मदरसों को इल्म की इबादतगाह कहा जाता है. मगर इनमें से कई इसकी बजाय जुल्म की पनाहगाह बन गए हैं जहां बिहार और दूसरे राज्यों से गरीब बच्चों को लाया जाता है और फिर उनसे हर दिन 12-12 घंटे तक मजदूरी करवाई जाती है- कभी फैक्टरियों में भेजकर, कभी मदरसे के भीतर, कभी नाममात्र का पैसा देकर तो कभी मुफ्त में. नेहा दीक्षित की पड़ताल
उत्तरी दिल्ली की शकूरपुर बस्ती. मुसलिम बहुल इस इलाके में एक चारमंजिला इमारत है. यह दारुल उजलूम निजामिया गासुल उलूम मदरसा है जिसकी सबसे निचली मंजिल पर एक मस्जिद है. बाहर से देखने पर आपको ऐसा कुछ नजर नहीं आएगा जो इसे देश के बाकी 35 हजार मदरसों से अलग करता हो. लेकिन तहलका की पड़ताल के बाद यह सच सामने आया कि समुदाय की आंखों में धूल झोंकते हुए दारुल उजलूम मदरसा ऐसे कामों को अंजाम दे रहा है जो न सिर्फ उसके असल मकसद के खिलाफ जाते हैं बल्कि कानून के नजरिए से अपराध की श्रेणी में भी आते हैं.
यहां इस समस्या का एक और अंधेरा पहलू दिखता है और वह है मजहब के नाम पर गरीबों से बच्चे छीनना और फिर उन्हें एक नरक में धकेल देना
मुसलिम समाज में मदरसों की हमेशा से खासी अहमियत रही है. ये धार्मिक शिक्षा का केंद्र तो हैं ही, गरीब इलाकों में रहने वाले बच्चों के लिए अनौपचारिक शिक्षा का एक सुलभ जरिया भी हैं. भारत में ज्यादातर मदरसे देवबंदी, बरेलवी या अहले-हदीथ संप्रदायों से संबद्ध हैं और जकात (भलाई के कामों के लिए अपनी आय का 2.5 हिस्सा दान करना) से मिले पैसे से इनका खर्च पूरा किया जाता है. इसी रवायत के तहत 1992 में दारुल उजलूम मदरसा शुरू हुआ था. बरेलवी संप्रदाय के तीन मौलवियों ने इसकी स्थापना की थी. मदरसे का मकसद 150 मुसलिम बच्चों के रहने, खाने और पढ़ने की व्यवस्था सुनिश्चित करना था. लेकिन हमने पाया कि इस मदरसे से बच्चों को गैरकानूनी तरीके से 12-12 घंटों की पालियों में आसपास की फैक्टरियों और दुकानों में काम करने के लिए भेजा जा रहा था.
ऐसा ही एक बच्चा है अनीस. दस साल का अनीस बिहार के पूर्णिया जिले का रहने वाला है. उसके पिता वहां दिहाड़ी मजदूर हैं. उल्लेखनीय है कि बिहार, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल के बाद भारत में सबसे ज्यादा मुसलिम आबादी वाला राज्य है. 2001 की जनगणना के मुताबिक राज्य के 87 फीसदी मुसलिम ग्रामीण इलाकों में रहते हैं और इनमें से 49 फीसदी गरीबी रेखा से नीचे गुजर-बसर करते हैं. औसतन देखा जाए तो राज्य के ग्रामीण इलाकों में हर तीन में से दो मुसलिम परिवार कम-से-कम अपने एक बच्चे को उसके बेहतर भविष्य की उम्मीद में घर से दूर भेज देते हैं. अनीस का परिवार भी इन्हीं में से एक है. उसके पिता की दिहाड़ी 50 रुपए है जो आठ सदस्यों के परिवार के लिए दो वक्त का खाना जुटाने के लिहाज से काफी नहीं. इन्हीं हालात में एक शख्स जिसे वे 'चाचू' कहते हैं, ने उन्हें सलाह दी थी वे अपने सबसे बड़े बेटे को दिल्ली के मदरसे में भरती करवा दें जिससे वह हाफिज कुरान (वह व्यक्ति जिसे पूरी कुरान कंठस्थ होती है) बन सके (चाचू बाल तस्करी की दुनिया में आम शब्द है. कई बार ये रिश्तेदार या परिचित होते हैं जो मां-बाप से झूठे वादे करते हैं और उन्हें बच्चों को उनके साथ भेजने के लिए फुसलाते हैं. शिकंजे में फंसे हर बच्चे के लिए ऐसे चाचुओं को दो से ढाई हजार रु कमीशन मिलता है). अनीस के पिता तुरंत ही इस पर राजी हो गए और अपने बेटे को चाचू के सुपुर्द कर दिया. यह अनीस के मदरसे तक आने की कहानी है.
मदरसे की इन गतिविधियों के बारे में हमें एक सामाजिक कार्यकर्ता से सूचना मिली थी. इसके भीतर दाखिल होने के लिए तहलका संवाददाता ने खुद को फंड मुहैया करवाने वाले लखनऊ के एक एनजीओ का प्रतिनिधि बताया. हमारे छिपे हुए कैमरे के सामने मदरसे में अनीस से हमारी बातचीत हुई.
अनीस : चाचू ने कहा था कि हाफिज कुरान बनने के बाद मैं मस्जिद में इमाम बन जाऊंगा और मुझे पांच हजार की पगार मिलेगी.
तहलका : क्लास कितने बजे होती है?
अनीस : सुबह आठ से दस बजे तक.
तहलका : सिर्फ दो घंटे?
अनीस : हां, उसके बाद मैं काम करने जाता हूं.
तहलका : काम करने कहां जाते हो?
अनीस : ब्रिटैनिया बिस्किट फैक्टरी.
(तहलका ने अलग से अनीस के ब्रिटैनिया बिस्किट
फैक्टरी में काम करने की पुष्टि नहीं की है)
तहलका : क्या काम करते हो वहां ?
अनीस : पैकिंग करता हूं.
तहलका : काम करने का वक्त क्या है?
अनीस : दोपहर के दो बजे से रात दस बजे तक.
तहलका : वहां कितना पैसा मिलता है?
अनीस : 2,500.
तहलका : कितने वक्त से काम कर रहे हो?
अनीस : चार महीने से.
तहलका : तुम्हारे पास आई-कार्ड है?
अनीस : हां.
तहलका : तुम्हारे अब्बू-अम्मी को पता है कि तुम काम करते हो?
अनीस : नहीं.
" मैं सुबह नौ बजे से रात के साढ़े नौ बजे तक एक जूता फैक्ट्री में काम करता हूं. मुझसे कहा गया है कि मुझे हर महीने तीन हजार रुपए मिलेंगे. सेठ कहता है कि वह मुझे पैसे तब देगा जब मैं वापस अपने गांव जाऊंगा "
- जमील, 13 वर्ष
बातचीत के दौरान हम जैसे ही अनीस से पूछते हैं कि वह फैक्टरी से मिले पैसे का क्या करता है, मौलवी उसे कमरे से बाहर जाने को कह देते हैं.
इजाजत लेने के बाद हम इमारत का चक्कर लगाते हैं. ट्रेन के डिब्बों की तरह एक के पीछे एक बने छोटे-छोटे कमरे. इनमें बच्चों का सामान ठुंसा पड़ा है और खाली और खुली जगह कम ही दिखती है. कुछ कमरे खुले हैं और ज्यादातर बंद. साफ है कि अधिकांश बच्चे काम पर गए हैं. अनीस की दो बजे वाली शिफ्ट का वक्त भी होने ही वाला है.
बाल श्रम भारत में नई बात नहीं है मगर यहां इस समस्या का एक और अंधेरा पहलू दिखता है और वह है मजहब के नाम पर गरीबों से उनके बच्चे छीनना और फिर उन्हें एक ऐसे नरक में धकेल देना जहां हाड़तोड़ मेहनत है, नाम को खाना और काम के बदले अकसर कुछ नहीं.
तहलका की इस पड़ताल का दायरा बहुत बड़ा (दिल्ली के पांच मदरसे) तो नहीं मगर इससे जो संकेत मिलते हैं वे जरूर चिंता जगाते हैं. मानव संसाधन और शिक्षा मंत्रालय के अनुमानों के मुताबिक देश भर में 35 हजार मदरसे हैं और इनमें तकरीबन 15 लाख छात्र पंजीकृत हैं. अकेले दिल्ली में पांच हजार मदरसे हैं और इस आंकड़े में उन मदरसों की संख्या शामिल नहीं है जो बिना पंजीकरण के चल रहे हैं.
यह हमारे लिए काफी हैरानी भरी बात थी कि दारुल उजलूम मदरसा के मौलवी असरार-ए-कादरी और नसीम अझाई ने हमारे सामने खुलकर माना कि बच्चों को काम करने के लिए बाहर भेजा जाता है. वे हमें कागजात भी दिखाते हैं जिनमें उनके काम करने की जगहों के नाम और पते दर्ज हैं. हो सकता है कि यह बेपरवाह नजरिया उस घनघोर गरीबी को देखकर उपजता हो जिसमें ये बच्चे मदरसे आने से पहले रह रहे थे. यह भी हो सकता है वे उस एनजीओ से फंड मिलने के लालच में यह कर रहे हों जिसके हम प्रतिनिधि बनकर गए थे.
इसके बाद हमारी मौलवी नसीम अझाई से बातचीत होती है -
तहलका : हम यह जानना चाहते हैं कि क्या मदरसे के बच्चे कहीं काम करते हैं.
नसीम : देखिए, गरीब लोग अपने बच्चों का खर्चा नहीं उठा सकते. यदि बच्चे थोड़ा बहुत काम करके कुछ कमाई कर लें तो इसमें कोई बुराई नहीं है.
तहलका : क्लास किस वक्त होती है?
नसीम : सुबह 8 बजे से 11:30 तक. लेकिन जिन बच्चों को पहले काम पर जाना होता है उन्हें हम 10 बजे ही छोड़ देते हैं.
तहलका : वे कहां काम करते हैं?
नसीम : जरी फैक्टरी, कोल्ड स्टोर, कपड़ा फैक्टरी, मोबाइल शॉप और दूसरी दुकानों में.
तहलका : ये नजदीक ही हैं?
नसीम : हां. शकूरपुर गांव में सड़क के पार हैं.
तहलका : बच्चों का सारा खर्च मदरसा उठाता है?
नसीम : हां, खाने, रहने और पढ़ने का पूरा खर्च हम ही उठाते हैं.
तहलका : बच्चों को कितने वक्त का खाना दिया जाता है?
नसीम : जो बच्चे काम पर जाते हैं उनके बारे में तो हम नहीं बता सकते. जो मदरसे में रुकते हैं उन्हें खाना दिया जाता है.
तहलका : मदरसे में कितने बच्चे रहते हैं?
नसीम : 150.
तहलका : इनमें से कितने काम पर नहीं जाते?
नसीम : सिर्फ 30.
हालांकि तहलका को इसके सबूत नहीं मिले कि मौलवी को उन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों से कोई सीधा फायदा होता है जहां ये बच्चे काम करने जाते हैं, लेकिन नसीम की बातों से बहुत-सी सच्चाइयां उजागर हो जाती हैं. कादरी और नसीम मदरसा चलाने के खर्च के बारे में बात करते हैं. बच्चों के तीन वक्त के खाने का मासिक खर्चा 600 रुपए होता है लेकिन नसीम के शब्दों में ‘हम बच्चों के मालिकों से कहते हैं कि उन्हें खाना भी दें.’ जैसे कि नसीम हमें पहले बता चुके हैं कि 150 में से 120 बच्चे काम पर जाते हैं. वे मदरसे के बाहर ही खाना खाते होंगे. इस हिसाब से हर महीने मदरसा चलाने में 72 हजार रुपए का खर्च बचता होगा. इसका कोई हिसाब नहीं है कि मौलवी इस बचत का इस्तेमाल कैसे करते हैं.
खाना और भूख इस कहानी का सबसे दर्दनाक पहलू है. अनीस की तरह ही 11 साल का मोहम्मद कल्लन भी इसी मदरसे में रहता है. कल्लन शकूरपुर की एक कपड़ा फैक्टरी में काम करता है जहां उसकी सुबह नौ बजे से रात के नौ बजे तक 12 घंटे की शिफ्ट होती है. कल्लन के मुताबिक वह जींस की सिलाई करता है जिसमें अक्षय कुमार की फोटो आती है. हालांकि तहलका अलग से यह पुष्टि नहीं कर सका कि ये जींस असली होती हैं या नकली, पर कल्लन की बात से जाहिर होता है कि वह उस फैक्टरी में काम करता है जहां स्पाइकर ब्रांड के लिए जींस बनाई जाती हैं.
बच्चों को काम पर भेजने के बारे में मौलवी नसीम का तर्क था कि गरीब बच्चे काम करके कुछ कमाई कर लें तो कोई हरजा नहीं है, लेकिन विडंबना यह है कि कल्लन को कभी पगार ही नहीं दी गई. कल्लन बचपन की पूरी मासूमियत के साथ कहता है, 'कोई बात नहीं, अभी तो मैं ट्रेनी हूं, उन्होंने कहा है कि अगले साल से मुझे हर महीने 1,200 रुपया पगार देंगे.'
"चाचू ने कहा था कि हाफिज कुरान बनने के बाद मुझे इमाम के तौर पर पांच हजार रु की नौकरी मिल सकती है. अभी मैं दो बजे से दस बजे तक ब्रिटैनिया फैक्टरी में काम करता हूं"
- अनीस, 10 वर्ष
बिहार में मधेपुरा के रहने वाले कल्लन के अब्बू का इंतकाल हो चुका है. कोई जहांगीर चाचू उसे 2008 में मधेपुरा से लाकर दारुल उजलूम मदरसे में भरती करा गया था. कल्लन इसी मदरसे के अपने 25 साथियों के साथ काम पर जाता है. सभी से कहा गया था कि उन्हें दिन में दो बार खाना भी मिलेगा. कल्लन के मुताबिक रात में जब वे काम खत्म करते हैं तो उन्हें दो रोटी और थोड़ा-सा मटन दिया जाता है. लेकिन सुबह जब वे मदरसे से बिना कुछ खाए-पिए निकलते हैं तो फैक्टरी में एक कप चाय दी जाती है और साथ में दो ब्रेड जिनमें आयोडेक्स लगा होता है. कल्लन बताता है, ‘खाने पर पहले पेट में जलन होती है फिर मुंह में ठंडा लगने लगता है.’ खाने में आयोडेक्स का इस्तेमाल नशे के तौर पर होता है. यह किडनी और तंत्रिकातंत्र पर घातक असर डालता है. इसे खाने के बाद नशे की हालत में बच्चे घंटों तक बिना रुके काम करते रहते हैं. असंगठित क्षेत्र में बिना लिखा-पढ़ी के काम पर रखे गए बच्चों को ट्रेनी या अप्रेंटिस के तौर पर रखना आम बात है. ऐसा मजदूरी की लागत बचाने के लिए किया जाता है. अप्रेंटिसशिप कानून के मुताबिक यह गैरकानूनी है. स्वाभाविक ही है कि फैक्टरी मालिकों से इस मुद्दे पर बात करने की हमारी सारी कोशिशें नाकाम रहती हैं.
शकूरपुर बस्ती की इस दारुल उजलूम मस्जिद में हर शुक्रवार को 500 लोग नमाज पढ़ने आते हैं. लेकिन इनमें से किसी को भी इस बात का अंदाजा नहीं कि यहां पर कुछ ऐसा भी हो रहा है जिसे कुरान के मुताबिक गुनाह माना जाता है.
उत्तरी दिल्ली के खजूरी खास इलाके में भी एक मदरसा है. लगभग ढाई कमरे की जगह घेरने वाले इस फैज-ए-आजम मदरसे से बच्चे काम करने बाहर नहीं जाते बल्कि यही उनकी मजदूरी की जगह है. उमस भरे माहौल में यहां 5 से 10 साल की उम्र के तकरीबन 20 बच्चे बिंदियां पैक कर रहे हैं. कमरे में न पंखा है और न कुदरती रोशनी. तेज आवाज में रेडियो बज रहा है और मेजों पर झुके बच्चे बिंदियों पर चमकीले दाने चिपकाने में व्यस्त हैं.
एक दिन पहले हम यहां बिंदियों के कारोबारी की हैसियत से आ चुके थे. हम बच्चों को देख ही रहे होते हैं कि अचानक मौलवी इफ्तेकार कादरी (मदरसे के संचालक) हड़बड़ी में कमरे में आते हैं और बच्चों से किताबें निकालने को कहते हैं. मानो सब कुछ पहले से तय हो, बिंदियों के पैकेट अलग रख दिए जाते हैं, बच्चे चार लाइनों में व्यवस्थित होकर बैठ जाते हैं, ब्लैक बोर्ड खींचकर लटका दिया जाता है और इसके साथ ही मौलवी बच्चों को पढ़ाना शुरू कर देते हैं.
शायद उन्हें किसी ने खबर दे दी है कि मदरसे पर छापा पड़ने वाला है. कुछ ही देर के बाद यहां श्रम निरीक्षक गिरीश राज और एक स्वयंसेवी संस्था शांति वाहिनी के सदस्य पुलिस के साथ पहुंचते हैं. 27 बच्चों को बचा लिया जाता है. कुछ खिड़की के रास्ते भाग जाते हैं. इसके बाद मौलवी से पूछताछ की जाती है. हम जब कादरी से पूछते हैं कि वे बच्चों का शोषण क्यों करते हैं तो उनका जवाब आता है, ‘मैं मदरसा तीन दिन पहले ही आया हूं. मुझे बिंदी के धंधे के बारे में कुछ पता नहीं.’ उधर, शाहदरा के एसएचओ हमें बताते हैं कि जांच से बचने के लिए मौलवी झूठ बोल रहे हैं. श्रम निरीक्षक राज भी एसएचओ की बात की पुष्टि करते हैं. वे कहते हैं, ‘सच्चाई यह है कि बच्चे वहां रहते हैं और काम करते हैं. जब भी हम छापा मारकर उन्हें पकड़ने की कोशिश करते हैं तो तुरंत ही बिंदी बनाने की जगह कक्षा में बदल दी जाती है.’
बाल मजदूरी और शोषण की इस सामाजिक समस्या को गंभीर बनाने में फैज-ए-आजम जैसे गैरमान्यताप्राप्त मदरसों की काफी अहम भूमिका है. यह मदरसा जिस मोहल्ले में बना है वहां आस-पड़ोस के लोगों को इसके बारे में शक था लेकिन किसी के पास पुख्ता जानकारी नहीं थी. इसके पास ही रहने वाली मेहनाज बताती हैं, ‘छह साल से यहां हम दो-तीन लोगों को आते-जाते देख रहे हैं, लेकिन बच्चे बाहर नहीं निकलते. हमने जब भी पूछा कि इतने सारे बच्चे क्यों रखे गए हैं तो बताया गया कि यह मदरसा है. लेकिन वे स्थानीय बच्चों को मदरसे में दाखिला नहीं देते. हर बार कुछ महीने बाद नए बच्चे आ जाते हैं.'
यहां न तो सरकार की नजर है और न ही समुदाय के लोग इस पर ध्यान देते हैं. यही वजह है कि मोहम्मद अकमल जैसे बच्चे मौलवी इफ्तेकार कादरी जैसों के चंगुल में फंस जाते हैं. मूल रूप से बिहार के अररिया जिले का रहना वाला नौ साल का अकमल दो साल पहले यहां आया है. अकमल के पिता, जो रिक्शा चलाकर अपना गुजर-बसर करते हैं, ने उसे साकिब के साथ दिल्ली भेजा था. अकमल के चचेरे भाई साकिब ने उसे यहां आते ही कादरी साहब के सुपुर्द कर दिया. उसके बाद साकिब दोबारा उनसे मिलने कभी नहीं आया. यहां आने के बाद से ही इस सात साल के बच्चे को काम में लगा दिया गया. बच्चे यहां सुबह सात बजे से लेकर रात के दस बजे तक लगातार काम करते हैं. इस दौरान उन्हें छत पर जाने की भी इजाजत नहीं होती. अकमल बताता है, ‘मौलवी साहब ने बताया था कि जल्दी ही क्लासें शुरू होंगी तब तक मुझे यह काम सीखना चाहिए. लेकिन अभी तक क्लासें शुरू नहीं हुई हैं.’ इसके बाद अकमल हमें जो आपबीती सुनाता है वह हमारे रोंगटे खड़े करने के लिए काफी है. अकमल बताता है, ‘मैं पहले बहुत धीरे काम करता था, एक दिन में सिर्फ 20-30 पैकेट ही बना पाता था. एक दिन कादरी साहब नाराज हो गए और सब लोगों से कहा कि मुझे सबक सिखाएं.’ फिर सब बच्चों से उसके ऊपर थूकने और पेशाब करने को कहा गया. अकमल आगे कहता है, ‘मैं खूब रोया, मैंने उल्टियां भी कीं लेकिन उसके बाद मैं तेजी से काम करने लगा.’
अकमल अब एक दिन में बिंदियों के 100 पैकेट तैयार कर लेता है. दो साल से वह घर नहीं गया. जाना चाहता है, अपने छोटे भाई रफीक के साथ गिल्ली-डंडा खेलना चाहता है. लेकिन मजबूर है. अपने काम के लिए उसे हर इतवार को 50 रुपए मिलते हैं. उसकी जिंदगी में वही थोड़ी राहत का दिन होता है क्योंकि इनसे वह एक होटल में जाकर ढंग का खाना खाता है.
मौलवी इफ्तिकार कादरी और उनके साझीदारों को कठघरे में खड़ा करते हुए एसडीएम एके शर्मा कहते हैं कि मदरसों में पढ़ने वाले बच्चों के हाथों बनाई गई बिंदियां बेचकर ये लोग 40,000 रुपए महीने तक कमाते हैं और इस तरह मजहब और मानवता का खून करते हैं.
जैसा कि हमने पहले भी कहा, तहलका की यह पड़ताल एक बहुत बड़ी और गंभीर समस्या की छोटी-सी झलक हो सकती है. इस समस्या की जड़ें कितनी गहरी हैं, अंदाजा लगाना मुश्किल है पर बेशक यह एक गंभीर चेतावनी तो है ही. कई सालों से बाल तस्करी पर काम कर रहे बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) नाम के एक संगठन के मुताबिक उसने पिछले एक साल में दिल्ली के अलग-अलग मदरसों से करीब 50 बच्चों को छुड़ाया है.
"एक बार पुलिस का छापा पड़ा तो सेठ ने मुझे बांधकर एक बोरे में बंद कर दिया. दिन भर मैं गोदाम में पड़ा रहा. शाम को जब उन्होंने बोरा खोला तो मैं बेहोश था. मैं सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक काम करता हूं"
- जुनैद, 9 वर्ष
शक्ति वाहिनी को चलाने वाले ऋषिकांत कहते हैं, ‘यह बहुत संवेदनशील मामला है. जिम्मेदार संस्थानों को इसके खिलाफ तुरंत कार्रवाई करनी चाहिए. इस तरह की चीजें हमारे लिए बिलकुल नई हैं. मैं एकदम सही आंकड़े तो नहीं बता सकता लेकिन पिछले एक महीने में ऐसे 15 मामले मेरे सामने आए हैं जिनमें हम 10 बच्चों को नई दिल्ली रेलवे स्टेशन और कुछ मदरसों से निकाल पाने में कामयाब रहे हैं. बच्चों को इस वादे पर लाया जाता है कि उन्हें मदरसों में पढ़ाया जाएगा, लेकिन यहां लाकर उन्हें कारखानों में फेंक दिया जाता है. गृह मंत्रालय और एनसीपीसीआर (राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग) को चाहिए कि इन मदरसों के लिए सख्त हिदायतें बनाई जाएं. जो बच्चे यहां पढ़ते हैं उनका पंजीयन हो और उनका ब्योरा सरकारी दस्तावेजों में हो ताकि पुलिस और गैरसरकारी संस्थानों को इस तरह की तस्करी पर अंकुश लगाने में कुछ मदद मिल सके.’
ग्लोबल मार्च अगेंस्ट चाइल्ड लेबर के अध्यक्ष कैलाश सत्यार्थी इस पर सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘यह शर्मनाक है कि बच्चों की तस्करी करने वालों का धार्मिक संस्थाओं के साथ गठजोड़ हो गया है. दो साल पहले हमें बाल तस्करी के इस नए तरीके के संकेत मिले थे जब हमने बिहार-नेपाल सीमा से कुछ बच्चों को छुड़वाया था. बहुत पूछताछ के बाद पता लगा कि उन बच्चों को मदरसों में ले जाया जा रहा था ताकि धार्मिक संस्थाओं की आड़ में उनसे मजदूरी करवाई जा सके. अभी तक हम तकरीबन 150 बच्चों को ऐसे लोगों की गिरफ्त से छुड़वा चुके हैं. ये लोग जांच एजेंसियों की आंखों में धूल झोंकते हुए बाल शोषण के नए-नए तरीके ईजाद करते हैं. बस नाम के मदरसों में बच्चों को रखकर उनसे मजदूरी करवाना इन्हीं तरीकों में से एक है. बचपन बचाने और मदरसों से जुड़े इन रैकेटों का पर्दाफाश करने के लिए मुसलिम नेताओं और मौलवियों को आगे बढ़कर हमारा साथ देना होगा क्योंकि किसी भी धार्मिक ढांचे की छानबीन का मसला बहुत संवेदनशील है और यह हमारे काम में बड़ी मुश्किलें खड़ी करता है.'
पिछले साल सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल ने केंद्रीय मदरसा बोर्ड बनाने का प्रस्ताव रखा था. इसका काम होता परीक्षाएं करवाने, पाठ्यक्रम डिजाइन करने और बुनियादी सुविधाओं का सृजन करने में मदद करना. शायद इस तरह मदरसों की व्यवस्था में कुछ हद तक जवाबदेही आती. इससे पहले कि यह प्रस्ताव पारित होता मुसलिम समुदाय के एक धड़े की आलोचना के चलते इसे ठंडे बस्ते में रख देना पड़ा.
दूसरे राज्यों की तरह दिल्ली में राज्य मदरसा बोर्ड तक नहीं है जो कम से कम इस घटिया खेल को कुछ हद तक ही सही, रोक पाता. शाहदरा के एसएचओ ईश्वर सिंह कहते हैं, ‘शुरू में जब भी बच्चों को इस चंगुल से छुड़वाने हम मदरसों में जाते तो मौलवी हमें मदरसे का सर्टिफिकेट दिखाकर दरवाजे से लौटा देते थे, लेकिन बाद में जब ऐसी शिकायतें बढ़ने लगीं तो हम सक्रिय हुए और उनके दस्तावेजों की जांच-पड़ताल शुरू की. दो मामलों में सर्टिफिकेट फर्जी निकले. पिछले छह महीनों में पांच मदरसों से बिंदी बनाने और जरी के कारखानों में काम करने वाले 30 बच्चों को छुड़वाने में हमें कामयाबी मिली है. इस मामले को लेकर अब हमारी सजगता बढ़ गई है.’
सात साल का मोहम्मद नन्हे एलएनजेपी कॉलोनी में बने एक छोटे-से मदरसे से छुड़वाया गया है जिसका नाम उसे याद नहीं (बचाने वाली संस्था बताती है कि यह अलिया अरबिया मदरसा है). यह पूछने पर कि वह करता क्या था, नन्हे झट से चांदी का झुमका बनाने का तरीका बताने लगता है, ‘चांदी का लंबा-सा तार लो. उसको दो हिस्सों में काटो. फिर हरे और लाल मोती को एक-एक कर उस तार में लगाओ और झुमका तैयार. नन्हे के मुताबिक वह एक दिन में 20 जोड़े झुमके बना सकता था और कई विदेशी इन्हें थोक में खरीदने आते थे.
लेकिन सीखने की यह प्रक्रिया क्रूरता से भरी हुई है. बिहार के कटिहार जिले से यहां लाए गए नन्हे को जरूरत से ज्यादा तार लगाने की सजा के तौर पर ऐसी यातना दी गई जिसे सुनकर रूह कांप जाती है. तारों को काटने वाले वायर कटर से उसकी दाईं हथेली इस निर्ममता से दबाई गई कि उसकी दो उंगलियां टूट गईं और बाकी में गहरा जख्म हो गया. दो साल की भयावह यातना झेलने के बाद नन्हे और उसके तीन दोस्तों को वहां से छुड़ाकर मुक्ति आश्रम (नई दिल्ली के बुराड़ी गांव में बीबीए द्वारा बनाया गया छोटा-सा घर) लाया गया. हम नन्हे से पूछते हैं कि क्या उसने कभी अपने मां-बाप को अपनी हालत के बारे में बताया, तो वह कहता है, ‘क्या फायदा है? वे बेमतलब रोएंगे, चिल्लाएंगे और परेशान होंगे.’ महज सात साल के बच्चे का ऐसा जवाब जाने कितने सवाल खड़े करता है.
बीबीए के अध्यक्ष आरएस चौरसिया कहते हैं, ‘नन्हे जैसे बच्चों ने इतनी यातना झेली है कि इन्हें सलाह दे पाना या समझा पाना बहुत मुश्किल है. एक बार सारी कानूनी प्रक्रियाएं पूरी हो जाएं तो फिर उसके मां-बाप से बातचीत कर हम उसे घर पहुंचवा देंगे. इन बच्चों की दोबारा तस्करी न हो, इसके लिए इनका पुनर्वास जरूरी है.’
बचपन के साथ हो रहे इस खतरनाक खिलवाड़ में फंसे बच्चों में बिहार के बच्चों की संख्या सबसे ज्यादा है. एक अनुमान के अनुसार बिहार में कुल 4,000 मदरसे हैं, बावजूद इसके वहां लोग अपने बच्चों को इतनी दूर दिल्ली भेजते हैं. असल में उन्हें भरमाया जाता है कि देश की राजधानी में उनके बच्चों को बेहतर जिंदगी मिलेगी.
बिहार के सीतामढ़ी जिले से बरगला कर लाए गए नौ साल के जुनैद की कहानी भी ऐसी ही है. उसे भी कोई चाचू छह दूसरे बच्चों के साथ नांगलोई (उत्तर दिल्ली) के जीनातुल मदरसे तक लेकर आया था. खजूरी खास में बने फैज-ए-आजम मदरसे की तरह नांगलोई का यह मदरसा भी किसी संप्रदाय या संस्था से संबद्ध नहीं है. बल्कि कहा जाए तो यह मदरसा नहीं बल्कि एक अस्थायी डेरा है जहां बच्चे बंधुआ मजदूरी पर जाने से पहले कुछ समय के लिए रखे जाते हैं.
जुनैद बताता है, 'चाचू ने कहा कि वे शाम को लौट आएंगे. लेकिन साल भर होने को आया वे अभी तक नहीं लौटे.' इस बीच मौलाना अल्लामा हसनैन रजा खान - जिसके जिम्मे जुनैद को सौंपा गया था- ने उसे किसी और के हाथ सौंप दिया जिसे वह सेठ के नाम से पुकारता था. यह सेठ प्रशांत प्रसाद नाम का एक शख्स था जिसकी नांगलोई इलाके में जूतों की फैक्टरी थी, जिसे जूतालैंड के नाम से पुकारा जाता था. दूसरे बच्चों के साथ जुनैद सुबह आठ बजे से रात दस बजे तक इस फैक्टरी में काम करता था. उन दिनों को याद करते हुए वह बताता है, 'एक बार पुलिस ने फैक्टरी पर छापा मारा तो सेठ ने मुझे बोरे में बांधकर गोदाम में छिपा दिया था.' शाम को बोरा खोला गया तो वह बेहोश हो चुका था. जुनैद को 1,200 रुपए महीना तनख्वाह देने का वादा किया गया था जो उसे कभी नहीं मिली. जुनैद कहता है, 'सेठ ने कहा कि जब मैं घर जाऊंगा तब पैसे मुझे मिलेंगे.'
खुद को एक खरीददार बताकर तहलका जूतालैंड पहुंचा जो नांगलोई पुलिस थाने से महज 500 मीटर दूर है. अब पढ़िए प्रशांत प्रसाद ने कैमरे के सामने क्या कहा.
तहलका : जूतालैंड में आप कौन-सा ब्रांड बनाते हैं?
प्रशांत : हम सभी लोकल ब्रांड बनाते हैं.
तहलका : जैसे?
प्रशांत : एक्शन, कैंपस, बेसिक, ऐक्टिव, बाटा.
तहलका : आप कारीगर कहां से लाते हैं?
प्रशांत : बिहार
तहलका : कैसे?
प्रशांत : वहां हमारे लोग हैं.
इसके बाद असहज प्रशांत आगे किसी भी सवाल का जवाब देने से इनकार कर देता है. हालांकि तहलका स्वतंत्र रूप से इस बात की पुष्टि नहीं कर सका कि जूतालैंड उन ब्रांडों की सप्लाई चेन का हिस्सा है या नहीं जिनका जिक्र प्रशांत ने किया था, लेकिन प्रशांत ने अपनी फैक्टरी में निर्मित बाटा चप्पल का एक सैंपल हमें जरूर मुहैया करवाया (Art. no. 601-9008). इस बात की पुष्टि पंजाबी बाग के एसडीएम पीआर झा भी करते हैं. झा भी बचाव टीम के सदस्य थे. वे कहते हैं, ‘छुड़ाए गए बच्चे फैक्टरी के सिलाई वाले विभाग में काम करते थे, वे बाटा की चप्पलें तैयार कर रहे थे’ बाजार में बहुतायत में मौजूद नकली वस्तुओं को देखते हुए जरूरी नहीं कि यहां असली माल ही बन रहा हो, मगर बड़ी कंपनियों के लिए ये एक चेतावनी तो है ही कि वे अपनी निर्माण चेन की निगरानी कड़ाई से करें.
इसी साल 5 मार्च को बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) ने जूतालैंड से 27 बच्चों को छुड़ाया. इनमें से एक 10 वर्षीय साहिल से बातचीत में वहां की अमानवीय स्थितियों का अंदाजा मिलता है. इसकी असेंबली लाइन में काम करने वाले बच्चों ने भी यहां तमाम बड़े ब्रांडों के स्पोर्ट शूज बनाए जाने की बात कही. यहां हम एक बार फिर कहना चाहेंगे कि तहलका स्वतंत्र रूप से इन दावों की पुष्टि नहीं कर सका.
तहलका : तुम फैक्टरी में क्या करते थे?
साहिल : मैं सिलाईवाले डिपार्टमेंट में था.
तहलका : कितनी देर तक काम करना पड़ता था?
साहिल : 12 घंटे की शिफ्ट थी.
तहलका : तुम्हारी उम्र कितनी है?
साहिल : दस.
तहलका : तुम्हें तनख्वाह कितनी मिलती थी?
साहिल : एक घंटे के 30 रुपए.
(इतनी छोटी उम्र में साहिल शायद अपनी आय का अनुमान नहीं लगा सकता. यही सवाल हमने दूसरे और उम्र में बड़े जामिल से पूछा.)
तहलका : कौन-से ब्रांड बनाते थे?
जामिल : एडीडास, रिबॉक और एयरफोर्स.
तहलका : सेठ तुम्हें कितनी तनख्वाह देता था?
जामिल : 3,000.
तहलका : कब से यहां काम कर रहे हो?
जामिल : दो साल से.
तहलका : तुम्हारी उम्र कितनी है?
जामिल : 13.
तहलका : कभी तनख्वाह मिली?
जामिल : सेठ कहते थे कि जब मैं गांव जाऊंगा तब वे मुझे पैसे देंगे.
तहलका : तुम्हारा गांव कहां है?
जामिल : नालंदा, बिहार में.
तहलका : कितने से कितने बजे तक काम करते थे?
जामिल : सुबह 9 बजे से रात 9.30 बजे तक.
"मैं सुबह नौ बजे से रात नौ बजे तक जींस पर पॉकेट की सिलाई का काम करता हूं. नाश्ते में ब्रेड और आयोडेक्स खाता हूं. कुछ देर पेट में जलन होती है फिर मुंह में ठंडा लगता है"
-मोहम्मद कल्लान, 11 वर्ष
लेकिन मौलाना कादरी की तरह ही प्रशांत प्रसाद भी एक हफ्ते के भीतर जमानत पर रिहा हो गया. देश भर में बाल तस्करी की व्यापक समस्या के बावजूद इसके खिलाफ कानून बेहद लचर हैं. बच्चों की खरीद-फरोख्त करने वाले के खिलाफ इनमें से किसी भी कानून के तहत कार्रवाई की जा सकती है- भारतीय दंड संहिता, बालश्रम विरोधी कानून, जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट और बंधुआ मजदूर कानून. हालांकि इन कानूनों के तहत छह महीने तक की जेल की सजा का प्रावधान है, लेकिन जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट को छोड़कर बाकी मामलों में जमानत हो सकती है. जुवेनाइल जस्टिस ऐक्ट भी सिर्फ दिल्ली में ही गैरजमानती है. अगर आरोपित पर बालश्रम विरोधी कानून के तहत कार्रवाई होती है तो उसके ऊपर प्रति बालक 20,000 रुपए का जुर्माना लगाने का प्रावधान है. यह रकम उस कोष में जमा हो जाती है जिसका उपयोग छुड़ाए गए बच्चों की 18 साल की उम्र तक देखरेख के लिए किया जाता है. अगर आरोपित को बंधुआ मजदूर कानून के तहत गिरफ्तार किया जाता है तो उसे बच्चों के मां-बाप को तत्काल ही 20,000 रुपए देने पड़ते हैं. साफ है कि ये सभी कानून बाल तस्करी रोकने के लिए नाकाफी हैं.
लेकिन सबसे दुखद पहलू अभी बाकी है. तस्करी किए गए इन बच्चों की कहानी का सबसे बुरा पहलू है इनका यौन शोषण. दक्षिणी दिल्ली के मुसलिम बहुल इलाके जामिया नगर की संकरी गलियों में मदरसों की एक पूरी शृंखला है जो महज नाम के लिए मदरसे हैं. ये दरअसल इन इलाकों में मौजूद अनगिनत जरी और कढ़ाई की दुकानों में काम करने वाले बच्चों की आपूर्ति के केंद्र जैसे हैं (इस धंधे में बच्चों को प्राथमिकता दी जाती है क्योंकि उनकी पतली और फुर्तीली उंगलियों से काम तेजी और आसानी से होता है).
12 वर्षीय सद्दाम चार साल पहले उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर से पढ़ाई के लिए तर्तुल कुरान जामिया मदरसा (बटला हाउस के पास) आया था. यह मदरसा देवबंद से जुड़ा हुआ है. इस मदरसे में सद्दाम हर रविवार को दो घंटे शरीयत की पढ़ाई करता है. सप्ताह के बाकी दिन वह एक जरी फैक्टरी में सुबह 7 बजे से रात के 12 बजे तक काम करता है. शुरुआत में सद्दाम ने खुद पर हो रही ज्यादती का विरोध किया. वह बताता है, 'सेठ ने मुझसे कपड़े उतारने के लिए कहा और मेरे साथ गलत काम किया. जब उसने यह बात मदरसे के मौलवी शाह अहमद नूरानी को बताई तो उन्होंने हंसते हुए कहा, ‘मजा आया?’
यह सद्दाम की बेबसी का मजाक था. इस सदमे को बर्दाश्त करने के लिए वह लिक्विड जूता पॉलिश सूंघने लगा. सड़कों पर रहने वाले गरीब बच्चों के बीच नशाखोरी के लिए इसका इस्तेमाल आम बात है. सद्दाम कहता है, 'इससे मुझे राहत मिलती थी. मैं इससे जोश महसूस करता था.' वह आज तक एक बार भी घर नहीं गया है. कैसे जाए, इतने पैसे ही नहीं होते. उसने एक बार फैक्टरी से भागने की कोशिश भी की लेकिन उसे पकड़ लिया गया और अगले दो दिन तक जंजीरों से बांधकर रखा गया. सद्दाम कहता है कि वह फिर से भागने की कोशिश करेगा.
जब तहलका इस बात की पुष्टि करने के लिए मदरसा पहुंचा तो मदरसे के प्रमुख मौलवी हसन अबरार ने यह कहते हुए हमसे बात करने से इनकार कर दिया कि हम मदरसे की छवि और इस्लाम को बदनाम करना चाहते हैं.
खुशकिस्मती से समुदाय के दूसरे बुजुर्ग इतने अड़ियल नहीं हैं. तहलका ने इस संबंध में दारुल इफ्ता उलूम देवबंद के प्रमुख मुफ्ती हबीबुर रहमान से संपर्क किया तो उन्होंने बताया कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि मदरसा बाल श्रमिकों की आपूर्ति कर रहा है. उनका कहना था, 'अगर ऐसा हो रहा है तो हम इसकी पुरजोर मजम्मत करते हैं. यह गुनाह है.'
देश भर की मस्जिदों के इमामों की संस्था अखिल भारतीय इमाम संगठन के अध्यक्ष जनाब अल-हाज हजरत मौलाना जमील अहमद इलियासी और भी कड़ा रुख दिखाते हुए कहते हैं, 'ये वक्त की जरूरत है कि मदरसे मुसलिम समुदाय की तरक्की और उसे रास्ता दिखाने में अहम भूमिका निभाएं. उनके काम ऐसे हों जिनसे मुसलमान आपसी भाईचारे और इंसानियत की बातें सी
Tuesday, September 21, 2010
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