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भेड़ाघाट

Saturday, July 2, 2016

भ्रष्टाचार का गढ़ बना पीडब्ल्यूडी

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रष्टों ने लगाई 27,000 करोड़ की चपत
भोपाल। लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) मप्र में ही नहीं भारतभर में भ्रष्टाचार का गढ़ बना हुआ है। अकेले मप्र में ही भ्रष्ट अधिकारियों, नौकरशाहों, राजनेताओं और ठेकेदारों ने मिलीभगत से सरकार को पिछले एक दशक में करीब 27,000 करोड़ की चपत लगाया है। सरकार को यह चपत पूर्ण हो चुकी 14,714 सड़कों और 95 पुल-पुलियों के साथ ही निर्माणाधीन 16,783 सड़कों और 290 पुल-पुलियों के घटिया सड़क निर्माण, टेंडर में गड़बड़ी, पुरानी सड़कों पर पुन: निर्माण, पुल-पुलिया का मापदंड को दरकिनार कर बनाना, समय पर निर्माण नहीं होने से लागत बढऩे और भ्रष्टाचार से लगाई गई है। पीडब्ल्यूडी में भ्रष्टाचार की जड़ें किस तरह फैली हैं, इसका खुलासा अफसरों व कर्मचारियों पर छापामार कार्रवाई से हो रहा है, पर विभाग के जिम्मेदारों के कानों पर जूं तक नहीं रेंग रही। यही नहीं विभाग के भ्रष्टाचार की पोल कैग की रिपोर्ट में भी खुलती रही है। उधर, आम आदमी पार्टी ने सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। एक प्रेस कांफ्रेंस में पार्टी के पदाधिकारियों ने घोटालों का खुलासा किया। ट्विटर पर तस्वीर जारी कर और विभिन्न आंकड़ों के जरिए पार्टी ने सरकार पर लगभग 36,000 करोड़ से ज्यादा के घोटालों का आरोप लगाया है। जिसमें पीडब्ल्यूडी विभाग में 9765.22 करोड़ की वित्तीय अनियमित्ताएं भी हैं। उल्लेखनीय है कि लोक निर्माण विभाग शासकीय भवनों, मार्गों तथा पुलों के सर्वेक्षण, रूपांकन, निर्माण एवं रख-रखाव आदि सभी कार्यों को सम्पन्न करने वाला प्रमुख विभाग है। यह विभाग मध्यप्रदेश के समस्त कार्य विभागों के ठेकेदारों के पंजीयन का कार्य भी करता है। मुख्यमंत्री युवा इंजीनियर कांट्रेक्टर योजना संचालित किए जाने का नोडल विभाग है। इतनी महत्वपूर्ण जिम्मेदारी वाले इस विभाग को हर साल राज्य सरकार द्वारा हजारों करोड़ रूपए का बजट मुहैया कराया जाता है। वित्तीय वर्ष 2015-16 में विभाग को राज्य सरकार नक 5911.80 करोड़ का बजट मुहैया कराया था वहीं वित्तीय वर्ष 2016-17 के लिए 7124.80 करोड़ का बजट दिया है। लेकिन इतना बड़ा बजट मिलने के बाद भी विभाग गुणवत्ता पूर्ण कार्य करने में असफल साबित हुआ है। विभाग में भर्राशाही और भ्रष्टाचार किस कदर है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि विभाग ने अब तक 179 ठेकदारों को ब्लैक लिस्टेड कर रखा है। पीडब्ल्यूडी ने भारत में भ्रष्टाचार को बुनियादी स्तर पर सचमुच नए सिरे से परिभाषित किया है। अन्य विभागों के विपरीत, जहां रिश्वत, काम की रफ्तार को तेज करने का काम करता है, वहीं पीडब्ल्यूडी में इसकी भूमिका बदल जाती है। यह संभवत: उन चंद विभागों में से है, जहां, अधिकारी घटिया सेवाएं देने के लिए पैसे लेते हैं। यहां भ्रष्टाचार का पूरे समाज पर व्यापक असर पड़ता है। सड़कों के रखरखाव और जल निकासी की व्यवस्था के लिए काफी हद तक पीडब्ल्यूडी ही जिम्मेदार होता है। कोई भी साल ऐसा नहीं होता है, जब भारी बारिश के बाद प्रदेश के ज्यादातर शहरों में जिंदगी ठहर सी न जाती हो। हर साल, प्रदेश भर में, बारिश के बाद न केवल सड़कें बर्बाद हो जाती हैं, बल्कि नाले-नालियां भी उफनाने लगते हैं। इसीलिए उन शहरों को किस्मतवाला माना जाता है, जहां जल निकासी का अच्छा इंतजाम होता है। पीडब्ल्यूडी, मरम्मत का जो भी काम कराता है, वह चंद महीनों में ही बराबर हो जाता है। अगली बारिश में ही पता चल जाता है कि दरअसल क्या काम कराया गया था। नतीजा यातायात में रुकावट, सार्वजनिक जीवन में बाधा, सामग्री का नुकसान और बड़े पैमाने पर महामारी का प्रकोप। मप्र में हर साल सड़क की वजह से सरकार को सैकड़ों करोड़ रुपए का खामियाजा उठाना पड़ता है। प्रदेश में सड़क माफिया, पीडब्ल्यूडी के कर्मचारियों, स्थानीय राजनेताओं, वेंडरों और ठेकेदारों का गठजोड़ इस हद तक पहुंच गया है कि किसी भी ईमानदार आदमी की प्रतिबद्धता खतरे में पड़ गई है। पीडब्ल्यूडी कई बार निजी कंपनियों के जरिए निर्माण कार्य करवाता है और पीडब्ल्यूडी की नाक के नीचे और दोनों की सुविधा के अनुसार, सड़कों, पुलों और बुनियादी सुविधाओं के निर्माण में धड़ल्ले से घटिया सामग्री का इस्तेमाल होता है। इसका परिणाम यह होता है कि हर साल करोड़ों रूपए खर्च करने के बाद भी प्रदेश की सड़के बदहाल हैं। पिछले एक दशक में मध्य प्रदेश ग्रामीण सड़क विकास प्राधिकरण ने करीब 14,000 से अधिक सड़कों का निर्माण कराया है लेकिन भ्रष्टाचार के कारण ये सड़कें ऐसी बनी हैं कि कईयों का अस्तित्व केवल कागजों पर है। रिश्वतखोरों का स्वर्ग लोक निर्माण विभाग में ें रिश्वत नारियल जैसा हो गया है, हर काम से पहले चढ़ाना ही पड़ता है। आलम यह है कि तमाम सतर्कता के बाद भी विभाग में रिश्वत लेने वाले अधिकारी-कर्मचारी हमेशा लोकायुक्त के हत्थे चढ़ रहे हैं। सही कहा जाए तो पीडब्ल्यूडी के ज्यादातर अधिकारी भ्रष्ट हैं। और नौकरशाहों और राजनेताओं से माफिया की मिलीभगत इस समस्या को और गंभीर बना देती है। इसकी वजह से प्रदेश को करदाताओं के पैसे का भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। न्यायिक विलंब इस गठजोड़ के लिए उत्प्रेरक का काम कर रहा है। एक समय था जब उम्मीद की किरण दिखाई दी थी, जब मध्य प्रदेश के देवास में पीडब्ल्यूडी के एक भ्रष्ट अधिकारी को एक स्थानीय न्यायाधीश ने पांच करोड़ रुपए का जुर्माना और तीन साल कैद की सजा सुनाई थी। इसे भ्रष्टाचार के खिलाफ एक कड़ी सजा के तौर पर देखा गया था। लेकिन विभाग में भ्रष्टाचार के भष्मासूर इस कदर भरे पड़े हैं कि लगातार रिश्वत के मामले सामने आ रहे हैं। अक्टूबर 2015 में बिल्डर एसोसिएशन ऑफ इंडिया इंदौर सेंटर के चेयरमैन अरुण जैन ने पीडब्ल्यूडी के प्रमुख सचिव (पीएस) प्रमोद अग्रवाल से की शिकायत में कहा था कि पीडब्ल्यूडी ऑफिस में भ्रष्टाचार का बोलबाला हैं। वे यदि सत्यता जांचना चाहते हैं, तो एसी ऑफिस के रिकॉर्ड में अटकी फाइलें देख लें। एसोसिएशन ने सुझाव भी दिए थे, पर ध्यान नहीं दिया गया। पीडब्ल्यूडी में जनसुनवाई करने में भी कोई दिलचस्पी नहीं लेता है। इस कारण भ्रष्टाचार लगातार बढ़ रहे हैं। इस साल इस ही पीडब्ल्यूडी में रिश्वतखोरी और लोकायुक्त की छापामार कार्रवाई में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जो विभाग में चल रहे भ्रष्टाचार की पोल खोल रहे हैं। 8 मार्च को कार्यपालन यंत्री (ईई) ब्रजेन्द्र कुमार माथुर के खिलाफ लोकायुक्त ने सड़क घोटाले में प्राथमिकी दर्ज की थी। देपालपुर के गंगाजल खेड़ी से चिमनखेड़ी गांव के बीच 7.70 किमी की सड़क में दो ठेकेदारों का पेमेंट रोका और तीसरे ठेकेदार को ज्यादा राशि में टेंडर भरवाकर काम सौंप दिया। ठेकेदार राकेश कुमार सांवला ने अधिकारियों की बात की रिकार्डिंग और वीडियो बनाकर स्टिंग भी किया था। इससे पहले लोकायुक्त ने 29 जनवरी को रेसीडेंसी इलाके में माथुर को 30 हजार रुपए की रिश्वत लेते रंगेहाथ पकड़ा था। वह ठेकेदार ब्रजेश सोनी को सड़क की डीपीआर बनाने के भुगतान के लिए 50 हजार की रिश्वत मांग रहा था। पकड़े जाने के एक माह बाद माथुर का तबादला सागर कर दिया और विभागीय जांच की बात कहकर सस्पेंड होने से बचा लिया गया। 18 अप्रैल को लोकायुक्त पुलिस ने पीडब्ल्यूडी के एक रिश्वतखोर बाबू रजनीकांत केसरी को तीस हजार रूपए घूस लेते हुए धर- दबोचा। लोकायुक्त की इस कार्रवाई से पीडब्ल्यूडी विभाग में अफरा-तफरी मच गई। जानकारी के अनुसार फरियादी इंद्रर प्रजापति टीआई माल में स्थित विक्टोरिया रेस्टोरेंट में बार चलाने के लिए आबकारी विभाग में लाइसेंस के लिए आवेदन दिया था। इस पर आबकारी विभाग में जगह का प्राक्लन करने के लिए पीडब्ल्यूडी को निर्देशित किया था। आबकारी विभाग से जैसे ही यह फाइल पीडब्ल्यूडी के भ्रष्ट बाबू रजनीकांत केसरी के पास आई वैसे ही प्राक्लन के नाम पर फरियादी से पच्चास हजार रुपए की मांग की। इस पर आवेदक ने मना कर दिया। फरियादी इंदर प्रजापति महीनों भ्रष्ट बाबे केसरी का चक्कर काटता रहा, लेकिन वह फाइल बढ़ाने को तैयार ही नहीं होता था। अंत में किसी तरह दोनों के बीच तीस हजार रूपये में सौदा तय हुआ। इधर फरियादी इस पूरे मामले की शिकायत लोकायुक्त एसपी अरूण मिश्रा से कर दी। लोकायुक्त पुलिस ने जाल बिछाकर भ्रष्ट बाबू केसरी को दबोच लिया। पीडब्ल्यूडी का बाबू केसरी कितना भ्रष्ट है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह अपने पद पर एक ही जगह सालो सें बैठा हुआ था। रसूख के चलते उसका तबादल कहीं नहीं होता था। विभाग के अधिकारियों को भी उसके खिलाफ शिकायत मिलती थी लेकिन कोई अधिकारी हाथ नहीं डालता था। इससे स्पष्ट है कि उसका विभाग में एक तरफा तूती बोलती थी। बताया जा रहा है कि पीडब्ल्यूडी में बिना उसके इशारे से एक काम भी नहीं होता था। जिस किसी को अपना काम विभाग में करवाना होता था सभी लोग केसरी से संपर्क करते थे। केसरी इतना शातिर था कि वह अपने ही विभाग के अधिकारियों को ब्लैकमेल करता रहता था। उसके इस आदत से विभाग का कोई बड़ा अधिकारी कोई कार्रवाई करने का साहस नहीं करता था। सूत्रों का कहना है कि वह अधिकारियों को खुले तौर पर धमकी देता था कि अगर उसका कोई काम नहीं करेंगे तो वह अधिकारियों की पोल खोल देगा। इसके डर से विभाग का कोई भी अधिकारी या कर्मचारी केसरी के खिलाफ कुछ भी कहने का साहस नहीं रखता था। अधिकारियों के साथ विभाग के कर्मचारी भी भ्रष्टाचार कर मोटी कमाई करने में पीछे नहीं हैं। दो साल पहले लोकायुक्त ने टाइम कीपर कृपाल सिंह के तिलक नगर स्थित घर पर दबिश दी, तो 14 मकान, 20 एकड़ जमीन सहित कुल 12 करोड़ रुपए की संपत्ति का खुलासा हुआ था। वहीं डेली वेजेस से अपना कैरियर शुरू करने वाले पीडब्ल्यूडी के सब-इंजनीयर की आर्थिक सेहत लोकायुक्त छापे से पता चल गई है और अब इस भ्रष्ट सब इंजीनियर की भागीदारी वाली दो फर्मों की पूरी कुंडली लोकायुक्त पुुलिस खंगालेगी। उल्लेखनीय है कि इंदौर के इन्द्रपुरी में पुलिस ने पीडब्ल्यूडी के इंजीनियर राजेंद्र शर्मा के फ्लैट पर छापा मारा था तो आय से अधिक सम्पत्ति के साथ कई चौंकाने वाली जानकारी सामने आई थी। अटलांटा और ओरा नामक दो बिल्डर कंपनियों में राजेंद्र शर्मा के पिता की 27 प्रतिशत भागीदारी पता चली थी। बताते हैं कि इस अटलांटा और ओरा ने श्रीनगरमेन, इन्द्रपुरी, विजयनगर सहित प्रमुख इलाकों में 10 से अधिक बहुमंजिला इमारतें और बंगले बनाए हैं। पिता के नाम पर भागीदारी लेकर राजेंद्र शर्मा इन सब मामलों को डील कर रहा था। उसने यह सब निवेश उस समय शुरू किया, जब वह पीडब्ल्यूडी से हटाया गया था। फिलहाल उसका लॉकर खुलना बाकी है, लॉकर से भी कुछ महत्वपूर्ण जानकरियां मिल सकती हैं। लोकायुक्त पुलिस के सूत्रों के मुताबिक पुलिस दल आज अटलांटा और ओरा के ऑफिसों, उनके प्रमुख कार्यस्थल पर जाएगा और पता लगाएगा कि कौन-सा प्रोजेक्ट कब शुरू हुआ, कितने में जमीन खरीदी गई, कितने फ्लैट बनाये गये, कितना प्राफिट हुआ, 27 फीसदी के हिसाब से शर्मा के हिस्से में कितना आया, इस पैसे का निवेश कहां किया गया। यह सब बातें जांच का हिस्सा होंगी। दागी सबसे अधिक शक्तिशाली पीडब्ल्यूडी ऐसा विभाग है जहां दागी सबसे अधिक शक्तिशाली हैं। इसका अंदाज इससे लगता है कि विभाग में जिन इंजीनियरों को अनियमितता के आरोप में निलंबित किया जाता है उन्हें कुछ दिनों बाद बहाल कर दिया जाता है। पीडब्ल्यूडी हरदा के कार्यपालन यंत्री आरसी सिरोले, एसडीओ बीआर जगदेव और सब इंजीनियर आरके जैन 12 फरवरी 2015 में निलंबित किया गया। उन पर प्रथमदृष्टया आरोप था कि चारूवा-डेडगांव-दामोदरपुरके काम में गंभीर अनियमितताएं की हैं। उसी दिन उन्हें निलंबित कर दिया था। इसके तीन महीने बाद ही तीनों अफसरों सिरोले को मुख्य अभियंता कार्यालय पश्चिम परिक्षेत्र इंदौर, जगदेव को अधीक्षण यंत्री कार्यालय मंडल इंदौर और जैन को अधीक्षण यंत्री मंडल कार्यालय उज्जैन में पदस्थ कर दिया गया है। सिंहस्थ में निर्माण कार्यों की कमान एक ऐसे इंजीनियर के हाथों में हैं, जो मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के गृह जिले सीहोर में घटिया सड़क निर्माण कराने का दोषी है। इस महाआयोजन में 600 करोड़ रुपए के निर्माण कार्यों की मॉनिटरिंग की जिम्मेदारी पीडब्ल्यूडी के कार्यपालन यंत्री पीजी केलकर हैं। उनके वेतन से 42 लाख रु की वसूली हो रही है। खासबात यह है कि जांच में केलकर दोषी साबित हुए। उन्हें दंडित तो किया, लेकिन उज्जैन से नहीं हटाया गया। घोटाले की वजह से केलकर की कई पदोन्नतियां और वेतन वृद्धि रोकी गईं। उज्जैन में पदस्थ करने के बाद विभाग ने उन्हें एक नोटिस जारी किया था कि मप्र सिविल सेवा नियम 1966 के नियम 10 एवं 16 के अंतर्गत केलकर पर अनुशासनात्मक कार्रवाई का निर्णय लिया गया है। इसमें लोकायुक्त के सर्कलर की अनदेखी भी की गई है। लोकायुक्त का एक सर्कुलर है, जिसमें कहा गया है कि भ्रष्टाचार के लिए दोषी किसी भी अफसर की फील्ड पोस्टिंग नहीं की जाए। लेकिन केलकर की उज्जैन में पोस्टिंग करने के दौरान इस सर्कलर को दरकिनार किया गया है। इस मामले में पीडब्ल्यूडी मंत्री सरताज सिंह का कहना है कि केलकर के खिलाफ कार्रवाई की गई है। लेकिन इस मामले की जांच उन्हें उज्जैन में पदस्थ किए जाने के बाद पूरी हुई थी। उन्हें उज्जैन से इसलिए भी नहीं हटाया गया, क्योंकि यहां उनके द्वारा कराए जा रहे किसी भी काम की अभी तक कोई शिकायत नहीं मिली है। सूत्रों की माने तो केलकर की उज्जैन में पोस्टिंग कराने में उज्जैन कलेक्टर कवींद्र कियावत की भूमिका बताई जा रही है। यह दावे इसलिए भी सही हो सकते हैं, क्योंकि केलकर ने घोटाला उस अवधि में किया, जब कियावत सीहोर कलेक्टर रहे। केलकर दो साल सीहोर में रहे। रीवा में 30 करोड़ का घपला रीवा में चोरहटा बायपास से रतहरा तक सड़क निर्माण और सौंदर्यीकरण के नाम पर व्यापक पैमाने पर घपला किए जाने का आरोप लगाया गया है। कांग्रेस विधायक सुंदरलाल तिवारी ने कहा कि उन्हें मिले दस्तावेजों के आधार पर अब तक 30 करोड़ रुपए के भुगतान में अनियमितता की गई है। एक ही कार्य को कई ठेकेदारों के नाम पर भुगतान किया गया है। राशि का बंदरबाट करने के लिए शासन की आधा दर्जन एजेंसियों ने इस मार्ग में रुपए खर्च किए हैं। उन्होंने कहा कि 14.40 किलोमीटर की इस सड़क के बारे में विधानसभा में सरकार ने पूरी जानकारी नहीं दी है। बीते छह वर्षों के अंतराल में पीडब्ल्यूडी ने 10.35 करोड़, राष्ट्रीय राजमार्ग परिक्षेत्र ने 9.95 करोड़, नगर निगम ने भी करीब दस करोड़ रुपए का भुगतान किया है। अभी कई कार्यों का भुगतान किया जाना बाकी है। नगर निगम ने वर्ष 2008 से अब तक इस मार्गमें 2.02 करोड़ रुपए का पौधरोपड़ करा दिया है जो कहीं पर भी नजर नहीं आ रहा। इसी तरह वन विभाग ने भी करीब 60 लाख रुपए चोरहटा से रतहरा के बीच पौधे लगाने में खर्च कर दिए। विधायक का आरोप है कि एक ही कार्य के लिए दो ठेकेदारों को भुगतान किया गया है। इस मार्गमें ब्रिज कार्पोरेशन ने चौराहों में रोटरी बनाया तो समान तिराहे का काम एमपीआरडीसी ने किया है। इस मार्ग में सड़क, नाली, डिवाइडर, सौंदर्यीकरण आदि कार्यों के लिए मेसर्स विजय शंकर मिश्रा, शांती कांस्ट्रक्शन, मे. अजीत सिंह, विजय कुमार द्विवेदी, मोहम्मद मकसूद, रमेश कुमार मंशानी, एबी कांस्ट्रक्शन एवं इंफ्रास्ट्रक्चर, गोपाल सिंह, रामसज्जन शुक्ला, श्रीजी कंस्ट्रक्शन आदि को अलग-अलग हिस्सों में कई बार काम देने और भुगतान किए जाने की जानकारी विधानसभा में दी गई है। ढह गये 100 करोड़ के पुल लोक निर्माण विभाग कितना गुणवतायुक्त निर्माण करवाता है इसका उदाहरण यह है कि 3 साल में करीब 100 करोड़ से अधिक की राशि से बने पुल ढह गए हैं। भिंड की क्वारी नदी, बेगमगंज के राहतगढ़, हरदा, बैतूल जिले में सारणी के पास राजडोह पर बने पुल, होशंगाबाद जिले के सिवनी-मालवा क्षेत्र में नर्मदा का निर्माणाधीन आंवलीघाट पुल इसके उदाहरण हैं। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता केके मिश्रा कहते हैं कि प्रदेश सड़कों का निर्माण करने वाली अधिकांश कंपनियां राजनैतिक परिवारों और रिश्तेदारों से संबद्ध हैं? समूचा लोक निर्माण विभाग भ्रष्टाचार की कर्मस्थली के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। वह कहते हैं कि जब मुख्यमंत्री और लोक निर्माण मंत्री के विधानसभा क्षेत्रों में ही भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी और गुणवत्ताविहीन निर्माण सामग्री उस पुल को लील गई, तब अन्य क्षेत्रों की भयावहता क्या होगी? मिश्रा कहते हैं कि वर्ष 2011-12 में राजमार्गों की मरम्मत हेतु केंद्र द्वारा आवंटित 43 करोड़ 74 लाख रूपयों में से राज्य के केवल 23 करोड़ 59 लाख रूपए ही खर्च कर पाया। वर्ष 2012-13 में भी 110 करोड़ रूपयों की आवंटित राशि में 89 करोड़ 84 लाख रूपए ही खर्च हो सके। राजमार्गों के अलावा वर्ष 2011-12 में आवंटित 1568 करोड़ रूपए में से सिर्फ 1288 करोड़ रूपये ही खर्च हुए। इसी प्रकार वर्ष 2012-13 में भी आवंटित 1628 करोड़ रूपए में से मात्र 930 करोड़ 43 लाख रूपये ही खर्च हो पाए? अशोकनगर, ग्वालियर, शिवपुरी और दमोह में बिना किसी निर्माण कार्य कराये ही उनके विभाग ने ठेकेदारों को भुगतान कर दिया। जिसमें 18 इंजीनियर और ठेकेदार फसे, किंतु उनके विरूद्व कोई असरकारक कार्यवाही नहीं हुई। निर्धारित मानको के अनुरूप लगभग 6 हजार किलोमीटर सड़कें और 500 पुल बह गये हैं। यही नहीं, राजधानी भोपाल में करीब 300 किलोमीटर के मुख्य मार्ग में 150 किलोमीटर सड़कें बह गई हैं। इन संकेततात्मक स्थितियों में तो यही कहा जा सकता है कि लोक निर्माण विभाग सड़कों की ऊपरी मरम्मत और मरहम-पट्टी करवाकर भ्रष्टाचार को दबा नहीं सकता है। मिश्रा कहते हैं कि कि पिछले 11 वर्षों में सरकार करीब 1 लाख किलोमीटर सड़कों के निर्माण का दावा तो कर रही है, किंतु प्रदेश में आज भी 7 हजार गांव सड़क विहीन हैं। सबसे भ्रष्टाचार वाला क्षेत्र सड़क निर्माण को शायद सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार वाले क्षेत्र के तौर पर देखा जाता है। यही वजह है कि सड़क निर्माण में गुणवत्ता को लेकर हमेशा संशय बना रहता है। यह आम है कि भारी राशि खर्च करके कोई सड़क तैयार की जाती है और बारिश या वाहनों के दबाव से कुछ ही समय बाद उसके टूटने की खबर आ जाती है। शायद इसी के मद्देनजर ग्रामीण विकास योजनाओं की प्रगति की समीक्षा करते हुए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत बनाई जा रही सड़कों की गुणवत्ता की सख्त निगरानी सुनिश्चित करने के लिए प्रधानमंत्री ने एक प्रभावशाली तंत्र स्थापित करने का निर्देश दिया। छिपी बात नहीं है कि सड़क निर्माण की निविदा निकलने से लेकर सामग्री की खरीद, निर्माण और रख-रखाव तक भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार पसरा हुआ है। पिछले आठ-दस सालों के दौरान देश भर में सड़कों का जाल बिछाने की कोशिश की गई, बहुत सारे दूरदराज के इलाकों को मुख्य सड़कों से जोड़ा गया। खासकर जब से प्रधानमंत्री सड़क निर्माण योजना की शुरुआत हुई, उसके बाद इस क्षेत्र में बड़ी कामयाबी हासिल हुई। लेकिन सवाल है कि इतने बड़े पैमाने पर सड़क निर्माण के साथ क्या गुणवत्ता का भी खयाल रखा गया? इसका अंदाजा सिर्फ इसी से लगाया जा सकता है कि कई जगहों पर महज दो-तीन साल पहले की बनी हुई सड़कों को भी आज इस कदर दुर्दशा में देखा जा सकता है कि उस पर सहज तरीके से वाहन न चल पाएं। जब भोपाल में सड़कें धंसकने से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है तो दूर-दराज इलाकों की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है। ऐसा इसलिए संभव होता है कि किसी खास दूरी में सड़क निर्माण के लिए सब कुछ नाप-तौल कर बजट बनाया जाता है, मानक तय किए जाते हैं और राशि जारी की जाती है। लेकिन संबंधित महकमे के अधिकारियों से लेकर निचले स्तर के ठेकेदार तक भ्रष्ट तरीके से इसी राशि में से हिस्सा बंटाने के फेर में इस बात का ख्याल रखना जरूरी नहीं समझते कि इसका सड़क की गुणवत्ता पर क्या असर पड़ेगा। बचे हुए पैसे में काम पूरा करने की कोशिश का नतीजा यह होता है कि जिस सड़क को बनाने में जितनी और जिस स्तर की सामग्री का उपयोग होना चाहिए उसमें कभी मामूली तो कभी ज्यादा कटौती कर दी जाती है। ऐसा शायद इसलिए हो पाता है कि राशि जारी करने से लेकर निर्माण की समूची प्रक्रिया के पूरा होने और फिर देखरेख पर निगरानी तंत्र की जवाबदेही सुनिश्चित नहीं है। ग्रामीण इलाकों में साधारण लोगों के बीच इस बात को लेकर जागरूकता कम है कि उनके उपयोग के लिए जो सड़क बनाई जा रही है, अगर वह तय मानकों के हिसाब से नहीं बनी है तो वे शिकायत करें। मगर अब तकनीक और संचार के बढ़ते दायरे के दौर में प्रधानमंत्री ने जिस अभिनव पहल की बात की है, उसके तहत 'मेरी सड़कÓ नामक ऐप के जरिए नागरिक शिकायतों के निवारण की भी व्यवस्था की जाएगी। जाहिर है, अगर सड़क निर्माण के क्षेत्र को भ्रष्टाचार और अनदेखी की समस्या से मुक्त करने के उपाय किए जा सके, तो यह जन-कल्याण के क्षेत्र में बड़ी कामयाबी होगी। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि सड़कें केवल सुगम आवाजाही का जरिया नहीं, बल्कि वे किसी इलाके से लेकर समूचे देश की अर्थव्यवस्था का सबसे मुख्य आधार होती हैं।

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