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भेड़ाघाट

Tuesday, March 21, 2017

बुजुर्ग बेहाल, पेंशन की मलाई से नेता हो रहे लाल

हर माह नकारापन की भेंट चढ़ रही 1,03,20,78,000 रकम
भोपाल। 1,13000 करोड़ रुपए के कर्ज में डूबे मप्र के प्रत्येक व्यक्ति पर 15,000 रूपए से अधिक का कर्ज है। लेकिन विसंगति यह देखिए कि कर्ज में डूबे प्रदेश में जहां नेता कई पेंशनों की मलाई खाकर लाल हो रहे हैं, वहीं बुजुर्ग 150 से 500 रूपए तक की पेंशन पाने के लिए बेहाल हो रहे हैं। यूनाइडेट नेशन्स पॉपुलेशन फंड, एज वॉच इंडेक्स, डब्ल्यूएचओ, फोब्र्स, ब्लूमबर्ग, टाइम, पीआरआई की रिपोर्ट के अनुसार वैसे तो पूरे भारत में बुजुर्गों की स्थिति दयनीय है, लेकिन मप्र में स्थिति और भी विकट है। प्रदेश में वर्तमान समय में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना के तहत 13,76,104 बुजुर्गों को 150 से 500 रूपए तक की पेंशन मिल रही है। यूनाइडेट नेशन्स पॉपुलेशन फंड की एक रिपोर्ट के अनुसार एक बुजुर्ग को कम से कम 1,000 रूपए मासिक पेंशन मिलनी चाहिए। यानी मप्र के बुजुर्गों के हिस्से का करीब 1,03,20,78,000 रूपए हर माह अधिकारियों और जन प्रतिनिधियों के नकारापन की भेंट चढ़ रहा है। दरअसल, मप्र सरकार प्रदेश के बुजुर्गों के लिए न तो केंद्रीय योजनाओं का लाभ प्राप्त कर पा रही है और न ही अपनी योजनाओं का विस्तार कर पा रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि जहां अन्य प्रदेश के बुजुर्ग सरकारी योजनाओं में मिलने वाली पेंशन से अच्छी जिंदगी गुजार रहे हैं, वहीं मप्र के बुजुर्ग 150 से 500 रूपए तक की पेंशन भी पाने के लिए बेहाल हो रहे हैं। यह स्थिति तब है जब पिछले एक दशक से मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान लगभग हर मंच पर गरीब, बेसहारा, विधवा, दिव्यांग और निराश्रित लोगों के लिए खजाना खोलने की बात कर रहे हैं। आलम यह है कि जन प्रतिनिधियों और अफसरों के नकारापन के कारण प्रदेश के बुजुर्गों को सबसे कम पेंशन मिल रही है। 150 रूपए की बढ़ोतरी का ढिंढोरा हरियाणा और दिल्ली (1,400) से अभी तक करीब दस गुना कम सामाजिक सुरक्षा पेंशन देती आ रही मप्र सरकार ने 20 सितंबर को उसे दोगुना (300) क्या किया इसका सरकार और भाजपा संगठन ने खुब ढिंढोरा पीटा। जबकि बढ़ोत्तरी के बाद भी मप्र में सामाजिक क्षेत्र में दी जाने वाली पेंशन देशभर में सबसे कम है। हरियाणा, महाराष्ट्र, दिल्ली, आंध्रप्रदेश, झारखंड, बिहार, गुजरात, छत्तीसगढ़, पंजाब, राजस्थान समेत अन्य राज्यों में मप्र से तक पेंशन दी जाती है। मप्र सरकार पर भी इनकी पेंशन बढ़ाने का दबाव था। प्रदेश में दी जाने वाली पेंशन की राशि इतनी कम है जिससे दो वक्त रोटी की व्यवस्था करना भी मुश्किल है। सरकार की इस घोषणा का फायदा सामाजिक सुरक्षा के दायरे में आने वाली प्रदेश के 32 लाख लोगों में से 19 लाख को ही होगा। इससे खजाने पर सालाना सवा दो सौ करोड़ रुपए का अतिरिक्त वित्तीय भार आएगा, वहीं पहली बार वृद्धाश्रम में रहने वालों को भी पेंशन के दायरे में लाने पर सहमति दी गई है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या इससे प्रदेश के बुजुर्गों, विधवा, दिव्यांग और निराश्रित लोगों का भला हो सकेगा? आज जहां हरियाणा और दिल्ली में 1400 रूपए, आंध्रप्रदेश 900, राजस्थान 850, महाराष्ट्र 800, झारखंड 800 और पंजाब में 700 रूपए सामाजिक सुरक्षा पेंशन दी जा रही है, साथ ही वहां की सरकारों ने केंद्रीय योजनाओं का भी भरपूर लाभ अपने यहां के बुजुर्गों, विधवा, दिव्यांग और निराश्रितों को दिलाया है, वहीं मप्र सरकार 300 रूपए पर ही ढिंढोरा पीट रही है। हद तो यह देखिए की विधायकों की मांग पर उनके वेतन-भत्तों में बढ़ोत्तरी करने में आगे रहने वाली पर सरकार में गरीबों के 22 साल के संघर्ष के बाद पेंशन बढ़ाया भी तो 150 रूपए। अपनी पेंशन बढ़ाने और हर महिने दिए जाने की मांग को लेकर ये लोग राजधानी भोपाल की सड़कों पर कभी कटोरा लेकर, कभी सूखी रोटी या कभी घास खाते प्रदर्शन करते दिखते रहते हैं। पिछले 22 साल से पेंशन बढ़ाने की मांग करते-करते सैकड़ों लोग मौत के मुंह में समा गए, लेकिन सरकार का मन नहीं पसीजा भी तो ऐसा की सुनकर भी शर्म महसूस हो रही है। राज्य में इस समय लगभग 25 लाख पेंशनर्स ऐसे हैं जिन्हें रोज 10 रुपए से कम मिलता है। नौ लाख लोगों को तो प्रतिदिन पांच रुपए (150 रुपए मासिक) ही गुजारे के लिए मिलते हैं। यह स्थिति इसलिए है क्योंकि केंद्र सरकार से मिलने वाली पेंशन की धनराशि में राज्य सरकार अपना कोई हिस्सा नहीं मिलाती, जबकि अन्य राज्यों में ऐसा किया जाता है। मप्र डिलेवरी सिस्टम में भी अन्य प्रदेशों से पीछे है। केंद्र से पैसा मिलने के बाद भी राज्य सरकार उसे लाभार्थी तक पहुंचाने में चार से छह माह लगा देती है। गैस पीडि़त निराश्रित पेंशन भोगी संघर्ष मोर्चा के अध्यक्ष बालकृष्ण नामदेव कहते हैं कि जरूरतमंदों की पेंशन बढ़ाने और उसका नियमित भुगतान करने की मांग हम वर्षों से कर रहे हैं लेकिन सरकार ने न जाने किस हिसाब से पेंशन में 150 रूपए की बढ़ोत्तरी की है। बुजुर्गों की बदहाली की चिंता नहीं मप्र में अंतरराष्ट्रीय वृद्ध दिवस अथवा अंतरराष्ट्रीय बुजुर्ग दिवस अथवा अंतरराष्ट्रीय वरिष्ठ नागरिक दिवस मनाने की तैयारी जोरों पर चल रही है। यह दिवस प्रत्येक वर्ष 1 अक्टूबर को मनाया जाता है। इस अवसर पर अपने वरिष्ठ नागरिकों का सम्मान करने एवं उनके सम्बन्ध में चिंतन करने की परंपरा है। सो इस बार भी यह परंपरा निभाई जाएगी। लेकिन बुजुर्गों की बदहाली की चिंता किसी को नहीं है। बात चाहे जितनी हैरतअंगेज लगे लेकिन तथ्य यही है कि मप्र सहित देश में एक तरफ बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है तो दूसरी तरफ उनकी मदद के लिए किए जा रहे सरकारी प्रयासों में कमी आई है। बुजुर्गों की हालत पर हाल में जारी एक सरकारी रिपोर्ट के मुताबिक देश में साठ साल और इससे ज्यादा उम्र के लोगों की आबादी 2001 के 7.4 फीसदी से बढ़कर 2011 में 8.6 फीसदी हो गई है लेकिन बुजुर्गों की मदद के लिए चलाए जा रहे इंटीग्रेडेट प्रोग्राम फॉर ओल्डर पर्सन्स के तहत किए जाने वाले प्रयासों के दायरे में बीते तीन सालों में कमी आई है। 2012-13 में इस कार्यक्रम के तहत केंद्र सरकार ने 296 स्वयंसेवी संगठनों के 496 परियोजनाओं को मदद दी और लाभार्थियों की संख्या 30,775 रही जबकि 2014-15 केवल 248 स्वयंसेवी संस्थाओं के 341 परियोजनाओं को मदद मिली और लाभार्थियों की संख्या 40 फीसदी कम होकर 18,225 रह गई। 2013-14 में इंटीग्रेडेट प्रोग्राम फॉर ओल्डर पर्सन्स के अंतर्गत 255 स्वयंसेवी संस्थाओं के 413 परियोजनाओं को मदद दी दी गई थी और लाभार्थियों की तादाद 27,913 थी। गौरतलब है कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय 1992 से यह कार्यक्रम चला रहा है। कार्यक्रम के अंतर्गत स्वयंसेवी संगठनों, पंचायती-राज संस्थाओं और स्थानीय निकायों के हाथ मजबूत किए जाते हैं ताकि वे बुजुर्ग लोगों को आश्रय, भोजन, चिकित्सा सुविधा मुहैया कराएं। बुजुर्गों की हालत बयान करती सरकारी रिपोर्ट संकेत करती है कि देश के ज्यादातर बुजुर्ग सरकारी सहायता की कमी के कारण आर्थिक रुप से या तो अपने परिवार-जन के आसरे हैं या आराम की उम्र में भी अपना खर्च चलाने के लिए कोई ना कोई काम करने को मजबूर हैं। रिपोर्ट के मुताबिक जीवन-निर्वाह के लिए दूसरों पर निर्भर सबसे ज्यादा बुजुर्ग पुरुष (43 प्रतिशत) केरल में है और सबसे कम (21 प्रतिशत) जम्मू-कश्मीर में। वहीं मप्र में ऐसे बुजुर्गों की संख्या 37 प्रतिशत है। जीवन-निर्वाह के लिए दूसरों पर निर्भर बुजुर्ग महिलाओं की सबसे ज्यादा संख्या(81 फीसदी) असम में है और सबसे कम (44फीसदी) हरियाणा में, जबकि मप्र में 65 फीसदी हैं। नेशनल सैंपल सर्वे की एक रिपोर्ट(2011) में बताया गया था कि देश के 65 फीसदी बुजुर्ग रोजमर्रा के भरण-पोषण के लिए दूसरों पर निर्भर हैं और बुजुर्गों के सशक्तीकरण के लिए सक्रिय नागरिक संगठन हैल्पेज इंडिया की एक रिपोर्ट(2014) में कहा गया था कि दुव्र्यवहार के शिकार 46 फीसदी बुजुर्ग आर्थिक रुप से दूसरे पर निर्भर होने को अपने साथ होने वाले बुरे बरताव की प्रमुख वजह मानते हैं। यूनाइडेट नेशन्स पॉपुलेशन फंड की एक रिपोर्ट के अनुसार बुजुर्गों के बीच सबसे दयनीय दशा महिलाओं की है। 59 फीसदी बुजुर्ग महिलाओं को वेतन, पेंशन, सूद आदि किसी भी साधन से किसी किस्म की निजी आय हासिल नहीं होती जबकि कुल 26 फीसदी महिलाओं को 12 हजार रुपए सालाना की आय में अपना गुजारा करना पड़ रहा है। यूनाइटेड नेशन्स की इस रिपोर्ट के अनुसार जिन बुजुर्गों महिलाओं के पास निजी आय का कोई साधन नहीं है उनमें 42 प्रतिशत गरीब हैं, 4 प्रतिशत अकेले जीवन व्यतीत करती हैं जबकि 49 फीसदी विधवा हैं। तकरीबन 66 प्रतिशत बुजुर्ग महिलाएं आसरे के लिए पूरी तरह किसी दूसरे पर निर्भर हैं जबकि 21 फीसदी बुजुर्ग महिलाएं गुजारे के लिए आंशिक रुप से किसी पर निर्भर हैं। बुजुर्गों पर सार्वजनिक खर्चे का 1 प्रतिशत से भी कम खर्च वृद्धावस्था पेंशन से संबंधित यूनाइटेड नेशन्स के एक हालिया(2015) आकलन में कहा गया ता कि इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना के तहत बीते सालों में पेंशन पाने वाले बुजुर्गों की संख्या तो बढ़ी है ( 2014 में 1.5 करोड़ बुजुर्ग) लेकिन इस योजना पर सरकार अब भी अपने सार्वजनिक खर्चे का 1 प्रतिशत से भी कम खर्च करती है और केंद्र सरकार या राज्य सरकार के कर्मचारी रह चुकें पेंशन याफ्ता बुजुर्गों की तुलना में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना पर खर्च की जाने वाली रकम आधी से भी कम है। एक रिपोर्ट के मुताबिक देश मे बुजुर्गाों की हालत बेहद खराब है। करीब एक चौथाई बुजुर्गों को अपनी आजीविका चलाने के लिए काम करने को मजबूर हैं। सामाजिक सुरक्षा और वरिष्ठ नागरिकों के लिए चल रही तमाम स्कीमों के बावजूद देश के गांवों में अभी भी दो तिहाई बुजुर्ग रोजी-रोटी कमाने के लिए मजबूर हैैं। जबकि आजीविका कमाने को मजबूर बुजुर्ग महिलाओं की संख्या एक चौथाई से कुछ अधिक है। लेकिन चिंता की बात यह है कि गांव और शहर दोनों इलाकों में आजीविका के लिए मेहनत मजदूरी करने को बुजुर्ग महिलाओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। देश के ग्रामीण इलाकों में मौजूद कुल बुजुर्गों में करीब 66 फीसदी ऐसे हैैं जो पूरी तरह अथवा दिहाड़ी पर अपना जीवन यापन कर रहे हैैं। वहीं मप्र में ऐसे बुजुर्गों की संख्या 67 फीसदी है। बुजुर्गों पर सरकार की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक गांवों में ही बुजुर्गों महिलाओं में करीब 28 फीसदी को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ रहा है, जबकि मप्र में 24 फीसदी बुजुर्ग महिलाओं का अपनी रोजी-रोटी कमानी पड़ रही है। आंकड़े बताते हैैं कि आजीविका कमाने की मजबूरी के मामले में भारत में पुरुष बुजुर्गों के मुकाबले महिलाओं की संख्या तेजी से बढ़ रही है। ग्रामीण भारत में 2001 में पुरुष बुजर्गों में 65.6 फीसदी अपनी रोजी रोटी कमा रहे थे। जबकि ऐसी महिला बुजुर्गों की संख्या 24.9 फीसदी थी। इसी तरह शहरी इलाकों में मेहनतकश बुजुर्गों की संख्या 2001 में कुल बुजुर्गों की 44.1 फीसदी थी और ऐसी महिलाएं नौ फीसदी थी। लेकिन 2011 आते-आते गांवों में मजदूरी करने वाली बुजुर्ग महिलाओं की संख्या 28.4 और शहरों में 11.3 फीसदी पर पहुंच गई। वैसे भी देश में कुल बुजुर्गों की संख्या बढऩे के मामले में भी बीते दो दशकों में महिलाएं पुरुषों से आगे आ गई हैैं। सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि रोजी रोटी के लिए मेहनत मजदूरी पर आश्रित गांव के बुजुर्ग पुरुषों का एक बड़ा हिस्सा पूर्णकालिक तौर पर आजीविका कमाने का काम करता है। 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों के मुताबिक ऐसे बुजुर्गों में 53 फीसदी पूर्णकालिक श्रमिक या मजदूर हैैं। केवल 13.5 पांच फीसदी बुजुर्ग ऐसे हैैं जो आंशिक या दिहाड़ी मजदूर हैैं। काम करने की श्रेणी में लगभग यही अनुपात महिलाओं का भी है। मप्र में तो स्थिति यह है कि बुजुर्गों को काम भी नहीं मिल पा रहा है। भारत में बुजुर्गों की जनसंख्या राज्यवार उत्तर प्रदेश 14.86 प्रतिशत महाराष्ट्र 10.70 प्रतिशत आंध्र प्रदेश 7.97 प्रतिशत पं. बंगाल 7.45 प्रतिशत बिहार 7.42 प्रतिशत तमिलनाडु 7.23 प्रतिशत कर्नाटक 5.57 प्रतिशत मध्यप्रदेश 5.50 प्रतिशत राजस्थान 4.92 प्रतिशत गुजरात 4.60 प्रतिशत केरला 4.03 प्रतिशत ओड़ीसा 3.83 प्रतिशत झारखंड 2.26 प्रतिशत हरियाणा 2.11 प्रतिशत असम 2.00 प्रतिशत ............ वृद्धाश्रम को मिली सहायता आंध्र प्रदेश 51 उड़ीसा 27 तमिलनाडु 25 कर्नाटक 24 पं बंगाल 13 असम 9 महाराष्ट्र 10 मणिपुर 8 उप्र 7 हरियाणा 11 मप्र 2 राजस्थान 2 बिहार 1 दिल्ली 1 मप्र के वृद्धाश्रम भी बदहाल आज के दौर में बुजुर्गों के लिए वृद्धाश्रम वह सुरक्षित स्थान है जहां वे अपने अंतिम समय आराम से बीता सकते हैं। लेकिन विड़बना यह देखिए की मप्र वृद्धाश्रमों के रखरखाव और सुविधाओं को मुहैया कराने में भी पिछड़ा है। मप्र में कुल 59 वृद्धाश्रम हैं। जिसमें से 7 बंद पड़े हैं। जो 52 वृद्धाश्रम संचालित हैं, उनमें 1530 बुजुर्ग रह रहे हैं, जिसमें 802 पुरूष और 728 महिला हैं। प्रदेश के 46 जिलों में स्थित इन वृद्धाश्रमों में से केवल 10 फीसदी की ही स्थिति संतोषजनक है। इसकी मूल वजह है फंड की कमी। दरअसल, मप्र सरकार अपने वरिष्ठ नागरिकों के लिए केंद्र से मिलने वाली सहायता राशि लेने में पिछड़ जाती है। सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, वृद्धाश्रमों के लिए केंद्र सरकार द्वारा पिछले चार वर्षों में राज्यों को जो राशि दी जाती है उसका 71 फीसदी (34 करोड़ रुपए में से 24 करोड़ रुपए) तो पांच राज्य आंध्र प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु , ओडिशा और पश्चिम बंगाल ले जाते हैं जहां भारतीय वरिष्ठ नागरिकों की जनसंख्या के एक-तिहाई (32 फीसदी) लोग रहते हैं। यानि दस करोड़ रूपए में बाकी राज्यों को वृद्धाश्रम चलाने के लिए हिस्सा मिलता है। सरकारी निधीकरण में वृद्धि आश्रम, डे केयर केंद्र और गरीब वरिष्ठ नागरिकों के लिए मोबाइल चिकित्सा इकाइयों के निर्माण एवं रख-रखाव का 90 फीसदी खर्च शामिल है। यह सामाजिक न्याय मंत्रालय के सामाजिक रक्षा ब्यूरो द्वारा प्रबंधित किया जाता है। जहां तक मप्र का सवाल है तो यहां समाजिक न्याय विभाग कभी भी बुजुर्गों की सुविधाओं के लिए केंद्र से अधिक बजट की मांग नहीं करता है। इसका परिणाम यह हो रहा है कि बुजुर्गों की देखभाल के लिए केंद्र से मिलने वाले अनुदान में से जहां आंध्रप्रदेश 25.50 फीसदी रकम लेता है वहीं ओडिशा 13.62 फीसदी। जबकि मप्र 1.25 फीसदी रकम पर ही संतुष्ट हो जाता है। बुजुर्ग आबादी में वृद्धि से सरकार और नागरिक समाज संगठनों पर आवास, भोजन और स्वास्थ्य सेवा प्रदान कराने के अतिरिक्त जिम्मेदारी बढ़ी है। केंद्रीय सहयोग में असमानता बुजुर्गो के लिए केंद्र से मिलने वाले अनुदान में भी असमानता देखने को मिल रही है। उत्तर प्रदेश, भारत का सबसे अधिक आबादी वाला राज्य है और वहां किसी भी राज्य की तुलना में 60 वर्ष से अधिक आयु वाले अधिक बुज़ुर्ग हैं (14.86 फीसदी), लेकिन वृद्धआश्रम के रखरखाव के लिए उत्तर प्रदेश को केंद्र से 3.22 फीसदी से अधिक राशि प्राप्त नहीं हुई है। वहीं आंध्र प्रदेश में 60 वर्ष से अधिक उम्र की लोगों की संख्या 7.97 फीसदी है, परंतु आंध्र प्रदेश को उत्तर प्रदेश की तुलना में 8 गुना अधिक राशि मिली है। तीन दक्षिणी राज्य आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और तमिलनाडु में जहां 60 वर्ष के अधिक आयु के 20.77 फीसदी लोग रहते हैं, चार वित्तीय वर्षों के दौरान आईपीओपी धन राशि 52.16 फीसदी प्राप्त हुआ है। देश भर में, आंध्र प्रदेश में सबसे अधिक आईपीओपी लाभार्थी हैं (5,100)। यह आंकड़े उत्तर प्रदेश के 700 लाभार्थियों से छह गुना अधिक हैं। राशि के विसंगत वितरण से सबसे गरीब और सबसे अधिक आबादी वाले राज्यों को अधिक प्रभावित करता है। 0.7 करोड़ बुज़ुर्ग लोगों के साथ बिहार को राष्ट्रीय कोष का केवल 0.70 फीसदी प्राप्त हुआ है। गौर हो कि वरिष्ठ नागरिकों की आबादी के संबंध में बिहार पांचवें स्थान पर है। राजस्थान में बुज़ुर्गों की 5 मिलियन आबादी है एवं राष्ट्रीय कोष का 1.1 फीसदी ही प्राप्त हुआ है। पीपुल्स एक्शन फॉर सोशल सर्विस के महासचिव बालकृष्ण मूर्ति कहते हैं कि आईपीओपी के तहत कोई भी बजटीय प्रस्ताव, जिला, राज्य और केंद्र सरकार के बीच कई डेस्क के माध्यम से हो कर गुजरता है जो अत्यधिक देरी का कारण बनता है एवं समय पर राशि न उपलब्ध होने के कारण स्वैच्छिक क्षेत्र की मदद करने का सरकार का उद्देश्य फीका रहता है। वह कहते हैं कि इस दौरान जो राज्य अधिक सक्रिय रहता है वह अधिक अनुदान ले जाता है। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में 60 वर्ष से ऊपर के लोगों का अनुपात लगभग समान यानी 5.57 फीसदी और 5.50 फीसदी है। लेकिन पिछले चार वर्ष के दौरान आईपीओपी राशि के 13.88 फीसदी के साथ कर्नाटक को मध्यप्रदेश की तुलना में 13 गुना अधिक राशि प्राप्त हुआ है। इसी अवधि के दौरान मध्यप्रदेश में 1.25 फीसदी आईपीओपी लाभार्थी पाए गए हैं जबकि कर्नाटक में यही संख्या 12 फीसदी है। ओडिशा, जो वरिष्ठ नागरिक आबादी वाले टॉप 10 राज्यों में नहीं है, को पिछले चार वर्षों में वृद्ध आश्रम के लिए दी गई राशि में से 12.53 फीसदी प्राप्त हुआ है एवं लक्षित लाभार्थियों और वित्त पोषित वृद्ध आश्रम, दोनों के ही संबंध में दूसरे स्थान पर है। टॉप 10 वित्त पोषित राज्यों में असम और मणिपुर शामिल हैं जिन्हें सामूहिक रूप से राशि का 10.59 फीसदी प्राप्त हुआ है लेकिन इन दोनों राज्यों में भारत के वरिष्ठ नागरिकों की कुल आबादी में से केवल 2.18 फीसदी ही रहते हैं। वरिष्ठ नागरिकों की सूची में, 4 मिलियन या 0.4 करोड़ बुज़ुर्ग आबादी के साथ गुजरात दसवें स्थान पर है लेकिन पिछले चार वर्षों में बुज़ुर्गों की सहायता के लिए गुजरात को कोई राशि नहीं प्राप्त हुई है। इसी संबंध में केरल 11 वें स्थान पर है एवं 2012-13 और 2014-15 में कोई राशि नहीं मिली है। वृद्धाश्रम के लिए केंद्र से मिलने वाली राशि(करोड़़ में) आंध्रप्रदेश 8.55 कर्नाटक 4.78 तमिनलाडु 4.64 ओडिसा 4.32 पं. बंगाल 2.14 असम 1.84 मणिपुर 1.80 महाराष्ट्र 1.70 उत्तर प्रदेश 1.11 हरियाणा 0.61 उत्तराखंड 0.41 राजस्थान 0.38 मप्र 0.36 बिहार 0.24 दिल्ली 0.22 ............ बुजुर्गों की देखभाल अनुदान के लाभार्थी राज्य 2014-15 आंध्रप्रदेश 25.50 प्रतिशत ओडिसा 13.62 प्रतिशत कर्नाटक 12.00 प्रतिशत पं. बंगाल 6.75 प्रतिशत महाराष्ट्र 4.87 प्रतिशत असम 4.75 प्रतिशत मणिपुर 4.25 प्रतिशत उप्र 3.50 प्रतिशत हरियाणा 2.25 प्रतिशत मप्र 1.25 प्रतिशत राजस्थान 1.25 प्रतिशत झारखंड 1.25 प्रतिशत बिहार 0.75 प्रतिशत दिल्ली 0.75 प्रतिशत बुजुर्ग बेहाल, नेता तीन-तीन पेंशन से मालामाल एक तरफ प्रदेश में 13,76,104 बुजुर्गों सहित सामाजिक सुरक्षा के दायरे में आने वाली प्रदेश की करीब 32 लाख आबादी अपनी पेंशन के लिए परेशान है वहीं रहनुमा बने नेता बतौर पेंशन सरकार से लाखों रूपए प्रत्येक महीने जीम रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाए कायदे के तहत भले ही कोई व्यक्ति एक साथ लाभ के दो पदों पर नहीं रह सकता है। बावजूद इसके मप्र जैसे गरीब राज्य के कई नेता तीन-तीन पेंशन के हकदार बन गए हैं। भाषणों व विचारधारा के विपरीत इनके नाम चौंकाने वाले हो सकते हैं। लेकिन हकीकत यही है, कि भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा, बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष रामकृष्ण कुसमरिया, पूर्व मंत्री भाई राघव जी, पूर्व मंत्री सरताज सिंह और कांग्रेस नेता व कवि नंदराम दास बैरागी (बाल कवि बैरागी) के नाम प्रमुख हैं। इन सभी को सांसद, विधायक और मीसाबंदी रहने की पेंशन सरकार द्वारा प्रदान की जा रही है। वहीं मीसाबंदी से इतर सांसद-विधायक रहने की एक साथ दोनों पेंशन पाने वाले नेताओं की संख्या सैकड़ों में पहुंच जाती है। यही नहीं इस व्यवस्था के तहत गरीबों के लिए बनाई जाने वाली कल्याण नीति को लागू करवाने में अहम भूमिका निभाने वाले मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज ङ्क्षसह चौहान भी आगे चलकर तीन-तीन पेंशनों के हकदार होंगे। यह पात्रता इन्हें मप्र सरकार द्वारा पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए तय सुविधाओं के अलावा होगी। पूर्व मुख्यमंत्री को मप्र में कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला हुआ है। जाहिर है, इसमें बंगला, गाड़ी, दफ्तरी कर्मचारियों के अलावा नौकर-चाकर भी शामिल हैं। यहां बता दें, सिहोर जिले में कुल 37 मीसाबंदियों की सूची में 7वें नंबर पर शामिल मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान 1990 में पहली बार बुधनी विधानसभा क्षेत्र से विधायक बने। वे 1991 में विदिशा संसदीय क्षेत्र से पहली बार सांसद बने थे। अभी यह दो लाख रूपए की पगार ले रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनता को नैतिकता का पाठ पढ़ाते हुए गैस जैसी जरूरी सामान की सब्सिडी छोडऩे की अपील करते है। लेकिन यहां पर तस्वीर उलटी नजर आ रही है। क्योंकि जहां गुजारे के लिए किसी व्यक्ति को रोजाना 10 रूपए भी बड़ी मुश्किल से नसीब होते हैं। वहीं उसी प्रदेश में पेंशन के नाम पर कई नेता 25 सौ रूपए रोज तक पा रहे हैं। यह राशि मप्र में शिक्षा प्राप्त कर शासकीय सेवा में आए राज्य प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों को मिलने वाले मासिक वेतन से भी कही ज्यादा है। व्यवस्था के तहत मीसाबंदियों के लिए सरकार ने गुजारे लिए रोज 833 रूपए जरूरी समझे हैं। हैरानी वाली बात यह भी है कि प्रदेश में वर्तमान सरकार ने अभी तक चार बार (2007, 2010, 2012 और 2016) विधायकों के वेतन-भत्तों में बढोत्तरी कर चुकी। लेकिन इसे भी पर्याप्त नहीं माना जा रहा है। यह उस प्रदेश की हकीकत है जहां लाखों बुजुर्ग रोजाना रात को भूखे पेट सोते हैं। प्रदेश के 70 फीसदी बुजुर्गों को सम्मानपूर्वक जिंदगी जीने के लिए सारी उम्र काम करना पड़ता है। भारत में वृद्धों की सेवा और उनकी रक्षा के लिए कई कानून और नियम बनाए गए हैं। केंद्र सरकार ने भारत में वरिष्ठ नागरिकों के आरोग्यता और कल्याण को बढ़ावा देने के लिए वर्ष 1999 में वृद्ध सदस्यों के लिए राष्ट्रीय नीति तैयार की है। इस नीति का उद्देश्य व्यक्तियों को स्वयं के लिए तथा उनके पति या पत्नी के बुढ़ापे के लिए व्यवस्था करने के लिए प्रोत्साहित करना है। इसमें परिवारों को अपने परिवार के वृद्ध सदस्यों की देखभाल करने के लिए प्रोत्साहित करने का भी प्रयास किया जाता है। इसके साथ ही 2007 में माता-पिता एवं वरिष्ठ नागरिक भरण-पोषण विधेयक संसद में पारित किया गया है। इसमें माता-पिता के भरण-पोषण, वृद्धाश्रमों की स्थापना, चिकित्सा सुविधा की व्यवस्था और वरिष्ठ नागरिकों के जीवन और संपत्ति की सुरक्षा का प्रावधान किया गया है। लेकिन इन सब के बावजूद हमें अखबारों और समाचारों की सुर्खियों में वृद्धों की हत्या और लूटमार की घटनाएं देखने को मिल ही जाती हैं। वृद्धाश्रमों में बढ़ती संख्या इस बात का साफ सबूत है कि वृद्धों को उपेक्षित किया जा रहा है। हमें समझना होगा कि अगर समाज के इस अनुभवी स्तंभ को यूं ही नजरअंदाज किया जाता रहा तो हम उस अनुभव से भी दूर हो जाएंगे, जो इन लोगों के पास है। आंकड़े बताते हैं कि कोई भी कानून हमारे समाज में बुजुर्गों की लाठी नहीं बन पा रहे। हमें सख्त कानूनों से ज्यादा जरूरत, बुजुर्गों के प्रति आदर और कोमल भावनाओं की हैं क्योंकि हर व्यक्ति अपने जीवन में कभी न कभी बुजुर्ग जरूर होता है। इसलिए सभी लोगों को अपनी सोच बदलनी होगी और सोच बदलेगी तभी बुजुर्गों का जीवन बदलेगा और पूरा देश बदलेगा।

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