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भेड़ाघाट

Saturday, March 26, 2011

वन विभाग में जंगलराज

मध्य प्रदेश के शासन-प्रशासन में अराजकता और भ्रष्टाचार का बोलबाला है. ऐसे में यदि वन विभाग में जंगलराज चल रहा है तो यह आश्चर्य का विषय नहीं है, क्योंकि जंगलराज हमारी प्रशासनिक संस्कृति की विशेषता बन चुका है. इस सरकार में हिम्मत कोठारी से लेकर कुंवर विजय शाह और राजेंद्र शुक्ल तक वन मंत्री रहे और अब जि़म्मा सरताज सिंह पर है. इसी तरह अफ़सरों में प्रशांत मेहता के अलावा सर्वाधिक चर्चित अधिकारी पीवी गंगोपाध्याय रहे. इस विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने की बात तो सबने की लेकिन जंगल के इस राज में वे भी खो गए। यही नहीं वन विभाग का मुखिया बनते ही सरताज सिंह ने ख़ुद स्वीकार किया किया था कि 67 अफ़सरों के खि़लाफ़ विभागीय जांच लंबित है. इनमें एक दजऱ्न से ज़्यादा आईएएफ भी शामिल हैं. इन मामलों में न पहले कभी कोई कार्रवाई हुई और न अब कोई रुचि ली जा रही है.यहां तक की इनमें से ज्यादातर दागी अधिकारियों को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौप दी गई है।

जंगल महकमे में आरोपियों को महत्वपूर्ण पदों पर नवाजा है। यही नहीं, आरोपित अधिकारियों की जांच समाप्त किए बिना ही उन्हें पदोन्नत कर दिया गया। साथ ही वनमंत्री सरताज सिंह ने आला अफसर को बचाने के लिए सदन में न केवल गोलमाल जवाब, बल्कि उनकी पदस्थापना की जानकारी भी गलत दी गई।
राज्य विधानसभा में भाजपा विधायक नागेन्द्र सिंह ने पन्ना नेशनल पार्क से बाघों के गायब होने और केन्द्र शासन की रिपोर्ट में राज्य शासन के अधिकारियों को दोषी के संबंध में सवाल पूछे गए थे। इसके जवाब में वनमंत्री सिंह ने बताया कि केन्द्र शासन द्वारा गठित समिति द्वारा विभाग के उच्च अधिकारियों के उत्तरदायित्व पर टिप्पणी की गई किन्तु व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया गया है। सत्तारुढ़ दल के विधायक के ही सवाल के जवाब में वनमंत्री ने पीसीसीएफ (वन्य प्राणी)डा. एच.एस. पावला को एक बार फिर बचाने का प्रयास किया। यहां यह उल्लेखनीय है कि पन्ना नेशनल पार्क से बाघों के गायब होने के मामले केन्द्र शासन द्वारा गठित समिति की रिपोर्ट को आज दिनांक तक वनमंत्री सिंह ने सार्वजनिक नहीं किया, जबकि उनके स्वयं के बयान थे कि रिपोर्ट को सार्वजनिक कर दिया जाएगा। यही नहीं, उन्होंने तो यहां तक कहा था कि इसकी जांच सीबीआई से कराई जाएं। दरअसल, इस मामले में जब डा. पावला का नाम आया तो वे पीछे हट गए। विभागीय सूत्रों की मानें तो केन्द्र शासन की समिति ने अपनी रिपोर्ट में तत्कालीन पीसीसीएफ (वन्य प्राणी) डा. पी.वी.गंगोपाध्याय और तत्कालीन एपीसीसीफ (वन्य प्राणी) डा. पावला को कसूरवार ठहराया गया है। सनद रहे कि डा. गंगोपाध्याय सेवानिवृत्त हो चुके है और डा. पावला स्वयं पीसीसीएफ वन्य प्राणी के पद को सुशोभित कर रहे है।
राज्य विधानसभा में ही रेखा यादव के अतारांकित सवाल के लिखित जवाब में आरोपित अधिकारियों की सूची सदन के पटल पर दी गई है। आरोपित अधिकारियों की सूची में एक नाम अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक जव्बाद हसन का भी है। जव्बाद हसन को आरोपित किया गया है कि उन्होंने आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित की है। हालांकि यह आरोप बहुत ही पुराना है। तब श्री हसन भोपाल सर्किल के वन संरक्षक हुआ करते थे। उनके साथ तत्कालीन डीएफओ बी.के. सिंह को आरोपित बनाया गया है। वनमंत्री ने अपने जवाब में बताया है कि इस संबंध में विभागीय शिकायत एवं सतर्कता शाखा ने जांच प्रतिवेदन 22 दिसम्बर 10 को महानिरीक्षक राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो को जांच प्रतिवेदन भेज दिया है। गौरतलब है कि अपर प्रधान मुख्य वन संरक्षक जव्बाद हसन को प्रशासन-दो जैसा महत्वपूर्ण शाखा का काम दिया गया। इस शाखा में वन रक्षक से लेकर रेंजर तक के स्थानांतरण - प्रमोशन और उनके विरुद्ध लंबित जांच पर कार्रवाई करने का कार्य संपादित किया जाता है। महकमें में हमेशा से यह आरोप लगता रहा कि प्रशासन-दो में स्थानांतरण और पदस्थापना को लेकर भारतीय मुद्रा के आचमन करने के आरोप लगते रहे हैं। विधानसभा में दिए गए जवाब के अनुसार आरोपित आईएफएस अधिकारियों की सूची में अन्य नाम इस प्रकार है- व्ही.के.नीमा, उत्तम शर्मा, सुखलाल प्रजापति, निरंकार सिंह, सुधीर कुमार पंवार, यू.के. सुबुद्धी, बी.के. वर्मा, पी.के पलाश, अतुल जैन, वाय.पी. सिंह, आर.डी. शर्मा, आर.के.शुक्ला, पुरुषोत्तम धीमान, सुश्री बी मुनै्म्मा, सुदीप सिंह, मनोज अग्रवाल, ए.के. भूगांवकर, डा. एम.सी, शर्मा, के.एस. भदौरिया, पंकज अग्रवाल, के.एस.नेताम, एस.एस.राजपूत, असित गोपाल, प्रताप सिंह चम्पावत, हरिशचंद्र गुप्ता, आर.आर.ओखंडियार, और आर.डी. महला। वनमंत्री द्वारा दिए गए जवाब में आजाद सिंह डवास की पदस्थापना भी गलत बताई गई है। डवास वर्तमान में झाबुआ में पदस्थ है और उन्हें बैतूल का सीसीएफ बताया जा रहा है।

मध्य प्रदेश कभी हरे-भरे वनों से आच्छादित सुरम्य प्राकृतिक दृश्यों से शोभायमान हुआ करता था, लेकिन अब तो हरियाली केवल सरकारी विज्ञापनों में ही दिखाई देती है. राजमार्गों पर जगह-जगह सरकार रंग-बिरंगे होर्डिंग्स लगा रही है, जिन पर लिखा है हरा-भरा मध्य प्रदेश. लेकिन, जब हम इस होर्डिंग्स के आसपास नजऱें दौड़ाते हैं तो सूखा, बंजर और भयभीत करने वाले दृश्य ही दिखाई देते हैं.
वन विभाग में फर्जीवाड़े और भ्रष्टाचार के और भी ढेरों मामले हैं। इस विभाग में भ्रष्टाचार का आलम यह है कि जिधर भी नजर डालो, उधर भ्रष्टाचार सामने आ जाता है। वन विभाग की ही एक इकाई लघु वनोपज संघ ने दो साल पहले 40 टैंकर सिंचाई के नाम पर खरीदे थे। ये टैंकर अहमदपुर डिपो में दो साल से खुले में पड़े सड़ रहे हैं, किंतु उन्हें वनों में नहीं भेजा गया। इसी तरह वन विहार में मृत पशुओं के दाह संस्कार के लाखों की लागत का इंसीनिरेटर खरीदा गया था, जो वहां आज तक नहीं लगाया गया है और यह भी विभाग के कबाडख़ाने में पड़ा सड़ रहा है। प्रश्न यह है कि यदि टैंकर और इंसीनिरेटर का कोई उपयोग ही नहीं था, तो इन्हें खरीदा ही क्यों गया? इसका सीधा-सा जवाब है कि मात्र कमीशनखोरी के लिए ये खरीदी की गई।
अहमदपुर डिपो के पास वन विभाग गत तीन साल से कार्बन सिंह पार्क का विकास कर रहा है। यहां लगाए गए वृक्षों की सुरक्षा के लिए लाखों रुपए खर्च कर फायर फाइटिंग (रेती का सुरक्षा घेरा) बनाना बताया गया। इसके बाद भी इस पार्क में पिछले दो साल में आग लगने की छह घटनाएं हो चुकी है, जिनमें सैकड़ों पौधे झुलस गए। जब फायर फाइटर थे, तो पेड़ कैसे जले? इस प्रतिनिधि ने मौके पर जाकर देखा कि इस पार्क में एक भी वृक्ष के आसपास फायर फाइटर नहीं बनाया गया। इतना ही नहीं, जहां बड़ी-बड़ी घास उग रही है, उसे भी काटने की जरूरत नहीं समझी गई, जिससे निकट भविष्य में फिर आग लगने का खतरा बरकरार है। कार्बन सिंह पार्क पहाड़ी इलाका है, जहां पत्थर ही पत्थर है। वन विभाग के अधिकारियों ने यहां तालाब बनवाया है, जिसमें न तो गुणवत्ता का ध्यान रखा गया और न ही नियमपूर्वक काम हुआ। शासन के निर्देश हैं कि किसी भी निर्माण कार्य में 60 प्रतिशत स्थानीय श्रमिक लगाएं और 40 प्रतिशत कार्य मशीनों से कराया जाए। लेकिन इस निर्माण का पूरा काम मशीनों से करवाकर मजदूरों के फर्जी वाउचर बनाकर सरकारी पैसा हड़प लिया गया। इस प्रतिनिधि ने तालाब के तल में जाकर देखा तो पाया कि उस पर रोड रोलर तक नहीं चलाया गया है। ऐसे में यदि बारिश का पानी यहां एकत्र हुआ तो तालाब का फूटना सुनिश्चित है।
इसी पार्क में स्टाप डेम सह तालाब बनाया गया है। इस काम में पहाड़ी क्षेत्र में कांक्रीट का बेस भरकर तराई होना थी, किंतु एक बार भी पानी नहीं दिखाया गया। स्टाप डेम की ऊंची दीवाल की पिचिंग ट्रेक्टर से करवाई गई, जो रोलर से होना थी। इस पूरे काम में लोहे के सरिए का कहीं उपयोग नहीं किया गया है। इस निर्माण कार्य में भी 80 फीसदी काम मशीन से हुआ और जो 20 प्रतिशत मजदूर थे, वे भी स्थानीय नहीं थे। यहां खदाई में निकले पत्थर अधिकारी बेचने की फिराक में हैं।
प्रदेश में वनों के सुदृढ़ीकरण और संरक्षण के लिए एक ओर करोड़ों रुपये ख़र्च किए जा रहे हैं तो वहीं दूसरी तरफ़ जंगलराज की वज़ह से माफिया और अफ़सर चार अरब से ज़्यादा की राशि डकार गए. पोल खुलने पर अफ़सर एक-दूसरे पर दोष मढऩे पर उतारू हैं. सरकार ने भी किसी दोषी के खि़लाफ़ अब तक कोई कार्रवाई नहीं की है. राज्य सरकार पांच करोड़ बांस और अन्य पौधे लगाकर वनों को आच्छादित करने की क़वायद कर रही है, लेकिन वनों को बचाने के लिए उसकी हर कसरत औंधे मुंह गिर रही है. वानिकी दिवस मनाने वाली सरकार ने यह देखने की ज़रूरत नहीं समझी कि दो दशक पूर्व अरबों रुपये ख़र्च कर तैयार की गई सामाजिक वानिकियों का क्या हश्र हुआ है. किस तरह बंदरबांट हुई और करोड़ों डकारने वाले अफसरों का अब तक कुछ भी नहीं बिगड़ा. इनमें से ज़्यादातर तो रिटायर हो चुके हैं.
वन विभाग संभवत: एकमात्र ऐसा सरकारी विभाग है, जिसके आला अफसरान कोई काम नहीं करना चाहते हैं। अलबत्ता सरकारी योजनाओं को पलीता लगाकर अपना घर भरने के मामले में बहुत आगे हैं। भ्रष्टाचार करने के लिए इस विभाग के अफसरान किस हद तक जालसाजी कर सकते हैं, इसका एक सनसनीखेज मामला सामने आया है, जिसमें केंद्र सरकार द्वारा भेजे गए अनुदान पत्र की फोटो कॉपी कर दोबारा अवैध तरीके से राशि निकाल ली गई। यह जानकारी सामने आने के बावजूद जिम्मेदार अधिकारी के विरुद्ध कोई कार्रवाई नहीं की गई, उल्टे उसकी पदोन्नति कर दी गई। हालांकि इस मामले में कार्रवाई किए जाने संबंधी प्रपत्र तैयार किया गया था, लेकिन साल भर बीतने के बाद भी यह मामला ठंडे बस्ते में है।
केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने औबेदुल्लागंज स्थित रातापानी अभयारण्य और सिंघोरी अभयारण्य में वन्य प्राणियों के संरक्षण और अन्य विकास कार्यों के लिए अप्रैल 2008 में 50 लाख रुपए स्वीकृत किए गए थे। उक्त दोनों अभयारण्यों में अप्रैल 2008 से 31 जनवरी 2009 तक विभिन्न कार्य दर्शाना बताया गया, जिन पर 85 लाख रुपए खर्च करना बताया गया। सवाल यह है कि जब केंद्र सरकार ने 50 लाख रुपए ही आवंटित किए थे, तो 85 लाख रुपए खर्च कैसे हो गए? प्रधान मुख्य वन संरक्षक (वन्य प्राणी) द्वारा केंद्र से प्राप्त अनुदान आवंटित करते समय लिखित में यह निर्देश दिए जाते हैं कि आवंटन से अधिक व्यय कदापि नहीं किया जाए। अधिक व्यय के लिए आप (जिन्हें बजट आवंटित किया जाता है) जिम्मेदार होंगे। इसके बावजूद अधिकारियों ने आवंटन से अधिक व्यय कर डाला।
आवंटित बजट के अतिरिक्त 35 लाख की व्यय राशि कहां से आई? वन विभाग से सूचना के अधिकार के तहत प्राप्त जानकारी के अनुसार अप्रैल 2008 से जनवरी 2009 के मध्य 85 लाख के कार्य किए गए। 35 लाख की इस राशि को पानी के लिए औबेदुल्लागंज में पदस्थ वन मंडलाधिकारी ने फर्जीवाड़ा किया। पता चला है कि इस अधिकारी ने 50 लाख के बजट आवंटन प्रपत्र की फोटो कॉपी कराई और उस आधार पर शासकीय कोष से 35 लाख रुपए निकालकर खर्च करना दर्शा दिया। सूत्र बताते हैं कि यदि मौका मुआयना किया जाए तो इस खर्च में भी भारी गड़बड़ी उजागर होना तय है।
जब फर्जीवाड़ा कर 35 लाख का अतिरिक्त अनुदान पाने का खुलासा हुआ तो विभाग ने लेखा शाखा में पदस्थ शुक्ला नामक लिपिक को वहां से हटा कर स्थापना शाखा में भेज कर उसे कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया गया। वन मंडलाधिकारी, औबेदुल्लागंज ने इस बाबत एक प्रपत्र राज्य शासन और वन विभाग के उच्चाधिकारियों को भेजा। साल भर से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी न तो शासन ने और न ही विभाग ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। रातापानी और सिंघोरी अभयारण्य में जब यह जालसाजी हुई, तब वहां निरंकार सिंह वन मंडलाधिकारी के रूप में पदस्थ थे। इनके विरुद्ध विभाग ने कोई कार्रवाई तो नहीं की, उल्टे उन्हें पदोन्नति देकर कंजरवेटर बना दिया गया, जो अब टीकमगढ़ में पदस्थ हैं। सूत्र बताते हैं कि प्रधान मुख्य वन संरक्षक नेगी और प्रधान मुख्य वन संरक्षक (अनुसंधान एवं विस्तार) एमएस राणा ने ले-देकर मामला ठंडे बस्ते में डाल दिया है। विभागीय सूत्र बताते हैं कि निरंकार सिंह जब राजगढ़ में पदस्थ थे, तब वनारोपण में भारी फर्जीवाड़ा किया गया, जो जांच में सिद्ध भी हो गया था, किंतु तत्कालीन वन मंत्री विजय शाह की कृपा से उन्हें बचा लिया गया था। इसी का नतीजा है कि इस वन अधिकारी ने केंद्रीय अनुदान में भी फर्जीवाड़ा कर डाला और पदोन्नति पाकर अब भी डंके की चोट पर नौकरी कर रहा है।
वनों की रक्षा करने और वन क्षेत्र बढ़ाने के लिए सरकारी वन विभाग है, लेकिन यह विभाग कैसे काम करता है, सभी को मालूम है. विभाग के छोटे-बड़े अफसर सरकारी पैसा ख़र्च करना जानते हैं, लेकिन काम करना नहीं. क़ागज़ों पर हिसाब बराबर दिखाया जाता है, लेकिन बाद में पोल खुल जाती है. करोड़ों रुपये ख़र्च करके बनाया गया पन्ना टाइगर रिजर्व में आज एक भी टाइगर नहीं बचा है. इसे वन विभाग ने स्वीकार भी किया है. इसी तरह और भी वन्यप्राणी अभ्यारण्य हैं, जहां जानवर बेमौत मारे जाते हैं. संरक्षित वनों में पेड़ और क़ीमती पौधे काटे जाते हैं. जगह-जगह वनों में माफियाओं का क़ब्ज़ा है. वनकर्मी उनसे डरे रहते हैं या फिर लाभ लेकर चुप बैठे रहते हैं.
चौंकाने वाली बात तो यह है कि वन मंडलाधिकारी बालाघाट एवं रीवा क्षेत्र में नक्सलियों और डकैतों के ख़ौफ़ की बात कर रहे हैं. दूसरी तरफ़ कई वन अधिकारियों ने सालों से बांस एवं इमारती-जलाऊ लकड़ी के उत्पादन, विक्रय और पैसों का कोई हिसाब-किताब ही नहीं रखा. वन माफिया और अफसरों की मिलीभगत के चलते 222.67 करोड़ रुपये की धनराशि सरकारी खज़़ाने तक नहीं पहुंच सकी. इसके अलावा बांस और इमारती लकड़ी के कूपों का विदोहन न किए जाने से 10 करोड़ 29 लाख, कम उत्पादन दर्शाने से 4 करोड़ 48 लाख, वन उपज की गुणवत्ता में लापरवाही बरतने से 1 करोड़ 37 लाख, लेखाजोखा न रखने से 62 लाख, इमारती लकड़ी का पुनर्मापन किए जाने से 60 लाख, कम क़ीमत पर बिक्री किए जाने से 48 लाख और अन्य कई गंभीर अनियमितताओं से 185 करोड़ 58 लाख रुपये की हेराफेरी की गई. राज्य के छिंदवाड़ा पश्चिम, देवास, डिंडौरी, जबलपुर, खंडवा, मंडला पश्चिम, शहडोल उत्तर एवं विदिशा सामान्य वन मंडलों में कूप नियंत्रण पुस्तिकाएं उचित ढंग से नहीं तैयार की गईं. ऐसा जानबूझ कर किया गया, ताकि पोल न खुल सके. बालाघाट और रीवा के वन मंडलाधिकारियों ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि वे डकैतों और नक्सलियों के कारण कूपों का विदोहन नहीं कर सके. यही नहीं, बालाघाट में कोई भी निजी ट्रांसपोर्ट कूपों से डिपो तक वन उपज का परिवहन करने के लिए तैयार नहीं हुआ. हक़ीक़त यह है कि प्रदेश में धड़ल्ले से बड़े पैमाने पर हो रही अवैध कटाई में कहीं ऐसी दिक्क़त नहीं हो रही है.
भोपाल वन मंडल के अंतर्गत बालमपुर वन क्षेत्र में अवैध खनन किया जा रहा है। वन सीमा पर बनाई गई मुनारों को पीछे कर अवैध उत्खनन कराया जा रहा है। बताया जाता है कि यह काम कर रहे ठेकेदार को वन सीमा से बाहर खनन की अनुमति दी गई थी, किंतु उसने कागज में कूटरचना कर लीज जमीन का दायरा बढ़ा लिया, जिसमें विभागीय अधिकारी उसकी खुल कर मदद कर रहे हैं। यहां वन क्षेत्र में जेसीबी मशीन से मुरम-पत्थर का खनन किया जा रहा है। यह मामला सामने लाए जाने के बावजूद वरिष्ठ अधिकारियों ने कोई कदम इसलिए नहीं उठाया, क्योंकि उन तक भी हिस्सा पहुंच गया है।
इछावर के जंगलों में पिछले कुछ समय से सागौन के वृक्षों का तेजी से सफाया किया जा रहा है। आम, नीम, सत्कट और बबूल की आड़ में सागौन वृक्ष काटे जा रहे हैं। यहां से रोजाना चार-पांच ट्रक लकड़ी जा रही है, जिसकी बाकायदा टीपी भी जारी हो रही है। जिसके नाम पर टीपी जारी होती है, उसका वाहन में बैठना अनिवार्य है, किंतु इस नियम का पालन नहीं हो रहा है। इतना ही नहीं, नियमों को धता बता कर ट्रकों पर त्रिपाल ढांकी जा रही है, जो इस बात का प्रमाण है कि यहां सागौन की कटाई हो रही है। आकस्मिक छापे में इसका भंडाफोड़ हो सकता है।
वन विभाग में वर्षों से निचले स्तर पर भर्ती नहीं हुई है। ऐसे में जहां निचले कर्मचारी सेवानिवृत्त हो रहे हैं, वहीं अधिकारी पदोन्नति पा रहे हैं। विभागीय सूत्रों की मानें तो वर्ष 2015 तक यहां ऐसी स्थिति हो जाएगी कि अधिकारी तो थोक में रहेंगे और कर्मचारी होंगे ही नहीं। पिछले साल विभाग में नाकेदारों की भर्ती की गई थी, जिसमें पात्रों को दरकिनार कर अपात्रों का चयन किया गया। इसमें चयनित 13 लोगों के विरुद्ध जबलपुर हाईकोर्ट में जनहित याचिका दायर की गई है कि शारीरिक रूप से अक्षम और कम ऊंचाई वाले लोगों का भी चयन किया गया है। यह मामला अभी विचाराधीन है।

Friday, March 25, 2011

कुल को कलंकित करते कुलपति

मध्य प्रदेश के विश्वविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा, नौकरशाहों का पुनर्वास केन्द्र, छात्रों का शोषण स्थल, विवाद, कलह, आर्थिक अनियमितता, घपले-घोटालों, अनैतिकता, शिक्षा क्षेत्र में पक्षपात, भाई-भतीजावाद और अब सेक्स का अड्डा भी कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा। क्योंकि कुलिनों का केन्द्र कहे जाने वाले विश्वविद्यालयों में शिक्षा के नाम पर वह सब हो रहा है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की गई होगी। इन आधुनिक गुरूकुलों को वहां के कुलपति या उनके नुमाइंदे सबसे ज्यादा कलंकित कर रहे हैं और इसमें उनको शिक्षा माफिया, सत्ता के दलाल और प्रशासनिक अधिकारियों का भरपूर सहयोग मिल रहा है।
एक वक्त था, जब भारत को विश्वगुरु का दर्जा प्राप्त था। पूरी दुनिया यहां की अद्वितीय प्रतिभा के आगे नतमस्तक थी। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि एवं स्वाध्याय की प्रवृत्ति के कारण भारतीय हर विद्या में नित नए परचम लहरा रहे थे। कभी सोचा है कि उस वक्त ऐसा क्यों था? तब शिक्षा में राजनीति का प्रवेश नहीं था। वैसे तो राजनीति-शास्त्र एक पूर्ण विषय के रूप में मौजूद था, पर वह वर्तमान-स्वरूप से काफी भिन्न था। नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी थे। वहां पढ़कर ऐसे-ऐसे नगीने आगे बढे, जिन्होंने विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। आज उन जैसे विश्वविद्यालयों को हमें कल्पना में जीवित रखना पड़ रहा है। वास्तव में अब न तो ऐसे शिक्षा के मंदिर रहे हैं, न ही शिक्षक के रूप में ऐसे पुजारी, जो गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन कर सकें।
विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटी) वह संस्था है जिसमें सभी प्रकार की विद्याओं की उच्च कोटि की शिक्षा दी जाती हो, परीक्षा ली जाती हो तथा लोगों को विद्या संबंधी उपाधियां आदि प्रदान की जाती हों। प्रदेश में 17 विश्वविद्यालय हैं। इनमें से 12 पर ही कुलाधिपति (राज्यपाल) का सीधा नियंत्रण है। अन्य विश्वविद्यालयों पर राज्य शासन का प्रशासनिक नियंत्रण है। राज्य में एक दशक से विश्वविद्यालयों की कारगुजारियां आरोपों के घेरे में हंै। कुलपतियों की नियुक्तियां और फिर टकराव के प्रसंग आम बात हो गई है। राज्य में ऐसे कई विवादास्पद कुलपति हो चुके हैं, जिन पर आर्थिक अनियमितताओं, घपले, घोटालों, अनैतिकता, शिक्षा क्षेत्र में पक्षपात, भाई भतीजावाद के आरोप लगे और बदनाम होने के बाद वे पद से हटाये गये। प्रदेश में विश्वविद्यालय कलह के केंद्र बन गए हैं।
विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक माहौल पटरी पर लाने की बजाय विवादों का पिटारा हर रोज खुल रहा है। प्रदेश के चार कुलपतियों पर जांच का संकट मंडरा रहा है। भोज विश्वविद्यालय के कुलपति एस के सिंह पर गोपनीय प्रश्न पत्र मुद्रण, डिग्री मुद्रण एवं परीक्षाफल बनाने के कार्य अवैध रूप से आवंटित, परीक्षाफल कार्य संबंधी ओएमआर शीट का अवैध मुद्रण आदि में मनमानी और भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं वही माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि के कुलपति बृजकिशोर कुठियाला, बरतकतउल्ला विवि की कुलपति प्रो. निशा दुबे और देवी अहिल्या विवि के कुलपति पीके मिश्रा भी विवादों के घेरे में हैं। श्री कुठियाला के विरुद्ध राज्य शासन गोपनीय जांच करा रहा है, तो श्री मिश्रा की शिकायतें भी राजभवन पहुंची हैं। बीयू की कुलपति के खिलाफ बीएड अनुमति का मामला राजभवन ने गंभीरता से लिया है। यही नहीं दस माह में चार कुलपतियों पर गाज गिर चुकी है। 6 फरवरी 10 को रानी दुर्गावती विवि जबलपुर के कुलपति डॉ. सत्येंद्र मोहनपाल खुराना को हटा दिया गया वहीं 16 जून 10 को महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विवि. के कुलपति डॉ. ज्ञानेंद्र सिंह, मार्च 10 में देवी अहिल्या विवि इंदौर के कुलपति डॉ. अजीतसिंह सेहरावत और सितंबर 10 में विक्रम विवि के कुलपति डॉ. शिवपाल सिंह अहलावत को अपना पद छोडऩा पड़ा।
राज्य सरकार ने कुलपति पद को अपने चहेते अफसरों को उपकृत करने के लिए भी बदनाम किया हैं। कई रिटायर्ड आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अधिकारी विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपति बने और बिना कुछ किए आराम से पद की सुख सुविधाएं भोगते रहे। प्रदेश के किसी भी विश्वविद्यालय पर नजर डाले तो असंतोष का धुंआ उठता दिखेगा। कहीं कुलपति का विरोध है तो कहीं प्रशासनिक व्यवस्था का। हाल ही में विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में कुलपति का इतना विरोध हुआ कि राज्य सरकार को धारा-52 के तहत कार्रवाई करनी पड़ी। वहां कुलपति के प्रति बढ़ते विरोध का यह आलम था कि छात्र संगठनों ने तो बाकायदा उनकी प्रतीकात्मक अर्थी तक निकाल दी थी। शिक्षक संघ से लेकर कर्मचारियों तक सभी ने विश्वविद्यालय के कामकाज को पूर्ण रूप से बंद कर रखाथा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में भी कुलपति को लेकर विरोध के स्वर कुछ ज्यादा ही मुखर हो गए हैं। अलबत्ता, यहां अभी उज्जैन जैसे हालात नहीं हैं। वहीं, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में कुलपति पर नित नए आरोप लग रहे हैं। कमोवेश यह हाल प्रदेश के सभी विश्वविद्यालयों का है।
भोज के कुलपति निशाने पर
21 अप्रैल 2009 को भोज मुक्त विश्वविद्यालय में कुलपति बनाए गए एस के सिंह ने पद संभालते ही गड़बड़ी शुरू की। उन्होंने अपने गृह क्षेत्र लखनऊ की एक प्रिटिंग कंपनी इंफोलिंक को उपकृत करने सभी नियमों को ताक पर रख दिया। श्री सिंह को इस कंपनी को प्रिटिंग का ठेका देने में इतनी जल्दबाजी थी कि उन्होंने पहले इससे ठेके का अनुबंध किया और फिर औपचारिकताओं की पूर्ति के लिए पंद्रह दिन बाद निविदाएं बुलाई गईं। निविदा आमंत्रण पर आधा दर्जन कंपनियों के प्रस्ताव विश्वविद्यालय को मिले लेकिन ठेका पूर्व में किए गए अनुबंध के मुताबिक इंफोलिंक को ही मिला। करीब तीन साल के लिए हुए ठेके में कंपनी को दस लाख रुपए का भुगतान भी अग्रिम कर दिया गया। मामले का खुलासा होने पर उन्होंने आरोप विश्वविद्यालय के परीक्षा नियंत्रक पर मढऩे की कोशिश की। लेकिन कलई अंतत: खुल ही गई।
बार-बार मिल रही शिकायतों के बाद राजभवन ने प्रो. सिंह की कार्यशैली एवं उन पर लगे आरोपों की जांच कराने का निर्णय लिया है। प्रो.सिंह के खिलाफ राजभवन को 50 से अधिक बिंदुओं पर अलग-अलग शिकायतें मिली हैं। युवक कांग्रेस के नितिन सक्सेना ने कुलपति के खिलाफ शिकायत की थी। इसमें लखनऊ की इंफोलिंक को मूल्यांकन और परीक्षा परिणाम तैयार करने का काम देने का मामला भी था। इसके अलावा 125 नियुक्तियों, एक लाख रूपए से अधिक का पेट्रोल सालभर में खर्च करने जैसी गंभीर शिकायतें हैं। इनमें से कुछ मामलों में लोकायुक्त में भी शिकायत हुई है। विवि से सेवाएं समाप्त किए जाने पर कर्मचारी अनिल राय ने भी कुलपति की अनियमितताओं की तथ्यात्मक शिकायत राजभवन में की थी। जिससे प्रो.एसके सिंह की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं। एक ओर राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो श्री सिंह के खिलाफ दर्ज प्रकरण में दस्तावेजों के लिए चार-चार पत्र विवि को भेज चुका है।
प्रो.एसके सिंह पर आरोप
गोपनीय प्रश्न पत्र मुद्रण, डिग्री मुद्रण एवं परीक्षाफल बनाने के कार्य अवैध रूप से आवंटित, परीक्षाफल कार्य संबंधी ओएमआर शीट का अवैध मुद्रण, अप्रैल 09 से दैनिक वेतन, मानदेय, दैनिक वेतन पर कार्यभारित कर्मचारियों को अवैध रूप से रखना, विवि के शिक्षा विभाग में अवैध रूप से प्रतिनियुक्ति पर शिक्षकों की नियुक्ति,प्रतिनियुक्ति पर अवैध रूप से अधिकारियों की पदस्थापना, सिम व पुस्तक लेखन, अवैध रूप से सेवानिवृत्तों की नियुक्ति ,निविदा शर्तो में अवैध संशोधन, बिना निविदा के सामग्री क्रय, विवि के शिक्षा विभाग में अवैध नियुक्तियां यथावत रखकर अवैध लाभ देना, आरक्षित पदों के विरूद्ध अवैध नियुक्तियां, कुलपति को सुविधाओं संबंधी अवैध भुगतान, वाहनों में डीजल-पेट्रोल के अवैध भुगतान, आडिटोरियम निर्माण के आर्किटेक्ट की अवैध नियुक्ति, वर्ष 2010-11 में प्रवेश आनलाइन कर प्रवेश मार्गदर्शिका बिना जरूरत के मुद्रण कराकर विवि को आर्थिक क्षति करना, नियम विरूद्ध आवास आवंटन, अंकसूची के अवैध मुद्रण, अवैध रूप से जारी आदेशों के विरूद्ध देयकों के लंबित भुगतान, अवैध फोटोकापी, सलाहकारों की अवैध नियुक्ति, परीक्षा विभाग में पदस्थ कर्मचारियों द्वारा अवैध रूप से विवि की परीक्षा देना।
भोज मुक्त विश्वविद्यालय में 2004 से 2009 की अवधि तक कुलपति पद पर रहे कमलाकर सिंह पर इस विश्वविद्यालय में भवन निर्माण में घोटाले और अनियमितताओं के आरोप भी लगे हंै। इस मामले में राज्य के आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो ने 18 मई 2010 को जिला अदालत में चालान भी पेश किया है। भोपाल के शासकीय महाविद्यालयों में व्याख्याता, सहायक प्राध्यापक और प्राध्यापक पदों पर कार्य करने के बाद प्राणी विज्ञान में पीएचडी की उपाधि के बल पर कमलाकर ने अपने राजनैतिक संपर्कों का लाभ लेते हुए भोपाल विश्वविद्यालय में कुलसचिव का पद प्राप्त किया और इसी दौरान उन पर पीएचडी के लिए उनके द्वारा रचित शोध ग्रंथ में पहले से प्रकाशित एक शोध ग्रंथ के कई पन्नों की जश की तश नकल करने का आरोप लगा। जांच के दौरान आरोप सहीं भी पाया गया, लेकिन कमलाकर सिंह अड़े रहे।
मामला उच्च न्यायालय और बाद में सर्वोच्च न्यायालय तक गया जहां न्यायालय ने पीएचडी में नकल के मामले में अंतिम फैसला लेने का अधिकार भोपाल के बरकतउल्ला विश्वविद्यालय की कार्य परिषद को दे दिया। तदानुसार कार्य परिषद ने जांच के बाद कमलाकर की पीएचडी की उपाधि निरस्त कर दी। यहां उल्लेखनीय है कि पीएचडी में नकल का आरोप लगने के कुछ समय बाद कमलाकर सिंह ने बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल के कुलसचिव पद को असामान्य परिस्थितियों में छोड़ दिया लेकिन कुछ दिन बाद ही वे भोज मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति बना दिए गये। उनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय के भवन का निर्माण किया जाना था और इसके लिए सरकार की ओर से 25 करोड़ रुपए की राशि स्वीकृत भी की गई थी। कुलपति डॉ. सिंह ने भवन निर्माण और परिसर के विकास कार्य के लिए एक प्रबंधक बोर्ड का गठन किया, जिसके अध्यक्ष वे स्वयं बने। इसके बाद भवन निर्माण में कई अनियमित्ताएं की खबरें भी खुर्खियों में रहीं।
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय
महाकौशल के सात जिलों के एक सैकड़ा से अधिक महाविद्यालयों को सम्बद्धता का आधार देने वाले रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय का काफी उतार-चढ़ाव भरा सफरनामा रहा है। इन दिनों मेडिकल सेक्स स्कैंडल की हौलनाक आग में बुरी तरह झुलस रहे रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय में घपलों-घोटालों का काला इतिहास रहा है। मौजूद कांड समूची आंतरिक और बाह्य व्यवस्था का पोस्टमार्टम करने की आवश्यकता पर बल दे रहा है। कभी पुनर्मूल्यांकन घोटाला तो कभी फर्जी अंकसूची कांड, कभी नियमितीकरण घोटाला तो कभी पदोन्नतियों में गड़बड़झाला, कभी निर्माण में घपलेबाजी तो कभी पेपर आउट करने-कराने और गैसिंगबाजी का गोरखधंधा। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राम राजेश मिश्रा के कार्यकाल में हुए इस गोरखधंधे ने विश्वविद्यालय की गरिमा को तार-तार कर दिया है। इस विश्वविद्यालय में चलाए जा रहे डेंटल, डीडीएस और एमबीबीएस पाठ्यक्रमों पर भी उंगली उठी है।
रादुविवि के तराजू में पैसा हमेशा टैलेंट पर भारी रहा। यहां तो बस एक जुमला चलता आया है- पैसा फेंक, तमाशा देख। इसी के चलते पुनर्मूल्यांकन जैसे घोटालों को हवा मिलती आई। फलस्वरूप पिछड़ गए प्रतिभाशाली छात्रों बृजेन्द्र मरकाम व पूनम गुप्ता की आत्महत्या जैसे दर्दनाक वाकये देखने को मिले। अपनी मेहनत की दम पर देखा गया उज्जवल भविष्य का ख्वाब चकनाचूर होने का सदमा वे झेल नहीं सके। दिलचस्प बात तो ये रही कि वे दोनों जिन साथियों को ट्यूशन देते थे वे ले-देकर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गए और ये आश्चर्य किन्तु सत्य की तर्ज पर फेल!
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविघालय में ब्रज किशोर कुठियाला की ताजपोशी 19 जनवरी 2010 को हुई और उसी दिन से विश्वविद्यालय में नई परम्पराएं गढ़ी जाने लगीं। इसे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां ऐसे शख्स को कुलपति जैसा महत्वपूर्ण पद सौंप दिया गया है, जो जालसाजी और धोखाधड़ी कर यहां तक पहुंचा है। इन पर अपात्रों को संरक्षण देने के अलावा दस्तावेजों में गलत जानकारी देने के भी आरोप लग चुके हैं। इतना ही नहीं, इनके कारनामों के विरुद्ध कोर्ट में याचिका भी विचाराधीन है। देश के एकमात्र पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति पद हथियाने के लिए कुठियाला ने अपना वामपंथी चोला उतार फेंका और संघ की शरण में चले गए। अपने आपको संघी साबित करने के लिए संघ की शाखा में भी जाना शुरू कर दिया है। कुठियाला पर अपने एक चहेते छात्र को भी सीधे नियुक्ति देने के आरोप भी लगे। माखनलाल विश्वविद्यालय में पदस्थापना के साथ ही कुठियाला विवादों में घिरे रहे पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्र पाल सिंह से भी इनकी नहीं पटी। कुठियाला ने मौजूदा सत्र में 14 नए पाठ्यक्रम शुरू कराए हैं। पहले से चल रहे छह पाठ्यक्रमों की यह स्थिति है कि इनमें हर साल करीब 250 छात्र प्रवेश लेते हैं, किंतु पढ़ाई पूरी करने के बाद इनमें से आधे भी नौकरी नहीं पा पाते हैं। ऐसी स्थिति में संचार परंपरा और अध्यात्म प्रबंधन जैसे पाठ्यक्रम पढऩे वाले छात्र नौकरी के लिए किसका दरवाजा खटखटाएंगे, यह सवाल है।
तानाशाही पूर्ण व्यवहार
व्यवहार में तानाशाही, धमकी, धौंस-धपट, फूट डालने, लोगों को आपस में लड़वाने, झूठी कार्यवाही करने, मनमानी करने, दबाव डालकर नस्तियों पर हस्ताक्षर करने, बात-बात में सरकार के उनके साथ होने की धमकी देने, सभी को डरा-धमका कर पूरी तरह से अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास करना।
बरकतउल्ला विश्वविद्यालय जो कुलपति बना, वो निपटा...!
बरकतउल्ला विश्वविद्यालय में जो कुलपति बना, वो ही निपटा! इसकी अभी तक की कहानी तो कुछ ऐसी ही है। कभी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को स्वर्णपदक देने वाला यह विश्वविद्यालय कुलपति की घेराबंदी से लेकर बदसलूकी और ऐसी कितनी ही कलंकित घटनाओं का गवाह रहा है। यहां कुलपति औसत डेढ़ से दो साल ही रह पाते हैं, जबकि कुलपति का कार्यकाल चार साल का होता है। बारह सालों में नौ कुलपति यहां हो चुके हैं। दिलचस्प यह कि हर कुलपति को भ्रष्टाचार में घिरकर इस्तीफा देना पड़ा या उन्हें हटा दिया गया। प्रो. केसी नायर, प्रो. आईएस चौहान, प्रो.एमएस सौढा, डा.संतोषकुमार श्रीवास्तव, प्रो. हर्षवर्धन तिवारी, प्रो. वाच्छानी, डा. रामप्रसाद, आरएस सिरोही, भूपालसिंह, रवींद्र जैन सहित कितने ही कुलपति आए और गए। इसके अलावा खास कुछ न कर सके।
वर्तमान में प्रदेश की पहली महिला कुलपति डॉ. निशा दुबे विश्वविद्यालय को सही पटरी पर लाने की जद्दोजहद कर रही है। इस स्वर्णिम विश्वविद्यालय की कलंकित साख को सुधारने की राह आसान नहीं है, लेकिन पहली महिला कुलपति होने के नाते कुछ उम्मीदें जरूर जगी थी लेकिन वे भी गड़बडिय़ों के जाल में फंस गर्इं। राज्य सरकार ने बरकतउल्ला विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. निशा दुबे के कार्यकाल में हुई गड़बडियों की जांच की सिफारिश की है। इसके लिए सरकार की ओर से राजभवन को लिखे गए पत्र में कुलाधिपति के विशेषाधिकार के तहत धारा 10 (1) में अनियमितताओं की जांच कराने की मांग रखी है। विधायक आरिफ अकील ने मंत्री को कुलपति की अनियमितताओं के सिलसिले में लगातार पत्र लिखे थे। इसमें नियमों के विपरीत स्वयं का वेतन निर्धारण करने, कॉलेजों की मान्यता में अनियमितता करने और कार्यपरिषद सदस्यों की आपत्ति के बावजूद कनिष्ठ प्रोफेसर को कुलाधिसचिव (रेक्टर) नियुक्त करने की शिकायत की गई थी। शिकायतों की जांच के लिए उच्च शिक्षा विभाग ने राजभवन सचिवालय को चिट्टी लिखी है। चिट्टी 24 जनवरी-11 को भेजी गई है। इसमें मप्र विश्वविद्यालय अधिनियम 1973 की धारा 10 (1) के अंतर्गत जांच की सिफारिश की गई है। बीयू में गड़बड़ी की शिकायतें राजभवन को भी मिल रही हैं। राजभवन का मानना है कि विवि में हालात बेकाबू हो गए हैं। प्रवेश, परीक्षा और डिग्री जैसी परेशानियों को लेकर छात्रों ने राजभवन में शिकायत की है। विवि में आए दिन धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं। कॉलेजों की मनमानी पर अंकुश नहीं है। राजभवन ने बाकायदा चिटी लिखकर कुलपति का ध्यान अनियंत्रण की ओर दिलाया है। इस विश्वविद्यालय ने सोलह दिन में पीएचडी उपाधि देने का कीर्तिमान भी रचा है।
विक्रम विश्वविद्यालय
विक्रम विश्वविद्यालय में 1957 में उज्जैन, मध्य प्रदेश में स्थापित किया गया था। वर्तमान समय में यहां के कुलपति प्रोफेसर टी.आर. थापक हैं। पिछले कुछ अरसे से यह विश्वविद्यालय भी विवादों का केंद्र बना हुआ है। विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. शिवपाल सिंह अहलावत ने शुल्क में कमी के नाम पर तमाम छात्रों के साथ छलावा किया। उन्होंने फीस कटौती की मौखिक घोषणा तो की लेकिन धरातल पर कुछ नहीं किया। नतीजतन मामला अनिश्चितता के घेरे में है। अहलावत के कार्यकाल में हुई बेतहाशा शुल्क वृद्धि ने छात्र संगठनों को विरोध प्रदर्शन के मजबूर कर दिया था लेकिन भारी विरोध के बाद शुल्क वृद्धि वापस लेते हुए डॉ. अहलावत ने 30 प्रतिशत वृद्धि वापस लेने की घोषणा की थी।
डॉ. अहलावत ने मात्र मौखिक घोषणा कर छात्र संगठनों के विरोध को शांत करने का प्रयास किया था। डॉ. अहलावत के जाने के बाद छात्र संगठन एक बार फिर शुल्क वृद्धि मुद्दे को लेकर सामने आने की तैयारी में हैं।
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय 1964 में स्थापित हुआ था। सन 1988 में देवी अहिल्या बाई होल्कर की स्मृति में विश्वविद्यालय का नाम बदल कर देवी अहिल्या विश्वविद्यालय कर दिया गया। मां अहिल्या के नाम से इंदौर शहर की पहचान है। विश्वविद्यालय भी इसी नाम से जाना जाता है, लेकिन 45 साल बाद भी इस विश्वविद्यालय को महिला कुलपति नहीं मिल पाई हैं। विवि के इतिहास में अभी तक 21 कुलपति हुए हैं, लेकिन कभी महिला प्रोफेसर को प्रभारी कुलपति के भी योग्य नहीं समझा गया। हां, कभी-कभी कुलपति की इच्छा पर स्टेपनी के तौर पर 1-1 दिन के लिए कुछ महिला प्रोफेसरों को अपने आगे कुलपति लगाने का मौका मिला है। स्थाई कुलपति प्रदेश में केवल बरकतउल्ला विवि के पास डॉ. निशा दुबे के रूप में हैं। इन्दौर विश्वविद्यालय के कुलपति रिटायर्ड आईएएस डॉ. भागीरथ प्रसाद ने कार्यकाल पूरा होने से पहले पद छोड़ा था, कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए, लेकिन जनता ने उन्हें रिजेक्ट कर दिया और वे चुनाव हार गए।
आरजीपीव्ही
राजीव गांधी प्रोद्यौगिकी विश्वविद्यालय के प्रशासनिक ढांचे को देखा जाए तो हम पात हैं कि यह विश्वविद्यालय प्रभारी अधिकारियों के हवाले है। आरजीपीव्ही में कुल सचिव- रजिस्ट्रार, अधिष्ठाता छात्र कल्याण, उप कुलसचिव शैक्षणिक, उप कुलसचिव प्रशासनिक सभी अधिकारी प्रभारी हैं। कोई लगभग चार वर्ष से तो कोई दस वर्षों से इन पदों पर प्रभारी के रूप में नियुक्ति है। आरजीपीव्ही एक तकनीकी विश्वविद्यालय है किंतु कुलपति सहित इसके शीर्ष पदों कुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, अधिष्ठाता छात्र कल्याण आदि पदों पर गैर तकनीकी अधिकारी पदस्थ हैं। जबकि विश्वविद्यालय अधिनियम में भी तकनीकी योग्यता प्राप्त अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान है। उपधारा-2 या 6 कुलपति चयन एवं नियम 17 और 19। मुकेश पाण्डे उप कुलसचिव शैक्षणिक विगत 10 वर्षों से नियम विरुद्ध उप कुलसचिव के पद पर पदस्थ हैं। साथ ही विगत 10 वर्षों में निजी कॉलेजों में निरीक्षण एवं मान्यता का कार्य संपादित कर रहे हैं। निरीक्षण दल के सदस्य ना होते हुए भी समन्वयक के नाम पर निरीक्षण में शामिल रहते हैं साथ ही विश्वविद्यालय से वर्षों से इसकी यात्रा एवं दैनिक भत्ता भी वसूल कर रहे हैं। कुलपति पीयूष त्रिवेदी की पत्नी श्रीमती वंदना त्रिवेदी टीच फार इंडिया सोसाइटी की सदस्य सचिव हैं। जिसके 5 विभिन्न कॉलेज आरजीपीव्ही के अंतर्गत हैं। ऐसे में कॉलेज के प्रोफेसर्स एवं अध्यापकों, छात्राओं में भारी आक्रोश उत्पन्न हो रहा हैै। साथ ही कॉलेज के संचालक उक्त कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी को हटाने की मांग कर रहे हैं।
पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय अभी महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय पूरी तरह आकार ले भी नहीं सका है और इसमें अनियमितता सामने आने लगी है। विश्वविद्यालय कार्यपरिषद के एक सदस्य ने टैक्सी किराए का फर्जी बिल प्रस्तुत कर भुगतान प्राप्त किया। विश्वविद्यालय कुलपति डॉ. मोहन गुप्त ने प्रकरण में विश्वविद्यालय के उपकुलसचिव से जांच करवाने के उपरांत अपने पत्र में प्रतिवेदित किया है।
कुलपति अति सम्मान जनक ओहदा है जिसे आमजन से खास लेना देना नहीं, जहां शिक्षाविद वैज्ञानिक या प्रसाशनिक अधिकारी नियुक्त हुआ करते रहे हैं, यह उस संप्रदाय के प्रमुख हुआ करते थे जहां सरकारें समुचित शिक्षा के लिए उक्त पद पर नियुक्ति हुआ करती थी, पर जब से शिक्षा का निजीकरण हुआ है तब से अधिकांश कुलपति यानि ऐसे वैसे कुलपति के रूप में आने लगे और जब ये आये तो इनके इर्द गिर्द ऐसे ही लोग तमाम बुराईयाँ वाले शिक्षक छात्र दोनों के नेता और विश्वविद्यालय के महान कर्मचारी जिनके कन्धों पर पूरा विश्वविद्यालय होता है। कई सालों से मैं देख रहा हूं कि कुलपतियों की एकमात्र योग्यता राजनीतिक नेतृत्व से निकटता रह गई है। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन आम तौर पर कुलपति का नामांकन और चयन प्रक्रिया महज एक स्वांग में तब्दील हो गई है। सिफारिशी कुलपतियों ने विश्वविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है। देश के अधिकतर विश्वविद्यालयों में कमोबेश यही आलम बरकरार है। चतुर्थ श्रेणी की नियुक्तियों से लेकर अफसरों और कुलपतियों की नियुक्तियों में हर विश्वविद्यालय के एक जैसे हाल हैं। दूसरी बात है कि कुलपतियों के चयन राजनैतिक दलों की दखलंदाजी भी हावी रहती है। ऐसे में किसी साफ सुथरे व्यक्ति के चयन की उम्मीदवारी कमजोर हो जाती है। एक समय था जब किसी विश्वविद्यालय के कुलपति से मुलाकात बड़ी प्रेरणादायी होती थी। आप खड़े होकर पूरे मान-सम्मान के साथ उन्हें सुनते थे। दुर्भाग्य से अब ऐसा नहीं है। वजह जो भी हो, कुलपति अब प्रेरित नहीं करते। ईमानदारी से कहा जाए तो आज एक हद तक स्थिति यह है कि आप कुलपति से मुलाकात करने के बजाए उनसे बचना चाहेंगे। कुलपति के रूप में एक संस्था में पतन का सिलसिला कुछ समय पहले शुरू हुआ और आज की तारीख में इस संस्था को लगा रोग संभवत: आखिरी चरण में प्रवेश कर गया है। राजनीतिक निकटता ही एकमात्र मापदंड नहीं है। आप कितना खर्च कर सकते हैं, इससे भी अंतिम फैसला प्रभावित होता है।

प्रज्ञा और जोशी को हैवान बनाया असीमानंद ने

धर्म हो या फिर आध्यात्मिकता या फिर राष्ट्रीयता अगर इनको अतिवाद के साए में पोषित किया जाए तो वह खतरनाक हो सकता है और इसका सबसे ताजा और बड़ा प्रमाण हैं साध्वी प्रज्ञा चंद्रपाल सिंह ठाकुर और सुनिल जोशी। एक अध्यात्म तो दूसरा राष्ट्रीयता के सहारे अपने पथ पर गतिमान थे कि इनके बीच आ गए अतिवादी असीमानंद। फिर क्या था धर्म और अध्यात्म की चितेरी साध्वी प्रज्ञा और राष्ट्रीयता के ओज से भरे सुनील जोशी अपना पथ भटक गए। साध्वी प्रज्ञा देखते ही देखते एक दिन देश की कुख्यात आतंकवादी मान ली जाएंगी ऐसा कभी स्वयं उन्होंने भी नहीं सोचा होगा और बेचारे जोशी तो अब रहे नहीं।
हिन्दुत्व पर आतंकवाद का धब्बा लगाने वाले प्रज्ञा और सुनील जोशी मध्य प्रदेश के निवासी थे। वर्ष 2003 में इंदौर में आयोजित एक कार्यक्रम में दोनों की मुलाकात हुई। अपनी आकर्षक छवि के कारण प्रज्ञा उसी दिन से सुनील जोशी के मन मंदिर में बस गई। मूलत: मध्य प्रदेश की निवासिनी 40 वर्षीय प्रज्ञा के अभिभावक कुछ साल पहले गुजरात के सूरत में जाकर बस गए थे इस लिए इनकी मुलाकात कम ही हो पाती थी। जहां एक तरफ जोशी प्रज्ञा से शादी करने का ख्वाब संजोए हुए था वहीं प्रज्ञा को जानने वाले बताते हैं कि उसे बचपन से ही जगत की भौतिकता से एलर्जी सी हो गई थी। हालांकि साध्वी ने वर्ष 2003 में ही साध्वी का चोला धारण करना शुरू कर दिया था लेकिन उन्होंने कोर्ट में प्रस्तुत अपने हलफनामें में कहा है कि वे 30 जनवरी 2007 को संन्यासिन बनी। बताते है कि प्रज्ञा चंद्रपाल सिंह ठाकुर संन्यासिन तो बन गई लेकिन उनमें आध्यात्मिकता का गुण नहीं समा सका। बात-बात में आक्रोशित होना उनके ठाकुरपन को दर्शाता था। उन्हें यह बात अच्छी तरह मालुम थी कि अध्यात्म का सबसे बडा और महत्वपूर्ण सूत्र है संयम। अध्यात्म का मार्ग बहुत लम्बा और साधना का मार्ग है, किन्तु संयम का पालन कर अध्यात्म की साधना व्यवहार के धरातल पर भी की जा सकती है। बस सीमाकरण कर दो। हिंसा को कम करने का, कलह और संघर्ष को मिटाने का एक महत्वपूर्ण सूत्र है संयम,जिसकी कमी साध्वी होने के बाद भी उनमें नजर आती थी।
सुनील जोशी मध्यप्रदेश के देवास में एक बेहद गरीब परिवार से जन्मा था लेकिन उसकी महत्वकांक्षाएं बड़ी थी। 1999 में वह महू जिले में संघ का जिला प्रचारक बन गया, जहां कुछ ही समय में वह कट्टर हिंदुत्ववादी के रूप में पहचाना जाने लगा। संघ में उसे गुरूजी के नाम से जाना जाता था। सुनील बचपन से ही अति उत्साही प्रवृति का था जो जवानी में और भी परवान चढ़ी। उसकी इसी रॉबिनहुड वाली छवि की साध्वी भी कायल थी। प्रज्ञा जबसे सन्यासिन बनी उनका अधिकत्तर समय जबलपुर के आश्रम में बीतता था। इस दौरान सुनील जोशी भी उनके संपर्क में रहता था। मेल- मुलाकातों का सिलसिला ऐसा चला कि सुनील जोशी के एक तरफा प्यार का अहसास साध्वी को भी होने लगा और वह भी उसे प्यार करने लगी।
दोनों का प्यार कुछ इस कदर परवान चढ़ा की प्रज्ञा धर्म और अध्यात्म को तो जोशी हिन्दुत्ववादी राष्ट्रीयता को भूल गया। जोशी एक पल के लिए भी प्रज्ञा से अलग नहीं होना चाहता था लेकिन अध्यात्मिकता का चोला ओढ़े प्रज्ञा के लिए यह संभव नहीं था।
इसी दौरान 2003 में ही प्रज्ञा सिंह ने सुनील जोशी का संपर्क असीमानंद से कराया। पहली मुलाकात में ही जोशी अपनी हिन्दुत्ववादी आक्रामक छवि के कारण असीमानंद की पसंद बन गया। असीमानंद 2002 में हिन्दू मंदिरों पर हुए धमाकों से वे बहुत विचलित थे और प्रज्ञा सिंह और सुनील जोशी के अंदर अपने जैसी सोच देखकर उन्होंने उनके सामने अपनी मंशा जाहिर कर दी।
स्वामी असीमानंद मूलत: पश्चिमी बंगाल के हुगली के हैं। ऊंची तालीम हासिल असीमानंद कभी नब कुमार थे, फिर उन्हें पुरुलिया में काम करते देखा गया। स्वामी वर्ष 1995 में गुजरात के आहवा में अवतरित हुए और हिंदू संगठनों के साथ हिंदू धर्म जागरण और शुद्धिकरण का काम शुरू किया। मगर वो कम से कम दो दशक से मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र्र जैसे राज्यों में ही सक्रिय रहे। स्वामी असीमानंद ने मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के कोई 12 जि़लों में अपने हंदू प्रभाव का तानाबाना बुन रखा था। वे अपना कामकाज दक्षिण गुजरात के पांच जि़लों- डांग और खेड़ा, उत्तरी महाराष्ट्र्र के नंदनवार और पश्चिमी मध्य प्रदेश के झाबुआ में फैला रखा था, मगर उनका केंद्र गुजरात के डांग जि़ले में आहवा था। यहीं उन्होंने शबरी माता का मंदिर बनाया और शबरी धाम स्थापित किया।
हिन्दू धार्मिक स्थलों पर हुए धमाकों का बदला लेने के लिए असीमानंद काफी उतावले थे। अपनी इस रणनीति को अंजाम तक पहुंचाने के लिए असीमानंद को वर्ष 2004 में उज्जैन के सिंहस्थ कुंभ में मौका मिल गया। वहां एक बैठक हुई जिसमे प्रज्ञा सिंह, सुनील जोशी, रामजी कलसंगरा, देवेन्द्र गुप्ता और अन्य अनेक लोग मौजूद थे। इस बैठक में हिंदू धर्मस्थलों पर मुस्लिम चरमपंथियों के हमलों पर गुस्सा जाहिर किया गया और कहा सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठे है, लिहाजा खुद के दम पर कुछ किया जाए। यहीं वह बैठक थी जहां पर सुनील जोशी हिन्दुत्ववादी राष्ट्रीयता के भ्रामक छलावे में आ गया और उसकी आदते बिगडऩे लगी।
सूत्र बताते हैं कि इस बैठक में असीमानंद ने जोशी का इस तरह माईंड वाश किया कि वह अपराध की डगर पर चल पड़ा। देवास के कुछ आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों से उसकी नजदीकी बढ़ी। वह लोगों को डरा-धमका कर पैसा उगाहने लगा। जोशी की पैसा कमाने की ललक ने प्रज्ञा बहुत आहत थी। उसने इसके लिए कई बार जोशी को रोकने की कोशिश की लेकिन वह माना नहीं। बताते हैं कि वह पैसा कमाने के पीछे इस कदर पागल हो गया था कि वह प्रज्ञा को भी प्रताडि़त करने से नहीं चुकता था।
उधर असीमानंद बराबर इनके संपर्क में रहते थे। धीरे-धीरे मुलाकातों का जब दौर बढ़ा तो देश भर में बम धमाकों की साजिश रची गई। हैदराबाद, अजमेर, मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस में बम रखने का फैसला इन्हीं मुलाकातों के दौर में किया गया। असीमानंद के अनुसार जोशी 2006 के मालेगांव बम धमाके की साजिश में भी शामिल था और हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजेमर और समझौता एक्सप्रेस में हुए ब्लॉस्ट में भी उसका पर्दे के पीछे बड़ा रोल था।
बताते हैं कि मालेगांव ब्लास्ट के बाद से जोशी और आक्रामक हो गया था। निनामा हत्याकांड के बाद से ही फरार चल रहे सुनील जोशी उर्फ गुरुजी ने इस अवधि में लगभग 1 करोड़ से अधिक की संपत्ति इक_ा कर ली थी। शराब व्यवसाय, सोना-चाँदी के अलावा वायदा सौदे में भी गुरुजी ने लाखों रुपए निवेश किए थे। निनामा हत्याकांड के बाद से फरार हुए जोशी ने 4 वर्ष में 1 करोड़ से अधिक की संपत्ति बना ली थी। देवास की चूना खदान क्षेत्र में रहने के दौरान जोशी ने विभिन्न स्रोतों से धन एकत्रित करना शुरू कर दिया था। रामचरण खाती के साथ मिलकर उसने ग्राम पालनगर में खली-बीज का व्यवसाय शुरू किया था। वासुदेव परमार के साथ मिलकर उसने परमार के फोटो स्टूडियो के पास एक दुकान भी खरीद ली थी। जितेंद्र निवासी डकाच्या और शिवम धाकड़ के साथ मिलकर जोशी ने शराब के दो ठेके भी ले लिए थे। इतना ही नहीं, उसने आनंदराज कटारिया के साथ मिलकर वायदा सौदों और सोने-चाँदी के व्यवसाय में लाखों रुपए निवेश कर दिए थे।
नवंबर-दिसंबर 2007 में हत्या के कुछ समय पहले ही उसने आनंदराज और वासुदेव के साथ मिलकर फर्स्ट फ्लाइट कोरियर सर्विसेज की फ्रेंचाइजी ले ली थी। जोशी के भतीजे अश्विन और मेहुल उर्फ घनश्याम को गीता भवन क्षेत्र स्थित फर्स्ट फ्लाइट कोरियर पर प्रशिक्षण के लिए भेजा था। इंदौर में भी परफेक्ट कोरियर एजेंसी संचालन के लिए आनंदराज कटारिया की दुकान का इस्तेमाल किया था। दुकान के बदलाव सहित फर्नीचर आदि पर भी जोशी ने ही भारी धनराशि खर्च की थी। 2007 में इसका उद्घाटन भी जोशी और उसके साथियों ने किया था। इसके अलावा आनंदराज के साथ ही जोशी ने व्यावसायिक गतिविधियों के लिए बोलेरो गाड़ी भी खरीद ली थी। जोशी की जिंदगी में अभी तक सब कुछ ठीक था कि 29 दिसंबर 2007 को देवास के चूना खदान क्षेत्र में उनकी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। जोशी की हत्या से पहले पुलिस उसे सिर्फ निनामा हत्याकाण्ड का आरोपी मानती रही, लेकिन अब तीन साल बाद जोशी की हत्या हिन्दुस्तान की तमाम जांच एजेंसियों के लिए रहस्य है।
सूत्र बताते हैं कि आरएसएस प्रचारक सुनील जोशी की हत्या की वजह एक महिला बनी थी। उस महिला से संबंधों को लेकर जोशी और उनके साथियों के मध्य मतभेद थे। इधर जोशी और प्रज्ञा में आपसी मतभेद भी हो गए थे, जो पैसों को लेकर और बढ़ गए थे। जोशी के होते हुये प्रज्ञा सिंह अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर पा रही थी लिहाजा प्रज्ञा सिंह ने सुनील जोशी की हत्या की साजि़श रच डाली। पुलिस की चार्जशीट में बताया गया कि जोशी ने साध्वी के साथ व्यक्तिगत तौर पर बुरा बर्ताव किया था, इसलिए भी साध्वी उससे नाराज थी। साथ ही जोशी पार्टी और दूसरे स्रोतों से मिले पैसे का भी दुरुपयोग करता था। चार्जशीट के मुताबिक, जोशी हर्षद मेहुल, राकेश और उस्ताद के साथ भी बुरा बर्ताव करता था। ये लोग बेस्ट बेकरी केस में फरार थे। 1 मार्च 2002 को इस मामले में 14 लोग जिंदा जल गए थे। ये चारों जोशी के साथ देवास में छिपे थे। ये कुछ कारण थे जिसके कारण 2006 में जोशी और साध्वी के बीच विवाद हो गया।
जोशी की भतीजी चंचल के अनुसार महीनों तक साध्वी प्रज्ञा और सुनील जोशी में बातचीत नहीं हुई। प्रज्ञा दीदी का घर आना भी कम हो गया था चंचल ने कहा कि उसके चाचा अश्लील हरकत नहीं कर सकते क्योंकि वे दोनों अच्छे फ्रन्ड थे लव कपल थे। सुनील जोशी की भतीजी चंचल जोशी ने पुलिस की चार्जशीट पर टिप्पणी करते हुए किया है। चंचल के अनुसार सुनील की मां दोनो की शादी करना चाहती थी। साध्वी प्रज्ञा और सुनील जोशी दोनों की शादी के लिए दादी की इच्छा थी लेकिन सुनील चाचा का मन नहीं था सुनीता के अनुसार उनके संबंध बायफ्रेन्ड गर्लफ्रेन्ड की तरह थे चंचल के परिवार में सुनील जोशी की मां को यह शक था कि प्रज्ञा ने ही उसे मारा होगा वे गुस्से में कहती रहती थी कि प्रज्ञा आज कल आती नहीं है चाचू थे तब आती थी। चंचल ने बताया कि सुनील चाचा की मौत से पहले दोनों के बीच किसी पर्सनपल मेटर को लेकर लड़ाई हो गयी थी।
देवास पुलिस द्वारा कोर्ट में पेश चार्जशीट के मुताबिक सालभर पहले तक जोशी की करीबी रही प्रज्ञा उसकी अमर्यादित हरकतों से नाराज हो हिमालय आश्रम चली गई थी, लेकिन जोशी की मौत के बिना उसके दिल को सुकून नहीं था। इसलिए अगस्त 2007 में वह दिल्ली लौट गई और सुनील जोशी की हत्या की प्लानिंग शुरू कर दी।
प्लान को अंजाम तक पहुंचाने के लिए दिल्ली में वह आनंदराज कटारिया से मिली। यहीं पर उसने कटारिया के समक्ष जोशी को रास्ते से हटाने का इरादा जाहिर किया। अक्टूबर 2007 से वह अपने प्लान को अंजाम तक पहुंचाने के लिए इंदौर आ गई। यहां वह किराए के फ्लैट में रहने लगी। इस दौरान वह जोशी के रिश्तों व उसकी गतिविधियों पर नजर रखती रही। फिर उसने जोशी के करीबी रहे मेहुल उर्फ घनश्याम से संपर्क किया। मेहुल का विश्वास जीतकर उसने जोशी के साथ रहने वाले राज उर्फ हर्षद सोलंकी व मोहन उर्फ रमेश को भी जोशी की हत्या का साझेदार बनाया। 14 दिसंबर को इंदौर में प्रज्ञा के फ्लैट में एक गुप्त बैठक हुई। इस बैठक में वासुदेव परमार,आनंदराज कटारिया,मेहुल उर्फ घनश्याम,राज उर्फ हर्षद सोलंकी भी शामिल हुए। उसी दिन जोशी की मौत का प्लान बनाया गया जिसके बाद कटारिया, मेहुल, राज और वासुदेव परमार को काम बांटे गये। 29 दिसंबर 2007 को कत्ल का दिन भी आ गया। साध्वी के पास था मोबाइल नंबर 9425056114। इस फोन नंबर पर आनंदराज सुबह से ही लगातार प्रज्ञा सिंह से दिशा निर्देश लेता रहा। आनंद राज ने 4 बार प्रज्ञा सिंह को योजना के अंजाम देने की खबर दी।
इस मामले में चंचल ने कहा कि चाचा की मौत के बाद पूरा परिवार बिखर गया। दादी चाचा (सुनील) की मौत का सदमा नहीं बर्दाश्त कर सकी और उनकी मौत हो गई। उसने आगे कहा कि जब तक इस बात का खुलासा नहीं हुआ था कि चाचा की हत्या में संघ के लोगों का हाथ है, तब तक वे उनके यहां आया जाया करते थे, लेकिन जब से यह बात सामने आई है, उनका आना-जाना बन्द हो गया। इस बार 29 दिसम्बर को तो कोई तस्वीर पर हार तक चढ़ाने नहीं आया। चंचल ने कहा कि उसे यह जानकर दुख हुआ है कि उसके चाचा की हत्या उन लोगों ने की है, जो उनके साथ दिन रात रहते थे। अब उसे आरएसएस से नफरत है। चंचल ने कहा कि जिस रात चाचा की हत्या हुई, उस रात वे घर से चावल खाकर गए थे। वे मोटर साइकिल से बाहर निकले थे, मगर थोडी देर बाद वापस आ गये, क्योंकि गाड़ी पंचर हो गई थी। उसी वक्त उनके मोबाइल पर एक फोन आया तो उन्होंने जवाब दिया कि वे आ रहे हैं, मगर उसके बाद उनकी लाश आई।
चंचल ने कहा कि जिस दिन चाचा की हत्या हुई, उस दिन घर पर संघ का एक व्यक्ति रुका था। उसने कहा कि चाचा की हत्या के बाद प्रज्ञा दीदी घर आई थी। उस वक्त घर पर वह और उसकी छोटी बहन ही थी। चंचल ने कहा कि चाचा की मौत के बाद पूरा परिवार बिखर गया। दादी चाचा (सुनील) की मौत का सदमा नहीं बर्दाश्त कर सकी और उनकी मौत हो गई। चंचल ने कहा कि जिस रात चाचा की हत्या हुई, उस रात वे घर से चावल खाकर गए थे। वे मोटर साइकिल से बाहर निकले थे, मगर थोडी देर बाद वापस आ गये, क्योंकि गाड़ी पंचर हो गई थी। उसी वक्त उनके मोबाइल पर एक फोन आया तो उन्होंने जवाब दिया कि वे आ रहे हैं, मगर उसके बाद उनकी लाश आई। चंचल ने कहा कि जिस दिन चाचा की हत्या हुई, उस दिन घर पर संघ का एक व्यक्ति रुका था। उसने कहा कि चाचा की हत्या के बाद प्रज्ञा दीदी घर आई थी।
सुनील जोशी की भतीजी चंचल जोशी कहना है कि साध्वी प्रज्ञासिंह मास्टर माइंड हो सकती है ? क्योंकि वह हत्या वाली रात उनके घर आई थी और परिजनों को बिना कुछ बताये वो अटैची लेकर भी गयी थी चंचल का यह भी आरोप है कि मेहूल और राज को भगाने में भी उनका हाथ हो सकता है? अब पुुलिस ने जोशी हत्याकांड में न्यायालय में आरोप-पत्र दाखिल कर दिया है। पुलिस ने प्रज्ञा सिंह ठाकुर, वासुदेव परमार, आनंदराज कटारिया, राज उर्फ हर्षद सोलंकी पर जोशी हत्या का षड्यंत्र रचने और हत्या करने का आरोप लगाया है। इसके साथ ही रामचरण पटेल पर साक्ष्य नष्ट करने का आरोप लगाया गया है। पुलिस ने प्रज्ञा सिंह सहित पाँचों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया जबकि मोहन उर्फ मेहुल उर्फ घनश्याम घटना के बाद से ही फरार है।
चार्जशीट में यह भी दावा किया गया है कि जोशी के मर्डर के दिन प्रज्ञा इंदौर में ही थी। उसके मोबाइल के कॉल डिटेल बताते हैं कि वह इन आरोपियों से लगातार संपर्क बनाए हुए थी। पुलिस का कहना है कि जोशी को हर्षद सोलंकी ने दूसरों की मौजूदगी में एक वीरान ईंट भ_े पर गोली मारी थी। इसके बाद सभी लोग आनंद राज द्वारा मुहैया कराई गाड़ी में बैठकर चले गए।
देवास पुलिस ने आरएसएस कार्यकर्ता सुनील जोशी की हत्या के मामले में हाल ही में चार्जशीट फाइल की है, जिसमें साध्वी प्रज्ञा सिंह की साथी रही नीरा नरवर का भी पूरा बयान शामिल है। नरवर काफी समय साध्वी के साथ रहीं और उन्होंने विस्तार से पुलिस को जानकारी दी हैं। साध्वी की करीबी रहीं नरवर ने 29 दिसंबर 2007 को हुई सुनील जोशी की हत्या के बारे में कहा कि साध्वी उन्हें उस दिन अपने साथ देवास ले गईं। उन्होंने कहा कि यह वे दावे से नहीं कह सकतीं कि साध्वी हत्या में शामिल थीं या नहीं, लेकिन वे काफी परेशान थीं। वे लगातार किसी व्यक्ति से पूछ रहीं थीं कुछ मिला क्या। नरवर के अनुसार वे दोनों उसी रात को इंदौर लौट आए। साध्वी सुबह करीब 4 बजे कुछ देर के लिए किसी से मिलने बाहर गईं। उन्होंने राज मेहुल और मोहन के सिम कार्ड लेने के प्रयास भी किए। ये तीनों जोशी हत्याकांड में आरोपी हैं।
समझौता ब्लास्ट, अजमेर ब्लास्ट और नांदेड़ ब्लास्ट में साध्वी प्रज्ञा का शामिल होना और स्वामी असीमानंद के खुलासे के बाद बड़ी जांच एजेंसियों का ध्यान अब इस एंगल पर है कि कैसे वे सभी लोग जो साध्वी प्रज्ञा, असीमानंद, कर्नल पुरोहित और सुनील जोशी से जुड़े थे, या तो उनका कत्ल हो गया या वे गायब हो गए। जांच से जुड़े एक अधिकारी ने बताया कि उच्चस्तर पर सारा ध्यान अब इस बिंदू पर केंद्रित है कि साध्वी प्रज्ञा के लिए खतरनाक साबित होने वाला हर संभावित व्यक्ति, कैसे, कब और क्यों गायब हो गया। एजेंसियां यह जांच कर रही है कि सोलंकी द्वारा मामूली बात पर जोशी की हत्या करना, कलोदा की लाश मिलना, गवाह पवार का गायब होना, रामजी कलसांगरा, संदीप डांगे और मनीष कालानी की गुमशुदगी की कड़ी कहीं आपस में जुड़ी हुई तो नहीं है। बताया जा रहा है कि रामजी के बाद संदीप डांगे अहम नाम के रूप में सामने आया है, जो घटनाएं हुर्इं उनमें रामजी के बाद डांगे को ही ज्यादा जानकारी थी।
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक सुनील जोशी हत्याकांड के मामले में आरोपी साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को 30 मार्च को देवास न्यायालय में पेश किया जाएगा।

दागदारों का कुनबा है नीतिश कैबिनेट

बिहार की जनता ने ऐतिहासिक और अविश्वसनीय जनादेश दिया. चुनाव के परिणामों से बिहार की जनता में खुशी की लहर दौड़ गई. पूरे देश में बिहार इस नतीजे की वजह से चर्चा का विषय बना रहा. चारों तरफ़ नीतीश कुमार और बिहार की जनता की जय-जयकार हुई. नीतीश कुमार को बिहार की जनता ने मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री का दावेदार बना दिया. बिहार की जनता को जो करना था, उसने वह तो कर दिया, लेकिन सवाल यह है कि इस जनादेश का नीतीश कुमार ने किस तरह उपयोग किया. मुख्यमंत्री ने इस जनादेश से क्या सीख ली. बिहार को बेहतर बनाने के लिए नीतीश कुमार ने क्या नए प्रयोग किए.
हत्या, लूट, अपहरण, धोखाधड़ी, बाहुबल और धनबल का राजनीति से क्या रिश्ता है, अगर यह समझना हो तो बिहार की विधानसभा को देखिए. बिहार विधानसभा के उनसठ फीसदी विधायकों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं. बिहार की जनता की ओर से मिले ऐतिहासिक जनादेश का पहला तोहफ़ा मुख्यमंत्री ने दिया. ऐसा मंत्रिमंडल बनाया, जिसमें आधे कैबिनेट मंत्री दाग़दार हैं. ऐसे में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने क्या विकल्प है?
किसी भी मुख्यमंत्री की पहली चुनौती मंत्रिमंडल चुनने की होती है. यह चुनौती इसलिए है, क्योंकि मंत्रिमंडल की संरचना से इस बात के संकेत मिलते हैं कि सरकार आने वाले पांच सालों में क्या करने वाली है. जनता से जुड़े नेता, सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक किस्म के लोग अगर मंत्रिमंडल में स्थान पाते हैं तो यह समझा जा सकता है कि सरकार अच्छी योजनाएं बनाएगी, ईमानदारी से योजनाओं को लागू करेगी. अगर मंत्रिमंडल में ऐसे लोग हों, जो दाग़ी हैं, बाहुबली हैं या फिर जिनकी पृष्ठभूमि अपराध की है तो यह समझा जा सकता है कि सरकार जनता के लिए नहीं, बल्कि कुछ निजी स्वार्थों के लिए काम करेगी. हर मुख्यमंत्री पर ऐसे लोगों को मंत्री बनाने का दबाव रहता है, क्योंकि कोई मुख्यमंत्री स्वयं यह तो नहीं चाहता कि उसके मंत्रिमंडल में दाग़ी किस्म के लोग हों. नीतीश कुमार ईमानदार छवि वाले नेता हैं, देश की जनता उन्हें अब भावी प्रधानमंत्री के रूप में देख रही है. बिहार की जनता उनसे आस लगाए हुए है, लेकिन बिहार का वर्तमान मंत्रिमंडल नीतीश कुमार की छवि और जनादेश के ठीक विपरीत है. अगर नीतीश कुमार की कैबिनेट में लगभग आधे लोग दाग़ी हों, उन पर आपराधिक मामले चल रहे हों, तो इसे क्या कहा जाए.
नीतीश कुमार की सरकार के लिए यह ज़रूरी है कि एक फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाकर सभी विधायकों और मंत्रियों के मामलों को तीन महीने के अंदर निपटाया जाए. जिन विधायकों का जुर्म सिद्ध हो जाए, उन्हें जेल भेज दिया जाए, उनकी सदस्यता निरस्त कर दी जाए और जो बरी हो जाएं, उनका राजनीति में स्वागत किया जाए. यही नीतीश कुमार की नैतिक जि़म्मेदारी है.
बिहार में कुल 30 कैबिनेट मंत्री हैं. इनमें से 14 मंत्री ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मुकदमे हैं. मज़े की बात यह है कि लोक स्वास्थ्य एवं अभियंत्रण मंत्री चंद्र मोहन राय और सहकारिता मंत्री रामधार सिंह, ये दोनों ऐसे मंत्री हैं, जिनके पास पैनकार्ड भी नहीं है. अब पता नहीं, ये कैसे अपना टैक्स भरते हैं या फिर टैक्स भरते ही नहीं हैं. ये तथ्य हमारे नहीं हैं, ये खुद इन मंत्रियों द्वारा जमा किए गए शपथपत्र में हैं, जिन्हें चुनाव आयोग में जमा कराया गया है. जब इन मंत्रियों ने खुद चुनाव आयोग में यह उद्घोषणा की है तो इस पर शक़ करने की कोई वजह नहीं है. जिन 14 मंत्रियों पर आपराधिक मामले दर्ज हैं, उनमें किसी पर हत्या का मामला चल रहा है तो किसी पर चोरी व लूट करने का. कई मंत्रियों पर धोखाधड़ी और दंगा भड़काने का भी मामला है. गौतम सिंह विज्ञान एवं तकनीक मंत्री हैं, उनके खिलाफ़ दो मामले हैं. उन पर हत्या का प्रयास एवं चोरी के अलावा 11 आरोप हैं. फुलवारी शरीफ से जदयू के विधायक श्याम रजक खाद्य एवं जन आपूर्ति मंत्री हैं. उनके खिलाफ़ भी दो मामले हैं. उन पर भी हत्या का प्रयास और दंगा भड़काने के अलावा चार आरोप हैं. सारण से भारतीय जनता पार्टी के विधायक जनार्दन सिंह सिग्रीवाल राज्य के श्रम संसाधन मंत्री हैं. उन पर पांच मामले लंबित हैं. बिहार के शहरी विकास एवं नियोजन मंत्री प्रेम कुमार पर भी एक आपराधिक मामला दर्ज है. प्रेम कुमार गया से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते हैं.
नीतीश कुमार से लोगों की आशाएं इसलिए बंधी, क्योंकि उनके पहले जहां सरकार का अस्तित्व नहीं था, वहां उन्होंने सरकार को स्थापित किया. दिनदहाड़े अपराध करने वाले ब़ेखौफ़ और बेलगाम अपराधियों का खात्मा किया. अपराधियों के खिलाफ़ जब अदालत में हर दिन की सुनवाई और सज़ा होने लगी तो लोगों का विश्वास जागा.
गन्ना और सिंचाई मंत्री अवधेश प्रसाद कुशवाहा पर तो चोरी का आरोप है. वह पिपरा के विधायक हैं. इसी तरह परिवहन मंत्री बृषिण पटेल, पंचायतीराज मंत्री हरि प्रसाद साह, उद्योग एवं आपदा प्रबंधन मंत्री रेणु कुमारी पर एक-एक आरोप है, जो चुनाव से संबंधित है. इसी तरह कला एवं संस्कृति मंत्री प्रो. सुखदा पांडे और सूचना तकनीक मंत्री शाहिद अली खान पर भी अदालत में एक-एक मामला दर्ज है. सीतामढ़ी के विधायक सुनील कुमार उर्फ़ पिंटू राज्य के पर्यटन मंत्री हैं. उनके खिलाफ़ 3 मामले दर्ज हैं. भारतीय जनता पार्टी के विधायक नंद किशोर यादव सड़क निर्माण मंत्री हैं. उनके खिलाफ़ 4 आपराधिक मामले हैं. भागलपुर के विधायक अश्विनी कुमार चौबे राज्य के स्वास्थ्य मंत्री हैं. उनके खिलाफ़ भी 3 आपराधिक मामले हैं. सहकारिता मंत्री रामाधार सिंह के खिलाफ़ 5 आपराधिक मामले हैं. यह सूची यहीं खत्म नहीं होती है. ऊपर दी गई जानकारियां 30 में से 25 कैबिनेट मंत्रियों के हलफ़नामे पर आधारित हैं. कई और मंत्रियों पर आपराधिक मामले होंगे. समझने वाली बात यह है कि ये आरोप हैं. बिहार के उक्त कैबिनेट मंत्री दोषी हैं या नहीं, यह फैसला अदालत करेगी. जनता और अदालत के फैसले में एक बड़ा फकऱ् होता है. अदालत सबूत पर फैसला करती है, जनता चेहरा देखती है. बिहार की जनता ने लालू यादव का चेहरा देखा, नीतीश कुमार का चेहरा देखा, और फैसला कर दिया. अगर बिहार के लोग सबूत देखते तो 80 फीसदी सड़कें दिखाई देतीं, जो नहीं बनी हैं. रात के अंधेरे में वे बिजली ढूंढते, जो सर्फ़ि दिन भर में चंद घंटे रहती है. सबूत ढूंढते तो पीने के लिए साफ़ पानी का ठिकाना पूछते. बिहार की जनता ने नीतीश कुमार का चेहरा देखा, एक आशा देखी. अब नीतीश कुमार के लिए बिहार की जनता की आशाओं और अपेक्षाओं को पूरा करने का व़क्त है.
बिहार की जनता ने भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड के समर्थन में वोट तो दिया, लेकिन दोनों ही पार्टियों ने दागिय़ों, बाहुबलियों और अपराधियों को टिकट देकर जनता के अपार समर्थन का मज़ाक उड़ा दिया. जनता दल यूनाइटेड के 114 विधायक हैं. उनमें से 58 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं और 43 विधायक ऐसे हैं, जिन पर गंभीर आरोप हैं. भारतीय जनता पार्टी के 90 विधायक हैं, जिनमें से 58 विधायकों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं और उनमें से 29 ऐसे हैं, जिन पर गंभीर आरोप हैं. लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल में भी आपराधिक छवि वाले विधायक हैं. इस दल का आंकड़ा देने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि बिहार की राजनीति में अपराधियों को स्थापित करने में राजद सरकार की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. बिहार की जनता ने 15 साल के गुंडाराज से निपटने के लिए ही नीतीश कुमार को चुना था. नीतीश कुमार की पिछली सरकार ने अपराध पर क़ाबू भी पाया. जो खूंखार अपराधी थे, उन्हें फास्ट ट्रैक कोर्ट के ज़रिए सज़ा दिलाई गई. सैप दस्ता बनाकर अपराधियों की धरपकड़ की, उनका एनकाउंटर भी किया. व्यापारियों और दुकानदारों को रंगदारों से छुटकारा मिल गया. बिहार की जनता को दिनदहाड़े लूट-मार से निजात मिल गई. जनता ने नीतीश कुमार को उसका ईनाम भी दे दिया.
अब जब यह सामने आता है कि विधानसभा में 241 में से 141 विधायकों के खिलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हैं तो ऐसे जनाधार का क्या मतलब रह जाता है. दोनों ही पार्टियों ने आपराधिक छवि वाले नेताओं को टिकट देने में कोताही नहीं की. यही वजह है कि 2005 में कऱीब 50 फीसदी विधायकों पर आपराधिक मुकदमे चल रहे थे तो इस बार ऐसे विधायकों की संख्या में 9 फीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है. कुछ लोग यह कह सकते हैं कि इन आपराधिक छवि वाले नेताओं को बिहार की जनता ने ही चुना है. यह बात तर्कसंगत भी है. लेकिन क्या राजनीतिक दलों ने अपने प्रचार के दौरान बिहार की जनता को यह बताया था कि उनके उम्मीदवारों पर लूट, हत्या, अपहरण एवं चोरी के आरोप लगे हैं. जनता को राजनीतिक परिपक्वता से लैस करना राजनीतिक दलों का काम है. बिहार चुनाव में हिस्सा लेने वाले सभी दलों ने अपराधियों को टिकट देकर जनता के सामने कोई विकल्प नहीं छोड़ा. नीतीश कुमार से यह शिकायत है कि मुख्यमंत्री रहते हुए वह जनता की भावनाओं और आकांक्षाओं को समझ नहीं पाए. बिहार की जनता नीतीश कुमार का चेहरा देखकर वोट दे रही थी, पार्टी या उम्मीदवारों को नहीं. भारतीय जनता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड ने अपराधियों को टिकट देकर राजनीति के अपराधीकरण को बढ़ावा दिया है. अपराध पूरी तरह से खत्म करने की पहली शर्त ही यही है कि अपराध और अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण न मिले. अगर आपराधिक चरित्र वाले लोगों का विधानसभा पर ही क़ब्ज़ा हो जाए तो अपराध खत्म कैसे होगा. इसी सवाल का जवाब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को देना है.
नीतीश कुमार से लोगों की आशाएं इसलिए बंधी, क्योंकि उनके पहले जहां सरकार का अस्तित्व नहीं था, वहां उन्होंने सरकार को स्थापित किया. दिनदहाड़े अपराध करने वाले ब़ेखौफ़ और बेलगाम अपराधियों का खात्मा किया. अपराधियों के खिलाफ़ जब अदालत में हर दिन की सुनवाई और सज़ा होने लगी तो लोगों का विश्वास जागा. लोगों को लगा कि राज्य में क़ानून का राज है. इस बार चुनाव जीतने के बाद नीतीश कुमार ने भ्रष्टाचार के खिलाफ़ अभियान छेड़ा है. नए-नए प्रयोग हो रहे हैं. विधायक निधि को खत्म करके भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने की अच्छी कोशिश हुई है. मंत्रियों और अधिकारियों द्वारा अपनी संपत्ति की जानकारी सार्वजनिक करने से भी बिहार को फायदा होगा. मंत्रियों और अधिकारियों को फरवरी तक अपनी संपत्ति सार्वजनिक करनी है. मंत्रियों की जानकारी अब इंटरनेट पर मौजूद है. नीतीश कुमार की एक नई पहल यह है कि अधिकारियों के खिलाफ़ मामला आने पर अब उनकी संपत्ति ज़ब्त कर ली जाएगी. यह भ्रष्टाचार से निपटने का लोकप्रिय और कारगर तरीक़ा है. अब अधिकारी ग़लत काम करने से बचेंगे. समझने वाली बात यह है कि भ्रष्टाचार, अपराध, कालाबाज़ारी और अराजकता, सब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं. इनमें से कोई एक भी सरकारी तंत्र में अपनी पैठ बनाता है तो दूसरी बीमारियां खुद-बख़ुद आ जाती हैं. किसी एक को निशाने पर लेने से काम नहीं बनने वाला है. अगर पूरे सरकारी तंत्र को सुधारना है तो भ्रष्टाचार, अपराध, कालाबाज़ारी, भूमा़फियाओं और दलालों से एक साथ लडऩा होगा.
बिहार में पहले अपराधियों का बोलबाला हुआ तो एक के बाद एक, दूसरी बीमारियों ने सरकार को अपने जाल में फंसा लिया. नतीजा, सरकारी तंत्र ही ध्वस्त हो गया. आज वही खतरा फिर से दिखने लगा है. बिहार विधानसभा और बिहार की कैबिनेट में आपराधिक छवि वाले लोग बहुमत में आ गए हैं. नीतीश कुमार अगर बिहार का चौतरफा विकास चाहते हैं तो उन्हें ऐसे लोगों को बिहार की राजनीति से बाहर करना होगा. समस्या यह है कि जब भी राजनीतिक दलों से अपराधियों को दूर रखने के लिए कहा जाता है तो उस पर तर्क-वितर्क शुरू हो जाते हैं. भारत में किसी को अपराधी तब तक नहीं माना जाता, जब तक उसे अदालत में सज़ा न मिल जाए. यह क़ानून का नजरिया है. लेकिन लोकतंत्र में नैतिकता के मापदंड अलग होते हैं. भारत की राजनीति में आज नैतिकता की कोई जगह नहीं बची है. इसके बावजूद कांग्रेस पार्टी के कई नेताओं को मंत्री की कुर्सी खाली करनी पड़ी है. ए राजा भी आरोपी हैं, दोषी नहीं हैं, लेकिन उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा.
पिछली सरकार का काम तो अब इतिहास बन चुका है. बिहार की जनता को नीतीश कुमार के अगले कदम का इंतजार है. अब सवाल यह है कि अगला कदम क्या हो सकता है. आपराधिक छवि वाले नेता जनतादल यूनाइटेड, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया, राष्ट्रीय जनता दल और लोक जनशक्ति पार्टी में भी हैं. नीतीश कुमार की सरकार के लिए यह ज़रूरी है कि एक फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाकर सभी विधायकों और मंत्रियों के मामलों को तीन महीने के अंदर निपटाया जाए. जिन विधायकों का जुर्म सिद्ध हो जाए, उन्हें जेल भेज दिया जाए, उनकी सदस्यता निरस्त कर दी जाए और जो बरी हो जाएं, उनका राजनीति में स्वागत किया जाए. यही नीतीश कुमार की नैतिक जि़म्मेदारी है.
बिहार न तो तमिलनाडु है, न हरियाणा-पंजाब है और न ही कोई ऐसा राज्य, जहां जनता चुनाव में एक के बाद दूसरी पार्टी को सरकार बनाने का मौका देती है. बिहार की जनता का एक चरित्र है. वह नेताओं को सिर पर चढ़ाकर रखती है या फिर ठोकर मार देती है. बिहार की जनता ने नीतीश कुमार को सिर पर बैठाया है. अब नीतीश कुमार की जि़म्मेदारी है कि वह बिहार की जनता की आशाओं और भावनाओं के अनुरूप काम करें और बिहार को अपराध व अपराधियों और भ्रष्टाचार व भ्रष्टाचारियों से मुक्त कराएं. नीतीश जी, बिहार की राजनीति में यू टर्न नहीं होता है.

सत्ता-संगठन के लिए पहेली बने मेनन

मध्य प्रदेश भाजपा के नए संगठन महामंत्री की कुर्सी संभालने वाले अरविंद मेनन के सामने चुनौती बाहर से ही नहीं, बल्कि पार्टी के अंदर से भी है। चुनौती यदि कांग्रेस को लगातार तीसरी बार सत्ता से दूर रखने के लिए संगठन को मजबूत कर उसे संघ की विचारधारा के तहत आगे बढ़ाने की है तो भाजपा में अपनी स्वीकायर्ता बढ़ाने के साथ-साथ सत्ता और संगठन में बेहतर समन्वय बनाने की भी है।
मेनन के पास संगठन का दीर्घ अनुभव है तो पार्टी में उनके शुभचिंतक की भी ऐसी लंबी फेहरिस्त है, जिनकी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं आपस में टकराती रहीं और विशेष मौकों पर एक-दूसरे के पूरक साबित होते रहे। अरविंद मेनन के संगठन महामंत्री बनने के बाद यह तय हो गया है कि विभाग और जिला स्तर पर संघ की पृष्ठभूमि वाले संगठन मंत्रियों की भूमिका भी आने वाले समय में बदलेगी। मेनन नीचे से सफलता की पायदान चढ़ते हुए उस मुकाम पर पहुंचे हैं, जहां पहुंचने के सपने हर कोई देखता है। उन्होंने मालवा, महाकौशल के साथ प्रदेश के पूरे जिलों की भाजपा की राजनीति को संघ के आईने से देखा है। फेरबदल से पहले कई संगठन मंत्री उनके भरोसेमंद समर्थक रहे तो इस महत्वपूर्ण दायित्व को निभा रहे कई संगठन मंत्रियों की निष्ठा भाजपा से ज्यादा माखन और माथुर के प्रति भी रही है। नई भूमिका में मेनन को इनकी योग्यता और अनुभव कितना भाएगा, कहना जल्दबाजी होगी। बनते-बिगड़ते नए समीकरणों के बीच कुछ संगठन मंत्री उनके निशाने पर जरूर आ गए होंगे।
अरविंद मेनन के सामने बड़ी चुनौती मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा दोनों को संतुष्ट करना ही नहीं, उनके बीच समन्वय बनाना भी है। जिसके बाद ही कांग्रेस को मात देने और भाजपा के तीसरी बार सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त होगा। ऐसा नहीं है कि सत्ता और संगठन में समन्वय नहीं है, लेकिन बड़ा सच यह भी है कि दोनों एक-दूसरे की कार्यप्रणाली पर पर्दे के पीछे ही सही उंगली उठाते रहे हैं। भाजपा में बदल रहे समीकरणों के बीच मेनन की नई भूमिका महत्वपूर्ण हो गई है। उनके सामने चुनौती संघ की उस लाइन को आगे बढ़ाने की भी है, जो समिधा से निकलती है। संघ के क्षेत्रीय और प्रांत प्रचारक की भूमिका भी उसकी होली वार्षिक बैठक के बाद नए सिरे से तय की जा सकती है। संघ के इन नेताओं ने मेनन को प्रचारक घोषित कराने में छह माह पहले ही निर्णायक भूमिका निभाई थी, जिसके बाद उनके संगठन महामंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ। अरविंद मेनन के शुभचिंतकों की कमी नहीं है। वे शिवराज सिंह चौहान के सबसे विश्वसनीय होकर उभरे हों, लेकिन सरकार में नंबर दो पर अपना दबदबा साबित करते रहे उद्योग मंत्री कैलाश विजयवर्गीय से अरविंद मेनन की निकटता जगजाहिर है। ऐसे में मेनन के लिए बड़ी चुनौती दोनों को विश्वास में लेने के साथ उन्हें संतुष्ट करने की भी होगी।
संगठन महामंत्री रहते कप्तान सिंह के साथ मेनन ने लंबे समय तक काम किया और उन्हें वे बड़े सम्मान की दृष्टि से देखते रहे। कप्तान सिंह का खुला समर्थन कैलाश विजयवर्गीय को हमेशा रहा है, जबकि परिस्थितियों ने उन्हें प्रदेश की राजनीति से दूर होने को मजबूर कर दिया था, बदली भूमिका में कप्तान और कैलाश की जुगलबंदी प्रदेश अध्यक्ष और मुख्यमंत्री को कितना भाएगी, कहना कठिन है। मेनन ने सह संगठन महामंत्री रहते तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नरेन्द्र सिंह तोमर के साथ भी काम किया है, जिनकी गिनती शिवराज के करीबी लोगों में होती है। ऐसे में प्रभात और शिवराज के बीच समन्वय बनाने में जुटे मेनन के लिए बड़ी चुनौती नरेन्द्र के अस्तित्व को भी सम्मान देने की होगी। राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल ने अरविन्द मेनन के लिए प्रदेश की राजनीति में रोड़ा साबित होने वाले उनके वरिष्ठ माखन सिंह और भगवतशरण माथुर को राज्य से दूर करने में बड़ी भूमिका निभाई है, जबकि मेनन की गिनती पर्दे के पीछे सक्रिय पूर्व संगठन महामंत्री संजय जोशी के करीबी में होती है। जोशी और रामलाल को संतुष्ट करना भी उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा।
प्रदेश भाजपा कार्यसमिति में राज्य के साथ केंद्र सरकार के सौतेलेपन को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा के रवैये में जो विरोधाभाष उभरकर सामने आया उसने एक बार फिर सत्ता और संगठन के मुखियाओं के बीच मतभेद को हवा दे दी। शिवराज सिंह ने उज्जैन में इस मुद्दे पर सीधे पीएम को घेरने में कोताही बरती, लेकिन प्रभात झा ने पीएम के नाम खुली चि_ी जारी कर यह जता दिया कि सरकार की भले ही सीमाएं हों, लेकिन केंद्र को सबक सिखाने के लिए पूरी पार्टी इकाई दिल्ली जाकर हल्ला बोल सकती है।
उज्जैन कार्यसमिति में अनंत कुमार के सुर बदलने और अरुण जेटली के सत्ता और संगठन में जोश भरने के बावजूद केंद्र से मध्यप्रदेश की अपेक्षाओं को लेकर शिवराज-प्रभात की राह तथा रणनीति जुदा नजर आई। यूं तो उपवास के उपहास एपीसोड के समय शिवराज सिंह और प्रभात झा के बीच समन्वय-सामंजस्य को लेकर सवाल उठे थे, लेकिन उस वक्त शीर्ष नेताओं के हस्तक्षेप के बाद बात आई-गई हो गई थी। दोनों ने पार्टी को सर्वोपरि मानते हुए कुक्षी और सोनकच्छ की जीत के जश्न की आड़ में 'हम एक हैंÓ का नारा देकर मतभेदों को नकार दिया था। इस बार उज्जैन कार्यसमिति में बाकी सभी मुद्दों पर केन्द्र के प्रति सरकार और संगठन के रुख में मतभिन्नता नजर आई।
विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण पर चर्चा के दौरान शिवराज सिंह चौहान ने मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के कार्यक्षेत्र और उनकी भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा था कि दोनों किसी दल तक सीमित नहीं रहते हैं। शिवराज सिंह को उपवास से पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से भले ही शिकायतें रहीं और विभिन्न मंचों पर वे भेदभाव और सौतेलेपन के आरोप लगाते रहे, लेकिन विधानसभा में उन्होंने जो कुछ कहा उसका यही अर्थ निकाला गया कि पिछले प्रधानमंत्रियों की तरह मनमोहन सिंह भी दृष्टि दलीय नहीं है। उज्जैन कार्यसमिति के दौरान पीएम पर सीधा निशाना न साधकर उन्होंने इस मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। कारण साफ है कि ऐनटाइम पर शिवराज सिंह के उपवास का इरादा टालने के पीछे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की बड़ी भूमिका रही, जिन्होंने राज्यपाल के हस्तक्षेप के बाद शिवराज सिंह को छोटे भाई का सम्मान दिया था। लेकिन कार्यसमिति में ही प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा के तेवर जिस तरह एक बार फिर तीखे नजर आए और उन्होंने प्रदेश सरकार के प्रति केंद्र को घेरने की चेतावनी दी उसने भाजपा में एक नई बहस जरूर छेड़ दी है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष ने प्रधानमंत्री को लिखी चि_ी में उन सारी योजनाओं का बिन्दुवार ब्योरा दिया है, जिनको लेकर शिवराज सिंह स्वयं प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी मंत्रियों से मुलाकात कर कई बार रिमाइंडर भी दे चुके हैं। प्रधानमंत्री और उनकी केंद्र सरकार को विभिन्न मंचों से आरोपों के कटघरे में खड़ा करने वाले शिवराज सिंह चौहान ने जिस तरह नरम रुख अपनाया और उनकी जगह प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने सख्त चेतावनी दी, वह आपसी मतभेद की बजाय भाजपा की सोची-समझी राजनीति का हिस्सा भी हो सकती है। बड़ा सवाल यह है कि क्या संवैधानिक दायित्व से बंधे होने के कारण शिवराज सिंह ने अपने कदम पीछे खींचकर संगठन को आगे आने के लिए प्रेरित किया है या फिर पार्टी ने सरकार पर चाबुक चलाते हुए स्वयं फ्रंट फुट पर आकर केंद्र को घेरने की रणनीति बनाई है? सवाल यह भी है कि क्या उपवास के तौर-तरीकों को लेकर संगठन की कसक बरकरार है और उसने पार्टी को सर्वोपरि बताते हुए सरकार को बाध्य किया है कि वह अपनी सोच भले ही बदल दे, लेकिन संगठन इस लड़ाई को जनता के हक के लिए मुकाम तक ले जाएगा। लाख टके का सवाल यह भी है कि क्या बतौर प्रदेश अध्यक्ष प्रभात झा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान और उनके सलाहकारों को यह संदेश दे दिया है कि उपवास के दौरान जिस तरह संगठन की उपेक्षा हुई उसे पार्टी हित में भले ही उस वक्त नजरअंदाज कर दिया गया, लेकिन संगठन बढ़ते हुए कदमों को पीछे खींचने को तैयार नहीं है? यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र के खिलाफ दिल्ली में हल्ला बोल की रणनीति भाजपा की कितनी और कब तक कारगर होती है तथा इससे शिवराज-प्रभात में से राजनीतिक कद किसका बढ़ता है?

Monday, March 21, 2011

भ्रष्टाचार को आदर सत्कार

विनोद उपाध्याय
एक तरफ देश में भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने के लिए यूपीए सरकार हर दिन बयानबाजी करती नजर आती है तो दूसरी तरफ संवैधानिक पदों पर ऐसे लोगों को नियुक्त किया जाता है जो खुद दागदार हैं और जिनकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में साफ कहा है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के लिए बनी उच्चस्तरीय समिति और किसी भी सरकारी संस्था ने सीवीसी जैसी संस्था की ईमानदारी और निष्ठा के मुद्दे को प्राथमिकता नहीं दी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने केंद्र सरकार को सबक देते हुए उसे सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है, क्योंकि सरकार द्वारा केंद्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, रॉ और गुप्तचर ब्यूरो में जो नियुक्तियां कि गई हैं उनमें भी भ्रष्टाचार की बू आ रही है।

यूपीए सरकार के अब तक के कार्यकाल में अहम संवैधानिक पदों, आयोगों और अन्य मलाईदार पदों पर होने हुए मनोनयन और नियुक्तियों की फेहरिस्त देखें तो हर जगह उसके मुख्य घटक-कांग्रेस की सिफारिशों का ही जलवा दिखता है। मई, 2004 में कांग्रेस की अगुवाई में चौदह दलों की गठबंधन सरकार बनी। लेकिन सत्ता की असल मलाई कांग्रेस ने ही खाई। सरकारी नियुक्तियों और मनोनयनों में उसका एकछत्र राज रहा है। किसी घटक की कुछ खास नहीं चली।
शुरूआत करते हैं केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस से। 2003 में हुई सीवीसी एक्ट के मुताबिक इस पद पर वही नियुक्त हो सकता है, जिसका पूरा काल संदेह से परे हो क्योंकि ये केन्द्रीय भ्रष्टाचार निरोधक निकाय है और सरकार के उच्चअधिकारियों पर निगाह रखने के अलावा उनके खिलाफ जांच का आदेश देता है. ये सीबीआई की सुपरवायजरी अथॉरिटी भी है। दरअसल 1964 में सरकारी महकमों में करप्शन रोकने के लिए संथानम कमेटी के सुझाव पर सीवीसी का गठन किया गया था, जिसके मुताबिक एक स्वायत्त निकाय के रूप में स्थापित करना और सरकारी मुलाजिमों और सस्थाओं में बढ़ती हेराफेरी को रोकना और जांच एजेंसियों को जांच करने का आदेश देना है. यहीं नहीं देश के तमाम संस्थानों का ईमानदारी की राह पर चलने के लिए सचेत करना भी इसका काम है।

आखिर पीजे थॉमस में क्या खास था कि सरकार ने उन पर लगे आरोपों और नेता विपक्ष की आपत्ति के बावजूद उन्हें सीवीसी नियुक्त कर दिया? केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) का काम होता है भ्रष्टाचार के खिलाफ निगरानी करने का। इस आयोग के आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता की सदस्यता वाली समिति की सलाह पर राष्ट्रपति करते हैं। देश भर में भ्रष्टाचार की किसी भी शिकायत की जांच कराने वाली एजेंसी सीवीसी के मुखिया पीजे थॉमस की नियुक्ति की प्रक्रिया अपने आप में कई राज खोलती है। थॉमस केरल के पॉमोलीन आयात घोटाले में फंसे थे। केंद्र सरकार में सचिव बनने के लिए जरूरी केंद्र में दो साल के डेपुटेशन का अनुभव भी उनके पास नहीं था। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने उन्हें सचिव बनाया। उनकी नियुक्ति पर ज्यादा लोगों का ध्यान न जाए इसलिए उन्हें कम महत्वपूर्ण माने जाने वाले संसदीय कार्य मंत्रालय में सचिव बनाया गया। फिर एक रुटीन ट्रांस्फर की तरह उन्हें हाई प्रोफाइल टेलीकॉम विभाग में सचिव बना दिया। उनकी ओर लोगों का ध्यान तब गया जब प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमेटी ने उन्हें सीवीसी नियुक्त किया। इस कमेटी में गृह मंत्री पी चिदंबरम ने तो प्रधानमंत्री का समर्थन किया लेकिन लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज ने कड़ी आपत्ति जताई। इस नियुक्ति को लेकर देश भर में बवाल मचा और अन्त में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अवैध करार देकर सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

मौजूदा सीबीआई प्रमुख अमर प्रताप सिंह की गिनती एक सख्त अफसर के रूप में की जाती है. इसलिए इनकी नियुक्ति पर तो कोई विवाद नहीं हुआ। लेकिन सीबीआई से हाल ही में रिटायर हुए निदेशक अश्विनी कुमार की नियुक्ति पर भी विवाद हुआ था। सीबीआई निदेशक के पद के लिए सीवीसी की अध्यक्षता वाली कमेटी द्वारा तैयार तीन शीर्ष पुलिस अफसरों के पैनल में प्रकाश सिंह का नाम दूसरे स्थान पर था लेकिन प्राथमिकता अश्विनी कुमार को दी गई। उनके चयन पर इसलिए भी विवाद उठा क्योंकि वे कभी बहुत काबिल अफसर नहीं माने गए। हां, एक केंद्रीय मंत्री से उनकी निकटता के चर्चे जरूर सुर्खियों में रहे। सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह कहते हैं कि खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों की यह हालत है कि अगर सरकार उन्हें बैठने को कहती है तो वे लेट जाते हैं। जहां तक सीबीआई प्रमुख अमर प्रताप सिंह की नियुक्ति का मामला है उसके पीछे माना जा रहा है कि थॉमस की नियुक्ति से उठे विवाद के तुरंत बाद सरकार कोई और विवाद नहीं चाहती थी। इसीलिए पुलिस पदक व आईपीएस पदक से सम्मानित वरिष्ठतम अफसर को नियुक्त किया।

प्रवर्तन निदेशालय में फिलहाल केंद्र शासित कॉडर के अरुण माथुर एनफोर्समेंट निदेशक (ईडी) हैं। आर्थिक अपराधों की जांच के मुखिया के पद पर आने से पहले वे दिल्ली जल बोर्ड के अध्यक्ष थे। उस दौरान दिल्ली के ग्रेटर कैलाश क्षेत्र में उनके द्वारा कराए कामों को लेकर वे विवाद में थे। इस मामले में उन्हें अदालत ने समन भी किया था लेकिन तब तक वे ईडी बन चुके थे। हालांकि बाद में कोर्ट ने मामला खारिज कर दिया था। ईडी को हवाला, मनीलॉंड्रिंग और फेमा के मामलों की जांच करनी होती है। माथुर को दिल्ली के शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व का खास माना जाता है। इस पद पर रहकर उन्होंने कॉमनवेल्थ खेलों, आईपीएल, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, मधु कोड़ा के खिलाफ कार्रवाई, सत्यम इंफोटेक के एमडी एस राजू के खिलाफ मामलों की जांच के अलावा दिल्ली की रियल एस्टेट कंपनियों के खिलाफ छापे की कार्रवाई जैसे मामलों की निगरानी की हैं। उनकी नियुक्ति की सिफारिश करने वाली समिति के अध्यक्ष रहे पूर्व सीवीसी प्रत्यूष सिन्हा कहते हैं कि माथुर की नियुक्ति पूरी तरह नियमों के अनुसार हुई। आईएएस के चार वरिष्ठतम बैच के अफसरों में छांटकर समिति ने जो तीन लोगों की सूची तैयार की थी उसमें वे सबसे ऊपर थे। उनका कहना है कि जल बोर्ड के कार्यकाल के दौरान उठा कोई विवाद उनके सामने नहीं आया था।

जो काम देश के अंदर आईबी करती है वही काम विदेशों में रॉ करती है यानी काउंटर इंटेलिजेंस या दूसरे देशों के प्रमुख लोगों की गतिविधियों की जानकारी जमा करना। लेकिन दूसरी खुफिया एजेंसियों की तरह रॉ के निदेशक की नियुक्ति भी राजनीतिक फैसला हो गया है। ताजा मामला मौजूदा निदेशक संजीव त्रिपाठी का है। उन्हें रॉ की सेवा से 31 दिसंबर 2010 को रिटायर होना था। तब वे एडिशनल डायरेक्टर थे। और तब डायरेक्टर के पद पर आसीन केसी वर्मा का रिटायरमेंट 31 जनवरी को होना था। लेकिन अचानक वर्मा ने 30 दिसंबर 2010 को पद से इस्तीफा दे दिया। त्रिपाठी रिटायर होने से बच गए। सरकार ने उन्हें दो साल के लिए रॉ का निदेशक बना दिया। या यूं कहें कि रिटायरमेंट की जगह उन्हें दो साल का न सिर्फ एक्सटेंशन दिया बल्कि प्रमोशन भी। हां, इस त्याग का लाभ वर्मा को भी मिला। उन्हें भी दो साल के लिए साइबर (इंटरनेट) अपराधों के लिए बनी खुफिया एजेंसी नेशनल टेक्निकल रिसर्च आर्गनाइजेशन (एनटीआरओ) का प्रमुख बना दिया गया। यह भी मात्र संयोग नहीं है कि त्रिपाठी के पिता गौरी शंकर त्रिपाठी भी रॉ में काम कर चुके रहे हैं।

गुप्तचर ब्यूरो (आईबी)को प्रधानमंत्री का आंख और कान माना जाता है। पूरे देश में राजनीति और आतंकवाद की खुफिया जानकारी जुटाने का काम इसके पास है। इसके निदेशक (डीआईबी) रोज सुबह प्रधानमंत्री से मुलाकात कर उन्हें देश में चल रही गतिविधियों की जानकारी देते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री अपने सबसे विश्वस्त आदमी को ही इस पद पर बिठाते हैं। अधिकतर राजनेताओं के फोन टेप करने का काम भी यही एजेंसी करती है। राष्टीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) एम के नारायणन खुद डीआईबी रह चुके हैं। उनकी नियुक्ति के बाद से डीआईबी द्वारा प्रधानमंत्री को रोज सुबह दी जाने वाली ब्रीफिंग की प्रक्रिया बंद कर दी गई है। अब डीआईबी केवल नारायणन को ही ब्रीफ करते हैं। फिलहाल आईपीएस अधिकारी नेहचल संधू डीआईबी हैं।

क्या संवैधानिक पदों की गरिमा बरकरार रखना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? लगातार हो रहे घोटालों और भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों को देखते हुए क्या यह आवश्यक नहीं कि सरकार अपनी जिम्मेदारी को अधिक जिम्मेदारी से निभाती और संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों के मामले में अधिक सतर्कता बरतती। बजाय इन सबके सरकार के मंत्री संवैधानिक संस्थाओं पर उंगलियां उठाकर उसकी अहमियत को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। दूरसंचार घोटाले पर केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल सरकारी खर्च के हिसाब-किताब पर नजर रखने वाली शीर्ष संस्था नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षा यानी कैग के कामकाज के तरीके पर सवाल उठाते हुए यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में सरकार को उतना नुकसान नहीं हुआ है जितना कैग की रिपोर्ट में बताया गया है। कुछ ऐसा ही बयान कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी दिया कि कैग उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। मोइली का कहना था कि अगर कैग ने समय रहते हस्तक्षेप किया होता तो कई घोटाले नहीं होते। वर्ष 2009 में भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने राष्ट्रपति से चुनाव आयुक्त नवीन चावला को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी जिसे केंद्र सरकार ने खारिज कर दिया था। इस मामले में भाजपा ने चावला के कांग्रेस पार्टी से नजदीकी और पुराने संबंधों का आरोप लगाते हुए उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाए थे।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सरकार की किरकिरी हुई है और विपक्ष के हाथ एक बड़ा मुद्दा लग गया है, लेकिन यहां सवाल संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा और उसकी गरिमा को बरकरार रखने का है। अदालत का कहना है कि विपक्ष के पास इस तरह की नियुक्ति को लेकर कोई वीटो तो नहीं है, लेकिन यदि विरोध होता है तो सरकार को इसको ध्यान में रखना चाहिए। इस मामले में एक याचिकाकर्ता और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर भी सवाल खड़े किए हैं, लेकिन देश के कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का अभी भी कह रहे हैं इस पूरे मामले में प्रधानमंत्री ने कुछ भी गलत नहीं किया।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में केवल थॉमस की नियुक्ति को रद ही नहीं किया, बल्कि सरकार को आने वाले समय में ऐसे अहम पदों पर नियुक्ति को केवल नौकरशाहों तक सीमित नहीं रखे जाने की बात भी कही है। कोर्ट का कहना है कि जब मुख्य सतर्कता आयुक्त की दोबारा नियुक्ति हो तो प्रक्रिया को केवल नौकरशाहों तक सीमित नहीं रखा जाए, बल्कि समाज से अन्य ईमानदार और निष्ठावान व्यक्तियों के नाम पर भी ध्यान दिया जाए।

Thursday, March 3, 2011

देह व्यापार के धंधे में धंसा देश

पिछले एक सप्ताह में हमें दो खबरे पढऩे को मिली। एक तो यह की जेएनयू में किस तरह सेक्स रैकेट का जाल फैल रहा है और दूसरी यह की उत्तर मध्य मुंबई की सांसद प्रिया दत्त ने मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर यह कहकर एक नई बहस छेड़ दी है कि देह व्यापार को कानूनी मान्यता दे देना चाहिए। मुंबई के रेड लाइट एरिया की महिलाओं पर रिसर्च कर चुकीं प्रिया ने संवाददाताओं से चर्चा में कहा,ज्उन पर काम के दौरान मैंने महसूस किया कि हर महिला की अलग ही कहानी है। यह बहुत पुराना पेशा है,जिसे चाहकर भी नकारा नहीं जा सकता।ज् उन्होंने कहा कि च्बंद कमरों की अपनी दुनिया में हम इन महिलाओं को नजरअंदाज करते हैं। साथ ही उन्हें कई तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है। उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए कानूनी मान्यता देना जरूरी है।ज्
अब सवाल यह उठता है कि किसको कानूनी मान्यता दी जाए। क्योंकि देश भर के रेड लाइट एरिया में जो देहव्यापार हो रहा है उसका कारण मजबूरी है और बिना कानूनी मान्यता के वर्षो से चल रहा है तथा चलता रहेगा। तो क्या फिर जो देहव्यापार जेएनयू या आलीशान होटलों और बंगलों में चल रहा उसको कानूनी मान्यता देनी चाहिए। भारत के कुछ राज्यों के कुछ क्षेत्रों में आज भी देहव्यापार भले ही एक छोटी आबादी के लिए रोजी रोटी का जरिया बना हुआ है लेकिन पिछले कुछ महिनों में जिस देहव्यापार के हाईप्रोफाइल मामले सामने आए हैं उससे यह बात तो साफ हो गई है कि देहव्यापार अब केवल मजबूरी न होकर धनवान बनने का एक हाईप्रोफाइल धंधा बन गया है। नेता,अभिनेता और धर्माचार्य भी इस धंधे को चला रहे हैं।

देहव्यापार दुनिया के पुराने धंधों में से एक है। बेबीलोन के मंदिरों से लेकर भारत के मंदिरों में देवदासी प्रथा वेश्यावृत्ति का आदिम रूप है। गुलाम व्यवस्था में उनके मालिक वेश्याएं पालते थे। अनेक गुलाम मालिकों ने वेश्यालय भी खोले। तब वेश्याएं संपदा और शक्ति की प्रतीक मानी जाती थीं। मुगलों के हरम में सैकड़ों औरतें रहती थीं। मुगलकाल के बाद, जब अंग्रेजों ने भारत पर अधिकार किया तो इस धंधे का स्वरूप बदलने लगा। इस समय राजाओं ने अंग्रेजों को खुश करने के लिए तवायफों को तोहफे के रूप में पेश किया जाता था। आधुनिक पूंजीवादी समाज में वेश्यावृत्ति के फलने-फूलने की मुख्य वजह सामाजिक तौर पर स्त्री का वस्तुकरण है। यह तो पूराने दौर की कहानी है, जहां आपको मजबूरी दिखती होगी।
पुराने वक्त के कोठों से निकल कर देह व्यापार का धंधा अब वेबसाइटों तक पहुंच गया है। इंफॉरमेशन टेक्नोलॉजी के मामले में पिछड़ी पुलिस के लिए इस नेटवर्क को भेदना खासा मेहनत वाला सबब बन गया है। सिर्फ सर्च इंजन पर अपनी जरूरत लिखकर सर्च करने से ऐसी दर्जनों साइट्स के लिंक मिल जाएंगे। कुछ वेबसाइटों पर लड़कियों की तस्वीरें भी दिखाई गई हैं। यहां कालेज छात्राएं, मॉडल्स और टीवी व फिल्मों की नायिकाएं तक उपलब्ध कराने के दावे किए गए हैं।
इस कारोबार में विदेशी लड़कियों के साथ मॉडल्स, कॉलेज गल्र्स और बहुत जल्दी ऊंची छलांग लगाने की मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षी लड़कियों की संख्या भी बढ़ रही है। अब दलालों की पहचान मुश्किल हो गई है। इनकी वेशभूषा, पहनावा व भाषा हाई प्रोफाइल है और उनका काम करने का ढंग पूरी तरह सुरक्षित है। यह न केवल विदेशों से कॉलगर्ल्स मंगाते हैं बल्कि बड़ी कंपनियों के मेहमानों के साथ कॉलगर्ल्स को विदेश की सैर भी कराते हैं। सेक्स एक बड़े कारोबार के रूप में परिवर्तित हो चुका है। इस कारोबार को चलाने के लिए बाकयादा ऑफिस खोले जा रहे हैं। इंटरनेट और मोबाइल पर आने वाली सूचनाओं के आधार पर कॉलगर्ल्स की बुकिंग होती है। ईमेल या मोबाइल पर ही ग्राहक को डिलीवरी का स्थान बता दिया जाता है। कॉलगर्ल्स को ठेके पर या फिर वेतन पर रखा जाता हैं।
भीमानंद, इच्छाधारी बाबा का चोला पहन कर देह व्यापार का धंधा करवाता था। उसके संपर्क में 600 लड़कियां थीं। इनमें से 50 लड़कियां केवल बाबा के लिए ही काम करती थी। लड़कियों के रेट का 40 फीसदी कमीशन बाबा अपने पास रखता था। बाबा ने अलग-अलग लड़कियों के अलग-अलग रेट रख रखे थे। मॉडल के लिए 50 हजार, स्टूडेंट के लिए 20 हजार और हाउसवाइफ के लिए 10 हजार। इन लड़कियों को देश भर में फैले बाबा के एजेंट लाते थे।

हाल ही में कई सेक्स रैकेट का खुलास हुआ है। इसमें दक्षिण भारत के बेंगलूरू और हैदराबाद में बड़े-बड़े रैकेट पकड़े गए हैं। बेंगलूरू के सेक्स रैकेट ने तो पूरे देश को हिला रखा है। एक पांच सितारा मशहूर होटल से दक्षिण भारतीय फिल्मों की अभिनेत्री यमुना के साथ दलाल सुमन और एक आईटी कंपनी के सीईओ वेणुगोपाल को गिरफ्तार किया गया था। जो शहर के तमाम बड़े होटलों में बड़ी-बड़ी पार्टियों के बहाने सेक्स रैकेट चलता था। जांच से पता चला है कि यमुना, सोची-समझी नीति के तहत करती थी, ताकि पकड़े जाने पर वह आपसी सहमति से सेक्स की दलील देकर खुद को रैकेट में शामिल होने के आरोप से बचा सके। यह रैकेट किसी कोठे पर नहीं थ्री स्टार और फाइव स्टार होटलों में ही चलता था। रैकेट में मजबूर नहीं ग्लैमरस महिलाएं शामिल हैं। बड़ी और नामी हिरोइन भी बड़े-बड़े अधिकारियों की च्सेवाज् के लिए तैयार रहती हैं।

हैदराबाद में तेलुगू फिल्म अभिनेत्रियों सायरा बानू और च्योति के साथ सात अन्य लोगों को रंगे हाथ पकड़कर वेश्यावृत्ति से जुड़े एक गिरोह का भंडाफोड़ किया गया। कुंदन बाग के एक नजदीकी इलाके के एक अपार्टमेंट से कथित तौर पर सायरा और च्योति को उज्बेकिस्तान की एक महिला व उनके ग्राहकों के साथ गिरफ्तार किया गया। गिरोह में कुछ रईसों और जाने माने लोगों शामिल हैं।

हाल ही में गोवा में एक सेक्स रैकेट पकड़ा गया है। यहां के पाउला क्षेत्र से दो दलालों सहित चार नेपाली लड़कियों को पकड़ा गया। इन लड़कियों से जबरन देह व्यापार कराया जा रहा था। इनमें से एक लड़की नाबालिग थी। पुलिस के मुताबिक इस तरह के रैकेट आई टी के मशहूर बैंगलोर में भी काफी संख्या में हैं। फिलहाल पुलिस के पास पुख्ता सबूत नहीं है इसलिए वो कुछ भी कहने से बच रही है। 21 जनवरी को अहमदाबाद के इनकम टेक्स चार रस्ता के नजदीक कॉमर्शियल सेंटर में आने वाले होटल देव पैलेस से सेक्स रैकेट में शामिल एक भोजपूरी हिरोइन को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के दौरान केवल जवान और अय्याश ही नहीं बच्चे भी शामिल थे।

देश का ख्यातिनाम विश्वविद्यालय जेएनयू या फिर देश का कोई अन्य कॉलेज वहां पढऩे वाली कई छात्राएं अपनी पढ़ाई का खर्च जुटाने के लिए देह व्यापार करती हैं। पिछले दस वर्षों में विद्यार्थियों में देह व्यापार तीन फ़ीसदी से बढ़कर 25 फ़ीसदी तक पहुंच गया है। कॉलेज में ट्यूशन फीस ज़्यादा होने के वजह से विद्यार्थियों को च्इंटरनेट पर अश्लील फिल्मज्, च्अश्लील बातेंज् और च्लैप डांसज् जैसा काम करना पड़ता है। देश में कऱीब 5 फ़ीसदी विद्यार्थी एस्कोर्ट का काम करने के विकल्प को मान लेते हैं या विचार करते हैं। हाई प्रोफाइल सेक्सकर्मी को एस्कोर्ट कहा जाता है। वहीं, कई अमीर लड़कियां अपने महंगे शौक को पूरा करने के लिए भी धंधा करती हैं।

भारत में देहव्यापार के व्यवसाय में गोरी चमड़ी वाली विदेशी बालाओं का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। इनमें खासकर सोवियत संघ से अलग हुए राष्ट्रों खूबसूरत और मस्त अदाओं वाली लड़कियां, जो पूरी तरह से देखने में आकर्षित लगती हैं, इस धंधे में भाग ले रही है। एक अनुमान के मुताबिक पाटनगर दिल्ली में मौजूदा समय में 3000 विदेशी लड़कियां मौजूद हैं। यहां पर लड़कियां अपने खूबसूरत चेहरे के दम पर अच्छा-खासा पैसा कमा रही हैं। इन लड़कियों का मकसद एकदम साफ है। भारत में अपना शरीर बेचने के बाद लड़कियां अपने वतन वापस जाकर घर बनाती है, कुछ परिवार को पैसा भेजती रहती है। जांच में पता चला कि इन लड़कियों को भारत लाने के लिए व्यवस्थित नेटवर्क बना हुआ है। उपरोक्त राष्ट्रों की अनेक आंटियां काफी समय से दिल्ली में स्थायी रुप से निवास कर चुकी हैं। इन आंटियों का भारत में वेश्या दलालों के साथ गठबंधन है। विदेश से आती गोरी युवतियों का संपूर्ण संचालन ये आंटियां ही करती हैं साथ ही देशी दलाल और ग्राहक ढूढ़कर कमीशन भी बनाती है। देह व्यापार का यह धंधा सिर्फ दिल्ली और मुंबई में ही नहीं चलता बल्कि पूरे भारत में यह धंधा जोर पकड़ चुका है। देहव्यापार करके कई तरह के शौख पूरा करना इन गोरी लड़कियों का पेशा बन गया है। लड़कियां प्लेजर ट्रीप्स, बिजनेस मीट्स, कॉर्पोरेट इवेंट्स, फंक्शन और डिन डेट्स के लिए भी उपलब्ध होती हैं। कई लड़कियां तो नाइट क्लबों में वेटर्स या बेले डांसर का रुप धारण कर धंधे के लिए तैयार हो जाती हैं।

हिंदुस्तानी पुरुषों को अब सांवली या फिर खूबसूरत वेश्या या कॉलगर्ल में रस नहीं रह गया है। अब भारतीय पुरुष गोरी बालाओं के दीवाने हो गए हैं। इसके लिए वे अच्छा-खासा पैसा खर्च करने के लिए तैयार भी हो जाते हैं। रशियन लड़कियों का मिनिमम चार्ज दो हजार से 8 हजार रुपया है। अधिकतम चार्ज की कोई सीमा नहीं है। लड़कियों के पीछे काफी पैसा खर्च करके ग्राहकों से मोटी रकम वसूल की जाती है। अमीर और अधिकारी वर्ग के लोगों में गोरी त्वचा वाली विदेशी लड़कियों का क्रेज चल रहा है। यहां पर पहले तो नेपाली लड़कियों की ज्यादा डिमांड थी। भारतीय युवतियों की अपेक्षा नेपाली लड़कियों की कीमत 40 फीसदी ज्यादा थी लेकिन अब जमाना रशियन लड़कियों का है। देहव्यापार के धंधे में शामिल एक भारतीय लड़की का कहना है कि रशियन लड़की अपने शरीर को पूरी तरह से ग्राहक के हवाले कर देती हैं लेकिन हम ऐसा नहीं कर पाते।

भारत में देहव्यापार का धंधा लगातार बढ़ रहा है। 1956 में पीटा कानून के तहत वेश्यावृत्ति को कानूनी वैद्यता दी गई, पर 1986 में इसमें संशोधन करके कई शर्तें जोड़ी गई। इसके तहत सार्वजनिक सेक्स को अपराध माना गया। इसमें सजा का भी प्रावधान है। वूमेन एंड चाइल्ड डेवलेपमेंट मिनिस्ट्री ने 2007 में एक रिपोर्ट दिया, इसके मुताबिक, 30 लाख औरतें देहव्यापार का धंधा करती हैं। इममें 36 फीसदी तो नाबालिग हैं। अकेले मुंबई में 2 लाख सेक्स वर्कर का परिवार रहता है, जो पूरे मध्य एशिया में सबसे बड़ा है।

मजबूरी नहीं हाईप्रोफाइल धंधा बन गया है देहव्यापार

पिछले एक सप्ताह में हमें दो खबरे पढऩे को मिली। एक तो यह की जेएनयू में किस तरह सेक्स रैकेट का जाल फैल रहा है और दूसरी यह की उत्तर मध्य मुंबई की सांसद प्रिया दत्त ने मध्यप्रदेश की व्यावसायिक राजधानी इंदौर यह कहकर एक नई बहस छेड़ दी है कि देह व्यापार को कानूनी मान्यता दे देना चाहिए। मुंबई के रेड लाइट एरिया की महिलाओं पर रिसर्च कर चुकीं प्रिया ने संवाददाताओं से चर्चा में कहा,'उन पर काम के दौरान मैंने महसूस किया कि हर महिला की अलग ही कहानी है। यह बहुत पुराना पेशा है,जिसे चाहकर भी नकारा नहीं जा सकता।Ó उन्होंने कहा कि बंद कमरों की अपनी दुनिया में हम इन महिलाओं को नजरअंदाज करते हैं। साथ ही उन्हें कई तरह के शोषण का शिकार होना पड़ता है। उनकी जिंदगी को बेहतर बनाने के लिए कानूनी मान्यता देना जरूरी है। अब सवाल यह उठता है कि किस को कानूनी मान्यता दी जाए। क्योंकि देश भर के रेड लाइट एरिया में जो देहव्यापार हो रहा है उसका कारण मजबूरी है और बिना कानूनी मान्यता के वर्षो से चल रहा है तथा चलता रहेगा। तो क्या फिर जो देहव्यापार जेएनयू या आलीशान होटलों और बंगलों में चल रहा उसको कानूनी मान्यता देनी चाहिए।
भारत के कुछ राज्यों के कुछ क्षेत्रों में आज भी देहव्यापार भले ही एक छोटी आबादी के लिए रोजी रोटी का जरिया बना हुआ है लेकिन पिछले कुछ महिनों में जिस देहव्यापार के हाईप्रोफाइल मामले सामने आए हैं उससे यह बात तो साफ हो गई है कि देहव्यापार अब केवल मजबूरी न होकर धनवान बनने का एक हाईप्रोफाइल धंधा बन गया है। नेता,अभिनेता और धर्माचार्य भी इस धंधे को चला रहे हैं।
देहव्यापार दुनिया के पुराने धंधों में से एक है। बेबीलोन के मंदिरों से लेकर भारत के मंदिरों में देवदासी प्रथा वेश्यावृत्ति का आदिम रूप है। गुलाम व्यवस्था में उनके मालिक वेश्याएं पालते थे। अनेक गुलाम मालिकों ने वेश्यालय भी खोले। तब वेश्याएं संपदा और शक्ति की प्रतीक मानी जाती थीं। मुगलों के हरम में सैकड़ों औरतें रहती थीं। मुगलकाल के बाद, जब अंग्रेजों ने भारत पर अधिकार किया तो इस धंधे का स्वरूप बदलने लगा। इस समय राजाओं ने अंग्रेजों को खुश करने के लिए तवायफों को तोहफे के रूप में पेश किया जाता था। आधुनिक पूंजीवादी समाज में वेश्यावृत्ति के फलने-फूलने की मुख्य वजह सामाजिक तौर पर स्त्री का वस्तुकरण है। यह तो पूराने दौर की कहानी है, जहां आपको मजबूरी दिखती होगी।
पुराने वक्त के कोठों से निकल कर देह व्यापार का धंधा अब वेबसाइटों तक पहुंच गया है। इंफॉरमेशन टेक्नोलॉजी के मामले में पिछड़ी पुलिस के लिए इस नेटवर्क को भेदना खासा मेहनत वाला सबब बन गया है। सिर्फ सर्च इंजन पर अपनी जरूरत लिखकर सर्च करने से ऐसी दर्जनों साइट्स के लिंक मिल जाएंगे। कुछ वेबसाइटों पर लड़कियों की तस्वीरें भी दिखाई गई हैं। यहां कालेज छात्राएं, मॉडल्स और टीवी व फिल्मों की नायिकाएं तक उपलब्ध कराने के दावे किए गए हैं।
इस कारोबार में विदेशी लड़कियों के साथ मॉडल्स, कॉलेज गल्र्स और बहुत जल्दी ऊंची छलांग लगाने की मध्यमवर्गीय महत्वाकांक्षी लड़कियों की संख्या भी बढ़ रही है। अब दलालों की पहचान मुश्किल हो गई है। इनकी वेशभूषा, पहनावा व भाषा हाई प्रोफाइल है और उनका काम करने का ढंग पूरी तरह सुरक्षित है। यह न केवल विदेशों से कॉलगर्ल्स मंगाते हैं बल्कि बड़ी कंपनियों के मेहमानों के साथ कॉलगर्ल्स को विदेश की सैर भी कराते हैं। सेक्स एक बड़े कारोबार के रूप में परिवर्तित हो चुका है। इस कारोबार को चलाने के लिए बाकयादा ऑफिस खोले जा रहे हैं। इंटरनेट और मोबाइल पर आने वाली सूचनाओं के आधार पर कॉलगर्ल्स की बुकिंग होती है। ईमेल या मोबाइल पर ही ग्राहक को डिलीवरी का स्थान बता दिया जाता है। कॉलगर्ल्स को ठेके पर या फिर वेतन पर रखा जाता हैं।
भीमानंद, इच्छाधारी बाबा का चोला पहन कर देह व्यापार का धंधा करवाता था। उसके संपर्क में 600 लड़कियां थीं। इनमें से 50 लड़कियां केवल बाबा के लिए ही काम करती थी। लड़कियों के रेट का 40 फीसदी कमीशन बाबा अपने पास रखता था। बाबा ने अलग-अलग लड़कियों के अलग-अलग रेट रख रखे थे। मॉडल के लिए 50 हजार, स्टूडेंट के लिए 20 हजार और हाउसवाइफ के लिए 10 हजार। इन लड़कियों को देश भर में फैले बाबा के एजेंट लाते थे।
हाल ही में कई सेक्स रैकेट का खुलास हुआ है। इसमें दक्षिण भारत के बेंगलूरू और हैदराबाद में बड़े-बड़े रैकेट पकड़े गए हैं। बेंगलूरू के सेक्स रैकेट ने तो पूरे देश को हिला रखा है। एक पांच सितारा मशहूर होटल से दक्षिण भारतीय फिल्मों की अभिनेत्री यमुना के साथ दलाल सुमन और एक आईटी कंपनी के सीईओ वेणुगोपाल को गिरफ्तार किया गया था। जो शहर के तमाम बड़े होटलों में बड़ी-बड़ी पार्टियों के बहाने सेक्स रैकेट चलता था। जांच से पता चला है कि यमुना, सोची-समझी नीति के तहत करती थी, ताकि पकड़े जाने पर वह आपसी सहमति से सेक्स की दलील देकर खुद को रैकेट में शामिल होने के आरोप से बचा सके। यह रैकेट किसी कोठे पर नहीं थ्री स्टार और फाइव स्टार होटलों में ही चलता था। रैकेट में मजबूर नहीं ग्लैमरस महिलाएं शामिल हैं। बड़ी और नामी हिरोइन भी बड़े-बड़े अधिकारियों की 'सेवाÓ के लिए तैयार रहती हैं।
हैदराबाद में तेलुगू फिल्म अभिनेत्रियों सायरा बानू और च्योति के साथ सात अन्य लोगों को रंगे हाथ पकड़कर वेश्यावृत्ति से जुड़े एक गिरोह का भंडाफोड़ किया गया। कुंदन बाग के एक नजदीकी इलाके के एक अपार्टमेंट से कथित तौर पर सायरा और च्योति को उज्बेकिस्तान की एक महिला व उनके ग्राहकों के साथ गिरफ्तार किया गया। गिरोह में कुछ रईसों और जाने माने लोगों शामिल हैं।
हाल ही में गोवा में एक सेक्स रैकेट पकड़ा गया है। यहां के पाउला क्षेत्र से दो दलालों सहित चार नेपाली लड़कियों को पकड़ा गया। इन लड़कियों से जबरन देह व्यापार कराया जा रहा था। इनमें से एक लड़की नाबालिग थी। पुलिस के मुताबिक इस तरह के रैकेट आई टी के मशहूर बैंगलोर में भी काफी संख्या में हैं। फिलहाल पुलिस के पास पुख्ता सबूत नहीं है इसलिए वो कुछ भी कहने से बच रही है।
21 जनवरी को अहमदाबाद के इनकम टेक्स चार रस्ता के नजदीक कॉमर्शियल सेंटर में आने वाले होटल देव पैलेस से सेक्स रैकेट में शामिल एक भोजपूरी हिरोइन को गिरफ्तार किया गया। गिरफ्तारी के दौरान केवल जवान और अय्याश ही नहीं बच्चे भी शामिल थे।
देश का ख्यातिनाम विश्वविद्यालय जेएनयू या फिर देश का कोई अन्य कॉलेज वहां पढऩे वाली कई छात्राएं अपनी पढ़ाई का खर्च जुटाने के लिए देह व्यापार करती हैं। पिछले दस वर्षों में विद्यार्थियों में देह व्यापार तीन फ़ीसदी से बढ़कर 25 फ़ीसदी तक पहुंच गया है। कॉलेज में ट्यूशन फीस ज़्यादा होने के वजह से विद्यार्थियों को 'इंटरनेट पर अश्लील फि़ल्मÓ, 'अश्लील बातेंÓ और 'लैप डांसÓ जैसा काम करना पड़ता है। देश में कऱीब 5 फ़ीसदी विद्यार्थी एस्कोर्ट का काम करने के विकल्प को मान लेते हैं या विचार करते हैं। हाई प्रोफाइल सेक्सकर्मी को एस्कोर्ट कहा जाता है। वहीं, कई अमीर लड़कियां अपने महंगे शौक को पूरा करने के लिए भी धंधा करती हैं।
भारत में देहव्यापार के व्यवसाय में गोरी चमड़ी वाली विदेशी बालाओं का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। इनमें खासकर सोवियत संघ से अलग हुए राष्ट्रों खूबसूरत और मस्त अदाओं वाली लड़कियां, जो पूरी तरह से देखने में आकर्षित लगती हैं, इस धंधे में भाग ले रही है। एक अनुमान के मुताबिक पाटनगर दिल्ली में मौजूदा समय में 3000 विदेशी लड़कियां मौजूद हैं। यहां पर लड़कियां अपने खूबसूरत चेहरे के दम पर अच्छा-खासा पैसा कमा रही हैं। इन लड़कियों का मकसद एकदम साफ है। भारत में अपना शरीर बेचने के बाद लड़कियां अपने वतन वापस जाकर घर बनाती है, कुछ परिवार को पैसा भेजती रहती है। जांच में पता चला कि इन लड़कियों को भारत लाने के लिए व्यवस्थित नेटवर्क बना हुआ है। उपरोक्त राष्ट्रों की अनेक आंटियां काफी समय से दिल्ली में स्थायी रुप से निवास कर चुकी हैं। इन आंटियों का भारत में वेश्या दलालों के साथ गठबंधन है। विदेश से आती गोरी युवतियों का संपूर्ण संचालन ये आंटियां ही करती हैं साथ ही देशी दलाल और ग्राहक ढूढ़कर कमीशन भी बनाती है। देह व्यापार का यह धंधा सिर्फ दिल्ली और मुंबई में ही नहीं चलता बल्कि पूरे भारत में यह धंधा जोर पकड़ चुका है। देहव्यापार करके कई तरह के शौख पूरा करना इन गोरी लड़कियों का पेशा बन गया है। लड़कियां प्लेजर ट्रीप्स, बिजनेस मीट्स, कॉर्पोरेट इवेंट्स, फंक्शन और डिन डेट्स के लिए भी उपलब्ध होती हैं। कई लड़कियां तो नाइट क्लबों में वेटर्स या बेले डांसर का रुप धारण कर धंधे के लिए तैयार हो जाती हैं।
हिंदुस्तानी पुरुषों को अब सांवली या फिर खूबसूरत वेश्या या कॉलगर्ल में रस नहीं रह गया है। अब भारतीय पुरुष गोरी बालाओं के दीवाने हो गए हैं। इसके लिए वे अच्छा-खासा पैसा खर्च करने के लिए तैयार भी हो जाते हैं। रशियन लड़कियों का मिनिमम चार्ज दो हजार से 8 हजार रुपया है। अधिकतम चार्ज की कोई सीमा नहीं है। लड़कियों के पीछे काफी पैसा खर्च करके ग्राहकों से मोटी रकम वसूल की जाती है।
अमीर और अधिकारी वर्ग के लोगों में गोरी त्वचा वाली विदेशी लड़कियों का क्रेज चल रहा है। यहां पर पहले तो नेपाली लड़कियों की ज्यादा डिमांड थी। भारतीय युवतियों की अपेक्षा नेपाली लड़कियों की कीमत 40 फीसदी ज्यादा थी लेकिन अब जमाना रशियन लड़कियों का है। देहव्यापार के धंधे में शामिल एक भारतीय लड़की का कहना है कि रशियन लड़की अपने शरीर को पूरी तरह से ग्राहक के हवाले कर देती हैं लेकिन हम ऐसा नहीं कर पाते।
भारत में देहव्यापार का धंधा लगातार बढ़ रहा है। 1956 में पीटा कानून के तहत वेश्यावृत्ति को कानूनी वैद्यता दी गई, पर 1986 में इसमें संशोधन करके कई शर्तें जोड़ी गई। इसके तहत सार्वजनिक सेक्स को अपराध माना गया। इसमें सजा का भी प्रावधान है। वूमेन एंड चाइल्ड डेवलेपमेंट मिनिस्ट्री ने 2007 में एक रिपोर्ट दिया, इसके मुताबिक, 30 लाख औरतें देहव्यापार का धंधा करती हैं। इममें 36 फीसदी तो नाबालिग हैं। अकेले मुंबई में 2 लाख सेक्स वर्कर का परिवार रहता है, जो पूरे मध्य एशिया में सबसे बड़ा है।

उजड़ेगा अरूंधति का आशियाना

विवादों की देवी के रूप में विख्यात बुकर विजेता अरुंधति रॉय की कुंडली में विद्यमान ग्रह नक्षत्रों का चाल इनदिनों टेढ़ी हो गयी है यही कारण है कि विवादों से उनका पीछा छुट ही नहीं रहा है। पहले नक्सलियों और बाद में कश्मीर मामले को लेकर दिए गए बयान पर मचा बवाल थमा ही नहीं है कि अब वे पचमढ़ी स्थित बंगले को लेकर विवादों में फंस गई हैं। जिस तरह कायदे-कानून को ताक पर रखकर प्रतिबंधित क्षेत्र में उनका बंगला बना है उससे तो यही लगता है कि उनका यह आशियाना शीघ्र ही उजड़ जाएगा।
फिल्मकार प्रदीप कृष्ण सूद सेे जनवरी, 1994 में विवाह रचाने वाली अरुंधति राय शादी के साथ ही पचमढ़ी के जंगलों में अपने बंगले को लेकर विवादों में घिर गई हैं। अरुंधति और उनके पति बंगले की जमीन को वन के बजाय राजस्व का बताकर अपना दामन पाक-साफ बताने की कोशिशें करते रहे हैं लेकिन पचमढ़ी के पास उनके बंगलों को देखकर किसी को यह जानने के लिए कानून की किताबों में सिर खपाने की जरूरत नहीं होगी कि वह जंगल की जमीन है या राजस्व विभाग की। फिर कानूनी तौर पर भी यहां स्वाभाविक उत्तराधिकार के अतिरिक्त किसी अन्य तरीके से जमीन का नामांतरण नहीं हो सकता। जाहिर है, जब बंगला बनाया गया था तब भी पचमढ़ी प्रशासन ने नोटिस भेजे थे और अब उनकी जमीन की रजिस्ट्री और उसका नामांतरण खारिज करने वाले नायब तहसीलदार के फैसले पर पिपरिया के एसडीएम ने भी सहमति की मुहर लगा दी है। एसडीएम कोर्ट ने साफ कर दिया कि उक्त मामले में जमीन अगर पिता से पुत्र के पास जाती है तो उसे नामांतरित किया जा सकता है। लेकिन किसी बाहरी या दूसरे व्यक्ति को संरक्षित क्षेत्र में आने वाली जमीन नामांतरित नहीं की जा सकती। इस बंगले को बचाने के लिए अब अरुंधति राय ने भोपाल एवं होशंगाबाद के संभागायुक्त मनोज श्रीवास्तव की कोर्ट में दस्तक दी है।
भोपाल से पचमढ़ी के रास्ते में पचमढ़ी से ठीक पहले एक खूबसूरत कुदरती झील के किनारे बारीआम गांव है। बारीआम के लोग इस सघन वन क्षेत्र में होने के बावजूद सरकारी दस्तावेजों में राजस्व ग्राम के तौर पर दर्ज है। इस गांव से सटे ही सघन जंगल में अरुंधति राय के पति तथा तीन और लोगों ने बंगले बनाए हैं। बंगले के चहुंओर जंगल इतना सघन है कि बंगले में दिन में भी बत्ती की जरूरत रहती है। ठेठ आदिवासी गांव बारीआम के पास की इस जमीन पर प्रदीप कृष्ण से पहले शरीफ अहमद और उसके भाई रईस अहमद के साथ अब्दुल रफीक काबिज था। इनके पूर्वज पहले यहां से मांस की सप्लाई करते थे। इस जमीन पर लंबे समय से पचमढ़ी इलाके के रेंजर रह चुके निशिकांत जाधव की निगाह थी। जाधव पचमढ़ी के डीएफओ भी रहे। इधर प्रदीप कृष्ण ने अपनी कुछ डाक्यूमेंटरी फिल्मों की शूटिंग यहां की थी। मित्रता के चलते जाधव ने खुद जमीन खरीदने से पहले इसका एक हिस्सा (करीब चार हजार वर्ग फुट) 24 मार्च, 1992 को प्रदीप कृष्ण को दिला दिया। बाद में जाधव ने 20 सितंबर, 1993 को पास ही अब्दुल रफीक की करीब सवा चार हजार वर्ग फुट जमीन पत्नी आशा लता जोजे के नाम से खरीदी। इसी दिन उन्होंने प्रदीप कृष्ण से उनके हिस्से की भूमि में से कुछ हिस्सा पचमढ़ी के पुलिस ट्रेनिंग सेंटर के डॉक्टर जगदीश चंद्र शर्मा को भी दिला दिया। उधर रफीक से इतनी ही भूमि मशहूर लेखक विक्रम सेठ की बहन और पीटर लानस्की की पत्नी आराधना सेठ को भी 17 जनवरी, 1994 को दिलाई।
जाहिर है कि जंगल की इस जमीन के खरीद-फरोख्त के केन्द्र में जाधव ही थे। अरुंधति की मित्रता आराधना सेठ से थी। इसलिए वह भी यहां आ गईं। डॉ. शर्मा ने भी जाधव के मित्र होने के नाते वहां जमीन खरीदी। वैसे अभी डॉ. शर्मा ही वह शख्स हैं जो इस बंगले में सबसे ज्यादा वक्त व्यतीत कर रहे हैं। यह क्षेत्र पचमढ़ी वन्यजीव अभयारण्य का हिस्सा है और केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने इसे पर्यावरण संरक्षण कानून के तहत इको-संवेदी क्षेत्र घोषित कर रखा है। प्रदीप किशन ने यहां 1992 में जमीन खरीदी थी और 1993 में यह घर बनकर तैयार हो गया था।
इस मामले में पचमढ़ी स्पेशल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (साडा) का कहना है कि प्रदीप किशन ने इस जमीन का लैंड यूज (भू-उपयोग) गलत तरीके से बदलवाया था। इस बीच वन विभाग ने भी घर को अभयारण्य क्षेत्र में होने के कारण अवैध करार दे दिया था।
दरअसल, पचमढ़ी के वन क्षेत्र को सतपुड़ा नेशनल पार्क का दर्जा 13 अक्टूबर 1981 को मिला। फिर 25 दिसंबर, 2007 को सतपुड़ा नेशनल पार्क, बोरी तथा सतपुड़ा वन्य प्राणी अभयारण्य को मिलाकर सतपुड़ा टाइगर रिजर्व बनाया गया। जहां बंगले बनाए गए हैं वह भूमि अभयारण्य क्षेत्र में आती है। वन्य प्राणी संरक्षण कानून के तहत इन क्षेत्रों में भूमि का मालिकाना हक उत्तराधिकारियों यानी संतान को ही दिया जा सकता है और वह इसे किसी और को नहीं बचे सकता। इसी आधार पर 2 मई, 2003 को नायब तहसीलदार ने बंगले की जमीन के नामांतरण को गैरकानूनी करार देते हुए रद्द कर दिया। इस फैसले के खिलाफ अरुंधति राय और प्रदीप कृष्ण ने हाईकोर्ट में दस्तक दी थी लेकिन हाईकोर्ट ने 8 फरवरी, 2010 को उन्हें यह कहकर लौटा दिया कि इस मामले में एसडीएम अपील सुनने के लिए सक्षम है। युवा आईएएस वी किरण गोपाल (एसडीएम पिपरिया) के यहां की गई अपील भी खारिज कर दी गई और कहा गया कि नायब तहसीलदार का फैसला सही था। नामांतरण रद्द होने के बाद कानूनी तौर पर उनकी रजिस्ट्री भी अवैध घोषित हो चुकी है। कुल मिलाकर बंगलों की शामत आ चुकी है।
बचाव पक्ष के वकील सुशील गोयल ने बताया कि तत्कालीन नायब तहसीलदार ने पटवारी की रिपोर्ट पर सभी बंगलों को रिजर्व फॉरेस्ट में मान लिया और 31 मार्च 2005 में नायब तहसीलदार ने एसडीएम को नामांतरण निरस्त करने की अनुशंसा की, एसडीएम ने नामांतरण निरस्त करने की अनुशंसा पारित कर दी और नायब तहसीलदार ने अपना फैसला सुनाते हुए आर्डर कर दिए।