पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती की भाजपा में वापसी को लेकर अब रोज नई अटकलें जन्म ले रही हैं। भाजपा नेताओं से उनकी बढ़ती मेल-मुलाकात और पर्दे के पीछे संघ की विशेष रुचि यह संकेत दे रही है कि साध्वी की भाजपा में लौटने की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है। सब कुछ ठीक-ठाक रहा तो अगस्त के आखिर तक उमा भाजपा में फिर एक बड़ी भूमिका में नजर आएंगी। शुरुआत बिहार चुनाव से होगी और बाद में उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव में पार्टी उनकी नई भूमिका गढ़ेगी। नितिन गडकरी द्वारा अपने पदाधिकारियों को राज्यों का प्रभार देने में लग रही देरी को उमा की वापसी से जोड़कर देखा जा रहा है।
गुजरात के अहमदाबाद में हाल ही में हुई संघ के कोई डेढ़ दर्जन शीर्ष नेताओं की मंथन बैठक के बाद अब जोधपुर-राजस्थान में होने वाली प्रचारकों की बैठक पर भाजपा और संघ के नेताओं की नजर लगी हुई है। इस बैठक के बाद हो सकता है कि भाजपा फिर हिन्दुत्व के मुद्दे पर मजबूती से खड़ा होने के संकेत दे। बिहार चुनाव से पहले नीतीश कुमार से गठबंधन और उनके मोदी विरोध के बावजूद नरेंद्र मोदी को आगे रखकर भाजपा ने इस लाइन को आगे बढ़ाने का अपना इरादा जाहिर कर दिया है। इससे उमा भारती की वापसी के मसले को और बल मिलेगा।
पिछले विधानसभा चुनाव के बाद से अपनी मुट्ठी खुलने के बाद से उमा भारती ने खुद राजनीतिक चुप्पी साध रखी है। गाहे-बगाहे भाजपा और संघ के शीर्ष नेताओं से मुलाकात उन्हें सुर्खियों में ला देती है। घरवापसी के इस मुद्दे को पार्टी का अंदरूनी मामला बताकर राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी इसकी गंभीरता को कई बार रेखांकित कर चुके हैं तो स्वयं साध्वी ने भी भाजपा में लौटने को लेकर जारी अटकलों का खंडन करना अब लगभग बंद कर दिया है। इससे इतना तो साफ हो गया है कि उमा भारती और भाजपा के बीच कोई खिचड़ी जरूर पक रही है। उमा की वापसी के लिए भाजपा को सही समय की तलाश है।
लोकसभा चुनाव में आडवाणी के पक्ष में चुनाव प्रचार, संघ दफ्तर में मोहन भागवत से चर्चा हो या फिर पूर्व उपप्रधानमंत्री और भाजपा संसदीय दल के अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी व पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह के रायपुर दौरे और स्वच्छ गंगा-निर्मल गंगा अभियान की गंगोत्री से शुरुआत के दौरान आडवाणी के साथ मौजूदगी के कारण उमा की वापसी के कयास चरम तक पहुंचे हैं। भाजपा में लौटने के कयासों को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी के ताजा बयान ने नई दिशा दी है। गडकरी ने इस मसले पर कहा, यह पार्टी का अंदरूनी मामला और सही समय पर सही निर्णय लिया जाएगा। अध्यक्ष के इस बयान के बाद भाजपा के वे नेता जो उमा को राजनीति में अनफिट मानकर उनका मखौल उड़ाने में नहीं चूकते थे, वे अब यह कहते नजर आते हैं कि साध्वी बड़ी नेता हैं और उनका अपना जनाधार भी है।
पुरानी पीढ़ी का समर्थन!
दिल्ली में उमा की भाजपा और संघ के वरिष्ठ नेताओं से मेल-मुलाकातों के बाद अप्रत्याशित तौर पर प्रदेश भाजपा की पुरानी पीढ़ी के वरिष्ठ नेताओं सुन्दरलाल पटवा, कैलाश जोशी, कैलाश सारंग, बाबूलाल गौर का उमा भारती के सरकारी घर तक जाना चर्चा में है। पटवा, सारंग, गौर और जोशी जैसे बुजुर्ग नेता उमा भारती को पसंद नहीं करते हैं। बावजूद इसके उमा भारती की भतीजी के शादी समारोह में यह सारे नेता इक्कट्ठा हुए। भाजपा की अंदरूनी राजनीति को लेकर इसके अपने निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। क्या यह भाजपा की गुटीय राजनीति में साध्वी की घरवापसी को लेकर आड़े आ रही रिश्तों की बर्फ पिघलने के संकेत है और इसके परिणाम जल्दी सामने आ जाएंगे, कहना मुश्किल है। उमा का मुखर विरोध करने वाले पुरानी पीढ़ी के नेताओं ने वक्त की नजाकत को समझते हुए अब मामले को ज्यादा दिनों तक उलझाये रखने की बजाय पार्टी हित में विवाद को समाप्त करने के लिए अपनी ओर से मौन ही सही, सहमति दे दी है और अब सब कुछ केंद्र के पाले में है, जो उमा की वापसी का ऐलान कर इस एपीसोड को सही समय पर क्लोज करेगा। शीर्ष पदों पर बैठे भाजपा के जिन नेताओं को उमा की कार्यशैली पर ऐतराज था वो भी यह मानते हैं कि साध्वी का अपना जनाधार है और इसका फायदा संगठन को मजबूत करने में जरूर मिलेगा। आलोचकों की नजर में उमा तुनकमिजाज हैं और संगठन के निर्णयों को चुनौती देने की हद तक चली जाती हैं।
साध्वी की सजगता
बदलते परिदृश्य में भाजपा से दूर रहकर भी उमा संघ की चहेती क्यों बनी हुई हैं, इसका जवाब पार्टी के शीर्ष नेताओं के पास भी नहीं है। उमा को करीब से जानने वाले कहते हैं कि वो कब, क्या बोलें और क्या निर्णय ले लें, इसका आभास उनके इर्द-गिर्द रहने वालों को भी नहीं होता है। अपने नजदीकी लोगों की नजर में भी वे अस्थिर चित्त की नेता हैं। वो यह भी कहते हैं कि उनकी कमजोरियां ही, उनकी खूबियां भी हैं, जो उन्हें दूसरे नेताओं से अलग दिखाती हैं। यही नहीं, मुद्दों की पहचान और उन्हें समय रहते भुनाने में माहिर साध्वी की सोच पर सवाल उठाने वाले अब यह मानने लगे हैं कि विचारधारा और सिद्धांत के साथ हिन्दुत्व की राजनीति से उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया है। भाजपा में वापसी का यह उनका एक प्लस प्वाइंट साबित हो रहा है। भगवा ब्रिगेड के इस जाने-पहचाने चेहरे ने राजनीति में उतार-चढ़ाव को बहुत करीब से देखा है तो अपनों और गैरों की परख भी उन्हें बखूबी हो गई है। उनके विवादित बयानों पर ऐतराज जताने वाले आलोचकों को इन दिनों उनकी चुप्पी ने चकित कर रखा है, जो यह सोचने को मजबूर हो गए हैं कि आए-दिन भड़क जाने वाली उमा ने क्या चुप रहना भी सीख लिया है। यह इस बात का संकेत हो सकता है कि वापसी के बाद भाजपा में अपनी नई पारी में राजनीति के दांव-पेंचों में माहिर एक नई उमा से लोगों का वास्ता पड़े। भाजपा से बाहर जाने के बाद उन्होंने भाजश का गठन किया तो स्वयं उसे कमजोर कर यह संकेत पहले ही दे दिया था कि उनका घरवापसी का इरादा है। भाजपा से दूर जाकर भी जिस तरह साध्वी भाजश के कमजोर संगठन के बावजूद वैचारिक धरातल पर अकेले ही मजबूती से खड़ी रहीं और उन्होंने राजनीतिक हित में छोटे और क्षेत्रीय दलों से समझौते की बजाय दूरी बनाए रखी, वह अब उनके हक में जाता है।
भाजपा में अटल के बाद आडवाणी द्वारा पार्टी के मुख्य पदों से दूर जाने के साथ ही हुए नेतृत्व परिवर्तन और संगठन के कायाकल्प की कवायद के बीच करीब 20 महीने से चुनावी राजनीति से दूरी बनाए बैठी उमा भारती के राजनीतिक भविष्य और उनकी उपयोगिता को लेकर सवाल उठते रहे हैं। विधानसभा चुनाव के बाद लोकसभा चुनाव में भाजश उम्मीदवारों को चुनाव मैदान में नहीं उतार कर उमा ने जिस तरह आडवाणी के पक्ष में प्रचार किया तभी आभास हो गया था कि वे भाजपा में जरूर लौटेंगी, लेकिन पीढ़ी बदलाव के इस दौर में भाजपा के शीर्ष पदों पर बैठे कई नेताओं का विरोध उमा की राह में रोड़ा साबित हुआ। समय के साथ मुखर विरोध के स्वर ठंडे पड़े और भाजपा के कई महत्वाकांक्षी नेताओं के बड़े पदों पर एडजस्ट हो जाने के बावजूद घरवापसी की गुत्थी अभी पूरी तरह सुलझी नहीं है।
लाख टके का सवाल
क्या उमा की वापसी शर्तों और मुद्दों पर आधारित होगी? भाजपा को करीब से जानने वाले मानते हैं कि इस मामले में शर्तों पर मुद्दा हावी रहेगा, लेकिन यदि कोई फार्मूला संघ ने बनाया है तो इसका असर उत्तरप्रदेश चुनाव के बाद ही देखने को मिलेगा। फिलहाल उमा की वापसी के अधिकृत ऐलान के बाद ही यह सब संभव होगा, अलबत्ता कड़वा सच यह भी है कि उमा को भाजपा के अलावा कहीं ठौर नहीं है तो भाजपा और संघ भी यह जानता है कि पार्टी की विचारधारा को मजबूत करने की कुब्बत साध्वी के पास जरूर है। सब कुछ भाजपा संसदीय बोर्ड और पर्दे के पीछे संघ को तय करना है। भाजपा को अच्छी तरह मालूम है कि राहुल गांधी के नेतृत्व को यदि 2014 में चुनौती देना है तो उसे देश के सबसे बड़े सूबे उत्तरप्रदेश में खुद को मजबूत करना होगा। जहां भाजपा के पक्ष में न तो अब जातीय समीकरण हैं और न ही उसके पास मुद्दे और जनता के दिल में राज करने वाले नेता बाकी बचे हैं। उमा की भाजपा में वापसी उत्तरप्रदेश में पार्टी के लिए संजीवनी जरूर साबित हो सकती है।
Saturday, October 23, 2010
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