कुसुम मेहदेले के भतीजे पार्थ बुआ की विरासत संभालने के लिए पहले से ही सक्रिय हैं। गौरीशंकर बिसेन: अपने बड़बोलेपन के कारण हमेशा चर्चा में रहने वाल किसान कल्याण एवं कृषि विकास मंत्री बिसेन पिछला चुनाव मात्र 2500 वोट से जीत पाए। बालाघाट सीट पर सपा की अनुभा मुंजार ने उन्हें कड़ी टक्कर दी। इस बार बिसेन का जनाधार और कम हुआ है। संघ के बात संगठन ने भी बिसेन को लेकर चिंता जाहिर की है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस-सपा गठबंधन बिसेन ही नहीं भाजपा के लिए भी खतरे की घंटी है। बिसेन की परफार्मेंस उनके प्रभार वाले जिलों ग्वालियर और छिन्दवाड़ा में भी ठीक नहीं है। वैसे बिसेन की बेटी मौसम बिसेन पिता की विरासत संभालने की तैयारी कर रही हैं। रुस्तम सिंह: प्रदेश के लोक स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री रूस्तम सिंह भाजपा के सबसे कमजोर मंत्री के तौर पर सामने आए हैं। रिपोर्ट के अनुसार, न अपने विधानसभा क्षेत्र मुरैना और न ही सरकार में वे अच्छा परफार्मेंस कर पाए हैं। वैसे भी पिछले चुनाव में वे बसपा के रामप्रकाश से मात्र 1704 वाट से ही जीत पाए थे। ऐसे में मुरैना में हार से बचने के लिए भाजपा कोई नया दांव खेल सकती है। यशोधरा राजे सिंधिया: खेल और युवा कल्याण, धार्मिक न्यास और धर्मस्व मंत्री यशोधरा के खिलाफ भाजपा में ही माहौल बनाया जा रहा है। संघ की रिपोर्ट में बताया गया है कि उनके राजसी व्यवहार के कारण शिवपुरी की जनता का अब उनसे मोहभंग होने लगा है। ज्ञातव्य है कि पिछले चुनाव में वे कांग्रेस प्रत्याशी वीरेंद्र रघुवंशी से 11145 मतों से जीती थीं। लेकिन इस बार सरकार ने उनसे उद्योग विभाग लेकर यह जता दिया है कि उनसे सरकार भी खुश नहीं है। वर्तमान में यशोधरा के पास जो विभाग हैं वे केवल शोभा के लिए हैं। पारसचंद्र जैन: विवादों में रहने वाले पारस जैन के पास ऊर्जा विभाग है, लेकिन वे अभी तक इस विभाग को समझ नहीं पाए हैं। वैसे भी यह विभाग अफसर चला रहे हैं। पारस जैने ने पिछले चुनाव में भले ही उज्जैन नार्थ विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के विवेक जगदीश यादव को 24849 वोटों से हराया है, लेकिन विवादों के कारण उनके क्षेत्र की जनता खफा है। हालांकि कहा जाता है कि यहां पारस जैन नहीं बल्कि संघ चुनाव लड़ता है। सो पारस जैन का भाग्य संघ के हाथ में है। वैसे वे अपने प्रभार के जिलों खण्डवा और बुरहानपुर में भी उपेक्षित हैं। ज्ञान सिंह: यह विडम्बना है की सांसद बनने के बाद भी ज्ञान सिंह मंत्री के पद पर आसिन हैं। वैसे आदिम जाति कल्याण, अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री वे केवल नाम के लिए ही हैं। एक मंत्री के तौर पर उनकी उपलब्धि नगण्य है। वर्तमान में बांधवगढ़ भाजपा के लिए रेड जोन में है। आलम यह है कि इस सीट पर होने वाले उपचुनाव के लिए पार्टी के पास जीताऊ उम्मीदवार तक नहीं है। 2018 तक तो स्थिति और खराब हो सकती है। माया सिंह: ग्वालियर ईस्ट विधानसभा सीट पर कांग्रेस के प्रत्याशी मुन्नालाल गोयल से 1147 वोटों से जीती माया सिंह नगरीय विकास एवं आवास मंत्री के तौर पर खुब सक्रिय हैं। वे अपने प्रभार वाले जिलों दतिया और मुरैना में काफी चर्चित हैं। लेकिन खुद के विधानसभा क्षेत्र में उनकी स्थिति चिंताजनक है। इसको लेकर संघ, संगठन और सरकार भी चिंतित है। उधर क्षेत्र में महल विरोधी लोग भी इनके खिलाफ लगातार मुहिम चला रहे हैं। भूपेन्द्र सिंह: मंत्री के तौर पर भूपेंद्र सिंह काफी सक्रिय हैं। वे शिव 'राजÓ के नौ रत्नों में से एक हैं। इसलिए मुख्यमंत्री ने उन्हें गृह और परिवहन जैसे महत्वपूर्ण विभाग सौंपे हैं। लेकिन अपने विधानसभा क्षेत्र खुरई में वे लगातार जनाधार खो रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार जनता के बीच उनकी छवि ठीक नहीं है। यही नहीं पिछले चुनाव में जिस तरह कांग्रेस के अरूणोदय चौबे से उनको कड़ी टक्कर मिली थी और वे 6084 वोट से जीते थे वह भी चिंता का विषय है। खबर है कि आगामी चुनाव आते-आते उन्हें संगठन में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंप कर खुरई से मुक्त किया जा सकता है। वैसे अपने प्रभार वाले जिले उज्जैन में सिंहस्थ के सफल समापन ने इनकी हैसियत बढ़ा दी है। दीपक जोशी: राज्य मंत्री रहते हुए प्रदेश के सबसे सक्रिय मंत्रियों में दीपक जोशी का नाम आता है। जोशी के पास तकनीकी शिक्षा, श्रम, स्कूल शिक्षा आदि विभाग हैं। लेकिन संघ और संगठन की नजर में पिछले चुनाव में उनकी जीत संतोषप्रद नहीं थी। हाटपिपल्या विधानसभा सीट पर वे कांग्रेस के ठा. राजेन्द्र सिंह बघेल 6175 वोट से जीते थे। यही नहीं पिछले तीन साल में कांग्रेस ने अपनी स्थिति और मजबूत की है। इसलिए भाजपा ने इस सीट को रेड जोन में रखा है। हर्ष सिंह: आयुष, नवीन एवं नवकरणीय ऊर्जा, जल संसाधन राज्य मंत्री हर्ष सिंह ने रामपुर बघेलान सीट पर बसपा के रामलखन सिंह 24255 मतों से मात दी थी। लेकिन वे मंत्री के तौर पर अपनी छाप नहीं छोड़ पाए। संघ, सरकार और संगठन उनके परफार्मेंस से खुश नहीं है। वहीं उनके खराब स्वास्थ्य के कारण भी पार्टी रामपुर बघेलान को लेकर सतर्क है। ललिता यादव: पिछले चुनाव में छतरपुर विधानसभा सीट पर कांग्रेस के आलोक चतुर्वेदी को 2217 मतों से हराकर विधायक बनी ललिता यादव को लेकर भी पार्टी असमंजस में है। वे पिछड़ा वर्ग तथा महिला एवं बाल विकास राज्य मंत्री हैं, लेकिन उनकी साख नहीं जम पाई है। पार्टी को इस सीट को लेकर चिंता है, क्योंकि ललिता यादव अपने विधानसभा क्षेत्र भाजपा का किला मजबूत नहीं कर पाई हैं। संजय पाठक: विजयराघवगढ़ सीट पहले कांग्रेस फिर भाजपा और आगे भी भाजपा के कब्जे में रहेगी इसको लेकर न तो संघ और न ही पार्टी आश्वस्त है। जिस तरह कटनी हवाला कांड में सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम राज्य मंत्री पाठक का नाम उछला और उनके खिलाफ माहौल बना है उससे कम ही उम्मीद है की यहां पाठक की साख बरकरार रह पाएगी। इसकी वजह यह भी है कि संघ भी पाठक के विरोध में है। सूर्यप्रकाश मीना: कहा जाता है कि विदिशा जिले में भाई राघव जी की क्षतिपूर्ति के लिए भाजपा सूर्यप्रकाश मीना को आगे बढ़ा रही है। इसी के लिए उन्हें उद्यानिकी तथा खाद्य प्रसंस्करण, वन राज्य मंत्री बनाया गया है। लेकिन शमशाबाद विधानसभा सीट पर उनकी 3158 वोटों की जीत राह में रोड़ा बनकर खड़ी है। दरअसल, वे अभी तक सफल मंत्री के तौर पर अपने को सिद्ध नहीं कर पाए हैं। उधर संघ और भाजपा उनको लेकर आश्वस्त नहीं है। हालांकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान उनकी नैया को पार लगा सकते हैं। ऐसी स्थिति क्यों बनी सत्ता अच्छे से अच्छे सतपुरूष को पथभ्रष्ट कर देती है। कुछ ऐसा ही रोग भाजपाईयों को लग गया है। रिपोर्ट के अनुसार, भ्रष्टाचार, अहंकार, जनता के कटाव, मंत्रियों-विधायकों और अफसरों में टकराव, कार्यकर्ताओं से दुव्र्यवहार और सरकार की योजनाओं का बंटाढार होने के कारण यह स्थिति बनी है। निष्क्रिय विधायकों को लेकर आलाकमान लगातार टिप्पणी करता रहा है। ठेकदारी और व्यापार में दिलचस्पी लेने वाले इन विधायकों पर जनता के बीच सक्रिय न रहने का आरोप लगता रहा है। इनके खिलाफ पार्टी नेताओं खास कर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को शिकायतें मिलती रहती हैं। ऐसे में इन विधायकों का टिकट कटना लगभग तय माना जा रहा है। भाजपा के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं कि 2003 में जो रोग दिग्विजय सिंह की सरकार को लगा था वही रोग वर्तमान सरकार को लग गया है। यानी भाजपा में परिवारवाद से ले कर दलबदल की नीतियों तक को अपना लिया है। इस से भाजपा को अपने अंदर से ही चुनौती मिलने लगी। ज्ञातव्य है कि मध्य प्रदेश में 2003 में दिग्विजय सिंह की सरकार सत्ता से बेदखल हुई थी। तब उसके खिलाफ हवा बनाने में चार-पांच मुद्दों ने अहम भूमिका निभाई थी। इनमें सबसे बुनियादी मुद्दा राज्य की आर्थिक स्थिति थी। तब राज्य का अर्थतंत्र इस कदर गड़बड़ाया कि वह बीमारू की श्रेणी में शुमार होने लगा। निवेश आना रुक गया और बेरोजगारी तेजी से बढ़ती जा रही थी। फिर सड़कों की दुर्दशा और बिजली की किल्लत कोढ़ में खाज बन गई। इससे तंगहाल प्रदेश की जनता ने दिग्विजय सिंह के तमाम 'चुनावी प्रबंधनÓ (जिसका वे दावा किया करते थे) को धता बताते हुए भाजपा को तीन-चौथाई बहुमत के साथ सत्ता सौंप दी। ऐसी ही स्थिति प्रदेश में वर्तमान समय में दिख रही है। सरकार केवल दावे और आंकड़े बाजी करके विकास की तस्वीर परोस रही है। जबकि हकीकत में सड़क, पानी, बेरोजगारी, महंगाई ने जनता को बेहाल कर दिया है। रोजगार के संबंध में 2014-15 का मध्य प्रदेश का आर्थिक सर्वेक्षण ही सरकार की चुगली करता है। यह बताता है कि प्रदेश में नवंबर, 2014 तक शिक्षित बेरोजगारों की संख्या करीब 16.5 लाख थी। यह आंकड़ा वह है जो रोजगार कार्यालयों में दर्ज है। इसमें अशिक्षित बेरोजगार जुड़े ही नहीं हैं। निवेश, कारोबार, रोजगार के बाद बात करें राज्य की आर्थिक स्थिति की तो राज्य पर कर्ज का बोझ इस वक्त करीब 1.5 लाख करोड़ रुपए हो चुका है। इस पर 6,000 करोड़ रुपए का सालाना ब्याज लग रहा है। लगातार तीन बार से सत्ता सुख भोग रही भाजपा को मालुम है कि आगामी चुनाव में उसके सामने चुनौतियां अपार है। इसलिए अब वह अपने सारे सिद्धांतों से समझौता करने के मूड में भी नजर आ रही है। हालांकि पार्टी अभी से 2018 के लिए पार्टी अब फंूक-फूंक कर कदम आगे बढ़ाएगी। विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण संघ, संगठन, सरकार और कार्यकर्ताओं की रिपोर्ट के आधार पर होगा। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के सामने केवल कांग्रेस पार्टी ही थी। लेकिन इस बार कांग्रेस, सपा बसपा के साथ ही एंटीइंकंवेसी भी रहेगी। तैयार होगा विधायकों का रिपोर्ट कार्ड जपा मध्यप्रदेश में अपनी चौथी पारी को सुनिश्चित करने के लिए कोई भी कोर कसर नहीं छोडऩा चाहती है। इसलिए मैदानी जमावट के साथ ही पार्टी अब अपनों की हैसियत का भी आंकलन कर रही है। इसी कड़ी में पार्टी अब अपने विधायकों का रिपोर्ट कार्ड तैयार करेगी। इसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा कार्यकर्ता, और स्थानीय लोगों का मंतव्य लिया जाएगा। उधर, शिवराज सरकार भी अब पूरी तरह से चुनावी मोड में आ गई है। चुनाव कैसे जीतना है? अभी जनता के बीच विधायकों की क्या स्थिति है? इस स्थिति को कैसे सुधारा जाए? वोट की राजनीति क्या हो? ये सब आकलन पचमढ़ी प्रशिक्षण वर्ग में खुलकर हुआ। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने विधायकों को जीत के लिए मंत्र देने के साथ ही नसीहत भी दी। उन्होंने विधायकों से कह दिया है कि मई तक विधायकों के कामकाज का सर्वे हो जाएगा। विधायकों की उनके विधानसभा क्षेत्र में स्थिति क्या है, इसे लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मार्च से सर्वे प्रारंभ करने जा रहे हैं। निजी संस्था के साथ इस बार इंटेलीजेंस की रिपोर्ट को भी जोड़ा जाएगा, ताकि वास्तविक स्थिति का पता चल सके। मई के दूसरे पखवाड़े में मुख्यमंत्री विधायकों से वन-टू-वन चर्चा के दौरान यह रिपोर्ट बताएंगे। इसे चुनाव से पहले की रिपोर्ट माना जाएगा, जिसमें वो कमियां बताई जाएंगी, जिसे विधायक को अगले डेढ़ साल में सुधारना होगा। इस बार के सर्वे में खास तौर पर यह भी पूछा जाएगा कि एक या दो बार के विधायकों की संपत्ति सामान्य रही है या अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। यह सवाल केंद्रीय स्तर से आया है क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नए वित्तीय वर्ष में ऐसे लोगों के खिलाफ मुहिम शुरू करेंगे, जिनकी अचल संपत्तियां कई गुना है। विधायकों के साथ इस बार मंत्रियों की परफॉर्मेंस का आंकलन किए जाने की तैयारी है। दूसरी तरफ भाजपा ने विधायकों व मंत्रियों का संगठन स्तर से फीडबैक लेना प्रारंभ कर दिया है। तीन तरह से बनेगा रिपोर्ट कार्ड भाजपा ने सर्वे का आधार तय कर लिया है। इसका तीन तरह का पैमाना होगा। विधानसभा में इंटेलीजेंस के आधार पर रिपोर्ट बन रही है। एक सर्वे निजी एजेंसी से कराया जाएगा, जिसमें 30 से 40 सवाल होंगे। इसके अलावा संभागीय संगठन मंत्री अपनी संघ और अनुषांगिक टीम के कार्यकर्ताओं की बदौलत मैदानी आकलन करेंगे। ये सब कवायद अभी से इसलिए की जा रही है, ताकि विधायकों को सुधरने का मौका दिया जा सके। इसलिए अभी तीन महीने दिए गए हैं। भाजपा मौजूदा सीटों पर उम्मीदवारों का चयन करते समय सीटिंग विधायकों की जनता के बीच छवि, विधायक के रूप में उनके कामकाज के साथ ही चुनाव जीतने की संभावना को भी जांच-परख करेगी। जो विधायक इन कसौटियों पर खरे नहीं उतरेंगे, उनके टिकट काट दिए जाएंगे। शिवराज की छवि नहीं लगेगी दांव पर भाजपा में मप्र के मुख्यमंत्री की छवि विजेता की है। लेकिन सरकार की ही रिपोर्ट ने अब उनकी छवि दांव पर लग गई है। दरअसल, संघ और संगठन नहीं चाहता है की शिवराज पर इतना भार डाला जाए की वे हर बार की तरह इस बार भी खराब रिपोर्ट वालों की नैय्या को पार लगा दें। इसलिए पार्टी इस बार खराब रिपोर्ट वालों को बर्दास्त करने के मूड में नहीं है। पचमढ़ी बैठक में मुख्यमंत्री ने भले ही कह दिया है की मई में एक बार फिर से मंत्रियों-विधायकों की रिपोर्ट का आंकलन किया जाएगा, लेकिन इस बार किसी के साथ सहानुभूति नहीं दिखाई जाएगी। यानी जिसकी परफार्मेंस खराब होगी उसे घर बैठना ही पड़ेगा। संघ और संगठन भी जता चुके हैं चिंता प्रदेश सरकार के मंत्रियों और विधायकों की परफार्मेंस को लेकर संघ और भाजपा भी चिंता जता चुके हैं। दिसंबर में इंदौर में हुए चार दिवसीय प्रशिक्षण वर्ग में भी विधायकों को ये बता दिया गया था कि 2018 में आधे से ज्यादा विधायकों को टिकट नहीं मिलेगा। संगठन ने साफ कर दिया है कि उन विधायकों को ही दोबारा चुनाव लड़वाया जाएगा जिनके नाम उनके सर्वे में आएंगे। अगले चुनाव में भाजपा के लिए कांग्रेस से ज्यादा मुश्किलें पार्टी के अंदर से आने वाली हैं, उम्मीदवारों की संख्या बहुत ज्यादा है और कई सिटिंग विधायकों के परफार्मेंस से पार्टी खुश नहीं है। सिटिंग विधायकों में मंत्रियों को भी गिना जा रहा है। 2013 में एक दर्जन मंत्रियों की चुनाव में हार हुई थी। इसलिए इस बार पार्टी कोई चुक नहीं करने वाली है। चुनावी बिसात पर मोहरें तैयार विधानसभा चुनाव को अभी लंबा वक्त है, लेकिन भाजपा चुनावी बिसात पर मोहरें तैयार कर रही है। विधानसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा प्रत्येक विधानसभाओं में सीटिंग विधायक के अलावा 3-3 दावेदार तय कर रही है। यह बात अलग है कि किसके हाथ टिकट लगता है पर इस बार पार्टी उम्र सीमा के आधार पर भी लोगों को अलग कर सकती है साथ ही साथ उन दावेदारों जिनका ग्राफ नीचे गया है को नकार भी सकती है। हालांकि कोई भी अपने को विजयी उम्मीदवार से कम नहीं मानता, लेकिन भाजपा द्वारा कराए गए सर्वेक्षण से इन प्रत्याशियों का भाग्य तय होगा। भाजपा के आंतरिक सर्वेक्षण में विधायकों, नए चेहरों और कांग्रेस से भाजपा में आए पूर्व विधायकों के लिए कुछ मानक तय किए गए हैं। इन मानकों के अनुसार भी कुछ को टिकट मिलेंगे कुछ के कटेंगे। भाजपा सूत्रों की माने तो भाजपा केवल जिताऊ उम्मीदवारों पर दांव लगाएगी जो बिकाऊ न हों, इसके लिए भाजपा ने कुछ मानक तय किए हैं। इन मानकों में विधानसभा के कार्यकाल के साथ-साथ लोकसभा चुनाव और उपचुनाव की भूमिका भी देखी जाएगी। जिसके आधार पर उन्हें टिकट दिया या छिना जाएगा। इसी प्रकार पुराने जीत या हार के मानक भी आंकड़े के रूप में प्रत्याशियों की छवि को प्रभावित करेंगे इसमें कोई दो राय नहीं है। संघ के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ-साथ प्रदेश प्रभारी, प्रदेश अध्यक्ष की रिपोर्टों पर भी आलाकमान निर्णय करेगा। कटेंगे बहुतों के टिकट मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान प्रदेश में चौथी बार सत्ता में काबिज होने जनता का जहां मन मोहने में लगे हुए हैं। वहीं भाजपा के विधायकों की कराई गई मैदानी सर्वे रिपोर्ट तथा रायशुमारी में आए प्रतिकूल परिणामों को लेकर भाजपा के सत्ता और संगठन में हड़कंप मच गया है। ग्वालियर चंबल संभाग, विंध्य क्षेत्र तथा बुंदेलखंड अंचल के भाजपा विधायकों की रिपोर्ट बहुत कमजोर उजागर हुई है। जिस कारण भाजपा हाईकमान ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया है कि बहुत से वर्तमान विधायकों और मंत्रियों के टिकट काटे जायेंगे। जीतने की संभावना और परफारमेंस के आधार पर विधायकों को टिकट देने का भाजपा का यह फैसला कहीं पार्टी का खेल ही न बिगाड़ दे, इन विधायकों की परफारमेंस भले न अच्छी रही हो, लेकिन ये विधायक बागी बन कर या किसी अन्य दल से टिकट लेकर भाजपा के खेल को बिगाड़ सकते हैं।