bhedaghat

bhedaghat
भेड़ाघाट

Friday, March 25, 2011

कुल को कलंकित करते कुलपति

मध्य प्रदेश के विश्वविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा, नौकरशाहों का पुनर्वास केन्द्र, छात्रों का शोषण स्थल, विवाद, कलह, आर्थिक अनियमितता, घपले-घोटालों, अनैतिकता, शिक्षा क्षेत्र में पक्षपात, भाई-भतीजावाद और अब सेक्स का अड्डा भी कहा जाए तो कोई गलत नहीं होगा। क्योंकि कुलिनों का केन्द्र कहे जाने वाले विश्वविद्यालयों में शिक्षा के नाम पर वह सब हो रहा है जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की गई होगी। इन आधुनिक गुरूकुलों को वहां के कुलपति या उनके नुमाइंदे सबसे ज्यादा कलंकित कर रहे हैं और इसमें उनको शिक्षा माफिया, सत्ता के दलाल और प्रशासनिक अधिकारियों का भरपूर सहयोग मिल रहा है।
एक वक्त था, जब भारत को विश्वगुरु का दर्जा प्राप्त था। पूरी दुनिया यहां की अद्वितीय प्रतिभा के आगे नतमस्तक थी। अपनी तीक्ष्ण बुद्धि एवं स्वाध्याय की प्रवृत्ति के कारण भारतीय हर विद्या में नित नए परचम लहरा रहे थे। कभी सोचा है कि उस वक्त ऐसा क्यों था? तब शिक्षा में राजनीति का प्रवेश नहीं था। वैसे तो राजनीति-शास्त्र एक पूर्ण विषय के रूप में मौजूद था, पर वह वर्तमान-स्वरूप से काफी भिन्न था। नालंदा, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी थे। वहां पढ़कर ऐसे-ऐसे नगीने आगे बढे, जिन्होंने विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैलाया। आज उन जैसे विश्वविद्यालयों को हमें कल्पना में जीवित रखना पड़ रहा है। वास्तव में अब न तो ऐसे शिक्षा के मंदिर रहे हैं, न ही शिक्षक के रूप में ऐसे पुजारी, जो गुरु-शिष्य परंपरा का निर्वहन कर सकें।
विश्वविद्यालय (यूनिवर्सिटी) वह संस्था है जिसमें सभी प्रकार की विद्याओं की उच्च कोटि की शिक्षा दी जाती हो, परीक्षा ली जाती हो तथा लोगों को विद्या संबंधी उपाधियां आदि प्रदान की जाती हों। प्रदेश में 17 विश्वविद्यालय हैं। इनमें से 12 पर ही कुलाधिपति (राज्यपाल) का सीधा नियंत्रण है। अन्य विश्वविद्यालयों पर राज्य शासन का प्रशासनिक नियंत्रण है। राज्य में एक दशक से विश्वविद्यालयों की कारगुजारियां आरोपों के घेरे में हंै। कुलपतियों की नियुक्तियां और फिर टकराव के प्रसंग आम बात हो गई है। राज्य में ऐसे कई विवादास्पद कुलपति हो चुके हैं, जिन पर आर्थिक अनियमितताओं, घपले, घोटालों, अनैतिकता, शिक्षा क्षेत्र में पक्षपात, भाई भतीजावाद के आरोप लगे और बदनाम होने के बाद वे पद से हटाये गये। प्रदेश में विश्वविद्यालय कलह के केंद्र बन गए हैं।
विश्वविद्यालयों में शैक्षणिक माहौल पटरी पर लाने की बजाय विवादों का पिटारा हर रोज खुल रहा है। प्रदेश के चार कुलपतियों पर जांच का संकट मंडरा रहा है। भोज विश्वविद्यालय के कुलपति एस के सिंह पर गोपनीय प्रश्न पत्र मुद्रण, डिग्री मुद्रण एवं परीक्षाफल बनाने के कार्य अवैध रूप से आवंटित, परीक्षाफल कार्य संबंधी ओएमआर शीट का अवैध मुद्रण आदि में मनमानी और भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं वही माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि के कुलपति बृजकिशोर कुठियाला, बरतकतउल्ला विवि की कुलपति प्रो. निशा दुबे और देवी अहिल्या विवि के कुलपति पीके मिश्रा भी विवादों के घेरे में हैं। श्री कुठियाला के विरुद्ध राज्य शासन गोपनीय जांच करा रहा है, तो श्री मिश्रा की शिकायतें भी राजभवन पहुंची हैं। बीयू की कुलपति के खिलाफ बीएड अनुमति का मामला राजभवन ने गंभीरता से लिया है। यही नहीं दस माह में चार कुलपतियों पर गाज गिर चुकी है। 6 फरवरी 10 को रानी दुर्गावती विवि जबलपुर के कुलपति डॉ. सत्येंद्र मोहनपाल खुराना को हटा दिया गया वहीं 16 जून 10 को महात्मा गांधी चित्रकूट ग्रामोदय विवि. के कुलपति डॉ. ज्ञानेंद्र सिंह, मार्च 10 में देवी अहिल्या विवि इंदौर के कुलपति डॉ. अजीतसिंह सेहरावत और सितंबर 10 में विक्रम विवि के कुलपति डॉ. शिवपाल सिंह अहलावत को अपना पद छोडऩा पड़ा।
राज्य सरकार ने कुलपति पद को अपने चहेते अफसरों को उपकृत करने के लिए भी बदनाम किया हैं। कई रिटायर्ड आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अधिकारी विभिन्न विश्वविद्यालयों में कुलपति बने और बिना कुछ किए आराम से पद की सुख सुविधाएं भोगते रहे। प्रदेश के किसी भी विश्वविद्यालय पर नजर डाले तो असंतोष का धुंआ उठता दिखेगा। कहीं कुलपति का विरोध है तो कहीं प्रशासनिक व्यवस्था का। हाल ही में विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में कुलपति का इतना विरोध हुआ कि राज्य सरकार को धारा-52 के तहत कार्रवाई करनी पड़ी। वहां कुलपति के प्रति बढ़ते विरोध का यह आलम था कि छात्र संगठनों ने तो बाकायदा उनकी प्रतीकात्मक अर्थी तक निकाल दी थी। शिक्षक संघ से लेकर कर्मचारियों तक सभी ने विश्वविद्यालय के कामकाज को पूर्ण रूप से बंद कर रखाथा। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में भी कुलपति को लेकर विरोध के स्वर कुछ ज्यादा ही मुखर हो गए हैं। अलबत्ता, यहां अभी उज्जैन जैसे हालात नहीं हैं। वहीं, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में कुलपति पर नित नए आरोप लग रहे हैं। कमोवेश यह हाल प्रदेश के सभी विश्वविद्यालयों का है।
भोज के कुलपति निशाने पर
21 अप्रैल 2009 को भोज मुक्त विश्वविद्यालय में कुलपति बनाए गए एस के सिंह ने पद संभालते ही गड़बड़ी शुरू की। उन्होंने अपने गृह क्षेत्र लखनऊ की एक प्रिटिंग कंपनी इंफोलिंक को उपकृत करने सभी नियमों को ताक पर रख दिया। श्री सिंह को इस कंपनी को प्रिटिंग का ठेका देने में इतनी जल्दबाजी थी कि उन्होंने पहले इससे ठेके का अनुबंध किया और फिर औपचारिकताओं की पूर्ति के लिए पंद्रह दिन बाद निविदाएं बुलाई गईं। निविदा आमंत्रण पर आधा दर्जन कंपनियों के प्रस्ताव विश्वविद्यालय को मिले लेकिन ठेका पूर्व में किए गए अनुबंध के मुताबिक इंफोलिंक को ही मिला। करीब तीन साल के लिए हुए ठेके में कंपनी को दस लाख रुपए का भुगतान भी अग्रिम कर दिया गया। मामले का खुलासा होने पर उन्होंने आरोप विश्वविद्यालय के परीक्षा नियंत्रक पर मढऩे की कोशिश की। लेकिन कलई अंतत: खुल ही गई।
बार-बार मिल रही शिकायतों के बाद राजभवन ने प्रो. सिंह की कार्यशैली एवं उन पर लगे आरोपों की जांच कराने का निर्णय लिया है। प्रो.सिंह के खिलाफ राजभवन को 50 से अधिक बिंदुओं पर अलग-अलग शिकायतें मिली हैं। युवक कांग्रेस के नितिन सक्सेना ने कुलपति के खिलाफ शिकायत की थी। इसमें लखनऊ की इंफोलिंक को मूल्यांकन और परीक्षा परिणाम तैयार करने का काम देने का मामला भी था। इसके अलावा 125 नियुक्तियों, एक लाख रूपए से अधिक का पेट्रोल सालभर में खर्च करने जैसी गंभीर शिकायतें हैं। इनमें से कुछ मामलों में लोकायुक्त में भी शिकायत हुई है। विवि से सेवाएं समाप्त किए जाने पर कर्मचारी अनिल राय ने भी कुलपति की अनियमितताओं की तथ्यात्मक शिकायत राजभवन में की थी। जिससे प्रो.एसके सिंह की मुश्किलें लगातार बढ़ती जा रही हैं। एक ओर राज्य आर्थिक अपराध अन्वेषण ब्यूरो श्री सिंह के खिलाफ दर्ज प्रकरण में दस्तावेजों के लिए चार-चार पत्र विवि को भेज चुका है।
प्रो.एसके सिंह पर आरोप
गोपनीय प्रश्न पत्र मुद्रण, डिग्री मुद्रण एवं परीक्षाफल बनाने के कार्य अवैध रूप से आवंटित, परीक्षाफल कार्य संबंधी ओएमआर शीट का अवैध मुद्रण, अप्रैल 09 से दैनिक वेतन, मानदेय, दैनिक वेतन पर कार्यभारित कर्मचारियों को अवैध रूप से रखना, विवि के शिक्षा विभाग में अवैध रूप से प्रतिनियुक्ति पर शिक्षकों की नियुक्ति,प्रतिनियुक्ति पर अवैध रूप से अधिकारियों की पदस्थापना, सिम व पुस्तक लेखन, अवैध रूप से सेवानिवृत्तों की नियुक्ति ,निविदा शर्तो में अवैध संशोधन, बिना निविदा के सामग्री क्रय, विवि के शिक्षा विभाग में अवैध नियुक्तियां यथावत रखकर अवैध लाभ देना, आरक्षित पदों के विरूद्ध अवैध नियुक्तियां, कुलपति को सुविधाओं संबंधी अवैध भुगतान, वाहनों में डीजल-पेट्रोल के अवैध भुगतान, आडिटोरियम निर्माण के आर्किटेक्ट की अवैध नियुक्ति, वर्ष 2010-11 में प्रवेश आनलाइन कर प्रवेश मार्गदर्शिका बिना जरूरत के मुद्रण कराकर विवि को आर्थिक क्षति करना, नियम विरूद्ध आवास आवंटन, अंकसूची के अवैध मुद्रण, अवैध रूप से जारी आदेशों के विरूद्ध देयकों के लंबित भुगतान, अवैध फोटोकापी, सलाहकारों की अवैध नियुक्ति, परीक्षा विभाग में पदस्थ कर्मचारियों द्वारा अवैध रूप से विवि की परीक्षा देना।
भोज मुक्त विश्वविद्यालय में 2004 से 2009 की अवधि तक कुलपति पद पर रहे कमलाकर सिंह पर इस विश्वविद्यालय में भवन निर्माण में घोटाले और अनियमितताओं के आरोप भी लगे हंै। इस मामले में राज्य के आर्थिक अपराध अनुसंधान ब्यूरो ने 18 मई 2010 को जिला अदालत में चालान भी पेश किया है। भोपाल के शासकीय महाविद्यालयों में व्याख्याता, सहायक प्राध्यापक और प्राध्यापक पदों पर कार्य करने के बाद प्राणी विज्ञान में पीएचडी की उपाधि के बल पर कमलाकर ने अपने राजनैतिक संपर्कों का लाभ लेते हुए भोपाल विश्वविद्यालय में कुलसचिव का पद प्राप्त किया और इसी दौरान उन पर पीएचडी के लिए उनके द्वारा रचित शोध ग्रंथ में पहले से प्रकाशित एक शोध ग्रंथ के कई पन्नों की जश की तश नकल करने का आरोप लगा। जांच के दौरान आरोप सहीं भी पाया गया, लेकिन कमलाकर सिंह अड़े रहे।
मामला उच्च न्यायालय और बाद में सर्वोच्च न्यायालय तक गया जहां न्यायालय ने पीएचडी में नकल के मामले में अंतिम फैसला लेने का अधिकार भोपाल के बरकतउल्ला विश्वविद्यालय की कार्य परिषद को दे दिया। तदानुसार कार्य परिषद ने जांच के बाद कमलाकर की पीएचडी की उपाधि निरस्त कर दी। यहां उल्लेखनीय है कि पीएचडी में नकल का आरोप लगने के कुछ समय बाद कमलाकर सिंह ने बरकतउल्लाह विश्वविद्यालय भोपाल के कुलसचिव पद को असामान्य परिस्थितियों में छोड़ दिया लेकिन कुछ दिन बाद ही वे भोज मुक्त विश्वविद्यालय के कुलपति बना दिए गये। उनके कार्यकाल में विश्वविद्यालय के भवन का निर्माण किया जाना था और इसके लिए सरकार की ओर से 25 करोड़ रुपए की राशि स्वीकृत भी की गई थी। कुलपति डॉ. सिंह ने भवन निर्माण और परिसर के विकास कार्य के लिए एक प्रबंधक बोर्ड का गठन किया, जिसके अध्यक्ष वे स्वयं बने। इसके बाद भवन निर्माण में कई अनियमित्ताएं की खबरें भी खुर्खियों में रहीं।
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय
महाकौशल के सात जिलों के एक सैकड़ा से अधिक महाविद्यालयों को सम्बद्धता का आधार देने वाले रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय का काफी उतार-चढ़ाव भरा सफरनामा रहा है। इन दिनों मेडिकल सेक्स स्कैंडल की हौलनाक आग में बुरी तरह झुलस रहे रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय में घपलों-घोटालों का काला इतिहास रहा है। मौजूद कांड समूची आंतरिक और बाह्य व्यवस्था का पोस्टमार्टम करने की आवश्यकता पर बल दे रहा है। कभी पुनर्मूल्यांकन घोटाला तो कभी फर्जी अंकसूची कांड, कभी नियमितीकरण घोटाला तो कभी पदोन्नतियों में गड़बड़झाला, कभी निर्माण में घपलेबाजी तो कभी पेपर आउट करने-कराने और गैसिंगबाजी का गोरखधंधा। विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. राम राजेश मिश्रा के कार्यकाल में हुए इस गोरखधंधे ने विश्वविद्यालय की गरिमा को तार-तार कर दिया है। इस विश्वविद्यालय में चलाए जा रहे डेंटल, डीडीएस और एमबीबीएस पाठ्यक्रमों पर भी उंगली उठी है।
रादुविवि के तराजू में पैसा हमेशा टैलेंट पर भारी रहा। यहां तो बस एक जुमला चलता आया है- पैसा फेंक, तमाशा देख। इसी के चलते पुनर्मूल्यांकन जैसे घोटालों को हवा मिलती आई। फलस्वरूप पिछड़ गए प्रतिभाशाली छात्रों बृजेन्द्र मरकाम व पूनम गुप्ता की आत्महत्या जैसे दर्दनाक वाकये देखने को मिले। अपनी मेहनत की दम पर देखा गया उज्जवल भविष्य का ख्वाब चकनाचूर होने का सदमा वे झेल नहीं सके। दिलचस्प बात तो ये रही कि वे दोनों जिन साथियों को ट्यूशन देते थे वे ले-देकर प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो गए और ये आश्चर्य किन्तु सत्य की तर्ज पर फेल!
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविघालय में ब्रज किशोर कुठियाला की ताजपोशी 19 जनवरी 2010 को हुई और उसी दिन से विश्वविद्यालय में नई परम्पराएं गढ़ी जाने लगीं। इसे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि यहां ऐसे शख्स को कुलपति जैसा महत्वपूर्ण पद सौंप दिया गया है, जो जालसाजी और धोखाधड़ी कर यहां तक पहुंचा है। इन पर अपात्रों को संरक्षण देने के अलावा दस्तावेजों में गलत जानकारी देने के भी आरोप लग चुके हैं। इतना ही नहीं, इनके कारनामों के विरुद्ध कोर्ट में याचिका भी विचाराधीन है। देश के एकमात्र पत्रकारिता विश्वविद्यालय का कुलपति पद हथियाने के लिए कुठियाला ने अपना वामपंथी चोला उतार फेंका और संघ की शरण में चले गए। अपने आपको संघी साबित करने के लिए संघ की शाखा में भी जाना शुरू कर दिया है। कुठियाला पर अपने एक चहेते छात्र को भी सीधे नियुक्ति देने के आरोप भी लगे। माखनलाल विश्वविद्यालय में पदस्थापना के साथ ही कुठियाला विवादों में घिरे रहे पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्र पाल सिंह से भी इनकी नहीं पटी। कुठियाला ने मौजूदा सत्र में 14 नए पाठ्यक्रम शुरू कराए हैं। पहले से चल रहे छह पाठ्यक्रमों की यह स्थिति है कि इनमें हर साल करीब 250 छात्र प्रवेश लेते हैं, किंतु पढ़ाई पूरी करने के बाद इनमें से आधे भी नौकरी नहीं पा पाते हैं। ऐसी स्थिति में संचार परंपरा और अध्यात्म प्रबंधन जैसे पाठ्यक्रम पढऩे वाले छात्र नौकरी के लिए किसका दरवाजा खटखटाएंगे, यह सवाल है।
तानाशाही पूर्ण व्यवहार
व्यवहार में तानाशाही, धमकी, धौंस-धपट, फूट डालने, लोगों को आपस में लड़वाने, झूठी कार्यवाही करने, मनमानी करने, दबाव डालकर नस्तियों पर हस्ताक्षर करने, बात-बात में सरकार के उनके साथ होने की धमकी देने, सभी को डरा-धमका कर पूरी तरह से अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास करना।
बरकतउल्ला विश्वविद्यालय जो कुलपति बना, वो निपटा...!
बरकतउल्ला विश्वविद्यालय में जो कुलपति बना, वो ही निपटा! इसकी अभी तक की कहानी तो कुछ ऐसी ही है। कभी मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान को स्वर्णपदक देने वाला यह विश्वविद्यालय कुलपति की घेराबंदी से लेकर बदसलूकी और ऐसी कितनी ही कलंकित घटनाओं का गवाह रहा है। यहां कुलपति औसत डेढ़ से दो साल ही रह पाते हैं, जबकि कुलपति का कार्यकाल चार साल का होता है। बारह सालों में नौ कुलपति यहां हो चुके हैं। दिलचस्प यह कि हर कुलपति को भ्रष्टाचार में घिरकर इस्तीफा देना पड़ा या उन्हें हटा दिया गया। प्रो. केसी नायर, प्रो. आईएस चौहान, प्रो.एमएस सौढा, डा.संतोषकुमार श्रीवास्तव, प्रो. हर्षवर्धन तिवारी, प्रो. वाच्छानी, डा. रामप्रसाद, आरएस सिरोही, भूपालसिंह, रवींद्र जैन सहित कितने ही कुलपति आए और गए। इसके अलावा खास कुछ न कर सके।
वर्तमान में प्रदेश की पहली महिला कुलपति डॉ. निशा दुबे विश्वविद्यालय को सही पटरी पर लाने की जद्दोजहद कर रही है। इस स्वर्णिम विश्वविद्यालय की कलंकित साख को सुधारने की राह आसान नहीं है, लेकिन पहली महिला कुलपति होने के नाते कुछ उम्मीदें जरूर जगी थी लेकिन वे भी गड़बडिय़ों के जाल में फंस गर्इं। राज्य सरकार ने बरकतउल्ला विश्वविद्यालय की कुलपति प्रो. निशा दुबे के कार्यकाल में हुई गड़बडियों की जांच की सिफारिश की है। इसके लिए सरकार की ओर से राजभवन को लिखे गए पत्र में कुलाधिपति के विशेषाधिकार के तहत धारा 10 (1) में अनियमितताओं की जांच कराने की मांग रखी है। विधायक आरिफ अकील ने मंत्री को कुलपति की अनियमितताओं के सिलसिले में लगातार पत्र लिखे थे। इसमें नियमों के विपरीत स्वयं का वेतन निर्धारण करने, कॉलेजों की मान्यता में अनियमितता करने और कार्यपरिषद सदस्यों की आपत्ति के बावजूद कनिष्ठ प्रोफेसर को कुलाधिसचिव (रेक्टर) नियुक्त करने की शिकायत की गई थी। शिकायतों की जांच के लिए उच्च शिक्षा विभाग ने राजभवन सचिवालय को चिट्टी लिखी है। चिट्टी 24 जनवरी-11 को भेजी गई है। इसमें मप्र विश्वविद्यालय अधिनियम 1973 की धारा 10 (1) के अंतर्गत जांच की सिफारिश की गई है। बीयू में गड़बड़ी की शिकायतें राजभवन को भी मिल रही हैं। राजभवन का मानना है कि विवि में हालात बेकाबू हो गए हैं। प्रवेश, परीक्षा और डिग्री जैसी परेशानियों को लेकर छात्रों ने राजभवन में शिकायत की है। विवि में आए दिन धरने-प्रदर्शन हो रहे हैं। कॉलेजों की मनमानी पर अंकुश नहीं है। राजभवन ने बाकायदा चिटी लिखकर कुलपति का ध्यान अनियंत्रण की ओर दिलाया है। इस विश्वविद्यालय ने सोलह दिन में पीएचडी उपाधि देने का कीर्तिमान भी रचा है।
विक्रम विश्वविद्यालय
विक्रम विश्वविद्यालय में 1957 में उज्जैन, मध्य प्रदेश में स्थापित किया गया था। वर्तमान समय में यहां के कुलपति प्रोफेसर टी.आर. थापक हैं। पिछले कुछ अरसे से यह विश्वविद्यालय भी विवादों का केंद्र बना हुआ है। विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. शिवपाल सिंह अहलावत ने शुल्क में कमी के नाम पर तमाम छात्रों के साथ छलावा किया। उन्होंने फीस कटौती की मौखिक घोषणा तो की लेकिन धरातल पर कुछ नहीं किया। नतीजतन मामला अनिश्चितता के घेरे में है। अहलावत के कार्यकाल में हुई बेतहाशा शुल्क वृद्धि ने छात्र संगठनों को विरोध प्रदर्शन के मजबूर कर दिया था लेकिन भारी विरोध के बाद शुल्क वृद्धि वापस लेते हुए डॉ. अहलावत ने 30 प्रतिशत वृद्धि वापस लेने की घोषणा की थी।
डॉ. अहलावत ने मात्र मौखिक घोषणा कर छात्र संगठनों के विरोध को शांत करने का प्रयास किया था। डॉ. अहलावत के जाने के बाद छात्र संगठन एक बार फिर शुल्क वृद्धि मुद्दे को लेकर सामने आने की तैयारी में हैं।
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय
देवी अहिल्या विश्वविद्यालय 1964 में स्थापित हुआ था। सन 1988 में देवी अहिल्या बाई होल्कर की स्मृति में विश्वविद्यालय का नाम बदल कर देवी अहिल्या विश्वविद्यालय कर दिया गया। मां अहिल्या के नाम से इंदौर शहर की पहचान है। विश्वविद्यालय भी इसी नाम से जाना जाता है, लेकिन 45 साल बाद भी इस विश्वविद्यालय को महिला कुलपति नहीं मिल पाई हैं। विवि के इतिहास में अभी तक 21 कुलपति हुए हैं, लेकिन कभी महिला प्रोफेसर को प्रभारी कुलपति के भी योग्य नहीं समझा गया। हां, कभी-कभी कुलपति की इच्छा पर स्टेपनी के तौर पर 1-1 दिन के लिए कुछ महिला प्रोफेसरों को अपने आगे कुलपति लगाने का मौका मिला है। स्थाई कुलपति प्रदेश में केवल बरकतउल्ला विवि के पास डॉ. निशा दुबे के रूप में हैं। इन्दौर विश्वविद्यालय के कुलपति रिटायर्ड आईएएस डॉ. भागीरथ प्रसाद ने कार्यकाल पूरा होने से पहले पद छोड़ा था, कांग्रेस की टिकट पर लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए, लेकिन जनता ने उन्हें रिजेक्ट कर दिया और वे चुनाव हार गए।
आरजीपीव्ही
राजीव गांधी प्रोद्यौगिकी विश्वविद्यालय के प्रशासनिक ढांचे को देखा जाए तो हम पात हैं कि यह विश्वविद्यालय प्रभारी अधिकारियों के हवाले है। आरजीपीव्ही में कुल सचिव- रजिस्ट्रार, अधिष्ठाता छात्र कल्याण, उप कुलसचिव शैक्षणिक, उप कुलसचिव प्रशासनिक सभी अधिकारी प्रभारी हैं। कोई लगभग चार वर्ष से तो कोई दस वर्षों से इन पदों पर प्रभारी के रूप में नियुक्ति है। आरजीपीव्ही एक तकनीकी विश्वविद्यालय है किंतु कुलपति सहित इसके शीर्ष पदों कुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, अधिष्ठाता छात्र कल्याण आदि पदों पर गैर तकनीकी अधिकारी पदस्थ हैं। जबकि विश्वविद्यालय अधिनियम में भी तकनीकी योग्यता प्राप्त अधिकारियों की नियुक्ति का प्रावधान है। उपधारा-2 या 6 कुलपति चयन एवं नियम 17 और 19। मुकेश पाण्डे उप कुलसचिव शैक्षणिक विगत 10 वर्षों से नियम विरुद्ध उप कुलसचिव के पद पर पदस्थ हैं। साथ ही विगत 10 वर्षों में निजी कॉलेजों में निरीक्षण एवं मान्यता का कार्य संपादित कर रहे हैं। निरीक्षण दल के सदस्य ना होते हुए भी समन्वयक के नाम पर निरीक्षण में शामिल रहते हैं साथ ही विश्वविद्यालय से वर्षों से इसकी यात्रा एवं दैनिक भत्ता भी वसूल कर रहे हैं। कुलपति पीयूष त्रिवेदी की पत्नी श्रीमती वंदना त्रिवेदी टीच फार इंडिया सोसाइटी की सदस्य सचिव हैं। जिसके 5 विभिन्न कॉलेज आरजीपीव्ही के अंतर्गत हैं। ऐसे में कॉलेज के प्रोफेसर्स एवं अध्यापकों, छात्राओं में भारी आक्रोश उत्पन्न हो रहा हैै। साथ ही कॉलेज के संचालक उक्त कुलपति प्रो.पीयूष त्रिवेदी को हटाने की मांग कर रहे हैं।
पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय अभी महर्षि पाणिनि संस्कृत एवं वैदिक विश्वविद्यालय पूरी तरह आकार ले भी नहीं सका है और इसमें अनियमितता सामने आने लगी है। विश्वविद्यालय कार्यपरिषद के एक सदस्य ने टैक्सी किराए का फर्जी बिल प्रस्तुत कर भुगतान प्राप्त किया। विश्वविद्यालय कुलपति डॉ. मोहन गुप्त ने प्रकरण में विश्वविद्यालय के उपकुलसचिव से जांच करवाने के उपरांत अपने पत्र में प्रतिवेदित किया है।
कुलपति अति सम्मान जनक ओहदा है जिसे आमजन से खास लेना देना नहीं, जहां शिक्षाविद वैज्ञानिक या प्रसाशनिक अधिकारी नियुक्त हुआ करते रहे हैं, यह उस संप्रदाय के प्रमुख हुआ करते थे जहां सरकारें समुचित शिक्षा के लिए उक्त पद पर नियुक्ति हुआ करती थी, पर जब से शिक्षा का निजीकरण हुआ है तब से अधिकांश कुलपति यानि ऐसे वैसे कुलपति के रूप में आने लगे और जब ये आये तो इनके इर्द गिर्द ऐसे ही लोग तमाम बुराईयाँ वाले शिक्षक छात्र दोनों के नेता और विश्वविद्यालय के महान कर्मचारी जिनके कन्धों पर पूरा विश्वविद्यालय होता है। कई सालों से मैं देख रहा हूं कि कुलपतियों की एकमात्र योग्यता राजनीतिक नेतृत्व से निकटता रह गई है। इसके कुछ अपवाद हो सकते हैं, लेकिन आम तौर पर कुलपति का नामांकन और चयन प्रक्रिया महज एक स्वांग में तब्दील हो गई है। सिफारिशी कुलपतियों ने विश्वविद्यालयों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया है। देश के अधिकतर विश्वविद्यालयों में कमोबेश यही आलम बरकरार है। चतुर्थ श्रेणी की नियुक्तियों से लेकर अफसरों और कुलपतियों की नियुक्तियों में हर विश्वविद्यालय के एक जैसे हाल हैं। दूसरी बात है कि कुलपतियों के चयन राजनैतिक दलों की दखलंदाजी भी हावी रहती है। ऐसे में किसी साफ सुथरे व्यक्ति के चयन की उम्मीदवारी कमजोर हो जाती है। एक समय था जब किसी विश्वविद्यालय के कुलपति से मुलाकात बड़ी प्रेरणादायी होती थी। आप खड़े होकर पूरे मान-सम्मान के साथ उन्हें सुनते थे। दुर्भाग्य से अब ऐसा नहीं है। वजह जो भी हो, कुलपति अब प्रेरित नहीं करते। ईमानदारी से कहा जाए तो आज एक हद तक स्थिति यह है कि आप कुलपति से मुलाकात करने के बजाए उनसे बचना चाहेंगे। कुलपति के रूप में एक संस्था में पतन का सिलसिला कुछ समय पहले शुरू हुआ और आज की तारीख में इस संस्था को लगा रोग संभवत: आखिरी चरण में प्रवेश कर गया है। राजनीतिक निकटता ही एकमात्र मापदंड नहीं है। आप कितना खर्च कर सकते हैं, इससे भी अंतिम फैसला प्रभावित होता है।

No comments:

Post a Comment