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भेड़ाघाट

Friday, July 21, 2017

क्या ऐसे होगी भ्रष्ट नौकरशाहों की विदाई...

8 साल, 776 दागदार, मात्र 10 निकले गुनाहगार
भोपाल। देश में भ्रष्टाचार का मूल नेता, अफसरशाही और माफिया के गठबंधन को माना जाता है। मई 2014 में नरेंद मोदी प्रधानमंत्री बने तो पूरे देश में संदेश गया कि अब भ्रष्टाचार पर प्रहार होगा। मोदी ने भी नौकरशाहों के साथ हुई पहली बैठक में साफ संकेत दे दिया की अब न तो भ्रष्टाचार और न ही भ्रष्ट बर्दास्त होंगे। आनन-फानन में प्रधानमंत्री कार्यालय(पीएमओ) और डिपार्टमेंट ऑफ पर्सनल एंड ट्रेनिंग (डीओपीटी) ने उन 776 दागदार नौकरशाहों की फाइल तलब की जिनके खिलाफ पिछले 5 साल से जांच चल रही थी। लेकिन वर्तमान सरकार ने 776 नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की 3 साल की जांच-पड़ताल के बाद मात्र 5 आईएएस पर विभागीय कार्रवाई की अनुमति दी है। पीएमओ और डीओपीटी की जांच को लेकर कई सवाल उठने लगे हैं, क्योंकि पिछले 8 साल(5 साल यूपीए और 3 साल एनडीए) चली जांच में वे मात्र 10 भ्रष्ट अफसरों के भ्रष्टाचार की तह तक पहुंच सके। जबकि 776 आईएएस अफसरों पर 2.72 लाख करोड़ के भ्रष्टाचार के आरोप हैं, जिनमें मप्र के 32 आईएएस भी हैं। डीओपीटी के सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार, केंद्र के साथ ही विभिन्न राज्यों में पदस्थ आईएएस अफसरों में से 1476 किसी न किसी भ्रष्टाचार में लिप्त पाए गए हैं। प्रधानमंत्री के निर्देश के बाद पीएमओ और डीओपीटी ने इनमें से उन 776 नौकरशाहों को चिंहित किया जिनके खिलाफ यूपीए टू के शासनकाल से जांच चल रही थी। यह खबर आते ही देश की नौकरशाही में हड़कंप मच गया था। लेकिन अब जब वह जांच रिपोर्ट आई है तो सब हैरान हैं।
जांच रिपोर्ट के आंकड़े चौकाने वाले
जानकारी के अनुसार, यूपीए शासनकाल के दौरान केंद्र और राज्यों में विभिन्न योजनाओं में करीब 2.72 लाख करोड़ रूपए के भ्रष्टाचार के लिए 776 नौकरशाहों पर आरोप लगे थे। इन नौकरशाहों के खिलाफ पीएमओ, डीओपीटी, सीबीआई, राज्यों के लोकायुक्त, इओडब्ल्यू और अन्य जांच एजेंसियों में शिकायत हुई थी। यूपीए शासनकाल के दौरान ही इनके खिलाफ हुई शिकायतों की जांच शुरू हुई थी। लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री बनते ही नरेंद्र मोदी ने नौकरशाही पर नकेल कसने का फैसला किया और भ्रष्टों की जांच फिर से नए सिरे से शुरू करवाई। इनमें प्रशासन चलाने वाले महत्वपूर्ण पद पर बैठे आईएएस अधिकारियों के नाम भी शामिल हैं, लेकिन इनसे जुड़ी दंडात्मक कार्रवाई के बेहद चौकाने वाले आकड़ें सामने आए हैं। एक आरटीआई के मुताबिक पिछले 8 सालों में पूरे देश में महज 10 आईएएस अफसरों पर ही कार्रवाई हुई है। कार्मिक तथा प्रशिक्षण विभाग, भारत सरकार के जन सूचना अधिकारी के. श्रीनिवासन द्वारा आरटीआई एक्टिविस्ट डॉ. नूतन ठाकुर को दी गयी सूचना में यह तथ्य सामने आया है कि पिछले 8 सालों में पूरे देश में मात्र 8 आईएएस अफसरों पर वृहत दंड और 2 आईएएस अफसर पर लघु दंड, मतलब कुल 10 अफसरों पर विभिन्न दंड हेतु विभागीय कार्यवाही की गई है। आरटीआई के मुताबिक वर्ष 2010 में वृहत दंड हेतु 01, 2011 में वृहत दंड हेतु 02 और लघु दंड हेतु 01, 2012 में वृहत दंड हेतु 01, 2013 तथा 2014 में कोई नहीं, 2015 में वृहत दंड हेतु 03, 2016 में वृहत दंड हेतु 01 और 2017 में लघु दंड हेतु 01 विभागीय कार्यवाही सम्मिलित हैं। इस संबंध में एक्टिविस्ट डा.ॅ नूतन का कहना है कि इतनी कम संख्या में कार्यवाही से यह साफ हो जाता है कि आईएएस अफसर अपनी सेवा में कितने अधिक सुरक्षित हैं। उन पर तमाम गंभीर आरोपों के बाद भी उनके खिलाफ कितनी कम कार्यवाही होती है।
राज्य सरकारों ने लगाया पलीता
जानकारी के अनुसार, केंद्र सरकार की मंशा पर राज्यों ने पलीता लगाया है। केंद्र ने राज्यों से उनके कैडर के भ्रष्ट अफसरों से फाइल तलब की थी, लेकिन राज्यों ने आधी-अधूरी जानकारियां भेंज दी। पीएमओ और डीओपीटी के अधिकारियों ने फाइलें खंगाली तो उसमें ऐसा कुछ नहीं मिला जिससे दोषियों को दंडित किया जा सके। दिल्ली में पदस्थ मप्र कैडर के एक वरिष्ठ आईएएस अफसर कहते हैं कि नौकरशाही का चरित्र किसी भी सरकार का आईना होता है। भ्रष्टाचार भले ही पूर्व सरकार में हुआ हो, अगर छापा या कार्रवाई वर्तमान सरकार में होगी तो दाग भी इसी पर लगेंगे। इसलिए सरकारों की भी कोशिश होती है की वह गड़े मुर्दे न उखाड़े। इसलिए हर सरकार अपनी नौकरशाही की साफ-सुथरी तस्वीर पेश करती है। अगर उक्त अधिकारी की बातों पर गौर करें तो निश्चित रूप से राज्यों की सरकारों ने अपने दामन पर दाग लगने की बजाए केंद्र को अंधेरे में रखना मुनासिब समझा। पीएमओ और डीओपीटी द्वारा 1476 भ्रष्ट अधिकारियों में से जिन 776 अधिकारियों को दोबारा जांच के लिए जो सूची बनाई गई है उसमें सबसे अधिक उत्तर प्रदेश के अधिकारी हैं, जबकि दूसरे स्थान पर महाराष्ट्र के और तीसरे स्थान पर मप्र के अफसर हैं। उल्लेखनीय है कि भ्रष्टाचार के मामले में मप्र के 160 आईएएस अधिकारियों की फाइल को जांच के लिए पीएमओ और डीओपीटी द्वारा तलब की गई थी। प्रारंभिक जांच में प्रदेश के 32 अफसरों के मामलों को दूसरी जांच के लिए लिया गया। लेकिन हैरानी की बात यह है कि अपने 3 साल के शासनकाल में मोदी सरकार ने केवल 5 भ्रष्ट आईएएस अफसरों को ही दोषी पाया है।
अब अफसरों पर आयकर का पहरा
पीएमओ और डीओपीटी की जांच में बचे अफसरों की अब बेनामी संपत्ति की पड़ताल होगी। केंद्र सरकार ने इसके लिए आयकर विभाग को ताकीद किया है। यानी इन 776 अफसरों के साथ ही अन्य बेनामी संपत्ति वाले अफसरों पर अब पर आयकर का डंडा चलेगा। जानकारी के अनुसार, मप्र के 187 आईएएस की नामी-बेनामी संपत्ति की आयकर विभाग पड़ताल कर रहा है। मप्र के अलावा यूपी के 188 आईएएस व 250 आईपीएस अफसरों के साथ ही छत्तीसगढ़ के 50 आईएएस हैं। आयकर विभाग इन अफसरों से संबंध रखने वाले नेताओं और कारोबारियों पर भी नजर रखी है। आयकर विभाग की सेंट्रल टीम ने अफसरों, रियल इस्टेट कारोबारी, शराब माफिया, पावर प्लांट संचालकों की सूची तैयार की है, जो अपनी बेनामी संपत्ति और पैसों को किसी दूसरे के नाम पर रखकर कारोबार चला रहे हैं। आयकर विभाग के आला अधिकारियों के अनुसार किसी कंपनी में पैसा 'एÓ व्यक्ति का है और उसने प्रॉपर्टी 'बीÓ व्यक्ति के नाम से ले रखी है। जबकि 'बीÓ के पास कोई सोर्स भी नहीं है, सिर्फ नाम के लिए ही उसके नाम से रजिस्ट्रेशन करा रखा है। ऐसी प्रॉपर्टी या खातों की जानकारी लेकर आयकर विभाग बेनामी एक्ट के तहत कार्रवाई करेगा।
यह है बेनामी संपत्ति
आयकर विभाग ने एक नवंबर 2016 से नए बेनामी सौदे प्रतिबंध संशोधन कानून 2016 के तहत कार्रवाई करनी शुरू की थी। इस कानून में सात साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है। आयकर विभाग के अधिकारियों ने बताया कि चल और अचल, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष और मूर्त और अमूर्त संपत्ति यदि उसके वास्तविक लाभ प्राप्तकर्ता स्वामी के बजाय किसी अन्य के नाम पर हों, तो उसे बेनामी संपत्ति कहा जाता है। पिछले साल 13 मई को बेनामी लेनदेन (निषेध) संशोधित बिल-2015 लोकसभा में पेश किया था। लोकसभा ने 27 जुलाई राज्यसभा ने दो अगस्त को संशोधित बिल को पास कर दिया। बेनामी संपत्ति को जब्त करने तथा प्रबंधन के लिए प्रशासक की नियुक्ति का प्रावधान किया गया है। आयकर विभाग ने बेनामी संपत्ति मामले में देश में बड़ी कार्रवाई की है। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की बेटी पर कार्रवाई से पहले आयकर विभाग ने कोलकाता, मुंबई, दिल्ली, गुजरात, राजस्थान और मध्यप्रदेश में 40 से अधिक मामलों में अचल संपत्तियों को कुर्क किया। मूल्य के हिसाब से ये संपत्तियां 530 करोड़ रुपए से ज्यादा की हैं। इसके साथ ही भ्रष्ट अफसरों की बेनामी संपत्ति के मामले में 10 सरकारी अधिकारियों के परिसरों पर छापेमारी भी की।
बेनामी संपत्ति का रिकार्ड हो रहा तैयार
जानकारी के अनुसार मप्र सहित देशभर में बेनामी संपत्ति रखने वाले नौकरशाहों का आयकर विभाग रिकार्ड तैयार कर रहा है। आयकर विभाग के अधिकारियों ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने साफ कर दिया कि वर्तमान मुहिम के बाद उनके निशाने पर बेनामी संपत्ति रखने वाले लोग होंगे। इसके बाद प्रदेश में बेनामी संपत्ति और करोड़ों रुपए दान लेने वालों की सूची को एक बार फिर तैयार किया जा रहा है।
काली कमाई छिपाने में माहिर नौकरशाही
नौकरशाहों की काली कमाई की पड़ताल सरकार दशकों से करा रही है, लेकिन कुछ ही मामलों में सरकार को सफलता मिली है। दरअसल, भ्रष्टाचार में लिप्त सरकारी कर्मचारी और अधिकारी काली कमाई छिपाने में माहिर हैं। भ्रष्टाचार पर निगरानी रखने वाली एजेंसियां भी इस कमाई को उजागर करने में खास कामयाब नहीं हो पाई। यही कारण है कि रंगे हाथ रिश्वत लेने व पद के दुरुपयोग के कई मामले दर्ज करने वाली सीबीआई अधिक सम्पत्ति के मामले तलाशने में कमजोर रही। इसके विपरीत जगजाहिर है कि भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र में किस कदर छाया हुआ है। आय से अधिक संपत्ति का मामला दर्ज करने से पहले एसीबी संबंधित अधिकारी की सम्पत्ति की जानकारी जुटाती है। यह भी जुटाया जाता है कि सम्पत्ति कब और किसके नाम से खरीदी गई। इसके बाद उसके वेतन से तुलना की जाती है। इसमें वर्षों लग जाता है और अधिकारी सेटिंग का फायदा उठाकर बरी हो जाते हैं। जहां तक मप्र की नौकरशाही की काली कमाई की बात है तो अरविंद जोशी और टीनू जोशी इसके उदाहरण हैं। मप्र में ऐसे कई अफसर हैं जिनकी काली कमाई अरविंद जोशी और टीनू जोशी से कम नहीं है, लेकिन इस बेनामी संपत्ति की जानकारी जांच एजेंसियों को शायद नहीं है। अगर आयकर विभाग के सूत्रों की माने तो पिछले एक दशक में प्रदेश के नौकरशाहों ने ही करीब 27,000 करोड़ रुपए की काली कमाई को निवेश किया है। इसके अलावा मध्यप्रदेश में पिछले एक दशक में आईएएस अफसरों सहित कई अन्य सरकारी मुलाजिमों के ठिकानों पर आयकर विभाग के छापों में अब तक करीब 1117 करोड़ की बेनामी संपत्ति का पता चला है, जबकि कई हजार करोड़ की संपति आज भी जांच एजेंसियों के राडार से बाहर है। प्रशासनिक पारदर्शिता और नियम कायदों से कामकाज का ढोल पीटने वाली सरकार की नाक के नीचे नौकरशाह किस तरह सरकारी योजनाओं को पलीता लगा रहे हैं, ये छापे इसका खुलासा कर रहे हैं। आयकर विभाग, लोकायुक्त, ईओडब्ल्यू को मिली शिकायतों के अनुसार प्रदेश में पिछले एक दशक में जितने संस्थान तेजी से खुले या बढ़े हैं, उनमें नौकरशाहों की अवैध कमाई लगी हुई है। आयकर सर्वे की जद में आए निजी संस्थानों के ठिकानों से मिले दस्तावेजों और डायरी से खुलासा हुआ है कि किस तरह प्रदेश की नौकरशाहों ने औद्योगिक घरानों में अपना पैसा लगा रखा है। आयकर विभाग के सूत्रों का कहना है कि पिछले कुछ साल में विभाग ने प्रदेश में जितनी जगह छापामार कार्रवाई की है, उनमें से कुछ को छोड़कर लगभग सभी में नौकरशाहों की कमाई लगने के सुराग मिले हैं, लेकिन पुख्ता सबुत नहीं मिलने के कारण आयकर विभाग उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पा रहा है। मंत्रालयीन सूत्रों का कहना है कि प्रदेश में ऐसी कोई योजना नहीं है जिसका दोहन अफसरों द्वारा नहीं किया जा रहा है। मप्र के 400 से अधिक अधिकारियों-कर्मचारियों के खिलाफ लोकायुक्त में मामला दर्ज है, वहीं 104 लोग ऐसे हैं जिन्हें न्यायालय से भ्रष्टाचार सहित अन्य मामलों में सजा हो चुकी है, लेकिन वे जमानत लेकर नौकरी कर रहे हैं। ऐसे अफसरों की सूची पीएमओ को भेजने की बजाय प्रदेश सरकार चहेते अफसरों को क्लीनचिट देने में जुट गई है। यही नहीं करीब 207 नौकरशाहों के पैसों से प्रदेश के रीयल एस्टेट, कंस्ट्रक्शन, शिक्षा, चिकित्सा और औद्योगिक संस्थान आबाद हो रहे हैं।
व्यापारी नहीें नौकरशाही कर रही व्यापार
मप्र सहित देशभर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान व्यावसायियों और अफसरों के यहां पड़े आयकर छापे में मिले दस्तावेजों में यह तथ्य सामने आया है कि आज व्यापारी व्यापार नहीं कर रहे। सारा व्यापार अधिकारियों और नेताओं ने अपनी मु_ी में कर रखा है जिससे कानून के राज पर हथौड़ा दर हथौड़ा चलाने की श्रंखला निर्मित हो गई है। इसका परिणाम यह हुआ है कि नौकरशाही इन दिनों कार्य कुशलता के लिए नहीं भ्रष्टाचार के एक के बाद एक उजागर हो रहे सनसनीखेज मामलों की वजह से सुर्खियों में है। पहले किसी आईएएस अधिकारी के भ्रष्टाचार के मामले में जेल पहुंचने की कल्पना तक नहीं की जाती थी लेकिन हाल के वर्षों में मप्र कैडर के अरविंद जोशी और टीनू जोशी के अलावा उत्तर प्रदेश के स्व. अखंड प्रताप सिंह, नीरा यादव, प्रदीप शुक्ला, राजीव कुमार जैसे कई आईएएस अफसर एक के बाद एक जेल पहुंचे। ये सारे दिग्गज अफसर थे। जब इनका सिलेक्शन हुआ था तो ये अफसर अपने बैच के टॉपर थे। इसलिए अनुमान यह था कि ऐसे अफसरों के जेल जाने से आईएएस संवर्ग के अन्य सभी अफसरों में खौफ पैदा होगा। आईएएस संवर्ग प्रशासनिक क्षेत्र में अपने आप में ब्रांड सेवा है, जिसके दैदीप्यमान गौरव से बढ़कर कोई पूंजी इस सेवा में शामिल होने वाले अधिकारियों के लिए नहीं हो सकती। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि ऊपर गिनाए गए नामी अफसरों के हश्र को देखने के बावजूद इस सेवा के अधिकारियों में अपने संवर्ग की प्रतिष्ठा और गरिमा की बेशकीमती पूंजी को बचाने की कोई चिंता नजर नहीं आ रही है। आईएएस सेवा अब एक ऐसे वर्ग के रूप में पहचान बना चुकी है जो विदेशियों की तरह औपनिवेशिक मानसिकता के तहत काम करती है। इस बीच कई सुझाव आए जिनमें आईएएस संवर्ग खत्म कर नए प्रशासनिक सेट-अप का खाका खींचा गया है। केंंद्र और राज्य सरकार हददर्जे की अकर्मण्यता के कारण किसी भी क्षेत्र में नवीकरण की ओर अग्रसर नहीं होना चाहती जो बहुत बड़ा अभिशाप बन चुका है। अगर आईएएस संवर्ग का विकल्प लाया जाता है तो वर्गीय गिरोहबंदी के कारण लाभ उठाने वाले भ्रष्ट अफसर काफी हद तक निरस्त हो जाएंगे और इससे व्यवस्था बदलने में बहुत सहूलियत मिलेगी। सरकार में बैठे लोगों को यह समझना चाहिए कि अगर आईएएस अधिकारी सुधर जाएं तो प्रशासन अपने आप काफी हद तक जवाबदेह हो जाएगा। क्योंकि बाकी सभी विभागों की नकेल इस संवर्ग के अधिकारियों की मु_ी में है जो छोटे मियां तो छोटे मियां बड़े मियां सुभानअल्लाह की कहावत को प्रशासनिक अराजकता के मामले में चरितार्थ कर रहे हैं। इस संवर्ग की कल्पना सुशासन के लौहकवच के रूप में की गई थी लेकिन आज इन्होंने शासन व्यवस्था में घुन का रूप ले लिया है। पहले आईएएस अधिकारी कम से कम 10-12 वर्षों तक जब कि वे छोटे जिलों में कलेक्टर तैनात होते थे, पूरी तरह ईमानदार बने रहते थे लेकिन अब दूसरे संवर्ग के अधिकारी करें तो करें, आईएएस अधिकारी भी प्रोवेशन के समय से ही कमाने का फंडा जानने में लग जाते हैं। यह भयानक स्थिति है।
करोड़ों के मालिक हैं ये भी
ऐसा नहीं है की मप्र में केवल आईएएस और आईपीएस ही करोड़ों की काली कमाई के मालिक हैं। संपत्ति के मामले में मप्र राज्य पुलिस सेवा के अफसर आईपीएस अफसरों से कहीं पीछे नहीं हैं। फॉर्म हाउस, दुकानें, बंगले, जमीनें सब कुछ है अफसरों के पास। यह खुलासा राज्य पुलिस सेवा अधिकारियों के वर्ष 2016 में भरे गए संपत्ति के विवरण की रिपोर्ट से हुआ है, जिसे मप्र पुलिस की वेबसाइट पर हाल ही में अपलोड किया गया है। राज्य पुलिस सेवा के 288 अधिकारियों ने संपत्ति का ब्योरा दिया है, जबकि कुल 1040 अफसर हैं। हालांकि जिन्होंने जानकारी दी है, उसमें खानापूर्ति ज्यादा नजर आ रही है। इस ब्योरे के लिए नया फॉर्मेट आने के बाद भी कई ने पुराने फॉर्म ही भर दिए, जबकि उसमें न विस्तृत जानकारी के कॉलम थे और न ही आज के परिपेक्ष्य के हिसाब से वो सही थे। एसडीओपी पाटन अरविंद सिंह ठाकुर ने अपनी संपत्ति को जा ब्यौरा दिया है उसके अनुसार उनके पास 5 करोड़ 80 लाख रूपए की संपत्ति है। ब्यौरे के अनुसार ग्राम कुरचरा जिला दतिया में 50 बीघा पैतृक जमीन, दतिया और भोपाल में घर। तीनों की वर्तमान कीमत पांच करोड़ 80 लाख है। उन्होंने सिर्फ शहर और गांव का नाम बताया पूरा पता नहीं। संपत्ति से कमाई साढ़े सात लाख रुपए बताई। डीएसपी लोकायुक्त रीवा देवेश पाठक की कुल संपत्ति तीन करोड़ पांच लाख है। उनके पास तीन संपत्ति हैं, तीनों ही विरासत में मिलना बताया। रीवा पांडेन टोला में 3000 वर्ग फीट का डबल स्टोरी मकान है, जिसकी कीमत डेढ़ करोड़ रुपए बताई लेकिन इससे मिलने वाला किराया सिर्फ 72 हजार रुपए सालाना बताया। डेढ़ करोड़ रुपए की कृषि भूमि है जिससे 1 लाख 81 हजार रुपए की वार्षिक आमदनी होना बताया। डीएसपी रेडियो भोपाल हरीश मोटवानी के पास एक करोड़ पांच लाख की संपत्ति है। मोटवानी के पास करीब पांच संपत्ति है, लेकिन एक भी उनके नाम पर नहीं है। सारी उनकी पत्नी नेहा मोटवानी ने अपनी सेविंग और लोन लेकर खरीदी। इसमें इंदौर में एक घर, गोडाउन, मेट्रो टॉवर में शॉप, स्कीम ई 8 में एक और शॉप और इंदौर के ही शालीमार टाउनशिप में मकान होना बताया है। कटनी में पदस्थ डीएसपी भरत सोनी ने ब्योरे में बताया कि उनके पास चार घर है। तीन सागर में और एक सीहोर में। हालांकि उनका दावा है कि किसी भी मकान से किराया नहीं मिल रहा। संपत्ति का ब्यौरा देने में अफसरों ने किस तरह की गफलत की है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कई अफसरों ने उनकी संपत्ति दान में मिलना भी बताई है। पुलिस मुख्यालय में पदस्थ डीएसपी रिसर्च एंड डेवलपमेंट के प्रतिपाल सिंह महोबिया ने अपने पास 0.24 एकड़ जमीन होना बताया है। इसकी कीमत 25 लाख रुपए है। प्रतिपाल के अनुसार यह जमीन उन्हें उनके भाई (मामा के लड़के) ने दान की है। ऐसे ही एसडीओपी मंदसौर हरिसिंह परमार के अनुसार 2 बीघा जमीन उनके ससुर ने उन्हें दान में दी। यानी अफसर अपनी संपत्ति और कमाई के स्रोत की जानकारी छुपा रहे हैं लेकिन जांच एजेंसियां उसकी पड़ताल नहीं कर पा रही हैं।
ऐसे में कैसे कम होगा भ्रष्टाचार
देश की नौकरशाही में व्याप्त भ्रष्टाचार को खत्म करने के लिए केंद्र सरकार पिछले तीन साल से कई प्रयोग कर चुकी है, लेकिन नौकरशाही का भ्रष्टाचार से मोह कम नहीं हो रहा है। जहां तक मप्र का सवाल है यहां तो लगता है जैसे भ्रष्टाचार ही शिष्टाचार बन गया है। मप्र में कई अफसर रिश्वतखोरी में फंस चुके हैं लेकिन उनके खिलाफ कार्रवाई के नाम पर जांच चल रही है। अभी हालही में सतना नगर निगम में कमीश्रर के पद पर पदस्थ रहे सुरेंद्र कुमार कथूरिया 50 लाख रूपए की रिश्वत लेते लोकायुक्त द्वारा धरे गए। मप्र में अखिल भारतीय सेवा के अधिकारियों समेत कई अफसर हैं, जिन पर घूस लेने के आरोप लगे हैं। हैरानी की बात है कि ये भ्रष्ट अफसर अपने रसूख और सरकारी जांच की धीमी व्यवस्था को ढाल बनाकर बचते जा रहे हैं। चौंकाने वाला तथ्या यह है कि 1 जनवरी 2016 से 22 दिसंबर 2016 के बीच 97 अफसर ट्रेप हुए हैं, जिन्होंने 10 हजार रुपए से अधिक की रिश्वत मांगी। नौ मामलों में छापे की कार्रवाई की गई, जिसमें 1 करोड़ रुपए से अधिक अघोषित आय सामने आई। इन आंकड़ों से यह भी साफ है कि मध्यप्रदेश में पूरे साल के दौरान हर तीसरे-चौथे दिन एक भ्रष्ट अफसर को पकड़ा गया। लेकिन कार्रवाई के नाम पर खानापूर्ति की जा रही है। लोकायुक्त की कार्रवाई के बाद आईपीएस अफसर मयंक जैन तीन साल से निलंबित हैं, लेकिन अभी तक न जांच पूरी हुई और न चालान पेश किया गया। आईपीएस मयंक जैन के यहां 2014 में पड़ा था छापा, तब लोकायुक्त ने सौ करोड़ से भी अधिक की संपत्ति होने की बात कही गई। खरगौन में 45 एकड़ जमीन और उज्जैन में प्लॉट व इंदौर में तीन फ्लैट भी बताए गए। भोपाल में भी संपत्ति मिली। जैन तभी से निलंबित चल रहे हैं। उन्हें पीएचक्यू में अटैच किया गया है। लेकिन अभी भी चालान पेश होने का इंतजार है। 2015 में आईएएस अफसर जेएन मालपानी का घूस मांगता ऑडियो रिटायरमेंट से ठीक पहले आया था। आदिवासी कल्याण विभाग बड़वानी में पदस्थ संयुक्त आयुक्त आरके श्रोती और मालपानी के बीच रिश्वत मांगने का ऑडियो वायरल हुआ। इसकी पुष्टि होने के बाद मालपानी को रिटायरमेंट से ठीक पहले सस्पेंड कर दिया गया। मामला अभी विचाराधीन है। आईएफएस अफसर अजीत कुमार श्रीवास्तव के मामले में तो सर्वाधिक राशि 55 लाख रुपए इनवॉल्व थी। उन पर टिंबर व्यापारी अशोक रंगा से 55 लाख रुपए की रिश्वत मांगने का आरोप लगा। बातचीत का ऑडियो जारी हुआ। श्रीावास्तव मुख्यालय अटैच हुए। रिश्वत की जांच के बाद लोकायुक्त ने कहा, बातचीत में इसकी पुष्टि नहीं हो रही। अभी इनके खिलाफ मामला शासन स्तर पर पेंडिंग है। इनके अलावा कई अन्य अधिकारियों के यहां छापे में नामी-बेनामी संपत्ति मिली लेकिन उनके खिलाफ बड़ी कार्रवाई नहीं हो सकी। इनमें सीपी शर्मा, ईई, भोपाल, नन्हेंलाल वर्मा, तहसीलदार, रीवा, विनोद पांडे, जिपं सीईओ, सागर, ब्रजेंद्र कुमार माथुर, ईई, इंदौर, प्रवेश सोनी, ईई, इंदौर, योगेश परयानी, ब्रांच मैनेजर, कैनरा बैंक, रवींद्र मथूरिया, अधीक्षक, उज्जैन, संजय जायसवाल, सचिव, पंचायत, बुद्धुलाल पटेल, सचिव, पंचायत, भंवरलाल मकवाना, सचिव पंचायत आदि शामिल हैं। यही नहीं इंदौर में नियम के विपरीत आश्रय निधि भरवाकर एक निजी टाउनशिप को फायदा पहुंचाने के मामले में फंसे तीन अफसर सरकार में अभी अहम पदों पर हैं। आश्रय निधि का विकल्प नहीं होने पर भी शुल्क लेने के घोटाले की जांच ईओडब्ल्यू में लंबे समय से अटकी है। इसमें फंसे अफसर उमाशंकर भार्गव अभी मुख्यमंत्री कार्यालय में उपसचिव हैं। दूसरे अफसर मनोज पुष्प इंदौर बिजली कंपनी में सीईओ हैं, जबकि तत्कालीन टीएंडसीपी के डायरेक्टर विजय सावलकर अभी ट्राइफेड में संयुक्त निदेशक हैं। भार्गव और पुष्प ने जिला प्रशासन में एसडीओ रहते गलत तरीके से आश्रय निधि भरवाकर जमीन छुड़वा दी थी। लेकिन आज ये महत्वपूर्ण पद संभाल रहे हैं।
केंद्र के रडार पर 67 हजार अधिकारी-कर्मचारी
मप्र सहित अन्य राज्यों की सरकारों ने केंद्र सरकार के निर्देश के बाद भी अपने नकारा अफसरों की परफार्मेंस रिपोर्ट बेहतर बताकर उन्हें अनिवार्य सेवानिवृति से बचा लिया है, लेकिन केंद्र सरकार ने आईएएस, आईपीएस जैसे सीनियर अधिकारियों से लेकर जिम्मेदार पदों पर आसीन बाबुओं तक 67 हजार सरकारी कर्मचारियों के कामकाज की समीक्षा शुरू की है। मकसद है अच्छा और खराब प्रदर्शन करने वाले कर्मचारियों की पहचान। सेवा से जुड़े कोड ऑफ कंडक्ट का पालन नहीं करने वाले कर्मचारियों को दंडित भी किया जा सकता है। नियम के अनुसार सरकारी कर्मचारियों के कामकाज का आकलन उनकी सेवाकाल में दो बार किया जाता है। इनमें से पहला सर्विस के लिए चुने जाने के 15 साल पर और दूसरा इसके 25 वर्ष के बाद। पिछले एक वर्ष में केन्द्र सरकार ने काम नहीं करने वाले 129 कर्मचारियों को अनिवार्य सेवानिवृत्ति दी है। इनमें आईएएस और आईपीएस अधिकारी भी शामिल हैं। दरअसल, आज भारतीय नौकरशाही लापरवाही, सुस्ती और भ्रष्टाचार का पर्याय बन गई है। समय-समय पर अंतरराष्ट्रीय सर्वेक्षणों में उसके बारे में जो निष्कर्ष आते हैं, उससे देश को शर्मसार होना पड़ता है। समाज में आम धारणा बन गई है कि कोई भी सरकारी काम समय पर नहीं होता। निचले स्तर की सरकारी नौकरी के बारे में तो पक्की राय यही है कि इसमें लोग आराम फरमाते हैं और बिना रिश्वत के कोई काम नहीं करते। जाहिर है, सरकारी तंत्र के इस रवैये ने ही विकास कार्यों की गति बढऩे नहीं दी है। अनेक विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत अगर भूमंडलीकरण का लाभ ढंग से नहीं उठा पाया है, तो इसकी मुख्य जवाबदेह यहां की नौकरशाही पर आती है। अनेक पूंजी निवेशकों ने नौकरशाही के ढीले-ढाले रवैये की वजह से ही भारत से मुंह मोड़ लिया है। इसलिए नौकरशाही को चुस्त-दुरुस्त बनाना बेहद जरूरी है। बकौल कार्मिक राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह, सरकार करप्शन को लेकर जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाना चाहती है, साथ ही ईमानदारी से काम करने वालों के लिए अनुकूल माहौल भी बनाना चाहती है। तंत्र को दुरुस्त करने का सरकार का यह प्रयास सराहनीय है, बशर्ते इसे निष्पक्षता और सख्ती के साथ किया जाए और इसका कोई ठोस नतीजा निकले। और यह काम सख्ती से ही होगा। सच्चाई यह भी है कि केंद्र और राज्य सरकारों ने प्रशासनिक अमले को एक वोट बैंक की तरह देखा और इसे अनेक तरह से संतुष्ट रखने की कोशिश की। उन्होंने इसका प्रदर्शन सुधारने के बजाय इसका इस्तेमाल अपने राजनीतिक फायदे के लिए किया। मोदी सरकार को इस प्रलोभन से बचना होगा। उसे यह भी समझना होगा कि नौकरशाही तभी बेहतर परफॉर्म कर पाएगी, जब राजनीतिक तंत्र खुद भी स्वच्छ हो, क्योंकि दोनों का गहरा संबंध है।
भ्रष्ट अधिकारियों की अब खैर नहीं
भले ही अपने तीन साल के कार्यकाल में केंद्र सरकार भ्रष्ट नौकरशाहों पर अधिक सख्त नजर नहीं आई लेकिन भ्रष्टाचार कि खिलाफ उसकी सख्ती से नौकरशही में भय का माहौल है। भ्रष्टाचार पर मोदी सरकार जीरो टॉलरेंस की नीति पर अब तेजी से आगे बढ़ रही है। मोदी सरकार ने भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ डिपार्टमेंटल प्रोसिडिंग को तेज करने के लिए नया सिस्टम लागू कर दिया है। जिसे ऑनलाइन डिपार्टमेंटल प्रोसिडिंग प्रोसेसिंग सिस्टम नाम दिया गया है। डीओपीटी के अधिकारियों का कहना है कि भ्रष्टाचार की गिरफ्त में आए सरकारी अधिकारी की जांच में पहले 8 से 10 साल लग जाता था। लेकिन अब सरकार ने ऑनलाइन डिपार्टमेंटल प्रोसिडिंग प्रोसेसिंग सिस्टम लागू कर दिया है। इस सिस्टम के तहत 2 साल के अंदर ही अधिकारियों के खिलाफ जांच पूरी करनी होगी। जांच में लंबा समय लगने के कारण बेकसूर अधिकारी बेवजह शर्मिंदगी की जिंदगी जीने पर मजबूर रहते थे और कभी-कभी ये शर्मिंदगी आत्महत्या का कारण भी बन जाती थी। लेकिन इस नये सिस्टम से दोषी अधिकारियों पर तुरंत कार्रवाई हो सकेगी और बेकसूर अधिकारियों को जल्द इंसाफ मिलेगा। जानकारी के मुताबिक इस समय 39 आईएएस अधिकारियों के खिलाफ डिपार्टमेंटल जांच चल रही है। साथ ही केंद्रीय सचिवालय सर्विस के 29 अधिकारी की भूमिका जांच के दायरे में हैं। और ये भी जानकारी मिली है कि क्लास 'एÓ के 3000 से ज्यादा अधिकारियों अधिकारियों की एक लिस्ट बनाई गई है जो इस समय भ्रष्टाचार के मामलों में जांच का सामना कर रहे है।
65 पूर्व आईएएस ने चिट्ठी लिख जताई चिंता
भारत में सरकारी दफ्तरों के राजनीतिकरण से अब पूर्व अधिकारी भी परेशान होने लगे हैं। 65 पूर्व आईएएस अफसरों ने एक खुली चि_ी में लोकतांत्रिक मूल्यों पर हो रहे हमलों पर चिंता जताई है। इन रिटायर्ड अधिकारियों ने अपने साथी अफसरों को आगाह किया है कि ये वक्त, संवैधानिक दायित्वों के कड़े इम्तहान का भी है। विघटनकारी शक्तियों के खिलाफ एकजुट होने की अपील करते हुए, ये चि_ी प्रशासकीय बिरादरी को भी झंझोड़ती है। अति राष्ट्रवाद के उभार के खतरों को रेखांकित करते हुए चि_ी में सरकारी अधिकारियों, संस्थानों और संवैधानिक संस्थाओं से अपील की गई है कि वे उन्मादी प्रवृत्तियों पर लगाम लगाने की कोशिश करें क्योंकि संविधान की मूल भावना की हिफाजत उनका मौलिक दायित्व है। इस चि_ी के बहाने अफसरशाही पर नजर डालने का भी अवसर मिलता है। सवाल यही है कि आखिर वो कौन सी नींद है जिसमें इस देश का नौकरशाह सोया हुआ है। शांति और भाईचारा ही नहीं, अन्य बदहालियों का भी सवाल है। शिक्षा, पोषण, स्वास्थ्य और तमाम वे सूचकांक देखिए जिनका संबंध ओवरऑल मानव विकास और नागरिक कल्याण से है। संविधान में दर्ज ये जिम्मेदारियां आखिर हैं तो उस अफसरशाही की जो यूं तो संख्या में कम है लेकिन जिसका प्रभामंडल विराट है।
प्रशासन का गिरता स्तर
चिट्ठी में सिविल सेवा अधिकारियों की गुणवत्ता की परख के लिए विश्व बैंक द्वारा जारी 2014 के सूचकांक का भी जिक्र किया है जिसमें भारत को 100 में से 45 अंक ही मिले। जबकि 1996 में विश्व बैंक ने जब पहली बार इस तरह का सर्वेक्षण किया था तो ये दर 10 फीसदी ज्यादा थी। 1950-2015 की अवधि में आईएएस परीक्षा में सफलता की दर का आंकड़ा यूपीएससी ने खुद जारी किया है। इसके अनुसार 1950 में ये दर 11.26 फीसदी थी। 1990 में ये 0.75 फीसदी हुई, 2010 में 0.26 फीसदी रह गई और 2015 में तो ये 0.18 फीसदी पर सिमट गई। 2016 में करीब चार लाख सत्तर हजार अभ्यर्थियों में से सिर्फ 180 आईएएस चुने गये। इससे कई सवाल उठते हैं। परीक्षा के बुनियादी ढांचे में गड़बड़ी है? सीटों की संख्या कम है? सवाल गुणवत्ता का भी है। एक अन्य सर्वेक्षण के अनुसार इन चयनित अधिकारियों में यही पाया गया कि वे बस न्यूनतम शैक्षिक योग्यता को ही पूरा करते हैं यानी सिर्फ स्नातक हैं। उनमें से भी अधिकांश तीन चार कोशिशों के बाद सफल हुए हैं और कई ऐसे हैं जो दूसरे पेशों से आए हैं और उनकी उम्र अधिकतम है। दूसरी ओर कॉरपोरेट जगत के पैकेज और काम की बेहतर परिस्थितियों की वजह से प्रतिभाशाली युवाओं को प्रशासनिक सेवाओं की ओर आकर्षित करना कठिन चुनौती है। अफसरों की ट्रेनिंग का भी सवाल है। मसूरी स्थित लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी अपनी संरचना में जितनी भव्य दिखती है, उतना ही औपनिवेशिक भी। बेशक यहां राष्ट्रपति, राजनीतिज्ञ, कूटनीतिज्ञ और विशेषज्ञ आदि व्याख्यान देने आते हैं लेकिन लगता है, प्रशिक्षु अफसरों की ट्रेनिंग का मूल मंत्र जी मंत्रीजी की बाबू मानसिकता और यथास्थिति को बनाए रखना है। राजनैतिक दखल की यही पीड़ा उपरोक्त चि_ी में अपने ढंग से अभिव्यक्त हुई है। 2010 के एक सर्वे के मुताबिक सिर्फ 24 फीसदी अधिकारी मानते हैं कि अपनी पसंद की जगहों पर पोस्टिंग, मेरिट के आधार पर होती है। हर दूसरे अधिकारी का मानना है कि राजनैतिक हस्तक्षेप एक प्रमुख समस्या है। प्रमोशन, तबादले, पोस्टिंग आदि भी नियमों को ठेंगा दिखाकर नेता-मंत्री-अफसर के गठजोड़ की दया पर निर्भर हैं। इस गठजोड़ में अब कॉरपोरेट-ठेकेदार-दलाल भी शामिल हो गये हैं।
बढ़ता राजनीतिक हस्तक्षेप
चिट्ठी में जिक्र है कि राजनीतिक संपर्कों के आधार पर अधिकारियों को मलाईदार ओहदे दिए जाते हैं और रिटायरमेंट के बाद किसी निगम या आयोग की अध्यक्षता-सदस्यता देकर उनका पुनर्वास भी कर दिया जाता है। इस व्यवस्था में जो अफसर स्वतंत्र ढंग से काम करना चाहता है तो उन्हें दरकिनार कर दिया जाता है। ऐसा नहीं है कि प्रशासनिक सुधारों की कोशिश नहीं की गई। इसके लिये 1966 में पहला प्रशासनिक सुधार आयोग बनाया गया था। इसी आयोग ने पहले पहल लोकपाल के गठन की सिफारिश की थी। लेकिन सुधारों को लेकर कितनी गंभीरता है इसका अंदाजा इसी बात से लगता है कि दूसरा सुधार आयोग 2005 में जाकर बना। वीरप्पा मोइली इसके अध्यक्ष थे। लेकिन इसकी सिफारिशें लागू करने का दम किसी सरकार ने नहीं दिखाया। न खाऊंगा न खाने दूंगा वाली ललकार भी इस मामले पर दुबकी हुई सी दिखती है। पूर्व आईएएस अधिकारियों की चि_ी, प्रशासकीय कुशलता में गिरावट पर क्षोभ की अभिव्यक्ति है। यही वो पतन है जो फिर अलग अलग ढंग से दिखता है।
साफ-सुथरी नौकरशाही
दिल्ली में पदस्थ मप्र कैडर के एक वरिष्ठ आईएएस अफसर कहते हैं कि देश में एक बार फिर नौकरशाही की सोच और व्यवहार में तब्दीली की बात उठ रही है। लेकिन नौकरशाही से पार पाना मुश्किल है। दरअसल, नौकरशाही घोड़े की तरह होती है जो अपने सवार की गर्मी को महसूस करने के बाद ही अपनी चाल का फैसला लेती है। घोड़े को यदि भान हो जाये कि उसके सवार में दम नहीं है तो घोड़ा उस पर हावी हो जाता है। इसी तरह नौकरशाह को यदि पता चल जाता है कि जिसके मातहत में वह काम कर रहा है, उसमें आवश्यक जानकारी का अभाव है तो वह मनमानी शुरू कर देता है। वह कहते हैं कि वर्तमान सरकार के रूख को भांपकर नौकरशाही ने भी पैतरा बदल लिया है। भारतीय नौकरशाही के बारे में एक शिकायत यह भी है कि उसके पास न तो काम करने की दिशा और इच्छाशक्ति है और न ही वैसा कोई नजरिया, जिसे प्रगतिगामी और लीक से हट कर(आउट ऑफ द बॉक्स) कहा जा सके। इसका कुछ तो दोष सिविल सेवा की परीक्षा प्रणाली और प्रशिक्षण के हिस्से में जाता है लेकिन ज्यादा बड़ी वजह यह है कि अपने स्वार्थ के लिए हमारी नौकरशाही राजनीतिक नेतृत्व के हाथों का खिलौना बनी हुई है। इसी का नतीजा है कि सरकारी प्रशासन और आम जनता में दूरी बनी हुई है और योजनाओं का फायदा जनता को मिलने के बजाय सत्ता के दलालों को मिल रहा है। चूंकि प्रशासन में समाज की कोई भागीदारी नहीं होती, लिहाजा अधिकारी जनता की जरूरतों को भी नहीं समझ पाते हैं। इन समस्याओं की जड़ में नौकरशाही में मौजूद भ्रष्टाचार की लिप्सा भी है। नौकरशाहों के व्यवहार में अराजकता, कामकाज में लापरवाही-सुस्ती और जन सरोकारों को लेकर अनिच्छा का एकमात्र कारण यह नहीं है कि उनके शिक्षण-प्रशिक्षण में कोई कमी है, बल्कि यह भी है कि नौकरशाह (कुछ अपवादों को छोड़ कर) व्यवस्था का फायदा अपने हित में उठाना चाहते हैं। असल में जिस तरह राजनीतिक नेतृत्व ऊंचे पदों पर बैठे नौकरशाहों का अपने लिए इस्तेमाल करता है, उसी तरह नौकरशाही भी अपने लाभ के लिए राजनीतिक संरक्षण हासिल करती है। यह बात इससे साबित होती है कि यदि हमारी नौकरशाही ने पूरी ईमानदारी से और तटस्थ होकर भ्रष्टाचार का विरोध किया होता, तो देश में भ्रष्टाचार का यह रूप नहीं दिखता, जैसा कि आज है। यह नौकरशाही के ही भ्रष्टाचार का नतीजा है कि आज हर योजना में भ्रष्टाचार मौजूद है।

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