bhedaghat

bhedaghat
भेड़ाघाट

Tuesday, September 21, 2010

परिंदों से दरिंदगी

इन हरे कबूतरों के पंख कतर दिए गए हैं चाहे पिंजरे में कैद हों या फिर जंगल में आजाद, परिंदों की जान को भारत में आफत ही है. बर्डवॉचिंग यानी पंछियों को देखने का शौक पूरा करने के लिए अब मुंह अंधेरे उठने और दूरबीन साथ में लेकर चलने की जरूरत नहीं. बस एक बार दिल्ली के चांदनी चौक हो आइए. यहां आपको तोते से लेकर मुनिया तक हर वह परिंदा मिल जाएगा जो देश के आसमान से गायब हो रहा है.
जिन पक्षियों को छोटे में ही पकड़ लिया गया हो उन्हें यूं ही छोड़ देना उनकी हत्या जैसा है क्योंकि उन्हें खुद अपना खाना ढूंढना नहीं आताचिड़ियों के व्यापारी रहमान अली यहां दोहरी बल्कि कहें तो दोगली भूमिका में हैं. छोटे-छोटे पिंजरों में ठुंसी हुई चमकदार रंगों और बुझी आंखों वाली चिड़ियों को दिखाकर वे पहले तो आपमें संवेदना जगाते हैं और फिर कंक्रीट के जंगल में चिड़ियों के कुदरती आवास खत्म होते जाने पर आंसू बहाते हुए कहते हैं कि इन पक्षियों के बचने की उम्मीद तभी है जब आप जैसे लोग इन्हें खरीद लें.
1991 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (डब्ल्यूपीए) में हुए संशोधन के बाद से भारतीय वन्य पक्षियों के घरेलू या अंतर्राष्ट्रीय बाजार में व्यापार पर रोक लगी हुई है. इसके बावजूद हरेक शहर में खुलेआम चिड़ियों के बाजार लगते हैं. जैसा कि अली हंसते हुए बताते हैं, ’पुलिस तो बड़ी चिड़ियों (अपराधियों) के पीछे लगी रहती है.’
सच्चाई इससे अलग नहीं. वन्यजीव कारोबार पर नजर रखने वाले गैरसरकारी संगठन ट्रेड रिकॉर्ड्स एनालिसिस ऑफ फ्लोरा एंड फाउना इन कॉमर्स (ट्रैफिक) के मुखिया समीर सिन्हा के अनुसार भारत में पक्षियों की विविध प्रजातियों की मौजूदगी और यहां के निष्प्रभावी कानून एक ऐसा संयोग है जिसके चलते भारत जंगली चिड़ियों का मुख्य आपूर्तिकर्ता है. अनुमानों के मुताबिक चिड़ियों का घरेलू कारोबार ही कम से कम ढाई करोड़ रुपए प्रति वर्ष का है. इस आंकड़े में पिंजड़े बनाने से हुई आमदनी और हॉकरों के मुनाफे की रकम शामिल नहीं है.
हालात बदतर इसलिए भी हो जाते हैं क्योंकि वन्यजीव संरक्षण कार्यकर्ताओं का सारा ध्यान बाघ, गैंडों और दूसरे जीवों पर अधिक होता है, चिड़ियों पर कोई ध्यान नहीं देता. बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के डॉ असद रहमानी पिछले 30 साल से इसके लिए संघर्ष कर रहे हैं कि सरकार ’प्रोजेक्ट बस्टर्ड’ शुरू करने की मंजूरी दे दे, लेकिन उन्हें अब तक कामयाबी नहीं मिली है. वे कहते हैं, ’अगर तत्काल कार्रवाई नहीं की गई तो ग्रेट इंडियन बस्टर्ड अगले 10 वर्षों में लुप्त हो जाएगा. आखिर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय चिड़ियों के साथ सौतेला व्यवहार क्यों करता है?’

व्यापार तो चिंता की बात है ही उतना ही चिंताजनक यह भी है कि ’बचा लिए जाने’ के बावजूद गैरकानूनी रूप से खरीदी-बेची जा रही अधिकतर चिड़ियों के वास्तव में बच पाने की संभावना बहुत कम होती है. 2 जुलाई को ढाका के हजरत शाह जलाल अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जंगली चिड़ियों से भरे एक मालवाहक हवाई जहाज को पकड़ा गया था. इस पाकिस्तानी अंतर्राष्ट्रीय हवाई जहाज से दर्जनों पिंजड़े जब्त किए गए जिनमें चिड़ियों को ठूंस-ठूंसकर भरा गया था. ढाका के वन विभाग के एक आधिकारिक दस्तावेज के अनुसार (जिसकी प्रति तहलका के पास है) अधिकारियों ने 775 पक्षी पकड़े थे जिनमें से 330 की मौत लाने-ले-जाने के बर्बर तरीकों के चलते हो चुकी थी. इनकी मौत के लिए जिम्मेदार पाकिस्तानी नागरिक अहमद शेख वाजिद बांग्लादेश की अदालत में मामले की सुनवाई का इंतजार कर रहा है. हालांकि वन विभाग द्वारा अपनी कामयाबी पर पीठ थपथपाने के बावजूद बचा लिए गए ये परिंदे आजाद नहीं हुए हैं. वे अब बंगबंधु शेख मुजीब सफारी पार्क के पिंजड़ों में कैद हैं और इस मामले में अदालती प्रक्रिया चल रही है.

लेकिन इन चिड़ियों को आजाद करने के लिए पिंजड़ों का दरवाजा खोल देना भर काफी नहीं है. जैसा कि ट्रैफिक के साथ काम कर रहे अबरार अहमद बताते हैं, ’आप शेर जैसे क्षेत्रीय जीवों को किसी भी इलाके में नहीं छोड़ सकते. चिड़ियों पर भी यह नियम लागू होता है.’ उल्लू जैसी क्षेत्रीय चिड़ियों को एक सीमित जगह में नहीं छोड़ा जा सकता. जब तक यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि छोड़ी गई चिड़ियां अपने स्थानीय आवास में वापस पहुंच जाएंगी, इन चिड़ियों को छोड़ना बेकार है. जिन पक्षियों को छोटे में ही पकड़ लिया गया हो उन्हें यूं ही छोड़ देना उनकी हत्या करने जैसा है क्योंकि उन्हें अपना भोजन खुद ढूंढ़ने के तरीके मालूम ही नहीं होते. ऐसी हालत में पक्षियों को कई चरणों में छोड़ा जाना चाहिए. उन्हें पहले पिंजड़े से एक बड़े चिड़ियाघर में ले जाया जाए, जिसके बाद उन्हें जंगल के एक छोटे-से हिस्से में ले जाकर रखा जाए. कुछ दिनों बाद उन्हें पूरी तरह आजाद कर दिया जाए. हरेक चरण में इन पक्षियों की देखरेख की जाए.' लेकिन अबरार इस तरीके की मुश्किलों से वाकिफ हैं. वे कहते हैं, ’किसी के पास उतना धैर्य या समय नहीं है. चिड़ियों की देखभाल के लिए वैज्ञानिक विशेषज्ञता के साथ-साथ ममता की भी जरूरत होती है.’

हालांकि मीरशिकारी और बहेलिया जनजातियां पारंपरिक तौर से चिड़ियों को पकड़ने और उनके व्यापार से ही जीविका कमाती रही हैं लेकिन अबरार को लगता है कि वन्य जीवों का संरक्षण करने के हिमायती उनसे काफी कुछ सीख सकते हैं. वे कहते हैं, ’आदिवासी पक्षियों को पकड़ने के लिए ऐसे देसी तरीके इस्तेमाल करते हैं, जो मशीनी तरीकों या जालों से बहुत कम नुकसानदेह होते हैं. दूसरे तरीके तो कभी-कभी पक्षियों की मौत की वजह भी बन जाते हैं. आदिवासी इन पक्षियों को पीढ़ियों से जानते हैं. वे उनके घोंसला बनाने के तरीके से लेकर प्रणय के तरीकों तक, सबके बारे में जानते-समझते हैं.’
आदिवासियों के ज्ञान का यह भंडार पक्षियों की बीमारियों के इलाज में भी भारी योगदान दे सकता है, क्योंकि यह क्षेत्र अब तक आश्चर्यजनक रूप से काफी पिछड़ा हुआ है. दिल्ली के जैन बर्ड हॉस्पिटल में सर्जन डॉ वाईजी गौड़ स्वीकार करते हैं कि उनका सारा ज्ञान कोशिश करके सीखने की एक दर्दनाक प्रक्रिया से गुजर कर हासिल किया है. अधिकतर पक्षी, यहां तक कि फल खाने वाले पक्षी भी पर्याप्त प्रोटीन के लिए कीड़े खाते हैं. चूंकि यह जैन अस्पताल है इसलिए वार्डों (पिंजड़ों) में रखे घायल बाजों को भी पनीर और अनाज से संतोष करना पड़ता है. गौड़ बताते हैं, ’हम यहां हिंसक पक्षियों को अधिक समय तक रखना पसंद नहीं करते और मुझे नहीं लगता कि वे भी यहां बहुत दिनों तक रहना चाहते हैं.’ स्वस्थ पक्षियों को यहां छत पर बने एक बड़े घेरे में रखा जाता है जहां से उन्हें जैन त्योहारों के मौके पर आजाद कर दिया जाता है.

पक्षियों को लोग अनेक वजहों से खरीदते हैं, पालतू बनाने के लिए, चिड़ियाघरों के लिए, मांस के लिए, जादू के खेल के लिए, इलाज के लिए, चिड़ियों की लड़ाई जैसे खेलों के लिए और सौंदर्य प्रसाधनों के निर्माण लिए. अकसर सौदों के दौरान मानवीय करुणा को भी भुनाया जाता है क्योंकि लोग पुण्य कमाने के लिए पकड़ी गई चिड़ियों को खरीद कर आजाद करते हैं.

लेकिन चिड़ियों को इसके लिए काफी बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है. पकड़ने और लाने-ले जाने के दौरान चार में से सिर्फ एक चिड़िया ही जिंदा बच पाती है. गौरैया, कठफोड़वा, कोयल और उल्लू जैसे आम पक्षी पहले ही हमारे शहरों से गायब हो गए हैं. गाड़ियों का धुएं, शोर और मोबाइल फोन के टावरों का रेडिएशन भी उन पर खतरनाक असर डाल रहा है. इसलिए हैरत नहीं कि भारत में 2008 में विलुप्ति के कगार पर खड़ी प्रजातियों की संख्या 148 थी जो अब 152 हो गई है. ढाका में पकड़े गए पक्षियों में 300 पहाड़ी मैनाएं थीं. यह चिड़ियों की एक बहुत लोकप्रिय प्रजाति है जो आदमी की आवाज की नकल कर सकती है. समुद्र तल से 1000 फुट ऊपर, मूलतः पहाड़ी इलाके में पाई जाने वाली यह चिड़िया वनों की कमी के कारण मैदानी इलाके में आने को मजबूर हुई है. पकड़ी गई चिड़ियों में 35 हरी मुनिया भी थीं जिन्हें विलुप्ति की कगार पर माना गया है. इनमें से 20 अपने पिंजड़ों में मर गई थीं. मुनिया काफी महंगी होती है क्योंकि ये दुर्लभ है.

फिलहाल ट्रैफिक की कोशिश है कि ढाका में जब्त की गई चिड़ियों को उनके प्राकृतिक आवास में वापस लाया जाए.सिन्हा कहते हैं, 'हम तो सिर्फ उम्मीद ही कर सकते हैं. मैं इन चिड़ियों को कैद में रखने का हिमायती नहीं हूं. उम्मीद है कि बांग्लादेश भी यह बात महसूस करेगा.’

No comments:

Post a Comment