इस देश के न्यायिक इतिहास में संभवतः ऐसा पहली बार हुआ जब किसी निर्णय पर केंद्रीय विधि मंत्री, कई न्यायविदों, सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों सहित पूरे देश के समाचारपत्रों ने अत्यंत तीखी टिप्पणी करते हुए इसे ‘शर्मनाक’, ‘दफन हुआ इंसाफ’, ‘न्याय नहीं सिर्फ फैसला’ जैसे विशेषणों के साथ अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त कीं। सामान्यतया निर्णय होने के बाद उसकी आलोचना नहीं की जाती क्योंकि न्यायालय की ‘अवमानना कानून, 1971’ में दी गई परिभाषा के अनुसार यदि कोई प्रकाशन इस तरह का हो जो किसी न्यायालय की या न्यायिक प्रशासन की छवि को धूमिल करने वाला हो, तो उसे न्यायालय की अवमानना माना जाता है। (निर्णीत मामले की सही आलोचना को छोड़कर) पर भोपाल गैस त्रासदी का निर्णय एक अपवाद जैसा है जिसको लेकर न्यायालय, सरकार अभियोजन सभी को एक स्वर से इस बात के लिए दोषी ठहराया गया है कि इस दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय के लिए इन तीनों की मिली-भगत थी यह एक अभूतपूर्व एवं लोकतंत्र पर कलंक के स्वरूप की प्रतिक्रिया थी।
क्या थी वास्तविक घटना?
दिनांक 2-3 दिसंबर, 1984 की दरम्यानी रात भोपाल के यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड के संयंत्र से निकली जहरीली गैस मिथाइल आइसो साइनेट (मिक) से भोपाल के लगभग 15 हजार लोगो की मृत्यु हो गई तथा लगभग पांच लाख 75 हजार लोग घायल हुए तथा लगभग एक लाख पशु-पक्षी भी मारे गए थे। उल्लेखनीय है कि उपरोक्त गैस के रिसाव के दो घंटे पूर्व रात्रि साढ़े दस बजे मिक प्लांट पर तैनात श्रमिकों को पता चला कि टंकी में दबाव बढ़ रहा है। रात्रि 12.30 बजे श्रमिकों ने महसूस किया कि टंकी का दबाब और ताप बहुत अधिक बढ़ गया है और थोड़ी ही देर बाद टंकी हिलने लगी और गैस टंकी का सेफ्टी बाल्व तोड़कर आसमान में सफेद बादल के रूप में छा गई और 10-12 किलोमीटर तक फैल गई। इसके प्रभाव से उक्त क्षेत्र के लोग खांसते, उल्टी करते और आंखों पर हाथ रखे दिसंबर की ठंड में सड़कों पर भागते नजर आए। कुछ लोग गाड़ियों में बैठकर निकटवर्ती कस्बों-नगरों की ओर भागे। कुछ ने भागने के दौरान ही दम तोड़ दिया और 2-3 बजे तक चार हजार से अधिक लोग विभिन्न अस्पतालों में पहुंच चुके थे। 10 हजार से अधिक लोग भोपाल छोड़कर अन्य स्थानों पर पहुंच चुके थे। अगले दिन दोपहर दो बजे पुनः भोपाल की सड़कों पर भगदड़ मची और अफवाह फैली की गैस फिर रिसने लगी है, शाम पांच बजे तक 20 हजार लोग अस्पतालों में पहुंच चुके थे। विडंबना यह कि कुछ निकटवर्ती अस्पतालों के डाक्टर भी गैस से प्रभावित होकर बीमार होने लगे।
दरअसल 2-3 दिसंबर, 1984 की विश्व की इस भीषणतम औद्योगिक त्रासदी ‘भोपाल गैस त्रासदी’ का 25 वर्षों की लंबी विधिक प्रक्रिया के बाद आखिरकार निर्णय कर दिया गया। भोपाल के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी (सी.जे.एम.) के द्वारा यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड (यूसीआईएल) के तत्कालीन अध्यक्ष केशव महिंद्रा, प्रबंध निदेशक विजय गोखले, वक्र्स प्रबंधक जे.मुकुंद, प्रोडक्शन मैनेजर एस.पी.चैधरी, प्लांट अधीक्षक के.वी.शेट्टी, उपाध्यक्ष किशोर कामदार एवं प्रोडक्शन सहायक एम.आर.कुरैशी सहित यूसीआईएल को भारतीय दंड संहिता की धारा 304(ए) के अंतर्गत दो-दो वर्ष के कारावास तथा एक-एक लाख रुपयों के अर्थदंड की सजा सुनाई। अन्य धाराओं 336, 337, 338 के अंतर्गत भी सजा और जुर्माना लगाया गया पर सभी सजाएं एक साथ चलेंगी। यूसीआईएल पर पांच लाख सत्रह सौ पचास रुपयों का अर्थदंड लगाया गया। निर्णय का दुर्भाग्यपूर्ण एवं दुखद पक्ष यह है कि मुख्य आरोपी वाॅरेन एंडरसन को फरार घोषित किया जाकर उसके विरुद्ध कोई आदेश नहीं, यहां तक कि निर्णय में उसका नाम तक नहीं। उक्त अपराधियों ने अर्थदंड की राशि जमा कर जमानत करवा ली तथा निर्णय के विरुद्ध सत्र न्यायालय में (हाईकोर्ट में नहीं) अपील प्रस्तुत करने की तैयारी कर रहे हैं। दरम्यानी रात की अभूतपूर्व त्रासदी को शब्दांे के माध्यम से वर्णन करना आसान नहीं। इस विषय पर एल्फ्रेड द ग्रैजिया की पुस्तक ए क्लाउड ओवर भोपाल का इतना अंश उद्धृत करना पर्याप्त होगा, ”जहरीली हवा शहर की सबसे घनी आबादी वाले इलाकों की ओर बह चली। लोग जानते थे कि यह जहरीली हवा किधर से चली आ रही है। फिर भी यह अविश्वसनीय और चैंकाने वाला था। अब रुकी हुई सांसों से और चीखते-चिल्लाते वे एक-दूसरे से भागने की गुहार लगाने लगे। उनके दम घुट रहे थे और वे अंधों की तरह बेतहाशा भागे जा रहे थे।’’
‘‘कुछ लोग अपनी झोपड़ियों से बाहर निकल आये और इससे पहले की वे पीछे मुड़कर देखते अंधे जन सैलाब में वे भी बहते चले गए। उनमें से अधिकांश ने फिर कभी अपने परिवार को नहीं देखा। चारों तरफ अफरा-तफरी, उथल-पुथल और पागलपन का सैलाब उमड़ा आ रहा था। ऐसे हालात सचमुच सिर्फ एक ही बार पैदा हुए थे। कोई भी उस दिशा में नहीं भागा, जहां से गैस आ रही थी। जबकि उस दिशा में भागना ज्यादा समझदारी होती।
‘‘हड़बड़ी में लोग उस ओर भागे, जहां गैस हवा के साथ बहकर जा रही थी और गैस की चपेट में आ गए। बैलगाड़ी, साइकिल, कार सब लोगों को लेकर भागे जा रहे थे। चारांे ओर मृत, घायल और चीखते-चिल्लाते लोग थे। गाय, बैल, बकरियां, जानवरों की लाशों से रास्ते पट गए थे। पुलिस की गाड़ी लाऊड स्पीकर पर चींख रही थी- ‘अपनी जान बचाने के लिए भागो। जहरीली गैस आ रही है।’ “
पुलिस में रिपोर्ट दर्ज हुई, पुलिस प्रशासन ने राहत कार्य किया, संयंत्र के पांच प्रबंधकों को गिरफ्तार कर वहीं के गेस्ट हाऊस में नजरबंद रखा गया, दस्तावेज जब्त कर लिए गए, फैक्ट्री सील कर दी गई। न्यायालय में आपराधिक प्रकरण की कार्यवाही शुरू हुई जिसमें 23 वर्ष लगे।
क्या है वैधानिक स्थिति?
मामले की वैधानिकता पर विचार करें तो कुछ और अत्यंत गंभीर तथा शर्मनाक पहलू सामने आते हैं। वास्तविक तथ्य इस प्रकार है कि प्रारंभ में सत्र न्यायालय में धारा 304 अर्थात् गैर इरादतन हत्या जिसमें आजीवन कारावास या दस साल तक की सजा और जुर्माने का प्रावधान है, प्रकरण दर्ज हुआ था जिसके विरुद्ध प्रबंधन उच्च न्यायालय गया किंतु उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायालय की कार्यवाही की पुष्टि की किंतु जब प्रबंधन सर्वोच्च न्यायालय पहंुचा तो वहां इस मामले को ‘लापरवाही से हुई मौत’ का दर्जा देकर धारा बदल दी गई। परिवर्तित धारा 304(ए) के अंतर्गत किए गए अपराध में मात्र दो वर्ष तक का कारावास तथा अर्थदंड की सजा दी जा सकती है।
यहां विचारणीय प्रश्न यह है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय ने उपरोक्त आदेश पारित कर धारा को परिवर्तित किया था और सी.बी.आई. या मध्य प्रदेश सरकार इस आदेश से संतुष्ट नहीं थी तो उनके द्वारा इस आदेश के विरुद्ध पुनर्विलोकन या वृहत्तर खडपीठ के समक्ष याचिका प्रस्तुत क्यों नहीं की? इस प्रश्न का उत्तर अब केंद्र और राज्य सरकार के द्वारा किए गए कृत्यों की जानकारी प्रकाश में आने से प्राप्त होता है। अभी हाल में भोपाल के तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह ने मीडिया को बताया कि वाॅरेन एंडरसन को भोपाल आने पर एयरपोर्ट से गिरफ्तार कर श्यामला हिल्स गेस्ट हाऊस में रखा गया था और पुलिस ने उनके खिलाफ धारा 304 ए का अपराध दर्ज किया था, उसी दिन दोपहर में उन्हें एवं पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी को अपने आफिस में बुलाकर मुख्य सचिव ब्रह्मस्वरूप ने कहा था कि विमान तल पर विमान खड़ा है, जितनी जल्दी हो सके एंडरसन को छोड़ दो और उन्हे दिल्ली भेजने की व्यवस्था करो। तब 25 हजार के मुचलके पर उन्हें छोड़ दिया गया।
म.प्र. सरकार के विमानन संचालक आर.सी.सोढ़ी कह रहे हैं कि 7 दिसंबर, 1984 को राज्य सरकार के उस विमान को भोपाल से दिल्ली भेजने का आदेश मुख्यमंत्री निवास से प्राप्त हुआ था जिसमें एंडरसन सवार हुआ था। उक्त विमान को मुख्य पायलट कैप्टन हसन और सह पायलट एच.एस.अली लेकर गए थे। विमान में एकमात्र यात्री एंडरसन था, तत्कालीन केमिकल फर्टीलाइजर मंत्री बसंत साठे भी कहते हैं कि केंद्र और राज्य सरकार में बैठे कुछ लोगों की मदद से ही एंडरसन को भारत से बाहर भेजा गया था। कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह कहते हंै कि एंडरसन को भगाने के लिए अर्जुन सिंह सरकार नहीं बल्कि राजीव गांधी की केंद्र सरकार जिम्मेदार है तो कांग्र्रेस के ही नेता सत्यब्रत चतुर्वेदी कहते हैं कि हादसा भोपाल में, आरोपी भोपाल से बाहर गया, विमान प्रदेश सरकार का तब केंद्र सरकार दोषी कैसे हो सकती है? भाजपा सदैव की तरह अवसर का लाभ उठाते हुए कांग्रेस सरकार से इसका स्पष्टीकरण मांग रही है। 25 वर्षों के दौरान किसी नेता ने इस संबंध में कुछ नहीं कहा और अब सभी इस मुद्दे पर अपनी-अपनी राजनैतिक रोटियां सेंकने में लगे हंै। पता ही नहीं चलता कि कौन सही है और कौन गलत है? एंडरसन दिल्ली में तत्कालीन राष्ट्रपति से मिलता है और सीना तान कर किसी वी.आई.पी. की तरह अपने निवास पर ऐश करता है।
दूसरी बात यह कि जब सर्वोच्च न्यायालय ने धारा 304 पार्ट 2 को 304(ए) को परिवर्तित कर ही दिया था तब तत्काल उस आदश्ष को चुनौती न देकर आज केंद्र और म.प्र. सरकारों के द्वारा मंत्री समूह या विधि विशेषज्ञों की समिति बनाने और उनकी राय लेने का क्या अर्थ रह जाता है? इस तरह की कार्यवाहियां केवल राजनैतिक स्टंट हैं और पुनः जनसाधारण के समक्ष एक दिखावा मात्र है। इस दिखावे का हास्यास्पद और बचकाना पक्ष यह भी है कि म.प्र. के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने कहा कि वे सी.जे.एम. के निर्णय के विरुद्ध हाईकोर्ट में अपील करेगें। उन्हें विधि की यह प्राथमिक जानकारी तक नही है कि सी.जे.एम. के निर्णय के विरुद्ध अपील हाईकोर्ट में नहीं बल्कि सत्र न्यायालय (डिस्ट्रिक्ट जज) में होती है। जब तक विधि के प्रावधानो को विधायिका द्वारा संशोधित नहीं किया जाता तब तक दो वर्षों की सजा या जुर्माने के आदेश को किसी भी तरह गलत नहीं ठहराया जा सकता। इस संबंध में केवल तभी कुछ हो सकता है (जैसी कि देश के कानूनविदों की राय भी है) जब या तो सुप्रीम कोर्ट स्वयं संज्ञान लेकर अपने आदेश को संशोधित करे अथवा संसद कानून में ऐसा बदलाव करे जो सुप्रीम कोर्ट के उक्त निर्णय पर प्रभावी हो। पर सही समय पर उदासीन रहने वाली सरकारे और वातानुकूलित कक्षों मंे बैठकर मनमाने ढ़ंग से कानून की धाराआंे का अर्थ निकालकर सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय के आदेशों में परिवर्तन करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधिपति क्या इस संबंध में कोई कदम उठाएंगे?
इस तरह के मामलो में अक्सर यही होता है कि सरकारें राजनैतिक वक्तव्य देकर अपने ‘दाग’ धोने या छुपाने का प्रयत्न करती हैं और नेता, कुछ भी बेसिर पैर के वक्तव्य देकर सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने का प्रयास करता है। उदाहरण के लिए बाबा रामदेव (कानून की जानकारी के अभाव में) यूनियन कार्बाइड के अधिकारियों को ‘फांसी की सजा देने’ की मांग कर रहे हैं। उन्हें भी संभवतः इस विधि के प्रावधान की जानकारी नहीं है कि धारा 304 ए के अपराधी को 2 वर्ष से अधिक की सजा नहीं दी जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण का मानना है कि ‘इस मामले को कमजोर करने के लिए सरकार, कानून और अदालत तीनों बराबर जिम्मेदार हैं, वरना एंडरसन को अमेरिका भागने ही नही दिया जाता। उसे वापस लाने की कोई कोशिश ही नहीं हुई। सरकार डर रही थी कि दोषियों पर सख्ती करने से मल्टीनेशनल कंपनियां भारत नहीं आएंगी। यूनियन कार्बाइड के खिलाफ कड़ी कार्यवाही न करने का अमेरिका का भी स्पष्ट दबाब था इसी वजह से सरकार ने यूनियन कार्बाइड के साथ समझौता कर लिया।’ इस त्रासदी के मुख्य आरोपी एंडरसन को कानून के कटघरे में खड़ा करने के लिए देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी सी.बी.आई. ने भी अधूरे मन से काम किया। उसने अदालत से एंडरसन के खिलाफ बार-बार गैरजमानती वारंट जारी कराया और अमेरिका से उसके प्रत्र्यपण के लिए मांग की लेकिन उसके खिलाफ इंटरपोल का रेड कार्नर नोटिस जारी कराने की जरूरत नहीं समझी। अब सी.बी.आई. के पूर्व अधिकारी बी.आर.लाल ने आरोप लगाया है कि विदेश मंत्रालय ने सी.बी.आई को प्रत्यर्पण मामले से दूर रहने को कहा था और इस संबंध में पत्र भेजा गया था। वहीं पूर्व निदेशक के.विजयरामा इस आरोप का खंडन कर रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता अजय अग्रवाल ने सूचना के अधिकार के अंतर्गत सी.बी.आई से उस पत्र की प्रतिलिपि मांगी है जिसके बारे में बी.आर.लाल का कहना है कि विदेश मंत्रालय से ऐसा पत्र भेजा गया था। एंडरसन न्यूयार्क के ब्रिज हैम्पटन उपनगर के पाॅश इलाके में अपने 250 करोड़ रुपयांे वाले मकान में अपनी पत्नी के साथ रहता है। यह जानकारी एक निजी चैनल ने प्रसारित की है। इन तमाम तथ्यों से प्रकट होता है कि इस संबंध में सरकार और सी.बी.आई दोनांे उसका प्रत्यर्पण कराने के लिए गंभीर नहीं थे।
गैस पीड़ितों को मुआवजे की त्रासदी-आपराधिक प्रकरण की उक्त गोलमाल कार्यवाही के अलावा गैस पीड़ितों को मिलने वाले मुआवजे की व्यथाकथा भी कम त्रासद नहीं। भारत सरकार मुआवजे की राशि पर किस आधार पर सहमत हुई थी यह आज भी रहस्य बना हुआ है। साथ ही यह पेशकश इस आधार पर स्वीकार की गई थी कि भारत सरकार भविष्य में यूनियन कार्बाइड और उसके अध्यक्ष के खिलाफ कोई कानूनी कार्यवाही नहीं करेगी। मुआवजे की यह राशि पहले दावा की गई राशि से छह गुना कम थी। डोमिनिक लापियरे और जेवियर मोरो की भोपाल गैस त्रासदी पर लिखी पुस्तक फाइव पास्ट मिडनाइट मंे लिखा है कि गैस त्रासदी का शिकार हुए लोगों में मृतकों के परिजनों को बहुत कम राशि प्राप्त हुई। 15-16 हजार मृतको तथा पांच लाख 74 हजार घायलों के द्वारा 10,29,517 दावे मुआवजा प्राप्त करने के लिए प्रस्तुत हुए लगभग 3.3 अरब डालर के हर्जाने का दावा किया गया परंतु मात्र 470 करोड़ डालर पर समझौता कर लिया गया। 1546 करोड़ 47 लाख की राशि मुआवजे के रूप में वितरित हुई।
विभिन्न स्रोतांे से प्राप्त जानकारी के अनुसार प्रस्तुत किए गए दावों में से 5,74,304 दावों में कुल 1546 करोड़ 47 लाख रूपयों का वितरण हुआ तथा 455213 दावे किसी न किसी कारण निरस्त कर दिए गए। मोटे तौर पर 1984 में 470 करोड़ डालर का मूल्य लगभग 23,500 करोड़ रुपयों के बराबर होता है। इस राशि मंे पहले 715 करोड़ और अब पुनः 982 करोड़ कुल 1,697 करोड़ मुआवजा दिए जाने हेतु प्राप्त हुए अर्थात् किए गए समझौते के अनुसार भी अभी तक पूरी राशि नहीं दी गई है। प्रकाशित समाचारों के अनुसार जो मुआवजा वितरित किया गया वह इस प्रकार है-
1. तीन हजार मृतकांे के आश्रितों को – एक से तीन लाख प्रत्येक
2. तीस हजार स्थाई रूप से अपंगो को - 50 हजार से एक लाख तक
3. दो हजार गंभीर रूप से घायलों को – चार लाख तक
4. बीस हजार अस्थाई रूप से अपंगों को- 25 हजार से एक लाख तक
5. सामान्य रूप से घायलों को- 25 हजार
इस प्रकार 15 हजार मृतकों में से मात्र तीन हजार मृतकों के आश्रितों को तथा पांच लाख 74 हजार स्थायी/अस्थायी/गंभीर/सामान्य रूप से घायलो में से मात्र एक लाख दो हजार लोगों को मुआवजा प्राप्त हो सका है। इसके अलावा कुछ लोगों को मासिक पेंशन के रूप में अतिरिक्त आर्थिक सहायता दी गई है।
म.प्र. के गैस त्रासदी राहत एवं पुर्नवास मंत्री बाबूलाल गौर ने मंत्री समूह की बैठक में यह मांग की है कि भोपाल के सभी 56 वार्डों के गैस पीड़ितो को पांच लाख रुपये तथा मृतकों के आश्रितों को 10 लाख रुपये राहत राशि दी जाये। किंतु विद्यमान परिस्थितियों में क्या यह राहत प्रभावित व्यक्तियों को मिल सकेगी? और मिलेगी भी तो कब?
कई समाचार पत्रों ने संपादकीय या अन्य टिप्पणियों के माध्यम से लिखा है कि यदि ऐसा अमेरिका में हुआ होता तो यूनियन कार्बाइड (जो अब डाऊ केमिकल्स) है, समाप्त हो जाती और इसके साथ कई बीमा कंपनियां भी डूब जातीं। वहां की अर्थव्यवस्था हिल जाती। यह दुनिया का ऐसा बड़ा हादसा था जो मानव निर्मित था जिसके लिए जिम्मेदार व्यक्तियों की पहचान हो चुकी थी, पर इस देश की लचर व्यवस्था में इन वास्तविकताओं के रहते हुए भी कुछ नहीं हो सका। मुख्य अभियुक्त का बाल बांका नहीं हुआ। मुआवजे के समझौते की घोषणा होते ही यूनियन कार्बाइड के शेयरों में दो डालर का उछाल आया था। शेयर धारकों को सूचित किया गया था कि कंपनी को प्रति शेयर केवल 33 सेंट का नुकसान हुआ। क्या यह सब गैस त्रासदी से भी बड़ी त्रसदी नहीं?
इस कांड से मरने वालों के अलावा इससे प्रभावित परिवारों में आज भी विकलांग बच्चे पैदा हो रहे हैं और यूनियन कार्बाइड का जहरीला अवशेष आज भी फैक्ट्री परिसर में ज्यों का त्यों पड़ा हुआ है और पर्यावरण को नुकसान पहुंचा रहा है। इसका सीधा अर्थ है कि विगत 25 वर्षों से पर्यावरण के प्रति निरंतर अपराध जारी है। म.प्र. की कांग्रेस और बाद में भाजपा की सरकारें इतने बड़े हादसे के बाद भी ‘मिक’ को मानवीय स्वास्थ्य के लिए शायद घातक नहीं मानती। इन सरकारों की इससे बड़ी बेशर्मी और क्या हो सकती है? दूसरी ओर हमारे सर्वोच्च न्यायाल के माननीय न्यायाधीश इस बड़े नरसंहार मुकदमे में प्रयुक्त होने वाली कानूनी धाराओं को हल्की (लापरवाही वाली) धाराआंे में ंबदल देते हैं। केंद्र सरकार मुआवजे के लिए न्यायालय से बाहर कंपनी से शर्मनाक समझौता कर लेती है और आज तक प्रभावित लोगों को पूरा मुआवजा नहीं मिल सका। ‘जस्टिस डिलेड, इज जस्टिस डिनाइड’ (न्याय में विलंब, न्याय से इंकार करना है) सिद्धांत का इससे बद्दतर उदाहरण और क्या हो सकता है? केंद्रीय विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने इस तरह के मामलों से निपटने के लिए वर्तमान कानूनों पर पुनर्विचार की जरूरत को स्वीकार किया है अर्थात् यह मान लिया गया है कि हमारी न्याय व्यवस्था में खामियां हैं। इसी का परिणाम है कि अभियुक्त कानूनी प्रावधान का इस्तेमाल कर न्यायिक प्रक्रिया को इतना लंबा खींच देता है कि पीड़ित व्यक्ति अपने जीते जी न्याय की उम्मीद ही छोड़ देता है।
आरोप-प्रत्यारोप
एंडरसन को देश के बाहर भेजे जाने को लेकर अब विभिन्न नेता एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे हैं और वाकयुद्ध जैसी स्थिति बन गई है।
प्रधानमंत्री के तत्कालीन सचिव पी.सी.अलेक्जेंडर ने राजीव गांधी की भूमिका की ओर इशारा किया है जबकि वरिष्ठ नेता आर.के.धवन इस मामले में अर्जुन सिंह को दोषी मानते हैं। उनका कहना है कि अलेक्जेंडर अपनी पुरानी रंजिश निकाल रहे हैं क्योंकि उन्हें एक जासूसी मामले का खुलासा होने के कारण अपने पद से हटा दिया गया था।
तत्कालीन कलेक्टर मोती सिंह और पुलिस अधीक्षक स्वराज पुरी के विरुद्ध भोपाल के एक अधिवक्ता परवेज आलम ने सी.जे.एम. आर.जी.सिंह के न्यायालय में आई.पी.सी. की धारा 166, 221, 34 के अंतर्गत विधि की अवज्ञा और गिरफ्तारी संबंधी जानकारी छिपाने के आरोप लगाते हुए शिकायत पत्र प्रस्तुत किया है। आरोपों में कहा गया कि उक्त दोनों अधिकारियों ने एंडरसन को गलत ढंग से जमानत देकर उसे फरार होने में मदद पहुंचाई। इस संबंध में प्राप्त जानकारी के अनुसार हनुमानगंज थाने में जो एफआईआर दर्ज हुई थी और जिसके अंतर्गत एंडरसन को गिरफ्तार किया गया था तब उसमें धारा 304, 304ए, 278, 284, 426 और 429 लगाई गई थी बाद में धारा 304 हटाकर उन्हें जमानत पर छोड़ दिया गया था तथा इसके बाद सीबीआई ने गोखले और महिंद्रा पर धारा 304 लगाई जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने हटा दिया था।
सुब्रह्मनयम् स्वामी का आरोप है कि एंडरसन को छोड़ने के लिए करोड़ों रुपयों का लेन-देन हुआ। एक टी.वी. चैनल के अनुसार यूनियन कार्बाइड के द्वारा चुरहट न्यास को 1.5 लाख रुपये का चंदा दिया गया। जिसकी रसीद की फोटोकापी चैनल के पास है।
इस मामले में एक और दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि जैसा अरुण नेहरू का कहना है कि अमेरिका जाने से पहले एंडरसन ने राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह तथा गृहमंत्री पी.वी.नरसिंहा राव से मुलाकाल की थी किंतु यदि यह सच है तो यह कैसे संभव है क्योंकि कोई भी विदेशी व्यक्ति केवल विदेष मंत्रालय तथा केंद्र सरकार की अनुमति और पहल के आधार पर ही राष्ट्रपति से मुलाकात कर सकता है।
इस प्रकरण के और भी कई पहलू अब सामने आ रहे है। उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश ए.एम.अहमदी जिन्होंने धारा 304 को हटा कर 304ए में परिवर्तित किया था और जिन्हें भोपाल मेमोरियल हास्पिटल एंड सर्च सेंटर के आजीवन अध्यक्ष पद पर नियुक्त किया गया था उन्हें उक्त पद से हटाए जाने की मांग माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के राज्य सचिव बादल सरोज ने की है। श्री सरोज का कहना है कि अहमदी ने आपराधिक धाराओं को हल्का किया जिसके कारण आरोपियों को बहुत कम सजा हुई और इसके अलावा गैस पीड़ितों की संख्या जाने बिना मामूली सा मुआवजा दिलवा कर प्रकरण को हमेशा के लिए बंद करने का प्रयास किया। उन्होने यह असत्य जानकारी भी दी कि उनके निर्णय के विरुद्ध किसी ने पुनरीक्षण याचिका प्रस्तुत नहीं की थी जबकि वास्तविकता यह है कि उक्त याचिका प्रस्तुत की गई थी जिसे अहमदी ने एक वाक्य के आदेश से एक मिनट के अंदर खारिज कर दिया था। भोपाल गैस पीड़ित महिला उद्योग संगठन के संयोजक अब्दुल जब्बार ने भी उपरोक्त आरोप लगाते हुए कहा है कि वह भोपाल स्थित अस्पताल का ठीक ढंग से संचालन नहीं कर पा रहे हैं अतः उन्हें अध्यक्ष पद से तत्काल हटा दिया जाये। (संभवतः जस्टिस अहमदी ने अध्यक्ष पद से अपना त्याग पत्र सर्वोच्च न्यायालय को भेज दिया है।)
तत्कालीन एटार्नी जनरल सोली सोराबजी ने बाजपेयी सरकार को राय दी थी कि एंडरसन के प्रत्यर्पण की कोशिश नहीं की जानी चाहिए क्योंकि इसमें सफल होने की संभावना नहीं है। अब कहा जाता है कि वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी एंडरसन के प्रत्यर्पण के लिए अमरीका पर दबाब बना रहे हैं। जानकारों का मत है कि परिस्थितियों के अंतर्गत यह प्रत्यर्पण आसान नहीं है।
कानून मंत्री जस्टिस अहमदी का नाम लेकर मामले की सुनवाई में बिलंब के लिए न्यायपालिका को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं साथ ही एंडरसन की रिहाई के लिए राजीव गांधी के बजाय उनके तत्कालीन प्रमुख सचिव अलेक्जेंडर को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। लगभग 2 सप्ताह की रहस्यमयी चुप्पी के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने कहा कि एंडरसन को भारत से बाहर भेजने के मामले से उनका कोई लेना-देना नहीं और इस तरह उन्होंने यही संकेत देने का प्रयास किया कि यह निर्णय तत्कालीन केंद्र सरकार का था, उनका नहीं। रहस्य को यह कहकर कुछ और गहरा दिया कि गैस त्रासदी और एंडरसन के मामले की पूरी जानकारी वह अपनी आत्मकथा में देंगे जो शीघ्र ही प्रकाशित होने वाली है। अगर वह अपनी आत्मकथा में संपूर्ण जानकारी देने वाले हैं तो आज देश की जनता को बताने में उन्हें क्या कठिनाई है? जाहिर है कि यह भी एक राजनीतिक दांव-पेंच है जिसके अर्जुन सिंह मंजे खिलाड़ी माने जाते हैं।
कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य सत्यव्रत चतुर्वेदी ने अर्जुन सिंह के 7-8 दिसंबर 1984 तथा 19 जून 2010 के वक्तव्यांे का संदर्भ देते हुए उन पर आरोप लगाया है कि वह या तो 1984 में झूठ बोल रहे थे या आज बोल रहे हैं। इस संबंध में यह उल्लेखनीय है कि 7 दिसंबर, 1984 को उन्होंने कहा था कि ‘इस गैस त्रासदी के लिए जिम्मेदार घटनाओं का रचनात्मक और आपराधिक उत्तरदायित्व वारेन एंडरसन, केशव महेंद्रा और बी.पी.गोखले प्रत्येक पर है। सरकार इस त्रासदी की निःसहाय दर्शक नहीं बनीं रह सकती।’ 8 दिसंबर, 1984 को उनका कहना था कि ‘एंडरसन को रचनात्मक उरदायित्व के लिए गिरफ्तार कर कानून की मंशा और अक्षरशः प्रावधानों का पालन हुआ है। हमने उन्हें इसलिए रिहा किया है कि तफ्तीस में अभी उनकी जरूरत नहीं और हमारी मंशा कभी भी उन्हें तंग करने की नहीं थी। 19 जून, 2010 को वह कहते हैं कि ‘मेरे पास इस मुद्दे पर कहने के लिए कुछ नहीं है। मैं गैस कांड और उसके बाद के घटनाक्रम से जुड़े विवरण अपनी आत्मकथा में दूंगा जिस पर अभी काम कर रहा हूं। इन परस्पर विरोधाभाषी वक्तव्यों के पीछे उनकी क्या मंशा है, इसका उत्तर सिर्फ वह ही दे सकते है। प्रणव मुखर्जी उनके 26 वर्ष पहले के एक बयान का हवाला देते हुए जनता में यह संदेश भेजने का प्रयास कर रहे हैं कि एंडरसन को बाहर भेजने के निर्णय से केंद्र सरकार का कोई संबंध नहीं था और अर्जुन सिंह ने भोपाल की कानून व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से उसे बाहर भेजने का निर्णय लिया था।
भारत पुनरोत्थान अभियान के तहत पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.सी.लाहोटी के नेतृत्व में पूर्व चुनाव आयुक्त जे.एम.लिंगदोह, पूर्व सी.ए.जी. बी.के.सिंगलू, सेवानिवृत्त एयर चीफ मार्शल एस.कृष्णमूर्ति, पूर्व डीजीपी जे.एफ.रेबरो और यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष हरि गौतम जैसे शीर्ष नौकरशाहों ने एंडरसन को न्यायालय की अनुमति के बिना बाहर जाने देने के अपराध में अर्जुन सिंह, तत्कालीन कलेक्टर और पुलिस अधीक्षक के खिलाफ मुकदमा दर्ज कर उन्हें गिरफ्तार करने की मांग की है।
26 जून कं अंक में अंग्रेजी दैनिक द हिंदू ने अपने अपने 7 व 8 दिसंबर, 1984 के अंकों में छपी रिपोर्ट के हवाले से कहा है कि मंत्रियों के समूह का यह कहना कि एंडरसन के मामले में राजीव गांधी की कोई भूमिका नहीं थी गलत है। 7 दिसंबर, 1984 के अंक में अखबार के दिल्ली स्थिति संवाददाता जी.के रेड्डी की रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि प्रिसिपल सेक्रेटरी पीसी एलक्जेंडर ने तत्कालीन प्रधान मंत्री राजीव गांधी को पूरी स्थिति से अवगत करवा दिया था। तब तक एंडरसेन भोपाल में ही था और विडंबना यह है कि राजीव गांधी मध्यप्रदेश में ही सागर में थे। वैसे भी यह बात पूरी तरह अतार्किक है कि इतनी बड़ी दुर्घटना हो जाए और देश के प्रधान मंत्री को पता ही न हो कि इस संबंध में क्या हो रहा है, ऐसा संभव ही नहीं है। वैसे भी एंडरसन दुर्घटना के तीन दिन बाद ही भारत आया था।
एंडरसन के मामले में तो भाजपा को अर्जुन सिंह और राजीव गांधी का नाम उछलने के बाद मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई है। भाजपा ऐसा चक्रव्यूह रचना चाहती है जिससे अर्जुन सिंह बाहर न निकल सकें। इसी मुहिम के अंतर्गत प्रदेश व्यापी धरना-प्रर्दशन का आयोजन है किंतु ऐसे कई गंभीर प्रश्न है जिनका उत्तर भाजपा शायद ही दे सके जैसे जब अर्जुन सिंह कथित रूप से एंडरसन को भगाने में मदद कर रहे थे तब भाजपा कहां थी और उसने इसका विरोध क्यों नहीं किया? कौन नही जानता कि राजनैतिक दल ऐसे प्रश्नो पर चुप्पी साधना ही उचित समझते हैं।
जहरीली गैस ‘मिक’ का ‘एंटी डोट’ (निरोधक) फैक्ट्री में उपलब्ध होने के बाबजूद गैस प्रभावितों को क्यों नहीं दिया गया? एक समाचार पत्र में प्रकाशित रिर्पोट के अनुसार उस दिन फैक्ट्री में गैस प्रभावित पांच सौ लोगों को उक्त दवा दी गई और उनकी जान बच गई थी। इसके पूर्व भी फैक्ट्री में कार्यरत गैस प्रभावित श्रमिकों को फैक्ट्री की डिसपेंसरी में इलाज किया जाता था और वे स्वस्थ हो जाते थे। मूल प्रश्न यह है कि उपलब्ध होते हुए भी उपरोक्त एंटी डोट पीड़ितों को क्यों नहीं दिया गया और सरकार ने इसकी कोई व्यवस्था क्यों नहीं की?
एक सच्चाई यह भी
सुप्रसिद्ध कम्युनिस्ट नेता होमी दाजी की पत्नी पेरीन होमी दाजी के माध्यम से यह जानकारी मिली है कि जिस दिन उक्त हादसा हुआ उसी दिन होमी दाजी दिल्ली से भोपाल रेल द्वारा आ रहे थे कि अचानक भोपाल से एक स्टेशन पहले उनकी ट्रेन को रोक दी गई और ट्रेन घंटों रूकी रही। देर तक ट्रेन के रुकने का कारण तलाशने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि भोपाल के स्टेशन मास्टर का फोन आया है कि भोपाल में गंभीर गैस कांड हो गया है अतः यात्रियों की जान की सुरक्षा की दृष्टि से उन्होंने भोपाल आने वाली सभी ट्रेनों को भोपाल के पहले के स्टेशनों पर रुकवा दिया था। स्थिति सामान्य होने पर जब होमी दाजी की ट्रेन भोपाल पहुंची तो स्टेशन मास्टर के कक्ष के बाहर लगी भीड़ को देखकर उन्होंने कारण जानना चाहा तो वह हतप्रभ हो गए और उनकी आंखों में आंसू आ गए। उन्होंने देखा कि अपनी ड्यूटी का समय समाप्त हो जाने के बाद भी लगातार फोन कर ट्रेनों को रुकवाने वाला वह कर्तव्यपरायण और नेक इंसान अपने कक्ष में अपनी टेबिल पर सिर रखे हुए जहरीली गैस से दम घुटने के कारण मर चुका था। विडंबना यह है कि आज उस स्टेशन मास्टर का कोई नाम तक नहीं जानता जबकि होमी दाजी ने तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह और कई अन्य मंत्रियों से चर्चा कर तथा पत्र लिखकर यह प्रयास किया था कि उस स्टेशन मास्टर की प्रतिमा स्टेशन के बाहर लगाई जानी चाहिए किंतु उनके अनुरोध पर किसी ने ध्यान नहीं दिया। वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान चाहे तो आज भी उस स्टेशन मास्टर का नाम पता लगाकर उसकी प्रतिमा भोपाल स्टेशन के बाहर लगवा सकते हैं ताकि उसे सच्ची श्रद्धांजलि दी जा सके किंतु दुखद स्थिति यह है कि अपने देश में अच्छे कर्म और सेवा का कोई महत्व ही नहीं रह गया है। हां कोई घटना हो जाने पर धारा प्रवाह वक्तव्य जरूर दिए जाते हैं और आरोप-प्रत्यारोप लगने शुरू हो जाते हैं।
राजनीति की शतरंजी चालों के माध्यम से हमारे देश के नेता अपने आप को भले ही पाकसाफ बताने में जुटे हों लेकिन एक अखबार में प्रकाशित समाचार के अनुसार सीआईए की एक खुफिया रिर्पोट में यह सनसनीखेज खुलासा हुआ था कि केंद्र सरकार के आदेश के बाद ही एंडरसन को रिहा किया गया था। उसके 8 दिसंबर, 1984 के एक दस्तावेज के अनुसार तत्कालीन राजीव गांधी सरकार ने म.प्र.सरकार को एंडरसन को रिहा करने का आदेश दिया था। इसी रिर्पोट में यह भी बताया गया है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह की सरकार एंडरसन के विरुद्ध कार्यवाही करना चाहती थी क्योंकि उस समय राज्य के चुनाव होने वाले थे और सरकार उसका राजनैतिक लाभ उठाना चाहती थी किंतु केंद्र सरकार ने विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए एंडरसन की रिहाई में रुचि ली थी क्योंकि केंद्र की नजर अमेरीकी मल्टी नेशनल कंपनियों पर थी इसी कारण उसने म.प्र. की सरकार को एंडरसन को छोड़ने का आदेश दिया था।
वर्तमान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चैहान ने घोषणा की है कि भोपाल के गैस पीड़ितो ंको न्याय दिलाने के लिए राज्य सरकार हर संभव प्रयास करेगी। इस देश की जनता यह समझने में असमर्थ है कि 25 वर्ष के पश्चात विभिन्न दलों के नेता विभिन्न प्रकार के वक्तव्य देकर आज कहना क्या चाहते हैं? जब समय रहते उन्होंने वांछित वैधानिक कार्यवाही नहीं की तो आज इनके द्वारा की जाने वाली लीपापोती से क्या होने वाला है? भोपाल गैस त्रासदी केवल गैस त्रासदी नहीं बल्कि यह न्याय, कानून, राजनीति की मिली-जुली त्रासदी है जो इस देश के लोकतंत्र के लिए ऐसा कलंक है जो शायद ही कभी मिटाया जा सके
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