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भेड़ाघाट

Tuesday, October 5, 2010

अब राम की होगी अग्निपरीक्षा

भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहा गया है। हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार राम सिर्फ एक नाम नहीं अपितु एक मंत्र है, जिसका नित्य स्मरण करने से सभी दु:खों से मुक्ति मिल जाती है। राम शब्द का अर्थ है- मनोहर, विलक्षण, चमत्कारी, पापियों का नाश करने वाला व भवसागर से मुक्त करने वाला। रामचरित मानस के बालकांड में एक प्रसंग में लिखा है-
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू।
राम नाम अवलंबन एकू।।
अर्थात कलयुग में न तो कर्म का भरोसा है, न भक्ति का और न ज्ञान का। सिर्फ राम नाम ही एकमात्र सहारा हैं। लेकिन कलियुग के रावणों ने ऐसा चक्रव्यूह रचा है कि राम को बार-बार अग्रिपरीक्षा के दौर से गुजरना पड़ रहा है।
अयोध्या के ऐतिहासिक फैसले के बाद कुछ महानुभावों ने अपनी प्रतिक्रिया में इस बात पर खुशी जाहिर की कि 'अब तो अदालत से भी सिद्ध हो गया कि भगवान राम थे और वे हमारे आराध्य हैं।Ó ऐसी ही खुशी का भाव कई अन्य के चेहरों पर था कि अदालत ने भगवान राम के जन्म होने के स्थान पर मुहर लगा दी है यानी परोक्ष रूप से मान लिया है कि भगवान राम थे। कुछ लोग तो इस सीमा तक विश्लेषण करने लगे कि भगवान राम, भगवान के रूप में न सही पर हमारे पूर्वज के रूप में तो सभी को स्वीकार्य होने चाहिए। अब फिर कुछ लोग सुप्रीम कोर्ट में जाने की बात कह रहे हैं। फिर तर्क-वितर्क होंगे। गवाह पेश होंगे, सबूत दिए जाएंगे, अभिलेख दिखाए जाएंगे। फिर से जमीन के हक की और उसके बंटवारे की बात होगी। यानी एक बार फिर प्रश्न उठेगा कि भगवान राम वहां जन्मे थे या नहीं, साथ ही यह भी कि भगवान राम थे भी या नहीं। यानी एक बार फिर राम की अग्नि परीक्षा होगी। सीता मैया की अग्नि परीक्षा लेकर तुमने यह क्या अनर्थ कर दिया प्रभु कि इस कलियुग में तुम्हें बार-बार अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ रहा है।
लेकिन यह बात कोई समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि राम केवल हमारे अराध्य और हिन्दु धर्म ही नहीं बल्कि हमारे साझा मुल्क साझी विरासत के प्रतिक भी है। असल धर्म का पालन लोगों के दिलों के बीच पुल बनाने और जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता रहा है. असली धर्म यानी अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण. यहां बिना किसी हानि-लाभ के, अंतरात्मा की आवाज पर, अपने होने के उद्देश्य की पूर्ति करने वालों की कुछ मिसालें दी जा रही हैं जिनसे छोटे-छोटे झगड़ों में बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करने वाले उनसे भी बड़े सबक ले सकते हैं ।
आज जिस राम भूमि को लेकर हंगामा मचा हुआ है उसी अयोध्या से होकर कलकल कर बहती
सरयू नदी में पंडे धर्म-कर्म कराते थे और मुसलिम समुदाय के लोग फूल चढ़वाने का काम करते थे. जहूर मियां बाबरी मस्जिद का केस भी लड़ते थे और संत-महंत सामने से गुजर जाएं तो दुआ-सलाम व आदर देने में कहीं भी कोताही नहीं करते थे. हाशिम मियां के क्या कहने, उनका महंत परमहंस जी से तो याराना जैसा था. हाशिम मियां आज भी हैं वे बाबरी मस्जिद के एक पक्षकार भी हैं और इसी मामले में हिंदू पक्ष की ओर से पक्षकार रहे रामचंद्र परमहंस के साथ एक ही गाड़ी में बैठकर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद का मुकदमा लडऩे के लिए जाते थे.
फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिंदू-मुसलिम साथ खड़े दिखते हैं। भाजपा के सांसद रहे ब्रह्मचारी विश्वनाथ दास शास्त्री की यह बात उस अयोध्या की झलक देती है जिसकी हर ईंट में गंगा-जमुनी तहजीब और सद्भाव की मिट्टी बसी है. फूलबंगले की सजावट से लेकर विभिन्न मेले-त्योहारों तक तमाम मौकों पर शहर के हिन्दू-मुसलिम साथ-साथ दिखाई देते हैं. पूजा के लिए दिए जाने वाले फूलों से लेकर मंदिरों में चढऩे वाली माला को पिरोने के काम में लगे मुसलिम समुदाय के लोग शहर के ताने-बाने में ऐसे रचे बसे हैं कि यदि ये न हों तो शायद अयोध्या की जिंदगी ही ठहर जाए.
कनकभवन के बगल में स्थित सुंदरभवन में रामजानकी का मंदिर है. अन्सार हुसैन उर्फ चुन्ने मियां 1945 से लेकर जीवन के अंतिम क्षणों तक इस मंदिर के मैनेजर रहे. मेले में तो वे पुजारी के काम में मंदिर में हाथ भी बंटाते थे. वे पंचवक्ती नमाजी थे लेकिन क्या मजाल इसे लेकर अयोध्या में कोई विवाद हुआ हो.
अयोध्या के साधु-संतों के लिए विशेष तौर पर अयोध्या के मुसलिम कारीगरों द्वारा जो खड़ाऊं बनायी जाती है उसे 'चुन्नी-मुन्नीÓ कहते हैं. इसका वजन 50 से लेकर 100 ग्राम तक होता है. इसे बनाने वाले एक मोहम्मद इकबाल बताते हैं कि यह एक खास हुनर है . इनके पिता भी यही काम करते थे और खानदान के लगभग एक दर्जन लोग इसे अपना व्यवसाय और सेवा बनाए हुए हैं. 6 दिसम्बर, 1992 को बाहरी उपद्रवी लोगों ने इनका घर जलाकर खाक कर दिया फिर भी इन्होंने न तो अयोध्या छोड़ी और न खड़ाऊं बनाना. हनुमानगढ़ी सहित तमाम मंदिरों में ये खड़ाऊं चढ़ाई जाती है. जब विश्व हिंदू परिषद के अयोध्या आंदोलन के कारण स्थितियां खराब होने के अंदेशे में खड़ाऊं के कारोबार में लगे मुसलिम कारीगर थोड़े दिनों के लिए अयोध्या छोड़कर दूसरी जगहों पर चले गए तो विश्व हिंदू परिषद को भरतकुंड के खड़ाऊ पूजन का कार्यक्रम पूरा करने के लिए जरूरी खड़ाऊं उपलब्ध नहीं हो सकी.
इतिहास पर नजर डाली जाए तो पता चलता है कि अयोध्या में कई मंदिर और अखाड़े हैं जिन्हें मुसलिम शासकों ने समय-समय पर जमीन और वित्तीय संरक्षण दिया. फैजाबाद के सेटिलमेंट कमिश्नर रहे पी कारनेगी ने भी 1870 में लिखी अपनी रिपोर्ट में इस आशय के कई उल्लेख किए हैं. रामकोट क्षेत्र, जहां अयोध्या विवाद का मुख्य केंद्र बिंदु विवादित परिसर है, उसी के उत्तर में स्थित जन्मस्थान मंदिर 300 वर्ष पुराना है. यह वैष्णवों के तडग़ूदड़ संप्रदाय का मंदिर है और कार्नेगी ने लिखा है कि इसके लिए जमीन अवध के नवाब मंसूर अली खान ने दी थी. रामकोट में प्रवेश द्वार पर ही एक टीलेनुमा किले के रूप में दिखती है हनुमानगढ़ी. सीढिय़ां देख लीजिए तो लगता है जैसे पहाड़ी पर चढऩा है. हनुमानगढ़ी को नवाबों के समय में दी गई भूमि पर बनाया गया था और आसफुदौला के नायब वजीर राजा टिकैतराय ने इसे राजकोष के धन से बनवाया. आज भी यहां फारसी में लिपिबद्ध पंचायती व्यवस्था चल रही है. जिसका मुखिया गद्दीनशीन कहलाता है. इस समय रमेशदास जी इसके गद्दीनशीन हैं. हनुमानगढ़ी के महंत ज्ञानदास ने 2003 में अयोध्या के इतिहास में हनुमानगढ़ी परिसर में रोजा इफ्तार का आयोजन करके हिन्दू-मुसलिम के बीच अयोध्या आंदोलन के फलस्वरूप आई कुछ दूरियों को समाप्त करने के लिए एक नया अध्याय खोला और इसके बाद सादिक खां उर्फ बाबू टेलर ने मस्जिद परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ कराकर अवध की उसी गंगा-जमुनी तहजीब का परिचय दिया जिसका अयोध्या भी एक हिस्सा है.
हनुमानगढ़ी के महंत, षटदर्शन अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत ज्ञानदास कहते हैं कि नागापनी संस्कार में उनके गुरू द्वारा बताया गया था कि अवध के नवाब आसफुदौला और सूबेदार मंसूर अली खान के समय में मंदिर को दान मिला था. महन्त ज्ञानदास फारसी में लिखे उस फरमान को दिखाते हैं जिसके अनुसार मंदिर को दान मिला. वे कहते हैं, जहां तक मुझे ज्ञात है कि नवाब के नायब नवल राय द्वारा अयोध्या के कई मंदिरों का जीर्णोद्धार हुआ. बाबा अभयराम दास को भी नवाबों के काल में भूमि दी गई थी.
इसी अयोध्या में बाबर के समकालीन मुसलिम शासकों ने दंतधावन कुंड से लगे अचारी मंदिर जिसे दंतधावनकुण्ड मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, को पांच सौ बीघे जमीन ठाकुर के भोग, राग, आरती के लिए दान में दी थी. महंत नारायणाचारी बताते हैं कि अंग्रेजों ने भी इस जमीन पर मंदिर का मालिकाना हक बरकरार रखा और जमीन को राजस्व कर से भी मुक्त रखा, इस शर्त पर कि मंदिर द्वारा ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ कोई कार्य नहीं किया जाएगा.
अयोध्या में ही उदासीन संप्रदाय का नानकशाही रानोपाली मंदिर भी है. यह वही मंदिर है जिसकी चौखट पर ऐतिहासिक 'धनदेवÓ शिलालेख जड़ा है जिसमें पुष्यमित्र के वंशजों द्वारा यहां एक ऐतिहासिक यज्ञ करने का वर्णन है. इस मंदिर का क्षेत्र ही इतना बड़ा है कि मंदिर परिसर के अंदर खेती भी होती है. तहलका ने कुछ साल पहले जब यहां महंत दामोदरदास से मुलाकात की थी तो उन्होंने नवाब आसफुद्दौला का एक दस्तावेज दिखाया था जो फारसी में लिखा था. उन्होंने बताया था, नवाब ने मंदिर के लिए एक हजार बीघे जमीन दान में दी थी लेकिन इसकी जानकारी हमें नहीं थी. 1950 में इसका पता चला जब महंत केशवदास से मार्तंड नैयर और शकुंतला नैयर ने मंदिर की जमीन का बैनामा करा लिया. मामला आगे बढ़ा तो पता चला कि यह तो हो ही नहीं सकता क्योंकि जमीन दान की थी उसी दौरान हमें आसफुद्दौला की ग्राण्ट का यह प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ था जिसे कोर्ट में लगाया गया और बैनामा खारिज हुआ. कोर्ट ने कहा कि दान की भूमि को बेचा नहीं जा सकता. गौरतलब है कि शकुंतला नैयर तत्कालीन जिलाधिकारी केकेके नैयर की पत्नी तथा मार्तंड नैयर उनके बेटे थे. केकेके नैयर के समय ही 22/23 दिसंबर 1949 को मूर्तियां बाबरी मस्जिद के अंदर रखी गई थीं. बाद में ये पति-पत्नी जनसंघ के टिकट पर सांसद भी निर्वाचित हुए थे.
सरयू किनारे स्थित लक्ष्मण किले के बारे में उल्लेख मिलता है कि यह मुबारक अली खान नाम के एक प्रभावशाली व्यक्ति ने बनवाया था. यह अब रसिक संप्रदाय का मंदिर है जिसके अनुयायी रासलीलानुकरण को अपनी उपासना के अंग के रूप में मान्यता देते हैं. अयोध्या-फैजाबाद दो जुड़वां शहर हैं. फैजाबाद नवाबों की पहली राजधानी रही है. गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रभाव फैजाबाद की दुर्गापूजा पर भी दिखता है जब चौक घंटाघर की मस्जिद से दुर्गा प्रतिमाओं के जुलूस पर फूलों की वर्षा की जाती है. यह परंपरा कब शुरू हुई यह कहना मुश्किल है, लेकिन यह उसी रूप में आज भी जारी है.
असल धर्म का पालन लोगों के दिलों के बीच पुल बनाने और जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता रहा है. असली धर्म यानी अपनी अंतरात्मा की आवाज का अनुसरण. यहां बिना किसी हानि-लाभ के, अंतरात्मा की आवाज पर, अपने होने के उद्देश्य की पूर्ति करने वालों की कुछ मिसालें दी जा रही हैं जिनसे छोटे-छोटे झगड़ों में बड़ी-बड़ी दीवारें खड़ी करने वाले उनसे भी बड़े सबक ले सकते हैं
यह अस्वाभाविक या असंभव भी नहीं है। जब भी आस्था को तर्को-वितर्को की कसौटी पर कसा जाएगा, गवाहों, सबूतों और अभिलेखों के आधार पर सिद्ध किया जाएगा, ऐसे विवाद उठने स्वाभाविक हैं। ऐसे ही विवाद हमारी समझदारी और सहिष्णुता की परीक्षा लेते हैं। परीक्षा धर्य और संयम की भी होती है। यही विवाद कालान्तर में उन्माद को जन्म देते हैं, जिसकी विभीषिका हमने सन 1992 में देखी है।
प्रश्न यह है कि हम आस्था को अदालत की कसौटी पर कसने का प्रयास क्यों करते हैं? ईश्वर का अस्तित्व आस्था का प्रश्न है, तर्क और सबूतों का नहीं। हम में से कई लोग ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते। कुछ ऐसे भी हैं जो ईश्वर को नहीं मानते पर किसी वैश्विक ऊर्जा या शक्ति को मानते हैं, जो इस पूरे ब्रह्मंड के प्रपंच को संचालित कर रही है। ईश्वर का होना एक विश्वास है, तो ईश्वर का न होना भी एक विश्वास है। हिंदू धर्मावलंबियों में तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं का संदर्भ आता है। हरेक को अपनी आस्था के अनुरूप ईश्वर के स्वरूप को चुनने की स्वतंत्रता है।
इसके अलावा धर्म में ऋषि, मनीषियों, संतों, महात्माओं की एक विशाल परंपरा है, जिन्हें देवतुल्य मानकर उनकी उपासना की जाती है। इसके अलावा कई और प्रतीक भी हैं, जिन्हें देवतुल्य आदर प्राप्त है और उन्हें भी उसी तरह पूजा जाता है, आराधना की जाती है। इन प्रतीकों में नदियां हैं, पर्वत हैं, पेड़ हैं और भी न जाने क्या-क्या है। लेकिन सभी अपनी-अपनी तरह से आस्था के स्थान हैं और श्रद्धालुओं के विश्वास के कारण दैवीय आभा से परिपूर्ण हैं। प्रश्न यह है कि क्या इन सभी के अस्तित्व को कसौटी पर कसने के लिए हमें हर बार अदालत का सहारा लेना पड़ेगा और क्या हर बार हम अदालत के फैसले के बाद ही अपनी आस्थाओं की पुष्टि कर पाएंगे। आस्था के अदालतों द्वारा प्रमाणीकरण का सिलसिला क्या यूं ही चलता रहेगा?
अब चूंकि फैसला हो गया है, जो हमारे भारत की भावात्मक-रागात्मक एकता, सांस्कृतिक परंपरा और आस्था के अनुकूल है, इसलिए इस बात पर कुछ क्षण के लिए विचार किया जा सकता है कि यदि यह फैसला इसके विपरीत होता तो क्या होता? यदि माननीय उच्च न्यायालय भगवान श्रीराम के जन्मस्थान के बारे में या उनके अस्तित्व के बारे में विपरीत फैसला देता या मौन रह जाता, तब हम हमारी आस्था के लिए कैसी प्रतिक्रिया देते, यह सोचने का विषय है। क्या हम तब भगवान श्रीराम को मानना छोड़ देते या उन्हें अपना पूर्वज मानने से इनकार कर देते? क्या हम उन तर्को के सामने अपनी आस्था के प्रश्न को गौण मानकर छोड़ देते? क्या तब हमारी भगवान श्रीराम के प्रति आस्था में, उनके प्रति भक्ति भाव में कमी आती और तब क्या हम उनकी उपासना करना छोड़ देते? नहीं, हम ऐसा हरगिज नहीं कर पाते। तब फिर हम आस्था के विषय को अदालत की कसौटी पर ले जाकर माननीय अदालत के सामने भी एक बड़ा प्रश्नचिह्न् क्यों छोड़ देते हैं? कई सौ वर्षो की गुलामी के काल में भी भारत पर शासन करने वालों ने भारतीयों की आस्था के विषय पर कभी कोई प्रश्नचिह्न् नहीं लगाया।
वे भारतीयों पर शासन करते रहे लेकिन भारतीयों की आस्था के साथ ही जीते रहे। खेद का विषय है कि आज हम आजाद भारत में अपने ही बनाए कानून के तहत आस्था पर सवाल उठा रहे हैं और अदालतों के माध्यम से उसे सुलझाने का प्रयास कर रहे हैं। आज जो लोग माननीय उच्च न्यायालय द्वारा भगवान श्रीराम का अस्तित्व सिद्ध हो जाने पर हर्ष व्यक्त कर रहे हैं, क्या उन्होंने कभी इस बात की पड़ताल की है कि इसके विपरीत फैसला आने पर उनकी प्रतिक्रिया क्या होती। हमारे जीवन में कुछ तो ऐसा होना चाहिए, जो तर्को-वितर्को से परे हो और जिसे गवाहों, सबूतों, दस्तावेजों के आधार पर नहीं, अपने भाव से तौला जा सके।

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