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भेड़ाघाट

Friday, October 21, 2011

रेत माफिया के कारण घडिय़ालों पर संकट




मध्य प्रदेश में खनिज और रेत माफियाओं के कारण वनों और नदियों के साथ ही जीवों का जीवन भी खतरे में पड़ गया है। प्रदेश में अब बाघों के बाद घडिय़ालों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है। हालात ऐसे बन गए हैं कि प्रदेश का एक और अभ्यारण्य समाप्त होने की कगार पर है. विंध्य क्षेत्र की सबसे बड़ी नदियों में शामिल की गई सोन नदी के तट पर बना घडिय़ाल अभ्यारण्य राज्य शासन की उपेक्षा और अनदेखी का शिकार बन चुका है. मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी. इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है. प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है. रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है.
सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य मध्य प्रदेश में सोन नदी की विविधता और प्राकृतिक सौन्दर्य को देखते हुए मध्य प्रदेश शासन के आदेश से 23 सितम्बर 1981 को स्थापित किया गया था. इस अभ्यारण्य का उद्घाटन प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह द्वारा 10 नवम्बर 1981 को किया गया था. अभ्यारण्य का कुल क्षेत्रफल 209.21 किमी का है. इसमें सीधी, सिंगरौली, सतना, शहडोल जिले में प्रवाहित होने वाली सोन नदी के साथ गोपद एवं बनास नदी का कुछ क्षेत्र भी शामिल है. सोन घडिय़ाल अभ्यारण्य नदियों के दोनों ओर 200 मीटर की परिधि समेत 418.42 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र संरक्षित घोषित है.उस समय के एक सर्वेक्षण के अनुसार इस क्षेत्र में मगरमच्छ और घडिय़ालों की कुल संख्या 13 बताई गई थी, जबकि वास्तविकता कुछ और थी. क्षेत्र में कार्यरत पर्यावरणविदों के अनुसार इस क्षेत्र में घडिय़ालों की संख्या लगातार कम होती जा रही है और उसका प्रमुख कारण सोन नदी के तट पर अनधिकृत रूप से कार्यरत रेत माफिया हैं.
रेत माफिया के अवैध संग्रहण के कारण मगरमच्छ और घडिय़ाल सोन नदी से करीब बसाहट वाले गांव में घुसकर जानवरों और ग्रामीणों को शिकार बना रहे हैं. जिला चिकित्सालय वैढऩ में पदस्थ चिकित्सक डॉ. आर.बी. सिंह के अनुसार प्रतिवर्ष 40 से 50 लोग घडिय़ालों के हमले का शिकार होकर यहां आते है, जिनमें से कुछ को तो बचा लिया जाता है पर कई लोग अकाल मौत का भी शिकार हो जाते हैं. रेत माफिया सोन नदी से अवैध रूप से उत्खनन करने के लिए नदी को लगातार खोदने का काम करता है, परिणामत: पानी में होने वाली लगातार हलचल के परिणाम स्वरूप घडिय़ालों के लिए निर्मित किए गये इस प्राकृतिक वातावरण में परिवर्तन आता है.
मध्य प्रदेश में विलुप्ति की कगार पर जा रहे घडिय़ाल, मगरमच्छों की दुर्लभ जलीय प्रजातियों के संरक्षण के लिए इस केंद्र की स्थापना की गई थी. इस अभ्यारण्य के लिए राज्य सरकार प्रतिवर्ष करोड़ों रूपए का बजट आवंटित करती है. प्रतिबंधित क्षेत्र में रेत माफिया द्वारा लगातार किया जा रहा अवैध उत्खनन राज्य शासन के स्थानीय अधिकारियों के लिए चिंता का विषय नहीं है. रेत माफिया स्थानीय अधिकारियों और नेताओं से ही पिछले दो वर्षों से सक्रिय है. सूत्रों की मानें तो भारत शासन द्वारा घडिय़ाल अभ्यारण्य में खर्च की जाने वाली राशि फर्जी बिल बाउचर्स के जरिए वन अधिकारियों एवं स्थानीय अधिकारियों के निजी खजाने में जा रही है. सोन नदी के जोगदाह पुल से कुछ आगे रेत का अवैध उत्खनन व्हील बना हुआ है, जहां से रेत माफिया इस क्षेत्र में पूरी तरह सक्रिय हैं.
सोन घडिय़ाल के प्रभारी संचालक ने बताया कि 200 किलोमीटर संरक्षित क्षेत्र के लिए केवल 13 सुरक्षाकर्मी उपलब्ध है. मगरमच्छ एवं घडिय़ालों की सुरक्षा के लिए प्रतिवर्ष 30 लाख रूपये का बजट आवंटित किया जाता है. अब तक तकरीबन 250 मगरमच्छ एवं घडिय़ालों के बच्चे संरक्षित क्षेत्र में छोड़े गए हैं, जिनकी संख्या अब लगभग 150 के करीब है. श्री वर्मा के अनुसार शीघ्र ही वैज्ञानिक सर्वे कराया जाना प्रस्तावित है, इसके बाद भिन्न प्रजातियां एवं उनकी वास्तविक संख्या का आंकलन किया जा सकेगा.वरना बाघों की तरह इनके दर्शन भी दुर्लभ हो जाएंगे.
उल्लेखनीय है कि चंबल सेंचुरी क्षेत्र में दिसंबर-2007 से जिस तेजी के साथ किसी अज्ञात बीमारी के कारण एक के बाद एक सैकड़ों की संख्या में डायनाशोर प्रजाति के इन घडिय़ालों की मौत हुई थी उसने समूचे विश्व समुदाय को चिंतित कर दिया था। ऐसा प्रतीत होने लगा था कि कहीं इस प्रजाति के घडिय़ाल किसी किताब का हिस्सा न बनकर रह जाएं। घडिय़ालों के बचाव के लिए तमाम अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं आगे आई और फ्रांस, अमेरिका सहित तमाम देशों के वन्य जीव विशेषज्ञों ने घडिय़ालों की मौत की वजह तलाशने के लिए तमाम शोध कर डाले। वन्य जीव प्रेमियों के लिए चंबल क्षेत्र से एक बड़ी खुशखबरी सामने आई है। किसी अज्ञात बीमारी के चलते बड़ी संख्या में हुई डायनाशोर प्रजाति के विलुप्तप्राय घडिय़ालों के कुनबे में सैकड़ों की संख्या में इजाफा हो गया है। अपने प्रजनन काल में घडिय़ालों के बच्चे जिस बड़ी संख्या में चंबल सेंचुरी क्षेत्र में नजर आ रहे हैं वहीं चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों की अनदेखी से घडिय़ालों के इन नवजात बच्चों को बचा पानी काफी कठिन प्रतीत हो रहा है।
घडिय़ालों की हैरत अंगेज तरीके से हुई मौतों में जहां वैज्ञानिकों के एक समुदाय ने इसे लीवर क्लोसिस बीमारी को एक वजह माना तो वहीं दूसरी ओर अन्य वैज्ञानिकों के समूह ने चंबल के पानी में प्रदूषण की बजह से घडिय़ालों की मौत को कारण माना। वहीं दबी जुबां से घडिय़ालों की मौत के लिए अवैध शिकार एवं घडिय़ालों की भूख को भी जिम्मेदार माना गया। घडिय़ालों की मौत की बजह तलाशने के लिए ही अंतर्राष्ट्रीय समुदाय ने करोड़ों रुपये व्यय कर घडिय़ालों की गतिविधियों को जानने के लिए उनके शरीर में ट्रांसमीटर प्रत्यारोपित किए।
घडिय़ालों के अस्तित्व पर संकट के प्रति चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारी लगातार अनदेखी करते रहे हैं। घडिय़ालों की मौत की खबर भी इन अधिकारियों को हरकत में नहीं ला सकी और अब जबकि घडिय़ालों के अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इटावा जनपद से गुजरने वाली चंबल में बड़ी संख्या में घडिय़ालों के बच्चों ने जन्म लिया है तो अभी तक इनकी सुरक्षा के लिए सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों ने कोई उपाय नहीं किए हैं। उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को जोडऩे वाली चंबल नदी में घडिय़ालों के बच्चों को नदी के किनारे बालू पर रेंगते हुए और नदी में अठखेलियां करते हुए आसानी से देखा जा सकता है। इतनी बड़ी संख्या में घडिय़ालों के प्रजनन के बारे में जानकर अंतर्राष्ट्रीय वन्य जीव प्रेमियों में उत्साह है तो वहीं इनकी सुरक्षा को लेकर चिंता भी जताई जा रही है। वन्य जीव प्रेमियों को आशंका है कि आने वाले दिनों में मानसून में चंबल के बढ़ते वेग में कहीं यह बच्चे बह कर मर न जाएं परंतु इसके बावजूद भी चंबल सेंचुरी क्षेत्र के अधिकारियों को इससे कोई सरोकार नहीं रह गया है।
नेचर कंजर्वेसन सोसायटी फार नेचर के सचिव एवं वन्य जीव विशेषज्ञ डा. राजीव चौहान बताते हैं कि पंद्रह जून तक घडिय़ालों के प्रजनन का समय होता है जो मानसून आने से आठ-दस दिन पूर्व तक रहता है। घडिय़ालों के प्रजनन का यह दौर ही घडिय़ालों के बच्चों के लिए काल के रुप में होता है क्योंकि बरसात में चंबल नदी का जलस्तर बढ़ जाता है। परिणामस्वरूप घडिय़ालों के बच्चे नदी के वेग में बहकर मर जाते हैं। इन बच्चों को बचाने के बारे में वह उपाय बताते हैं कि यदि इन बच्चों को कृत्रिम गर्भाधान केंद्र में संरक्षित कर तीन साल तक बचा लिया जाए तो इन बच्चों को फिर खतरे से टाला जा सकता है। वे कहते हैं कि महज दस फीसदी ही बच्चे बच पाते हैं जबकि 90 फीसदी बच्चों की पानी में बह जाने से मौत हो जाती है। वहीं डा.चौहान यह जानकर चौंकते हैं कि घडिय़ालों के बच्चों की संख्या हजारों में है। वह संभावना जताते हैं कि विगत दिनों इस प्रजाति को बचाने के लिए 840 बच्चों को नदी के ऊपरी हिस्से में छोड़ा गया था। कहीं ऐसा न हो कि यह वही बच्चे नीचे उतर आए हों परंतु नदी के तट पर जिस प्रकार से टूटे हुए अंडे नजर आते हैं उससे साफ है कि इन बच्चों ने अभी हाल ही में जन्म लिया है।

कैसे हुई संकट की शुरूआत?
देश मे दो घाटियां है,एक कश्मीर घाटी एवं एक चंबल घाटी। कश्मीर घाटी जहां आतंकवादियों के आंतक से ग्रस्त है। वहीं चंबल घाटी को खूंखार डकैतों की शरण स्थली के रूप मे दुनिया भर मे ख्याति हासिल है। इसी चंबल घाटी मे खूबसूरत नदी बहती है चंबल। जिसमें मगर, घडिय़ाल, कछुये, डाल्फिन समेत तमाम प्रजातियों के वन्यजीव स्वच्छंद विचरण करते है। इतना ही नहीं चंबल की खूबसूरती में चार-चांद लगाने के लिये हजारों की संख्या मे प्रवासी पक्षी भी आते है, लेकिन पिछले दिनो दुर्भल घडिय़ालों की मौत का जो सिलसिला शुरू हुआ वह अब डाल्फिन एवं मगर तक आ पहुंचा है। खूंखार डकैतों के खात्मे के बाद चंबल घाटी के वन्यजीवों पर जो संकट आया है। ऐसा लगता है कि खूंखार डकैतों के खात्मे के बाद सक्रिय अधिकारियों ने चंबल की खूबसूरती को दाग लगा दिया है। राजस्थान से प्रवाहित चंबल मध्य प्रदेश होते हुये उत्तर प्रदेश के इटावा के पंचनंदा तक इतनी खूबसूरत है जहां एक साथ मगर, डाल्फिन और घडिय़ाल रहते है और यहां हजारों की तादात मे घडिय़ाल मर रहे थे. उस समय यह आशंका भी व्यक्त की जा रही थी कि कहीं ऐसा तो कहीं ऐसा न हो कि चंबल की आने वाले दिनों मे खूबसूरती समाप्त हो जायें।
चंबल की खूबसूरती इसलिये भी बढ़ जाती है क्योकि यहां की रीजनल डायवर्सिटी अपने आप में खूबसूरत है। इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुन्दरता के कारण हजारो विदेशी पक्षी आते है, जिनकी 200 से अधिक प्रजातियां देखने को मिलती है। इसीलिए इस क्षेत्र को पक्षी अभयारण्य घोषित किया गया था. लेकिन इटावा मे पिछले साल दिसम्बर के पहले सप्ताह मे चंबल नदी मे घडिय़ालों के मरने की खबरो ने सनसनी फैला दी। हालांकि पूछने पर वन अधिकारियों ने इससे साफ इंकार किया कि किसी घडिय़ाल की मौत हुई है. लेकिन वन पर्यावरणीय संस्था सोसायटी फार कन्जरवेशन आफ नेचर के सचिव डा.राजीव चौहान ने इन मृत घडिय़ालों को खोज ही नही निकाला बल्कि वन अधिकारियों की उस करतूत को भी उजागर कर दिया जो उन्होने बेजुबान घडिय़ाल की मौत के बाद किया था।
अगर दुर्लभ घडिय़ालों, डाल्फिन एवं मगरों की मौत की बात करें तो कही न कही चंबल मे अधिकारियों का साम्राज्य हावी है और उन्हीं की यह करतूत है जो चंबल मे वन्यजीवो पर संकट आ खड़ा हुआ है। यह कब दूर होगा कुछ कहा नहीं जा सकता।
कभी इटावा में चंबल नदी से इसी तरह से एक सौ से अघिक घडियाल भटक कर यमुना और दूसरी नदियों में चले गए थे, जो आज तक वापस नहीं लौट सके हैं। इसका कोई जबाव ना तो वन अधिकारियों के पास है, और ना ही इस अभियान में लगे विषेशज्ञ इस बारे में जानकारी देने तैयार हो रहे हैं। इनमें तो कई मर भी गए, लेकिन वन विभाग आज तक नहीं चेता है। इस बात को तब बल मिलता है, जब यमुना नदी से एक मरा हुआ घडियाल मिला। उसके बारे में कहा जा रहा है कि मछली का शिकार करने वालों ने इसे मार कर फेंक दिया है। इलाकाई लोगों के साथ पर्यावरणविदों का भी यही मानना है। वन्य जीव विभाग ने अपने सर्वेक्षण में पाया कि चंबल नदी से पलायन कर यमुना नदी में पहुंचे 100 से अधिक घडियालों की जान अब शिकारियों के हाथ में हैं।
जिस तरह से चंबल के बजाय अब यमुना नदी से मरे हुए घडियाल बाहर निकल रहे हैं, उससे एक बार फिर से घडियालों की प्रजाति पर संकट सा आता नजर आ रहा है। यमुना नदी में मरे हुए घडियाल का परीक्षण करवा कर सैंपल बरेली स्थित आईबीआरआई लैब को भेज दिए गए हैं। अधिकारी घडियालों पर आने वाले हर प्रकार के संकट से निबटने के लिए तत्पर नजर आ रहे हैं। घडियाल को बचाने की दिशा में तमाम संगठन भी अधिकारियों के साथ सक्रिय नजर आ रहे हैं। इन सबके बावजूद, इतना तो तय है कि विलुप्त प्रजाति के इन घडियालों को बचाने की दिशा में चल रहा अभियान सही ढंग से काम नहीं कर रहा है, तभी तो घडियाल एक के बाद एक करके भटक रहे हैं।

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