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भेड़ाघाट

Monday, March 21, 2011

भ्रष्टाचार को आदर सत्कार

विनोद उपाध्याय
एक तरफ देश में भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने के लिए यूपीए सरकार हर दिन बयानबाजी करती नजर आती है तो दूसरी तरफ संवैधानिक पदों पर ऐसे लोगों को नियुक्त किया जाता है जो खुद दागदार हैं और जिनकी प्रतिष्ठा दांव पर लगी है। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में साफ कहा है कि मुख्य सतर्कता आयुक्त की नियुक्ति के लिए बनी उच्चस्तरीय समिति और किसी भी सरकारी संस्था ने सीवीसी जैसी संस्था की ईमानदारी और निष्ठा के मुद्दे को प्राथमिकता नहीं दी। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने केंद्र सरकार को सबक देते हुए उसे सवालों के घेरे में लाकर खड़ा कर दिया है, क्योंकि सरकार द्वारा केंद्रीय सतर्कता आयोग, सीबीआई, प्रवर्तन निदेशालय, रॉ और गुप्तचर ब्यूरो में जो नियुक्तियां कि गई हैं उनमें भी भ्रष्टाचार की बू आ रही है।

यूपीए सरकार के अब तक के कार्यकाल में अहम संवैधानिक पदों, आयोगों और अन्य मलाईदार पदों पर होने हुए मनोनयन और नियुक्तियों की फेहरिस्त देखें तो हर जगह उसके मुख्य घटक-कांग्रेस की सिफारिशों का ही जलवा दिखता है। मई, 2004 में कांग्रेस की अगुवाई में चौदह दलों की गठबंधन सरकार बनी। लेकिन सत्ता की असल मलाई कांग्रेस ने ही खाई। सरकारी नियुक्तियों और मनोनयनों में उसका एकछत्र राज रहा है। किसी घटक की कुछ खास नहीं चली।
शुरूआत करते हैं केंद्रीय सतर्कता आयुक्त पीजे थॉमस से। 2003 में हुई सीवीसी एक्ट के मुताबिक इस पद पर वही नियुक्त हो सकता है, जिसका पूरा काल संदेह से परे हो क्योंकि ये केन्द्रीय भ्रष्टाचार निरोधक निकाय है और सरकार के उच्चअधिकारियों पर निगाह रखने के अलावा उनके खिलाफ जांच का आदेश देता है. ये सीबीआई की सुपरवायजरी अथॉरिटी भी है। दरअसल 1964 में सरकारी महकमों में करप्शन रोकने के लिए संथानम कमेटी के सुझाव पर सीवीसी का गठन किया गया था, जिसके मुताबिक एक स्वायत्त निकाय के रूप में स्थापित करना और सरकारी मुलाजिमों और सस्थाओं में बढ़ती हेराफेरी को रोकना और जांच एजेंसियों को जांच करने का आदेश देना है. यहीं नहीं देश के तमाम संस्थानों का ईमानदारी की राह पर चलने के लिए सचेत करना भी इसका काम है।

आखिर पीजे थॉमस में क्या खास था कि सरकार ने उन पर लगे आरोपों और नेता विपक्ष की आपत्ति के बावजूद उन्हें सीवीसी नियुक्त कर दिया? केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) का काम होता है भ्रष्टाचार के खिलाफ निगरानी करने का। इस आयोग के आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और लोकसभा में विपक्ष के नेता की सदस्यता वाली समिति की सलाह पर राष्ट्रपति करते हैं। देश भर में भ्रष्टाचार की किसी भी शिकायत की जांच कराने वाली एजेंसी सीवीसी के मुखिया पीजे थॉमस की नियुक्ति की प्रक्रिया अपने आप में कई राज खोलती है। थॉमस केरल के पॉमोलीन आयात घोटाले में फंसे थे। केंद्र सरकार में सचिव बनने के लिए जरूरी केंद्र में दो साल के डेपुटेशन का अनुभव भी उनके पास नहीं था। इसके बावजूद केंद्र सरकार ने उन्हें सचिव बनाया। उनकी नियुक्ति पर ज्यादा लोगों का ध्यान न जाए इसलिए उन्हें कम महत्वपूर्ण माने जाने वाले संसदीय कार्य मंत्रालय में सचिव बनाया गया। फिर एक रुटीन ट्रांस्फर की तरह उन्हें हाई प्रोफाइल टेलीकॉम विभाग में सचिव बना दिया। उनकी ओर लोगों का ध्यान तब गया जब प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय कमेटी ने उन्हें सीवीसी नियुक्त किया। इस कमेटी में गृह मंत्री पी चिदंबरम ने तो प्रधानमंत्री का समर्थन किया लेकिन लोकसभा में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज ने कड़ी आपत्ति जताई। इस नियुक्ति को लेकर देश भर में बवाल मचा और अन्त में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे अवैध करार देकर सरकार को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

मौजूदा सीबीआई प्रमुख अमर प्रताप सिंह की गिनती एक सख्त अफसर के रूप में की जाती है. इसलिए इनकी नियुक्ति पर तो कोई विवाद नहीं हुआ। लेकिन सीबीआई से हाल ही में रिटायर हुए निदेशक अश्विनी कुमार की नियुक्ति पर भी विवाद हुआ था। सीबीआई निदेशक के पद के लिए सीवीसी की अध्यक्षता वाली कमेटी द्वारा तैयार तीन शीर्ष पुलिस अफसरों के पैनल में प्रकाश सिंह का नाम दूसरे स्थान पर था लेकिन प्राथमिकता अश्विनी कुमार को दी गई। उनके चयन पर इसलिए भी विवाद उठा क्योंकि वे कभी बहुत काबिल अफसर नहीं माने गए। हां, एक केंद्रीय मंत्री से उनकी निकटता के चर्चे जरूर सुर्खियों में रहे। सीबीआई के पूर्व निदेशक जोगिंदर सिंह कहते हैं कि खुफिया एजेंसियों के प्रमुखों की यह हालत है कि अगर सरकार उन्हें बैठने को कहती है तो वे लेट जाते हैं। जहां तक सीबीआई प्रमुख अमर प्रताप सिंह की नियुक्ति का मामला है उसके पीछे माना जा रहा है कि थॉमस की नियुक्ति से उठे विवाद के तुरंत बाद सरकार कोई और विवाद नहीं चाहती थी। इसीलिए पुलिस पदक व आईपीएस पदक से सम्मानित वरिष्ठतम अफसर को नियुक्त किया।

प्रवर्तन निदेशालय में फिलहाल केंद्र शासित कॉडर के अरुण माथुर एनफोर्समेंट निदेशक (ईडी) हैं। आर्थिक अपराधों की जांच के मुखिया के पद पर आने से पहले वे दिल्ली जल बोर्ड के अध्यक्ष थे। उस दौरान दिल्ली के ग्रेटर कैलाश क्षेत्र में उनके द्वारा कराए कामों को लेकर वे विवाद में थे। इस मामले में उन्हें अदालत ने समन भी किया था लेकिन तब तक वे ईडी बन चुके थे। हालांकि बाद में कोर्ट ने मामला खारिज कर दिया था। ईडी को हवाला, मनीलॉंड्रिंग और फेमा के मामलों की जांच करनी होती है। माथुर को दिल्ली के शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व का खास माना जाता है। इस पद पर रहकर उन्होंने कॉमनवेल्थ खेलों, आईपीएल, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला, मधु कोड़ा के खिलाफ कार्रवाई, सत्यम इंफोटेक के एमडी एस राजू के खिलाफ मामलों की जांच के अलावा दिल्ली की रियल एस्टेट कंपनियों के खिलाफ छापे की कार्रवाई जैसे मामलों की निगरानी की हैं। उनकी नियुक्ति की सिफारिश करने वाली समिति के अध्यक्ष रहे पूर्व सीवीसी प्रत्यूष सिन्हा कहते हैं कि माथुर की नियुक्ति पूरी तरह नियमों के अनुसार हुई। आईएएस के चार वरिष्ठतम बैच के अफसरों में छांटकर समिति ने जो तीन लोगों की सूची तैयार की थी उसमें वे सबसे ऊपर थे। उनका कहना है कि जल बोर्ड के कार्यकाल के दौरान उठा कोई विवाद उनके सामने नहीं आया था।

जो काम देश के अंदर आईबी करती है वही काम विदेशों में रॉ करती है यानी काउंटर इंटेलिजेंस या दूसरे देशों के प्रमुख लोगों की गतिविधियों की जानकारी जमा करना। लेकिन दूसरी खुफिया एजेंसियों की तरह रॉ के निदेशक की नियुक्ति भी राजनीतिक फैसला हो गया है। ताजा मामला मौजूदा निदेशक संजीव त्रिपाठी का है। उन्हें रॉ की सेवा से 31 दिसंबर 2010 को रिटायर होना था। तब वे एडिशनल डायरेक्टर थे। और तब डायरेक्टर के पद पर आसीन केसी वर्मा का रिटायरमेंट 31 जनवरी को होना था। लेकिन अचानक वर्मा ने 30 दिसंबर 2010 को पद से इस्तीफा दे दिया। त्रिपाठी रिटायर होने से बच गए। सरकार ने उन्हें दो साल के लिए रॉ का निदेशक बना दिया। या यूं कहें कि रिटायरमेंट की जगह उन्हें दो साल का न सिर्फ एक्सटेंशन दिया बल्कि प्रमोशन भी। हां, इस त्याग का लाभ वर्मा को भी मिला। उन्हें भी दो साल के लिए साइबर (इंटरनेट) अपराधों के लिए बनी खुफिया एजेंसी नेशनल टेक्निकल रिसर्च आर्गनाइजेशन (एनटीआरओ) का प्रमुख बना दिया गया। यह भी मात्र संयोग नहीं है कि त्रिपाठी के पिता गौरी शंकर त्रिपाठी भी रॉ में काम कर चुके रहे हैं।

गुप्तचर ब्यूरो (आईबी)को प्रधानमंत्री का आंख और कान माना जाता है। पूरे देश में राजनीति और आतंकवाद की खुफिया जानकारी जुटाने का काम इसके पास है। इसके निदेशक (डीआईबी) रोज सुबह प्रधानमंत्री से मुलाकात कर उन्हें देश में चल रही गतिविधियों की जानकारी देते हैं। इसीलिए प्रधानमंत्री अपने सबसे विश्वस्त आदमी को ही इस पद पर बिठाते हैं। अधिकतर राजनेताओं के फोन टेप करने का काम भी यही एजेंसी करती है। राष्टीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) एम के नारायणन खुद डीआईबी रह चुके हैं। उनकी नियुक्ति के बाद से डीआईबी द्वारा प्रधानमंत्री को रोज सुबह दी जाने वाली ब्रीफिंग की प्रक्रिया बंद कर दी गई है। अब डीआईबी केवल नारायणन को ही ब्रीफ करते हैं। फिलहाल आईपीएस अधिकारी नेहचल संधू डीआईबी हैं।

क्या संवैधानिक पदों की गरिमा बरकरार रखना सरकार की जिम्मेदारी नहीं है? लगातार हो रहे घोटालों और भ्रष्टाचार के बढ़ते मामलों को देखते हुए क्या यह आवश्यक नहीं कि सरकार अपनी जिम्मेदारी को अधिक जिम्मेदारी से निभाती और संवैधानिक पदों पर नियुक्तियों के मामले में अधिक सतर्कता बरतती। बजाय इन सबके सरकार के मंत्री संवैधानिक संस्थाओं पर उंगलियां उठाकर उसकी अहमियत को चुनौती देने की कोशिश करते हैं। दूरसंचार घोटाले पर केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल सरकारी खर्च के हिसाब-किताब पर नजर रखने वाली शीर्ष संस्था नियंत्रण एवं महालेखा परीक्षा यानी कैग के कामकाज के तरीके पर सवाल उठाते हुए यह बताने की कोशिश कर रहे थे कि टू जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले में सरकार को उतना नुकसान नहीं हुआ है जितना कैग की रिपोर्ट में बताया गया है। कुछ ऐसा ही बयान कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने भी दिया कि कैग उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी। मोइली का कहना था कि अगर कैग ने समय रहते हस्तक्षेप किया होता तो कई घोटाले नहीं होते। वर्ष 2009 में भारत के तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त एन. गोपालस्वामी ने राष्ट्रपति से चुनाव आयुक्त नवीन चावला को बर्खास्त करने की सिफारिश की थी जिसे केंद्र सरकार ने खारिज कर दिया था। इस मामले में भाजपा ने चावला के कांग्रेस पार्टी से नजदीकी और पुराने संबंधों का आरोप लगाते हुए उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाए थे।

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से सरकार की किरकिरी हुई है और विपक्ष के हाथ एक बड़ा मुद्दा लग गया है, लेकिन यहां सवाल संवैधानिक संस्थाओं की मर्यादा और उसकी गरिमा को बरकरार रखने का है। अदालत का कहना है कि विपक्ष के पास इस तरह की नियुक्ति को लेकर कोई वीटो तो नहीं है, लेकिन यदि विरोध होता है तो सरकार को इसको ध्यान में रखना चाहिए। इस मामले में एक याचिकाकर्ता और पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त जेएम लिंगदोह का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर भी सवाल खड़े किए हैं, लेकिन देश के कानून मंत्री वीरप्पा मोइली का अभी भी कह रहे हैं इस पूरे मामले में प्रधानमंत्री ने कुछ भी गलत नहीं किया।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले में केवल थॉमस की नियुक्ति को रद ही नहीं किया, बल्कि सरकार को आने वाले समय में ऐसे अहम पदों पर नियुक्ति को केवल नौकरशाहों तक सीमित नहीं रखे जाने की बात भी कही है। कोर्ट का कहना है कि जब मुख्य सतर्कता आयुक्त की दोबारा नियुक्ति हो तो प्रक्रिया को केवल नौकरशाहों तक सीमित नहीं रखा जाए, बल्कि समाज से अन्य ईमानदार और निष्ठावान व्यक्तियों के नाम पर भी ध्यान दिया जाए।

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