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भेड़ाघाट

Saturday, July 2, 2016

28,40,28,23,40,000 की वन भूमि हड़प ली रसूखदारों ने

30 साल में मप्र में 5,747 वर्ग किमी वन भूमि पर हुआ कब्जा
भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2015 में सामने आए तथ्य
भोपाल। यह आश्चर्यजनक लेकिन सत्य है कि मप्र में पिछले 30 साल में रसूखदारों ने 5,747 वर्ग किमी वन भूमि पर कब्जा जमा लिया है, जिसका न्यूनतम बाजार मूल्य करीब 28,40,28,23,40,000 रूपए है। इसका खुलासा हाल ही में प्रस्तुत भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2015 में हुआ है। इतनी वन भूमि को कब्जाने के लिए हजारों वन्य प्राणियों और पेड़ों की बलि दी गई है। सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि वन क्षेत्र में लगातार अतिक्रमण हो रहा है। इस कारण बाघ, हिरण, भालू, तेंदुआ आदि के शिकार के भी मामले बढ़े हैं, लेकिन सरकार के तरफ से इन्हें रोकने के लिए कोई कठोर कानून नहीं बनाए जा सके हैं। मप्र के बाद असम में 3,172 में वर्ग किमी, कर्नाटक में 1,872 वर्ग किमी, उड़ीसा में 785 वर्ग किमी और महाराष्ट्र में 670 वर्ग किमी वन भूमि पर अक्रिमण हुआ है। भारत वन स्थिति रिपोर्ट 2015 के अनुसार, अब भारत का वन 701,673 वर्ग किलोमीटर यानी 21.34 फीसदी क्षेत्र तक फैला है जबकि 29 वर्ष पहले यह 640,819 वर्ग किलोमीटर तक फैला था। यह वृद्धि का स्पष्टीकरण पेड़ों को लगाने, विशेष रुप से मोनोकल्चर के जरिए बताया गया है, जो परिवर्तित प्राकृतिक वनों का स्थान नहीं लेते हैं एवं और स्थायी रुप से खत्म हो रहे हैं। आंकड़ों के अनुसार 30 वर्षों में वनों के स्थान पर 23,716 औद्योगिक परियोजनाएं शुरु हुई हैं। यानी औद्योगिकरण, शहरीकरण और जंगलों में बढ़ती पर्यटन गतिविधियों के कारण देशभर के वनों में अतिक्रमण हो रहा है। इस कारण पिछले तीन दशकों में भारत के वन का 14,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र साफ कर दिया गया है। सबसे बड़ा क्षेत्र (4947 वर्ग किलोमीटर) खनन को दिया गया है। रक्षा परियोजनाओं को 1,549 वर्ग किलोमीटर और जल विद्युत परियोजनाओं के 1,351 वर्ग किमी क्षेत्र दिया गया है सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले 30 वर्षों में हरियाणा के करीब दो-तिहाई आकार के वन अतिक्रमण (15,000 वर्ग किलोमीटर) और औद्योगिक परियाजनाओं (14,000 वर्ग किमी) की भेंट चढ़ गए हैं और जैसा कि सरकार ने स्वीकार किया है कि कृत्रिम वन इनकी जगह नहीं ले सकते हैं। मप्र सबसे आसान क्षेत्र मध्यप्रदेश अपनी विविधता के लिए जाना-पहचाना जाता है। विकास और सामाजिक परिवर्तन के प्रयासों के संदर्भ में भी जितने प्रयोग और परीक्षण इस पदेश में हुए हैं; संभवत: इसी कारण इसे विकास की प्रयोगशाला कहा जाने लगा है। मध्यप्रदेश में राजस्व और वनभूमि के संदर्भ में भी विवाद ने नित नए रूप लिए हंै। और अफसोस की बात यह है कि यह विवाद सुलझने के बजाए उलझता जा रहा है। इस विषय को विवादित होने के कारण नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है। जंगलों का मामला सत्ता, पूंजी और सामुदायिक सशक्तिकरण के बीच एक त्रिकोण बनाता है। इतिहास बताता है कि प्राकृतिक संसाधनों (खासतौर पर जल और जंगल) के किनारों पर ही सभ्यतायें बसती और विकास करती हैं। जंगलों और नदियों के संरक्षण से ही प्रकृति का संतुलन बनता है किन्तु विकास की जिस परिभाषा का आज के दौर में राज्य पालन कर रहा है उससे सामाजिक असंतुलन के नए प्रतिमान खड़े हो रहे हैं। अत: यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि जंगल के सवाल का जवाब खोजने के लिए व्यापक प्रयास किए जाएं। उल्लेखनीय है कि देश के कुल वन क्षेत्र का 11 फीसदी यानी सबसे अधिक क्षेत्र मध्यप्रदेश में है। इसके बाद 10 फीसदी के साथ अरुणाचल प्रदेश दूसरा और 8 फीसदी के साथ छत्तीसगढ़ का तीसरा स्थान है। पूर्वोत्तर राज्यों के क्षेत्रफल का 70 फीसदी से अधिक हिस्से में वन फैला है, सिवाय असम के जहां 35 फीसदी में वन है। रिपोर्ट के अनुसार मप्र को अतिक्रमण, वनों की कटाई, वन्य प्राणियों के शिकार के लिए सबसे आसान क्षेत्र माना गया है। इसलिए देश में सर्वाधिक मामले मप्र में सामने आए है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, अरुणाचल प्रदेश ने पिछले 30 वर्षों में सबसे अधिक वन (3338 वर्ग किलोमीटर) का सफाया किया है। वहीं मध्य प्रदेश ने 2,477 वर्ग किलोमीटर और आंध्र प्रदेश ने 1,079 वर्ग किमी वन साफ कर दिया है। जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल गैर वन उपयोगों के लिए कम से कम वन भूमि जारी किया है। वन भूमि के भीतर कई परियोजनाओं की अनुमति दी जाती है एवं यह प्रक्रिया मानव और वन्य प्राणियों दोनों के जीवन के विघटनकारी है। सरकार के लेखा परीक्षक ने कहा है कि, जिसके तहत इन परियोजनाओं को वन भूमि दिए गए हैं, उनका व्यापक रुप से उल्लंघन हो रहा है और विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारी आंकड़े अनुमान के नीचे हैं। टी वी रामचंद्र, एसोसिएट फैक्लटी सेंटर फॉर इकोलोजिकल साइंस एवं बंगलौर स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के अनुसार सरकारी आंकड़े बहुत कम हैं। हमारे अध्ययन से पता चलता है, पिछले एक दशक में उत्तरी, मध्य और दक्षिणी पश्चिमी घाट में घने वन क्षेत्रों में 2.84 फीसदी, 4.38 फीसदी और 5.77 फीसदी की कमी हुई है। हाल ही में संसद ने बताया है कि वर्तमान में 25,000 हेक्टेयर तक जंगल 250 वर्ग किलोमीटर या चंडीगढ़ के क्षेत्र से दो गुना अधिक रक्षा परियोजनाओं, बांधों, खनन, बिजली संयंत्र, उद्योगों और सड़कों सहित गैर वानिकी गतिविधियों को सौंपा गया है। वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि प्रदेश सरकार की उदारता पूर्ण नीतियों के कारण वनों में लगातार घुसपैठ बढ़ रही है। मप्र के साढ़े चार लाख हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र पर अतिक्रमण है। यह आंकड़ा कम होने के बजाय बढ़ रहा है। जो जहां रह रहा है, उसे उस जमीन का मालिकाना हक दिया जाएगाÓ सरकार के मुखिया शिवराज सिंह चौहान के इस ऐलान के बाद कब्जे के मामले बढ़ गए हैं। बीते पांच साल में 16 हजार 518 हेक्टेयर वन क्षेत्र पर अतिक्रमण कर लिया गया। यह सरकारी आंकड़ा है। असल में यह दोगुना से ज्यादा है। प्रदेश का 3,08,245 वर्ग किलोमीटर भौगोलिक क्षेत्र हैं। इसमें करीब 31 फीसदी क्षेत्र (94668 वर्ग किमी) वन क्षेत्र है। वन विभाग खुश हो सकता है कि देश में सर्वाधिक वन क्षेत्र वाले पांच राज्यों में मध्यप्रदेश शामिल है, लेकिन इससे इतर लगातार वन क्षेत्र में अतिक्रमण तेजी से बढ़ रहा है। इसे रोक पाने में वन महकमा असहाय है। सूत्रों के मुताबिक, वर्ष 2010 से पहले सरकारी रिकॉर्ड में 4.37 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र में अतिक्रमण था। अब इसमें 16 हजार हेक्टेयर से अधिक की बढ़ोतरी हो गई है। वर्ष 2013 के बाद से इसमें ज्यादा वृद्धि हुई। वन विभाग के अनुसार राज्य सरकार ने जबसे जो जहां रह रहा है, उसे वहां का पट्टा देने की घोषणा की है, तब से नए अतिक्रमण के मामले बढ़ गए हैं। प्रदेश में अतिक्रमणकारियों के हौसले इतने बुलंद हैं कि उन्होंने नेशनल पार्कों तक को नहीं बख्शा। सर्वाधिक अतिक्रमण के मामले संजय टाइगर रिजर्व सीधी में सामने आए। यहां वर्ष 2010 से 2015 के बीच 268 हेक्टेयर में कब्जा कर लिया। पन्ना टाइगर रिजर्व में वर्ष 2014 में दस हेक्टेयर में अतिक्रमण किया गया, जबकि इससे पहले वर्ष 2011 और 2012 में विभाग ने अतिक्रमण की कोशिश करने पर 10 प्रकरण पंजीबद्ध किए थे। कुनो वन्य प्राणी वन मंडल श्योपुर में भी 12 हेक्टेयर और बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व एवं सतपुड़ा टाइगर रिजर्व में भी 5-5 हेक्टेयर में अतिक्रमण किया गया। प्रदेश के वनों पर बढ़ते जैविक दबाव, बढ़ती जनसंख्या तथा कृषि हेतु जमीन की बढ़ती भूख के कारण वन क्षेत्रों में अतिक्रमण एक गंभीर समस्या है। वर्तमान में संगठित एवं हिंसक अतिक्रमण के प्रयास भी हो रहे है। कई अशासकीय संगठनों द्वारा भी वन क्षेत्र में अतिक्रमण को प्रोत्साहित करने की घटनाएं भी प्रकाश में आई है। प्रदेश के वन क्षेत्र में लगातार भूमाफिया का कब्जा होने से वनों की हदें सिमटती नजर आ रही हैं। वन विभाग इस भूमि को अतिक्रमण से मुक्त नहीं करा पा रहा है। वन विभाग के मुताबिक मानव जीवन बैलेंस बनाए रखने के लिए प्रदेश में कम से कम 33 प्रतिशत जंगलों का होना आवश्यक है। लेकिन कब्जाधारियों द्वारा वनभूमि पर अतिक्रमण करने से वनों में 8.21 फीसदी वनभूमि की कमी आई है। जंगलों की कमी से जनजीवन एवं वन्यप्राणियों के लिए खतरे का संकेत है। जानकारी के अनुसार जंगलों का निरंतर दोहन होने से विपरीत प्रभाव पड़ेगा। इससे तरह-तरह की बीमारियां जैसे स्वांस, दमा आदि कई बीमारियों का लोग शिकार होंगे। साथ ही प्रदूषण भी तेजी फैलेगा जिससे वन्यप्राणी, मनुष्य प्रभावित होंगे। वनों को काटने से तापमान में परिवर्तन आएगा, इससे बाढ़, भूकंप जैसी आपदाओं की स्थिति बनेगी। आपदाओं की रोकथाम करने में जंगलों की अहम भूमिका होती है। यही नहीं गर्मियों के दिनों में तूफान एवं लू के हालात भी बनेंगी। इसके अलावा वनों प्राणवायु मिलती है वनों का निरंतर दोहन होने से प्राण वायु में भी कमी आएगी। प्रदेश में 32 ऐसे जिले हैं जो बाढ़ ग्रसित की श्रेणी में आते हैं। कम बारिश होने के बाद भी जहां बाढ़ आने की ज्यादा उम्मीद रहती हैं। इनमें उज्जैन, इंदौर, जबलपुर, रतलाम, मंडला, हरदा, गुना, होशंगाबाद सहित और भी जिले शामिल हैं। जो बाढ़ से प्रभावी क्षेत्रो की श्रेणी में आते हैं। इसके अलावा 28 जिले ऐसे हैं जो भूकंप तीव्रता की दृष्टि से जोन-3 और 22 जिले जोन-2 की श्रेणी में आते हैं। सरकार की दोहरी नीति घातक देश की भाति मध्यप्रदेश में भी जंगल और जंगल के अधिकार का सवाल उलझा दिया गया है। यहां उलझा दिया गया कहना इसलिए जरूरी हो जाता है क्योंकि हमेशा से जंगलों पर राज्य या सरकारी सत्ता का नियंत्रण नहीं रहा है। औद्योगिक क्रांति के दौर में ब्रिटिश हुकूमत को पहले पानी के जहाज बनाने और फिर रेल की पटरियां बिछाने के लिये लकड़ी की जरूरत पड़ी। इसी जरूरत को पूरा करने के लिए उन्होंने जंगलों में प्रवेश करना शुरू किया। जहां स्वायत्ता आदिवासी और वन क्षेत्रों में निवास करने वाले ग्रामीण समुदाय से आमना-सामना हुआ। इसके बाद विकास, खासतौर पर आर्थिक विकास के लिए जब संसाधनों की जरूरत पड़ी तब यह पता चला कि मूल्यवान धातुओं, महत्वपूर्ण रसायनों, जंगली वनस्पतियों, लकड़ी और खनिज पदार्थ ताते जंगलों से ही मिलेंगे। और फिर राजनैतिक सत्ता पर नियंत्रण करने की पद्धति अपनाई। वास्तव में अकूत प्राकृतिक संसाधनों का नियमन करने में कोई बुराई नहीं है किन्तु जंगलों के सम्बन्ध में जो कानून बने उनका मकसद समाज के एक खास तबके को लाभ पहुचाना रहा है और इसी भेदभावपूर्ण नजरिए के कारण आंतरिक संघर्ष की स्थिति निर्मित हुई। मध्य प्रदेश सरकार की भी ऐसी ही दोहरी नीति के कारण प्रदेश के जंगल तेजी से खत्म हो रहे हैं। एक तरफ तो सरकार जंगल बचाने और बढ़ाने के लिए हर साल करोड़ों रुपए खर्च कर रहे हैं वहीं दूसरी तरफ इन्हीं जंगलों में खदानों को अनुमति देकर राजस्व कमा रही हैं। सरकार की इस दोहरी नीति के कारण जंगल में माफिया हावी हो गया है। आलम यह है कि प्रदेश में पांच साल के अंदर 35590 हेक्टेयर जंगल की जमीन पर वैध रूप से खदानें खुद गई हैं तो माफियाओं ने सालभर में करीब 45,000 अवैध गड्ढे खोद डाले हैं। इतना ही नहीं इन गड्ढों से लाखों घन फुट पत्थर भी निकाला जा चुका है। आज स्थिति यह है कि प्रदेश के जंगल गंजे होते जा रहे हैं। वर्ष 1995 तक यहां प्रति हेक्टेयर 52 घनमीटर जंगल की जगह 2015 में 38 घनमीटर ही रह गया और एक अनुमान के मुताबिक वर्तमान में यह 35 घनमीटर हो गया है। प्रदेश के 95 लाख हेक्टेयर वन भूमि में से मात्र सात फीसदी वन ही ऐसे बचे हैं जिन्हें सघन जंगल की श्रेणी में शुमार किया जा सकता है। 50 लाख हेक्टेयर से ज्यादा वन भूमि पर वन के नाम पर सिर्फ बंजर जमीन या उजड़ा जंगल बचा है। सत्रह लाख हेक्टेयर वन भूमि तो बिल्कुल खत्म हो चुकी है। 38 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर दोबारा जंगल खड़ा करने के लिए 35 हजार करोड़ की रकम और बीस साल के वक्त की दरकार है लेकिन न तो रकम है और न इच्छाशक्ति। वन भूमि पर बढ़ते आबादी के दबाव के चलते जंगल तेजी से सिकुड़ रहे हैं। वनवासियों के जिले में जंगल न के बराबर वनवासियों के जिले झाबुआ में वन न के बराबर हैं। स्थिति ये है कि वन विभाग के पास वन क्षेत्र की जितनी जमीन है, उसमें से 70 प्रतिशत से ज्यादा वनविहीन है। वनों को बढ़ाने के सरकारी प्रयास नाकाफी साबित हुए। विभाग ने पिछले वर्षों में बड़े स्तर पर पौधारोपण किए, लेकिन इनमें से ज्यादातर काम राजस्व की भूमि पर हुआ। इसके अलावा कई जगह पौधे जीवित भी नहीं रह पाए। कुल मिलाकर जंगल बढ़ाने के सरकारी प्रयास नाकाफी हैं। झाबुआ के कुल क्षेत्रफल का 21.24 प्रतिशत क्षेत्र वन विभाग के पास वनभूमि के रूप में दर्ज है। ये क्षेत्र 734.953 वर्ग किलोमीटर है। इसमें से 70.36 प्रतिशत क्षेत्र ऐसा है, जो वनविहीन है यानी यहां न तो जंगली पेड़ हैं न जंगली जानवर। ये स्थिति काफी चौंकाने वाली है। ऐसा भी नहीं है कि बीते वर्षों में वनक्षेत्र में कोई खास कमी हुई हो। झाबुआ में बड़े वन नहीं होने से कटाई के बड़े मामले नहीं आए। फिर भी ये नहीं कहा जा सकता कि वनों की कटाई नहीं होती। कुछ वर्ष पहले वन कटाई को लेकर दो वनरक्षकों की हत्या का सनसनीखेज मामला हो चुका है। जिले में ये आंकड़ा आलीराजपुर जिले के अलग होने से अचानक बढ़ गया। आलीराजपुर में सघन वन क्षेत्र हैं और सम्मिलित जिला होने से ये प्रतिशत बेहतर था। हालांकि आलीराजपुर जिले में बड़े बांध प्रोजेक्ट के कारण वन क्षेत्र में कमी आई। इसके अलावा क_ीवाड़ा और उसके आसपास के क्षेत्र में वन कटाई के मामले सामने आते रहे हैं। मध्यप्रदेश का सिवनी जिला पर्यावरण की दृष्टि से समृद्ध जिला रहा है। परंतु वन विकास की गलत नीतियों के कारण वन विभाग द्वारा ही बड़ी मात्रा में वनों का विनाश कर दिया गया है। इस प्रक्रिया में विभिन्न किस्मों के मिश्रित वन क्षेत्र मिटाए गए हैं वहीं सागौन, यूकेलिप्ट्स, जेट्रोफा जैसे वृक्षों का रोपण कर दिया गया है। इससे न केवल वनों की जैवविविधता नष्ट हुई है अपितु स्थानीय वनवासियों की आजीविका का भी विनाश हुआ है। वनवासियों का कहना हैं कि वन विकास निगम द्वारा भारी मात्रा में मिश्रित प्रजाति के जंगलों को नष्ट कर दिया गया है। यदि वन विकास निगम को वनों से भगाया नहीं गया तो बचे खुचे जंगल भी खत्म होंगे व जैवविविधता का भारी विनाश होगा एवं स्थानीय पर्यावरण पर भी इसके विपरीत परिणाम पड़ेंगे। वन लोगों की आजीविका के साधन रहे हैं परंतु वन विभाग की स्थापना के साथ ही स्थानीय आबादियों की आजीविका पर विपरीत प्रभाव पड़े हैं और जंगल के लोगों की गरीबी बढ़ी है। इंडस्ट्री के लिए नीति बदलने की तैयारी देश में लगातार घट रहे वन क्षेत्रों की नाजुक स्थिति को देखते हुए यूपीए सरकार ने परियोजनाओं को मंजूरी देने में पर्यावरण के लिहाज से नाजुक वन क्षेत्रों को अलग रखने की नीति बनाई थी। अब मोदी सरकार ने इस पॉलिसी को बदलने का मन बना लिया है। इसके चलते कुछ हाई प्रोफाइल और मोटे निवेश वाले प्रॉजेक्ट्स की राह खुल सकती है, जो वन क्षेत्र से जुड़े नियमों का उल्लंघन होने की आशंका के कारण स्थगित थे। प्रकाश जावड़ेकर के नेतृत्व वाले पर्यावरण मंत्रालय के इस कदम से कम से कम 10 पर्सेंट लंबित प्रोजेक्ट्स की राह खुलेगी। इनमें मध्य प्रदेश में 24,000 करोड़ रुपये का रियो टिंटो का डायमंड माइनिंग प्रॉजेक्ट भी है। साथ ही, 800 में से करीब एक तिहाई कोल ब्लॉक्स को विकसित किया जा सकेगा। मामले की जानकारी रखने वाले अधिकारियों ने बताया कि पर्यावरण मंत्रालय परियोजनाओं के लिए स्वीकृत और अस्वीकृत वन क्षेत्रों का वर्गीकरण जारी नहीं करेगा। इस वर्गीकरण की पॉलिसी जयराम रमेश ने बनाई थी, जो यूपीए शासन में पर्यावरण मंत्री थे। इसका मकसद पर्यावरण के लिहाज से नाजुक कुछ वन क्षेत्रों को किसी भी तरह की कमर्शियल या माइनिंग एक्टिविटी की जद से पूरी तरह दूर रखना था। मोदी सरकार बनने के बाद एक अलग कमेटी से इस पॉलिसी का रिव्यू कराया गया और अगस्त 2015 में उसने रिपोर्ट दी थी। अधिकारियों का कहना है कि स्वीकृत और अस्वीकृत वन क्षेत्रों का नोटिफिकेशन जारी होने की गुंजाइश नहीं दिख रही है। अगर ऐसा नोटिफिकेशन नहीं आया तो अस्वीकृत वन क्षेत्रों में फंस सकने वाले प्रोजेक्ट्स पर काम शुरू हो सकता है। स्वीकृत और अस्वीकृत क्षेत्रों को नोटिफाई नहीं करने के निर्णय पर इस तथ्य से असर पड़ा है कि ऐसे वर्गीकरण के मसौदे में सामने आया था कि भारत के वन क्षेत्र का 10-11 पर्सेंट हिस्सा परियोजनाओं के लिए अस्वीकृत क्षेत्र के दायरे में आ जाएगा और कई बड़े प्रोजेक्ट इससे प्रभावित होंगे।एनडीए शासन ने इस संबंध में जिस क्लासिफिकेशन का प्रस्ताव किया था, उसमें यूपीए शासन की मूल योजना के मुकाबले इंडस्ट्रियल गतिविधियों के लिए ज्यादा वन क्षेत्र उपलब्ध हो जाता, लेकिन फिर भी कुछ बड़े प्रोजेक्ट्स फंस जाते। रियो टिंटो का प्रोजेक्ट भी फंस जाता। पर्यावरण मंत्रालय के तहत आने वाली वन सलाहकार समिति ने रियो टिंटो के मामले पर एक मीटिंग की थी और मध्य प्रदेश सरकार को प्रॉजेक्ट प्लान रिवाइज करने की सलाह दी गई थी। सरकार के सारे प्रयास कागजी उधर वनों की प्रभावी सुरक्षा हेतु क्षेत्रीय कर्मचारियों की गतिशीलता बढ़ाने हेतु केंद्र और राज्य सरकार ने जितने प्रयास किए हैं सारे विफल साबित हुए हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि वनों में लगातार अतिक्रमण और शिकार हो रहे हैं। वन क्षेत्रों में गस्त के लिए वाहन उपलब्ध कराए गए है। अतिसंवेदनशील वनक्षेत्रों में बीट व्यवस्था के स्थान पर सामूहिक गश्त हेतु वन चौकियों की स्थापना की गई है। वर्ष 2015 की स्थिति में 329 वन चौकियां कार्यरत हैं। प्रत्येक चौकी में गश्ती हेतु वाहन उपलब्ध है। परिक्षेत्र स्तर पर वन गश्ती एवं सुरक्षा हेतु वाहन अनुबंधित कर उपलब्ध कराये गये हैं। वन अपराधों पर नियंत्रण एवं त्वरित कार्यवाही हेतु प्रत्येक वन वृत्त में उडऩदस्ता दल कार्यरत है। उडऩदस्ता दल में पर्याप्त संख्या में वनकर्मी, शस्त्र एवं वाहन उपलब्ध हैं। ऐसे क्षेत्रों में जहां संगठित वन अपराधों की संभावना है, विशेष सशस्त्र बल की 3 कंपनियां भी तैनात की गई हैं। वर्ष 2015 में 1350 वन अपराधियों के विरूद्ध न्यायालय में प्रकरण प्रस्तुत किये गए तथा समस्त वन अपराधों में 2667 वाहन जप्त किए गए हैं जिसमें अवैध परिवहन में 1758 वाहन जप्त किए गए है। कर्तव्य के दौरान वन कर्मचारियां पर हमलें के 45 प्रकरण दर्ज हुए, जिसमें 48 कर्मचारी हमले में गम्भीर रूप से घायल हुआ। वर्ष 2015 में 3.57 करोड़ रूपए की राशि अभिसंधारित प्रकरणों में वसूल की गई। सरकार के ताजा आंकड़ों के अनुसार, 1980 से साफ हुए 14,000 वर्ग किलोमीटर वन में से 6770 वर्ग किलोमीटर में नए सिरे से लगाए गए हैं या वनरोपण किया गया है। अप्रैल 2016 में, सरकार ने संसद में स्वीकार किया है कि प्रतिपूरक वनीकरण प्राकृतिक वनों के लिए विकल्प नहीं हो सकता। सरकारी बयान में कहा गया है कि यथासमय में प्रतिपूरक वनीकरण का इस्तेमाल वन परिवर्तन के प्रभाव का नुकसान को कम करने के लिए किया जाता है। अजय कुमार सक्सेना, दिल्ली के सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वाइरन्मन्ट के कार्यक्रम प्रबंधक (वानिकी) कहते हैं कि, प्राकृतिक वन की हानि की क्षतिपूर्ति संभव नहीं है, कम से कम एक सदी तक तो नहीं। सक्सेना आगे कहते हैं कि एक वन में प्राकृतिक पोषक तत्व प्रक्रियाओं के साथ हजारों वनस्पतियों और जीव एक जटिल पारिस्थितिकी मिश्रण में रहती हैं जो कि मोनोकल्चर वृक्षारोपण द्वारा दोबारा पाया नहीं जा सकता है। वन भूमि का कानूनी परिवर्तन, अवैध कार्यों से बढ़ रहा है, मतलब कि कई लोग जिन्हें वन काटने की अनुमति मिल रही है, वह उन पर लगाए गए शर्तों का उल्लंघन करते हैं। 2013 की नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट कहती है कि परिवर्तन से संबंधित वन मंजूरी के कानूनों की निगरानी करने में पर्यावरण और वन मंत्रालय अपनी जिम्मेदारियों का उचित रूप से निर्वहन करने में विफल रहा है। कैग रिपोर्ट कहती है, हमारी राय में वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में निर्धारित दण्डात्मक खंड, अवैध और अनधिकृत प्रथाओं पर अंकुश डालने में काफी हद तक अपर्याप्त और अप्रभावी रहा है। पट्टों के अनधिकृत नवीकरण, अवैध खनन, खनन पट्टों निगरानी रिपोर्ट में प्रतिकूल टिप्पणी के बावजूद के बने रहना, परियोजनाओं के पर्यावरण मंजूरी के बिना काम करना, वन भूमि की स्थिति के अनधिकृत परिवर्तन एवं वानिकी मंजूरी के फैसले में मनमानेपन के कई उदाहरण देखे गए हैं। ठेकेदारों, राजनेताओं और कुछ वन विभाग के भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत इस स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं। कई जि़ले जहां गैर जिम्मेदार वन विचलन के साथ बड़े पैमाने पर वनों की कटाई हुई है, वहां पानी की कमी और खाद्य असुरक्षा देखी जा रही है। केवल 6 फीसदी क्षतिपूरक का इस्तेमाल एक सरकारी आंकड़े के अनुसार, विकास परियोजनाओं के लिए इस्तेमाल वन भूमि के पुन: निर्माण के लिए सरकारी कोष 6 वर्षों में कंपनियों और संस्थाओं द्वारा एकत्र की गई राशि का 6 फीसदी से अधिक इस्तेमाल नहीं किया गया है। यह एक स्पष्ट संकेत है कि किस प्रकार कानून का उल्लंघन किया जा रहा है एवं वनों के कटने के बाद, उनके पुन: निर्माण के लिए किए गए वादों की अनदेखी की जा रही है। यहां तक की वन भूमि के पुन: निर्माण के लिए निर्धारित राशि का दुरुपयोग भी किया गया है। राशि का एक-तिहाई हिस्सा गैर वृक्षारोपण गतिविधियों जैसे कि सांस्कृतिक गतिविधियों, कंप्यूटर, फर्नीचर, लैपटॉप, वाहन और ईंधन के लिए इस्तेमाल किया गया है। राज्यसभा में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, 10 मार्च 2015 तक, प्रतिपूरक वनीकरण कोष, 35,853 करोड़ रुपए थी। केंद्र द्वारा राज्यों को इस राशि में 20 फीसदी (7,298 करोड़ रुपए) से अधिक नहीं सौंपा गया है। और इसमें से 6 फीसदी (2,357 रुपय करोड़ रुपए) से अधिक प्रतिपूरक वनीकरण के लिए इस्तेमाल नहीं किया गया है। वनीकरण लक्ष्य हासिल करने में मप्र अव्वल सरकारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले 36 वर्षों में विकास के लिए परिवर्तित 14,000 वर्ग किलोमीटर वन भूमि में से करीब 6747 वर्ग किलोमीटर में वनरोपण किया गया है। मध्य प्रदेश में सबसे अधिक भूमि (1,601 वर्ग किमी) को पुनर्जीवित किया गया है। जबकि महाराष्ट्र (962 वर्ग किमी) दूसरे स्थान पर है। अन्य राज्यों में वनीकरण नगण्य है। मप्र में जनभागीदारी एवं क्षेत्रीय इकाईयों की सक्रियता से वन अपराधों पर नियंत्रण के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। विभाग द्वारा विगत पांंच वर्षों में पंजीबद्ध वन अपराध प्रकरणों का विवरण तालिका में दर्शित है : - मप्र में पांच साल के वन अपराधों का विवरण वन अपराध प्रकरण 2011 2012 2013 2014 2015 अवैध कटाई के प्रकरण 55699 54634 54011 52613 48988 अवैध चराई के प्रकरण 1325 1112 1031 877 933 अवैध परिवहन के प्रकरण 2282 2082 2239 2137 1968 अतिक्रमण प्रकरण संख्या 1479 2411 1699 1573 1658 नवीन प्रभावित क्षेत्र (हे.) 2010 4997 3679 3140 2622 अवैध उत्खनन प्रकरण संख्या 1014 758 1257 1186 986 प्रभावित क्षेत्र (हे.) 4357 3107 279 659 631 कुल पंजीबद्ध वन अपराध 66514 64910 62293 60411 56174 अवैध परिवहन मे जप्त वाहनों संख्या 1001 1592 1126 1295 1651 न्यायालय में प्रस्तुत प्रकरण 2110 2113 2885 3180 3227 वन अपराध में वसूल राशि (लाख में) 296.47 318.98 429.87 451.49 387.31 पर्यावरण एवं वनों की सुरक्षा की दृष्टि से काष्ठ के चिरान एवं व्यापार को लोकहित में विनियमन करने के लिये बनाये गये म0प्र0 काष्ठ चिरान अधिनियम 1984 के प्रावधानो का उल्लंघन करने पर दर्ज किये गये वन अपराध प्रकरण का विवरण तालिका में दर्शित है : - वन अपराधों का विवरण वर्ष 2011 2012 2013 2014 2015 प्रकरण संख्या 385 301 308 184 172

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