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भेड़ाघाट

Friday, February 26, 2010

पुलिस में बगावत कराने की फिराक में माओवादी

माओवादी प्रभावित राज्यों में सुरक्षा बलों के जवान और माओवाद कैडेट्स के बीच संघर्ष जारी है। इसमें दोनों ही तरफ के लोग मारे जा रहे हैं। इससे देश की शांति और विकास की प्रक्रिया बाधित हो रही है। सरकार माओवाद को एक समस्या मान कर इससे से जुड़े लोगों की सफाया करना चाहती है। वहीं माओवाद से जुड़े लोगों का कहना है कि गरीबों के प्रति सरकार और जमीदारों की नकारात्मक रवैये के कारण हीं हथियार उठाना पड़ा। समर्थन बटोरने माओवादी संगठन समय-समय पर पर्चे जारी कर आदिवासी समुदाय को यह बतना नहीं भूलते कि तुम हमारे हो, हमारे बीच के हो। रिश्ता तुम्हारी रोजी-रोटी से है मगर भाई मेरे, ऐसे जीने का भला क्या मतलब? छत्तीसगढ के अविभाजित बस्तर, राजनांदगांव और महाराष्ट्र के गढ़चिरोली क्षेत्र जिसे दण्डकारण्य के नाम से पुकारा जाता है, में लोगों को अब एक युद्ध लडऩे के लिये प्रेरित किया जा रहा है। अत्याधुनिक हथियारों और ढेर सारा गोलाबारूद। क्षेत्र में तैनात अधिकारी और जंगल महकमे के लोग यहां युद्ध लड़कर देश की सेवा करेंगे या अपनी रक्षा करेंगे। यहां आने पर आप एक सच्चाई को जरूर जाना समझा होगा। वो यह है कि आपके थानों-कैंपों के इर्द-गिर्द मौजूद बस्तियों में जीने वाले आदिवासी जो बेहद गरीबी में, बुनियादी सुविधाओं के अभाव में दशकों से सरकारी जारी लापरवाही का शिकार बनकर जिंदगी के साथ जद्दोजहद खिलाफ आप लोगों को लड़ाई लडऩा है। उन्हीं लोगों के सीने पर ताननी है अपनी रायफलें। क्योंकि सोनिया, मनमोहन सिंह, चिदंबरम, रमण सिंह, ननकीराम, अशोक चव्हान, महेंद्र कर्मा आदि नेताओं ने निर्णायक युद्व या आरपार की लड़ाई का जो हुंकार मार रहे हैं वो यहां के भोले भाले गरीब और मेहनतकश आदिवासी जन समुदाय के खिलाफ हीं है। आखिर यहां के जनता पर इतना गुस्सा क्यों?भोली-भाली व शांति चाहने वाली यहां की आदिवासी जनता का इतिहास देश के अन्य इलाकों के आदिवासी की तरह ही रहा है। इन्होंने 19 वीं सदी की शुरूआत से लेकर आज तक शोषण, लूट, उत्पीडऩ, अन्याय और परायों के शासन के खिलाफ बगावत का परचम हमेशा ऊंचा उठाए रखा है। 1911 में अंग्रेजों के खिलाफ इनलोगों ने जबरदस्त विरोध किया था जो इतिहास के पन्नों में महान भूमकाल के नाम से अंकित है। आने वाले 2011 में इस विद्रोह की 110 वीं सालगिरह मनानी है। और अब एक ऐसा संयोग बना है कि यह सौवां साल यहां के समूचे आदिवासियों को एक बार फिर प्रतिरोध का झंडा बुंलद करने पर मजबूर कर रहा है।बहरहाल यहां के आदिवासियों ने कई बिद्रोह किये। काफी खून बहाया, शहादतें दी। पर आजादी और मुक्ति की उनकी चाहतें पूरी नहीं हुई। पहले गोरें लुटेरों और 1947 के बाद से उनका स्थान लेने वाले काले लुटेरों ने इनके हिस्से में अभाव, अन्याय, अपमान और अत्याचार हीं दिये हैं। अपने हीं मां समान जंगल में वन विभाग के अधिकारियों ने उन्हें चोर बना दिया। जंगल माफिया, मुनाफाखोर व्यापारी, ठेकेदार, पुलिस, फॉरेस्ट अफसर। सभी ने उनका शोषण किया। उनकी मां-बहनों की इज्जत के साथ खिलवाड़ किया। हालांकि इनके खिलाफ उनके दिलो दिमाग में गु्स्सा उबल रहा था, लेकिन उसे सही दिशा देने की राजनैतिक ताकत उनके पास नहीं थी। ऐसी स्थिति में 1980 के दशक में उन्हें एक नई राह मिल गई। मुक्ति की एक वैज्ञानिक सोच और जनयुद्व का संदेश लेकर यहां पर माओवादी पार्टी ने कदम रखा। यहां की दमित-शोषित-उत्पीडि़त आदिवासी जनता में काम करना शुरू किया।सिर्फ यहां की आदिवासियों की नहीं बल्कि देश के तमाम इलाकों के लोगों की या यूं कहें कि देश की 90 प्रतिशत मेहनतकश लोगों की कमोबेश यही बदहाली है। देश के मजदुरों, किसानों, छोटे छोटे मंझोले व्यापारियों तथा आदिवासी, दलित, महिलाएं और अन्य पिछड़े समुदायों पर शोषण उत्पीडऩ का एक व्यापक दुष्चक्र जारी है। इस स्थिति के लिये जिम्मेदार वे लोग हैं जो आबादी के महज 11 फिसदी का प्रतिनिधि होने के बावजूद देश की समूची सम्पदाओं में 90 प्रतिशत पर हिस्सेदारी रखते हैं। गिद्ध माने जाने वाले इस समुदाय को माओवादी सामंती वर्ग, दलाल पूंजीपति वर्ग और साम्राज्यवादियों के वर्ग में बांटते है और इनकी सांठगांठ से निर्मित व्यवस्था को देश की सारी समस्याओं की जड़ बताते है।लोकतांत्रिक व्यवस्था को दुष्ट तिकड़ी की मुठ्ठी में बताते हुए यह प्रचारित किया जाता है कि यही लोग चुनाव लड़ते हैं, यही लोग जीतते हैं, पार्टी का नाम और झंडा का रंग जो भी हो। संसद भी इन्हीं लोगों का है। थाना, कचहरी, जेल सभी पर नियंत्रण इन्ही का है। देश की श्रमशक्ति, संपदाओं और संसाधनों को यही लोग लुटते हैं। इसके खिलाफ लडऩे पर पुलिस और फौजी बलों को उतारकर जनता पर अकथनीय जु्ल्म ढाते हैं। और उल्टा उन्हीं लोगो पर आंतकवादी या उग्रवादी का ठप्पा लगा देते हैं। गरीबी, बेरोजगारी, भुखमरी, अकाल, अशिक्षा, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, किसानों की आत्महत्या, पलायन आदि सभी सम्मस्यायें इन्ही तीन वर्गों र्की निर्मम लूट खसोट के कारण उपजी है। मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण के आधार पर खड़ी इनकी व्यवस्था को ध्वस्त करना निहायत जरूरी बताते हुए माओवादी कार्यकर्ता कहते हैं कि शोषणविहीन, भेदभावरहित तथा हर प्रकार के उत्पीडऩ से मुक्त खुशहाल समाज का निर्माण किया जा सके इसके लिए जनता के पास कोई दूसरा और नजदीकी रास्ता नहीं बचा है। हमारी पार्टी की इसी राजनीतिक सोच के साथ दण्डकारण्य के आदिवासी सचेत हुए हैं और फिर संघर्ष का शंखानाद बज गया। सरकारी गुस्से का कारण यही है।देश के अन्य नागरिक इन बदहाल आदिवासियों से अलग हैं? यह माओंवादी नेता ऐसा भी नहीं मानते हैं। वह पुलिस के जवान और छोटे स्तर के अधिकारी को ( आपके बलों का नाम जिला पुलिस, सीएएएफ, सीपीओ, एसपीओ, एसटीएफ, सीआरपीएफ, बीएसएफ, ग्रे-हाउण्डस, कोबरा, आईटीबीपी, एसएसबी जो भी हों) ऐसे ही शोषित व मेहनतकश माता-पिता की संताने मानते हैं। आदिवासी जनता और उसका नेतृत्व कर रहे नक्सली यह कहने में गुरेज नहीं करते हैं कि अमेरिकी साम्राज्यवादियों की वफादार सरकार के सेवक मनमोहन सिंह और उनके अन्य मंत्री हमारे दल को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये सबसे बड़ा खतरा बताते नहीं थकते लेकिन इस बात को सफाई से छुपा जाते हंै कि हमारी पार्टी से देश के मुठ्ठी भर लुटेरों को खतरा है। चूंकि रेडियो, अखबार, और टीवी पर उन्हीं लुटेरों का कब्जा है। इसलिये एक झूठ को सौ बार दोहराकर सच बनाने की उनकी चालें कुछ हद तक चल भी पा रही है।सरकार के सभी प्रयासों के बाद भी आदिवासी अवाम के लिए जायज संघर्ष की अगुवाई करने का दम भरने वाले माओवादी नेता अपने अधिकारियों और कार्यकर्ताओं को उकसा आदिवासियों का समर्थन पाने के लिए गांवों को जला रहे हैं। लूट रहे हैं। या फिर सलवा जुडूम जैसी व्यवस्था को नाकाम करने के लिए उनके साथ मारपीट कर रहे हैं। या फिर आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार कर रहे हैं। निहत्थे लोंगों पर गोलियां बरसा रहे हैं। और नरसंहारों को अंजाम दे रहे हैं। यह सब उस संविधान के खिलाफ जाकर कर रहे हैं जिसका पालन करने की शपथ लेकर देश के नेता और अफसर शाही देश सेवा में जुटे हंै। विडम्बना यह है कि जिन लोगों के खिलाफ यह सब कुछ हो रहा हैं वो आज भी गरीबी और भुखमरी से लड़ रही है। मेहनतकश जान बचाने की खातिर जन सेना और पीएलजी जैसे संगठनों के साथ मिलकर अपनी ही सेना और बल के खिलाफ जवाबी हमले कर रहे है जिसमें दर्जनों की संख्या में लोग हताहत हो रहे हैं। इन आदिवासियों से मिले नक्सलियों और माओवादियों को मिले समर्थन को देखते हुए नक्सल प्रभावित इलाकों में तैनात जवान खून-खराबा रोकने के लिए या तो आदिवासियों पर गोली चलाने से इनकार कर रहे हैं या संघर्ष के इलाके में डयूटी करने से मना कर कर रहे हैं। इसके चलते इलाके में नहीं जाने के कारण कई कर्मचारियों का निलंबन किया गया फिर भी वे अपने फैसले पर कायम पर रहे। इलाके में इन अताताइयों के बढ़ते हुए प्रभाव को देखते हुए माना यह जाता है कि फोर्स के जवान ही अब माओवादियों तक हथियार पहुंचा रहे हैं। नक्सली अब आदिवासी समुदाय के बीच ऐसे लोगों की सरहाना करते हैं जिन्होंने किसी न किसी वजह से आदिवासियों के पीछे छिपे नक्सलियों के खिलाफ बंदूक उठाने से मना कर दिया। इलाके में पदस्थ जवान कई परेशानियों और प्रताडनाओं के दौर से गुजर रहे हैं। खास कर उच्च अधिकारियों के बुरे बर्ताव से आहत पुलिस और अर्द्वसैनिक बलों के जवानों खुदकुशी भी कर रहे हैं। यहा अपने अफसरों को गोली मारकर खुद को भी गोली मारी।अपनी योजना को कारगर बनाने के लिए यह माओंवादी नेता आज जवानों के बीच ही फूट डालने की योजना के तहत काम करते हुए जवानों से अपील कर रहे हैं कि आप इस इस तरह निरर्थक मौत को गले न लगायें। आपमें ताकत है और सोच विचार कर फैसला लेने का विवेक भी। अपनी वर्गिय जड़ों को पहाचानिये। उकसाने और जनता पर कहर ढाने का आदेश देने वाले अपने अफसरों की वर्गीय जड़ो को पहचानिये। चिदम्बरम, रमनसिंह, महेंद्र कर्मा जैसों के असली चेहरे को पहचानिये। दोनो बिल्कुल अलग अलग हैं और एक दूसरे के विपरित भी हैं। दोनों हाथ फैला कर स्वागत करने की बात कहते हुए जवानों को अपनी बंदूकें लुटेरों, घोटालेबाजों, रिश्वतखोरों, जमाखोरों, देश की संपदाओं को बेचने वाले दलालों, देश की अस्मिता के साथ सौदा करने वाले देशद्रोहियों के सीने पर तानने की सलाह दे रहे हैं। इनका मानना है कि जिस मेहनत वर्ग में जन्म लिया है उस वर्ग की मुक्ति के लिये जारी महासंग्राम के सैनिक बनना चाहिए। न कि घूसखोरी, गालीगलौज, दलाली, जातिगत भेदभाव, धार्मिक साम्प्रदायिकता आदि सामंती मान्यताओं के ढांचे पर निर्मित पुलिस और अद्र्धसैनिक बलों मेें शामिल होकर देश के सच्चे सेवकों की राह में रोड़ा बनकर उभरना चाहिए।इलाके में तैनात पुलिस के जवानों की माने तो इन दिनों नक्सली अपनी वारदातों को अंजाम देने के बजाय रणनीतिक चाल चलते हुए पुलिस और अद्र्धसैनिक बलों तक यह संदेश पहुंचा रहे है कि वह हमलों में शामिल होने से इंकार कर दें। अपने अफसरों के हुक्म का पालन न करने की समझााइश देते हुए जनता के खिलाफ लाठी-गोलियों का प्रयोग नहीं करने की बात कह रहे हैं। सशस्त्र झड़पों के सूरत में हथियार डाल अपनी जान बचा लेने का संदेश देते हुए यह समझाने की कोशिश की जा रही है कि संघर्ष कि इतनी व्यापक सरकारी बर्बरता, आतंक और नरसंहारों के बावजूद भी यहां की जनता हमारी पार्टी के साथ क्यों खड़ी है। अपने अधिकारियों और सरकार के खिलाफ झूठे प्रचार का सहारा ले यह बताने की कोशिश की जा रही है कि जिस सरकार ने तुम्हारे हाथों में बंदूके थमाई हैं वो गद्दार हैं मुल्क के दुश्मन हैं। जबकि मत भूलो, कि तुम हमारे हो, हमारे बीचे के हो।

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