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भेड़ाघाट

Wednesday, June 30, 2010

गरीबों के देश में गरीब ढूंढेंगी सरकार

ग्रामीण विकास मंत्रालय नए मानकों के अनुरूप गरीबी रेखा के नीचे (बीपीएल) के परिवारों की गणना के लिए अगले महीने से 256 गांवों में एक पायलट परियोजना शुरू करेगा। सरकार ने इन मानकों को जनगणना 2011 के लिए स्वीकार किया है। ग्रामीण विकास मंत्रालय सचिव बीके सिन्हा बताते हैं कि सरकार में उच्च स्तर के लोग इस बात को लेकर काफी बेचैन हैं कि बीपीएल सूची में सुधार का काम पूरी शुद्धता के साथ हो, अकादमियों और स्वयंसेवकों सहित हर कोई इस काम में सहयोग कर रहा है। सही सूची बनने पर सरकार कल्याणकारी योजनाओं का लाभ वास्तविक गरीबों तक पहुंचा पाएगी और सरकार की 60 हजार करोड रुपए की खाद्य सब्सिडी का भी सही उपयोग हो पाएगा।
बीपीएल कार्ड के जरिये घर और राशन जैसे बहुत सारे लाभ दिए जाते हैं, लेकिन गलत लोग भी इन सब्सिडियों का फायदा उठा लेते हैं। इसके पीछे मुख्य वजह 2002 में हुई बीपीएल जनगणना 13 सूत्रीय विधि पर आधारित होना था। पिछले काफी समय से बीपीएल सूची की आलोचना हो रही थी और 2008 में इस सूची को तैयार करने के लिए गरीबों की पहचान की सही विधि के मानक तय करने के लिए एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया था। एनसी सक्सेना की अध्यक्षता वाली समिति ने सूची के अंतर्गत परिवारों को एक से 10 तक के ग्रेडिंग देने और इस सूची से समूहों को क्रमिक तौर पर बाहर करने और शामिल करने की सिफारिश की है। सूची में आदिम जनजातीय समूहों, ऐसे परिवार जिनमें परिवार को चलाने की जिम्मेदारी अकेली महिला पर हो, बिना घर वाले परिवार, बेसहारा परिवारों, अनुसूचित जाति में शामिल महादलित।
नए मानकों में ऐसे लोग जिनके पास जिले में प्रति परिवार औसत भूमि से दोगुनी भूमि (सिंचित या आंशिक सिंचित) या दोपहिया या तीन पहिया मोटर वाहन या फिर ट्रैक्टर, थ्रेसर और हार्वेस्टर जैसे कृषि उपकरण रखने वाले परिवार। आयकर भरने वाले और 10,000 रुपए से ज्यादा वेतन पाने वाले निजी क्षेत्रों के कर्मचारी और सरकारी क्षेत्र में पेंशन जैसी सुविधाएं पाने वाले कर्मचारियों को बीपीएल सूची से बाहर रखा जाएगा।
विश्व बैंक की एक नई रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक आर्थिक संकट ने विकासशील देशों में गरीबी उन्मूलन की रफ्तार को धीमा कर दिया है। लेकिन भारत में गरीब लोगों की संख्या में गिरावट आ रही है। विश्व बैंक समूह और अंतर्राष्टï्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक संकट के कारण सहास्त्राब्दी विकास लक्ष्य (एमडीजी) के कई प्रमुख क्षेत्रों में भी प्रगति प्रभावित हुई है। इन क्षेत्रों में भूख, बाल व मातृ स्वास्थ्य, लिंग समानता, स्वच्छ पेयजल की उपलब्धता और रोग नियंत्रण के क्षेत्र शामिल हैं।
'ग्लोबल मॉनिटरिंग रिपोर्ट 2010' द एमडीजी आफ्टर द क्राइसिस नामक रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक आर्थिक संकट दीर्घकालिक विकास लक्ष्यों को 2015 के आगे तक प्रभावित करता रहेगा।
इसके परिणामस्वरूप वर्ष 2015 तक 5.3 करोड़ लोग अति गरीबी में बने रहेंगे। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में प्रति दिन 1.25 डॉलर से कम पर गुजर बसर करने वाले लोगों की संख्या में कमी आने की उम्मीद है। वर्ष 1991 में ऐसे लोगों की संख्या 43.50 करोड़ थी। वर्ष 2015 में यह संख्या 29.50 करोड़ होने की संभावना है। भारत गणतंत्र है। भारतीय गण को शक्तिवान, ऊर्जावान बनाकर ही मेरा भारत महान की कल्पना को मूर्तरूप दिया जा सकता है। विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के मानदंड से देश के विकास को आगे बढाया जा सकता है लेकिन जब तक देश के विकास की प्रतिछाया देश की एक अरब दस करोड़ जनता के चेहरे पर मुस्कान के रूप में दृष्टिगोचर नहीं होती, विकास बेमानी रहेगा। एकांगी विकास से देश में असमानता, विषमता बढेगी। चंद परिवारों की संपन्नता, विषमता के सागर में टापू बनकर रह जावेगी। महात्मा गांधी ने ग्राम स्वराज की कल्पना दी थी। विनोबा भावे ने ग्राम दान आंदोलन चला कर समरसता पूर्ण समाज बनाने के लिए देशाटन किया। पं.दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद दर्शन का प्रवर्तन कर समाज में अंतिम कतार में खड़े अंतिम व्यक्ति को आगे बढाने के लिए मार्ग सुझाया। इन दीप स्तंभों के रोमांचकारी प्रकाश के बजाय जिस घोर आर्थिक उदारीकरण के मॉडल की आर्थिक नीतियों पर हम चल रहे हैं, उसका दुष्परिणाम सामने है। हद तो तब हो गई जब भारत सरकार ने कहा कि गरीब लोगों की संख्या का फिर से आंकलन करने पर पता चला है कि पहले लगाए गए अनुमान की तुलना में गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों की संख्या 10 करोड़ अधिक है। सरकारी आंकडों के अनुसार वर्ष 2004 में गरीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों की संख्या 27.5 प्रतिशत थी जो अब बढ़कर 37.2 प्रतिशत के करीब हो गई है। संयुक्त राष्ट्र अनुसार जिन लोगों को प्रतिदिन 1.25 डॉलर (लगभग 55 रुपए) से कम पर गुजारा करना पड़ रहा है वो गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। भारत सरकार उन लोगों को गरीबी रेखा से नीचे मानती है जिनको आवश्यक पोषक तत्वों की जरूरत के लिए कम से
'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ के होहल्ला से पहले, सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को याद कीजिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को 2 रुपए किलो की रियायती दर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने की बात कहता है। इसके बाद केन्द्र की यूपीए सरकार के 'राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियमÓ का मसौदा देखिए, जो गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती दर से महज 25 किलो खाद्यान्न की गारंटी ही देता है। मामला साफ है, मौजूदा खाद्य सुरक्षा का मसौदा तो सुप्रीम कोर्ट के आदेश को ही कतरने (गरीबों के लिए रियायती दर से 10 किलो खाद्यान्न में कमी) वाला है।
अहम सवाल यह भी है कि मौजूदा मसौदा अपने भीतर कितने लोगों को शामिल करेगा? इसके जवाब में जो भी आकड़े हैं, वो आपस में मिलकर भ्रम फैला रहे हैं।
अगर वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क देखा जाए तो जो परिवार रोजाना 1 यूएस डालर (मौजूदा विनियम दर के हिसाब से 45 रूपए) से कम कमाता है, वो गरीब है। भारत में कितने गरीब हैं, इसका पता लगाने के लिए जहां पीएमओ इकोनोमिकल एडवाईजरी कौंसिल की रिपोर्ट ने गरीबों की संख्या 370 मिलियन के आसपास बतलाई है, वहीं घरेलू आमदनी के आधार पर, सभी राज्य सरकारों के दावों का राष्ट्रीय योग किया जाए तो गरीब रेखा के नीचे 420 मिलियन लोगों की संख्या दिखाई देती है। यानि गरीबों को लेकर केन्द्र और राज्य सरकारों के अपने-अपने और अलग-अलग आकड़े हैं। इसके बावजूद गरीबों की संख्या का सही आंकलन करने की बजाय केन्द्र सरकार का यह मसौदा, केवल केन्द्र सरकार द्वारा बतलाये गए गरीबों को ही शामिल करेगा।
यहां अगर आप वर्ल्ड-बैंक की गरीबी का बेंचमार्क रोजाना 1 यूएस डालर से 2 यूएस डालर (45 रूपए से 90 रूपए) बढ़ाकर देंखे तो देश में गरीबों का आकड़ा 80 मिलियन तक पहुंच जाता है। यह आकड़ा यहां की कुल आबादी का तकरीबन 80त्न हिस्सा है। अब थोड़ा देशी संदर्भ में सोचिए, महज 1 यूएस डालर का फर्क है, जिसके कम पड़ जाने भर से आबादी के इतना भारी हिस्सा वोट देने भर का अधिकार तो पाता रहेगा, नहीं पा सकेगा तो भोजन का अधिकार।
केन्द्र सरकार ने 2010-11 में, भूख से मुकाबला करने के लिए 1.18 लाख करोड़ रूपए खर्च करने का वादा किया है। अगर यूपीए सरकार गरीबी रेखा के नीचे के हर भारतीय परिवार को रियायती तौर से 35 किलो खाद्यान्न दिये जाने पर विचार करती है तो उसे अपने बिल में अतिरिक्त 82,100 करोड़ रूपए का जोड़ लगाना होगा।
जब कभी देश को युद्ध या प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है तो हमारे देश के हुक्मरानों का दिल अचानक पसीज जाता है। उस दौरान के बुरे हालातों से निपटने के लिए बहुत सारा धन और राहत सुविधाओं को मुहैया कराया जाता है। मगर भूख की विपदा तो देश के कई बड़े इलाकों को खाती जा रही है। वैसे भी युद्ध और प्राकृतिक आपदाएं तो थोड़े समय के लिए आती हैं और जाती हैं, मगर भूख तो हमेशा तबाही मचाने वाली परेशानी है। इसलिए यह ज्यादा खतरनाक है। मगर सरकार है कि इतने बड़े खतरे के खिलाफ पर्याप्त मदद मुहैया कराने में कोई दिलचस्पी नहीं ले रही है।
भूख का यह अर्थशास्त्र न केवल हमारे सामाजिक ढ़ाचे के सामने एक बड़ी चुनौती है, बल्कि मानवता के लिए भी एक गंभीर खतरा है। जो मानवता को नए सिरे से समझने और उसे फिर से परिभाषित करने की ओर ले जा रहा है। उदाहरण के लिए, आज अगर भूखे माता-पिता भोजन की जुगाड़ में अपने बच्चों को बेच रहे हैं तो यह बड़ी अप्राकृतिक स्थिति है, जिसमें मानव अपनी मानवीयता में ही कटौती करके जीने को मजबूर हुआ है। यह दर्शाती है कि बुनियादी तौर पर भूख किस तरह से मानवीयता से जुड़ी हुई है। इसलिए क्यों न भूख को मिटाने के लिए यहां बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) की बजाय बीएचएल (मानवीय रेखा से नीचे) शब्द को उपयोग में लाया जाए ?

एक तरफ भूखा तो दूसरी तरफ पेटू वर्ग तो हर समाज में होता है। मगर भारत में इन दोनों वर्गों के बीच का अंतर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। एक ही अखबार के एक साईड में कुपोषण से बच्चों की मौत की काली हेडलाईन हैं तो उसी के दूसरी साईड में मोटापन कम करने वाले क्लिनिक और जिमखानों के रंगीन विज्ञापन होते हैं। भारत भी बड़ा अजीब देश है, जहां आबादी के एक बड़े भाग को भूखा रहना पड़ता है, वहीं डायबटीज, कोरोनरी और इसी तरह की अन्य

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