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भेड़ाघाट

Tuesday, September 21, 2010

ब्यूरोक्रेसी और राजनेताओं कानून कुछ नहीं बिगाड़ सकता

अजय सेतिया
हमारा प्रशासनिक राजनीतिक ढांचा चरमरा रहा है। प्रशासनिक सुधार आयोगों की रिपोर्टे असली मर्ज को पहचानने की कोशिश भी नहीं करतीं। राजनीतिक नेता और नौकरशाही का मकड़जाल देश के लोकतंत्र को घुन की तरह खा रहा है। नौकरशाह देश को चूसने वाले गिद्ध बन गए हैं और राजनीतिक नेता उन पर नकेल कसने के बजाय छोटे-छोटे स्वार्थो के लिए उनके हाथों का खिलौना बन गए हैं। कई मुख्यमंत्रियों को निजी बातचीत में यह कहते सुना है कि ब्यूरोक्रेसी से काम लेना आसान नहीं। ब्यूरोक्रेसी (जिनमें खासकर आईएएस-आईपीएस अघिकारी) तब तक किसी राजनेता के पांव नहीं जमने देती, जब तक राजनेता उन्हें संरक्षण का वायदा नहीं करते। जब वे आपस में घुल-मिल जाते हैं, तो एक-दूसरे के काले कारनामों में मददगार हो जाते हैं।

रूचिका गिरहोत्रा का मामला देश में पहला नहीं है। इससे मिलते-जुलते सैकड़ों मामले मिल जाएंगे। जहां ब्यूरोक्रेसी और राजनेताओं ने समाज पर अत्याचार किए और कोई कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका। देश की राजधानी दिल्ली के पुलिस थानों में बलात्कार की घटनाएं होती रहती हैं। मुंबई के पुलिस बूथ में बलात्कार की घटना हुई थी। चौदह साल की रूचिका के साथ जैसी छेड़छाड़ पुलिस इंस्पेक्टर जनरल एसपीएस राठौर ने की, ऎसी घटनाएं हर जिले-तहसील में आए दिन होती हैं। उन्नीस साल पहले 1990 में चंडीगढ़ में स्वतंत्रता दिवस से तीन दिन पहले राठौर ने रूचिका को अपने दफ्तर में बुलाया। वह इंस्पेक्टर जनरल के साथ-साथ हरियाणा लान टेनिस एसोसिएशन का अध्यक्ष भी था। रूचिका लान टेनिस की खिलाड़ी थी। शासन क्यों इजाजत देता है पुलिस और प्रशासनिक अघिकारियों को खेल संघों में सक्रिय होने और दखल देने की। खेल संघों के पदाघिकारी बनने की होड़ क्यों मची है प्रशासनिक अघिकारियों और राजनेताओं में। मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और आईएसएस, आईपीएस, आईएफएस अघिकारियों पर खेल संघों और क्लबों के पदाघिकारी बनने पर रोक लगना चाहिए। ऎसे प्रभावशाली लोगों के कारण खेलों और सामाजिक क्लबों का वातावरण दूषित हो रहा है, इनकी बेजा दिलचस्पी से खेल संघों और क्लबों में देह शोषण को बढ़ावा मिल रहा है।

क्या हमारा लोकतंत्र सफल हो रहा है। जब अपराधी और अपराघियों को संरक्षण देने वाले चुनाव जीत रहे हों, तो लोकतंत्र को सफल कैसे कहा जा सकता है। नारायणदत्त तिवारी के सेक्स स्कैंडलों के किस्से पिछले 30 साल से हर किसी की जुबान पर थे, लेकिन इन तीस सालों में उन्होंने क्या हासिल नहीं किया। वह तीन बार मुख्यमंत्री, दो बार केंद्र में मंत्री और राज्यपाल बने। जब तक उनका स्टिंग ऑपरेशन नहीं हुआ, कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सका। उत्तरप्रदेश के मंत्री राजा भैया के कारनामों पर कोई कानून उनका क्या बिगाड़ सका। उन्होंने अपनी प्रेमिका मधुमिता शुक्ला की हत्या करवा दी और बाद में एक-एक करके गवाहों को निपटा दिया। यह सब करने के बाद भी राज्य सरकार में मंत्री बन गया। उत्तरप्रदेश के ही होनहार बैडमिंटन खिलाड़ी सैयद मोदी की हत्या दिनदहाड़े हुई थी। सैयद मोदी की हत्या से पहले अनीता का संजय सिंह से प्रेम शुरू हो चुका था।

अनीता मोदी बाद में दो बार एमएलए और उत्तरप्रदेश सरकार में मंत्री भी बनीं। संजय सिंह को भी कोई कानून चुनाव लड़ने और मंत्री बनने से कहां रोक सका। शिबू सोरेन झारखंड मुक्ति मोर्चा के उन चार सांसदों में से एक थे, जिन्हें नरसिंहराव की सरकार बचाने के लिए मोटी रकम मिली थी। रिश्वत की यह राशि अदालत में साबित हो गई थी, लेकिन उन्हें बार-बार सांसद बनने, केंद्र में मंत्री बनने और अब तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने से कौन रोक सका। सुखराम के घर से उनके बाथरूम और गद्दों में काले धन की गçaयां मिली थीं। यह काला धन उन्होंने नरसिंहराव सरकार में मंत्री होते हुए देशभर में टेलीफोन का जाल बिछाते कमाया था। कोई कानून उन्हें इसके बाद चुनाव लड़ने और मंत्री बनने से कब रोक सका। हम लोकतंत्र की सफलता का ढिंढोरा पीटना चाहें तो चाहे जितना पीटें। हमारी प्रशासन और राजनीति के शुद्धिकरण में जरा दिलचस्पी नहीं है। प्रशासनिक अघिकारियों और राजनीतिक नेताओं का गठजोड़ लोकतंत्र को मजबूत होने देना नहीं चाहता। अगर लोकतंत्र की जड़ें मजबूत होतीं, तो ऎसे कैसे हो सकता था कि एक आईपीएस अफसर पूरे पुलिस प्रशासन को अपनी अंगुलियों पर नचाता। पुलिस ने छेड़छाड़ की शिकायत दर्ज नहीं की थी। रूचिका के पिता ने जब गृहमंत्री संपतसिंह को शिकायत की तो उन्होंने डीजीपी आरआर सिंह को तीन दिन में जांचकर रिपोर्ट सौंपने को कहा था। आरआर सिंह ने जांच के बाद इंस्पेक्टर जनरल राठौर के खिलाफ केस दर्ज करने की सिफारिश की थी, लेकिन संपतसिंह ने केस दर्ज नहीं करवाया।

तत्कालीन मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला कैसे कह सकते हैं कि वह बेदाग हैं। वही मुख्यमंत्री थे उस समय। पचहत्तर साल के रिटायर डीआईजी आरआर सिंह अभी भी समझ नहीं पा रहे हैं कि तत्कालीन सरकार में कौन राठौर की मदद कर रहा था। जिस चौटाला सरकार ने राठौर को राष्ट्रपति पुलिस मैडल की सिफारिश की, वह अपने हाथ कैसे धो सकते हैं। रूचिका का मामला जोर पकड़ा, तो आईपीएस अघिकारी की पूरे पुलिस महकमे ने मदद की। उनके इशारे पर रूचिका के भाई आशू पर चोरी का झूठा मुकदमा बनाया गया। नंगा करके उसके घर के पास घुमाया गया। राठौर की मौजूदगी में पुलिस उसकी पिटाई करती थी। राठौर ने रूचिका कोे स्कूल से निकलवाकर उसकी पढ़ाई बंद करा दी। रूचिका ने आत्महत्या कर ली तो भी पुलिस राठौर की मदद करती रही। पोस्टमार्टम में आत्महत्या का तरीका बदल दिया गया, यहां तक कि नाम बदल दिया गया, पिता का नाम भी बदल दिया गया। डॉक्टर और अस्पताल भी राठौर के प्रभाव में उनके इशारों पर काम कर रहे थे। सीबीआई कोर्ट ने आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज करने की सिफारिश की, तो हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने राठौर को राहत दे दी। जिस सीबीआई अफसर आरएम सिंह ने आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला जोड़ने की सिफारिश लिखी, उसे सीबीआई के डायरेक्टर और सीबीआई के कानूनी सलाहकार ने हटवा दिया। बताएं प्रशासन और न्याय तंत्र का कोई ऎसा कमरा बचा है, जो बेदाग हो। एक आईपीएस अफसर पूरे तंत्र को अपनी अंगुलियों पर नचा रहा था। स्कूल, अस्पताल, पुलिस थाना, सीबीआई, मुख्यमंत्री, न्यायपालिका सबको चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है एक आईपीएस अफसर ने।

शिक्षा का मंदिर स्कूल, न्याय का मंदिर अदालत, इंसाफ दिलाने की जिम्मेदार सीबीआई और इन सब पर निगाह रखने वाली चुनी हुई सरकार- सब चरमरा कर गिर गए हैं। क्या केंद्र की तत्कालीन चंद्रशेखर से लेकर अटलबिहारी वाजपेयी तक की सरकारों के गृहमंत्री कटघरे में खड़े नहीं होना चाहिए, जिनके तहत देशभर के आईपीएस अफसर काम करते हैं। क्या चौटाला, बंशीलाल, भजनलाल कटघरे में नहीं खड़े होेना चाहिए, जो इतने बड़े अपराध पर आंखें मूंदे हुए थे। किसी एक मुख्यमंत्री ने राठौर को निलंबित करने की जहमत नहीं उठाई। इसीलिए राठौर छह महीने मात्र की सजा सुनकर मुस्कराता हुआ कोर्ट से बाहर निकला, क्योंकि उसे अब भी उम्मीद है कि जैसे हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट ने पहले उसकी मदद की, इस बार भी करेगी।

रूचिका से ज्यादा अलग नहीं है राजस्थान की आदिवासी महिला का मामला। जिसका राजस्थान के डीआईजी मधुकर टंडन ने तेरह साल पहले बलात्कार किया था। फर्क सिर्फ इतना है कि वह तब से भगौड़ा है, लेकिन पुलिस अब भी उसकी मददगार बनी हुई है। वह कानून की नजर से लगातार बचा रही है अपने फरार डीआईजी को। डीआईजी बार-बार उस महिला और उसके पति को उठाकर पुलिस थाने ले जाता है और समझौता करने का दबाव बनाता है।
पुलिस तंत्र, प्रशासनिक तंत्र और लोकशाही में आमूलचूल परिवर्तन ही देश को लोकतंत्र की सही पटरी पर ला सकता है। पुलिस को हर शिकायत की एफआईआर दर्ज करने की हिदायत ही काफी नहीं। पुलिस से टॉर्चर करने के सारे अघिकार वापस लेने होंगे। पुलिस रिमांड का कानूनी प्रावधान खत्म करना होगा। पुलिस न्यायिक हिरासत में ही पूछताछ करे। प्रशासन में बैठे भ्रष्ट और बेईमान अफसरों को फैसले करने वाले पदों से हटाना होगा। चुनाव लड़ने के नियम ज्यादा कड़े करने होंगे। जिन नेताओं के खिलाफ तीन चार्जशीट पर अदालत संज्ञान ले चुकी हो, उन्हें चुनाव लड़ने या कोई भी राजनीतिक पद ग्रहण करने से वंचित करना होगा। ये सब कदम भी काफी नहीं हैं, लोकतंत्र को पटरी पर लाकर देश में सुशासन की स्थापना करने के लिए। जैसी जागृति जेसिका लाल, नीतिश कटारा, प्रियदर्शनी मट्टू के अदालती फैसलों के बाद देश की जनता ने दिखाई है, ऎसी जागृति हमेशा कायम रहे, तभी कानून के रक्षकों को भक्षक बनने से रोका जा सकेगा।

अजय सेतिया
[लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं]

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