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भेड़ाघाट

Thursday, October 21, 2010

अनाथालय न बन जाएं राजभवन

भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में, राज्यपाल का पद संवैधानिक व गरिमामयी मानी जाता है। लेकिन जब इसकी गरिमा पर सवाल खड़े होने लगे तो क्या इसे आप स्वच्छ लोकतंत्र की स्वच्छ व्यवस्था कहेंगे..शायद नहीं, क्योंकि एक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपरा के लिये एसे संवैधानिक पद पर बैठे नुमांइदों से स्वच्छ आचरण करने कि अपेक्षा होती है। लेकिन विश्व के इस सबसे बड़े लोकतंत्र में राज्यपाल केन्द्र सरकार के मोहरे भर ही होते हैं।
संविधान के अनुच्छेद 155 के तहत राष्ट्रपति किसी भी राज्य के कार्यपालिका के प्रमुख राज्यपाल की नियुक्ति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करता है। राज्यपाल की भूमिका पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगते रहे हैं । इस पद का इस्तेमाल केंद्र में सत्तारूढ़ दल अपने वयोवृद्ध नेताओं को राज्यपाल नियुक्त कर उनको जीवन पर्यंत जनता के टैक्स से आराम करने की सुविधा देता है । इन राज्यपालों के खर्चे व शानो शौकत राजा रजवाड़ों से भी आगे होती है । लोकतंत्र में जनता से वसूले करों का दुरपयोग नहीं होना चाहिए लेकिन आजादी के बाद से राज्यपाल पद विवादास्पद रहा है। जरूरत इस बात की है कि ईमानदारी के साथ राज्यपाल पद की समीक्षा की जाए। अच्छा तो यह होगा की इस पद की कोई उपयोगिता राज्यों में बची नहीं है इसको समाप्त कर दिया जाए।
संविधान की एक धारा जो वाकई अटपटी और कॉमनवेल्थ की तरह हमारे गुलाम होने की बार बार याद दिलाती है वह धारा 162 है। इस धारा के तहत महामहिमों यानी राज्यपालों की नियुक्ति की जाती है और राजनीति या अब सरकारी नौकरियों से भी खारिज हो चुके लोगों को इनाम में जो दिया जाता या लिया जा सकता है उसमें राज्यपाल सबसे आसान पद है। संविधान की धारा 162 के अनुसार राज्य की निर्वाचित सरकार जो भी फैसले करती है वह राज्यपाल की ओर से करती है।
यह ठीक वैसा ही है जैसे अंग्रेजों के जमाने की भारत सरकार हर काम ब्रिटिश राजमुकुट की ओर से करता था। राज्यपाल और राष्ट्रपति पद किसी ब्रिटिश गुलामी के प्रतीक हैं और राष्ट्रपति भवन तो लाल किले से भी बड़ा महल है ही, रिटायर्ड नेता और बर्खास्त होने से बच गए अफसर जिन राज भवनों में रहते हैं वे हर राज्य की सबसे भव्य इमारते होती है। राजस्थान, गोवा, कश्मीर, कोलकाता और यहां तक की झारखंड के राजभवन देख लीजिए, फिल्मों के सेट आपको फीके नजर आने लगेंगे।
वैसे भी राज्यपाल राज्य को जागीर मान कर जागीरदार की तरह काम करते हैं। राज्यपाल बाथरूम और बेडरूम से बाहर हमेशा एक शाही छतरी ले कर चलने वाले सेवक और बहुत सारे अंगरक्षकों के साथ रहते हैं और जहां इंसान तो क्या, किसी चिडिय़ां की आत्मा भी न हो वहां भी आवाज लगाई जाती है कि महामहिम पधार रहे हैं। यह राज्यपाल का जलवा है। उस आदमी का जिसे हमारे तंत्र और व्यवस्था में उपयोग पूरा हो जाने के बाद निपटा हुआ मान कर, जैसे टीबी के मरीजों को सेनिटोरियम में भर्ती कर दिया जाता था, वैसे ही आजकल महामहिम बना दिया जाता है।
रोमेश भंडारी, बूटा सिंह, मोती लाल बोरा, सिब्ते रजी और अब हंसराज भारद्वाज की महामहिम हरकतों को याद किया जाए तो इस संस्था के अस्तित्व पर सवाल उठने लगते हैं। हालांकि हैं तो राष्ट्रपति पद ही अंग्रेजों का गुलामी का ही संकेत लेकिन यहां गनीमत है कि भारत के राष्ट्रपति जैसे भी आते हैं, निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा निर्वाचित हो कर आते हैं। दूसरे शब्दों में प्रकारांतर से राष्ट्रपति पद एक अर्जित किया हुआ पद है।
राज्यपालों के मामले में ऐसा नहीं है। बूटा सिंह का ही सवाल लें तो उन्होंने फरवरी 2005 में बिहार में हुए विधानसभा चुनावों के बाद विरोधी पक्ष की सरकार नहीं बनने दी और केंद्र को भ्रामक रिपोर्ट भेजी। इस चुनाव में जनता दल(यूनाइटेड) को 88, बीजेपी को 37 सीटें मिलीं थीं, जबकि राष्ट्रीय जनता दल को 75, लोकजनशक्ति पार्टी 29 और कांग्रेस को 10 सीटें मिलीं थीं। एनडीए कुछ निर्दलीयों के सहयोग से सरकार बनाने की स्थिति में था। लेकिन बूटा सिंह ने केंद्र को भ्रामक रिपोर्ट भेजी कि बिहार में विधायकों की खरीद फरोख्त का खेल चल रहा है। इसी रिपोर्ट के आधार पर राष्ट्रपति ने केंद्र की सिफारिश पर विधानसभा भंग कर दी। लेकिन 24 जनवरी 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल बूटा सिंह की कड़ी आलोचना की और कहा कि उनकी सिफारिश पूरी तरह अलोकतांत्रिक और अवैध थी। सुप्रीम कोर्ट ने यह बी कहा कि अब राज्यपाल कौन हो, इस प्रश्न पर व्यापक बहस की जरुरत है। अदालत ने टिप्पणी की कि राज्यपाल गैर राजनीतिक व्यक्ति होना चाहिए। इसके कुछ समय बाद राज्यपाल बूटा सिंह को इस्तीफा देना पड़ा था।
इसके बाद लोकसभा का एक चुनाव वे जीते और फिर उन्हें अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग का अध्यक्ष बना दिया गया। जो हैं तो केंद्रीय मंत्री स्तर का पद मगर वहां भी बूटा सिंह पर अपने बेटे के जरिए रिश्वत लेने का इल्जाम लगा।
वर्ष 1998 में उत्तरप्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने असंवैधानिक तरीके से तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह (बीजेपी) के मुख्यमंत्री रहते ही जगदम्बिका पाल(कांग्रेस) को एक साजिश के तहत रात को बारह बजे राज भवन में कर्मचारियों सहित पचास लोगों का समारोह कर के पाल को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवा दी गई। कल्याण सिंह को हटाया गया था और प्रधानमंत्री चुने जा चुके अटल बिहारी वाजपेयी ने आमरण अनशन पर बैठ कर एक इतिहास बना दिया था और दूसरा इतिहास अदालत ने बना दिया जिसने राज्यपाल के आदेश को खारिज कर दिया।
वर्ष 2007 में झारखंड के राज्यपाल सैयद शिब्ते रजी ने भी अपने पद का दूरुपयोग किया। बजह बना तत्कालीन मुख्यमंत्री शिबु सोरेन का तमाड़ विधानसभा से चुनाव हार जाना। महामहीम राज्यपाल ने बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार किये, राज्य में राष्ट्रपति शासन कि अनुशंसा कर दी। इसी तरह वर्ष 2008 में गोवा के राज्यपाल एस.सी.जमीर ने मनोहर पारिकर(बीजेपी) की सरकार को बर्खास्त कर दिया और प्रताप सिह राणे(कांग्रेस) को शपथ दिला दी। लिहाजा, राज्य में राजनीतिक अस्थिरता उत्पन्न हो गयी।
हंसराज भारद्वाज ने कर्नाटक में जो नाटक किया उसे तो कोई भूल नहीं सकता। चार दिन में दो बार एक सरकार विधानसभा के पटल पर बहुमत साबित करती है और उसे बर्खास्त करने की पूरी कोशिश की जाती है। मोती लाल बोरा तीन बार उत्तर प्रदेश के राज्यपाल रहे और तीनों बार राष्ट्रपति शासन लगा और धारा 356 की कृपा से वर्तमान छत्तीसगढ़ के एक छोटे से शहर में बस कंडक्टर रहे और फिर नगरपालिका सदस्य बने बोरा ने देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश पर राज किया। इस दौरान के उनके भी सैकड़ों फैसले हैं जो आज तक अदालत में हैं। यह धारा 356 है जो राज्यपाल को राष्ट्रपति शासन यानी अपना राज्य कायम करने का अधिकार देती है। जहां तक धारा 166 का सवाल है तो उसके पहले और दूसरे अनुच्छेद, जिन्हे सौभाग्य से संविधान में अनिवार्य नहीं बनाया गया है लेकिन राज्यपाल केंद्र सरकार की सहमति से इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। जब केंद्र सरकार एक निरर्थक हो चुके आदमी को राजा बना कर भेज सकती हैं तो उसे अपने मतलब के कामों में सहमति लेने से क्या ऐतराज हो सकता है? इस धारा के अनुसार राज्यपाल का कोई भी आदेश नियमों के अनुसार अनिवार्य माना जाएगा और इसकी वैधता पर कोई सवाल भी खड़ा नहीं किया जा सकता। धारा 166 के ही पहले और दूसरे अनुच्छेद में तो यह खेल कर दिया गया मगर तीसरे अनुच्छेद में लिख दिया गया कि राज्यपाल के आदेश को कानून के आधार पर अदालत में चुनौती दी जा सकती है। मगर इसी आदेश में यह भी लिखा हैं कि महामहिम राज्यपाल सरकार को किसी भी दिन अपने हाथ में ले सकते हैं और यहां तक कि मंत्रियों के काम काज भी बदल सकते हैं। ऐसा हुआ बहुत कम हैं क्योंकि राज्यपाल भी जानते हैं कि बवाल में फंसे तो पेंशन में मिली शान और शौकत जाते देर नहीं लगेगी और फिर दिल्ली में एक बंगला मिल जाएगा जहां वे 'नाहन्यते हन्यमाने शरीरे' मंत्र के जाप का इंतजार करेंगे। तब तक तो राज्यपाल पद को आत्मा बनने से रोका जाए जिसे न वायु सुखा सकती है, न अस्त्र काट सकते हैं और न आग जला सकती है और जो एक तरह से भीख में मिलता है।
अब, सवाल यह उठता है, कि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पद पर आसीन् रहने के बावजूद, इतना पूर्वाग्रह क्यों। क्या राज्यपाल अपनी वैचारिक पार्टी के प्रति वफादारी दिखाते हैं। या फिर ऐसे घटनाक्रम में मौके की नजाकत को देखते हुये, मामले को और उलझाते हैं , ताकि उस सरकार के प्रति वफादार बने रहें जिसने उसे नियुक्त किया हैज्.। लेकिन अब सवाल यह उठता है कि जिस तरह से राज्यपाल केन्द्र सरकार या अपनी पार्टी के एजेंट के रुप में काम करते हैं , वो इस देश के स्वस्थ लोकतंत्र के लिये कितना जायज है।

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