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भेड़ाघाट

Tuesday, March 21, 2017

दूध की कमी से मांसाहारी बन रहा मप्र

12,50,00,00,000 की चरनोई भूमि की बंदरबांट
भोपाल। जिस प्रदेश का भौगालिक क्षेत्रफल 308 हजार वर्ग किमी हो, जहां 8.71 लाख हेक्टेयर पड़त भूमि हो, कृषि भूमि 239.13 लाख हेक्टेयर हो, वन भूमि 8592.5 हजार हेक्टेयर हो और करीब 1.22 लाख हेक्टेयर चरनोई भूमि हो वहां दूध और दुधारू पशुओं की कमी चिंता का विषय है। लेकिन तमाम प्राकृतिक संपदाओं से परिपूर्ण मध्यप्रदेश में सिकुड़ती चरनोई भूमि के कारण दूध की कमी हो रही है वहीं मांस का उत्पादन बढ़ रहा है। दरअसल, विकास ने नाम पर प्रदेश में जमीनों की ऐसी बंदरबांट की गई है कि अफसरों ने रसूखदारों को पड़त और चरनोई भूमि बांट दी है। पिछले एक दशक में प्रदेश में करीब 25,000 एकड़ चरनोई भूमि पर या तो अतिक्रमण हो गया है या फिर रसूखदारों को आवंटित कर दी गई है। आलम यह है कि राजस्व रिकार्ड में तो करीब 12,50,00,00,000 रूपए की 25,000 एकड़ चरनोई भूमि दर्ज है लेकिन मौके पर वह गायब है। मप्र विधानसभा के बजट सत्र में पेश आर्थिक सर्वेक्षण ने प्रदेश में असंतुलित विकास की पोल खोल दी है। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, सोया स्टेट कहे जाने वाले मप्र में मांस और अंडे का उत्पादन बढ़ रहा है और दूध के उत्पादन में लगातार गिरावट आ रही है। इसकी मुख्य वजह है पशुपालन का महंगा होना। प्रदेश भर में चरनोई भूमि विकास की भेंट चढ़ रही है। इससे दुधारू पशुओं के लिए चारे की कमी दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। अगर हम 3.63 करोड़ (29.9 करोड़ देशभर में) मवेशियों के लिए चारे की आपूर्ति में वृद्धि नहीं कर पाए तो संभवत: 4 साल बाद यानी 2021 में हमें दूध का आयात करना पड़ सकता है। 22,000 गांवों में नहीं बची चरनोई भूमि मार्च 2010 में विधानसभा में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने यह आश्वासन दिया था कि प्रदेश में यदि किसी कलेक्टर ने किसी व्यक्ति के लिए चरनोई भूमि की अदला बदली की है तो ऐसे मामलो की जांच कर उसे निरस्त किया जाएगा। लेकिन आज 7 साल बाद स्थिति यह है कि प्रदेश के 54,903 गांवों में से करीब 22,000 गांवों में चरनोई भूमि ही नहीं बची है। मध्य प्रदेश भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा 237 (1) के तहत चरनोई भूमि को प्रथक रखा जाना है और इसपर शासन का अधिकार रहता है। लेकिन मुख्यमंत्री के आश्वासन को राजस्व अमले ने गंभीरता से नहीं लिया था क्योंकि प्रदेश में चरनोई भूमि की इस कदर बंदरबांट हुई है कि दुधारू पशु पालने की जगह अब लोग मुर्गी, बकरी, सुअर आदि पालने लगे हैं। इससे प्रदेश में अंडों और मांस का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है। आर्थिक सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2015-16 के दौरान मांस का उत्पादन 18.64 प्रतिशत जबकि अंडे के उत्पादन में 22 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। दूसरी ओर, दूध का उत्पादन घटा है। सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2014-15 के दौरान मांस उत्पादन 59 हजार मीट्रिक टन था जो 2015-16 में बढ़कर 70 हजार मीट्रिक टन हो गया। इसी तरह 144.14 करोड़ अंडों का उत्पादन हुआ। यह पिछले वर्ष की तुलना में 22.40 फीसदी ज्यादा है। हैरानी की बात यह है कि मांस और अंडे के उत्पादन में वृद्धि, दूध उत्पादन से अधिक है। इस दौरान प्रदेश में दूध उत्पादन में मात्र 12.70 प्रतिशत की ही वृद्धि हुई है। चरनोई भूमि पूंजीपतियों के नाम प्रदेश में विकास और औद्योगिक करण के नाम पर जमीनों की सबसे अधिक बंदरबांट हुई है। इसमें अधिकांश चरनोई भूमि पूंजीपतियों के नाम कर दी गई है। ज्ञातव्य है कि 2010 में चरनोई भूमि की बंदरबांट के कारण सरकार ने सभी कलेक्टरों से भूमि की अदला बदली के आदेश वापस ले लिए थे और तत्कालीन कटनी कलेक्टर अंजू सिंह बघेल चरनोई भूमि की अदला बदली के चलते सस्पेंड कर दिया गया था। लेकिन उसके बाद भी चरनोई भूमि की बंदरबांट इस कदर जारी है कि आज 22000 गांवों की चरनोई भूमि ही गायब हो गई है। दरअसल प्रदेश में भू-माफिया, दलाल, पूंजीपतियों और राजस्व अधिकारियों की मिलीभगत से चरनोई भूमि का लूटा जा रहा है। प्रदेश में सर्वाधिक चरनोई भूमि की बंदरबांट उन जिलों में हुई है जहां तेजी से विकास हुआ है। कटनी, सतना, रीवा, शहडोल, छतरपुर, ग्वालियर, भिंड सहित करीब दो दर्जन जिलों में करोड़ों रुपए की चरनोई भूमि पर प्रशासन की ढुलमुल नीति और लचर व्यवस्था के चलते असरदार भू माफिया के कब्जे में चली गई है। सरकारी जमीन को अतिक्रमणकारियों के कब्जे से मुक्त कराने के नाम पर अधिकारी कागजी कार्रवाई में उलझे रहते हैं। चौतरफा हो रहे सरकारी जमीन पर अतिक्रमण को रोक पाने में प्रशासन बौना साबित हो रहा है। शासकीय संपत्ति का किस प्रकार दोहन किया जा रहा है और इसकी देखभाल करने के लिए रखे गए जिम्मेदार अधिकारी, कर्मचारी किस प्रकार अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि सरेआम भू स्वामित्व और राजस्व रिकार्ड की बेशकीमती सरकारी भूमि भू-माफिया के कब्जे जा रही है, किंतु शासन और प्रशासन हाथ पर हाथ धरे बैठा है। पट्टे की भूमि को हड़पने का खेल राजस्व रिकार्ड में अहस्तांतरणीय के 'अÓ पर सफेदा लगाकर कई एकड़ भूमि को खुर्दबुर्द करने का खेल अधिकारियों व कर्मचारियों ने किया था। अधिकारियों व कर्मचारियों ने अहस्तांतरणीय का 'अÓ विलोपित कर उसे हस्तांतरणीय बना दिया जिससे पट्टा व चरनोई की हजारों एकड़ भूमि निजी फैक्ट्रियों के कब्जे में चली गई हैं और वहां बेजा निर्माण कार्य भी करा लिए गए। आलम यह है कि तहसीलदारों और पटवारियों की मिलीभगत से कब्जे की जमीन पर निर्माण करा दिए गए हैं। यही नहीं राजस्व रिकार्ड में जो भूमि वृक्षारोपण के लिए आरक्षित की गई थी, उन्हें भी दस्तावेजों में हेराफेरी कर कूटरचना कर कब्जाई गई है। जिन क्षेत्रों में चरनोई की भूमि कब्जाई गई है वहां दुधारू पशुओं की चराई की समस्या बनी हुई है। दरअसल देश में पशुधन के बेहतर उपयोग के लिए नेशनल लाइव स्टॉक पॉलिसी 2013 में कुछ चुनौतियों जिक्र किया गया है। पशुधन होने के बावजूद उनका संपूर्ण दोहन न हो पाना चिंताजनक है। सबसे पहली समस्या नष्ट होते चरागाह और पशुओं के चारे की कमी है। कुछ समय पहले जहां हरे भरे चरागाह थे या खेती थी, आज वहां वैध-अवैध कब्जा करके कंक्रीट के जंगल खड़े दिए गए हैं। जंगल काटे जा रहे हैं। खेती की भूमि निरंतर कम हो रही है। यहां तक नदियों और तालाबों तक पर अवैध कब्जा कर लिया गया है। पशुओं के पास चरने के लिए जगह नहीं है। बड़ी संख्या में आवासीय कालोनियों की जगह खेती की जगह अधिगृहीत कर ली गई। बढ़ते शहरीकरण की सबसे पहली गाज जानवरों पर गिरी है। दूसरी चुनौती उत्तम नस्लों की कमी है। पशुधन के स्वास्थ्य को लेकर सरकारें संवेदनशील नहीं है। चिकित्सा का जो ढांचा है, वह नहीं है। गांवों में आज भी कोई जानवर बीमार पड़ता है तो उसे मरने के लिए छोड़ देने के अलावा कोई चारा नहीं है। पशुपालकों में ज्ञान और जागरूकता की कमी भी बड़ी समस्या है। नई तकनीकी से दूरी और समुचति ढांचे की कमी भी समस्या से जुड़ी है। जाहिर सी बात है कि अगर इन सभी समस्याओं का बेहतर निदान ढूंढ़ लिया जाए तो पशुधन हमारी अर्थव्यवस्था और आम आदमी के जीवन स्तर को सुधारने की दिशा में और ज्यादा उपयोगी हो सकता है। पशुधन का बेहतर इस्तेमाल किसी सूबे या किसी देश को किस तरह से सफलता के ऊंचे पायदान पर ले जा सकता है, इसका ताजा उदाहरण पंजाब है। पंजाब सरकार के मुताबिक 2015 में पंजाब से 10,351 टन दूध, 426.4 करोड़ अंडे, 236.87 टन मांस का उत्पादन हुआ, जो अर्थव्यवस्था के लिए उत्साहवर्धक है। इस कामयाबी के बाद पंजाब सरकार अपने किसानों को कृषि के साथ दुग्ध उत्पादन, सुअर पालन, मुर्गी पालन और भेंड़ पालन जैसे वैकल्पिक पेशे अपनाने की भी सलाह दे रही है। ऐसा भी नहीं है कि पंजाब की तर्ज पर अन्य राज्यों में कोशिशें नहीं चल रही। अपने-अपने स्तर पर विभिन्न राज्य पशुधन के बेहतर इस्तेमाल की कोशिश में लगे हुए हैं। राष्ट्रीय स्तर पर पशुधन में 3.33 फीसदी की कमी दर्ज की गई है, मगर कुछ राज्य ऐसे हैं जहां पर लगातार पशु संवर्धन हुआ है। इस मामले में सबसे अव्वल गुजरात है जहां पशुधन में 15.36 फीसदी की बढ़ोतरी हुई। उत्तर प्रदेश में 14.1 फीसदी, असम में 10.77 फीसदी, पंजाब में 9.57 फीसदी, बिहार में 8.56 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। जाहिर सी बात है कि पशुधन की उपयोगिता को इन राज्यों ने बेहतर समझा है और उसका असर यहां के निवासियों के जीवन स्तर पर दिख रहा है। 2021 से शुरू हो जाएगी दूध की किल्लत सरकार के अनुमान के अनुसार, देश में जिस तेजी से चरनोई भूमि कब्जाई जा रही है उससे आगामी दिनों में दूध की किल्लत होने की संभावना है। बढ़ती आय, बढ़ती जनसंख्या और बदलते खान-पान की पसंद को बढ़ावा मिलने से देश में वर्ष 2021-22 तक दूध और दूध के उत्पादों की मांग कम से कम 21 करोड़ टन देश में तक बढ़ेगी। यानी पांच वर्षों में 36 फीसदी का इजाफा होगा। भारत में आजीविका की स्थिति के लिए तैयार स्टेट ऑफ इंडियाज लाइव्लीहुड रिपोर्ट के अनुसार, इस मांग को पूरा करने के लिए, प्रति वर्ष उत्पादन में 5.5 फीसदी की वृद्धि होनी चाहिए। वर्ष 2014-15 और 2015-16 में, दूध उत्पादन में 6.2 फीसदी और 6.3 फीसदी की वृद्धि हुई है। लेकिन मप्र में जैसी स्थिति बन रही है उससे नहीं लगता है कि यह लक्ष्य पाया जा सकता है। केंद्रीय पशुपालन सचिव देवेंद्र चौधरी का कहना है कि नस्ल सुधार और दूध उत्पादन को लेकर मध्यप्रदेश करीब 26 फीसदी लक्ष्य पूरा नहीं कर पाया है। जहां चराई क्षेत्र ज्यादा वहां उत्पादन ज्यादा इंडियाज लाइव्लीहुड रिपोर्ट के अनुसार, देश में जिन राज्यों में चराई क्षेत्र ज्यादा है वहां दूध का उत्पादन भी ज्यादा है। भारत का दूध के वैश्विक उत्पादन में लगभग 17 फीसदी का योगदान है। भारत के पशुओं की दूध उत्पादकता वैश्विक औसत से आधी (48 फीसदी) है। प्रति स्तनपायी 2,038 किलो के वैश्विक औसत की तुलना में प्रति स्तनपायी 987 किलो है। आंकड़ों के अनुसार, चारे की उपलब्धता और गुणवत्ता का सीधा असर दूध उत्पादकता की गुणवत्ता और मात्रा पर पड़ता है। वर्ष 2015 एसओआईएल रिपोर्ट के अनुसार, प्रति दिन तीन राज्य जो दूध उत्पादकता के संबंध में सबसे ऊपर हैं, उन राज्यों में 10 फीसदी से अधिक कृषि योग्य भूमि चराई के लिए निश्चित रखे गए हैं। ये तीन राज्य हैं, राजस्थान (704 ग्राम/दिन), हरियाणा (877 ग्राम /दिन) और पंजाब (1,032 ग्राम /दिन)। जबकि मध्यप्रदेश (428 ग्राम प्रतिदिन) है। वहीं राष्ट्रीय औसत 337 ग्राम /दिन है। भारत में कुल कृषि योग्य भूमि का केवल 4 फीसदी चारा उत्पादन के लिए प्रयोग किया जाता है। यह अनुपात पिछले चार दशकों से स्थिर बना हुआ है। दूध उत्पादन में मप्र देश में सातवें नंबर पर है। प्रदेश में चरनोई भूमि के लगातार कम होने का असर, दुधारू पशुओं की संख्या और दूध उत्पादन पर भी पड़ रहा है। देश में सर्वाधिक चरनोई भूमि उत्तर प्रदेश, राजस्थान, आध्र प्रदेश, गुजरात, पंजाब, हरियाणा में होती है। चरनोई भूमि के मामले में मप्र सातवें स्थान पर है और दूध उत्पादन के मामले में भी सातवे स्थान पर है। देश में दुध उत्पादन (2015-16) उत्तर प्रदेश- 17.6 प्रतिशत राजस्थान- 10.5 प्रतिशत आंध्रप्रदेश- 9.61 प्रतिशत गुजरात- 7.71 प्रतिशत पंजाब- 7.31 प्रतिशत महाराष्ट 6.6 प्रतिशत मप्र- 6.5 प्रतिशत हरियाणा- 5.3 प्रतिशत तमिलनाडू- 5.2 प्रतिशत बिहार- 5.1 प्रतिशत शेष राज्य- 18.6 प्रतिशत मांग और चारे की आपूर्ति में अंतर कृषि संबंधी संसदीय समिति के दिसम्बर 2016 की इस रिपोर्ट के अनुसार, दूध की मांग को देखते हुए, चारा उत्पादन की जरूरत के लिए भूमि दोगुनी करने की आवश्यकता है। चारे की कमी अब राज्यों को कहीं बाहर से चारा मंगाने पर लिए मजबूर कर रही है। जबलपुर में एक डेयरी फॉर्म चलाने वाले सुधीर मिश्रा कहते हैं, चारे की गुणवत्ता चिंता का विषय है। अब हम चारे के लिए उत्तर प्रदेश से कोई स्रोत तलाश रहे हैं। लेकिन चारागाहों का प्रमुख हिस्सा या तो खत्म किया गया है या अतिक्रमण किया गया है, जैसा कि संसदीय समिति की रिपोर्ट में बताया गया है। भोजन और नकदी फसलों के महत्व को देखते हुए, यह संभावना बहुत कम है कि चारे के लिए जमीन में काफी वृद्धि होगी, जैसा कि संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया है वर्ष 2015 की एसओआईएल रिपोर्ट कहती है, यदि भारत पर्याप्त उत्पादन विकास दर हासिल करने में विफल रहता है, तो भारत को दुनिया के बाजार से महत्वपूर्ण आयात का सहारा लेने की आवश्यकता होगी। और क्योंकि भारत एक बड़ा उपभोक्ता है, इसलिए दूध की कीमतों में उछाल होने की भी संभावना है। डेयरी फॉर्म पर परिचालन व्यय में 60 से 70 फीसदी भोजन की लागत की हिस्सेदारी रहती है। भारत में करीब 70 फीसदी दूध का उत्पादन छोटे और सीमांत किसानों से आता है, जो देसी चारे पर निर्भर होते हैं। मिश्रा जैसे बड़े उत्पादकों की तरह वे अन्य राज्यों से चारा खरीदने में सक्षम नहीं हैं। ग्वालियर के एक डेरी संचालक अनुपम धाकड़ कहते हैं, मैंने महसूस किया कि सिर्फ एक अच्छी भैंस खरीदना पर्याप्त नहीं है, चारे की गुणवत्ता और मात्रा भी अच्छी होनी चाहिए। आपको चारे के स्रोत पर काफी समय और पैसा खर्च करना पड़ता है। धाकड़ और अन्य ग्रामीण, गांव से 5 किमी की दूरी पर एक पहाड़ी पर एक आम चारागाह का उपयोग कर रहे थे। वह कहते हैं, लेकिन वह मौसमी है और गांव के सभी मवेशियों के लिए पर्याप्त नहीं है। इसलिए उन्होंने चारा खरीदने की कोशिश की, लेकिन ऐसा करना व्यावसायिक रूप से व्यावाहरिक नहीं लग रहा था। भूमिहीन और छोटे किसानों की आय में पशुधन का योगदान 20 से 50 फीसदी है। और परिवार जितना गरीब होता है, उतना ही आजीविका के लिए डेयरी फार्मिंग पर आश्रित होते हैं, जैसा कि एसओईएल की रिपोर्ट में बताया गया है। कृषि का काम तो मौसमी होता है। इसके विपरीत, डेयरी फार्मिंग साल भर रिटर्न प्रदान करता है। यह कृषि परिवारों में नकदी की कमी के जोखिम को कम करता है। अगर देश दूध के मामले में आत्मनिर्भर बने रहना चाहता है तो दूध और डेयरी फार्मिंग को सफल करना ही होगा। चारे की समस्या का हल निकालना ही होगा। गौवंशीय पशुओं की संख्या हो रही कम मध्य प्रदेश में गौवंशीय पशुओं (गाय-भैंस) की संख्या कम हो गई है। केन्द्रीय पशुपालन एवं मछलीपालन मंत्रालय की 19वीं पशु गणना के आंकड़े बताते हैं कि 2007 में हुई 18वीं पशु गणना के मुकाबले प्रदेश में गौवंशीय पशुधन 4 करोड़ 7 लाख से घटकर 3 करोड़ 63 लाख रह गया है। इसके साथ ही देशी पशुधन को बढ़ाकर उसे स्वदेशी अर्थव्यवस्था का आधार बनाने और राज्य सरकार के दूध उत्पादन में गुजरात को पीछे छोडऩे के दावों का सच सामने आ गया है। पशु गणना की रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में गायें 10.35, भैंसे 10.35 और बकरी 11.09 प्रतिशत कम हुई हैं। गौवंश में कमी आना सरकार के लिए बेहद चिंताजनक इसलिए भी है क्योंकि ग्रामीण आबादी के 80 फीसदी लोग किसी न किसी रूप में पशुधन आधारित अर्थव्यवसथा से जुड़े हैं। देश की कुल गाय प्रजाति का सबसे अधिक 10.27 प्रतिशत मध्यप्रदेश में है। इसके बाद उत्तरप्रदेश है जहां 10.24 प्रतिशत गाय प्रजाति हंै। राजस्थान में यह 6.98 प्रतिशत व छत्तीसगढ़ में 5.14 प्रतिशत है। आंकड़ों से सरकार के गर्भाधान कार्यक्रम और देसी नस्ल के पशु बचाने के दावों की पोल खुल गई है। पशुपालन से जुड़े विशेषज्ञों का मानना है कि पशुधन में कमी आने का सीधा मतलब यह है कि खेती के बोझ से लदे किसानों की पशुधन में रुचि नहीं रही। प्रति किसान खेती की जमीन कम होने से पशुपालन भी कठिन हो गया है। खेती में मशीनरी का उपयोग बढऩा भी इसका एक कारण माना जा रहा है। पशु चिकित्सा के लिए उपलब्ध व्यवस्थाएं भी मात्र दिखावा ही साबित हुई हैं। जैविक खेती पर भी पड़ेगा असर पशुधन में कमी आने का सीधा असर जैविक खेती बढ़ाने के प्रयासों पर पड़ेगा। प्रदेश में कितनी मात्रा में जैविक या गोबर खाद का उत्पादन हो रहा है और कितने किसान इसका उपयोग कर रहे हैं, इसका कोई लेखा-जोखा पशु संचालनालय के पास नहीं है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि गाय और भैंस की संख्या में कमी आने के बावजूद सरकार दुग्ध उत्पादन और दुग्ध उत्पादक समितियों की संख्या में बढ़ोतरी का दावा कर रही है। गौवंशीय पशुओं के अलावा बकरे-बकरियों की संख्या में भी कमी आई है। पिछली गणना में 90 लाख 14 हजार बकरे-बकरियां थे, जो घटकर 75 लाख 20 हजार रह गए हैं। इससे प्रदेश में गरीब परिवारों को बकरी पालन का लाभ देने के दावों की भी पोल खुल गई है। मांस का बढ़ता कारोबार पशुधन के लिए मुसीबत मप्र सहित देशभर में घाटे का सौदा साबित हो रही खेती और घटते चरागाह की वजह से हर साल पशुधन में तेजी से कमी हो रही है, जबकि इंसानी आबादी बढ़ रही है। मांग के बनिस्बत दूध की कमी फिलहाल देश के सामने बड़ी समस्या है। मांस का बढ़ता कारोबार भी पशुधन के लिए मुसीबत का संकेत है। ऐसे दौर में जब भारत को दुनिया के सबसे तेज विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में एक माना जा रहा है, तब सर्वाधिक चिंतित करने वाली खबर यह है कि कृषि प्रधान देश में पशुधन में तेजी से गिरावट हो रही है। देश भर में पशुधन की गणना करने वाली एजेंसी लाइव स्टाक सेंसस के मुताबिक हर साल औसतन 3.38 लाख पशुओं की कमी हो रही है। पांच साल में करीब सत्तरह लाख पशुओं की कमी दर्ज की गई है। समझने वाली बात यह है कि पशुधन न केवल खेती, बल्कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। भारत की तरक्की और खुशहाली में बुनियादी जरूरतें उपलब्ध कराने के मामले में कृषि के साथ पशुधन की भी गहरी भूमिका रही है। अर्थव्यवस्था को बेहतर बनाने और आम आदमी का जीवन-स्तर उठाने के लिए लिए जो क्रातिंया हुईं, उनका सीधा संबंध कृषि से है। कृषि क्षेत्र सकल घरेलू उत्पाद में करीब चौदह फीसदी का योगदान करता है। श्वेत क्रांति, नीली क्रांति या गुलाबी क्रांति का सीधा संबंध पशुधन से है। कृषि व्यवस्था में पशुधन का योगदान करीब पच्चीस फीसदी है। 25 करोड़ 226 लाख टन खाद्यान्न , 28.31 करोड़ टन फलोत्पादन, 14.1 करोड़ टन दुग्ध, 24 लाख टन मीट और अंडा उत्पादन भारत में हर साल होता है। इन्हीं आंकड़ों ने न केवल हरित, श्वेत, नील और गुलाबी क्रांति को सफल बनाया बल्कि दुनिया के सामने भारत को मजबूती के साथ खड़ा किया। भारतीय जनजीवन और अर्थव्यस्था में पशुधन कितना महत्वपूर्ण है, इसकी तस्वीर उन्नीसवीं पशुधन गणना में पूरी तरह से उभर कर सामने आती है। हमारा देश पशुधन के मामले में अपने ही आंकड़ों से पीछे जा रहा है। नवीनतम पशुधन गणना में पाया गया कि पांच साल में 3.3 फीसदी यानी 16.89 लाख पशुधन में कमी आई है। हालांकि, नवीतम रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 51 करोड़ 20 लाख हैं। इनमें मोटे तौर पर गाय, बैल, भैंस, बकरी, सुअर, भेंड़, घोड़े, गधे, खच्चर, ऊंट, याक और मिथुन जैसे पशु शामिल हैं। लाइवस्टॉक सेंसस के मुताबिक देश में मौजूद पशुधन में 37.28 फीसदी गोवंश, 26.40 फीसदी बकरियां, 21.23 फीसदी भैंस, 12.71 फीसदी भेंड़ और 0.37 फीसदी में मिथुन, याक, घोड़ा, खच्चर, गधा और ऊंट आदि शामिल हैं। पशुधन को संजोकर रखने की परंपरा हुई कमजोर दरअसल, देश में पशुधन को संजोकर रखने वाली परंपरा कमजोर हुई है। पशुओं के प्रति संवेदनशीलता का भाव भी कम हुआ है। हालांकि, इनकी उपयोगिता बनी हुई है। खासकर, गांव के किसान और गरीब वर्ग के लिए पशुधन संजीवनी होता है। यह हालत क्यों हुई है, इस पर गौर करना जरूरी है। पशुधन गणना के मुताबिक 2007 से 2012 के बीच दुधारू पशुओं की संख्या में थोड़ा इजाफा हुआ है। गायों की संख्या 6.25 फीसदी बढ़कर लगभग तेरह करोड़ हो गई है जबकि भैंसों की संख्या में 3.19 फीसदी का इजाफा हुआ है और इनकी संख्या अब दस करोड़ अस्सी लाख पहुंच गई है। इसके साथ ही साथ संकरित दुधारू पशुओं की संख्या में भी लगभग चार करोड़ का इजाफा हुआ है। दुधारू पशुओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई तो दुग्ध उत्पादन में 14.1 करोड़ टन उत्पादन पहुंच गया। लेकिन, देश में दूध की कमी बनी हुई है। इसी वजह से सिंथेटिक दूध का चलन भी बढ़ा है। बढ़ती मांग के हिसाब से दूध की आपूर्ति न होने के कारण नकली दूध बड़े पैमाने पर तैयार किया जा रहा है। मांस उद्योग के हवाले पशु लाइवस्टॉक सेंसस के मुताबिक मप्र सहित देश में गैरदुधारू पशुओं की संख्या में जबर्दस्त घटोतरी हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, बैल और भैंसों की संख्या में 19.32 और 17.85 फीसदी की कमी आई है। यह चिंताजनक है। बैल कभी खेती की रीढ़ हुआ करते थे। मांसाहार की बढ़ती मांग की वजह से बकरियों की संख्या में भी 3.82 फीसदी की कमी दर्ज की गई। मतलब साफ है कि इन पशुओं को मांस उद्योग के हवाले किया गया, जिससे इनकी संख्या में भारी कमी आई। भारत 24 लाख टन मांस सालाना निर्यात करके दुनिया में नंबर एक पायदान पर पहुंच गया है। इसमें मप्र का योगदान 18.69 प्रतिशत है। दरअसल, अब लोग पशुओं का पालन मांस के लिए भी कर रहे है। मप्र में छोटे जानवरों के लिए 192 स्लाटर हाउस है जबकि 34 कत्लगाह बड़े जानवरों के हैं। प्रदेश में बड़े जानवरों के लिए स्लाटर हाउस भोपाल, इंदौर, जबलपुर, बुरहानपुर, सिरोंज, सीहोर, रायसेन, हाटपिपलिया, सैलाना, खंडवा, बागली, देवास, नीमच, बैरसिया, आष्टा, इछावर, सिलवानी, नरसिंहगढ़, महिदपुर, तराना, कन्नौद में है। यहां रोजाना हजारों की संख्या में पशुओं का कत्ल होता है। दुधारू पशुओं को छोड़ दें तो भारत में लगभग हर पशुओं की संख्या में गिरावट दर्ज की गई है। मसलन, भेंड़ों की संख्या 9.07 फीसदी घटोतरी हुई, उनकी संख्या इस समय छह करोड़ रह गई है। सुअरों की संख्या में 7.54 फीसदी कमी आई है। फिलहाल, इनकी तादाद एक करोड़ है। घोड़े और खच्चरों की संख्या 2.08 फीसदी घटकर साठ हजार रह गई है। रेगिस्तान का जहाज कहे जाने वाले ऊंटों की संख्या में 24.48 फीसदी की भारी गिरावट हुई है। इन सबके बीच, मुर्गीपालन में जरूर इजाफा हुआ है। इनकी संख्या सत्तर करोड़ तक पहुंच गई है। यही वजह है कि देश का मुर्गीपालन उद्योग दहाई के आंकड़े के साथ वृद्धि कर रहा है। पशुधन के मामले में भारत के शहरी और ग्रामीण आबादी का जीवन स्तर पशुपालन से किस तरह जुड़ा है, यह जानना जरूरी है। ऑल इंडिया लाइवस्टॉक सेंसस के मुताबिक भारत के लगभग छब्बीस करोड़ परिवार गाय, भैंस, बकरी, भेंड़, सुअर और मुर्गीपालन के धंधे से जुड़े हैं। यही उनकी जीविका और कमाई का बड़ा आधार है। इसमें से लगभग 19 करोड़ 56 लाख परिवार ग्रामीण अंचल के हैं और छह करोड़ 73 लाख परिवार शहरी हैं। मतलब साफ है कि पशुधन ग्रामीण अर्थव्यवस्था और जीवन के लिए आज भी जीविकोपार्जन का सबसे बड़ा और सुगम साधन हैं। शहरी और ग्रामीण इलाकों में पशुधन का पारिवारिक तौर पर जीविका के लिए जो इस्तेमाल हो रहा है, उसका वर्गीकरण लाइव स्टॉक सेंसस में कुछ इस तरह से नजर आता है। भारत में लगभग छह करोड़ तिरसठ परिवार गाय, 3.91 करोड़ परिवार भैंस, 3.3 करोड़ परिवार बकरी, 3.31 करोड़ परिवार मुर्गीपालन, दो करोड़ परिवार बड़े पैमाने पर मुर्गीपालन और मत्स्य पालन, पैंतालीस लाख परिवार भेंड़ और पच्चीस लाख लाख परिवार सुअर पालन के जरिए अपनी आजीविका चला रहे हैं। ग्रामीण परिवेश में पशुधन की उपलब्धता उन छोटे किसानों के लिए संजीवनी है, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है। ऐसे छोटे किसानों के आय का साधन गाय, भैंस और बकरियां ही हैं। पशुधन का उपयोग जिस तरह से होना चाहिए, वह आज भी नहीं हो पा रहा है। यह बात नीतिकार भी मानते हैं। पशुओं की संख्या घटी दुग्ध उत्पादन बढ़ा मप्र में अन्य क्षेत्रों की ही तरह पशुपालन और दुध उत्पादन में अफसरों की आंकड़बाजी कमाल कर रही है। प्रदेश दूध क्रांति और हरित क्रांति लाने की दावा तो सरकार खूब कर रही है, परन्तु दुधारू पशुओं की संख्या में लगातार कमी आती जा रही है। इसके विपरीत दूध उत्पादन के मामले में हम पंजाब को पीछे छोडऩे के दावे कर रहे हैं, यह कैसे संभव है जहां गाय, भैंस तथा बकरियों की संख्या में 23 लाख से अधिक कमी दर्ज की गई हो, वहां दूध उत्पादन लगातार बढ़ता जा रहा हो। विशेषज्ञों का कहना है कि दूध की पैदावारी में लगी सहकारी समितियां, विभिन्न उत्पादन कंपनियां दुग्ध की मात्रा बढ़ाने के लिए पाउडर तथा सोयाबीन से दूध बनाने में लगे हुए हैं, जबकि चरनोई भूमि बची नहीं है और चारागाह समाप्त होते जा रहे हैं। कुछ माह पहले राज्य सरकार ने दावा किया था कि हमने दुग्ध के उत्पादन में पंजाब को भी पीछे छोड़ दिया है। वर्तमान में प्रदेश में 6 हजार 506 कार्यशील दुग्ध समितियां संचालित हैं और इनमें सदस्यों की संख्या 2 लाख 37 हजार 965 है। मप्र में सांची, अमूल, सौरभ सहित कई प्रकार के दुग्ध का विक्रय किया जाता है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार प्रदेश में वर्ष 2005 में दुग्ध का उत्पादन 5.50 मिलियन टन था जो वर्ष 2015 में बढ़कर 10.78 मिलियन टन हो गया है। वहीं प्रदेश में दुधारू पशुओं की 18वीं गणना के दौरान इनकी संख्या 2,19,15000 थी, जो कि 19वीं गणना में घटकर 1,96,02000 रह गई है। यानी दुधारू पशुओं की संख्या में 23,13000 की कमी आई है। लेकिन प्रदेश में दूध उत्पादन बढ़ा है। सरकार का दावा है कि प्रदेश में दूध उत्पादन इसलिए बढ़ा है कि नस्ल सुधार के लिए प्रदेश में पशु प्रजनन कार्यक्रम शुरू किया है। 2005 में 4 लाख 73 हजार कृृत्रिम गर्भाधान होता था, अब 2015 में बढ़कर 23 लाख 87 हजार हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में गोवंशीय नस्ल सुधार के लिए नंदीशाला योजना की शुरुआत 2005-06 में हुई। पशुपालकों को डेयरी एवं बकरी इकाई प्रदाय करने के लिए विभागीय डेयरी एवं बकरी पालन योजना 2008-09 से शुरू की गई। देशी गोवंश को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से गोपाल पुरस्कार योजना 2011-12 में एवं वत्स पालन प्रोत्साहन योजना 2012-13 में शुरू की गई। इस कारण दूध उत्पादन में मप्र समृद्ध हो रहा है। मध्यप्रदेश की पशुधन संख्या गौवंशीय पशु 2,19,15,438 भैंसवंशीय पशु 91,29,152 भेड़ा/भेड़ी 3,89,863 बकरे/बकरियां 90,13,687 घोड़े/घोडिय़ां/टट्टू 27,191 खच्चर संख्या 2,617 गधे 20,199 ऊंट 4,456 सुअर 1,92,941 कुकुुल पशुधन 4,06,95,544 कुत्तों की संख्या 7,91,356 खरगोश की संख्या 10,712 कुल कुक्कुट 73,84,318

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