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भेड़ाघाट

Friday, September 24, 2010

मिलिए लोकतंत्र के राजाओं से

राजनीति पेशा है या समाजसेवा का ज़रिया, इसका जवाब इस साल संसद के मानसून सत्र को देखकर पता लग जाता है. सत्र के दौरान सांसदों ने जिस तरीक़े से अपना वेतन और भत्ता बढ़ाने की मांग की, उससे यह साफ हो गया कि इन माननीयों के लिए राजनीति समाजसेवा का ज़रिया तो कतई नहीं हो सकती. उनके लिए राजनीति पेशे से भी एक क़दम आगे की चीज है. यानी भरपूर सुख-सुविधा भोगने का एक ज़रिया. चाहे इसके लिए जनता को कोई भी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़े. लेकिन यह हाल स़िर्फ सांसदों का ही नहीं है, राज्य के मुख्यमंत्री भी जनता की जेब ढीली कर सुख-सुविधा भोगने में पीछे नहीं हैं. वह भी तब, जब दिल्ली जैसे शहर में 80 हज़ार से ज़्यादा लोगों के सिर पर छत नहीं है. विदर्भ में अब तक 2 लाख से ज़्यादा किसान असमय मौत को गले लगा चुके हैं. उत्तर प्रदेश में हर साल सैकड़ों बच्चे इंसेफ्लाइटिस की वजह से दम तोड़ देते हैं, लेकिन इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों की जीवनशैली पर नज़र डालें तो एक अलग ही तस्वीर दिखाई देती है. चमक-दमक से भरपूर तस्वीर. बिल्कुल इंडिया शाइनिंग की तरह. जिस देश की एक बड़ी आबादी को पीने का साफ पानी मयस्सर नहीं, वहीं इन राज्यों में से एक के मुख्यमंत्री आवास का पानी का बिल 62 लाख रुपये आए तो इसे आप क्या कहेंगे? उत्तर प्रदेश या महाराष्ट्र के कितने गांवों तक बिजली पहुंची है. और अगर पहुंचती भी है तो कितने घंटों के लिए, यह रिसर्च का मामला हो सकता है, लेकिन इन दोनों राज्यों के मुख्यमंत्री अपने आवास को रोशन करने के लिए महीने में 20 लाख रुपये से ज़्यादा बिजली पर ख़र्च कर देते हों तो इसे आप क्या कहेंगे? चौथी दुनिया ने उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री आवास पर होने वाले ख़र्च का ब्योरा आरटीआई के ज़रिए जुटाया है. प्राप्त सूचना के विश्लेषण से पता चलता है कि कैसे आम आदमी की गाढ़ी कमाई इन राज्यों के मुख्यमंत्री आवासों पर बेहिसाब ख़र्च की जा रही है.

राजतंत्र नहीं रहा, उसकी जगह प्रजातंत्र आ गया, लेकिन अंतर क्या आया? अब एक राजा की जगह कई राजा मिल कर आम आदमी का शोषण करते हैं, वह भी इतनी सफाई से कि आम आदमी को भनक तक नहीं लगती. कुछ ऐसे ही राजाओं की ख़बर ली है चौथी दुनिया ने. आरटीआई से मिली सूचना के मुताबिक़, इन राजाओं की प्यास बुझाने के लिए आम आदमी को अपनी करोड़ों की कमाई गंवानी पड़ रही है. अपना घर अंधेरे में रखकर राजाओं के आलीशान महलों (मुख्यमंत्री आवास) को रोशन कर रहा है आम आदमी. ख़ुद के सिर पर छत नहीं, लेकिन वह इन राजाओं के महलों की पेंटिंग पर ही लाखों रुपये ख़र्च कर रहा है.

प्रधानमंत्री भले ही अपने मंत्रियों को विदेश दौरे न करने, सरकारी ख़र्च घटाने की सलाह देते रहते हैं, लेकिन महाराष्ट्र में उन्हीं की पार्टी के मुख्यमंत्री अपने आवास की रंगाई-पुताई पर पांच सालों में 86 लाख रुपया पानी की तरह बहा देते हैं. उत्तर प्रदेश में मायावती की शाही आदत के मुताबिक़ ही उनके आवास के रखरखाव पर बेशुमार पैसा ख़र्च किया जा रहा है. और यह सब कुछ हो रहा है एक ऐसे देश में, जहां का हर तीसरा नागरिक ग़रीब है. 70 फीसदी आबादी की रोज की आय 20 रुपये से भी कम है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2009 के आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में भूखे एवं कुपोषित लोगों की संख्या पाकिस्तान, नेपाल, सूडान, पेरू, मालावी और मंगोलिया जैसे देशों से भी ज़्यादा है. पांच साल से कम उम्र के अंडरवेट (उम्र के हिसाब से कम वजन) बच्चों की सूची में भारत की हालत बांग्लादेश, पूर्वी तिमोर और यमन जैसी है. भारत में नाइजीरिया के मुक़ाबले ज़्यादा भूखे और कुपोषित लोग हैं. देश की राजधानी दिल्ली की जन वितरण प्रणाली के तहत ज़्यादातर ग़रीब परिवारों के पास राशनकार्ड नहीं हैं. एपीएल कोटे वाले के पास बीपीएल कार्ड हैं. उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में किसान मर रहे हैं, लेकिन इस सबसे बेपरवाह हमारे माननीय मुख्यमंत्रीगण इसी धरती पर स्वर्ग का मज़ा ले रहे हैं.

यह सब कुछ एक ऐसे देश में हो रहा है , जहां का हर तीसरा नागरिक ग़रीब है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2009 के आंकड़ों के मुताबिक़, भारत में भूखे एवं कुपोषित लोगों की संख्या पाकिस्तान, नेपाल, सूडान, पेरू, मालावी और मंगोलिया जैसे देशों से भी ज़्यादा है. अंडरवेट बच्चों की सूची में भारत की हालत बांग्लादेश, पूर्वी तिमोर और यमन जैसी है. जन वितरण प्रणाली के तहत ज़्यादातर ग़रीब परिवारों के पास राशनकार्ड नहीं हैं. उत्तर प्रदेश एवं महाराष्ट्र में किसान मर रहे हैं. लेकिन हमारे माननीय मुख्यमंत्रीगण इसी धरती पर स्वर्ग का मज़ा ले रहे हैं.

राज्यवार मुख्यमंत्री आवास पर ख़र्च, वित्तीय वर्ष 2005-06 से 2009-10 के दौरान

उत्तर प्रदेश

हिंदी पट्टी के बीमारू राज्यों में से एक है उत्तर प्रदेश. 2005 से अब तक यहां के मुख्यमंत्री रहे मुलायम सिंह यादव और मायावती. एक ख़ुद को समाजवादी कहते हैं तो दूसरी ख़ुद को दलितों का मसीहा. इन समाजवादी और दलितों के मसीहा की निजी ज़िंदगी में कितना समाजवाद है, दलितों के लिए कितनी चिंता है, इसका खुलासा इनके आवास (मुख्यमंत्री आवास) पर होने वाले ख़र्च को देखकर हो जाता है. इन पांच सालों में मुख्यमंत्री आवास का बिजली बिल आया लगभग 92 लाख रुपये का. यानी हर साल लगभग 20 लाख रुपये. महीने के हिसाब से लगभग डेढ़ लाख रुपये. मुख्यमंत्री आवास को जगमग बनाने के लिए बल्ब, सीएफएल बदलने और बिजली मरम्मत इत्यादि पर भी 13 लाख रुपये ख़र्च किए गए. साथ ही मुख्यमंत्री आवास में एसी और इलेक्ट्रानिक उपकरण इत्यादि लगाने पर भी 33 लाख रुपये ख़र्च किए गए. टेलीफोन बिल भी आया 19 लाख का. दरवाजे और खिड़कियों के पर्दे बदलने में भी 35 लाख रुपये ख़र्च हो गए. बदरंग उत्तर प्रदेश की तस्वीर सुंदर दिखाने के लिए मुख्यमंत्री आवास की रंगाई-पुताई भी जमकर की गई.

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र की एक और पहचान है. वह है विदर्भ. जहां के हर गांव में बड़ी संख्या में वैसी विधवाएं मिल जाती हैं, जिनके पति किसान थे और फसल अच्छी न होने की वजह से उन्होंने आत्महत्या कर ली थी. लेकिन इस राज्य के मुखिया चाहे वह विलासराव देशमुख रहे हों या अभी के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, किसी को कोई फर्क़ नहीं पड़ता. कम से कम उनकी निजी ज़िंदगी और उस पर आने वाले ख़र्च, जो जनता की जेब से चुकाए जाते हैं, को देखकर तो यही लगता है. महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा बिजली उत्पादन विदर्भ क्षेत्र में होती है, लेकिन सारी बिजली मुंबई, नागपुर और पुणे जैसी जगहों के लिए आरक्षित कर ली जाती है. विदर्भ अंधेरे में डूबा रहता है, लेकिन मुंबई में मुख्यमंत्री आवास

दिन-रात गुलज़ार रहता है. पिछले 5 सालों में इसकी क़ीमत भी जनता ने चुकाई है, 92.26 लाख रुपये. विदर्भ के किसानों की फसल भले ही सूखे से बर्बाद हो जाती है, लेकिन मुख्यमंत्री आवास में पानी के बिल/मिनरल वाटर के मद में 61.74 लाख रुपये ख़र्च हो जाते हैं. विदर्भ का बदरंग चेहरा मुख्यमंत्री को परेशान न करे, इस खातिर उनके आवास की रंगाई-पुताई पर पिछले 5 सालों में 86 लाख रुपये ख़र्च कर दिए गए.

दिल्ली

मुख्यमंत्री आवास पर ख़र्च के मामले में दिल्ली उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र से काफी पीछे है, ख़र्च भी काफी कम है. वैसे यहां भी 47 हज़ार रुपये का मिनरल वाटर 2006-09 के दौरान पिया गया. बिजली और पानी का बिल भी क़रीब 10 लाख रुपये आया. टेलीफोन बिल क़रीब 6 लाख रुपये का.

माया की माया
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बजाय असली मुद्दों पर ध्यान देने के पांच सितारा होटलों में रात्रिभोज (पार्टी) का आयोजन करती हैं और वह भी जनता के पैसों पर. दलित उत्थान की बात करने वाली मायावती की जन्मदिन की पार्टियां हमेशा से सुर्ख़ियां बटोरती रही हैं. वजह, ऐसे मौक़ों पर होने वाली शाहख़र्ची, सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल, कार्यकर्ताओं से महंगे उपहार लेने जैसे आरोप. खैर ये आरोप तो विरोधी दलों की तऱफ से लगाए जाते रहे हैं, लेकिन सूचना का अधिकार क़ानून के तहत जो जानकारी मिली है, उससे ख़ुद को दलितों की मसीहा मानने में फख्र महसूस करने वाली मायावती की शख्सियत के एक अलग ही पहलू का पता चलता है. मई 2007 में राज्य विधानसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत दर्ज करके मायावती सरकार बनाती हैं. 13 मई, 2007 को माया सरकार शपथ ग्रहण करती है और 25 मई, 2007 को मुख्यमंत्री दिल्ली के पांच सितारा होटल ओबरॉय में एक शानदार पार्टी (रात्रिभोज) का आयोजन करती हैं. उपलब्ध दस्तावेज के मुताबिक़, इस रात्रिभोज में विशिष्ट महानुभावों को आमंत्रित किया गया. हालांकि इस दस्तावेज में इन विशिष्ट महानुभावों के नाम का जिक्र नहीं है. ज़ाहिर है, विशिष्ट होटल (पांच सितारा) में विशिष्ट महानुभावों को दी गई पार्टी (रात्रिभोज) का ख़र्च भी विशिष्ट ही आना था. इसलिए इस एक रात की पार्टी का ख़र्च आया 17 लाख 16 हज़ार 8 सौ 25 रुपये. इस धनराशि का भुगतान स्थानीय आयुक्त, उत्तर प्रदेश शासन, नई दिल्ली के माध्यम से सचिवालय प्रशासन विभाग की ओर से किया गया. यह सूचना राज्य संपत्ति विभाग, उत्तर प्रदेश सरकार की तऱफ से उपलब्ध कराई गई है. हो सकता है कि लोगों को यह रकम मामूली लगे, लेकिन सवाल धनराशि का नहीं है. सवाल पांच सितारा होटल में पार्टी देने का भी नहीं है. मायावती अपने जन्मदिन की पार्टियों पर जितना ख़र्च करती हैं, उसके मुक़ाबले 17 लाख की रकम कोई बहुत बड़ी रकम नहीं मानी जा सकती, लेकिन सवाल उस व्यवस्था का है, जहां हमारे नुमाइंदों को यह सोचने की फुर्सत नहीं है कि जो एक पैसा भी वह अपने ऊपर ख़र्च करते हैं, वह ग़रीब जनता के हिस्से का होता है. वह ग़रीब जनता, जिसकी प्राथमिकता आज भी रोटी, कपड़ा और मकान है. सवाल हमारे नेताओं की उस मानसिकता का भी है, जो उन्हें पांच सितारा होटलों में पार्टी आयोजित करने के लिए प्रेरित करती है. इसका एक बेहतरीन उदाहरण ख़ुद मायावती ही हैं, जो अपना जन्मदिन समारोह मनाने के लिए अंबेडकर पार्क का ही चुनाव करती थीं. लेकिन 2007 के विधानसभा चुनाव तक पहुंचते-पहुंचते जैसे बसपा का नारा बहुजन से बदल कर सर्वजन हो गया, कुछ उसी तर्ज पर सत्ता मिलने के बाद मायावती की तऱफ से दी जाने वाली पार्टियां भी पार्क से निकल कर पांच सितारा होटलों तक पहुंच गईं.

भूतपूर्व को भी अभूतपूर्व सुविधा
हाल तक झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्रियों को दी जाने वाली सुविधाओं पर भी सालाना करोड़ों का ख़र्च था. हालांकि अब राज्यपाल ने इस सुविधा को ख़त्म करने का आदेश दे दिया है. झारखंड के 4 भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, मधु कोड़ा एवं अर्जुन मुंडा के आवास, सुरक्षा और टेलीफोन बिल पर करोड़ों रुपये ख़र्च होते थे. शिबू सोरेन मुख्यमंत्री रहते जितने बड़े बंगले में नहीं रहते थे, उससे बड़ा बंगला उन्हें भूतपूर्व बन जाने पर मिला हुआ था. इन पूर्व मुख्यमंत्रियों के आवासों की देखरेख और साजसज्जा पर पिछले 6 सालों में 13 करोड़ रुपये ख़र्च हुए थे. पिछले वित्तीय साल के दौरान स़िर्फ सुरक्षाकर्मियों का वेतन ही क़रीब 17 लाख रुपये आया. ध्यान दीजिए, भूतपूर्वों के उक्त शाही ख़र्च झारखंड जैसे राज्य में वहन किए जा रहे थे.

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