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भेड़ाघाट

Thursday, February 25, 2010

मौत यहां अतिथि नहीं

मौत के मामले में देखा जाए तो वह यहां किसी अतिथि की तरह न आकर हमेशा डेरी डाले रहती है। भारत में अधिकत्तर मौतें भोजन के अभाव में होती हैं जबकि अनाज से और खास तौर पर निर्यात होने वाले चावल से भारतीय खाद्य निगम के गोदाम भरे पड़े हैं। बाजारों में महंगी से महंगी शराबे मिलती है। छतों पर डिश एंटिना लगे हुए हैं। होटलों में शाही पनीर और मुर्गे की टांग मिलती है। फिर भी यहां भूख है।
भूख से मौत के लिए वैसे तो उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश भी कुख्यात हैं लेकिन उड़ीसा को तो जैसे इसका शाप मिला हो। पूरे देश से सूखे और अकाल की आ रही है लेकिन इन खबरों में कालाहांडी का नाम नहीं हैं। कालाहांडी भूख और अकाल से होने वाली मौतों का एक ऐसा मुहावरा बन गया है कि वहां भूख और अकाल अब खबर नहीं बनते। पश्चिमी उड़ीस के बोलांगीर मेें तो इथियोपिया के बाद सबसे ज्यादा मौत की खबरे आती है। वह भी भूख से मौत की खबरे। वैसे भारत में अकाल और आपदाओं के उपकारधर्मी पर्यटन का, कालाहांडी एक तीर्थ भी हैं। यहां आम तौर पर देश, विदेश से चंदा ले कर चलने वाले, और अकाल मिटाने का दावा करने वाले तमाम सामाजिक संगठन है जिन्हें बोलचाल की भाषा में एनजीओ कहा जाता है आते रहते हैं। इस सूखे के मौसम में भी कालाहांडी हरा भरा है। धान के खेतों में पानी भरा है। फसल पिछली बार भी अच्छी हुई थी और इस बार भी अच्छी होने की उम्मीद है। सबसे ज्यादा इस इलाके में धान ही होता है और वह भी इस स्तर का कि आम तौर पर निर्यात किया जाता है। ये धान उगाने वाले किसान भूखे रहते है या अपने ही खेतों पर मजदूरी करते है। इस पूरे इलाके में सूदखोरी का धंधा इतनी निर्लज्जता से चलता है कि बड़े से बड़ा बेशर्म शर्मा जाए। एक रुपए पर अस्सी पैसा ब्याज यानी ब्याज का प्रतिशत 80 फीसदी और वह भी प्रति माह। डागोस और जेनेवा में भारतीय निर्यात और विकास दर की घोषणा करने वाले हमारे सत्ता के सूत्रधार जानते हैं कि 13 प्रतिवर्ष से ज्यादा ब्याज लेना अपराध है लेकिन पश्चिमी उड़ीसा के ज्यादातर जिलों में यह अपराध सामाजिक और सामुदायिक आधार पर चलता रहता है और किसी को ऐतराज नहीं होता। कालाहांडी की ओर सबसे पहले ध्यान दिया था इंदिरा गांधी ने। वे 1980 में कालाहांडी के दौरे पर गई थी और केबीके विकास बोर्ड की घोषणा कर के आई थी। इस कोष में सारा पैसा केंद्र सरकार को देना तय हुआ था। मगर सरकारी माल आ रहा है और उसका बंटवारा होना है तो स्थानीय विधायकों और सांसदों में बोर्ड का सदस्य बनने की होड़ मच गई और वोट बैंक की राजनीति में बोर्ड बन ही नहीं पाया। भारतीय जनतंत्र को भूख तंत्र भी कहा जा सकता है। 1984 में राजीव गांधी यहां आए। उन्होने काफी फिल्मी अंदाज में एक खेत की जमीन से उठा कर कहा कि वे अपनी मां के वायदे को पूरा करेंगे। मगर जल्दी हीे अरुण नेहरू, अरुण सिंह और रोमी छाबड़ा जैसे उनके चमचों ने जो क्लब और कॉरपोरेट संस्कृति के अलावा कुछ नहीं जानते थे, ने राजीव गांधी को कंप्यूटरों की दुनिया में फंसा दिया और फिर बोफोर्स का बवाल आया और राजीव गांधी कालाहांडी भूल गए। सोनिया गांधी 2004 में यूपीए सरकार बनने के बाद यहां आई और विकास का वायदा कर के चली गईं। राहुल गांधी तो अभी 2008 में वहां गए और कहा कि वे सरकार को विकास के लिए मजबूर करेंगे। भारतीय जनता पार्टी का रिकॉर्ड भी कालाहांडी की भूख के मामले में बहुत उज्जवल नहीं हैं। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तो मैं खुद कालाहांडी के कई निवासियों को अपनी पहल पर उनसे मिलवाने ले कर गया था। मेरी गोद में नुआपाड़ा जिले के खरियार ब्लॉक के एक गांव की चार साल की लड़की कुंजबनी भी थी। कुंजबनी जब पैदा हुई थी तो उसके पिता ने अस्पताल के खर्चे के लिए 1600 रुपए का कर्ज लिया था और उन चार सालों में वह अभागा पिता 12 हजार रुपए चुका था मगर सूद के आठ हजार रुपए बाकी थे और मूलधन अलग से। श्री वाजपेयी ने धीरज से सुना था और कुंजबनी के माथे पर हाथ रख कर कहा था कि कालाहांडी के लोगों के साथ न्याय किया जाएगा। कुंजबनी अब 15 साल की हो चुकी है। उसके जन्म के लिए जो कर्ज लिया गया था वह अभी तक चुका नहीं हैं और वह भोली बच्ची अब बंधक मजदूर के तौर पर काम कर रही है। अटल बिहारी वाजपेयी को पोखरण और पाकिस्तान से ही फुरसत नहीं मिली। कालाहांडी हमारे अति विशिष्ट महानुभावों की राजनैतिक रासभूमि हैं और इसीलिए नुआपाड़ा में एक हवाई अड्डा बनाया गया है। कालाहांडी का इतना ही विकास हुआ है। कई वर्ष पहले जब गुजरात के कच्छ इलाके में भयानक चक्रवात आया था तो संयोग से मैं वहीं था। इसे आप मेरी नियति कहें या कोई विधि का विधान कि कई महासंकटों में मैं उसी क्षण उसी जगह मौजूद रहा हूं। एक दिन देर हो जाती तो कांधार ले जाए गए विमान में भी मैं होता। एक दिन पहले काठमांडू से लौटा था। कच्छ और गांधीधाम इलाके में मैं गया था नमक पैदा करने के व्यापार ओैर आयोडाइज्ड नमक के मिथक को ठीक से समझने मगर चक्रवात के बाद वहीं रह गया। जब लाशे गिनी गई तो उनमें से 200 से ज्यादा कालाहांडी और आसपास के जिलों के लोगों की थी। वे बेचारे अपने खेत, घर और खलिहान छोड़ कर गुजरात के समुद्र तट पर मजदूरी करने गए थे और उनमें से ज्यादातर के नाम ठेकेदारों ने रजिस्टरों मे लिखे ही नहीं थे इसलिए उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिला। ये उस कालाहांडी के वासी थे जहां भारतीय कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा प्रति व्यक्ति खाद्यान्न पैदा होता है। लेकिन उनके लिए नही। अपने रायपुर में ज्यादातर रिक्शा चलाने वाले उड़ीसा के इसी इलाके के हैं। उनकी जमीन पर सूदखोरों ने कब्जा कर लिया हैं। कानून के अनुसार दलितों और आदिवासियों की जमीन पर कोई गैरआदिवासी या गेैर दलित स्वामित्व नहीं दिखा सकता इसलिए सूदखोरों के बहुत सारे आदिवासी और दलित नौकर हैं जो कालाहांडी, बोलांगिर और कोरापुट में साइकिलो पर घूमते रहते हैं और उन्हें पता भी नहीं हैं कि वे हजारों एकड़ जमीन के मालिक है। दस्तावेज उनके मालिकों के पास रखे हैं। उन्होंने तो सिर्फ अंगूठा लगाया है। उड़ीसा के लिए भारत सरकार ने एक केंद्रीय विश्वविद्यालय स्थापित करने का ऐलान किया है। 1988 से यह मांग चल रही है कि केबीके जिलों में से किसी में यह विश्वविद्यालय स्थापित किया जाए। लिख कर ले लीजिए कि नवीन पटनायक ऐसा नहीं होने देंगे। उन्हें अपने समुद्र तटीय इलाके से प्रेम हैें। कालाहांडी की जमीन अब खनिज उत्पादन के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लीज पर दे दी गई है और उससे इन किसानों का कोई लाभ नहीं होने वाला।

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