नौकरशाही शब्द अंग्रेजी भाषा के ब्यूरोक्रेसी शब्द का हिन्दी रूपान्तरण है। ब्यूरोक्रेसी शब्द की उत्पत्ति प्र*ांसीसी भाषा के ब्यूरो नामक शब्द से हुई है। जिसका अर्थ है डेस्क या लिखने वाली मेज। प्र*ांस में इस शब्द का प्रयोग ड्राअर वाली मेज अथवा लिखने की डेस्क के लिए हुआ करता था। ब्यूरो शब्द सरकारी कार्यों का परिचायक माना जाने लगा। इसका अर्थ था मेल या कार्यालयों द्वारा शासन, प्रबंधन सर्वप्रथम अठारवीं शताब्दि के मध्य में दि गाने नामक एक प्र*ांसीसी विद्वान ने नौकरशाही शब्द का प्रयोग किया। प्रायः नौकरशाही शब्द का प्रयोग व्यंग्यात्मक अर्थों में किया जाता है और लोकसेवकों को नौकरशाह कह कर संबोधित किया जाता है। नौकरशाही पर स्वार्थसिद्धी के लिए अपनी सत्ता के दुरुपयोग का आरोप लगाया जाता है। विद्वान जॉन वींग के शब्दों में विकृति एवं परिहास के कारण नौकरशाही शब्द का अर्थ काम में घपला, मनमानी, अति व्यय कार्यालयों और अति अनुशासन माना है।
नौकरशाही शब्द ही घृणा या तिरस्कार का पात्र है। विद्वानों के अनुसार, नौकरशाही विधि निर्माण एवं क्रियान्वयन का उल्लंघन होने पर दंड देने का अधिकार अपने पास रखकर तानाशाह की भूमिका ग्रहण कर लेती है। राजतंत्र में सुल्तानों, राजा-महाराजाओं एवं बादशाहों के शासन में राज्य (स्टेट) का काम केवल कानून व्यवस्था कायम रखना, राज्य की सुरक्षा तथा अन्य राज्यों पर आक्रमण करना होता था, जिसे राज्य की सेना द्वारा किया जाता था। उस समय कर का स्रोत केवल भूमि का लगान या इसकी वसूली के लिए थोडे से कर्मचारी पटवारी, पटेल आदि के कमीशन के आधार पर नियुत्त* कर दिया जाता था। किन्तु आधुनिक युग में लोक सेवकों द्वारा अनेक प्रकार की सेवाओं का निष्पादन किया जाता है, जन्म से मृत्यु तक जीवन के प्रत्येक चरण और प्रत्येक स्तर पर ये सेवाएं व्याप्त हैं। ये सेवाएं सरकार द्वारा निर्मित कानूनों को लागू करती हैं और कार्यक्रमों को क्रियान्वित करती हैं। राज्य सेवाओं के सदस्य नीति निर्माण के कार्यों में हिस्सा बंटाते हैं तथा अपने राजनीतिक उत्तराधिकारियों को मंत्रणा देते हैं। उच्च पदों पर आसीन लोकसेवक चार प्रकार के कार्य सम्पन्न करते हैं।
१- वे सरकारी तंत्र के परिचालन की व्यवस्था करते हैं।
२-वे प्रभारी मंत्री के लिए विस्तृत भुजा का कार्य करते हैं वरिष्ठ लोकसेवक मंत्री के सरकारी भाषण का मसौदा तैयार करते हैं तथा किस बैठक में उन्हें क्या कहना है इसके बारे में आवश्यक पथ प्रदर्शन करते हैं।
३- विभिन्न सेवाओं के प्रबंधन का कार्य करते हैं।
४- सरकार की समस्याओं की पहचान करते हैं।
५-मोटे तौर पर इन्हीं लोकसेवकों को समग्र रूप से नौकरशाही या ब्यूरोक्रेसी का नाम दिया जाता है। नौकरशाही अच्छी या बुरी है इस सम्बंध में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न मत है।
विद्वान मेक्स बेबर के नौकरशाहों को आदर्श प्रकार माना है। उनका तर्क है कि इसके माध्यम से प्रशासन में उच्च कार्य कुशलता को लाया जा सकता है। दूसरा दृष्टिकोण मि हेराल्ड लास्की का है उनके अनुसार नौकरशाही प्रशासन में नियमों के प्रति अत्यधिक लगाव, नियमों के कठोर पालन, निर्णय लेने में विलम्ब तथा नये परीक्षणों के निषेध का नौकरशाही प्रतिनिधित्व करती है। हालांकि विशेषज्ञों द्वारा होना अनिवार्य है किन्तु इन विशेषज्ञों को लोकतांत्रिक नियंत्रण के परे नहीं होना चाहिए।
विभिन्न विद्वानों ने भी नौकरशाही की अलग-अलग परिभाषाएं दी है, इनसाइक्लो पीडिया बिटानिका में लिखा है कि जिस प्रकार तानाशाही का अर्थ तानाशाह का शासन, तथा प्रजातंत्र का अर्थ जनता का शासन है, उसी प्रकार नौकरशाही या ब्यूरोक्रेसी का अर्थ ब्यूरो द्वारा शासन है।
मि. रावर्ट स्टोन ने कहा कि नौकरशाही का शाब्दिक अर्थ कार्यालय या अधिकारियों का शासन है।
मि. कार्ल प्रे*डरिक ने कहा कि नौकरशाही उन लोगों के पद सोपान कार्यों के विशेषीकरण तथा उच्च स्तरीय क्षमता से युत्त* संगठन है जिन्हें उन पदों पर कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया गया है।
उपरोत्त* विद्वानों के विभिन्न मतों के आधार पर सहज ही यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नौकरशाही शब्द पर्याप्त अस्पष्ट और अनेक अर्थों से युत्त* है। व्यापक दृष्टिकोण नौकरशाही से एक ऐसी व्यवस्था का बोध होता है जहां कर्मचारियों को अनुभाग, प्रभाग, ब्यूरो एवं विभाग आदि श्रेणी में विभत्त* कर दिया गया है। इसमें प्रशासकीय सत्ता का लक्ष्य व्यापक जनहित में होता है। किन्तु संकुचित दृष्टिकोण में जनहित गौण स्थान प्राप्त कर लेता है। तथा नौकरशाही औपचारिकता एकरूपता तथा नियमबद्धता का पर्याय बन जाती है महान विद्वान मि.एप*.एम माक्र्स के अनुसार ’’करोडों लोगों ने नौकरशाही शब्द नही सुना है किंतु जिस किसी से सुना है वह या तो इसके प्रति शंकालू है अथवा वह समझता है कि नौकरशाही शब्द किसी न किसी बुरी बात से सम्बंधित है, यद्यपि पूछे जाने पर वह इसका सही अर्थ बताने से कताराएगा परन्तु वह यह अवश्य कह देगा कि इसका मतलब कोई बुरी बात है।’’
नौकरशाही शब्द की विस्तृत व्याख्या के बाद भारत में नौकरशाही की भूमिका के संबंध में चर्चा अति आवश्यक है भारत वर्ष जब १९४७ में आजाद हुआ तो भारत को अंग्रेजों से विरासत में सुगठित सेना एवं सुगठित नौकरशाही (आई.सी.एस) एवं उसका प्रशासनिक ढांचा प्राप्त हुआ, साथ ही देश को स्वतंत्रता दिलाने वाला महात्मा गांधी के नेतृत्व में सुगठित राजनीतिक दल कांग्रेस प्राप्त हुआ, इन तीन पे*क्टरों के कारण भारत का प्रशासनिक ढांचा कायम रहा और पं. नेहरू के नेतृत्व में प्रशासन की शुरूआत बहुत अच्छी रही पं. नेहरू जो कि एक राजनेता से अधिक एक स्टेटसमेन थे उन्होंने आई.सी.एस. के स्थान पर आई.ए.एस. (इंण्डियन एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस) को यू.पी.एस.सी के द्वारा चयन के माध्यम से प्रारम्भ कराया, राज्यों में भी स्वतंत्र लोक सेवा आयोगों के गठन कर के राज्य प्रशासनिक सेवाओं को प्रारम्भ कराया एवं देश के सर्वाधिक योग्य एवं बुद्धिमान युवक युवतियों को इन सेवाओं की ओर आकृष्ट किया प्लानिंग कमीशन का गठन कर पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा देश के विकास को प्रारंभ कराया पं. नेहरू के जीवनकाल में भारतीय नौकरशाही ने अच्छे से अच्छा कार्य किया जिसका परिणाम भाखडा नंगल, गाँधी सागर जैसे सैकडों बडे बाँधों का निर्माण एवं भिलाई, राउरकेला जैसे सैकडो कल कारखानों का निर्माण हुआ ओर आजादी के पूर्व सुई भी न बनाने वाला भारत उच्च तकनीकी की ट्रेनें, बसें, ट्रक, वायुयान, शिप आदि बनाने लगा देश में कृषि में भी हरित क्रांति हुई। किन्तु देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था में जैसे जैसे चुनाव मंहगे होते गय उसी अनुपात में राजनेताओं और नौकरशाही ने आर्थिक भ्रष्टाचार के लिये नापाक गठबंधन कर लिया केंद्र एवं राज्यों की परियोजनाओं हेतु प्राप्त बजट का घोर दुरूपयोग प्रारंभ हो गया, तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने सार्वजनिक वत्त*व्य द्वारा स्वीकार किया कि गरीबों के हित में केंद्र द्वारा जो प*ण्ड दिये जाते हैं उसमें से एक रूपये मे केवल २० बीस पैसे ही हितग्राही को मिलते है शेष अस्सी पैसे पाईप लाइन हजम कर जाती है इसी का परिणाम है कि केंद्र की सी.बी.आई राज्यों के लोक आयुत्त* संगठनों, आर्थिक अपराध अनुसंधान आदि संगठनों के पास लाखों लोकसेवकों के विरूद्ध गंभीर आर्थिक अपराध करने के मुकदमें कायम हुऐ जिनमें हब भी इनवेस्टीगेशन जारी हैं, किंतु इस व्यवस्था से नौकरशाही के गठन का पवित्र उददेश्य ध्वस्त हो गया, भारत में गरीबी उन्मूलन के अधिकांश कार्यक्रम असप*ल हो गये आजादी के साठ वर्ष बाद भी भारत के तीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे दयनीय परिस्थितियों में जीवनयापन कर रहे हैं, विद्वान श्री अर्जुन सेनगुप्त की थीसिस पर यदि विश्वास करें तो भारत के ८० प्रतिशत लोग केवल बीस रूपये रोज कमाकर अपना जीवनयापन करते है।
नौकरशाही (प्रशासनिक कार्यपालिका) एवं मंत्रीगण (राजनीतिक कार्यपालिका) की असप*लता के कारण हजारों सिंचाई योजनाएं अधूरी रह गई हजारों प्राथमिक स्कूलों को या तो प्रारंभ ही नही कराया जा सका या यदि प्रारंभ भी हुऐ तो उनमें ग्रामीण क्षेत्रों के बच्चों को शिक्षकों की कमी के कारण पढाया ही नही गया, सैकडों सडके, बाँध, तालाब बजट प्राप्त होने के बावजूद अधूरे रह गये, और उनमें लगा लाखों करोडों रूपये का राष्ट्रीय धन व्यर्थ चला गया है और महंगाई के कारण योजनाएंंे और महंगी हो चली गई। ग्रामीण क्षेत्रों के सैकडों छोटे अस्पताल डॉक्टरों एवं दवाईयों के अभाव में स्वयं ही बीमार हो गये, आम जनता के स्वास्थ्य की चिन्ता कौन करता, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में प्राप्त केरोसिन को जम कर कालाबाजारी की गई जो आज भी जारी है और प्राप्त गेहूँ चावल आदि का गरीबों को आधा अधूरा ही वितरण हो रहा है वन विभाग के अधिकारियों की उदासीनता एवं भ्रष्टाचारी के कारण हरे-भरे जंगल काट दिये गये और वृक्षारोपण के नाम पर लाखों करोडों के धन का बारा न्यारा हो गया, जिसका परिणाम आज पूरा उत्तरी एवं मध्य भारत पिछले पाँच वर्षो से लगातार सूखे की चपेट में है। पानी के अभाव में किसान खेती नहीं कर पा रहे हैं और हजारों की संख्या में आत्म हत्याए कर रहे ह।
आज भी विश्व में भारत सर्वाधिक शिशु मृत्यु दर वाला देश है आज भी अप्र*ीकी देशों के बाद एड्स के सर्वाधिक रोगी भारत में है, आज भी भारत में प्रसूताओं की मृत्यु दर एशिया में सर्वाधिक है, आज भी करोडों लोग टी.बी. से ग्रस्त हैं, आज भी लगभग २५ प्रतिशत बच्चे कुपोषण से ग्रस्त हैं, आज भी हजारों ग्रामों में स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है, आज भी जंगलों में वर्षा अभाव के कारण लाखों जंगली मूक पशु पक्षी भूख प्यास से दम तोड रहे हैं, आज भी धर्म, जाति एवं प्रांतीयता के नाम पर दंगे करवा कर लोखों बेगुनाहों और मासूमों को या तो मार दिया जाता है या उन्हें दर दर भटकने को मजबूर कर भिखारी बना दिया जाता है आजादी के साठ वर्ष बाद भी कई चुनाव कराने के बाबजूद हम स्वच्छ एवं निष्पक्ष चुनाव नहीं करा पा रहे हैं न ही चुनाव सुधार कर पा रहें एवं बाहुबलियों एवं पैसे वालों का मापि*या तंत्र कभी जाति, कभी धर्म, कभी क्षेत्रीयता के नाम पर लोकतंत्र को लूट तंत्र में बदलने की कोशिश कर रहा है और लगभग लूटतंत्र में बदल ही चुका है, जिसका खामियाजा आम आदमी को भुगतना पड रहा है, आज भी आम आदमी पुलिस पटवारी के चंगुल से मुत्त* नहीं हो पा रहा है और उसे छोटे मोटे काम कराने के लिए भी उनकी मुट्ठी गर्म करनी पडती है। आज भी गरीबी रेखा से नीचे वाले लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली से न तो पूरा चावल तेल मिलता है और न ही पूरा केरोसिन मिलता है, ग्रामीण रोजगार योजना के क्रियान्वयन में गांव में बिना पंचायत सेक्रेटरी की आर्थिक प्रसन्नता के जॉब कार्ड नहीं बनता है और यदि किसी तरह जॉब कार्ड बन भी जाता है तो उसे निर्धारित रोजगार नहीं मिलता है।
आई.ए.एस. से राजनेता, मंत्री एवं राज्यपाल बने अत्यन्त अनुभवी श्री जगमोहन का कहना है कि ’’कभी संसार में सर्वश्रेष्ठ आंकी जाने वाली भारतीय प्रशासनिक सेवा की हालत आज पतली है। आजादी के बाद के वर्षों में नेतृत्व का स्तर अपेक्षाकृत ऊँचा था और एक हद तक गाँधीवादी आचार-विचार से प्रभावित था लेकिन इसके बाद उल्टा चक्र शुरू हो गया और राजनेता और प्रशाासन दोनों की अक्षमता और अन्याय के खड्ड में पि*सलते चले गये उन्हने एक दूसरे के दोषों को ढंकना शुरू कर दिया, आंकडों का प्रदर्शन जमीनी धरातल पर नदारत था चारों ओर छल कपट छा गया प्रशासनिक अधिकारियों और उनके राजनीतिक आकाओं में यथास्थिति बनाए रखने की चाहत रही यद्यपि दोनों ही सुधारों और परिवर्तन की जरूरत की बातें करते रहे प्रशासनिक सुधार के विभिन्न पहलुओं के लिए सरकार करीब छः सौ आयोग या समितियाँ गठित कर चुकी है किन्तु इस कवायद का खास परिणाम नहीं निकला।’’
आज भी गांवों में गरीबों को रोजगार ने मिलने से भूख प्यास से पीडत लोग नगरों की ओर पलायन कर रहे हैं और शहरों में मास्टर प्लान में छूटी हुई खाली जमीन पर झुग्गियाँ बनाकर अत्यन्त अस्वास्थ्कर वातावरण में रहने लगते हैं, इससे शहरों का मास्टर प्लान तो भंग होता ही है साथ ही शहरों में पूर्व से रहने वाले नागरिकों का जीवन यापन भी अत्यन्त कठिन हो जाता है इन सबके लिये कौन जिम्मेदार है ? राजनीतिक कार्यपालिका के साथ-साथ प्रशासनिक कार्यपालिका (नौकरशाही) इसके लिए सर्वाधिक जिम्मेदार है अपनी सुख सुविधाओं और वेतन भत्तों में वृद्धि के लिए प्रतिबद्ध नहीं हुई है। अतः ऐसी गंभीर परिस्थितियों में नौकरशाही की भूमिका पर क्या पुर्निविचार का वत्त* नहीं आ गया है ? क्या नौकरशाही के प्रत्येक सदस्य (उच्च अधिकारी से निम्न स्तर बाबुओं तक) को लक्ष्य पूर्ति हेतु बाध्य नहीं किया जाना चाहिए ? क्या नौकरशाहों को परिणाम मूलक नहीं बनाया जाना चाहिए ? नौकरशाहों केा एवं निर्माण ऐजेन्सियों को अच्छी गुणवत्ता सहित कार्य एवं निर्माण हेतु नहीं कहा जाना चाहिए। और क्या नौकरशाही को अपेक्षित परिणाम देने के लिये मजबूर नहीं किया जाना चाहिए ? राष्ट्र के कर्णधारों केा इस पर गंभीर मनन करना चाहिए एवं कर्मचारी/अधिकारियों को उनके विभागों का गहन प्रशिक्षण दे कर, उनकसे सम्बन्धित नियम कायदों की विस्तृत जानकारी दे कर दिये गये लक्ष्यों की पूर्ति हेतु आवश्यक सुख सुविधाएं दे कर अनिवार्य रूप से लक्ष्य प्रापित की जावे, अन्यथा देश के सत्तर प्रतिशत अत्यन्त दुखी एवं व्यथित लोगों के संभावित गुस्से हेतु तैयार हो जाना चाहिये। नौकरशाहों को अपने दृष्टिकोण और सोच में परिवर्तन लाना होगा यथास्थिति का समर्थक होने के स्थान पर नौकरशाही को अब यह पूरी तरह से आत्मसात कर लेना चाहिए कि वेश्वीकरण एवं उदारीकरण के वर्तमान युग में उन्हें परिवर्तन का उत्प्रेरक बनना है।
पूर्वकाल के पुलिस राज्य के स्थान पर कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के उदय, इसके परिणामस्वरूप सरकार की गतिविधियों और दायित्वों में अप्रत्याशित वृद्धि तथा सरकार के कार्यों की तकनीकी प्रकृति ने नौकरशाही को विकास प्रशासन का भी अपरिहार्य तत्व बना दिया है। आर्थिक विकास एक सतत् प्रक्रिया है जिसके आधार पर सामाजिक विकास का भी क्रम चलता रहता है यदि नौकरशाही सच्चे हृदय से राष्ट्र के विकास के लिए कार्य करे तो वह कुशल आर्थिक नियोजन द्वारा राष्ट्र एवं सामाज को आर्थिक कठिनाइयों से मुत्त* करा सकती है यद्यपि भारत जैसे देश में समाज के कल्याण हेतु सामुदायिक विकास कार्यक्रम तथा पंचायती राज व्यवस्था का निर्माण किया गया है किन्तु नौकरशाही (जो कि पढे लिखे लोगों का संगठन है) के सक्रिय सहयोग बिना ये संस्थयें भी समाज कल्याण में अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही है।
श्री जगमोहन के अनुसार भारत मे प्रशासनिक सुधारों के प्रति प्रतिबद्धता सतत ही है क्योंकि न तो राजनीतिक नेतृत्व न ही नौकरशाही संकीर्ण हितों से ऊपर उठ पा रही है। वेतन और अन्य खर्चों में भारी वृद्धि हुई है, राजनेताओं और प्रशासनिक अधिकारियों में एक दूसरे को प*ायदा पहुँचाने का सिलसिला न केवल कायम है बल्कि इसमें तेजी ही आई है, राजनेताओं को राजनीतिक व व्यत्ति*गत लाभ उठाने म नौकरशाह पूरी सहायता करते हैं और बदले में मलाईदार पद पाते हैं, इसी खेल के कारण बडत्री संख्या में भ्रष्टाचार के मामलों में लीपापोती हो जाती है। इसी खेल के कारण शत्ति*शाली औद्योगिक घराने नौकरशाही और राजनीतिक स्तर पर सरकारी पै*सलों को अपने पक्ष में करा लेते हैं, इसी खेल के कारण निहित स्वार्थ उभर आएें हैं जो विभिन्न उच्च स्तरीय आयगों और समितियों सुझाऐ गये सुधारों की भी अवहेलना कर रहे हैं, अतः अब वत्त* आ गया है कि या तो नौकरशाही जिसमे बाबूशाही भी शामिल है प्रतिबद्ध होकर उच्च गुणवत्ता सहित परिणाम प्रस्तुत करे अन्यथा नौकरशाही के विकल्प पर विचार करना होगा। यदि उच्च प्रशासनिक अधिकारी परिणाम मूलक नेतृत्व देने में अक्षम है तो हमें नये विकल्पों पर दृष्टि डालनी होगी, इंगलैड, कनाडा, न्यूजीलैण्ड और ऑस्ट्रलिया की तरह हमें भी मुत्त* अर्ध स्वायत्त एक्जीक्यूटिव निकायों का गठना करना होगा, इन निकायों का प्रमुख अनिवार्य रूप से ऐसा प्रशासनिक अधिकारी नहीं होगा जो सरकारी नौकरी के दौरान अपनी सीनियरटी या प्रदर्शन के बल पर आगे बढा हो, बल्कि सरकारी और निजी दोनों क्षेत्रों की सर्वोत्तम प्रतिभाओं की प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा के बाद इनकी नियुत्ति* हो, यह कार्यकारी एजेन्सी आंतरिक लचीलापन और आधारभूत व्यवसायिक सिद्धान्तों के आधार पर काम करेगी और इन्हें प्रबन्धकीय व्यवहार में कशलता और वांछित सर्वोत्तम परिणाम सुनिश्चित करने हेतु कहा जावेगा, इनके सामने प्रस्तुत लक्ष्य निर्धारित कर दिये जावेंगे और इनके परिणामों को हासिल करने की पूरी जबाबदेही उत्त* स्वायत्त निकायों की होगी, इंगलैण्ड आदि देशों में उत्त* माध्यम से खुले, विविध और पेशेवर प्रशासनिक अधिकारी मिल रहे हैं जो तेज तर्रार और लक्ष्य को साधने में सक्षम हैं। तो क्या आम जनता की व्यथाओं और दुखों को दूर करने के लिये एवं समस्याओं के त्वरित एवं द्रुत समाधान के लिये नौकरशाही के नये विकल्पों पर विचार नहीं किया जाना चाहिये?
Tuesday, September 21, 2010
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