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भेड़ाघाट

Tuesday, April 6, 2010

सिमट रहा 'दादाओं? का दायरा

पुलिस और अर्धसैनिक बलों के बढ़ते दबाव से माओवादी इस समय भारी मुश्किल में हैं। इसके बावजूद वे अपनी कमजोरी प्रकट न होने देने की रणनीति के तहत बस्तर के जंगल में रह-रह कर जहां-तहां बारूदी धमाके और हिंसक गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। माओवादियों के सामने सबसे बड़ी समस्या यह है कि अपनी ही सिद्धांतहीन हरकतों से छत्तीसगढ़ में उनकी बुनियाद खिसक रही है। बस्तर में उनका असली चेहरा इस कदर बेनकाब हो गया है कि खुद उनके कैडर के लोगों को अब यह महसूस हो रहा है कि माओवाद का कोई भविष्य नहीं है। हत्या, लूटपाट, ठेकेदारों से लेवी की वसूली और आदिवासी महिलाओं की इज्जत-आबरू बेखौफ लूटने की वजह से लोग उन्हें 'दादाÓ कहने लगे हैं। माओवादियों की ये हरकतें उनके कैडरों को ही सिद्धांतहीन लगती हैं। इन हरकतों की वजह से खुद उनके कैडर यह मानने लगे हैं कि माओवादियों और लुटेरों-अपराधियों के बीच फर्क करना उनके लिए अब मुश्किल हो रहा है। इस हकीकत से अवगत हो जाने के बाद उनके फौजी दस्ते के लोगों का माओवादियों से मोहभंग होने लगा है और वे हमेशा 'दादाÓ का साथ छोडऩेे की ताक में हैं। मौका पाकर कई लोग तो भाग भी चुके हैं उनके चंगुल से। दंतेवाड़ा के किरंदुल, बचेली, सुकमा, नकुलनार, कुआकोंडा, गादीरास, मोखपाल, मैलाबाड़ा, चंगावरम, कोर्रा, दोरनापाल, केरलापाल, कोंटा और जगरगुंडा के घने जंगलों में सीधे-सादे आदिवासियों से बातचीत करने के बाद पिछले दिनों यही हकीकत उभर कर सामने आई।
दंतेवाड़ा से सुकमा और फिर सुकमा से नेशनल हाइवे 221, जो आंध्रप्रदेश के भद्राचलम तक जाता है, यह बस्तर का एक महत्वपूर्ण नक्सल प्रभावित इलाका है। इस हाइवे की कुल लंबाई 329 किलोमीटर है। यह आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से शुरू होकर छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में आकर समाप्त होता है। छत्तीसगढ़ में इसकी कुल लंबाई 174 किलोमीटर है। इस नेशनल हाइवे के दोनों ओर घने जंगल हैं मगर यह सिर्फ कहने भर को नेशनल हाइवे है। एक वाहन गुजरने भर की इस सड़क की हालत जगह-जगह बहुत जर्जर है। इस इलाके के लोग कहते हैं कि माओवादियों ने इसे जगह-जगह खोद कर और लैंडमाइंस लगाकर बर्बाद कर दिया है। सरकार ने मिट्टी और पत्थर के टुकड़े भर कर इस हाइवे को बमुश्किल यातायात के काबिल बना तो जरूर दिया है मगर अब भी इस हाइवे से बेहतर कई जगह की ग्रामीण सड़कें हैं। लोगों का कहना है कि नेशनल हाइवे होने की वजह से न तो राज्य सरकार इस पर ध्यान दे रही है न ही केंद्र सरकार जबकि इस इलाके के विकास और माओवादियों पर काबू पाने के लिए इसका न सिर्फ दुरुस्त होना जरूरी है बल्कि इसे डबल लेन भी प्राथमिकता के आधार पर करना आवश्यक है। छत्तीसगढ़ को आंध्रप्रदेश से जोडऩे वाले इस नेशनल हाइवे पर दिन में माल से लदे ट्रकों की आवाजाही देखने को मिलती है। आंध्रप्रदेश, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ तक करखनिया माल और खनिज की ढुलाई के लिए यह सड़क बेहद जरूरी है इसलिए ट्रक चालकों के लिए इस हाइवे से गुजरना उनकी मजबूरी है। इस नेशनल हाइवे से उस इलाके के जंगली गांवों को जोडऩेे के लिए राज्य सरकार ने इसके दोनों ओर जहां-तहां सड़कों के निर्माण की योजना तो बनाई है, कई जगह कच्ची सड़कें बन भी गई हैं मगर उन सड़कों के कंक्रीटीकरण या डामरीकरण का काम नहीं हो पाया है। माओवादी नहीं चाहते कि वे सड़कें बनें क्योंकि सड़क बन जाने से आदिवासियों तक विकास की रोशनी पहुंच जाएगी और इस रोशनी में 'दादाÓ यानी माओवादियों के चेहरे बेनकाब हो जाएंगे।
बस्तर का यह वह इलाका है जहां माओवादियों ने अब तक सबसे अधिक हिंसा और रक्तपात किया है। इस नेशनल हाइवे के किनारे कुछ जगहों पर जैसे भूसारास और रामपुरम में सीआरपीएफ के कैंप हैं। पिछले दो साल में इस इलाके में माओवादियों पर पुलिस फोर्स का दबाव इतना बढ़ गया है कि दिन में इस हाइवे से गुजरना अब उतना खतरनाक नहीं रह गया। नकुलनार और गादीरास समेत कई जगहों पर साप्ताहिक बाजार लगे हुए मिले मगर शाम होने से दो घंटे पहले ही बाजार समाप्त हो गया। इसकी वजह यह है कि ग्रामीण सूरज ढ़लने से पहले सुरक्षित अपने गांव लौट जाना चाहते हैं। लोग सामान्य जिंदगी जीना तो चाहते हैं मगर 'दादाओंÓ का खौफ उनमें अब भी कायम है। हाइवे के किनारे कुछ गांवों के पास दो-एक जगह मुर्गों की लड़ाई के आयोजन भी दिखे। मनोरंजन के लिए आयोजित इस तमाशे में बड़ी संख्या में आदिवासी हाथ में दस-दस रुपए के नोट लिए उस मैदान को घेरे हुए इस में शिरकत करते दिखे जिसमें मुर्गे की लड़ाई चल रही थी। मतलब कि उस आदिवासी इलाके के लोग सामान्य जिंदगी जीना चाहते हैं, मनोरंजन करना चाहते हैं मगर 'दादाओंÓ यानी माओवादियों का खौफ अब भी उनके सिर पर नाच रहा है। अब से दो साल पहले ये ग्रामीण और आदिवासी इस इलाके में आसमान में सूरज के रहते न तो ढंग से बाजार कर सकते थे न ही मनोरंजन। लोगों को यह जो थोड़ी सी राहत मिली है वह 'दादाओंÓ पर पुलिस फोर्स के बढ़ते दबाव का प्रतिफल है। लोगों से बात करने पर यह बात साफ-साफ सामने आई कि इसी तरह पुलिस फोर्स का दबाव बना रहा तो दो साल में इस इलाके से माओवादियों का सफाया तय है और आदिवासियों में 'दादाओंÓ की दहशत खत्म हो जाएगी।
दरअसल केंद्र सरकार ने राज्य सरकारों के साथ समन्वय स्थापित कर पिछले कुछ महीनों में माओवादियों के खिलाफ जिस तरह संयुक्त अभियान चला रखा है उससे माओवादी भारी परेशान हैं। इसी परेशानी में वे अब अभियान रोकने के लिए केंद्र पर दबाव बना रहे हैं। केंद्रीय गृहमंत्री पी चिदंबरम को माओवादियों ने इसी तिलमिलाहट में हमले की धमकी भी दी है। माओवादी अपने उन बुद्धिजीवी कैडरों को भी इस काम में लगाए हुए हैं जो दिल्ली समेत अन्य शहरी इलाकों में मानवाधिकार की आड़ लेकर 'दादाओंÓ के खिलाफ जारी पुलिस कार्रवाई का विरोध कर रहे हैं। हार्डकोर माओवादियों को भी इस बात का अहसास अब होने लगा है कि उनके कैडर में शामिल आदिवासी युवकों और युवतियों को माओवाद के सपने दिखाकर बहुत दिनों तक संगठित रखना आगे चलकर अब मुश्किल नहीं तो आसान भी नहीं होगा। वे यह भलीभांति जानते हैं कि उनके हिंसक आतंक की वजह से जो आदिवासी अभी उनका विरोध नहीं कर रहे या चुप हैं वे कभी भी विरोध का झंडा उठा सकते हैं। यह स्थिति इसलिए उत्पन्न हुई है क्योंकि आदिवासी उनकी रंगदारी और दादागीरी से आजिज आ चुके हैं। इसीलिए अब वे उन्हें माओवादी की जगह 'दादाÓ कहते हैं। अच्छी-खासी संख्या में युवक और युवतियां माओवादी दस्ते से भाग भी चुके हैं। यात्रा के इस क्रम में जगरगुंडा के जंगली इलाके में ऐसी कई युवतियों से मुलाकात हुई। उनसे बातचीत में जो तथ्य सामने आए वे गरीबों और शोषितों के हित के लिए हिंसा और हथियारबंद माओवादियों की हकीकत खोलने के लिए काफी हैं।
छत्तीसगढ़- आंध्रपद्रेश की सीमा पर जगरगुंडा जंगल में पोरियम पोजे नाम की एक युवती का, जो पांच साल से ज्यादा वक्त से विजय दलम में सक्रिय है, कहना है कि माओवादी आंदोलन का कोई भविष्य नहीं है। पोजे लगभग तीस साल की युवती है जिसने 12 बोर की बंदूक थाम कर आधा दर्जन से अधिक माओवादी हमलों में उसने हिस्सा लिया। उसका साफ कहना है कि शुरू में वह माओवादियों के सिद्धांत से प्रभावित जरूर हुई। वे लोग एक दिन शाम में हमें घर से जबरन उठा कर ले गए थे। मगर पांच साल से भी अधिक दिनों तक इसमें सक्रिय रहने के बाद अब इस आंदोलन से उसका मोहभंग हो गया। उसे ऐसा लगा कि माओवादी लड़ाके सिद्धांत से भटक चुके हैं और वे अब लुटेरे और हत्यारे हो गए हैं। सिद्धांत से उनका अब कोई लेना-देना नहीं रह गया है। उसने कहा कि माओवादियों के संघर्ष को उसने बहुत करीब से देखा और समझा है। शोषितों पीडि़तों के कल्याण के नाम पर शुरू की गई यह हथियारबंद लड़ाई आतंक की राजनीति के रूप में तब्दील हो गई। 'दादाÓ लोग गांव- गांव में आतंक मचा रहे हैं। निर्दोष ग्रामीणों की सरेआम हत्या कर रहे हैं। इसलिए उसका इससे मोहभंग हो गया है। आतंक की इस राजनीति को वह हमेशा के लिए अलविदा कहने के लिए तैयार है। पोजे ने कहा-शुरू में दादाओं (माओवादियों) ने कहा कि वे लोग भारत सरकार का तख्तापलट कर अपना शासन कायम करेंगे। इस सरकार में उनका भला होने वाला नहीं है। अपना शासन होने पर वे गरीबों को जमीन, मकान व अनाज देंगे, रोजी-रोजगार देंगे। मगर दादाओं ने लेवी वसूली, लूटपाट और हत्याओं का सिलसिला जिस कदर चला रखा है उससे तो ऐसा लगता है कि इस आंदोलन का अब कोई भविष्य नहीं है, इससे गरीबों का कोई भला होने वाला नहीं है।
पोजे मुडिय़ा आदिवासी युवती है। वह हिंदी नहीं जानती। पिछले कुछ महीनों से वह मुख्य धारा में आने के लिए हिंदी बोलने- समझने की कोशिश कर रही है इसलिए वह टूटी-फूटी हिंदी ही बोल पाती है। उससे बात करने में एक दुभाषिए ने सहायता की। उसने साफ-साफ कहा कि 'दादाÓ बस्तर में लुटेरे बन गए हैं, हत्यारे बन गए हैँ, क्रांति के नाम पर वे निर्दोष लोगों की हत्याएं कर रहे हैं तथा व्यापारियों और अन्य लोगों से रंगदारी व लेवी वसूलते हैं। इतना ही नहीं वे दलम में शामिल महिलाओं और युवतियों का यौन शोषण करते हैं। उसने कहा वह इस बात की गवाह है और उसका यौन शोषण करने की भी कोशिश की गई .. इससे उसका मन 'दादाओंÓ के प्रति घृणा से भर गया। बड़े गुस्से में उसने कहा कि हत्यारे और लुटेरे जो काम करते हैं 'दादाÓ लोग भी तो वही सब कर रहे हैं.. फिर माओवादियों और लुटेरों व हत्यारों में क्या अंतर रह गया? पोजे कहती है कि पुलिस से उसे अब कोई डर नहीं लगता। वह अब भी अविवाहित है और अपने गांव लौट जाने का मन बना चुकी है। मौका मिलते ही कभी भी भाग निकलेगी। वह विवाह कर सामान्य जिंदगी जीना चाहती है। उसका कहना है कि हिंसा और आतंक की इस राजनीति का न तो कहीं अंत दिखता है, न ही कोई भविष्य। पोजे ने कहा-'दादाओंÓ का कहना है कि उनका जनाधार बढ़ रहा है जबकि उसका अनुभव है पुलिस के बढ़ते दबाव के कारण पिछले एक साल में 'दादाओंÓ पर न सिर्र्फ खतरा बढ़ा है बल्कि वे डर के मारे एक जंगल छोड़ दूसरे जंगल में पनाह लेते फिर रहे हैं। उसने कहा कि हकीकत यह है कि बस्तर में दिन पर दिन 'दादाओंÓ का दायरा सिमटता जा रहा है।

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