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भेड़ाघाट

Tuesday, September 21, 2010

ब्यूरोक्रेसी का बड़ा हिस्सा अनैतिक और मक्कार

जोगिंदर सिंह

देश कोई सरकार या राजनीतिक पार्टी नहीं चलाती, बल्कि नौकरशाहों का एक समूह चलाता है। नेता अपनी राजनीति में व्यस्त रहते हैं, और तमाम योजनाएं होती हैं नौकरशाहों के जिम्मे। ताजा मामले बताते हैं कि हमारी ब्यूरोक्रेसी का बड़ा हिस्सा अनैतिक और मक्कार है तथा भ्रष्टाचार के पेड़ की जडें मजबूत करने में इसी का हाथ है। क्या यही ब्यूरोक्रेसी देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा है? इसे कैसे सुधारा जा सकता है? जैसे सवालों पर इस बार की कवर स्टोरी..

रोमन दार्शनिक काटो ने सदियों पहले कहा था, ‘एक नौकरशाह सबसे घृणित व्यक्ति होता है। हालांकि गिद्धों की तरह उसकी भी जरूरत होती है, पर शायद ही कोई गिद्धों को पसंद करे। गिद्धों और नौकरशाहों में अजीब तरह की समानता है। मैं अभी तक किसी ऐसे नौकरशाह से नहीं मिला हूं, जो क्षुद्र, आलसी, क़रीब-क़रीब पूरा नासमझ, मक्कार या बेवकूफ़, जालिम या चोर न हो। वह ख़ुद को मिले थोड़े-से अधिकार में ही आत्ममुग्ध रहता है, जैसे कोई बच्च गली के कुत्ते को बांधकर ख़ुश हो जाता है। ऐसे व्यक्तियों पर कौन भरोसा कर सकता है?’

बेशक, ऐसा कहते हुए उनके दिमाग़ में भारतीय नौकरशाही नहीं रही होगी, क्योंकि वे भारत से परिचित नहीं थे। लेकिन उनकी यह व्याख्या हमारे नौकरशाहों के व्यापक बहुमत पर पूरी तरह सटीक बैठती है, जो केंद्र और राज्य सेवाओं को मिलाकर 1.90 करोड़ के क़रीब होते हैं। यह माना जाता है कि भ्रष्टाचार की जड़ें काफ़ी व्यापक और गहरी हैं। हाल ही में मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के तीन आईएएस अफ़सरों के यहां से अथाह संपत्ति बरामद हुई है, जो उनकी आय के ज्ञात स्रोतों के मुक़बले बहुत ज्यादा है। एक जमाने में नौकरशाही को स्टील (इस्पात) का ढांचा माना जाता था, जो अब स्टील (चोरी) का ढांचा बन चुका है।

आजाद होने के 63 साल बाद भी शासन व्यवस्था बद से बदतर ही हुई है। सरकार आईएएस अधिकारियों को प्रशिक्षण के लिए विदेशों में हार्वर्ड, ड्यूक, सिरेकस, एमआईटी, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स जैसे संस्थानों में भेजती है। पर मुद्दे की बात यह है कि हर साल 200 से अधिक अधिकारियों को हार्वर्ड और अन्य विश्वविद्यालयों में भेजे जाने से उनकी समग्र कार्यकुशलता या ईमानदारी कैसे बढ़ाई जा सकती है या भ्रष्टाचार किस तरह कम या ख़त्म किया जा सकता है।

हमारे देश में ढेर सारे कानून, नियम-उपनियम और अधिनियम हैं। 1030 के लगभग केंद्रीय और 6727 राज्यीय अधिनियम हैं, ये नौकरशाहों को नागरिकों के धर्य की परीक्षा लेने का भरपूर अवसर देते हैं। नया कारोबार शुरू करना हो या कोई नया उद्योग स्थापित करना हो, हमारे देश में कुछ भी करने से पहले पता नहीं कितनी सारी अनापत्तियां और अनुमोदन हासिल करने होते हैं। केवल पैसा ही नौकरशाहों को हाथ-पैर तेजी से चलाने के लिए उकसाता है।

ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की 2009 की सूची में भारत लगातार भ्रष्टतम देशों में शामिल किया गया है। 180 देशों की सूची में हमारा देश 84वें स्थान पर है और उसे 100 में से महज 34 अंक मिले हैं। भारत में बिजनेस की परिस्थिति को लेकर विश्व बैंक द्वारा 2009 और 2010 में दिए गए आंकड़े अपनी कहानी ख़ुद कहते नजर आते हैं। देश में कारोबार करने की सहज परिस्थितियों के लिहाज से 180 देशों की सूची में हम 133वें स्थान पर हैं। पिछले साल हम 132 नंबर पर थे। हमारी नौकरशाही सबसे निकृष्ट स्तर पर शासकीय कार्य और संचालन का प्रतीक बन गई है।

भ्रष्टाचार और कुशासन अक्षमता के सहोदर हैं। प्रधानमंत्री लगातार वितरण व्यवस्था की विफलता के बारे में कह रहे हैं, चाहे यह चाहे यह हर्षद मेहता था या तेलगी घोटाला या परियोजनाओं का निर्धारित समय सीमा में निबटारा न होना। भ्रष्टाचार पर नियंत्रण की राह में सबसे बड़ी बाधा असीमित बचाव और अनुमोदन एवं कानूनों की ढेर सारी परते हैं, किसी ब्यूरोक्रेट को छूने से पहले जिनसे पार पाना होता है। यह एक चपरासी से लेकर मुख्य सचिव तक, सब पर लागू होता है।

हाल ही में सीबीआई ने ऐसे प्रकरणों की सूची सार्वजनिक की है, जो मंजूरी के चक्कर में लटके हुए हैं। इस सूची में हरियाणा के एक पूर्व मुख्यमंत्री के पास 2006 में मिली बेहिसाब संपत्ति का प्रकरण भी शामिल है। सीबीआई ने कुल मिलाकर 132 प्रकरण सूचीबद्ध किए हैं, जिनके लिए मंजूरी लटकी हुई है। एक मामले में 15 तक स्वीकृतियां लेनी पड़ती हैं। सीबीआई के अधिकारी जिन लोगों पर कार्रवाई की प्रतीक्षा कर रहे हैं, उनमें विभिन्न विभागों के आयुक्त, आईएएस अफ़सर, सीएजी, एमसीडी और सीपीडब्ल्यूए के ऑडिटर भी शामिल हैं।

सैद्धांतिक रूप से सरकार एक अस्पष्ट निकाय है, लेकिन इसका 99 प्रतिशत हिस्सा आईएएस हैं, जो कि वास्तविक सरकार हैं। वे न सिर्फ़ लाखों-करोड़ों रुपए की योजनाएं बनाते और मसौदा मंजूरी देते हैं, बल्कि उन्हें लागू भी करते हैं। वे ही कानूनी बिरादरी की मदद से नियम और कानून बनाते हैं और फाइलों को लटकाने या तेजी से निबटाने का काम करते हैं। यह उनकी बिरादरी ही है, जो उन्हें नियमों की ढाल प्रदान करती है, न सिर्फ़ उन्हें, बल्कि तमाम लोगों को। शायद उन्हें पक्षपात के लिए आरोपित किया जा सकता है।

सभी शीर्ष पद, चाहे वे मंत्रियों के पीए और पीएस हों, मंत्रियों के सलाहकार हों या अंडर सेक्रेटरीज और सेक्रेटरीज हों, वे उनके कैडर जॉब्स की तरह रेखांकित किए गए हैं। सैद्धांतिक तौर पर सभी पद सभी सेवाओं के लिए खुले हैं, लेकिन वास्तविक व्यवहार में आईएएस को छोड़कर बाक़ी सभी सेवाएं अछूत की तरह हैं। राज्यों और केंद्र के ज्यादातर मंत्री पेशेवर हैं और सरकार चलाने के तौर-तरीक़े समझने की बजाय राजनीति में ज्यादा व्यस्त रहते हैं।

वे प्रशासन से संबंधित सारे काम पीए और अपने विभाग में कार्यरत अन्य नौकरशाहों पर छोड़ देते हैं। सो, अगर किसी भ्रष्ट नौकरशाह के खिलाफ़ कार्रवाई करनी होती है, तो इसमें उम्र गुजर जाती है। पहली बात तो यह है कि वह ख़ुद को बचाने की कोई कसर नहीं छोड़ता।

वह ऐसी योजना बनाता है कि पकड़ में ही न आए और पकड़े जाने की सूरत में कानूनी गलियों और कोर्ट के अड़ंगों से बच निकलने की जुगत भिड़ाता है। कुछ समय पहले, कोर्ट में लंबित पड़े मामलों के आंकड़े आए थे। न्याय के दरवाजें सभी के लिए खुले हैं, ठीक उसी तरह जैसे देश के फाइव या सेवन स्टार होटलों में भुगतान करके कोई भी जा सकता है। लेकिन क्या आप भारत में सचमुच न्याय पा सकते हैं और अन्याय से निजात पा सकते हैं?

लंबित सीबीआई प्रकरणों पर दिल्ली सरकार के एक कैबिनेट नोट ने इस स्थिति को ‘ख़तरे की घंटी’ के समान बताते हुए कहा था कि 119 प्रकरणों में तो अभियोग, आरोप ही तय नहीं हुए हैं और तत्काल समुचित कार्रवाई की दरकार है.. प्रकरणों के निबटारे में और देर अपराधियों को अपनी गतिविधियां जारी रखने के लिए प्रोत्साहित करती है। दिल्ली में प्रकरणों की राह में अवरोध अपनी कहानी ख़ुद बयां कर देते हैं- भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1998 के तहत 1389 सीबीआई प्रकरण आठ साल से Êयादा समय से चल रहे हैं।

51 प्रकरण 15 साल से Êयादा समय से लटके हैं। 172 केसों को लटके 18 साल से अधिक समय हो चुका है। हक़ीक़त में ये आंकड़े तो सिर्फ़ नजीर हैं, पूरी तस्वीर नहीं। देखा जाए, तो नौकरशाही देश के विकास में अड़ंगा ही रही है।

अब इसे धूल-धूसरित करने का व़क्त है। नौकरशाही का निहित स्वार्थ ही भ्रष्टाचार, कदाचार और बड़ी मछलियों के बच निकलने के लिए जिम्मेदार है। हमें दुनिया की सर्वश्रेष्ठ व्यवस्थाओं को लेकर उन्हें अपने देश में आजमाना चाहिए। सबकुछ एक ही सेवा के लिए संरक्षित नहीं करना चाहिए, बल्कि सभी तरफ़ से सुयोग्य व्यक्ति लिए जाने चाहिए। प्रशासन को एक ही सेवा के लिए सुरक्षित रखने का वर्तमान सिस्टम चौकोर खानों में गोल खूंटे में जबर्दस्ती फिट करने की तरह है।

हालांकि स्व. राजीव गांधी ने ब्यूरोक्रेसी से बाहर के सुयोग्य लोगों को लेने के लिए नियम बदले थे, बावजूद इसके ब्यूरोक्रेसी ने सुनिश्चित कर लिया कि वित्तीय व अन्य क्षेत्रों में विशेषज्ञता की दरकार वाले तमाम जॉब्स रिटायरमेंट के बाद आईएएस के हिस्से में जाएं। राजनीतिक नेतृत्व भी सुरंग की दृष्टि रखता है और सचिवालयीन बाबुओं से परे कुछ देख ही नहीं सकता या देखता ही नहीं है। ये बाबू ऑफिस रूपी अड्डों में नियम-क़ायदे चलाते हैं, बजाय फील्ड में जाकर चीजों का वितरण करने के।

बहरहाल, तमाम आईएएस अफसरों को एक ही पाले में रखना भी अन्याय होगा। मेरे कुछ आईएएस दोस्तों ने अपनी बेहतर साख क़ायम की है। ऐसे लोग हर जगह कारगर होते हैं। राजनेता विकास और वितरण व्यवस्था को बेहतर बनाने के लिए जो भी कहें, इससे औसत नौकरशाह, ख़सतौर से उच्च स्तर पर बैठे लोगों के कान पर जूं भी नहीं रेंगती, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे किसी के प्रति भी जवाबदेह नहीं हैं। इस व्यवस्था में सुधार भले ही मुश्किल हो, पर असंभव तो क़तई नहीं है।

धारा 311 के तहत ‘प्रोविजन ऑफ समरी डिसमिसल’ को बड़े पैमाने पर इस्तेमाल करने की जरूरत है। इसी के साथ, यदि कोई व्यक्ति भ्रष्टाचार के मामले में पकड़ा जाए और तकनीकी आधार पर छूट जाए, तो प्रशासन में उसके लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। बहरहाल, यहां यह जोखिम जरूर है कि भ्रष्ट नेता इस ताक़त का दुरुपयोग कर सकते हैं, और इसीलिए बराबर जवाबदेही तय होनी चाहिए। इस सबके अलावा भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा अनुशंसित पुनर्गठन को तत्काल स्वीकृति मिलनी चाहिए, ताकि न केवल आम आदमी, बल्कि अपमानित महसूस करने वाले नौकरशाह भी न्याय पा सकें।

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