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भेड़ाघाट

Wednesday, June 30, 2010

महारानी पर भाजपा का जसवंत पहरा

जिन्ना की तारीफ में कसीदे पढऩे के बाद पार्टी से निकाले गए वरिष्ठ नेता जसवंत सिंह की नौ महीने बाद भाजपा में वापसी हो गई। जसवंत की वापसी में महत्वपूर्ण भूमिका भले ही लालकृष्ण आडवाणी ने निभाई है लेकिन इसकी मुख्य वजह बनी है राजस्थान की महारानी यानी वसुधरा राजे। बताया जाता है कि राजस्थान में भाजपा के कदावर नेता भौरवसिंह शेखावत के अवसान के बाद पार्टी आलाकमान को एक ऐसे दमदार नेता की खोज थी जो महारानी के प्रभाव और स्वभाव पर पहरा बिठा सके। पार्टी को इसके लिए जसवंत सिंह से बेहतर कोई दूसरा नेता दूर तक नजर नहीं आ रहा था।
राजस्थान में सात साल से भाजपा का पर्याय बनकर रहीं वसुंधरा को शीर्ष पर रहकर ही राजनीति करना आता है। उन्हें आदेश देना पसंद है, न की सुनना। हालांकि पार्टी अध्यक्ष नीतिन गडकरी ने उन्हें अपनी टीम में शामिल कर राजस्थान की राजनीति से अलग करने की शुरूआत तो कर दी है लेकिन महारानी की आदत पार्टी आलाकमान भली भांति जानते हैं,इस लिए जसवंत को वापस बुलाया गया है। वैसे देखा जाए तो गडकरी ने पार्टी अध्यक्ष बनने के साथ ही द्रोही नेताओं की पार्टी में वापसी की वकालत शुरू कर दी थी,जिसमें जसवंत सिंह और उमा भारती का नाम प्रमुखता से लिया जा रहा था।
जसवंत सिंह की भाजपा में वापसी से पार्टी को जहां एक अनुभवी नेता का साथ मिलेगा वहीं राजस्थान में वसुंधरा के वर्चस्व पर नकेल भी कसी रहेगी। महारानी कब मतवाली हो जाएं यह तो कोई नहीं जानता। क्योंकि जब पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने उनकी मर्जी के खिलाफ प्रदेशाध्यक्ष पद पर अरुण चतुर्वेदी को नियुक्त किया था तो उन्होंने अपने विकराल रूप का दर्शन करा दिया था। वसुंधरा ने यह तय कर लिया था कि चतुर्वेदी से उनकी पटरी नहीं बैठेगी। इससे पहले कि चतुर्वेदी उनके लिए कोई दिक्कत खड़ी करते, उन्हें हलकान करने के मकसद से पार्टी कार्यालय में दरबार लगाकर कार्यकर्ताओं और लोगों की समस्याएं सुनना शुरू कर दिया। वसुंधरा विरोधी खेमे ने इसकी रिपोर्ट तुरंत आलाकमान को भेज दी। वसुंधरा से पहले से ही नाराज चल रहे पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने इसे गंभीरता से लिया और वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष पद से इस्तीफा देकर दिल्ली तलब कर लिया। कल को कोई दिक्कत नहीं हो इसके लिए राजनाथ सिंह ने अपने इस फैसले पर लालकृष्ण आडवाणी, अरुण जेटली, जसवंत सिंह, रामलाल, गोपीनाथ मुंडे, श्योदान सिंह एवं बालआप्टे के अलावा संघ के वरिष्ठ प्रचारक मदनदास देवी और सुरेश सोनी की मुहर लगवा दी। वसुंधरा ने विधायकों की दिल्ली परेड करवाकर दबाव बनाने की कोशिश की, पर राजनाथ ने अपने फैसले को संसदीय बोर्ड से भी पास करवा लिया। संसदीय बोर्ड की बैठक के बाद महारानी को साफ संदेश दे दिया गया कि पद तो हर हाल में छोडऩा होगा।
पार्टी दफ्तर में दरबार लगाकर समानांतर संगठन चलाने की कोशिश करना ही वसुंधरा की विदाई की इकलौती वजह नहीं थी। दरअसल, राजस्थान की राजनीति से उन्हें रुख्सत करने की पटकथा तो काफी पहले ही लिख दी गई थी, बस उसके उपयुक्त रंगमंच तलाशा जा रहा था। 1987 के विधानसभा चुनावों में राजस्थान की राजनीति के भीष्म पितामहं भैरों सिंह शेखावत की पकड़कर राजनीति में आईं। इन चुनावों में धौलपुर से जीतने के बाद उन्होंने 1989 के आम चुनाव में झालावाड़ संसदीय सीट से अपनी किस्मत आजमाई और अच्छे अंतर से जीतने में सफल रहीं। वसुंधरा को झालावाड़ और झालावाड़ की जनता को वसुंधरा खूब रास आईं। उन्होंने लगातार पांच बार संसद में झालावाड़ की नुमाइंदगी की। इस दौरान केंद्र में अटल बिहारी सरकार में उन्हें राज्य मंत्री का ओहदा भी मिला। 2003 में भैरों सिंह शेखावत का उप राष्ट्रपति बनना वसुंधरा के लिए वरदान साबित हुआ। बाबोसा उन्हें अपना राजनीतिक वारिस बनाकर दिल्ली रवाना हो गए। वसुंधरा के खिलाफ पहली बार विरोध का स्वर इसी समय उठा। पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने उनकी नियुक्ति का विरोध किया, लेकिन ये विरोध व्यक्तिगत होने की बजाय सांकेतिक अधिक था। दरअसल, विरोध करने वाले नेता आरएसएस के चहेते भाजपाई दिग्गज थे जो शेखावत के जाने के बाद पार्टी की कमान संभालने के सपने देख रहे थे।
जिस समय में वसुंधरा ने राजस्थान में भाजपा की कमान संभाली थी उस समय राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। गहलोत के 1998 में प्रचंड बहुमत के साथ मुख्यमंत्री बनने के बाद भाजपा जीर्ण-शीर्ण अवस्था में पहुंच गई थी। चुनाव नजदीक आते ही टिकट चाहने वाले नेता जरूर सक्रिय हुए, लेकिन कार्यकर्ता अभी भी पार्टी से कटे हुए थे। कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने और भाजपा के पक्ष में जनसमर्थन जुटाने के लिए महारानी की परिवर्तन यात्रा बेहद सफल रही। राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो इस यात्रा के बाद ही वसुंधरा को इस बात का आभास हुआ कि वे अब राजनीति के सही ट्रेक पर हैं। महारानी की राजनीति करने की अपनी ही शैली है, एकदम रजवाड़ों की मानिंद। ना-नुकुर करने और ऑर्डर देने वालों को वे पसंद नहीं करती हैं। भैरों सिंह शेखावत से तनातनी इसी वजह से शुरू हुई।
2003 के विधानसभा चुनावों में शेखावत ने अपने समर्थकों के लिए दो दर्जन से ज्यादा टिकट मांगे तो महारानी ने हाथ खड़े कर दिए। उन्होंने अपनी मुताबिक टिकट दिए। परिणाम आए तो वसुंधरा ने इतिहास रच दिया। राजस्थान में भाजपा के लिए जो करिश्मा शेखावत सरीखे दिग्गज नहीं कर पाए, महारानी ने करके दिखाया। भाजपा को विधानसभा में पहली दफा पूर्ण बहुमत मिला। मुख्यमंत्री बनते ही जितने तेजी उनके उनके समर्थक बढ़े उसी तेजी उनके विरोधी एकजुट होते गए। बाबोसा का आशीर्वाद प्राप्त जसवंत सिंह के नेतृत्व में ये एकजुट होने लगे। इनमें से ज्यादातर नेता संघ की पृष्ठभूमि से थे, इसलिए संघ भी धीरे-धीरे महारानी के खिलाफ हो गया। भाजपा में संघ की नुमाइंदगी करने वाले संगठन मंत्री प्रकाश चंद्र और महारानी में हमेशा ही छत्तीस का आंकड़ा रहा। वसुंधरा विरोधी खेमे ने उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए हर संभव प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिली। मिलती भी कैसे, वसुंधरा को आडवाणी का वरदहस्त जो प्राप्त था। खैर विरोधी खेमा भी कहा मानने वाला था। उन्होंने वसुंधरा न सही उनके चहेते डॉ. महेश शर्मा को प्रदेशाध्यक्ष पद से हटवाकर ही दम लिया।
खैर, जैसे-तैसे कर मामला थमा कि विधानसभा चुनाव नजदीक आ गए। महारानी मन मुताबिक चुनाव की तैयारी नहीं कर पाईं। पूरे प्रचार अभियान में वे अकेली तो थीं ही, गहलोत के आक्रामक प्रचार के अलावा अपनी ही पार्टी के लोगों की ओर से उनके खिलाफ चलाए जा रहे अभियान को भी झेल रही थीं। खुद के कार्यकाल में हुए विकास कार्यों की दुहाई देने के बाद भी वे क्लोज फाइट में हारकर सत्ता से बाहर हो गईं।
यहीं से शुरू हुआ महारानी के अक्रामक तेवरों का प्रहार। जिसने राजस्थान की राजनीति में भूचाल ला दिया। अब जब सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा है तो आलाकमान चाह रहे हैं कि महारानी पर अंकुश लगाए रहना चाहिए,शायद यही कारण है कि जसवंत को पार्टी में वापस लाया गया है।

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